________________
का सम्बन्ध है। यह पूर्ण सत्य है कि दो द्रव्यों का संयोग हो सकता है पर तादात्म्य नहीं। दो मिलकर एक से प्रतीत हो सकते हैं पर एक की सत्ता समाप्त होकर एक शेष नहीं रह सकता। . आचार्य उमास्वाति१२ ने लिखा है कि योग के कारण समस्त आत्मप्रदेशों के साथ सूक्ष्म कर्म-पुद्गल एक क्षेत्रावगाही हो जाते हैं। अर्थात् जिस क्षेत्र में आत्मप्रदेश हैं उसी क्षेत्र में रहे हुए कर्म-पुद्गल जीव के साथ बद्ध हो जाते हैं। इसे प्रदेशबन्ध कहते हैं। आत्मा और कर्मशरीर का एक क्षेत्रावगाह के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार का कोई रासायनिक-मिश्रण नहीं होता। प्राचीन कर्म-पुद्गलों से नवीन कर्म-पुद्गलों का रासायनिक मिश्रण होता है, पर आत्मप्रदेशों से नहीं। जीव के रागादि भावों से आत्मप्रदेशों में एक प्रकम्पन होता है। उससे कर्म-योग्य पुद्गल आकर्षित होते हैं। इस योग से उन कर्म-वर्गणाओं में प्रकृति, यानि एक विशेष प्रकार का स्वभाव उत्पन्न होता है। यदि वे कर्मपुद्गल ज्ञान में विघ्न उत्पन्न करने वाली क्रिया से आकर्षित होते हैं तो उनमें ज्ञान के आच्छादन करने का स्वभाव पड़ेगा। यदि वे रागादि कषायों से आकर्षित किये जायेंगे तो कषायों की तीव्रता और मन्दता के अनुसार उस कर्मपुद्गल में फल देने की प्रकृति उत्पन्न होती है। प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध योग से होता है। और स्थिति और अनुभागबन्ध कषाय होता है।
कर्मबन्ध से पूर्णतया मुक्त होना मोक्ष है। मोक्ष का सीधा और सरल अर्थ है-छूटना। अनादिकाल से जिन कर्मबन्धनों से आत्मा जकड़ा हुआ था, वे बन्धन कट जाने से आत्मा पूर्णस्वतन्त्र हो जाता है। उसे मुक्ति कहते हैं। बौद्ध-परम्परा में मोक्ष के अर्थ में "निर्वाण" शब्द का प्रयोग हुआ है। उन्होंने क्लेशों के बुझने के अर्थ में आत्मा का बझना मान लिया है, जिससे निर्वाण का सही स्वरूप ओझल हो गया है। कर्मों को नष्ट करने का इतना ही अर्थ है कि कर्मपुद्गल आत्मा से पृथक् हो जाते हैं। उन कर्मों का अत्यन्त विनाश नहीं होता।१३ किसी भी सत् का अत्यन्त विनाश तीनों-कालों में नहीं होता। पर्यायान्तर होना ही नाश कहा गया है। जो कर्म-पुद्गल आत्मा के साथ सम्पृक्त होने से आत्मगुणों का हनन करते थे, जिससे वे कर्मत्व पर्याय से युक्त थे, वह कर्मत्व पर्याय नष्ट हो जाती है। जैसे कर्मबन्धन से मुक्त होकर-आत्मा शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही कर्म पुदगल भी कर्मत्व-पर्याय से मुक्त हो जाता है। जैन दृष्टि से आत्मा और कर्म पुद्गल का सम्बन्ध छूट जाना ही मोक्ष है।
बन्ध और मोक्ष के पश्चात् एक आश्रव और एक संवर का उल्लेख किया है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये आश्रव हैं। जिन भावों से कर्मों का आश्रव होता है, वह भावाश्रव है और कर्म द्रव्य का आना द्रव्याश्रव है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि पुद्गलों में कर्मत्व पर्याय का विकसित होना द्रव्याश्रव है। सामान्य रूप से आश्रव के दो प्रकार हैं-एक साम्परायिक आश्रव, जो कषायानुरजित योग से होने वाले बन्ध का कारण होकर संसार की अभिवृद्धिं करता है। दूसरा ईर्यापथ आश्रव जो केवल योग से होने वाला है। इसमें कषायाभाव होने से स्थिति एवं विपाक रूप बन्धन नहीं होता। यह आश्रव वीतराम जीवन्मुक्त महात्माओं को ही होता है। कषाय और योग प्रत्येक संसारी आत्मा में रहा हुआ है। जिससे सप्त कर्मों का प्रतिसमय आश्रव होता रहता है। परभव में शरीर आदि की प्राप्ति के लिये आयु:कर्म का आश्रव वर्तमान आयु के विभाग में होता है, अथवा नौंवे भाग में होता है, या सत्तावीसवें भाग में होता है अथवा अन्तर्महर्त अवशेष रहने पर।४।।
नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः। -तत्त्वार्थसूत्र ८/१४ जीवाद् विश्लेषणं भेदः सत्तो नात्यन्तसंक्षयः। -आप्तपरीक्षा-११५ सोवक्कमाउया पुण, सेसतिभागे अहव नवमभागे। सत्तावीसइमे वा, अंतमुहुत्तं तिमवावि। -संग्रहणीसूत्र, गा. ३०२
[२२]