Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
भाग
सवत्तिक आगम-सुत्ताणि
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
07
आगम - ०४ 'समवाय' मूलं एवं वृत्ति:
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
OFF OFF OF
~2~
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
HOME
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स
Poसयर
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
Emaineesharineeti
95
TIONARY
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी EM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo982559885519825306275
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਨੇ
ਜੇ
ਜੋ
ਕਿ
ਇਸ ਨੂੰ
ਤੁਸੀ ਕਰਨ
ਵੀ ਹੈ ਤੋਂ ਪਾਸ
ਕਰ
आगमन 1
ਟੀ ਸੀ :
ਬਾਲ ਬ , ਕ ਵਿਸ਼ਕ ਹਕੂਕ ਲੜ ਬਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਗੁੜ ਨੂੰ ਹਰ ਤਰਸ ਤ ਸ ਮ ਲ ਵ
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
[भाग-७] श्री समवायाङ्गसूत्रम्
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
“समवाय” मूलं एवं वृत्ति:
[मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ]
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर-सूरीश्वरजी म. सा. 1 (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर
(M.Com., M.Ed., Ph. D. श्रुतमहर्षि)
→
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
‘सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि भाग-६
श्री आगमोद्धारक-वाचना- शताब्दी वर्ष निमित्त 'आगम-वृत्ति - मुद्रण- प्रोजेक्ट'
~5~
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब
. जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के दवारा कायोत्सर्ग नामक | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति : बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर | । अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ : - बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, | व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही “जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से | : शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर : पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की : प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की।
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को - प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें | अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | __...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर...
.
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार युक्त
पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथसाथ वे आखिर 'गच्छाधिपति पद पे आरूढ़ हो गए। इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था । आप कभी भी दुपहर को चले : जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे |
••• ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए । एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी
भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष}दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी : नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो | गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण" इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ••• मुनि दीपरत्नसागर...
श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा
पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा वद ५ को हुई | आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुई | शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन - प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर है, जो शत्रुंजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है । वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णनअनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है। ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है ।
मुनि दीपरत्नसागर....
~7~
***
पूज्य
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
_ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु : संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन
अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र• वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे | छोटे-छोटे कार्यो के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक : :की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से | पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रेजापूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
...........मुनि दीपरत्नसागर |
-
..
-
..
-
..
-
..
-..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
..
-
.
~8~
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
मूलाङ्का: १५९+९३
मूलांक:
००१
००२
००३
००४
००५
008
००७
८-१०
११-१३
१४-१८
०१९
२०-२५
०२६
२७-३१
३२-३७
३८-४१
०४२
४३-४५
४६-४९
०५०
प्रथम
द्वितीय
तृतीय
चतुर्थ
पंचम
षष्ठ
सप्तम
अष्टम
नवम
दशम
एकादश
द्वादश
त्रयोदश
चतुर्दश
पंचदश
षोडश
समवायः
सप्तदश
अष्टादश
एकोनविंशति
विंशति
पृष्ठांक
૦૦૮
०२१
०२२
०२२
०२६
०२९
०३१
०३३
०३६
०३९
०४४
०४९
०५६
०५९
०६३
०६९
०७१
०७४
०७९
०८१
समवायान सूत्रस्य विषयानुक्रम
समवायः
मूलांक::::
०५१
०५२
०५३
०५४
५५-५९
६०
६१
६२
६३
६४-९९
१०० १०१
१०२-१०८
१०९
११०
१११
११२
११३
११४
एकविंशति
द्वाविंश
त्रयोविंशति
११५
११६
पञ्चविंशति
विंशति
सप्तविंशति
अष्टाविंशति
एकोनत्रिंशत्
त्रिंशत्
एकत्रिंशत्
द्वात्रिंशत्
त्रयस्त्रिंशत्
चतुस्त्रिंशत्
पञ्चत्रिंशत्
षट्त्रिंशत्
सप्तत्रिंशत्
पृष्ठांक मूलांक::::
०८४
११७
०८७
०९१
०९२
०९४
०९७
०९८
१०१
१०४
१०७
~9~
११७
१२०
१२३
१२६
१३२
१३५
१३६
१३६
१३८
१३८
११८
११९
१२०
१२१-१२३
१२४
१२५
१२६
१२७
१२८
१२९
१३०
१३१
१३२
१३३
१३४
१३५
१३६
१३७
१३८
दीप-अनुक्रमा: ३८३
समवायः
एकचत्वारिंशत् वाचत्वारिंशत्
त्रिचत्वारिंशत्
चतु: चत्वारिंशत् पञ्चचत्वारिंशत्
चत्वारिंशत
सप्तचत्वारिंशत्__
अष्टचत्वारिंशत्
एकोनपंचाशत
पंचाशत्
एकपंचाशत्
द्विपंचा
पंचाशत्
चतुष्पंचाशत्__
पंचपंचा
त्रिंशत् एकोनचत्वारिंशत्
चत्वारिंशत्
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [०४] अंग सूत्र- [ ०४] “समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः
सप्तपंचाशत्
पंचश
एकोनषष्टि
षष्टि
पृष्ठांक
१३९
१३९
१४२
१४३
१४४
१४४
१४५
१४६
१४६
१४७
१४८
१४८
१५०
१५१
१५१
१५४
१५४
१५४
१५५
१५५
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठांक
१४.
मूलाका: १५९+९३ मलाक:
समवाय: १३९
| एकषष्टि
दविषष्टि १४१ त्रिषष्टि १४२ चतुःषष्टि १४३
पञ्चषष्टि १४४ षषष्टि १४५ सप्तषष्टि १४६ अष्टषष्टि १४७ एकोनसप्तति १४८ - सप्तति
समवायाङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम पृष्ठांक मलांक::::
समवाय: १५६ १४९ । एकसप्तति
१७० | १५७ || १५० | दविसप्तति
१७२ १६१ १५१ त्रिसप्तति
१७४ १६१ १५२ चतुःसप्तति
१७५ पञ्चसप्तति
१७६ १५४-१५५ षड्सप्तति
१७७ १६४ १५६ सप्तसप्तति
१७७ १५७ अष्टसप्तति
१७८ १६
एकोनाशीति १६८ १५९ अशीति
दीप-अनुक्रमा: ३८३ मलांक: समवाय:
पृष्ठांक | एकाशीति
१८३ | दवयशीति
१८४ १६२ त्र्यशीति
१८५ १६३ चतुरशीति
१८७ १६४ पंचाशीति १६५ षडशीति १६६ सप्ताशीति
१९२ १६७ अष्टाशीति १६८ एकोननवति १६९ नवति
१९५
१५३
१९४
A/R
१७०
१७४
२०१
नवनवति शत
२०५ २०४
१९८
१७५
एकनवति १७१ | द्विनवति
કર त्रिनवति १७३ | चतुर्नवति
पञ्चनवति षण्णवति सप्तनवति अष्टनवति
१७८ | १७९ | १८०-३८३
२००
२०२ २०३ २०४
१७६ १७७
प्रकीर्णक: समवाया:
२०८३२७
२०१
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[०४], अंग सूत्र-[०४] “समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति:
~10~
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
[समवाय- मूलं एवं वृत्तिः ] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “समवायाङ्गसूत्र के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है।
इसी समग सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से आचार्य श्री नयचंद्रसागरसूरिजीने भी छपवाया है, समुदाय की वफादारी निभाते हुए इस पूज्यश्रीने पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है। अपनी प्रस्तावनामें नयचंद्रसागरसूरिजी ने भी मेरी तरह उक्त बात का उल्लेख किया है।
इसी समवायाङ्गसूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से पूज्य जम्बूविजयजी महाराजजीने श्री मोतीलाल बनारसीदास की तरफसे प्रकाशित करवाई है, जो की पुस्तक रूपसे बाईंडेड है, और परिशिष्टमें पूज्य श्री पुन्यविजयजी संकलित शुद्धि-वृद्धि पत्रक दिया है।
हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करनेके हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके| हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट लिखी है।
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-७ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
___......मुनि दीपरत्नसागर.
~11~
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[-]
प्रत
अनुक्रम [-]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं + वृत्तिः)
मूलं [-]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [ - ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
१ स०
अर्हम् । नवावृत्तिकारक श्रीमदभयदेवसूरिवर्यविहित विवरणमुर्त श्रीमत्समवायाङ्गसूत्रम् ।
श्राबद्धमानमानम्य, समवायाङ्गवृत्तिका । विधीयतेऽन्यशास्त्राणां प्रायः समुपजीवनात् ॥ १ ॥ दुः सम्प्रदायादसदूहनाद्वा, भणिष्यते यद्वितथं मयेह । तीधर्मामनुकम्पयद्भिः, शोध्यं मतार्थक्षतिरस्तु मैव ॥ २ ॥
इह स्थानाख्यतृतीयाङ्गानुयोगानन्तरं क्रमप्राप्त एव समवायाभिधानचतुर्थाङ्गानुयोगो भवतीति सोऽधुना समारभ्यते, तत्र च फलादिद्वारचिन्ता स्थानाङ्गानुयोगवत् क्रमादवसेया, नवरं समुदायार्थोऽयमस्य समिति - सम्यक अबेत्याधिक्येन अयनमयः परिच्छेदो जीवाजीवादिविविधपदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसौ समवायः समययन्ति वा
