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भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का पूर्व भव
वह पूरण बाल तपस्वी उस उदार, विपुल प्रदत्त और प्रगहीत बाल तप कर्म के द्वारा शुष्क रुक्ष हो गया (यहां सब वर्णन पहले की तरह जानना चाहिए)। वह भी बेभेल सनिवेश के बीचोबीच होकर निकला, निकल कर पादुका (खड़ाऊ)
और कुण्डी आदि उपकरणों को तमा चार खण्ड वाले लकडों के पात्र को एकान्त में रख दिया। फिर बेभेल सन्निवेश के अग्निकोण में अर्द्ध निवर्तनिक मण्डल को साफ किया। फिर संलेखना झूषणा से अपनी आत्मा को युक्त करके, आहार पानी का त्याग करके उस पूरण बाल-तपस्वी ने 'पादपोपगमन' अनशन स्वीकार किया। - विवेचन-'दानामा' प्रवज्या उसको कहते हैं जिसमें दान की प्रधानता होती है । 'पूरण' तापस ने इस प्रव्रज्या को अंगीकार किया था। उसने चार खण्डवाला लकड़ी का पात्र ग्रहण किया था। उसके तीनखण्डों में आये हुए आहार का वह दान कर देता था, केवल चौथे खण्ड में आये हुए आहार को वह स्वयं भोगता था। जब पूरण ने देखा कि अब मेरो शरीर शुष्क, अशक्त और निर्बल हो गया है, तो वह धीरे धीरे बेभेल सन्निवेश के बाहर गया और पादपोपगमन अनशन कर लिया।
- तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा ! छउमत्थकालियाए एक्कारसवासपरियाए छटुंछटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे, पुवाणुपुञ् िचरमाणे, गामाणुगाम दुइजमाणे जेणेव सुसुमारपुरे णयरे जेणेव असोयवणसंडे उजाणे, जेणेव असोयवरपायवे, जेणेव पुढवीसिलावट्ठए तेणेव उवागच्छामि, असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढवीसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं परिंगिण्हामि, दो वि पाए साहटु वग्धारियपाणी, एगपोग्गलणिविट्ठदिट्ठी, अणिमिसणयणे ईसिंपन्भारगएणं कारणं, अहापणिहिएहिं गत्तेहिं, सर्दिव
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