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भगवती सूत्र - श. ४ उ ९ नैरयिक ही नरक में जाता है। ७४५
में उत्पन्न नहीं होता है ।
एक
यहाँ से जो तिर्यञ्च या मनुष्य मर कर नरक में उत्पन्न होता है, उसकी तिर्यञ्च सम्बन्धी और मनुष्य सम्बन्धी आयु तो यहाँ समाप्त हो जाती है । उसके पास सिर्फ नरक की आयु ही बंधी हुई होती है । यहाँ से मर कर नरक में पहुँचते हुए मार्ग में जो एक दो आदि समय लगते हैं, वे उसी बंधी हुई नरकायु में से ही कम होते हैं । इस प्रकार वह जीव, मार्ग में जाते हुए ( वाटे बहते हुए ) भी नरकायु को ही भोगता है । जो नरकायु को भोगता है, वह नैरयिक है । इस कारण से यहाँ कहा गया है कि नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु अनैरयिक, नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता है ।
ऋसूत्र नय, वर्तमान पर्याय को कहता है, भूत और भविष्यत् काल की तरफ उसकी उदासीनता रहती है । इसलिए ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा यह कहना सर्वथा उचित ही हैं कि नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होता हैं, किन्तु अनैरयिक, नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता है । इसी तरह शेष दण्डकों के जीवों के सम्बन्ध में जानना चाहिए ।
प्रज्ञापना सूत्र के सत्तरहवें लेश्यापद का तीसरा उद्देशक कहाँ तक कहना चाहिए ? तो इसके लिए कहा गया है कि ज्ञान सम्बन्धी वर्णन तक कहना चाहिए। वह इस प्रकार है - 'हे भगवन् ! कृष्ण लेश्यावाला जीव कितने ज्ञानवाला होता है ? '
हे गौतम ! वह दो ज्ञानवाला, या तीन ज्ञानवाला, या चार ज्ञानवाला होता है । यदि दो ज्ञान होते हैं, तो मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते हैं । यदि तीन ज्ञान होते हैं, तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होते हैं, अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मनः पर्यायज्ञान होते हैं। यदि चार ज्ञान होते हैं, तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यायज्ञान होते हैं । इत्यादि जानना चाहिए ।
॥ इति चोथे शतक का नववां उद्देशक समाप्त ॥
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