________________
संस्थान के विकृत होने पर उसका ज्ञान-विकास रुक जाता है। तथापि यह सत्य है कि आत्मा का सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र अस्तित्व है। वह तैल व बस्ती से भिन्न ज्योति की तरह है। जिस शक्ति से शरीर चिन्मय हो रहा है, वह अन्त:ज्योति शरीर से भिन्न है। आत्मा सूक्ष्म कार्मण शरीर के कारण स्थूल शरीर के नष्ट हो जाने पर दूसरे स्थूल शरीर को धारण करता है। इसलिये आत्मा और अनात्मा का ज्ञान साधना के लिए आवश्यक है। इसी तरह दण्ड, अदण्ड, क्रिया, अक्रिया आदि की चर्चा भी मुमुक्षुओं के लिए उपयोगी है।
भारतीय चिन्तन में लोकवाद की चर्चा बड़े विस्तार के साथ हुयी है। विश्व के सभी द्रव्यों का आधार "लोक" है। लोकवाद में अनन्त जीव भी हैं तो अजीव भी। धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव जहाँ रहते हैं, वह लोक है। लोक को समग्र भाव से, सन्तति की दृष्टि से निहारें तो वह अनादि अनन्त है। न कोई द्रव्य नष्ट हो सकता है
और न कोई असत् से सत् बनता है। जो द्रव्यसंख्या है, उसमें एक परमाणु की भी अभिवृद्धि कोई नहीं कर सकता। प्रतिसमय विनष्ट होने वाले द्रव्यगत पर्यायों की दृष्टि से लोक सान्त है। द्रव्य दृष्टि से लोक शाश्वत है। पर्याय दृष्टि से अशाश्वत है। कार्यों की उत्पत्ति में काल एक साधारण निमित्त है, जो प्रत्येक परिणमनशील द्रव्य के परिणाम में
है। वह भी अपने आप में अन्य द्रव्यों की भांति परिणमनशील है। आकाश के जितने हिस्से तक छहों द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक है। और उससे परे केवल आकाशमात्र अलोक है। क्योंकि जीव और पुद्गल की गति
और स्थिति में धर्म और अधर्म द्रव्य साधारण निमित्त होते हैं। जहाँ तक धर्म और अधर्म द्रव्य का सद्भाव है, वहाँ तक जीव और पुद्गल की गति और अवस्थिति सम्भव है। एतदर्थ ही आकाश के उस पुरुषाकार मध्यमभाग को लोक कहा है जो धर्म, अधर्म द्रव्य के बराबर है। धर्म, अधर्म, लोक के मापदण्ड के सदृश है। इसीलिये लोक की तरह अलोक भी एक है। जैन आगम साहित्य में जीव और अजीव का जैसा स्पष्ट वर्णन है वैसा बौद्ध साहित्य में नहीं है। बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में लोक अनन्त है या सान्त है? इस प्रश्न के उत्तर को तथागत बुद्ध ने अव्याकृत कहकर टालने का प्रयास किया है। उन्होंने लोक के सम्बन्ध में इतना ही कहा-रूप, रस आदि पाँच काम गुण से युक्त है। जो मानव इन पाँच कामगुणों का परित्याग करता है, वही लोक के अन्त में विचरण करता है।
पुण्य और पाप ये दोनों शब्द भारतीय साहित्य में अत्यधिक विश्रुत हैं। शुभ कर्म पुण्य हैं, अशुभ कर्म पाप हैं। पुण्य से जीव को सुख का और पाप से दु:ख का अनुभव होता है। पुण्य और पाप इन दोनों के द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को सुखानुभूति होती है वह द्रव्यकर्म है और जीव के दया, करुणा, दान, भावना आदि शुभ परिणाम भावपुण्य हैं। इसी तरह जिस कर्म के उदय से जीव को दु:ख का अनुभव होता है, वह द्रव्यपाप है और जीव के अशुभ परिणाम भावपाप हैं। सांख्यकारिका में भी पुण्य से ऊर्ध्वगमन और पाप से अधोगमन बताया है। नैनाचार्यों ने भी शुभ अध्यवसाय का फल स्वर्ग और अशुभ अध्यवसाय का फल नरक है। कहा है।
पुण्य और पाप की भाँति बन्ध और मोक्ष की चर्चा भी भारतीय साहित्य में विस्तार के साथ मिलती है। दो पदार्थों का विशिष्ट सम्बन्ध बन्ध कहलाता है। यों बन्ध को यहाँ पर एक कहा है। पर उसके दो प्रकार हैं। एक भावबन्ध और दूसरा द्रव्यबन्ध। जिन राग, द्वेष और मोह प्रभृति विकारी भावों से कर्म का बन्ध होता है वे भाव भावबन्ध कहलाते हैं। और कर्म-पुदगलों का आत्मप्रदेशों से सम्बन्ध होना द्रव्यबन्ध है। द्रव्यबन्ध आत्मा और पुद्गल
भायणं सव्वदव्याणं-उत्तराध्ययन २८/९
उत्तराध्ययन, सूत्र २८/७ १०. धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद् भवत्यधर्मेण। -सांख्य-४४ ११. क-प्रवचनसार १, ९, ११, १२, १३, २, ८१, ख-समयसार-१५५-१६१
[२१]