Book Title: Agam 04 Ang 04 Samvayanga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Hiralal Shastri
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 22
________________ भी मिलते हैं। संभव है कि ये वाचनान्तर व्याख्यांश अथवा परिशिष्ट मिलाने से हुये हों। विज्ञों ने यह कल्पना की है कि समवायांग में द्वादशांगी का जो उत्तरवर्ती भाग है, वह भाग उस का परिशिष्ट विभाग है। परिशिष्ट विभाग का विवरण नन्दीसूत्र की सूची में नहीं दिया गया है। इसलिये समवायांग की सूची विस्तृत हो गयी है। समवायांग के परिशिष्ट भाग में ग्यारह पदों का जो संक्षेप है, वह किस दृष्टि से इसमें संलग्न किया गया है, यह आगममर्मज्ञों के लिये चिन्तनीय है। पाताल, समवायांग का वर्तमान में उपलब्ध पाठ १६६७ श्लोक परिमाण है। इसमें संख्या क्रम से पृथ्वी, आकाश, तीनों लोकों के जीवन आदि समस्त तत्त्वों का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से एक से लेकर कोटानुकोटि संख्या का परिचय प्रदान किया गया है। इस में आध्यात्मिक तत्त्वों, तीर्थंकर, गणधर चक्रवर्ती और वासुदेवों से सम्बन्धित वर्णन के साथ भूगोल, खगोल आदि की सामग्री का संकलन भी किया गया है। स्थानांग के समान ही समवायांग में भी संख्या के क्रम से वर्णन है। दोनों आगमों की शैली समान है। समान होने पर भी स्थानांग में एक से लेकर दश तक की संख्या का निरूपण है जबकि समवायांग में एक से लेकर कोडाकोडी संख्या वाले विषयों का प्रतिपादन है। स्थानांग की तरह समवायांग की प्रकरण संख्या निश्चित नहीं है। यही कारण है कि आचार्य देववाचक ने समवायांग का परिचय देते हुए एक ही अध्ययन का सूचन किया है। यह कोष -शैली अत्यन्त प्राचीन है । स्मरण करने की दृष्टि से यह शैली अत्यन्त उपयोगी रही है। यह शैली अन्य आगमों में भी दृष्टिगोचर होती है। उत्तराध्ययन सूत्र के इकतीसवें अध्ययन में चारित्र विधि में एक से लेकर तेतीस तक की संख्या में वस्तुओं की परिगणना की गयी है। अविवेकपूर्वक प्रवृत्तियाँ कौन सी हैं ? उनसे किस प्रकार बचा जा सकता है और किस प्रकार विवेकपूर्वक प्रवृत्ति की जा सकती है, आदि। शैली स्थानांग और समवायांग की प्रस्तुत कोष -शैली बौद्ध परम्परा में और वैदिक परम्परा में भी प्राप्त है! बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय, पुग्गलपञ्ञति, महाव्युत्पत्ति एवं धर्मसंग्रह में इसी तरह विचारों का संकलन किया गया है। महाभारत के वनपर्व के १३४वें अध्याय में नन्दी और अष्टावक्र का संवाद है। उस में दोनों पक्ष वाले एक से लेकर तेरह तक वस्तुओं की परिगणना करते हैं। प्राचीन युग में लेखन सामग्री की दुर्लभता थी । मुद्रण का तो पूर्ण अभाव ही था । इसलिये स्मृति की सरलता के लिए संख्याप्रधान शैली अपनायी गयी थी । समवायांग में संग्रहप्रधान कोष -शैली होते हुए भी कई स्थानों पर यह शैली आदि से अन्त तक एकरूपता को लिये हुए नहीं है । उदाहरण के रूप में अनेक स्थानों पर व्यक्तियों के चरित्र आ गये हैं। पर्वतों के वर्णन आ गये हैं तथा संवाद आदि भी । प्रस्तुत आगम में एक संख्यक प्रथम सूत्र के अन्त में यह कथन किया गया है। कितने ही जीव एक भव में सिद्धि को वरण करेंगे। उसके पश्चात् दो से लेकर तेतीस संख्या तक यह प्रतिपादन किया गया है । इसके बाद कोई कथन नहीं । जिससे जिज्ञासु के अन्तर्मानस में यह प्रश्न उबुद्ध होता है कि चोंतीस भव या उससे अधिक भव वाले सिद्धि प्राप्त करेंगे या नहीं ? इसका कोई समाधान नहीं है। हमारी दृष्टि से आचार्य देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण के समय आगमों के संकलन करते हुए ध्यान न रहा हो, या कुछ पाठ विस्मृत हो गये हों, जिसकी पूर्ति उन्होंने अनन्त संसार न बढ़ जाये, इस भय से न की हो। यह बात हम पूर्व ही बता चुके हैं कि संख्या की दृष्टि से प्रस्तुत आगम में विषयों का प्रतिपादन हुआ है। इसलिये यह आवश्यक नहीं कि उस विषय के पश्चात् दूसरा विषय उसी के अनुरूप हो । प्रत्येक विषय संख्या दृष्टि [१९]

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