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भगवतीं सूत्र-श. ३ उ. ८ देवेन्द्र
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हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
विवेचन-वैश्रमण देव के विवेचन में धन, धान्य और उनके भण्डारों का वर्णन किया गया है। तीर्थङ्कर भगवान् के जन्म आदि प्रसंगों पर आकाश से जो धनवृष्टि होती है, उसे 'वसुधारा' कहते हैं । चाँदी को अथवा बिना घड़े हुए सोने को 'हिरण्य कहते हैं । झरमर झरमर बरसता हुआ पानी 'वर्षा' कहलाता है और वेगपूर्वक बरसता हुआ पानी 'वृष्टि' कहलाता है । जिस समय में भिक्षुओं को भिक्षा सरलता से मिल जाती है। उसे 'सुभिक्ष' और इससे विपरीत 'दुभिक्ष' कहलाता है । घी, गुड़ आदि के संग्रह को 'सन्निधि' और धान्य के संग्रह को 'संनिचय' कहते हैं । जो धन जमीन में गाढ़ा हुआ है, जिसको बहुत समय हो गया है, जिसका कोई स्वामी नहीं है, अथवा जिसका स्वामी मर गया है और यहाँ तक कि उसके नाम, गोत्र भी समाप्त हो गये हैं और सगे सम्बन्धी तथा उनका घर बार भी नही रहा है, ऐसे धन भण्डार जो श्मशानगृह. यावत् गिरि-गुफा, शान्तिगृह आदि में गाढ़ा हुआ है, अथवा इसी प्रकार के जितने भी धन-भण्डार हैं, वे सब वैश्रमण देव और वैश्रमण-कायिक देवों से अज्ञात आदि नहीं हैं।
॥ इति तीसरे शतक का सातवां उद्देशक समाप्त ॥
शतक ३ उद्देशक ८
देवेन्द्र ... १ प्रश्न-रायगिहें णयरे जाव-पज्जुवासमाणे एवं वयासी-असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं कइ देवा आहेवच्चं जाव-विहरंति ?
१ उत्तर-गोयमा ! दस देवा आहेवच्चं जाव-विहरति । तं जहा-चमरे असुरिंदे, असुरराया; सोमे, जमे, वरुणे, वेसमणे; बली
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