वृत्तिकार - कृत वृत्ति- प्रतिज्ञा एवं शाश्त्र स्वीकृत्ति
For Parts Only
~ 12 ~
%%%%%
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१]. ------------------------------------ मल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१ सम
बायः
प्रत
सुत्रांक
श्रीसमवा- समवतरन्ति संमिलन्ति नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवाय इति, स च प्रवचनपुर-
यांगे तपस्याङ्गमिति समवायाङ्गम् , तत्र किल श्रीश्रमणमहावीरवर्द्धमानखामिनः सम्बन्धी पञ्चमो गणधर आर्यसुधर्मश्रीअभय
खामी खशिष्यं जम्बूनामानमभि समवायाज्ञार्थमभिधित्सुः भगवति धर्माचार्ये बहुमानमाविर्भावयन् खकीयवचने वृतिः
च समस्तवस्तुविस्तारखभावावभासिकेवलालोककलितमहावीरवचननिःश्रिततयाऽविगानेन प्रमाणमिदमिति शिष्यस्य ॥१॥ मतिमारोपयन्निदमादावेव सम्बन्धसूत्रमाह
सुर्य मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-[इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं पुरिसुत्तमेणं पुरिससीहेणं पुरिसवरपुंडरीएणं पुरिसवरगंधहत्थिणा लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं लोगहिएणं लोगपईवेणं लोगपत्रोअगरेणं अभयदएणं चस्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं जीवदएणं धम्मदएणं धम्मदेसएणं धम्मनायगेणं धम्मसारहिणा धम्मवरचाउरंतचक्वट्टिणा अप्पडिहयवरनाणदसणधरेणं वियदृच्छउमेणं जिणेणं जावएणं तिन्नेणं तारएणं बुद्धेणं वोहएण मुत्तेणं मोयगेणं सव्वत्रुणा सव्वदरिसिणा सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमवाबाहमपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पन्नत्ते, तंजहा-आयार १ सूयगडे २ ठाणे ३ समवाए ४ विवाहपनची ५ नायाधम्मकहाओ ६ उवासगदसाओ ७ अंतगडदसाओ ८ अणुत्तरोववाइदसाओ ९पण्हावागरण १० विवागसुए ११ दिडिवाए १२, तत्थ णं जे से चउत्थे अंगे समवाएत्ति आहिते तस्स णं अयमढे पन्नत्ते, तंजहा-] एगे आया एगे अणाया एगे दंडे एगे अदंडे एगा किरिआ एगा अकिरिआ एगे लोए एगे अलोए एगे
प्रत
अनुक्रम
॥१॥
'समवाय' शब्दस्य व्याख्या, मूलसूत्रस्य आरम्भ:
~13~
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१], ------------------- ----------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
PAN
प्रत सूत्रांक
धम्मे एगे अपम्मे एगे पुण्णे एगे पावे एगे बंधे एगे मोक्खे एगे आसवे एगे संवरे एगा वेयणा एगा णिजरा १८ जंबुद्दीवे दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पण्णत्ते, अप्पइट्टाणे नरए एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते, पालए जाणविमाणे एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते, सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते । अहानक्खत्ते एमतारे पन्नत्ते, चित्तानक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते, सातिनक्खत्ते एगतारे पन्नत्ते । इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरझ्याणं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए नेरइआणं उक्कोसेणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, दोच्चाए पुढवीए नेरइयाणं जहन्नेणं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, असुरकुमाराणं देवाणं अत्येगइयाणं एगं पलिओवमं ठिई पत्नत्ता, असुरकुमाराणं देवाणं उकोसेणं एगं साहियं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, असुरकुमारिंदवजियाणं भोमिआणं देवाणं अत्येगइआणं एग पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, असंखिजवासाउयसन्निपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं अत्यंगइआणं एग पलियोवमं ठिई पन्नत्ता, असंखिअयासाउयगन्भवतियसंणिमणुयाणं अत्थेगइयाण एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, वाणमंतराणं देवाणं उक्कोसेणं एग पलिओवमं ठिई पन्नता, जोइसियाणं देवाणं उकोसेणं एगं पलिओवमं वाससयसहस्समभहियं ठिई पन्नत्ता, सोहम्मे कप्पे देवाणं जहन्नेणं एग पलिओवर्म ठिई पन्नत्ता, सोहम्मे कप्पे देवाणं अत्येगइआणं एग सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, ईसाणे कप्पे देवाणं जहन्नेणं साइरेगं एगं पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेमइयाणं एर्ग सागरोवम ठिई पन्नत्ता, जे देवा सागरं सुसागरं सागरकंत भवं मणुं माणुसोत्तरं लोगहियं विमाणं देवत्ताए उववन्ना तेसि णं देवाणं उक्कोसे णं एगं सागरोवमं ठिई पन्नत्ता, ते ण देवा
अनुक्रम
~14~
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं वृत्ति:)
समवाय [१] --------------------------------- मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा-18 एगस्स अद्धमासस्स आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहारडे समु
१समयांगे पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जे जीवा ते एगेणं भवग्गहणेणं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदु- वायः
क्खाणमंतं करिस्संति १८ ॥ सूत्रम् ॥१॥ वृत्तिः
'श्रुतम् आकर्णितं 'मे' मया हे 'आयुष्मन् !' चिरजीवित!जम्बूनामन् ! 'तेर्ण'ति योऽसौ निर्मूलोन्मूलितरागद्वेषादिवि-18 ॥२॥
षमभावरिपुसैन्यतया भुवनभावावभासनसहसंवेदनपुरस्सरी विसंवादिवचनतया च त्रिभुवनभवनप्राङ्गणप्रसपत्सुधाधवलयशोराशिस्तेन महावीरेण भगवता-समोश्चर्यादियुक्तेन 'एव'मिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेणाख्यातम्-अभिहितमात्मादिवस्तुतत्त्वमिति गम्यते, अथवा 'आउसंतेणं'ति भगवतेत्यस्य विशेषणमायुष्मता चिरजीवितवता भगवतेति, अथवा ।
पाठान्तरेण मयेत्यस्य विशेषणमिदं आवसता मया गुरुकुले आमृशता वा-संस्पृशता वा मया विनयनिमित्तं करतलाभ्यां ४ागुरोः क्रमकमलयुगलमिति, यहा आउसंतेण'ति आजुपमाणेन वा प्रीतिप्रवणमनसेति, यदाख्यातं तदधुनोच्यते'एगे आया इत्यादि, कस्यचिद्वाचनायामपरमपि सम्बन्धसूत्रमुपलभ्यते, यथा-'इह खलु समणेणं भगवया इत्यादि, तामेव च वाचनां वृहत्तरत्वाद्वयाख्यास्यामः, इदं च द्वितीयसूत्र सञ्चहरूपप्रथमसूत्रस्यैव प्रपञ्चरूपमवसेयम् ,॥२॥ अस्स चैवं गमनिका-'इह' अभिल्लोके निर्ग्रन्थतीर्थे वा, खलु वाक्यालबारे अवधारणे वा, तथा च इहैव, न शा-1 क्यादिप्रवचनेषु, श्राम्यति-तपस्यतीति श्रमणस्तेन, इदं चान्तिमजिनस्य सहसम्पन्नं नामान्तरमेव, यदाह-'सहसं
FORCE
CON
JMEauratos
'आउसंतेणं' शब्दस्य व्याख्या,
~15
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं वृत्ति:) समवाय [१], ------
..........------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
-%-56154
मुइयाए समणे त्ति, भगवतेति पूर्ववत् , महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरस्तेन, इदं च महासात्विकतया प्राणप्रहाणप्रवणपरीपहोपसर्गनिपातेऽप्यप्रकम्पत्वेन पीयूपपानप्रभुभिराविर्भावितम् , आह च–'अयले भयभरवाणं खंतिखमे परीसहोवसग्गाणं पडिमाणं पारए देवेहि (से णाम) कए महावीरे'त्ति, कथम्भूतेनेत्याह-आदौ-प्राथम्येन श्रुतधर्ममाचारादिग्रन्थात्मकं करोति-तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकरस्तेन, तथा तरन्ति येन संसारसागरमिति तीर्थप्रवचनं तदव्यतिरेकादिह सकतीर्थ तस्य करणशीलत्वात्तीर्थकरस्तेन, तीर्थकरत्वं च तस्य नान्योपदेशबुद्धत्वपूर्वकमित्यत आह-खयम्-आत्मनैव नान्योपदेशतः सम्यग्बुद्धो हेयोपादेयवस्तुतत्त्वं विदितवानिति खयंसम्बुद्धस्तेन, स्वयंसम्बुद्धत्वं चास्य न प्राकृतस्येव संभाव्यं पुरुषोत्तमत्यादयेत्यत आह-पुरुषाणां मध्ये तेन तेनातिशयेन रूपादिनोद्गतत्वाद्-ऊर्ध्ववर्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमस्तेन, अथ पुरुपोत्तमत्वमेव सिंहायुपमानत्रयेणास्य समर्थयन्नाह-सिंह इव सिंहः पुरुषश्चासौ सिंहश्चेति पुरुषसिंहः, लोकेन हि सिंहे शौर्यमतिप्रकृष्टमभ्युपगतमतः शौर्ये स उपमानं कृतः, शौर्य तु | भगवतो वाल्ये प्रत्यनीकदेवेन भाप्यमानस्याप्यभीतत्वात् कुलिशकठिनमुष्टिप्रहारप्रहतिप्रवर्द्धमानामरशरीरकुजताकरणाच इत्यतस्तेन, तथा वरं च तत्पुण्डरीकं च वरपुण्डरीकं-धवलं सहस्रपत्रं पुरुष एच वरपुण्डरीकं पुरुषवरपुण्डरीकं,8 धवलता चास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसरहितत्वात् सर्वेश्च शुभैरनुभावैः शुद्धत्वादित्यतस्तेन, तथा वरश्चासौ गन्ध
१ सहसम्मत्या श्रमणः । १ अबलो भयभैरवयोः क्षान्तिक्षमः परिषहोपसर्माणां प्रतिमानो पारगो देवः कृतं महावीर इति ।
अनुक्रम
%CANAGAR
श्रमण, भगवत्, महावीर आदि शब्दानाम व्याख्या, भगवन् महावीरस्य 'वीर शक्रस्तव' रूप विशेषणस्य व्याख्या:
~16~
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१], ---------------------------- ---- मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
वायः
प्रत
श्रीसमवा-
यांगे श्रीअभय
सुत्रांक
बृत्तिः
हस्ती च परगन्धहस्ती पुरुष एव वरगन्धहस्ती पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्धहसिनो गन्धेनेव सर्वगजा भज्यन्ते तथा शौसमभगवतस्तद्देशविहरणेन ईतिपरचक्रदुर्भिक्षजनडमरकादीनि दुरितानि शतयोजनमध्ये नश्यन्तीति अतस्तेन पुरुषवरगन्धहस्तिना, न भगवान् पुरुषाणामेयोत्तमः किन्तु सकलजीवलोकस्यापीत्यत आह-लोकस्य-तिर्यग्नरनारकनाकिलक्षणजीवलोकस्योत्तमः-चतुर्विंशदुद्धातिशयाद्यसाधारणगुणगणोपेततया सकलसुरासुरखचरनरनिकरनमस्थतया च प्रधानो लोकोत्तमस्तेन, लोकोत्तमत्वमेवास्य पुरस्कुर्वन्नाह-लोकस्य-सज्ञिभव्यलोकस्य नाथः-प्रभुलॊकनाथस्तेन, नाथत्वं चास्य योगक्षेमकृन्नाथ' इति वचनादप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादेर्योगकरणेन लब्धस्य तस्यैव पालनेन चेति, लोकनाथत्वं च तात्त्विकं तद्धितत्वे सति सम्भवतीत्याह-लोकस्य-एकेन्द्रियादिप्राणिगणस्य हितः-आत्यन्तिकतद्रक्षाप्रकर्षप्ररूपणेनानुकूलवर्ती लोकहितस्तेन, यदेतनाथत्वं हितत्वं वा तव्यानां यथायस्थितसमस्तवस्तुस्तोमप्रदीपनेन नान्यथेत्याह-लोकस्य-विशिष्टतिर्यग्नरामररूपस्यान्तरतिमिरनिकरनिराकरणेन प्रकृष्टपदार्थप्रकाशकारित्वात्प्रदीप इव प्रदीपो लोकप्रदीपस्तेन, इदं च विशेषणं द्रष्टलोकमाश्रित्योक्तम् , अथ दृश्यलोकमाश्रित्याह-लोकस्य-लोक्यते इति लोक इति व्युत्पत्त्या लोकालोकरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमखभावस्याखण्डमार्तण्डमण्डलमिव निखिलभावसभावावभासनसमर्थ-4॥३॥ केवलालोकपूर्वकप्रवचनप्रभापटलप्रवर्तनेन प्रद्योतं-प्रकाशं करोतीत्येवंशीलो लोकप्रद्योतकरस्तेन, ननु लोकनाथत्वादिविशेषणयोगी हरिहरहिरण्यगर्भादिरपि तत्पीर्थिकमतेन सम्भवतीति कोऽस्य विशेष इत्याशङ्कायां तद्विशेषाभिधानाया
प्रत
अनुक्रम
