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साधक आत्म-स्वरूप का अनुभव करने का प्रयत्न करता है। आचार्य हेमचन्द्र, ४८ योगीन्दुदेव ४९ अमितगति, ५० आचार्य हरिभद्र ५१ उपाध्याय यथोविजय आदि ने धर्मध्यान के चार ध्येय बताये हैं। वे ये हैं: - (१) पिण्डस्थ (२) पदस्थ (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत । पिण्डस्थ ध्यान का अर्थ शरीर के विभिन्न भागों पर मन को केन्द्रित करना । पार्थिवी, आग्नेयी, मारुति, वारुणी और तत्त्ववती, इन पाँच धारणाओं के माध्यम से साधक उत्तरोत्तर आत्म- केन्द्र में ध्यानस्थ होता है। चतुर्विध धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने से मन स्थिर होता है। जिससे शरीर और कर्म के सम्बन्ध को भिन्न रूप से देखा जाता है। कर्म नष्ट कर शुद्ध आत्मस्वरूप का चिन्तन इसमें होता है। दूसरा पदस्थ ध्यान अर्थात् अपनी रुचि के अनुसार मन्त्राक्षर पदों का अवलम्बन लेकर किया जाने वाला ध्यान है। इस ध्यान में मुख्य रूप से शब्द आलम्बन होता है। अक्षर पर ध्यान करने से आचार्य शुभचन्द्र ५२ ने इसे वर्णमात्रिका ध्यान भी कहा है। इस ध्यान में नाभिकमल, हृदयकमल और मुखकमल की कमनीय कल्पना की जाती है। नाभिकमल में सोलह पत्रों वाले कमल पर सोलह स्वरों का ध्यान किया जाता है। हृदयकमल में कर्णिका व पत्रों सहित चौबीस दल वाले कमल की कल्पना कर उस पर क, ख, आदि पच्चीस वर्गों का ध्यान किया जाता है। उसी तरह मुखकमल पर आठ वर्णों का ध्यान किया जाता है मन्त्रों और वर्णों में श्रेष्ठ ध्यान 'अर्हन्' का माना गया है, जो रेफ से युक्तकला व बिन्दु से आक्रान्त अनाहत सहित मन्त्रराज है १३ इस मन्त्रराज पर ध्यान किया जाता है। इनके अतिरिक्त अनेक विधियों का निरूपण योगशास्त्र व ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थों में विस्तार के साथ है। इस ध्यान में साधक इन्द्रिय- लोलुपता से मुक्त होकर मन को अधिक विशुद्ध एवं एकाग्र बनाने का प्रयत्न करता है। तीसरा ध्यान "रूपस्थ" है इसमें राग-द्वेष आदि विकारों से रहित, समस्त सद्गुणों से युक्त, सर्वज्ञ तीर्थंकर प्रभु का ध्यान किया जाता है। इस ध्यान में अहंत के स्वरूप का अवलम्बन लेकर ध्यान का अभ्यास किया जाता है।५५ ध्यान का चौथा प्रकार "रूपातीत" ध्यान है। रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप, रंग से अतीत, निरञ्जन - निराकार ज्ञानमय आनन्द स्वरूप का स्मरण करना । ५५ इस ध्यान में ध्याता और ध्येय में कोई अन्तर नहीं रहता। इसलिये इस अवस्था विशेष को आचार्य हेमचन्द्र ने समरसी भाव कहा है ।५६ इन चारों धर्मध्यान के प्रकारों में क्रमशः शरीर, अक्षर, सर्वज्ञ व निरञ्जन सिद्ध का चिन्तन किया जाता है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ा जाता है। यह ध्यान सभी प्राणी नहीं कर सकते। साधक ही इस ध्यान के अधिकारी हैं। धर्मध्यान से मन में स्थैर्य, पवित्रता आ जाने से वह साधक आगे चलकर शुक्लध्यान का भी अधिकारी बन सकता है।
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ध्यान का चौथा प्रकार "शुक्ल" ध्यान है। यह आत्मा की अत्यन्त विशुद्ध अवस्था है। श्रुत के आधार से मन की आत्यन्तिक स्थिरता और योग का निरोध शुक्लध्यान है। यह ध्यान कषायों के उपशान्त होने पर होता है। यह ध्यान वही साधक कर सकता है जो समताभाव में लीन हों५७ और वज्रऋषभनाराचसंहनन वाला हो । ५८
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योगशास्त्र ७/८
योगसार- ९८
योगसार प्राभृत
योगशतक
ज्ञानार्णव - ३५-१,२
ज्ञानार्णव-३५/७-८
अहंतो रूपमालम्व्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते योगशास्त्र ९/७
क- ज्ञानार्णव ३७ १६
ख- योगशास्त्र १०/१
योगशास्त्र १०/३, ४ योगशतक ९०
योगशास्त्र ११/२
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