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से अपने आप में परिपूर्ण है तथापि आचार्य अभयदेव ने अपनी वृत्ति में एक विषय का दूसरे विषय के साथ सम्बन्ध संस्थापित करने का प्रयास किया है। कहीं-कहीं पर उन्हें पूर्ण सफलता मिली है तो कहीं-कहीं पर ऐसा प्रतीत होता है कि वृत्तिकार ने अपनी ओर से हठात् सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है। वस्तुतः इस प्रकार की शैली में एक सूत्र का दूसरे सूत्र से सम्बन्ध हो, यह आवश्यक नहीं। संख्या की दृष्टि से जो भी विषय सामने आया, उसका इस आगम में संकलन किया गया।
चतुष्टय की दृष्टि से वर्णन
समवायांग में द्रव्य की दृष्टि से जीव, पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश आदि का निरूपण किया गया है। क्षेत्र की दृष्टि से लोक, अलोक, सिद्धशिला आदि पर प्रकाश डाला गया है। काल की दृष्टि से समय, आवलिका, मुहूर्त आदि से लेकर पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी और पुद्गल-परावर्तन एवं चार गति के जीवों की स्थिति आदि पर चिन्तन किया गया है। भाव की दृष्टि से ज्ञान, दर्शन चारित्र एवं वीर्य आदि जीव के भावों का वर्णन है और वर्ण, गन्ध, रस, संस्थान, स्पर्श आदि अजीव भावों का वर्णन भी किया गया है।
प्रथम समवाय : विश्लेषण
समवायांग के प्रथम समवाय में जीव, अजीव आदि तत्त्वों का प्रतिपादन करते हुये आत्मा, अनात्मा, दण्ड, अदण्ड, क्रिया, अक्रिया, लोक, अलोक, धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष, आश्रव, संवर, वेदना, निर्जरा आदि को संग्रहनय की दृष्टि से एक-एक बताया गया है। उसके पश्चात् एक लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाले जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्ध विमान आदि का उल्लेख है। एक सागर की स्थिति वाले नारक, देव आदि का विवरण दिया गया है।
प्रथम समवाय में बहुत ही संक्षेप में शास्त्रकार ने जैन दर्शन के मूलभूत तत्त्वों का प्रतिपादन किया है। भारतीय दर्शनों में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न आत्मा का रहा है। अन्य दार्शनिकों ने भी आत्मा के सम्बन्ध में चिन्तन किया किन्तु उनका चिन्तन गहराई को लिये हुये नहीं था। विभिन्न दार्शनिकों के विभिन्न मत थे। कितने ही दार्शनिक आत्मा को व्यापक मानते हैं तो कितने ही दार्शनिक आत्मा को अंगुष्ठप्रमाण या तण्डुलप्रमाण मानते हैं। जैन दर्शन ने अनेकान्त दृष्टि से आत्मा का निरूपण किया है। वह जीव को परिणामी नित्य मानता है। द्रव्य की दृष्टि से जीव नित्य है, तो पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। यहाँ पर प्रस्तुत एकस्थानक समवाय में, आत्मा अनन्त होने पर भी सभी आत्माएँ असख्यात प्रदेशी होने से और चेतनत्व की अपेक्षा से एक सदृश हैं। सभी आत्माएँ स्वदेहपरिमाण हैं। अतएव यहाँ आत्मा को एक कहा है। सर्वप्रथम आत्मतत्त्व का ज्ञान आवश्यक होने से स्थानांग और समवायांग दोनों ही आगमों में प्रथम आत्मा की चर्चा की है।
आत्मा को जानने के साथ ही अनात्मा को जानना भी आवश्यक है। अनात्मा को ही अजीव कहा गया है। अजीव के सम्बन्ध से ही आत्मा विकृत होता है। उसमें विभाव परिणति होती है। अतः अजीव तत्त्व के ज्ञान की भी आवश्यकता है। अचेतनत्व सामान्य की अपेक्षा से अजीव एक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय और काल, ये सभी अजीव हैं। इन से आत्मा का अनुग्रह या उपघात नहीं होता। आत्मा का उपघात करने वाला पुद्गल द्रव्य है। शरीर, मन, इन्द्रियाँ, श्वासोच्छ्वास, वचन, आदि पुद्गल हैं। ये चेतन के संसर्ग से चेतनायमान होते हैं। विश्व में रूप, रस, गन्ध और स्पर्शवाले जितने भी पदार्थ हैं, वे सभी पौद्गलिक हैं। शब्द, प्रकाश, छाया, अन्धकार, सर्दीगर्मी सभी पुद्गल स्कन्धों की अवस्थाएँ हैं और वही एक आसक्ति का मूल केन्द्र है। शरीर के किसी भी स्नाय
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