भगवन् महावीरस्य 'वीर शक्रस्तव' रूप विशेषणस्य व्याख्या:
~17~
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय १. ............------------------------- मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
सह-न भयं दयते-प्राणापहरणरसिकोपसर्गकारिण्यपि प्राणिनि ददातीत्यभयदयः अभया वा-सर्वप्राणिभयपरिहार-141
वती दया-घृणा यस्यासावभयदयो, हरिहरादिस्तु नैवमिति, तेनाभयदयेन, न केवलमसावपकारकारिणामप्यनर्थपरिहारमात्रं करोति अपित्वर्थप्राप्तिं करोतीति दर्शयन्नाह-चक्षुरिव चक्षुः-श्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थविभागकारित्वात्तद्दयते। इति चक्षुर्दयस्तेन, यथा हि लोके चक्षुर्दचा वाञ्छितस्थानमार्ग दर्शयन् महोपकारी भवतीत्येवमिहापीति दर्शयन्नाह-18 |मार्ग-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं परमपदपथं दयत इति मार्गदयस्तेन, यथा हि लोके चक्षुरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्तान् निरुपद्रवं स्थान प्रापयन् परमोपकारी भवति एवमिहापीति दर्शयन्नाह-शरणं-त्राणमज्ञानोपद्रवोपहतानां तद्रक्षास्थानं तच्च परमार्थतो निर्वाणं तद्दयत इति शरणदयस्तेन, यथा हि लोके चक्षुर्मार्गशरणदानात् | दुःस्थानां जीवितव्यं ददाति एवमिहापीति दर्शयन्नाह-जीवनं जीवो-भावप्राणधारणममरणधर्मत्वमित्यर्धस्तं दयत Pइति जीवदयो जीवेषु वा दया यस्य स जीवदयोऽतस्तेन, इदं चानन्तरोक्तं विशेषणकदम्बकं भगवतो धर्ममयमूर्ति
त्वात्सम्पन्नमिति धर्मात्मकतामस्यान्यविशेषणपञ्चकनाह-धर्म-श्रुतचारित्रात्मकं दुर्गतिप्रपतजन्तुधारणसभावं दयतेददातीति धर्मदयस्तेन, तहानं चास्य तद्देशनादेवेसत आह-धर्मम्-उक्तलक्षणं देशयति-कथयतीति धर्मदेशकस्तेन, धर्मदेशकत्वं चास्य धर्मखामित्वे सत्ति न पुनर्यथा नटस्येति दर्शयन्नाह-धर्मस्य-क्षायिकज्ञानदर्शनचारित्रात्मकस्य नायकः-खामी यथावत्पालनाद्धर्मनायकस्तेन, तथा धर्मस्य सारथिर्धर्मसारथिः, यथा रथस्य सारथी रथं रथिकमांश्च ।
CASEASCANCESAKER
SACAKACASSESAMERICASSES
अनुक्रम
भगवन् महावीरस्य 'वीर शक्रस्तव' रूप विशेषणस्य व्याख्या:
~18~
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१]. ------------------------------------ मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
A
१सम
प्रत
सुत्रांक
॥४॥
श्रीसमवा- रक्षति एवं भगवांश्चारित्रधर्मानानां संयमात्मप्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाद्धर्मसारधिर्भवतीति तेन धर्मसारथिना, तथा
यांगे यः समुद्राश्चतुर्थों हिमवान् एते चत्वारः अन्ताः-पर्यन्तास्तेषु खामितया भवतीति चातुरन्तः स चासौ चक्रवर्ती च श्रीअभय चातुरन्तचक्रवर्ती वरचासौ पृथिव्याः चातुरन्तचक्रवर्ती चेति वरचातुरन्तचक्रवर्ती-राजातिशयः धर्मविषये वरचातुवृत्ति दन्तचक्रवर्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, यथा हि पृथिव्यां शेषराजातिशायी वरचातुरन्तचक्रवर्ती भवति तथा भग
वान् धर्मविषये शेषप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वात् तथोच्यत इति तेन धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिना, एतच धर्मदाय|कत्वादिविशेषणपञ्चकं प्रकृष्टज्ञानादियोगे सति भवतीत्यत आह-अप्रतिहते-कटकुख्यपर्वतादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा बरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने केवललक्षणे धारयतीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरस्तेन, एवं-15 विधसंवेदनसंपदुपेतोऽपि छपवान् मिथ्योपदेशित्वानोपकारीति निश्छमताप्रतिपादनायास्याह, अथवा कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं सम्पन्न ?, अत्रोच्यते, आवरणाभावाद्, एतदेवाह-व्यावृत्तं-निवृत्तमपगतं छद्म-शठत्वमावरणं वा यस्य | |स तथा तेन व्यावृत्तछाना, मायावरणयोश्चाभावोऽस्य रागादिजयाजात इत्यत आह-जयति-निराकरोति रागद्वेषा-IRM |दिरूपानरातीनिति जिनतेन, रागादिजयश्चास्य रागादिखरूपतजयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह-जा-INI नाति छानस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञापकस्तेन, अनन्तरमस्य स्वार्थसम्पत्त्युपाय उक्तः, अधुना खार्थसम्पत्तिपूर्वकं परार्थ-11 सम्पादकत्वं विशेषणषट्केनाह-तीर्ण इव तीर्णः, संसारसागरमिति गम्यते, तेन, तथा तारयति परानप्युपदेशवर्तिन
NCASSACRACTEK
प्रत
अनुक्रम
SARELatun intimational
Natunasaram.org
भगवन् महावीरस्य 'वीर शक्रस्तव' रूप विशेषणस्य व्याख्या:
~19~
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [१], ----
----------------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
इति तारकस्तेन, तथा बुद्धेन जीवादितत्त्वं, तथा बोधकेन जीवादितत्त्वमेवापरेषां, तथा मुक्तेन वायाभ्यन्तरपन्धिव-1ई न्धनात् , मोचकेन तत एव परेषां, तथा मुक्तत्वेऽपि सर्वज्ञेन सर्वदर्शिना, न तु मुक्तावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषेणेक भाविजडत्वेन, तथा शिवं सर्वाबाधारहितत्वात् , अचलं स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेत्वभावात् , अरुजम्-अविद्यमानरोग, शरीरमनसोरभावात् , अनन्तमनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात् , अक्षयम्-अनाशं साद्यपर्यवसितस्थितिकत्वात्, अक्षतं या परिपूर्णत्वात् पूर्णिमाचन्द्रमण्डलवत्, अव्याबाधमपीडाकारित्वात् , 'अपुनरावर्तकम् अविद्यमानपुनर्भवावतारं, तबीजभूतकाभावात् सिद्धिगतिरिति नामधेयं यस्य तत्सिद्धिगतिनामधेयं, तिष्ठति यस्मिन् कर्मकृतिकाररहितत्वेन सदाऽवस्थितो भवति तत्स्थानं-क्षीणकर्मणो जीवस्य खरूपं लोकाग्रं वा, जीवखरूपविशेषणानि तु लोकाग्रस्याधेयधर्माणामाधारेऽध्यारोपादवसेयानि, तदेवंभूतं स्थानं सम्प्रासुकामेन-यातुमनसा न तु तत्प्राप्तेन, तत्मासस्थाकरणत्वेन प्रज्ञापनाऽभावात् , प्राप्तुकामेनेति यदुच्यते तदुपचाराद्, अन्यथा हि निरभिलाषा एव भगवन्तः केवलिनो भवन्ति, 'मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसत्तम' इति वचनादिति । तदेवमगणितगुणगणसम्पदुपेतेन भगवता 'इम' ति इदं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षमासनं च द्वादशाङ्गानि यसिंस्तद् द्वादशाङ्गं गणिनः-आचार्यस्य पिटकमिव पिटकं गणिपिटकं, यथा हि वालचुकवाणिजकस्य पिटकं सर्वसाधारभूतं भवति एवमाचार्यस्य द्वादशाङ्गं ज्ञानादिगुणरत्नसर्वखाधारकल्पं भवतीति भावः, प्रज्ञसं तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तितया प्रायः कृतार्थेनापि परोपकाराय प्रकाशितं, 'तद्यथे
40
अनुक्रम
भगवन् महावीरस्य 'वीर शक्रस्तव' रूप विशेषणस्य व्याख्या:
~20~
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१], ------------------------------------ मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१ समबायः
प्रत
यांग
सुत्रांक
प्रत
श्रीसमवा- त्युदाहरणोपदर्शने, आचार इत्यादि द्वादश पदानि वक्ष्यमाणनिर्वचनानीति कण्ठ्यानि, 'तत्थ णति तत्र-द्वादशाझे णमि-
सलकारे यत्तचतुर्थमझं समवाय इत्याख्यातं तस्यायमर्थः-आत्मादिः अभिधेयो भवतीति गम्यते, 'तद्यथेति वाचश्रीअभयानान्तरद्वितीयसम्बन्धसूत्रव्याख्येति । इह च विदुषा पदार्थसार्थमभिदधता सक्रम एवासावभिधातव्य इति न्यायः, वृचिः
तत्राचार्य एकत्वादिसङ्ख्याक्रमसम्बन्धानर्थान् वक्तुकाम आदावेकत्वविशिष्टानात्मनश्च सर्वपदार्थभोजकत्वेन प्रधानत्वा-15 दात्मादीन् सर्वस्य वस्तुनः सप्रतिपक्षत्वेन सप्रतिपक्षान् ‘एगे आया' इत्यादिभिरष्टादशभिः सूत्रैराह, स्थानाङ्गोक्तार्थानि है चैतानि प्रायस्तथापि किश्चिदुच्यते-एक आत्मा, कथञ्चिदिति गम्यते, इदं च सर्वसूत्रेष्वनुगमनीयं, तत्र प्रदेशार्थतया असङ्ख्यातप्रदेशोऽपि जीवो द्रव्यार्थतया एकः, अथवा प्रतिक्षणं पूर्वसभावक्षयापरखरूपोत्पादयोगेनानन्तभेदोऽ-18 पि कालत्रयानुगामिचैतन्यमात्रापेक्षया एक एव आत्मा, अथवा प्रतिसन्तानं चैतन्यभेदेनानन्तत्वेऽप्यात्मनां सत्रहनया|श्रितसामान्यरूपापेक्षयैकत्वमात्मन इति । तथा न आत्मा अनात्मा-घटादिपदार्थः, सोऽपि प्रदेशार्थतया सयेयास-14
बेयानन्तप्रदेशोऽपि तथाविधैकपरिणामरूपद्रव्यार्थापेक्षया एक एव, एवं संतानापेक्षयाऽपि, तुल्यरूपापेक्षया तु अनुप-| योगलक्षणेकखभावयुक्तत्वात्कथञ्चिद्भिन्नखरूपाणामपि धर्मासिकायादीनामनात्मनामेकत्वमवसेयमिति । तथा एको MIदण्डो दुष्प्रयुक्तमनोवाक्कायलक्षणो हिंसामानं वा, एकत्वं चास्य सामान्यनयादेशाद, एवं सर्वत्रैकत्वमवसेयं । तथै
कोऽदण्डः-प्रशस्तयोगत्रयमहिंसामात्रं वा । तथैका क्रिया-कायिक्यादिका आस्तिक्यमानं वा । तथैका अक्रिया-1
अनुक्रम
'आत्मा' आदि सूत्रोक्त शब्दस्य व्याख्या:
~21~
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय १. ...........------------------------- मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
योगनिरोधलक्षणा नास्तिकत्वं वा । तथैको लोकः, त्रिविधोऽप्यसङ्ख्येयप्रदेशोऽपि वा द्रव्यार्थतया । तथा एकोऽलोकः, अनन्तप्रदेशोऽपि द्रव्यार्थतया, अथवैते लोकालोकयोबहुत्वव्यवच्छेदनपरे सूत्रे, अभ्युपगम्यन्ते च कैश्चिद्धहवो लोकाः, अतस्तद्विलक्षणा अलोका अपि तावन्त एवेति, एवं सर्वत्र गमनिका कार्या । नवरं धर्मो-धर्मास्तिकायः, अधर्म:-अधर्मास्तिकायः, पुण्य-शुभं कर्म, पापम्-अशुभं कर्म, बन्धो-जीवस्य कर्मपुद्गलसंश्लेपः, स चैकः सामान्यतः, सर्वकर्मवन्धव्यवच्छेदावसरे या पुनर्बन्धाभावाद्, अनेनोद्देशेन मोक्षाश्रवसंवरवेदनानिर्जराणामप्येकत्वमवसेयमिति । इह चानात्मग्रहणेन सर्वेषामनुपयोगवतामेकत्वं प्रज्ञाप्य पुनर्लोकादितया यदेकत्वप्ररूपणं तत्सामान्यविशेषापेक्षमवगन्तव्यमिति ॥ एवं चात्मादीनां सकलशास्त्रप्रपञ्चानामर्थानां प्रत्येकमेकत्वमभिधाय अधुनात्मपरिणामरूपाणामर्थानां तदेवाह-'जम्बू' इत्यादि सूत्रसप्तकमाश्रयविशेषाणां तथा 'इमीसे रयणे'त्यादिसूत्राष्टादशकमाश्रयिणां स्थित्यादिधर्माणां प्रतिपादनपरं सुबोध, नवरं 'जम्बुद्दीवे दी' इह सूत्रे 'आयामविक्खंभेणं'ति कचित्पाठो दृश्यते, क्वचित्तु 'चकवालविखंभेणं'ति तत्र प्रथमः सम्भवति, अन्यत्रापि तथा श्रवणात् , सुगमश्च, द्वितीयस्त्वेवं व्याख्येयः-चक्रवालविष्कम्भेन-वृत्तव्यासेन, इदं च प्रमाणयोजनमवसेयम्, यदाह-"आयङ्गुलेण वत्थु उस्सेहपमाणओ मिणसु | देहं । नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु ॥१॥" तथा पालक-यानविमानं सौधर्मेन्द्रसम्बन्ध्याभियो
अनुक्रम
१आरमांगुलेन रस्तु उत्सेधांगुळप्रमाणतो मिनु देहम् । नगपृथ्वी विमानानि मिनु प्रमाणांगुलेनैव ॥१॥
Nirauasaram.org
