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भगवती सूत्र-श. ३ उ. २ चमरेन्द्र का पूर्वभव
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दिएहिं गुत्तेहिं एगराइयं महापडिमं उपसंपज्जेत्ता णं विहरामि।
कठिन शब्दार्थ-असोयवरपायवस्स-अशोक का उत्तम वृक्ष, साह?--संकुचित करके, वग्धारियपाणी-दोनों हाथों को नीचे की तरफ लम्बा करके, एगपोग्गलनिविट्ठदिट्ठी-एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर रखकर, अणिमिसणयणे-आँखों को नहीं टमकाते हुए, ईसिंपन्भारगएणं कारणं-शरीर के अग्रभाग को थोड़ा आगे झुकाकर, अहापणिहिए गतेहियथास्थित गात्रों से।
भावार्थ-(अब श्रमण भगवान महावीरस्वामी अपनी हकीकत कहते हैं) -हे गौतम ! उस काल उस समय में छदमस्थ अवस्था में था। मुझे दीक्षा लिये हुए ग्यारह वर्ष हुए थे। उस समय मैं निरन्तर छट्ठ छट्ठ अर्थात् बेले बेले की तपस्या करता हुआ, तप सयम से आत्मा को भावित करता हुआ पूर्वानुपूर्वी से विचरता हुआ, ग्रामानुग्राम चलता हुआ सुंसुमारपुर नगर के अशोक वनखण्ड उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्ट के पास आया। वहाँ आकर मैंने उस उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे पथ्वीशिलापट्टक के ऊपर अट्ठम अर्थात् तेले की तपस्या स्वीकार करके, दोनों पांव कुछ संकुचित करके, हाथों को नीचे की तरफ लम्बा करके, सिर्फ एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर करके, आंखों की पलकें न टमकाते हुए, शरीर के अग्रभाग को कुछ झुका कर, सर्व इन्द्रियों को गुप्त करके एकरात्रिकी महाप्रतिमा को अंगीकार कर ध्यानस्थ रहा ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरचंचा रायहाणी अणिंदा, अपुरोहिया या वि होत्था । तएणं से पूरणे बालतवस्सी बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं परियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसेत्ता सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता कालमासे कालं किचा चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए जाव-इंदत्ताए उववण्णे।
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