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भगवती सूत्र -श. ३ उ. १ ईशानेन्द्र का पूर्व भव
लाभ की तरफ उदासीन बना रहं, तो यह मेरे लिये ठीक नहीं है। किन्तु जबतक मैं सोने चाँदी आदि द्वारा वृद्धि को प्राप्त होरहा हूं और जबतक मेरे मित्र, ज्ञातिजन, कुटुम्बीजन, दास, दासी आदि मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामीरूप, से मानते हैं, मेरा सत्कार, सन्मान करते हैं और मुझे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप, मान कर विनयपूर्वक मेरी सेवा करते हैं, तब तक मुझे अपना कल्याण कर लेना चाहिए । यही मेरे लिये श्रेयस्कर है । अतः कल प्रकाशवाली रात्रि होने पर अर्थात् प्रातःकाल का प्रकाश होने पर सूर्योदय के पश्चात् में स्वयं ही अपने हाथसे लकडी का पात्र बनाऊं और पर्याप्त अशन, पान, खादिम, स्वादिमरूप चार प्रकार का आहार तैयार करके मेरे मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन सम्बन्धी और दास दासी आदि सब को निमन्त्रित करके उनको सम्मानपूर्वक अशनादि चारों प्रकार का आहार जीमाकर, वस्त्र सुगंधित पदार्थ, माला और आभषण आदि द्वारा उनका सत्कार सम्मान करके, उन मित्र ज्ञातिजनादि के समक्ष मेरे बडे पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके अर्थात् उसके ऊपर कुटुम्ब का भार डालकर और उन सब लोगों को पूछकर में स्वयं लकडी का पात्र लेकर एवं मुण्डिरा होकर 'प्राणामा' नाम को प्रव्रज्या अंगीकार करूँ और प्रव्रज्या ग्रहण करते ही इस प्रकार का अभिग्रह धारण करूं कि मैं यावज्जीवन निरन्तर छठ छठ अर्थात् बेले बेले तपस्या करूं और सूर्य के सम्मुख दोनों हाथ ऊंचे करके आतापनाभूमि में आतापना लूं और बेले की तपस्या के पारणे के दिन आतापना की भूमि से नीचे उतर कर लकडी का पात्र हाथ में लेकर ताम्रलिप्ती नगरी में ऊंच, नीच और मध्यम कुलों से भिक्षा की विधि द्वारा शुद्ध ओदन अर्थात् केवल पकाये हुए चावल लाऊं और उनको पानी से इक्कीस बार धोकर फिर खाऊँ, इस प्रकार उस तामली गृहपति ने विचार किया।
संपेहित्ता, कल्लं पाउप्पभायाए जाव-जलंते, सयमेव दारुमयं पडिग्गहं करेइ, करित्ता विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं
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