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आश्रव से विपरीत संवर है। जिन कारणों से कर्मों का बन्ध होता है, उनका निरोध कर देना 'संवर' है। मुख्य रूप से आश्रव योग से होता है। अतः योग की निवृत्ति ही संवर है।
तथागत बुद्ध ने संवर का उल्लेख किया है। उन्होंने विभाग कर इस प्रकार प्रतिपादन किया है-(१) संवर से इन्द्रियों पर नियन्त्रण होता है और इन्द्रियों का संवर होने से वह गुप्तेन्द्रिय बनता है, जिससे इन्द्रियजन्य आश्रव नहीं होता। (२) प्रतिसेवना-भोजन, पान, वस्त्र, चिकित्सा, आदि न करने पर मन प्रसन्न नहीं रहता और मन प्रसन्न न रहने से कर्मबन्ध होता है। अत: मन को प्रसन्न रखने के लिये इनका उपयोग करना चाहिये जिससे आश्रव का निरोध हो। यहां यह स्मरण रखना चाहिये कि भोगोपभोग की दृष्टि से उसका उपयोग किया जाये तो वह आश्रव का कारण है। (३) अधिवासना-किसी में शारीरिक कष्ट सहन करने की क्षमता है। उसे शारीरिक कष्ट पसन्द है। तो उसे कष्ट सहन से आश्रव-निरोध होता है। (४) परिवर्जन-क्रूर हाथी, घोड़ा, आदि पशु, सर्प बिच्छू आदि जन्तु, गर्त कण्टक स्थान; पाप मित्र ये सभी दु:ख के कारण हैं। उन दु:ख के कारणों को त्यागने से आश्रव का निरोध होता है। (५) विनोदना-हिंसावितर्क, पापवितर्क, कामवितर्क, आदि बन्धक वितर्कों की भंजना न करने से तज्जन्य आश्रव का निरुन्धन होता है। (६) भावना-शुभ भावना से आश्रव का निरुन्धन होता है। यदि शुभ भावना न की जायेगी तो अशुभ भावनाएँ उद्बुद्ध होंगी। अतः अशुभ भावना का निरोध करने हेतु शुभ भावना आश्रव के निरुन्धन का कारण है।
-अंगुत्तर निकाय ६/५८ आश्रव और संवर के पश्चात्-वेदना और निर्जरा का उल्लेख है। कर्मों का अनुभव करना 'वेदन' है। वह दो प्रकार का है। अबाधाकाल की स्थिति पूर्ण होने पर यथाकाल वेदन करना और कितने ही कर्म, जो कालान्तर में उदय में आने योग्य हैं, उन्हें जीव अपने अध्यवसाय विशेष से स्थिति का परिपाक होने के पूर्व ही उदयावलि में खींच लाता है, यह उदीरणा है। उदीरणा के द्वारा खींच कर लाये हुये कर्म का वेदन करना यह दूसरा प्रकार है। बौद्धों ने आश्रव का कारण अविद्या बताया है। अविद्या का निरोध करना ही आश्रव का निरोध करना है। उन्होंने आश्रव के कामाश्रव और भयाश्रव और अविद्याश्रव ऐसे तीन भेद किये हैं।
-अंगुत्तर निकाय ३,५८,६,६३ वेदना के पश्चात् निर्जरा का उल्लेख है। निर्जरा का अर्थ है संचित कर्मों का नाश होना।२४ आचार्य हेमचन्द्र ने१५ लिखा है कि भवभ्रमण के बीजभूत कर्म हैं। उन कर्मों का आत्म-प्रदेशों से पृथक् हो जाना "निर्जरा" है। वह निर्जरा दो प्रकार की है-सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा। प्रयत्न और ज्ञानपूर्वक तप आदि क्रियाओं के द्वारा कर्मों का नष्ट होना सकामनिर्जरा है। सकामनिर्जरा में आत्मा और मोक्ष का विवेक होता है, जिससे ऐसी अल्पतम निर्जरा
भी विराट् फल प्रदान करने वाली होती है।६ अज्ञानी जीव जितने कर्मों को करोड़ों वर्षों में नहीं खपा सकता, उतने . कर्म ज्ञानी एक श्वासोच्छ्वास जितने अल्प समय में खपा देता है। अकामनिर्जरा वह है-कर्म की स्थिति पूर्ण होने
पर कर्म का वेदन हो जाने पर उनका पृथक् हो जाना। परतन्त्रता के कारण भोग उपभोग का निरोध होने से भी अकामनिर्जरा होती है। जैसे नारकी या तिर्यञ्च गतियों में जीव असह्य वेदनाएँ, घोरातिघोर यातनाएँ छेदन-भेदन को सहन करता है। और मानव जीवन में भी मजबूरी से अनिच्छापूर्वक कष्टों को सहन करता है। वह दो प्रकार की है। १४. क-राजवार्तिक ७/१४/४०/१७
ख-द्रव्यसंग्रह ३६/१५० ग-भावनाशतक ६७ योगशास्त्र ४/८६ क-महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक १०१ ख-प्रवचनसार ४/३८
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