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साधना की प्रगति में शल्य बाधक है। शल्य अन्दर ही अन्दर कष्ट देता है। वैसे ही माया, निदान और मिथ्यादर्शन ये साधना को विकृत करते हैं साधक को इनसे बचना चाहिये। अभिमान और लोभ से आत्मा भारी बनता है और अपने आप को गौरवशाली मानता है पर वह अभिमान से उत्तप्त हुए चित्त की एक विकृत स्थिति है। साधना की दृष्टि से वह गौरव नहीं, रौरव है इसलिये साधक को तीनों प्रकार के गौरव से बचने का संकेत किया है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों मोक्ष मार्ग हैं। इन्हें रत्नत्रय भी कहा गया है। यहां पर ज्ञान से सम्यग्ज्ञान को लिया गया है जो सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है। जीव मिथ्याज्ञान के कारण अपने स्वरूप को विस्मृत कर, पर द्रव्य में आत्मबुद्धि करता है। उस का समस्त क्रियाकलाप शरीराश्रित होता है। लौकिक यश, लाभ आदि की दृष्टि से वह धर्म का आचरण करता है। उसमें स्व और पर का विवेक नहीं होता है। किन्तु सम्यग्दर्शन द्वारा साधक को स्व और पर का यथार्थ परिज्ञान हो जाता है। २७ वह संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय इन तीन दोषों को दूर कर आत्म स्वरूप को जानता है । २८ आत्मस्वरूप को जानना ही निश्चय दृष्टि से सम्यग्ज्ञान है । २९
जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष तत्त्व के प्रति श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन से यथार्थ, अयथार्थ का बोध उत्पन्न होता है रागादि कषाय परिणामों के परिमार्जन के लिये अहिंसा, सत्य, आदि व्रतों का पालन " सम्यक् चारित्र" है। इन तीनों की विराधना करने से साधक साधना से च्युत होता है। इस प्रकार तृतीय स्थान में तीन संख्या को लेकर अनेक तथ्य उद्घाटित किये गये हैं।
चतुर्थ समवाय: विश्लेषण
चतुर्थ स्थानक समवाय में चार कषाय, चार ध्यान, चार विकथाएं, चार संज्ञाएं, चार प्रकार के बन्ध, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा के तारों, नारकी व देवों की चार पल्योपम व सागरोपम स्थिति का उल्लेख करते हुए कितने ही जीवों के चार भव कर मोक्ष जाने का वर्णन है।
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आत्मा के परिणामों को जो कलुषित करता है, वह कषाय है। कषाय से आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप नष्ट होता है। कषाय आत्मधन को लूटने वाले तस्कर हैं वे आत्मा में छिपे हुए दोष हैं क्रोध, मान, माया, लोभ ये कषाय के चार प्रकार हैं। इन्हें चण्डाल चौकड़ी कहा जाता है। कषाय से मुक्त होना ही सच्ची मुक्ति है। 'कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव । ' कषाय के अनेक भेद-प्रभेद हैं। कषाय कर्मजनित और साथ ही कर्मजनक वैकारिक प्रवृत्ति है। उस प्रवृत्ति का परित्याग कर आत्मस्वरूप में रमण करना, यह साधक का लक्ष्य होना चाहिए।
कषाय के पश्चात् चार ध्यान का उल्लेख है। ध्यान का अर्थ है - चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना (२० चित्त को किसी एक बिन्दु पर केन्द्रित करना अत्यन्त कठिन है वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक एकाग्र नहीं रह सकता। १ आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है जब साधक ध्यान में तन्मय हो जाता है तब उस में द्वैतज्ञान नहीं रहता। वह समस्त राग-द्वेष से ऊपर उठकर आत्मस्वरूप में ही निमग्न हो जाता है। २२ उसे तत्त्वानुशासन २३ में समरसी भाव और ज्ञानार्णव २४ में सयीर्य ध्यान कहा है। ध्यान के लिए मुख्य रूप से तीन बातें अपेक्षित है- ध्याता, ध्येय और ध्यान । २५ ध्यान करने वाला ध्याता है। जिसका ध्यान किया जाता है, वह ध्येय है और ध्याता का ध्येय में स्थिर हो जाना "ध्यान" है।२५ ध्यान-साधना के लिए परिग्रह का त्याग, कषायों का निग्रह, व्रतों का धारण और इन्द्रिय-विजय करना आवश्यक है। स्थानांग ३६, भगवती ३७ आवश्यकनियुक्ति आदि में समवायांग की तरह ही आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये ध्यान
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स्वापूर्वार्धव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।
प्रमेयरत्नमाला - १
तातें जिनवर कथित तत्व अभ्यास करोजे संशय विभ्रम मोह त्याग आपो लख लीजे ॥ - छहढाला ४/६
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छहढाला ३ / २ |
क- आवश्यक निर्युक्ति १४५९ ख-ध्यानशतक - २ ग-नव पदार्थ- पृ. ६६८ क-ध्यानशतक- ३ ख-तत्त्वार्थसूत्र ९/२८ ग-योगप्रदीप १५ / ३३
योगप्रदीप १३८ ३३. तत्त्वानुशासन ६०-६१ ३४. ज्ञानार्णव अध्याय २८ ३५. योगशास्त्र ७ / १ तत्त्वानुशासन ६७ स्थानांग ४/२४७ ३७. भगवती श. २५ उदे. ७ ३८. आवश्यकनियुक्ति, १४५८
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