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भगवती सूत्र-श. ३ उ. ३ प्रमत्त-संयत और अप्रमत्त-संयत का समय
गारे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ ।
कठिन शब्दार्थ--पमत्तद्धा--प्रमत्त-काल, केवच्चिरं--कितना, पडुच्च-अपेक्षा से, देसूणा-कुछ कम, णाणाजीवे-अनेक प्रकार के जीव, सम्वद्धा-सर्व-काल ।
भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रमत्त-संयम का पालन करते हुए प्रमत्त-संयमी का सब काल कितना होता है ?
१६ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि, इतना प्रमत्त-संयम का काल होता है । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वाद्धा (सब काल) प्रमत्त-संयम का काल होता है।
१७ प्रश्न-हे भगवन् ! अप्रमत्त-संयम का पालन करते हुए अप्रमत्तसंयमी का सब मिल कर अप्रमत्त-संयम काल कितना होता है ? .
१७ उत्तर-हे मण्डितपुत्र ! एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि, इतना अप्रमत्त-संयम का काल होता है । अनेक जीवों की अपेक्षा सर्वाद्धा (सर्वकाल) अप्रमत्त-संयम का काल है।
सेवं भंते ! सेवं भंते !! हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर मण्डितपुत्र अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करते हैं, वन्दना नमस्कार करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे।
_ विवेचन-श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रमाद के कारण क्रिया लगती है, यह बात पहले बतलाई गई थी। अब यह बतलाया जाता है कि-संयत में प्रमत्तता और अप्रमत्तता कितने समय तक रहती हैं ? इस विषय में प्रश्न करते हुए कहा गया है कि-प्रमत्त-संयत का सब काल, काल की अपेक्षा कितना होता है ?
___ शंका-यहाँ यह शंका उत्पन्न होती है कि इस सूत्र में "कालओ" और "कियच्चिरं" ये दो शब्द क्यों दिये गये हैं ? क्योंकि 'कालओ' इस शब्द का अर्थ 'कियच्चिरं' इस शब्द में आ जाता है । फिर सूत्र में 'कालओ' शब्द देने की क्या आवश्यकता है ?
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