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भगवती सूत्र-या. ४ उ. १० लेय्या का परिवर्तन
संक्लिष्ट', उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाहना, वर्गणा, स्थान और अल्पबहुत्व । ये सारी बातें लेश्याओं के विषय में कहनी चाहिए।
हे भगवन ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर यावत गौतम स्वामी विचरते हैं । - विवेचन-नववे उद्देशक के अन्त में लेश्या का कथन किया गया है। इसलिए अब इस दसवें उद्देशक में भी लेश्या के सम्बन्ध में ही कहा जाता है । लेश्या के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न के उत्तर में प्रजापना सूत्र के सतरहवें लेश्यापद के चौथे उद्देशक का अतिदेश किया गया है। जिसका आशय इस प्रकार है
हे भगवन् ! क्या कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या को प्राप्त होकर नद्रूप, तद्वर्ण, तद्गन्ध, नद्रस और तत्स्पर्श रूप मे बारम्बार परिणमती है ?
उत्तर-हाँ गौतम ! कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या को प्राप्त करके तद्रूप यावत् नत्स्पर्ग पने वारम्बार परिणमती है ।
इसका तात्पर्य यह है कि कृष्ण-लेश्या के परिणाम वाला जीव, नील-लेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करके मरण को प्राप्त होता है, तब वह नील लेश्या के परिणाम वाला होकर उत्पन्न होता है, क्योंकि कहा है
"जल्लेसाई दवाइं परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसे उववज्जइ"
अर्थ-जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव, मृत्यु को प्राप्त होता है, उसी लेश्या वाला होकर दूसरे स्थान में उत्पन्न होता है । जो कारण होता है, वहीं संयोगवश कार्यरूप बन जाता है । जैसे कि कारण रूप मिट्टी, साधन संयोग से कार्यरूप (घटादि रूप) बन जाती है, उसी तरह कृष्ण-लेश्या भी कालान्तर में साधन-संयोगों को प्राप्त कर नील-लेश्या के रूप में बदल जाती है । कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या रूप में बदलने से इन दोनों में वास्तविक भेद नहीं है, किन्तु औपचारिक भेद है।
प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्ण-लेश्या, नील-लेश्या को प्राप्त करके तद्प यावत् तत्स्पर्श रूप से परिणमती है । इसका क्या कारण है ?
उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार दूध को छाछ का संयोग मिलने से वह मधुरादि गुणों को छोड़ कर छाछ के रूप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रूप में परिणत हो जाता है, । उसी तरह हे गौतम ! कृष्ण-लेश्या भी नील-लेश्या को प्राप्त करके तद्रूप यावत् तत्स्पर्श
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