'आत्मा' आदि सूत्रोक्त शब्दस्य व्याख्या:
~22~
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१]
प्रत
अनुक्रम
[3]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१],
मूलं [१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित . आगमसूत्र - [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि- रचिता वृत्तिः
श्रीसमवा
यांगे
श्रीअमय ० वृत्तिः
॥६॥
वायः
गिकपालकाभिधानदेवकृतं वैक्रियं, यानं गमनं तदर्थं विमानं ( यानविमानं ) यायतेऽनेनेति यानं तदेव वा वि- २१ सममानं यानविमानं पारियानिकमिति यदुच्यते, 'अत्थी' त्यादि, अस्ति-विद्यते एकेषा- केषाञ्चिन्नैरविकाणामेकं पल्योपमं स्थितिरितिकृत्वा 'प्रज्ञा' प्रवेदिता मया अन्यैश्व जिनैः, सा चतुर्थे प्रस्तटे मध्यमाऽवसेयेति, एवमेकं सागरोपमं त्रयोदशे प्रस्तटे उत्कृष्टा स्थितिः इति ॥ 'असुरिन्दवज्जियाणं' ति चमरवलिवर्जितानां 'भोमेजाणं' ति भवनवासिनां भूमीपृथिव्यां रत्नप्रभाभिधानायां भवत्वात्तेषामिति तेषां चैकं पल्योपमं मध्यमा स्थितिर्यत उत्कृष्ट देशोने द्वे पल्योपमे सा, आह च - "दांहिण दिवह पलियं दो देसृणुत्तरिहाणं "ति, 'असंखेजेत्यादि, असङ्ख्येयानि वर्षाण्यायुर्येषां ते तथा ते च ते सचिनश्च समनस्कास्ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेत्यसत्येय वर्षायुः सञ्ज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकास्तेवा केषा| ञ्चिद् ये हेमवतैरण्यवतवर्षयोरुत्पन्नास्तेषामेकं पल्योपमं स्थितिः, एवं मनुष्यसूत्रमपि, नवरं गर्भे गर्भाशये व्युत्क्रान्तिः - उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिका न समूर्च्छनजा इत्यर्थः । 'वाणमन्तराणं देवाणं' ति, देवानामेव न तु देवीनां, तासामर्द्धप| ल्योपमस्य प्रतिपादितत्वात्, 'जोइसियाणं देवाणं'ति चन्द्रविमानदेवानां न सूर्यादिदेवानां नापि चन्द्रादिदेवीनां, 'पेलियं च समसहस्सं चन्दाणवि आउयं जाण' इतिवचनात्, 'सोहम्मे कष्णे देवाणं ति इह देवशब्देन देवा देव्यश्व गृहीताः, सौधर्मे हि पल्योपमादीनतरा स्थितिर्जघन्यतोऽपि नास्ति, इयं च प्रथमप्रस्तटेऽवसेया, 'सोहम्मे कप्पे अत्थे
१ दाक्षिणात्यानां साथै पत्योपमं के देशोने उत्तरल्यानाम् ॥ २ पोप सहस्राधिकं चन्द्राणामप्यायुजीनीहि ।
Education International
For Paren
~23~
॥ ६ ॥
ra
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१] ---------------------------------- मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
3556
गइयाणं देवाणं एग सागरोवम मिति, अत्र देवानामेव ग्रहणं न तु देवीना, उत्कृष्टतोऽपि तत्र तासां पञ्चाशत्पल्यो|पमस्थितिकत्वात् , तथा एकं सागरोपममिति मध्यमस्थित्यपेक्षया, उत्कर्षतस्तत्र सागरोपमद्यसद्भावात् , प्रस्तटापेक्षया त्वेषा सप्तमे प्रस्तटे मध्यमावसेया। ईसाणे कप्पे देवाण'मित्यत्र देवग्रहणेन देवा देव्यश्च गृह्यन्ते, यतस्तत्र सातिरेकपल्योपमादन्या जघन्यतः स्थितिरेव नास्ति, 'ईसाणे कप्पे देवाणं अत्थेगइयाण'मित्यत्र देवानामेव ग्रहणं न देवीनां, तत्र तासामुत्कर्षतोऽपि पञ्चपञ्चाशत्पल्योपमस्थितिकत्वादिति, तथा ये देवाः सागर-सागराभिधानमेवं सुसा-1 |गरं सागरकान्तं भवं मर्नु मानुषोत्तरं लोकहितमिह- चकारो द्रष्टव्यः, समुच्चयस्य द्योतनीयत्वाद्, विमानं-देवनिवास-11 विशेषमासाद्येति शेषः, देवत्वेन न तु देवीत्वेन तासां सागरोपमस्थितेरसम्भवात् उत्पन्ना-जातास्तेषां देवीनामेकं साग-18 रोपमं स्थितिः, एतानि च विमानानि सप्तमे प्रस्तटेऽवसेयानि ॥ स्थित्यनुसारेण च देवानामुच्छासादयो भवन्तीति तान् दर्शयन्नाह ते ण मित्यादि, येषां देवानामेकं सागरोपमं स्थितिस्ते देवा णमित्यलङ्कारे अर्द्धमासस्यान्ते इति शेषः।
आनन्ति प्राणन्ति, एतदेव क्रमेण व्याख्यानयन्नाह-उच्सन्ति निःश्वसन्ति, वाशब्दाः विकल्पार्थाः, तथा तेपा-3 मामेव वर्षसहस्रस्थान्ते इति शेषः, आहारार्थः-आहारप्रयोजनमाहारपुद्गलानां ग्रहणमाभोगतो भवति, अनाभोगतस्तु प्रतिसमयमेव विग्रहादन्यत्र भवतीति, गाथेह-जैस्स जइ सागरोबमाई ठिइ तस्स तत्तिएहिं पक्खेहिँ । ऊसासो दे
यस्य वापन्तिः सागरोपमागि स्थितिस्तस्य तावद्भिः पक्षः । उत्तानो देवानां वर्षसहनराहारः ॥ १॥
अनुक्रम
CE
२०
For P
OW
~24~
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१], ---------------------------- ---- मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा-
प्रत
यांग
सुत्रांक
श्रीअभय वृत्तिः
॥७॥
वाणं वाससहस्सेहिँ आहारो॥१॥त्ति, सन्ति–विद्यन्ते 'एगइया' एके केचन भवसिद्धिय'त्ति भवा-भाविनी सिद्धिः-मुक्तिर्येषां ते भवसिद्धिकाः-भव्याः भवरगहणेणं'ति भवस्य-मनुष्यजन्मनो ग्रहणम्-उपादानं भवग्रहणं तेन सेत्स्यन्ति अष्टविधमहर्द्धिप्राप्त्या भोत्स्यन्ते केवलज्ञानेन तत्वं 'मोक्षन्ति' कर्मराशेः परिनिर्वास्यन्ति-कर्मकृतविकारविरहाच्छीतीभविष्यन्ति, किमुक्तं भवति ?-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यन्तीति ॥ सामान्यनयाश्रयणादेकतया वस्तून्यभिधायाधुना विशेषनयाश्रयणाद्वित्वेनाह
दो दंडा पन्नत्ता, –अट्ठादंडे चेव अणहादंडे चेक, दुवे रासी पण्णत्ता, तंजहा-जीवरासी चेव अजीवरासी चेव, दुविहे बन्धणे पन्नत्ते, तंजहा-रागवन्धणे चेव दोसपन्धणे चेव, पुवाफग्गुणीनक्खचे दुतारे पं०, उत्तराफग्गुणी नक्षत्ते दुतारे पं०, पुचाभदवया नक्खत्ते दुतारे पं०, उत्तरामद्दवया नक्षत्ते दुतारे पं०, इमीसे णं रयणप्पहाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं दो पलिओवमाई ठिई पं० दुचाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं दो सागरोवमाई ठिई ५० असुरकुमाराण देवाणं अत्यंगइयाणं दो पलिओवमाई ठिई ५० असुरकुमारिंदवजिवाणं भोमिजाणं देवाणं उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई ठिई ५० असंखिजवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिआणं अत्थेगइयाणं दो पलिओवमाई ठिई ५० असंखिजवासाउयसन्नि० माणुस्साणं अत्थेगइयाण देवाणं (च) दो पलिओक्माई ठिई पं० सोहम्मे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं दो पलिओवमाई ठिई पं० ईसाणे कप्पे अत्गइयाणं देवाणं दो पलिओवमाई ठिई पं० सोहम्मे कप्पे अत्धेगझ्याणं देवाणं उकोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पं० ईसाणे कप्पे देवाणं उक्को
प्रत
अनुक्रम
156450
arelianchurary.orm
| एते सूत्रे 'दंड' आदि पदार्थस्य द्वित्वं उक्तं
~25
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय २. ------------------------------------ मल [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
RECASTECEKACK
सेणं साहियाई दो सागरोवमाई ठिई पं० सणकुमारे कप्पे देवाणं जहणेणं दो सागरोवमाई ठिई पं० माहिदे कप्पे देवाणं जहाणेणं साहियाई दो सागरोवमाई ठिई प० जे देवा सुभं सुभकंतं सुभवणं सुभगंधं सुभलेसं सुभफासं सोहम्मवडिंसर्ग विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उकोसेणं दो सागरोवमाई ठिई पं० ते णं देवा दोण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि ण देवाणं दोहिं वाससहस्सेहिं आहारटे समुप्पजह । अत्थेगहया भवसिद्धिया जीवा जे दोहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्सति बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिब्वाइस्संति सम्बदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् २॥ 'दो दंडे'त्यादि सुगममाद्विस्थानकसमाप्तेः, नवरमिह दण्डराशिवन्धनार्थ सूत्राणां त्रयं नक्षत्रार्थ चतुष्टयं खित्यर्थे । त्रयोदशकमुच्छासाद्यर्थ त्रयमिति, तत्रार्थेन-खपरोपकारलक्षणेन प्रयोजनेन दण्डो-हिंसा अर्थदण्डः एतद्विपरीतोऽनर्थदण्ड इति, तथा रत्नप्रभायां द्विपल्योपमा स्थितिश्चतुर्थप्रस्तटे मध्यमा, द्वितीयायां वे सागरोपमे स्थितिः षष्ठप्रस्तटे मध्यमा ज्ञेया, तथा असुरेन्द्रवर्जितभवनवासिनां वे देशोने पल्योपमे स्थितिरौदीच्यनागकुमारादीनाश्रित्यावसेया, यत2 आह-दो देसूणुत्तरिलाणं ति, तथा असद्धयेयवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च हरिवर्षरम्यकपर्षजन्मनां |द्विपल्योपमा स्थितिरिति ॥२॥ अथ त्रिस्थानकंI तओ दंडा पं० सं०-मणदण्डे वयदंडे कायदंडे, तओ गुत्तीओ पं०, तंजहा-मणगुती वयगुती कायगुत्ती, तओ सल्ला पं० त०
मायासले ण नियाणसले णं मिच्छादसणसल्ले णं, तओ गारवा पं० २०-इद्धीगारवे णं रसगारवे णं सायागारवे णं, तओ विरा
अनुक्रम
एते सूत्रे 'दंड' आदि पदार्थस्य त्रिविधत्वं उक्तं
~26~
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[3]
प्रत
अनुक्रम
[3]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३],
मूलं [३]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीसमवायांग
श्रीअभय०
वृत्तिः
॥८॥
हा पं० [सं० - नाणविराहणा दंसणविराणा चरितविराहणा, मिगसिरनक्खते तितारे पं०, पुस्सनक्खत्ते तितारे पं० जेङ्कानक्खत्ते तितारे पं० अभीइनक्खते तितारे पं० सवणनक्खत्ते तितारे पं० अस्सिणिनक्खत्ते तितारे पं० भरणीनक्खते तितारे पं०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तिन्नि पलिओ माई ठिई पं०, दोबाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं तिण्णि सागरोवमाई ठिई पं० तचाए णं पुढवीए नरेइयाणं जहण्णेणं तिष्णि सागरोवभाई ठिई पं०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तिष्णि पलिओ माई ठिई पं०, असंखिजवासाउयसन्निपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं तिष्णि पलिओ माई ठिई पं०, असंखिजवासाउयसन्निगम्भवदंतियमणुस्साणं उक्कोसेणं तिष्णि पलिओचमाई ठिई पं०, सोहम्मीसाणेसु अत्येगइयाणं तिष्णि पलिओ माई ठिई पं०, सर्णकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु अत्येगइयाणं देवाणं तिष्णि सागरोवमाई ठिई, पं०, जे देवा आमंकरं पर्मकरं आमंकरपभंकरं चंदं चंदावतं चंदप्पभं चंदकंतं चंदवण्णं चंदलेसं चंदज्यं चंदसिंगं चंदसिद्धं चंदकूडं चंदुत्तरवर्डिसम विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिष्णि सागरोवमाई ठिई पं० ते णं देवा तिन्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तिहिं वाससहस्सेहिं आहार समुप्पज्जइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुचिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् ३ ॥ 'ओ' इत्यादि सर्व सुगमं, नवरमिह दण्डगुप्तिशल्यगौरवविराधनार्थं सूत्राणां पञ्चकं, नक्षत्रार्थं सप्तकं, स्थित्यर्थे नवकम्, उच्छ्रासाद्यर्थं त्रयमिति, तथा दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः - दुष्प्रयुक्तमनः
For Parts Only
