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एक औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा, दूसरी अनौपक्रमिक या सविपाकनिर्जरा। तप आदि से कर्मों को बलात् उदय में लाकर बिना फल दिये झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। स्वाभाविक रूप से प्रतिसमय कर्मों का फल देकर झड़ते जाना सविपाकनिर्जरा है। प्रतिपल-प्रतिक्षण प्रत्येक प्राणी को सविपाकनिर्जरा होती रहती है। पुराने कर्मों के स्थान को नूतन कर्म ग्रहण करते रहते हैं। तप रूपी अग्नि से-कर्मों को फल देने से पूर्व ही भस्म कर देना औपक्रमिक निर्जरा है। कर्मों का विपाक-फल टल नहीं सकता "नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि" यह नियम प्रदेशोदय पर तो लागू होता है पर विपाकोदय पर नहीं। प्रस्तुत कथन प्रवाहपतित साधारण सांसारिक आत्माओं पर लागू होता है। पुरुषार्थी साधक ध्यान रूपी अग्नि में समस्त कर्मों को एक क्षण में भस्म कर देते हैं। इस प्रकार प्रथम समवाय में जैन-दर्शन के मुख्य तत्त्व आत्मा, अनात्मा, बन्ध, बन्ध के कारण, मोक्ष और मोक्ष के कारण आदि पर प्रकाश डाला है। आत्मा के साथ अनात्मा का जो निरूपण किया गया है, वह इसलिये आवश्यक है कि अजीव-पौद्गलिक कर्मों के कारण आत्मा स्व-स्वरूप से च्युत हो रहा है। संग्रहनय की अपेक्षा से शास्त्रकार ने गुरुगम्भीर-रहस्यों को इसमें व्यक्त किया
द्वितीय समवाय : विश्लेषण
दूसरे समवाय में दो प्रकार के दण्ड, दो प्रकार के बन्ध, दो राशि, पूर्वाफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के दो तारे, नारकी और देवों की दो पल्योपम और दो सागरोपम की स्थिति, दो भव करके मोक्ष जाने वाले भवसिद्धिक जीवों का वर्णन है। इसमें सर्वप्रथम दण्ड का वर्णन है। अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड, ये दण्ड के दो प्रकार हैं। स्वयं के शरीर की रक्षा के लिये, कुटुम्ब, परिवार, समाज, देश और राष्ट्र के पालन-पोषण के लिये जो हिंसादि रूप पाप प्रवृत्ति की जाती है, वह अर्थदण्ड है। अर्थदण्ड में आरंभ करने की भावना मुख्य नहीं होती। कर्त्तव्य से उत्प्रेरित होकर प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए आरम्भ किया जाता है। अनर्थदण्ड का अर्थ है- बिना किसी प्रयोजन के-निरर्थक पाप करना। अर्थ और अनर्थ दण्ड को नापने का थर्मामीटर विवेक है। कितने ही कार्य परिस्थिति-विशेष से अर्थ रूप होते हैं। परिस्थिति परिवर्तन होने पर वे ही कार्य अनर्थ रूप भी हो जाते हैं। आचार्य उमास्वाति ने अर्थ और अनर्थ शब्द की परिभाषा इस प्रकार की है जिससे उपभोग, परिभोग होता है वह श्रावक के लिये अर्थ है और उससे भिन्न जिसमें उपभोग-परिभोग नहीं होता है, वह अनर्थदण्ड है। आचार्य अभयदेव८ ने लिखा है कि अर्थ का अभिप्राय "प्रयोजन" है। गृहस्थ अपने खेत, घर, धान्य, धन की रक्षा या शरीर पालन प्रभृति प्रवृत्तियाँ करता है। उन सभी प्रवृत्तियों में आरम्भ के द्वारा प्राणियों का उपमर्दन होता है, वह अर्थदण्ड है। दण्ड, निग्रह, यातना और विनाश ये चारों शब्द एकार्थक हैं। अर्थदण्ड के विपरीत केवल प्रमाद, कतहल, अविवेक पूर्वक निष्प्रयोजन निरर्थक प्राणियों का विघात करना अनर्थदण्ड है। साधक अनर्थदण्ड से बचता है।
अर्थदण्ड और अनर्थदण्ड के पश्चात् जीवराशि और अजीवराशि का कथन किया गया है। टीकाकार आचार्य अभयदेव९ ने टीका में प्रस्तुत विषय को प्रज्ञापनासूत्र से उसके भेद और प्रभेदों को समझने का सूचन किया है। हम यहाँ पर उतने विस्तार में न जाकर पाठकों को वह स्थल देखने का संकेत करते हुए यह बताना चाहेंगे कि भगवान् महावीर के समय जीव और अजीव तत्त्वों की संख्या के सम्बन्ध में अत्यधिक मतभेद थे। एक ओर उपनिषदों का अभिमत था कि सम्पूर्ण-विश्व एक ही तत्त्व का परिणाम है तो दूसरी ओर सांख्य के अभिमत से जीव और अजीव
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उपभोगपरिभोगौ अस्याऽगारिणोऽर्थः। तद्व्यतिरिक्तोऽनर्थः। -तत्त्वार्थभाष्य ७-१६ उपासकदशांग, १-टीका समवायांग सूत्र १४९, अभयदेव वृत्ति
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