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भगवती सूत्र - श. ५ उ ६ अल्पायु और दीर्घायु का कारण
इत्ता, णो मुसं वइत्ता, तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण- पाणखाइम साइमेणं पडिला भेत्ता; एवं खलु जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ।
कठिन शब्दार्थ - अप्पाउयत्ताए - अल्प आयुष्य रूप, अफासुएणं- अप्रासुक - जो प्रासुकजीव रहित नहीं है, अणेसणिज्जेणं-जो कल्पनीय - निर्दोष नहीं है, पडिलामेत्ता - पंच महाव्रत धारी मुनियों को बहरा कर दान देकर, दीहाउयत्ताए - दीर्घ आयुष्य रूप से, पाणेअइवाइता - प्राणियों को मारने से ।
भावार्थ - - १ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव, अल्पायु फल वाले कर्म कैसे बांधते
हैं ?
१ उत्तर - हे गौतम! तीन कारणों से जीव, अल्पायु फल वाले कर्म बांधते हैं । यथा - प्राणियों की हिंसा करने से, झूठ बोलने से और तथारूप ( साधु के अनुरूप क्रिया और वेश आदि से युक्त दान के पात्र ) श्रमण (साधु) माहण ( श्रावक ) को अप्रासुक, अनेषणीय (अकल्पनीय ) अशन, पान, खादिम स्वादिम देने से जीव, अल्पायु फल वाले कर्म बांधते हैं ।
२ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव दीर्घायु फल वाले कर्म किन कारणों से बांधते हैं ?
२ उत्तर - हे गौतम ! तीन कारणों से जीव, दीर्घायु फल वाले कर्म बांधते हैं । यथा - प्राणियों की हिंसा न करने से, झूठ नहीं बोलने से और तथा-रूप श्रमण माहण को प्रासुक एषणीय अशन पान खादिम और स्वादिम बहराने से। इन तीन कारणों से जीव दीर्घायु फल वाले कर्म बांधते हैं ।
विवेचन - पांचवे उद्देशक में कर्म वेदना का कथन किया गया है। अब इस छठे उद्देशक में कर्म बंध के कारणों का कथन किया जाता है ।
यहां अल्प आयुबंध के कारण बतलाये गये हैं । यह अल्प आयु, दीर्घं आयु की अपेक्षा से समझनी चाहिये । किन्तु क्षुल्लक-भव ग्रहण रूप निगोद की आयु नहीं । प्रासुक और एषणीय आहार आदि लेने वाले मुनि को अप्रासुक और अनैषणीय आहारादि देने से जो
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