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भगवती सूत्र-श. ५ उ. ४ केवली का असीम ज्ञान
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भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या केवली भगवान् आदानों (इन्द्रियों) द्वारा जानते और देखते हैं ?
३४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
३५ प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि केवली भगवान् इन्द्रियों द्वारा नहीं जानते और नहीं देखते हैं ?
___३५ उत्तर-हे गौतम ! केवली भगवान् पूर्व दिशा में मित भी जानते देखते हैं और अमित भी जानते देखते हैं। यावत् केवली भगवान् का दर्शन, आवरण रहित है । इसलिये वे इन्द्रियों द्वारा नहीं जानते और नहीं देखते हैं।
विवेचन-इस के आग के सूत्रों में केवली के सम्बन्ध में ही कथन किया गया है। शैलेशी अवस्था के समय जिन कर्मों का अनुभव होता है, उनको 'चरमकर्म' कहते हैं । और उसके अनन्तर समय में जो कर्म जीव प्रदेशों से झड़ जाते हैं उन्हें 'निर्जरा' कहते हैं।
वैमानिक देवों के दो भेद कहे गये हैं। उनमें से मायोमिथ्यादृष्टि नहीं जानते हैं । अमायीसम्यग्दृष्टि के अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक इन दो भेदों में से अनन्तरोपपत्रक . नहीं जानते हैं । परम्परोपपन्नक के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद. हैं । अपर्याप्त नहीं जानते हैं । पर्याप्त के दो भेद हैं । उपयुक्त (उपयोग सहित) और अनुपयुक्त (उपयोग रहित) इस में अनुपयुक्त तो नहीं जानते, किन्तु उपयुक्त जानते हैं।
__ अनुत्तरौपपातिक देव, अपने स्थान पर रहे हुए ही यहाँ से केवली भगवान् द्वारा दिये हुए उत्तर को जानते और देखते हैं । इसका कारण यह है कि उन्हें अनन्त मनोद्रव्य वर्गणाएँ लब्ध, प्राप्त और अभिसमन्वागत है । उनके अवधिज्ञान का विषय सम्भिन्न लोक नाड़ी (लोकनाड़ी से कुछ कम) है । जो अवधिज्ञान, लोकनाड़ी का ग्राहक (जाननेवाला) होता है, वह मनोवर्गणा का ग्राहक होता ही है । क्योंकि जिस अवधिज्ञान का विषय लोक का संख्येय भाग होता है, वह अवधिज्ञान भी मनोद्रव्य का ग्राहक होता है, तो फिर जिस अवधिज्ञान का विषय सम्भिन्न लोकनाड़ी है, वह अवधिज्ञान मनोद्रव्य का ग्राहक हो, इस में कहना ही क्या? जिस अवधिज्ञान का विषय लोक का संख्येय भाग होता है, वह मनो. द्रव्य का ग्राहक होता है । यह बात इष्ट भी है । कहा भी है
'संखेज्जमणोदव्वे भागो लोगपलियस्स बोद्धव्यो अर्थ-लोक के और पल्योपम के संख्येय भाग को जाननेवाला अवधिज्ञान, मनोद्रव्य
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