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भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ जीव की एजनादि क्रियाएँ
१४ उत्तर-हाँ, मण्डितपुत्र ! ऐसे जीव को अन्तक्रिया (मुक्ति) होती है।
१५ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसे जीव को यावत् मुक्ति होती है, इसका क्या कारण है ?
१५ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! जब वह जीव, सदा समित नहीं कंपता है, यावत् उन उन भावों में नहीं परिणमता है, तब वह जीव, आरम्भ नहीं करता है, संरम्भ नहीं करता है, समारम्भ नहीं करता है, आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में प्रवृत्त नहीं होता है, आरंभ, संरम्भ, समारंभ नहीं करता हुआ तथा आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में नहीं प्रवर्तता हुआ जीव, बहुत से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख पहुंचाने में यावत् परिताप उपजाने में निमित्त नहीं बनता है।
विवेचन-अब अक्रिया के सम्बन्ध में कहा जाता है--शैलेशी अवस्था में योग का निरोध हो जाता है । इसीलिए एजनादि क्रिया नहीं होती । एजनादि क्रिया न होने से वह आरंभादि में प्रवृत्त नहीं होता और इसीलिए वह प्राणियों के दुःखादि का कारण नहीं बनता है । इसलिए योग-निरोध रूप शुक्लध्यान द्वारा अक्रिय आत्मा की सकल कर्मक्षय रूप अन्तक्रिया होती है।
से जहा णामए केइ पुरिसे सुक्कं तणहत्थयं जायतेयंसि पविखवेजा, से णूणं मंडियपुत्ता ! से सुक्के तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविजइ ? हंता, मसमसाविजइ ।
से जहा णामए केइ पुरिसे तत्तंसि अयकवल्लंसि उदयबिंदु पक्खिवेजा, से गूणं मंडियपुत्ता ! से उदयविंदू तत्तंसि अयकवल्लंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्धसमागच्छइ ? हंता विधंसमागच्छइ ।
से जहा णामए हरए सिया पुण्णे, पुण्णप्पमाणे, वोलट्टमाणे,
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