~27~
३ समवायः
॥ ८ ॥
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः )
समवाय [३]. ------------------------------------ मूल [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
SAE%E5-151544567
सुत्राक
प्रभृतयः मन एव दण्डो मनोदण्डो मनसा वा दुष्प्रयुक्तेनात्मनो दण्डो-दण्डनं मनोदण्डः एवमितरायपि, तथा गोपनानि गुप्तयः-मनःप्रभृतीनामशुभप्रवृत्तिनिरोधनानि शुभप्रवृत्तिकरणानि चेति । तथा तोमरादिशल्यानीव शल्यानि दुःखदायकत्वात् मायादीनि, तत्र माया-निकृतिः सैव शल्यं मायाशल्यं 'ण'मित्यलङ्कारे एवमितरे अपि नवरं नि-15 दानं-देवादिऋद्धीनां दर्शनश्रवणाभ्यामितो ब्रह्मचर्यादेरनुष्ठानान्ममैता भूयासुरित्यध्यवसायो मिश्यादर्शनम्--अतत्त्वा
र्थश्रद्धानमिति । तथा गौरवाणि-अभिमानलोभाभ्यामात्मनोऽशुभभावगुरुत्वानि तानि च संसारचक्रवालपरिभ्रमण-18 सहेतुकर्मनिदानानि, तत्र ऋद्या-नरेन्द्रादिपूज्याचार्यत्वादिलक्षणया गौरवम् , ऋद्धिप्राप्त्यभिमानतदप्राप्तिप्रार्थना-2
रेणात्मनोऽशुभभावगौरवमित्यर्थः, एवं रसेन गौरवं रसगौरवं सातया गौरवं सातगौरवं चेति । तथा विराधनाः-- भण्डनाः, तत्र ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना-ज्ञानप्रत्यनीकतानिहवादिरूपा एवमितरे अपि, नवरं दर्शनं सम्य
ग्दर्शनं क्षायिकादि चारित्रं-सामायिकादीति । तथा असञ्जयातवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिर्यगमनुष्याणां देवकुरूत्तरकुरुजन्मनां त्रीणि पल्योपमानीति, तथा आभकरं प्रभङ्करं आभङ्करप्रभङ्करं चन्द्रं चन्द्रावर्त चन्द्रप्रभ चन्द्रकान्तं चन्द्रवण चन्द्रलेश्यं चन्द्रध्यजं चन्द्रशङ्ख चन्द्रसृष्टं चन्द्रकूटं चन्द्रोत्तरावतंसकं विमानमित्यादि ॥३॥ चत्तारि कसाया प० त०-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए, चत्वारि शाणा प० त० ---अट्टज्माणे रुद्दज्ज्ञाणे धम्मज्झाणे सुक्कज्झाणे, चत्तारि विगहाओ प० तं०-इत्थिकहा भत्तकहा रायकहा देसकहा, चत्वारि सण्णा प० तं०-आहार
प्रत
अनुक्रम [३]]
REnatinand
M
urary.om
| एते सूत्रे 'कषाय' आदि पदार्थस्य चतुर्विधत्वं उक्तं
~28~
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः )
समवाय [४]. ------------------------------------ मूल [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
४समशवाय:
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय वृत्तिः ॥९॥
भय० मेहुण० परिग्गहसण्णा चउब्विहे बन्धे प० त०-पगइबंधे ठिइबन्धे अणुभाववन्धे पएसयन्धे, चउगाउए जोयणे प०, अणुराहानक्खत्ते चउतारे प०, पुव्वासाढानक्खत्ते चउतारे प०, उत्तरासादानक्खत्ते चउतारे प०, इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई प०, तचाए णं पुढवीए अत्येगइयाणं नरेइयाणं चत्तारि सागरोवमाई ठिई ५०, असुरकुमाराणं देवाणं अस्थगइयाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिई प०, सर्णकुमारमार्हिदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमाई ठिई ५०, जे देवा किडिं सुकिहि किट्ठियावत्तं किट्टिप्पमं किद्विजुत्तं किडिवणं किहिलेसं किट्ठिज्झयं किढिसिंग किद्विसिढे किट्टिकूड किहुत्तरवार्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चत्वारि सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा चउण्हद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति चा । नीससंति वा तेसिं देवाणं चउहि वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पाइ, अत्थेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे चउहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् ४ ॥
चतुःस्थानकमपि सुगममेव, नवरं कषायध्यानविकथासज्ञाबन्धयोजनार्थ सूत्राणां षट्कं, नक्षत्रार्थ त्रयं, स्थित्यर्थं षट्कं, शेषं तथैव, अन्तर्मुहूर्त यावचित्तस्यैकाग्रता योगनिरोधश्च ध्यानं, तत्राः मनोज्ञामनोज्ञेषु वस्तुषु वियोगसंयोगादिनिवन्धनचित्तविक्लवलक्षणं रौद्रं हिंसानृतचौर्यधनसंरक्षणाभिसन्धानलक्षणं धर्नामाज्ञादिपदार्थखरूपपर्यालोचनैकाग्रता शुक्लं पूर्वगतश्रुतावलम्बनेन मनसोऽत्यन्तस्थिरता योगनिरोधश्चेति, तथा विरुद्धाश्चारित्रं प्रति स्यादिविषयाः
~29~
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४], ----------------------------------- मूल [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
कथा विकथाः, तथा सज्ञाः-असातवेदनीयमोहनीयकर्मोदयसम्पाद्या आहाराभिलापादिरूपाश्चेतनाविशेषाः, तथा सकषायत्वाजीवस्य कर्मणो योग्यानां पुद्गलानां वन्धन-आदानं बन्धः, तत्र प्रकृतयः कर्मणोंऽशा भेदाः ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ तासां बन्धः प्रकृतिबन्धः तथा स्थितिः-तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदभिन्नं तस्या बन्धो-निवर्तनं स्थितिबन्धः तथा अनुभायो-विपाकस्तीत्रादिभेदो रसस्तस्य बन्धोऽनुभाववन्धः, तथा जीवप्रदेशेषु कर्मप्रदेशानामनन्तानन्तानां प्रतिप्रकृति प्रतिनियतपरिमाणानां बन्धः-सम्बन्धनं प्रदेशबन्ध इति, तथा कृष्टिसुकृष्टवादीनि द्वादश विमानानि पूर्वोक्तविमाननामानुसारवन्तीति ॥ ४॥ पंच किरिया प० त० काइया अहिंगरणिया पाउसिआ पारितावणिया पाणाइवायकिरिया, पंच महव्वया प० त०सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं सब्बाओ मुसावायाओ वेरमणं सवाओ अदत्तादाणाओ वेरमणं सवाओ मेहणाओ वेरमणं सवाओ परिग्गहाओ वेरमणं, पंच कामगुणा प० तं०-सहा रूवा रसा गंधा फासा, पंच आसवदारा प० तं-मिच्छत्तं अविरई पमाया कसाया जोगा, पंच संवरदारा प० तं-सम्मत्तं विरई अप्पमत्तया अकसाया अजोगया, पंच निजराणा प० तं०-पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावायाओ वेरमणं अदिन्नादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं परिग्गहाओ वेरमणं, पंच समिईओ प० तं०ईरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणास मिई उचारपासवणखेलसिंचाणजलपारिद्वावणियासमिई, पंच अस्थिकाया प० तं०-धम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए जीवत्यिकाए पोग्गलस्थिकाए, रोहिणीनक्खत्ते पंचतारे प०,
अनुक्रम
REaran
| एते सूत्रे 'क्रिया' आदि पदार्थस्य पञ्चविधत्वं उक्तं
~30
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [4], ------------------------------------ मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
IN५सम
वायः
।
प्रत
सूत्राक
श्रीसमवा
A पुषवसुनक्खते पंचतारे ५०, हत्थनक्खत्ते पंचतारे प०, विसाहानक्खत्ते पंचतारे प०, धणिहानक्खत्ते पंचतारे प०, इमीसे णं यांगे
रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पंच पलिओक्माई ठिई प०, तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नरेइयाणं पंच सागरोश्रीअभय०४
वमाइं ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यगइयाण पंच पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्येगइयाणं देवाणं पंच वृत्तिः
पलिओक्माई ठिई १०, सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं पंच सागरोधमाई ठिई प०,जे देवा वायं सुवायं वायावत्तं वा
यापमं वायकंतं वायवण वायलेसं वायज्झयं वायसिंगं वायसिटुं वायकूड वाउत्तरवडिंसगं सूर सुसूर सूरावत्तं सूरपमं सूरकंतं ॥१०॥ सूरवणं सूरलेस सूरज्जयं सूरसिंग सूरसिटुं सूरकूडं सूरुत्तरवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववष्णा तेसि ण देवाणं उन्कोसेणं पंच सागरो
बमाई ठिई प०, ते णं देवा पंचण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं पंचहि वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पंचहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति जाव अंतं करिस्संति ।। सूत्रं ५॥
पञ्चस्थानकमपि सुगम, नवरं क्रियामहाव्रतकामगुणाश्रवसंवरनिर्जरास्थानसमित्यस्तिकायार्थ सूत्राणामष्टकं, नक्षदत्रार्थ पञ्चकं, स्थित्यर्थं षट्कं, उच्छासाद्यर्थ त्रयमेवेति, तथा क्रियाः-व्यापारविशेषाः तत्र कायेन निर्वृत्ता कायिकी,
कायचेष्टेत्यर्थः, अधिक्रियते आत्मा नरकादिषु येन तदधिकरणं तेन निवृत्ता आधिकरणिकी-खादिनिर्वर्तनादि- लक्षणेति, प्रद्वेषो-मत्सरस्तेन निवृत्ता प्राद्वेषिकी परितापन-ताडनादिदुःखविशेषलक्षणं तेन नित्ता पारितापनिकी | प्राणातिपातक्रिया प्रतीतेति, तथा काम्यन्ते-अभिलष्यन्ते इति कामास्ते च ते गुणाश्च-पुद्गलधर्माः शब्दादय इति
अनुक्रम
॥१०॥
~31~
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः )
समवाय [4], ------------------------------------ मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
%-56-57-58-64k
सुत्राक
कामगुणाः कामस्य वा-मदनस्योद्दीपका गुणाः कामगुणाः-शब्दादय इति, तथा आश्रयद्वाराणि-कर्मापादानोपाया मिथ्यात्वादीनि संवरस्य-कर्मानुपादानस्य द्वाराणि-उपायाः संवरद्वाराणि-मिथ्यात्वाथाश्रयद्वारविपरीतानि सम्य|क्त्वादीनि, तथा निर्जरा-देशतः कर्मक्षपणा तस्याः स्थानानि-आश्रयाः कारणानीतियावन्निर्जरास्थानानि-प्राणातिपातविरमणादीनि, एतान्येव च सर्वशब्दविशेषितानि महाव्रतानि भवन्ति, तानि च पूर्वसूत्राभिहितानि स्थूलशब्दविशेषितानि अणुव्रतानि भवन्ति, निर्जरास्थानत्वं पुनरेषां साधारणमिति तदिहपामभिहितं, तथा समितयः-सङ्गताः प्रवृत्तयः, तत्रेर्यासमितिः-गमने सम्यक् सत्त्वपरिहारतः प्रवृत्तिः भाषासमितिः-निरवयवचनप्रवृत्तिः, एषणासमितिः-द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जनेन भक्तादिग्रहणे प्रवृत्तिः, आदाने-ग्रहणे भाण्डमात्रयोरुपकरणपरिच्छदस्य निक्षेपणे
अवस्थापने समितिः-सुप्रत्युपेक्षितादिसाङ्गत्वेन प्रवृत्तिश्चतुर्थी, तथोचारस्य-पुरीपस्य प्रश्रवणस्य-मूत्रस्य खेलस्यकनिष्ठीवनस्य सिंघाणस्य-नासिकाश्लेष्मणो जलस्य-देहमलस्य परिष्ठापनायां-परित्यागे समितिः-स्थण्डिलादि-13
दोषपरिहारतः प्रवृत्तिरिति पञ्चमी, अस्तिकायाः-प्रदेशराशयः धर्मास्तिकायादयो गतिस्थित्ययगाहोपयोगस्पर्शादिलक्षणाः, स्थितिसूत्रेषु स्थितेरुत्कृष्टादिविभाग एवमनुगन्तव्यः, यदुत-सांगरमेगं १ तिय २ सत्त ३ दस य
सत्तरस ५ तह य बावीसा । तेत्तीसं जाब ठिई सत्तसुवि कमेण मुढवीसु॥१॥ जा पढमाए जेट्ठा सा बीयाए
%
अनुक्रम
%
%
%%
१ सागरोपममेक त्रीणि सप्त दश च सप्तदश तथा च द्वाविचतिः । प्रयस्त्रिंशत् यावत् स्थितिः सप्तखपि कमेण पृथ्वीषु ॥१॥ या प्रथमाया ज्येष्ठा सा अप्रेतनायाँ
antaram.org
~32~
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः )
