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भगवती सूत्र-श. ३ उ. ७ लोकपाल सोम देव
पश्चिम में लम्बा है और उत्तर दक्षिण में विस्तृत (चौटा है । वह अर्ध चन्द्राकार है । सूर्य की कान्ति के समान उसका वर्ण है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई असंख्य कोटाकोटि योजन है । और उसकी परिधि भी असंख्य कोटाकोटि योजन है । उसमें ३२ लाख विमान हैं । वे वज्रमय है और निर्मल यावत् प्रतिरूप हैं । उस सौधर्म-कल्प के बीचोबीच होकर सौधर्मावतंसक से पूर्व में असंख्य योजन दूर जाने पर शकेन्द्र के लोकपाल 'सोम' नाम के महाराज का 'सन्ध्याप्रभ' नामका महाविमान है। जिस प्रकार रायपसेणी सूत्र में सूर्याभ देव के विमान का वर्णन है, उसी तरह इसके विमान का भी वर्णन कहना चाहिये, यावत् अभिषेक तक कहना चाहिए । वह वक्तव्यता बहुत विस्तृत है । अतः यहाँ नहीं लिखी गई है।
वैमानिक देवों के सौधर्म विमान में रहे हुए महल, किला, दरवाजा आदि का जो . परिमाण बतलाया गया है, उससे आधा परिमाण सोम लोकपाल की राजधानी में समझना
चाहिये । इसमें सुधर्मा सभा आदि स्थान नहीं है, क्योंकि वे सब स्थान तो सोम की उत्पत्ति के स्थान पर ही होते हैं।
सोम.लोकपाल के परिवार रूप जो देव हैं, वे सोमकायिक' कहलाते हैं। सोम लोकपाल के जो सामानिक देव हैं, वे 'सोमदेव' कहलाते हैं तथा सोमदेवों के परिवाररूप जो देव हैं, वे सोमदेव कायिक' कहलाते हैं । ये सब देव तथा सोम में भक्ति रखने वाले तथा उसकी सहायता करने वाले देव तथा उसको अधीनता में रहने वाले ये सब देव सोम की आज्ञा में रहते हैं।
___जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा में होने वाले ग्रह, दाउ आदि सारे कार्य सोम महाराज से अज्ञात नहीं है अर्थात् अनुमान की अपेक्षा अज्ञात नहीं हैं । अदृष्ट-(प्रत्यक्ष की अपेक्षा नहीं देखे हुए)नहीं है । अश्रुत (दूसरे के पास से नहीं सुने हुए) नहीं हैं। अस्मत (मन की अपेक्षा याद नहीं किये हुए) नहीं है । तथा अविज्ञात (अवधिज्ञान की अपेक्षा नहीं जाने हुए)नहीं है।
अंगारक (मंगलं ग्रह) आदि देव, सोम महाराज के अपत्य रूप से अभिमत हैं । अर्थात् वे अभिमत वस्तु का संपादन करने वाले हैं।
यहाँ अपत्य रूप से अभिमत देवों की स्थिति एक पल्योपम कही गई है। इनमें यद्यपि चन्द्र और सूर्य के नाम भी आये हैं और उनकी स्थिति अर्थात् चन्द्र की स्थिति एक पल्योपम एक लाख वर्ष है और सूर्य की स्थिति एक पत्योपम एक हजार वर्ष की है । तथापि उस ऊपर की बढ़ी हुई स्थिति को यहां नहीं मिना गया है। अंगारक आदि तो ग्रह है। उनकी
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