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एक हैं। बौद्धों का मन्तव्य है कि अनेक चित्त और अनेक रूप हैं। इस दृष्टि से जैनदर्शन का मन्तव्य आवश्यक था। अन्य दर्शनों में केवल सांख्य का निरूपण है। जब कि प्रज्ञापनासूत्र में अनेक दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। जिस तरह से जीवों पर चिन्तन है, उसी तरह से अजीव के सम्बन्ध में भी चिन्तन है। यहाँ तो केवल अति संक्षेप में सूचना दी गई है।२०
बन्ध के दो प्रकार बताये हैं, रागबन्ध और द्वेषबन्ध। यह बन्ध केवल मोहनीय कर्म को लक्ष्य में लेकर के बताया गया है। राग में माया और लोभ का समावेश है और द्वेष में क्रोध और मान का समावेश है। अंगुत्तरनिकाय में तीन प्रकार का समुदाय माना है-लोभ से, द्वेष और मोह से। उन सभी में मोह अधिक प्रबल हैं।२१ इस प्रकार दो राशि का उल्लेख है। यह विशाल संसार दो तत्त्वों से निर्मित है। सृष्टि का यह विशाल रथ उन्हीं दो चक्रों पर चल रहा है। एक तत्त्व है चेतन और दूसरा तत्त्व है जड़। जीव और अजीव ये दोनों संसार नाटक के सूत्रधार हैं। वस्तुतः इनकी क्रिया-प्रतिक्रिया ही संसार है। जिस दिन ये दोनों साथी बिछुड़ जाते हैं उस दिन संसार समाप्त हो जाता है। एक जीव की दृष्टि से परस्पर सम्बन्ध का विच्छेद होता है पर सभी जीवों की अपेक्षा से नहीं। अतः राशि के दो प्रकार बताये हैं। द्वितीय स्थान में दो की संख्या को लेकर चिन्तन है। इसमें से बहुत सारे सूत्र ज्यों के त्यों स्थानांग में भी प्राप्त हैं।
तृतीय समवाय : विश्लेषण
तृतीय स्थान में तीन दण्ड, तीन गुप्ति, तीन शल्य, तीन गौरव, तीन विराधना, मृगशिर पुष्य, आदि के तीन तारे, नरक, और देवों की तीन पल्योपम व तीन सागरोपम की स्थिति तथा कितने ही भवसिद्धिक जीव तीन भव करके मुक्त होंगे, आदि का निरूपण है।
प्रस्तुत समवाय में तीन दण्ड का उल्लेख है। दुष्प्रवृत्ति में संलग्न मन, वचन और काय, ये तीन दण्ड हैं। इन से चारित्र रूप ऐश्वर्य का तिरस्कार होता है। आत्मा दण्डित होता है। इसलिये इन्हें दण्ड कहा है। मन, वचन और
ने प्रवृत्ति जो संसाराभिमुख है, वह दण्ड है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पूर्वक मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को अपने मार्ग में स्थापित करना गुप्ति है ।२२ गुप्ति के तीन प्रकार हैं। मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। मनोगुप्ति का अर्थ संरम्भ समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त मन को रोकना।२३ अपर शब्दों में कहा जाये तो राग-द्वेष आदि कषायों से मन को निवृत्त करना मनोगुप्ति है। असत्य भाषण आदि से निवृत्त होना या मौन धारण करना, वचनगुप्ति है।२४ असत्य कठोर आत्मश्लाघी वचनों से दूसरों के मन का घात होता है अतः ऐसे वचन का निरोध करना चाहिए।२५ अज्ञानवश शारीरिक क्रियाओं द्वारा बहुत से जीवों का घात होता है। अतः अकुशल कायिक प्रवृत्तियों का विरोध करना कायगुप्ति
है।२६
२०. २१.
जैन आगम साहित्य-मनन और मीमांसा, देवेन्द्रमुनि शास्त्री, पृ. २३९ से २४१ अंगुत्तरनिकाय ३, १७ तथा ६/३९ (क) उत्तराध्ययन अ. २४, गा. २६ (ख) सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः -तत्त्वार्थमूत्र ९/४ (ग) ज्ञानार्णव १८/४
(घ) आर्हत् दर्शन दीपिका ५/६४२ (ङ) गोपनं गुप्ति:-मन:प्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्तनमिति। रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्ति। - मूलाराधना ६/११८७ योगशास्त्र १/४२ उत्तराध्ययन २४/२४-२५ उत्तराध्ययन २४/२५
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२४.
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