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के चार भेद प्रतिपादित किये गये हैं। इनमें प्रारम्भ के दो ध्यान अप्रशस्त हैं, और अन्तिम दो प्रशस्त हैं। योगग्रन्थों में अन्य दृष्टियों से ध्यान के भेद-प्रभेदों की चर्चा है। पर हम यहाँ उन भेद-प्रभेदों की चर्चा न कर आगम में आये हुए चार ध्यानों पर ही संक्षेप में चिन्तन करेंगे। आर्ति नाम दु:ख या पीड़ा का है उसमें से जो उत्पन्न हो वह आर्त है अर्थात् दुःख के निमित्त से या दुःख में होने वाला ध्यान आर्त्तध्यान है।३९ यह ध्यान मनोज्ञ वस्तु के वियोग और अमनोज्ञ वस्तु के संयोग से होता है। राग भाव से मन में एक उन्मत्तता उत्पन्न होती है। फलतः अवांछनीय वस्तु की उपलब्धि और वांछनीय की अनुपलब्धि होने पर जीव दु:खी होता है। अनिष्ट संयोग, इष्ट-वियोग, रोग चिन्ता या रोगात और भोगात ये चार आर्त्तध्यान के भेद० हैं। इस ध्यान से जीव तिर्यञ्च गति को प्राप्त होता है। ऐसे ध्यानी का मन आत्मा से हटकर सांसारिक वस्तुओं में केन्द्रित होता है। रौद्रध्यान वह है जिसमें जीव स्वभाव से सभी प्रकार के पापाचार करने में समुद्यत होता है। क्रूर अथवा कठोर भाववाले प्राणी को रुद्र कहते हैं। वह निर्दयी बनकर क्रूर कार्यों का कर्ता बनता है। इसलिए उसे रौद्र ध्यान कहा है। इस ध्यान में हिंसा, झूठ चोरी, धन रक्षा व छेदन-भेदन आदि दुष्ट
का चिन्तन होता है। इस ध्यान के हिंसानन्द, मषानन्द, चौर्यानन्द, संरक्षानन्द, ये चार प्रकार हैं। इसलिए इन दोनों ध्यानों को हेय और अशुभ माना गया है। धर्मध्यान-आत्मविकास का प्रथम चरण है। इस ध्यान में साधक आत्मचिन्तन में प्रवृत्त होता है। ज्ञानसार२ में बताया गया है कि शास्त्रवाक्यों के अर्थ, धर्ममार्गणाएँ, व्रत, गुप्ति, समिति, आदि की भावनाओं का-चिन्तन करना धर्मध्यान है। इस ध्यान के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य३ अपेक्षित हैं। इनसे सहज रूप से मन स्थिर हो जाता है। आचार्य शुभचन्द्र ने धर्मध्यान की सिद्धि के लिए मैत्री, प्रमोद, कारुण्य
और माध्यस्थ्य इन चार भावनाओं के चिन्तन पर भी बल दिया है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण४५ ने स्पष्ट किया है कि धर्मध्यान का सम्यग् आराधन एकान्त-शान्त स्थान में हो सकता है। ध्यान का आसन सुखकारक हो, जिससे ध्यान की मर्यादा स्थिर रह सके। यह ध्यान पद्मासन से बैठकर, खड़े होकर या लेट कर भी किया जा सकता है। मानसिक चंचलता के कारण कभी-कभी साधक का मन ध्यान में स्थिर नहीं होता। इसलिए शास्त्र में धर्मध्यान के चार आलम्बन बताये हैं।४६ -(१) आज्ञाविचय-सर्वज्ञ के वचनों में किसी भी प्रकार की त्रुटि नहीं है। इसलिए आप्त वचनों का आलम्बन लेना। यहाँ "विचय" शब्द का अर्थ "चिन्तन" है। (२) अपायविचय-कर्म नष्ट करने के लिए और आत्म तत्त्व की उपलब्धि के लिए चिन्तन करना। (३) विपाकविचय-कर्मों के शुभ-अशुभ फल के सम्बन्ध में चिन्तन करना अथवा कर्म के प्रभाव से प्रतिक्षण उदित होने वाली प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में विचार करना । (४) संस्थानविचययह जगत् उत्पाद व्यय और ध्रौव्य युक्त है। द्रव्य की दृष्टि से नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से उसमें उत्पाद और व्यय होता है। संसार के नित्य-अनित्य स्वरूप का चिन्तन होने से वैराग्य भावना सुदृढ़ होती है, जिससे
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स्थानांग ४/२४७ क-स्थानांग ४/२४७ ख-आवश्यक अध्ययन-४ क-तत्त्वार्थसूत्र ९/३६ ख-ज्ञानार्णव २४/३ ज्ञानसार, १६ ध्यानशतक ३०-३४ चतस्रो भावना धन्याः, पुराणपुरुषाश्रिताः। मैत्र्यादयश्चिरं चित्ते विधेया धर्मसिद्धये॥ -ज्ञानार्णव २५/४ ध्यानशतक, श्लोक ३८, ३९ क-स्थानाङ्ग, ख-योगशास्त्र १०/७, ग-ज्ञानार्णव ३०/५, घ-तत्त्वानुशासन ९/८ . योगशास्त्र १०-८, ९; ख-ज्ञानार्णव-३८
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