समवाय [4], ------------------------------------ मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा- कणिट्ठिया भणिया । तरतमजोगो एसो दस वाससहस्स रयणाए ॥२॥ तथा-'दो १ साहि २ सत्त ३ साहिय ५-६ समयांगे |
४ दस ५ चोदस ६ सत्तरेव, अयराई । सोहम्मा जासुको तदुवरि इविकमारोवे ॥३॥ पलियं १ अहियं २ दो सारवायौ श्रीअभय वृत्तिः 18|३ साहिय ४ सत्त ५ दस ६ चउद्दस ७ (तहय)। सत्तरस ८ सहस्सारे तदुवरि इकिकमारोवे ॥४॥"ति, तथा
वातं सुवातमित्यादीनि द्वादश वाताभिलापेन विमाननामानि तावन्त्येव सूराभिलापेनेति ॥ ५॥ ॥११॥
छ लेसाओ पण्णत्ता तंजहा कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा, छ जीवनिकाया प० त०-पुढवीकाए आऊकाए तेउकाए वाउकाए वणस्सइकाए तसकाए, छबिहे बाहिरेत वोकम्मे प० त०-अणसणे ऊपोयरिया वित्तीसंखेयो रसपरिचाओ कायकिलेसो संलीणया, छविहे अभितरे तवोकम्मे प००-पायच्छित्तं विणओ वेयावचं सज्झाओ झाणं उस्सग्गो, छ छाउमस्थिया समुग्धाया प० त०-वेयणासमुग्याए कसायसमुग्घाए मारणंतिअसमुग्घाए वेउवियसमुग्धाए तेयसमुग्घाए आहारसमुग्घाए, छबिहे अत्युग्गहे प० तं०-सोइंदियअत्थुग्गहे चक्खुइंदियअत्थुराहे पाणिदिअअत्थुग्गहे जिभिदियअत्थुग्गहे फासिंदियअधुग्गहे नोइंदियअत्थुम्गहे, कत्तियानक्खते छतारे प० असिलेसानक्खत्ते छतारे प०, ईमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाण नेरइयाणं छ पलिओवमाई ठिई प०, तच्चाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं छ सागरोवमाई ठिई ५०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं छ पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं छ पलिओवमाई ठिई प०, ॥११॥ १ जबन्या भगिता । तरतमयोग एष दश वर्षसहस्राणि रत्नप्रभावाम् ॥ २ ॥ साधिके सप्त साधिकानि दश चतुर्दश सप्तदशैव अतराणि । सौधर्मात यावत् | शुकः तदुपये कैकमारोप येत् ॥ ३॥ पल्यं अधिकं हे सागरोपमे साधिके सप्त दश चतुर्दश । सप्तदश सहसारे तदुपयेंककमारोपयेत् ॥ ४॥
| एते सूत्रे 'क्रिया' आदि पदार्थस्य षविधत्वं उक्तं
~33~
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६], ------------------------------------ मूल [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
सर्णकुमारमाहिदेसु अत्थेगइयाणं देवाणं छ सागरोवमाइं ठिई प०, जे देवा सयंभुं सयंभूरमणं धोस सुधोसं महाघोस किद्विघोस वीरं सुवीरं वीरगतं वीरसेणियं. वीरावतं वीरप्पभं वीरकंतं वीरवणं वीरलेसं वीरज्झयं विरसिंग वीरसिहूं वीरकूडं वीरुत्तरवडिंसर्ग विमाणं देवत्ताए उववषणा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छ सागरोवमाई ठिई ५०, ते णं देवा छण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं छहिं वाससहस्सेहिं आहारवे समुपजद, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति जाव सञ्बदुक्खाणमतं करिस्सति ॥ सूत्र ६॥ पदस्थानकमथ, तच सुबोध, नवरमिह लेश्या १ जीवनिकाय २ बाया ३ऽऽभ्यन्तरतपः ४ समुद्घाता ५ऽवग्रहानि सूत्राणि पद, नक्षत्रार्थे द्वे, स्थित्यर्थानि षट् , उच्छासाद्यर्थ त्रयमेवेति, तत्र लेश्यानां वरूपमिदं-'कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यातू, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ १॥ इति, तथा बाबतपःबाह्यशरीरस्य परिशोषणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, आभ्यन्तर-चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वादिति, तथा छद्मस्थः-अकेवली तत्रभवा छानस्थिकाः तत्र सम्-एकीभावनोत्-प्रावल्येन च घातानि-निर्जरणानि समुदूधाताः, वेदनादिपरिणतो हि जीवो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जस्यति, आत्मप्रदेशैः संश्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, ते चेह वेदनादिभेदेन षडुक्ताः, तत्र वेदनासमुद्घातोऽसद्वेचकर्माश्रयः कषायसमुदूघातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः मारणान्तिकसमुद्घातोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुष्ककर्माश्रयो वैकु
अनुक्रम
960-90-
925%
aajaneiuranmaru
~34~
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६], ------------------------------------ मूल [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
घृत्तिः
थीसमवा-IIकितैजसाहारफसमुद्घाताः शरीरनामकर्माश्रयाः, तत्र वेदनासमुद्घातसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशादनं करोति||६-७ सम
यांगे कषायसमुदघातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत आयुःकर्मपुद्गलघातं वैकुर्षिकसमुद्घातसमु-18 पाया श्रीअभय
द्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीराबहिर्निष्काश्य शरीरविष्कम्भवाहल्यमात्रमायामतश्च सोयानि योजनानि दण्डं निसृजति
|निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति, एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्ये॥१२॥ | याविति, तथा अर्थस्य-सामान्यानिर्देश्यखरूपस्य शब्दादेः 'अयेति प्रथमं व्यञ्जनावग्रहानन्तरं ग्रहणं-परिच्छेदनमर्था
वग्रहः, स चैकसामयिको नैश्चयिको व्यावहारिकस्त्वसमषेयसामयिकः, स च पोढा-श्रोत्रादिभिरिन्द्रियै!इन्द्रियेण 3 च मनसा जन्यमानत्वादिति, स्थितिसूत्रे खयम्भ्यादीनि विंशतिर्विमानानीति ॥६॥ अथ सप्तमं स्थानकं वित्रियते
सत्त भयहाणा प० त०.--इहलोगभए परलोगभए आदाणभए अकम्हाभए आजीवभए मरणभए असिलोगभए, सत्त समुग्पाया प० त०-यणासमुग्घाए कसायसमुग्धाए मारणंतियसमुग्घाए वेउवियसमुग्धाए तेयसमुग्धाए आहारसमुग्धाए केवलिसमुग्घाए,
॥१२॥ समणे भगवं महावीरे सत्त रयणीओ उई उच्चत्तेणं होत्था, इहेव जंबुद्दीवे दीवे सत्त वासहरपचया प० त०-चुलहिमवंते महाहिमवंते निसदे नीलवंते रुप्पी सिहरी मन्दरे, इहेब जम्बुद्दीवे दीवे सत्त वासा पतं-भरहे हेमवते हरिखासे महाविदेहे रम्मए एरप्रणवए एरवए, खीणमोहेणं भगवया मोहणिअवजाओ सत्त कम्मपयडीओ बेए(अ)ई, महानक्खत्ते सत्तारे ५०, कत्तिआइआ
25%
REsama
T
alurary.om
| एते सूत्रे 'क्रिया' आदि पदार्थस्य सप्तविधत्वं उक्तं
~35
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७], ------------------------------------ मूल [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
4-
प्रत
सत्राक
A-
सत्त नक्खत्ता पुत्रदारिआ प० [पाठा० अभियाइथा सत्त नक्खत्ता], महाइआ सत्त नक्खत्ता दाहिणदारिआ प० अणुराहाइआ सत्त नक्खत्ता अवरदारिआ प० धणिहाइआ सत्त नक्खत्ता उत्तरदारिआप०, इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाण नेरइयाणं सत्त पलिओवमाई ठिई प०, तच्चाए णं पुढवीए नेरइयाणं उक्कोसेणं सस सागरोवमाई ठिई प०, चउत्थीए णं पुढबीए नेरइयाणं जहण्णेणं सत्त सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं सत पलिओवमाई ठिई ५०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अस्थेगइयाणं देवाणं सत्त पलिओवमाइं ठिई प०, सणंकुमारे कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई ठिई प०, माहिंदे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं साइरेगाई सत्त सागरोबमाई ठिई प०, बंभलोए कप्पे अस्वेगइयाणं देवाणं सत्त साहिया सागरोवमाई ठिई प०,जे देवा समं समप्पों महापभ पभासं भासुरं विमलं कंचणकूडं सणकुमारवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेण सत्त सागरोवमाई ठिई ते णं देवा सत्तण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उससंति वा नीससंति वा तेसिणं देवाणं सत्तहिं वाससहस्सेहिं आहारढे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे णं सत्तहिं भवग्गहणेहिं सिन्झिस्संति बुज्यिस्संति जाव सम्बदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ सूत्रम् ७॥
तच कण्ठ्यं, नवरमिह भयसमुद्घातमहावीरवर्षधरवर्षक्षीणमोहार्थानि च सूत्राणि षट् नक्षत्रार्थानि पञ्च स्थित्यर्थानि नव उच्छासाद्यर्थानि त्रीण्येवेति, तत्रेहलोकभयं यत्सजातीयात् परलोकभयं यद्विजातीयात् आदानभयं यद् द्रव्यमाश्रित्य जायते अकस्माद्भयं चाबनिमित्तनिरपेक्षं खविकल्पाजातं शेषाणि प्रतीतानि, नवरमश्लोकः-अकी-18 चिरिति, समुद्घाताः प्राग्वत्, नवरं केवलिसमुद्घातो वेदनीयनामगोत्राश्रय इति, तथा रनिः-वितताङ्गुलिहस्त
A5
अनुक्रम
%-54
३स.
Rainrary.org
~36~
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[७]
प्रत
अनुक्रम
[७]
समवाय [७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [७]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
श्री अभय ० वृत्तिः
॥ १३ ॥
इति, ऊर्द्धाचत्वेन न तिर्यगुचत्वेनेति 'होत्था' बभूवेति तथा अभिजिदादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारिकाणि - पूर्वदिशि येषु गच्छतः शुभं भवति, एवमश्विन्यादीनि दक्षिणद्वारिकाणि पुष्यादीन्यपरद्वारिकाणि खात्यादीन्युत्तरद्वारिकाणीति सिद्धान्तमतमिह तु मतान्तरमाश्रित्य कृत्तिकादीनि सप्त सप्त पूर्वद्वारिकादीनि भणितानि चन्द्रप्रज्ञसौ तु बहुतराणि मतानि दर्शितानीहार्थ इति, स्थितिसूत्रे समादीन्यष्टौ विमाननामानीति ॥ ७ ॥
अट्ठ मयद्वाणा प० ० –जातिमए कुलमए बलमए रूवमए तवमए सुयमए लाभमए इस्सरियमए, अड पवयणमायाओ प० तं ० - ईरियासमिई मासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणास मिई उच्चारपासवण खेलजलसिंघाणपरिद्वावणियासमिई मणगुत्ती वयगुती कायगुत्ती, वाणमंतराणं देवाणं चेइयरुक्खा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चतेणं प०, जंबू णं सुदंसणा अट्ठ जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं प०, कूडसामली णं गरुलावासे अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं प०, जंबुद्दीवस्स णं जगई अट्ट जोयणाई उद्धं उत्चत्तेणं ५०, अट्ठसामइए के वलिसमुग्धाए १० नं० - पढने समए दंड करेइ बीए समए कवार्ड करेइ तइए समए मंथ करेइ चउत्थे समए मंथंतराइं पूरेइ पंचमे समए मंथंतराइ पडिसाहरइ छट्टे समए मंथं पडिसाहरइ सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरइ अट्टमे समए दंड पडिसाहरइ ततो पच्छा सरीरत्थे भवइ, पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणिअस्स अट्ठ गणा अट्ट गणहरा होत्या, तं०-सुभे य सुभघोसे, वसि भयारि य । सोमे सिरिधरे चैव वीरभद्दे जसे इय ॥ १ । अट्ठ नक्खत्ता चंदेणं सद्धिं पमदं जोगं जोएंति, तं० कत्तिया १ रोहिणी २ पुणव्वसू ३ महा ४ चित्ता ५ बिसाहा ६ अणुराहा ७ जेट्ठा ८, इमीसे णं रणप्पहाए पुढवीए
एते सूत्रे 'क्रिया' आदि पदार्थस्य अष्टविधत्वं उक्तं
For Park Use Only
~37~
सप्तमाष्टमो
सम०
॥ १३ ॥
aru
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८]. ------------------------------------ मूल [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
