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भगवती सूत्र-श. ३ उ. ६ सम्यग्दृष्टि अनगार की विकुर्वणा -
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१४ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार दूसरा आलापक भी कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके वह साधु, उस प्रकार के रूपों की विकुर्वणा कर सकता है।
१५ प्रश्न-हे भगवन् ! वह भावितात्मा अनगार, कितने ग्राम रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ?
१५ उत्तर-हे गौतम ! युवति युवा के दृष्टान्त से पहले कहे अनुसार सारा वर्णन जान लेना चाहिये । अर्थात् वह इस प्रकार के रूपों से सम्पूर्ण एक जम्बूद्वीप को ठसाठस भर देता है । यह उसका मात्र विषय सामर्थ्य है । इसी तरह से यावत् सन्निवेश रूपों पर्यन्त कहना चाहिये।
विवेचन-पांचवें उद्देशक के समान इस छठे उद्देशक में भी विकुर्वणा सम्बन्धी कथन किया गया है। यहाँ पर अन्यमतावलम्बी साधु के विषय में कथन किया गया है। अतएव घर बार आदि का त्यागी होने से उसे अनगार तथा उसके (अन्यमत के) शास्त्र में कहे हुए शम, दम आदि नियमों को धारण करने वाला होने से भावितात्मा कहा गया है। वह मायी अर्थात् क्रोधादि कषाय वाला है और मिथ्यादृष्टि है । वह वीर्यलब्धि आदि से विकुर्वणा करता है। राजगृह नगर में रहा हुआ वह वाणारसी नगरी की विकुर्वणा करके राजगृह के. पशु, पुरुष तथा महल आदि वस्तुओं को विभंगज्ञान द्वारा जानता और देखता है। वह विकुर्वणा करने वाला विभंगज्ञानी जानता है कि मैने राजगृह नगर की विकुर्वणा की है और मैं वाणारसी में रहे हुए रूपों को जानता और देखता हूं। उसका यह ज्ञान विपरीत है । क्योंकि वह अन्य रूपों को दूसरी तरह से जानता और देखता है । जैसे कि-दिग्मूढ मनुष्य, पूर्व दिशा को पश्चिम दिशा मानता है । इसी प्रकार उस अनगार का अनुभव विपरीत है। इसी प्रकार दूसरा सूत्र भी कहना चाहिये । तीसरे सूत्र में वाणारसी और राजगृह नगर के बीच में जनपद वर्ग (देश के समह) की विकुर्वणा का है । विभंगज्ञानी बक्रियकृत रूपों को भी स्वाभाविक रूप मानता है । इसलिये उसका वह दर्शन भी विपरीत है।
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