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भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात
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आवेश में दांत पीसने लगा। फिर उसने सामानिक सभा में उत्पन्न हए देवों से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियों! देवेन्द्र देवराज शक्र कोई दूसरा है और असुरेन्द्र असुरराज चमर कोई दूसरा है। देवेन्द्र देवराज शक्र जो महाऋद्धि वाला है वह कोई दूसरा है और असुरेन्द्र असुरराज चमर जो अल्प ऋद्धि वाला है, वह कोई दूसरा है । हे देवानुप्रियों ! मैं स्वयं देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूं" ऐसा कह कर वह चमर गर्म हुआ, और उस अस्वाभाविक गर्मी को प्राप्त कर वह अत्यन्त कुपित हुआ। इसके बाद उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान के प्रयोग द्वारा चमरेन्द्र ने मुझे (श्रीमहावीर स्वामी को) देखा । मुझे देख कर चमरेन्द्र को इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि-'श्रमण भगवान महावीर स्वामी, द्वीपों में के जम्बूद्वीप के भस्तक्षेत्र के सुसुमारपुर नाम के नगर के अशोक वन खण्ड नामक उद्यान में एक उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर तेले के तप को स्वीकार करके, एक रात्रि की महाप्रतिमा अंगीकार करके स्थित हैं। मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का आश्रय लेकर देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करने के लिए जाऊँ ।' ऐसा विचार कर वह चमरेन्द्र अपनी शय्या से उठा, उठ कर देवदूष्य (देव वस्त्र) पहना। पहन कर उपपात सभा से पूर्व दिशा की तरफ गया। फिर सुधर्मा में चोप्पाल (चतुपाल-चारों तरफ पाल वाला, चौखण्डा) नामक शस्त्रागार की तरफ गया। वहाँ जाकर परिध-रत्न नामक शस्त्र लेकर किसी को साथ लिये बिना अकेला ही अत्यन्त कोप के साथ चमरचञ्चा राजधानी के बीचोबीच होकर निकला । फिर तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत पर आया। वहां वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होकर संख्येय योजन पर्यन्त उत्तरवैक्रिय रूप बनाया। फिर उत्कृष्ट देवगति द्वारा वह चमर, उस पृथ्वीशिलापट्टक की तरफ मेरे (श्री महावीर स्वामी के) पास आया । फिर मेरी तीन बार प्रदक्षिणा करके मुझे वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-"हे भगवन् ! में आपका आश्रय लेकर स्वयमेव अकेला ही देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ।"
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