________________
भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ बलिचंचा के देवों का आकर्षण और निवेदन
५८३
असुरराज बलि की राजधानी) इन्द्र और पुरोहित से रहित थी। तब बलिचंचा राजधानी में रहने वाले बहुत से असुरकुमार देव और देवियों ने उस तामली बाल तपस्वी को अवधिज्ञान द्वारा देखा । देख कर उन्होंने परस्पर एक दूसरे को आमन्त्रित कर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियों ! इस समय बलिचंचा राजधानी इन्द्र और पुरोहित से रहित है । हे देवानुप्रियों ! अपन सब इन्द्राधीन और इन्द्राधिष्ठित हैं अर्थात् इन्द्र की अधीनता में रहने वाले हैं । अपना सारा कार्य इन्द्र की अधीनता में होता है । हे देवानुप्रियों ! यह तामली बाल तपस्वी ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर ईशान कोण में निवर्तनिक मंडल को साफ करके संलेखना के द्वारा अपनी आत्मा को संयुक्त करके आहार पानी का त्याग कर
और पादपोपगमन अनशन को स्वीकार करके रहा हुआ है । तो अपने लिये यह श्रेयस्कर है कि अपनी इस बलिचंचा राजधानी में इन्द्ररूप से आने के लिये इस तामली बाल तपस्वी को संकल्प करावें । ऐसा विचार करके तथा परस्पर एक दूसरे की बात को मान्य करके वे सब असुरकुमार, बलिचंचा राजधानी के बीचोबीच से निकल कर रूचकेन्द्र उत्पात पर्वत पर आये। वहाँ आकर वैक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होकर यावत् उत्तर वैक्रिय रूप बनाकर उत्कृष्ट, त्वरित चपल, चण्ड, जयवती, निपुण, श्रम रहित, सिंह सदृश, शीघ्र, उद्धत और दिव्य देवगति द्वारा तिर्छ असंख्येय द्वीप समद्रों के बीचोबीच होते हुए इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की ताम्रलिप्ती नगरी के बाहर जहाँ मौर्यपुत्र तामली बाल तपस्वी था, वहाँ आये । वहाँ आकर ऊपर आकाश में तामली बाल तपस्वी के ठीक सामने खडे रहे । खडे रहकर दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देवकान्ति, दिव्य देवप्रभाव और बत्तीस प्रकार के दिव्य नाटक बतलाये। फिर तामली बाल तपस्वी को तीनबार प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार किया।
एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य, देवीओ य देवाणुप्पियं वंदामो,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org