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भगवती सूत्र-श. ५ उ. ३ आयुष्य सहित गति
समान परस्पर संलग्न हैं । इसलिये एक जीव दो भव का आयुष्य वेदता है ।
भगवान् ने फरमाया कि अन्यतीथियों का उपरोक्त कथन मिथ्या है । आयुष्य के लिये अनेक जीवों के एक साथ तथा एक जीव के एक साथ दो आयुष्य वेदन के लिय उन्होंने जो जालग्रन्थि का दृष्टान्त दिया है, वह अयुक्त है। क्योंकि यदि आयुष्य को जालग्रन्थि के समान माना जाय तो अनेक जीवों का आयुष्य एक साथ रहने का प्रसंग आयेगा. जो कि बाधित है। तथा जैसे एक जाल के साथ अनेक ग्रन्थियाँ है. उसी तरह एक जीव के साथ अनेक भवों के आयुष्य का सम्बन्ध होने से अनेक गति के वेदन का प्रसंग आवेगा । किन्तु यह भी प्रत्यक्ष से बाधित है । इसी प्रकार दो भव का आयुष्य का वेदन भानने से दो भवों को भोगने का भी प्रसंग आवेगा। किन्तु यह भी प्रत्यक्ष बाधित है। इसलिये एक जीव एक समय में दो भव का आयुष्य का वेदन करता है, यह मान्यता मिथ्या है। आयुष्य के लिये जालग्रंथि का जो दृष्टान्त है, वह केवल शृंखला (सांकल) रूप समझना चाहिए। जिस प्रकार शृंखला की कड़ियाँ परस्पर संलग्न हैं, उसी तरह एक भव के आयुष्य के साथ दूसरे भव का आयष्य प्रतिबद्ध है और उसके साथ तीसरे चौथे आदि भवों का आयुष्य क्रमशः प्रतिबद्ध है । इस तरह भूतकालीन हजारों आयुष्य मात्र सांकल के समान सम्बन्धित है। तात्पर्य यह है कि एक के बाद दूसरे आयुष्य का वेदन होता जाता है। परन्तु एक ही भव में अनेक आयुष्य प्रतिबद्ध नहीं है। अतः एक जीव, एक समय में एक ही आयुष्य का वेदन करता है अर्थात् इस भव के आयुष्य का वेदन करता है अथवा पर भव के आयुष्य का वेदन करता है।
आयुष्य सहित गति २ प्रश्न-जीवे णं भंते ! जे भविए गैरइएसु उववजित्तए से णं किं साउए संकमइ ? णिराउए संकमइ ? ।
२ उत्तर-गोयमा ! साउए संकमइ, णो णिराउए संकमइ । ३ प्रश्न-से णं भंते ! आउए कहिं कडे, कहिं समाइण्णे ? ३ उत्तर-गोयमा ! पुरिमे भवे कडे, पुरिमे भवे समाइण्णे;
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