24-7-
अस्थगइयाणं नेरइयाणं अट्ठ पलिओवमाई ठिई ५०, चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणे नेरइयाणं अट्ठ सागरोक्माई ठिई ५०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेमइयाणं अट्ठ पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं अट्ठ पलिओवमाई ठिई ५०, बभलोए कप्पे अत्येगइयाणं देवाणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई प०,जे देवा अपि १ अधिमालिं २ वइरोयणं ३ पभंकरं ४ चंदा ५ सूरामै ६ सुपइट्ठामं ७ अमिगचाम ८ रिहामं ९ अरुणाभं १० अरुणुत्तरवडिंसगं ११ विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठ सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा अट्टण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं अट्टहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्टहिं भवग्गहणेहि सिज्झिस्संति बुझिस्संति जाव अंतं करिस्संति ॥ सूत्रम् ८॥
अथाष्टमस्थानकं व्याख्यायते, सुगमं चैतत् , नवरमिह मदस्थानप्रवचनमातृचैत्यपृक्षजम्बूशाल्मलीजगतीकेवलिसमुद्घातगणधरनक्षत्रार्थानि सूत्राणि नव स्थित्वर्थानि षट् उच्छासाद्यर्थानि त्रीणीति, तत्र मदस्य-अभिमानस स्थानानि-आश्रयाः मदस्थानानि-जासादीनि, तान्येव मदप्रधानतया दर्शयन्नाह-जाइमए'इत्यादि, जात्या मदो जातिमद एवमन्यान्यपि, अधवा मदस्य स्थानानि-भेदाः मदस्थानानि, तान्येवाह-'जाइमए' इत्यादि, शेषं तथैव, तथा प्रवचनस्स-द्वादशाङ्गस्य तदाधारस्य वा सङ्घस्य मातर इव-जनन्य इव प्रवचनमातरः-ईर्यासमित्यादयो, द्वादशाङ्गं हि ता आश्रित्य साक्षात्प्रसङ्गतो या प्रवर्त्तते, भवति च यतो यत्प्रवर्त्तते तस्य तदाश्रित्य मातृकल्पनेति, सकपक्षे |
प्रत
अनुक्रम [८-१०]
Jaintarain
~38~
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८]. ------------------------------------ मूल [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
अष्टमा समवायः
प्रत
सुत्रांक
प्रत
श्रीसमवा-8 तु यथा शिशुर्मातरममुञ्चन्नात्मलाभ लभते एवं सङ्घस्ताममुञ्चन् सङ्घत्वं लभते नान्यथेतीर्यासमित्यादीनां प्रवचनमातृ
यांगे दातेति, तथा ब्यन्तरदेवानां चैत्यवृक्षाः तन्नगरेपु सुधर्मादिसभानामग्रतो मणिपीठिकानामुपरि सर्वरलमया छत्रचामरध्व- श्रीअभय जादिभिरलता भवन्ति, ते चैवं श्लोकाभ्यामवगन्तव्याः–'कलंबो उ पिसायाणं, बडो जक्खाण चेइयं । तुलसी
वृत्तिः । भूयाणं भवे, रक्ससाणं तु कंडओ ॥१॥ असोगो किष्णराणं च, किंपुरिसाण -य चंपओ। नागरुक्खो भयं-13 ॥१४॥ गाणं, गंधवाण य तुंबुरू ॥२॥" ति, तथा 'जम्बु'त्ति उत्तरकुरुषु जम्बूवृक्षः पृथिवीपरिणामः सुदर्शनेति तनाम,
एवं फूटशाल्मली वृक्षविशेषः, एप देवकुरुषु गरुडजातीयस्य वेणुदेवाभिधानस्य देवस्यावास इति, जगती जम्बूद्वीप-12
नगरस्य प्राकारकल्पा पालीति, तथा पार्थस्याहतः-त्रयोविंशतितमतीर्थकरस्य 'पुरिसादाणीयस्स'त्ति पुरुषाणां : ४मध्ये आदानीयः-आदेयः पुरुषादानीयस्तस्याष्टौ गणाः-समानवाचनाक्रियाः साधुसमुदायाः अष्टौ गणधराः-तन्ना
मकाः सूरयः, इदं चैतत्प्रमाणं स्थानाङ्गे पर्युषणाकल्पे च श्रूयते, केवलमावश्यके अन्यथा, तत्र युक्तम्-'दस नवर्ग गणाण माणं जिणिंदाणं'ति, कोऽर्थः -प्रार्थस्य दश गणाः गणधराश्च, तदिह द्वयोरल्पायुष्कत्वादिना कारणेनावि-2 वक्षाऽनुगन्तव्येति, 'सुमे' इत्यादि श्लोकः, तथा अष्टौ नक्षत्राणि चन्द्रेण साधं प्रमई-चन्द्र()मध्येन तेषां गच्छतीखेलक्षणं योग-सम्बन्धं योजयन्ति-कुर्वन्ति, अत्रार्थेऽभिहितं लोकश्रियां-"पुणवसु रोहिणी चित्ता मह जेट्टणुराह कि-18 त्तिय विसाहा । चंदस्स उभवजोग"न्ति, यानि च दक्षिणोत्तरयोगीनि तानि प्रमईयोगीन्यपि कदाचिद्भवन्ति, यतो
अनुक्रम [८-१०]
~39~
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८], ------------------------------------ मूल [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
4CCCCCCCC
लोकश्रीटीकाकृतोक्तम्---"एतानि नक्षत्राण्युभययोगीनि चन्द्रस्योत्तरेण दक्षिणेन च युज्यन्ते, कदाचिचन्द्रेण भेदम-16 प्युपयान्ती"ति, तथाचिरादीन्येकादश विमाननामानीति ॥८॥
नव भचेरगुत्तीओ प० त-नो इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणि सिजासणाणि सेवित्ता भवइ १ नो इत्थीणं कहं कहित्ता भवइ २ नों इत्थीणं गणाई सेवित्ता भवइ ३ नो इत्थीणं इंदियाणि मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्जाइत्ता भवइ ४ नो पणीयरसभोई ५ नो पाणभोयणस्स अइमायाए आहारइत्ता ६ नो इत्थीणं पुन्वरयाई पुष्वकीलिआई समरइत्ता भवइ, नो सदाणुवाई नो रूवाणुवाई नो गन्धाणुवाई नो रसाणुवाई नो फासाणुवाई नो सिलोगाणुवाई ८ नो सायासोक्खपडिबद्धे याविमवइ ९ नव बमचेरअगुतीओ प० त०-इत्थीपसुपंडगसंसत्ताणं सिजासणाणं सेवणया जाव सायासुक्खपडियद्धे याविभवइ, नव बंभचेरा प० त०-सत्यपरिण्णा लोगविजओ सीओसणिज सम्मत्तं । आवंति धुत विमोहा[यणं] उवहाणसुयं महपरिण्णा ॥१॥ पासे णं अरहा पुरिसादाणीए नव रयणीओ उद्धं उच्चत्तेणं होत्था, अभीजीनक्खत्ते साइरेगे नव मुहुत्ते चन्देणं सद्धिं जोगं जोएइ, अभीजियाइया नव नक्खत्ता चंदस्स उत्तरेणं जोगं जोएंति तं०-अभीजि सवणो जाव भरणी, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिमागाओ नव जोयणसए उद्धं आषाहाए उवरिले तारारूवे चार चरइ, जंबूद्दीवे णं दीवे नवजोयणिआ मच्छा पविसिसु वा ३, विजयस्स णं दारस्स एगमेगाए बाहाए नव नव भोमा ५०, वाणमंतराणं देवाणं सभाओ सुहम्माओ नव जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं प०, दंसणावरणिजस्स णं कम्मरस नव उत्तरपगडीओ प० त०-निदा पयला निहानिदा पयलापयला धीणबी चक्खुदंसणावरणे
प्रत
अनुक्रम [८-१०]
एते सूत्रे 'क्रिया' आदि पदार्थस्य नवविधत्वं उक्तं
~40~
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१]. ------------------------------------ मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
समवाया
प्रत
सूत्रांक
श्रीसमवा- अचक्खुदंसणावरणे ओहिदंसणावरणे केवलदसणावरणे, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं नव पलिओवमाई
नवमः यांगे
ठिई प०, चउत्थीए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरझ्याणं नव सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्येगइयाणं नव पलिओश्रीअभय
वमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाण देवाणं नव पलिओवमाई ठिई प०, भलोए कप्पे अस्थेगइयाणं देवाणं नव वृत्तिः
सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा पम्हं सुपम्हं पम्हावत्तं पम्हप्पर्भ पम्हकंतं पम्हवण्णं पम्हलेसं पम्हज्झयं पम्हसिंगं पम्हसिढे पम्हकूडं पम्हुत्तरवळिसगं सुजं सुसुजं सुजवित्तं सुजपनं सुअर्कतं सुजवण्णं सुअलेसं सुजज्झय सुज्झसिंग सुज्झसिट्ठ सुजकूडं सुज्जुत्तरवर्डिसगं (रुइल) रुइलावत्तं रुदलप्पभं रुइलकंत रुइलवण्णं रुइललेसं रुइलज्झयं रुइल्लसिंग रुदलसिटुं रुइलकूडं रुइल्लुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिणं देवाणं नव सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा नवण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं नवहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुपजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवर्हि भवग्गहणेहि सिनिस्संति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्र ९ ॥
अथ नवमस्थानकं सुखाववोधं, नवरमिह ब्रह्मगुप्ति १ तदगुप्ति २ बह्मचर्याध्ययन ३ पार्थेि ४ सूत्राणां चतुष्टयं || ज्योतिष्कार्थ त्रयं मत्स्य १ भौम २ सभा ३ दर्शनावरणार्थ ४ चतुष्टयं स्थित्याद्यर्थानि तथैव, तत्र ब्रह्मचर्यगुप्तयो मैथुन-11॥१५॥
विरतिपरिरक्षणोपायाः नो स्त्रीपशुपण्डकैः संसक्तानि-सङ्कीर्णानि शय्यासनानि-शयनीयविष्टराणि बसत्यासनानि वा[ सेवयिता भवतीत्येका १ नो स्त्रीणां कथाः कथयिता भवतीति द्वितीया २ नो खीगणान्-स्त्रीसमुदायान् सेवयिता
प्रत
अनुक्रम [११-१३]
ॐॐॐ
REnama
~41~
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत सूत्रांक
[s]
प्रत
अनुक्रम [११-१३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
Education!
उपासयिता भवतीति तृतीया ३ नो स्त्रीणामिन्द्रियाणि - नयननाशावंशादीनि मनोहराणि आक्षेपकरत्वात् मनोर माणि रम्यतयाऽऽलोकयिता-द्रष्टा निर्ध्याता - तदेकाग्रचित्ततया द्रष्टेव भवतीति चतुर्थी ४ नो प्रणीतरसभोजीगलत्लेहरस विन्दुकस्य भोजनस्य भोजको भवतीति पञ्चमी ५ नो पानभोजनस्यातिमात्रम् - अतिप्रमाणं यथा भवत्येव । | माहारकः सदा भवतीति षष्ठी ६ नो पूर्वरतं पूर्वक्रीडितमनुस्मर्त्ता भवति रतं मैथुनं क्रीडितं - बीभिः सह तदन्या क्रीडेति सप्तमी, ७ नो शब्दानुपाती नो रूपानुपाती नो गन्धानुपाती नो रसानुपाती नो स्पर्शानुपाती नो लोकानुपाती कामोद्दीपकान् शब्दादीनात्मनो वर्णवादं च नानुपतति - नानुसरतीत्यर्थः इत्यष्टमी ८ नो सातसौख्यप्रतिबद्ध| श्चापि भवति सातात् - सातवेदनीयादुदयप्राप्ताद्यत्सौख्यं तत्तथा, अनेन च प्रशमसुखस्य व्युदास इति नवमी ९, इदं च व्याख्यानं वाचनाद्वयानुसारेण कृतं, प्रत्येकवाचनयोरेवंविधसूत्रभावादिति, तथा कुशलानुष्ठानं ब्रह्मचर्यं तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि ब्रह्मचर्याणि तानि चाचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धप्रतिवद्धानीति तथा अभिजिनक्षत्रं साधिकान्नव मुहूतश्चिन्द्रेण सार्द्धं योगं सम्बन्धं योजयति-करोति, सातिरेकत्वं च तेषां चतुर्विंशत्या मुहूर्त्तस्य द्विषष्टिभागानां पटूपिष्टा च द्विषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागानामिति तथा अभिजिदादीनि नव नक्षत्राणि चन्द्रस्योत्तरेण योगं योजयन्ति, उत्तरस्यां दिशि स्थितानि दक्षिणाशास्थित चन्द्रेण सह योगमनुभवन्तीति भावः । 'बहुसमरमणिजाओ' इति अत्यन्तसमो बहुसमोऽत एव रमणीयो- रम्यस्तस्माद्भूमिभागान्न पर्वतापेक्षया नापि श्वभ्रापेक्षयेति भावः, रुचकापे
For Parts Only
मूलं [९] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~ 42~
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९], ----------------------------- मूल [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
यांग
सुत्राक
श्रीसमवा- क्षयेति तात्पर्यम्, 'आवाहाए'त्ति अन्तरे कृत्वेति शेषः 'उवरिले'त्ति उपरितनं तारारूप-तारकजातीयं चार-भ्रमणं ४ दशमः चरति-करोति, 'नवजोयणिय'त्ति नवयोजनायामा एवं प्रविशन्ति, लवणसमुद्रे यद्यपि पञ्चयोजनशतिका मत्स्याः
