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दोनों आगमों में आयी हुई विषय-सूचियों का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट परिज्ञात होता कि नन्दीसूत्र में जो आगम-विषयों की सूची आयी है, वह बहुत ही संक्षिप्त है और समवायांग में जो विषय-सूची है, वह बहुत ही विस्तृत है। नन्दी और समवायांग में सौ तक एकोत्तरिका वृद्धि होती है, ऐसा स्पष्ट संकेत किया गया है, किन्तु उन में अनेकोत्तरिका वृद्धि का निर्देश नहीं है, नन्दीचूर्णि में जिनदासगणि महत्तर ने, नन्दी हरिभद्रीया वृत्ति में अचार्य हरिभद्र ने, और नन्दी की वृत्ति में, आचार्य मलयगिरि ने अनेकोत्तरिका वृद्धि का कोई भी संकेत नहीं किया है। आचार्य अभयदेव ने समवायांग वृत्ति में अनेकोत्तरिका वृद्धि का उल्लेख किया है। आचार्य अभयदेव के मत के अनुसार सौ तक एकोत्तरिका वृद्धि होती है और उसके पश्चात् अनेकोत्तरिका वृद्धि होती है। विज्ञों का ऐसा अभिमत है कि वृत्तिकार ने समवायांग के विवरण के आधार पर यह उल्लेख नहीं किया है। अपितु समवायांग में जो पाठ प्राप्त है, उसी के आधार से उन्होंने यह वर्णन किया है।
यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि नन्दीसूत्र में समवायांग का जो परिचय दिया गया है, क्या उस परिचय से वर्तमान में समुपलब्ध समवायांग पृथक् है ? या-जो वर्तमान में समवायांग है, वह देवर्द्विगणि क्षमाश्रमण की वाचना का नहीं है। यदि होता तो दोनों विवरणों में अन्तर क्यों होता ? समाधान है-नन्दी में समवायांग का जो विवरण है उसमें अन्तिम वर्णन द्वादशांगी का है। परन्तु वर्तमान में जो समवायांग है उसमें द्वादशांगी से आगे अनेक विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इसलिए नन्दीगत समवायांग के विवरण से वह आकार की दृष्टि से पृथक् है। हमने स्थानांग सूत्र की प्रस्तावना में यह स्पष्ट किया है कि आगमों की श्रमण भगवान् महावीर के पश्चात् पांच वाचनाएं हुयी। आचार्य अभयदेव ने प्रस्तुत आगम की वृत्ति में प्रस्तुत आगम की बृहद् वाचना का उल्लेख किया है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि नन्दी में समवाय का जो परिचय देववाचक ने दिया है वह लघुवाचना की दृष्टि से दिया हो।
समवायांग के परिवर्धित आकार को लेकर कुछ मनीषियों ने दो अनुमान किये हैं। वे दोनों अनुमान कहाँ तक सत्य-तथ्य पर आधृत हैं, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। मेरी दृष्टि से यदि समवायांग पृथक् वाचना का होता तो इस सम्बन्ध में प्राचीन साहित्य में कहीं न कहीं कुछ अनुश्रुतियां अवश्य मिलतीं। पर समवायांग के सम्बन्ध में कोई भी अनुश्रुति नहीं है। उदाहरण के रूप में ज्योतिषकरण्ड ग्रन्थ माथुरी वाचना का है, पर समवायांग के सम्बन्ध में ऐसा कुछ भी नहीं है। अतः विज्ञों का प्रथम अनुमान केवल अनुमान ही है। उसके पीछे वास्तविकता का अभाव है। दूसरे अनुमान के सम्बन्ध में भी यह नम्र निवेदन है कि भगवतीसूत्र में कुलकरों और तीर्थंकरों आदि के पूर्ण विवरण के सम्बन्ध में समवायांग के अन्तिम भाग का अवलोकन करने का संकेत किया गया है। इसी तरह स्थानांग में भी बलदेव और वासुदेव के पूर्ण विवरण के लिए समवायांग के अन्तिम भाग का अवलोकन करने हेतु सूचन किया है। इस विचार-चर्चा में यह स्पष्ट है कि समवायांग में जो परिशिष्ट विभाग है, वह विभाग देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण ने समवायांग में जोड़ा है।
यह शोधार्थी के लिए अन्वेषणीय है कि नन्दी और समवायांग इन दोनों आगमों के संकलनकर्ता देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण हैं, तो फिर उन्होंने दोनों आगमों में जो विवरण दिया है, उसमें एकरूपता क्यों न रखी ? दो प्रकार के विवरण क्यों दिये ? समाधान है कि अनेक वाचनाएं समय-समय पर हुयी हैं। अनेक वाचनाएं होने से बहुविध पाठ च शब्दस्य चान्यत्र सम्बन्धादेकोत्तरिका अनेकोतरिका च तत्र शतं यावदेकोत्तरिका परतोऽनेकोत्तरिकेति।
-समवायांग वृत्ति, पत्र १०५ ७. भगवतीसूत्र, शतक ५, उ. ५, पृ. ८२६ -भाग २ सैलाना (म.प्र.) एवं जहा समवााए निरवसेसं........।
-स्थानाङ्ग ९, सूत्र ६७२, मुनि कन्हैयालालजी 'कमल' [१८]