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भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का उत्पात
तिरियमसंखेजाणं दीव-समुद्दाणं मझंमज्झेणं वीईवयमाणे जेणेव जबूदीवे, जाव-जेणेव असोगवरपायवे, जेणेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भीए भयगग्गरसरे 'भगवं सरणं' इति वुयमाणे ममं दोण्ह वि पायाणं अंतरंसि झत्ति वेगेण समोवडिए। .
_____ कठिन शब्दार्थ-अणिठं-अनिष्ट, असुयपुव्वं पहले कभी नहीं सुनी ऐसी. सुहमत्थिति-सुख का अस्तित्व नहीं रहेगा, वज्ज-वज्र, उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणं-हजारों उल्काएँ छोड़ता हुआ, पविक्खिरमाणं-खिराता हुआ, चक्खुविखेवदिद्विपडिग्घायं-आँखों की देखने की शक्ति को रोकने वाला, हुयवहअइरेगतेयदिपंतं-हुतवह-अग्नि से भी अधिक तेज से दीप्त, जइणवेगं-बहुत वेगवाला, फुल्लकिसुयसमाणं-खिले हुए केसु के फूल के समान लाल, वहाए-वध करने के लिए, पिहाइ-स्पृहा करता है, संभग्गमउडविडए-मुकुट का तुर्रा टूट गया, सालंबहत्याभरणे-आलब सहित हाथ के आभूषण वाला, कक्खागयसेअंजिसकी काँख (बगल) में पसीना आ गया, भयगग्गरसरे-भय से कातर स्वर वाला, समोवडिए-गिर गया। ___ भावार्थ-इसके बाद देवेन्द्र देवराज शक्र ने चमरेन्द्र के उपर्युक्त अनिष्ट यावत् अमनोज्ञ एवं अश्रुतपूर्व (पहले कभी नहीं सुने ऐसे) कर्णकटु शब्दों को सुना, अवधारण किया, सुन कर और अवधारण करके अत्यन्त कुपित हुआ, यावत् कोप से धमधमायमान हुआ (मिसमिसाट करने लगा) ललाट में तीन सल डाल कर एवं भृकुटि तान कर शक्रेन्द्र ने चमरेन्द्र से इस प्रकार कहा" भो ! अप्रार्थितप्रार्थक-जिसकी कोई इच्छा नहीं करता, ऐसे मरण की इच्छा करने वाला यावत् हीन पूर्ण (अपूर्ण) चतुर्दशी का जन्मा हुआ. असुरेन्द्र असुरराज चमर ! आज तू नहीं है अर्थात् आज तेरा कल्याण नहीं है, आज तेरी खैर नहीं है, सुख नहीं है । ऐसा कह कर उत्तम सिंहासन पर बैठे हुए ही शकेन्द्र ने अपना वज्र उठाया उस जाज्वल्यमान, स्फुटिक, तड़तडाट करते हुए हजारों उल्कापात को छोड़ते हुए, हजारों अग्नि ज्वालाओं को छोड़ते हुए, हजारों अंगारों को बिखेरते हुए, हजारों स्फुलिंगों (शोलों) से आँखों को चुंधिया देने वाले, अग्नि
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