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भगवती सूत्र-श. ३ उ. १ असुरों द्वारा क्षमा याचना
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भावार्थ-बलिचंचा राजधानी को तप्त हुई जानकर वे असुरकुमार देव और देवियाँ अत्यन्त भयभीत हुए, त्रस्त हुए, उद्विग्न हुए और भय के मारे चारों तरफ इधर उधर दौड़ने लगे, भागने लगे और एक दूसरे के पीछे छिपने लगे। जब असुरकुमार देव और देवियों को पता लगा कि ईशानेन्द्र के कुपित होने से यह हमारी राजधानी इस प्रकार तप्त बन गई है, तब वे सब ईशानेन्द्र की उस दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवकान्ति, दिव्य देवप्रभाव और दिव्य तेजोलेश्या को सहन नहीं करते हुए, देवेन्द्र देवराज ईशान के ठीक सामने ऊपर की . ओर मुख करके दोनों हाथ जोड़ कर, मस्तक पर अञ्जलि करके ईशानेन्द्र को जय विजय शब्दों द्वारा बधाया और इस प्रकार निवेदन किया कि "हे देवानप्रिय ! आपको जो दिव्य देवऋद्धि यावत् देवप्रभाव मिला है, प्राप्त हुआ है, सम्मुख आया है, उसको. हमने देखा । हे देवानुप्रिय ! हम अपनी भूल के लिये आप से क्षमा चाहते हैं। आप क्षमा प्रदान करें। आप क्षमा करने योग्य हैं। हम फिर कभी इस प्रकार की भल नहीं करेंगे। इस प्रकार उन्होंने ईशानेन्द्र से अपने अपराध के लिये विनयपूर्वक क्षमा माँगी। उनके क्षमा मांगने पर ईशानेन्द्र ने उस दिव्य देवऋद्धि यावत् अपनी छोडी हुई तेजोलेश्या को वापिस खींच लिया।
हे गौतम ! तब से बलिचंचा राजधानी में रहने वाले असुरकुमार देव और देवियाँ, देवेन्द्र देवराज ईशान का आदर करते हैं यावत् उसकी पर्युपासना करते हैं और तभी से उनकी आज्ञा, सेवा, आदेश और निर्देश में रहते हैं। हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज ईशान को वह दिव्य देवऋद्धि यावत् इस प्रकार मिली है।
विवेचन-मूलपाठ 'में किं वा दच्चा, किं वा भोच्चा, कि वा किच्चा, किं वा समायरित्ता' शब्द आये हैं । इनका आशय इस प्रकार है-दच्चा-देकर अर्थात् दीन दुःखी को आहार पानी आदि देकर, भोच्चा-खाकर-अर्थात् अन्त प्रान्त (रूखा सूखा) खाकर, किच्चा-करके-तप एवं शुभ ध्यानादि करके । समायरित्ता-आचरण करके-प्रतिलेखना प्रमार्जन आदि करके।
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