समवायः श्रीअभय | सम्भवन्ति तथापि नदीमुखेषु जगतीरन्ध्रौचित्येनैतावतामेव प्रवेश इति, लोकानुभावो वाऽयमिति, विजयद्वारस्यवृत्तिः
जम्बूदीपसम्बन्धिनः पूर्वदिग्व्यवस्थितस्य 'एगमेगाएत्ति एकैकस्यां 'बाहाएत्ति नाही पाचँ भौमानि-नगराणीत्येके | ॥१६॥ विशिष्टस्थानानीसन्ये, तथा व्यन्तराणां समा सुधर्मा नव योजनानि ऊर्द्धमुञ्चत्वेन तथा पक्ष्मादीनि द्वादश सूर्यादी
न्यपि द्वादशैव रुचिरादीन्येकादश विमाननामानीति ॥९॥ BI दसविहे समणधम्मे प० त०-खंती १ मुत्ती २ अजवे ३ महवे ४ लाघवे ५ सच्चे ६ संजमे ७ तवे ८ चियाए ९
बंभचेरवासे १०, दस चित्तसमाहिट्ठाणा प० तं-धम्मचिंता वा से असमुप्पण्णपुवा समुप्पजिजा सव्वं धर्म जाणिसए १ सुमिणदसणे वा से असमुप्पण्णपुव्वे समुप्पजिजा अहातचं सुमिणं पासिचए २ सण्णिनाणे वा से असमुष्पष्णपुग्वे समुप्पजिजा पुन्वभवे सुमरित्तए ३ देवदंसणे वा से असमुष्पन्नपुब्बे समुप्पजिजा दिव्वं देविद्धिं दिव्वं देवजुई दिलं देवाणुभावं पासित्तए ४ ओहिनाणे वा से असमुप्पण्णपुब्वे समुप्पजिजा ओहिणा लोग जाणित्तए ५ ओहिदंसणे वा से असमुप्पण्णपुचे समुप्पजिजा ॥१६॥ ओहिणा लोगं पासित्तए ६ मणपञ्जवनाणे वा से असमुप्पण्णपुचे समुप्पजिजा जाव मणोगए भावे जाणित्तए ७ केवलनाणे वा से असमुप्पण्णपुब्बे समुप्पजिजा केवलं लोग जाणित्तए ८ केवलदसणे वा से असमुप्पण्णपुब्बे समुपजिजा केवलं लोर्य पासित्तए
प्रत
अनुक्रम [११-१३]
AGACASHBACK
SUREmiratn
a na
एते सूत्रे 'क्रिया' आदि पदार्थस्य दशविधत्वं उक्तं
~43~
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१०], ------------------------- ----- मूल [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
2-%2564GN
सूत्रांक
टकर
प्रत अनुक्रम [१४-१८]
९ केवलिमरणं वा मरिजा सव्वदुक्खप्पहीणाए १०, मंदरे णं पव्वए मूले दस जोयणसहस्साई विक्संभेणं प०, अरिहा 4 अरिहनेमी दस धणूई उद्धं उचसेणं होत्था, कण्हे णं वासुदेवे दस धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, रामे णं बलदेवे दस धणूई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था, दस नक्खत्ता नाणबुद्धिकरा ५० तं-मिगसिर अहा पुस्सो तिष्णि अ पुव्वा य मूलमस्सेसा। हत्यो चित्तो य तहा दस वुद्धिकराई नाणस्स ॥१॥ अकम्मभूमियाणं मणुआणं दसविहा रुक्खा उवभोगत्ताए उवस्थिया प० तं-मत्तगया य मिंगो तुडिअंगों दीवजोई चित्तंगी चित्तरसौं मणिअंगी गेहागारो अनिगिणों व ॥१॥ इमीसे णं रयप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं जहणेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइआण नेरइयाणं दस पलिओवमाई ठिई ५०, चउत्थीए पुढवीए दस निरयावाससयसहस्साइ प०, चउत्थीए पुढवीए अत्थेगइयाणं उक्कोसेणं दस सागरोक्माई ठिई ५०, पंचमीए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरझ्याणं जहण्णेणं दस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं जद्दण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, असुरिंदवजाणं भोमिजाणं देवाणं अत्येगइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई ५०, असुरकुमाराण देवाणं अत्थेगइयाणं दस पलिओवमाई ठिई प०, बायरवणस्सइकाइए णं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, वाणमतराणं देवाणं अत्येगइयाणं जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्यंगइयाणं देवाणं दस पलिओवमाई ठिई प०, बंगलोए कप्पे देवाणं उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं ठिई प०, लांतए कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं जहण्णेणं दस सागरोक्माई ठिई ५०, जे देवा घोसं सुघोसं महाघोसं नंदिघोसं सुसरं मणोरमं रम्मं रम्मगं रमणिनं मंगलावत्तं बंभलोगवडिंसगं विमाणं देव
REsamlelona
H
amarary.org
~44~
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१०], ------------------------------------ मुलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवायांग
समवायः
प्रत
सूत्राक
[१०]
प्रत अनुक्रम [१४-१८]
ताए उबवण्णा तेसि ण देवाणं उकोसेणं दस सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा दसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा दशमः
ऊससंति वा नीससंति या तेसि ण देवाणं दसहिं बाससहस्सेहिं आहारहे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे दसहिं श्रीअभय
भवग्गहणेहि सिज्जिसति बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंत करिस्सति ॥ सूत्र १०॥ त्तिः
दशमं स्थानकं सुबोधमेव तथापि किञ्चिलिख्यते, इह पञ्चविंशतिः सूत्राणि, तत्र लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधिता भावतो गौरवत्यागः त्यागः सर्वसङ्गानां संविनमनोज्ञसाधुदानं वा ब्रह्मचर्येण वसनम्-अवस्थानं ब्रह्मचर्यवास इति, तथा चित्तस्य-मनसः समाधिः-समाधानं प्रशान्तता तस्य स्थानानि-आश्रया भेदा वा चित्तसमाधिस्थानानि, तत्र
धर्मा-जीवादिद्रव्याणामुपयोगोत्पादादयः खभावास्तेषां चिन्ता-अनुप्रेक्षा धर्मस्य वा-श्रुतचारित्रात्मकस्य सर्वज्ञभाषिहै तस्य हरिहरादिनिगदितधर्मेभ्यः प्रधानोऽयमित्येवं चिन्ता धर्मचिन्ता, वाशब्दो वक्ष्यमाणसमाधिस्थानान्तरापेक्षया में
विकल्पार्थः, 'स'इति यः कल्याणभागी तस्य साधोरसमुत्पन्नपूर्वा-पूर्वस्मिन्ननादौ अतीते कालेऽनुपजाता तदुत्पादे | बाबपार्द्धपुद्गलपरावर्त्तान्ते कल्याणस्यावश्यंभावात् समुत्पद्येत-जायेत सः, किंप्रयोजनाय चेयमत आह-सर्वे-नि-81 दवशेष धर्म-जीवादिद्रव्यखभावमुपयोगोत्पादादिकं श्रुतादिरूपं वा 'जाणितए' ज्ञपरिज्ञया ज्ञातुं ज्ञात्वा च प्रत्या-161॥१७॥
ख्यानपरिज्ञया परिहरणीयकर्म परिहर्तुम् , इदमुक्तं भवति-धर्मचिन्ता धर्मज्ञानकारणभूता जायत इति, इयं च समाधेरुक्तलक्षणस्य स्थानमुक्तलक्षणमेव भवतीति प्रथम, तथा स्वप्नस्य-निद्रावशविकल्पज्ञानस्य दर्शन-संवेदनं खाद
कलकर
RAINIurary.org
~ 45~
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१०], ----------------------------------- मूल [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०]
दर्शनं तद्वा कल्याणप्राप्तिसूचकमसमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्यते, तद् यथा भगवतो महावीरस्यास्थिकामे शूलपाणियक्षकृतोप
सर्गावसाने, किं प्रयोजनं चेदं ? इत्याह-'अहातचं सुमिणं पासित्तए'त्ति यथा-येन प्रकारेण तथ्यः-सत्यो यथातथ्यः सर्वथा निर्व्यभिचार इत्यर्थः तं खप्नं-खमफलमुपचारात्तं द्रष्टुं ज्ञातुम्, अवश्यंभाविनो मुक्त्यादेः शुभखमफलस्य दर्शनाय साधोः स्वप्नदर्शनमुपजायत इति भावः, कचित् 'सुजाणं ति पाठः, तत्रावितथमवश्यंभावि सुयानं-सुगतिं द्रष्टुं-ज्ञातुं सुज्ञानं वा भाविशुभार्थपरिच्छेदं संवेदितुमिति, कल्याणसूचकावितथखप्नदर्शनाच भवति चित्तसमाधिरिति चित्तसमाधिस्थानमिदं द्वितीयं, तथा सज्ञानं सज़ा सा च यद्यपि हेतुवादरष्टिवाददीर्घकालिकोपदेशभेदेन
क्रमेण विकलेन्द्रियसम्यग्दृष्टिसमनस्कसम्बन्धित्वात्रिधा भवति तथापीह दीर्घकालिकोपदेशसभज्ञा प्राधेति, सा यस्यास्ति पास सञ्जी-समनस्कस्तस्य ज्ञानं सन्ज्ञिज्ञानं, तच्चेहाधिकृतसूत्रान्यथानुपपत्तेर्जातिस्मरणमेव, तद्वा 'से' तस्यासमुत्पन्न
पूर्व समुत्पद्येत, कस्मै प्रयोजनाय ? इत्याह-'पुन्वभवे सुमरित्तए'त्ति पूर्वभवान् स्मत, स्मृतपूर्वभवस्य च संवेगात्स|माधिरुत्पद्यते इति समाधिस्थानमेतत् तृतीयमिति, तथा देवदर्शनं वा 'से' तस्यासमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्यते, देवा हि तस्य गुणित्वाद्दर्शनं ददति, किं फलं ? इत्याह-दिव्यां देवद्धि-प्रधानपरिवारादिरूपां दिव्यां देवद्युति-विशिष्टां शरीराभरणादिदीप्तिं दिव्यं देवानुभावं-उत्तमवैक्रियकरणादिप्रभावं द्रष्टुम्, एतदर्शनायेत्यर्थः, देवदर्शनाचागमार्थेषु श्रद्वानदाढ्य धर्मे बहुमानश्च भवतीति ततश्चित्तसमाधिरिति देवदर्शनं चित्तसमाधिस्थानमिति चतुर्थ, तथा अवधिज्ञानं
प्रत अनुक्रम [१४-१८]
Saintairatn
a
Mumurary.om
~46~
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१०], ------------------------------------ मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
दशमः समवायः
प्रत
सूत्रांक
[१०]
श्रीमवावा से तस्यासमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्येत, किमर्थ इत्याह-अवधिना-मर्यादया नियतद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण लोकं ज्ञातुं
यांगे लोकज्ञानायेत्यर्थः, भवति च विशिष्टज्ञानाचित्तसमाधिरिति पञ्चमं तदिति, एवमवधिदर्शनसूत्रमपीति षष्ठं, तथा 2 श्रीअभय मनःपर्यवज्ञानं वा 'से' तस्यासमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्यत, किमर्थ अत आह–'मणोगते भावे जाणित्तए' अर्द्धतृतीयद्वीपवृत्तिः समुद्रेषु सजिनां पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां मनोगतान् भावान् ज्ञातुम्, एतद्ज्ञानायेत्यर्थ इति सप्तमं, तथा केवलज्ञानं १८वा 'से' तस्यासमुत्पन्नपूर्व समुत्पद्येत, केवलः-परिपूर्णः लोक्यते-दृश्यते केवलालोकेनेति लोको-लोकालोकखरूपं वस्तु
तद् ज्ञातुं केवलज्ञानस्य च समाधिभेदत्वा चित्तसमाधिभेदत्वा]चित्तसमाधिस्थानता, इह चामनस्कतया केवलिनश्चित्तं चैतन्यमबसेयमित्यष्टमं, एवं केवलदर्शनसूत्रं नवरं द्रष्टुमिति विशेष इति नवम, तथा केवलिमरणं वा म्रियेत-कुर्यात् इत्यर्थः, किमर्थे अत आह-'सर्वदुःखप्रहाणायेति, इदं तु केवलिमरणं सर्वोत्तमसमाधिस्थानमेवेति दशममिति, तथा अकर्मभूमिकानां-भोगभूमिजन्मनां मनुष्याणां दशविधा 'रुक्ख'त्ति कल्पवृक्षाः 'उवभोगत्ताए'त्ति उपभोग्यत्वाय 'उपस्थिय'त्ति उपस्थिता-उपनता इत्यर्थः, तत्र मत्ताङ्गकाः मद्यकारणभूताः 'भिंग'त्ति भाजनदायिनः 'तुडियंगति तूर्याङ्गसम्पादकाः 'दीबत्ति दीपशिखा:-प्रदीपकार्यकारिणः 'जोइति ज्योतिः-अग्निस्तत्कार्यकारिण इति 'चित्तगत्ति चित्राङ्गाः पुष्पदायिनः चित्ररसा-भोजनदायिनः मण्याः -आभरणदायिनः गेहाकाराः भवनत्वेनोपका-18 रिणः 'अणिगिण'त्ति अनमत्वं-सवस्त्रत्वं तद्धेतुत्वादनमा इति, घोषादीन्येकादश विमाननामानीति ॥१०॥
प्रत
अनुक्रम [१४-१८]
~ 47~
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [११]. ------------------------------------ मुलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[११]
प्रत
एक्कारस उवासगपढिमाओ प० त०-दसणसावए १ कयव्वयकमे २ सामाइअकडे ३ पोसहोववासनिरए ४ दिया भयारी रत्ति परिमाणकडे ५ दिआवि राओवि यंभयारी असिणाई विअडभोई मोलिकडे ६ सचित्तपरिणाए ७ आरंभपरिण्णाए ८ पेसपरिण्णाए ९ उद्दिट्ठभत्तपरिण्णाए १० समणभूए ११ आवि भवइ समणाउसो', लोगंताओ इक्कारसएहिं एक्कारेहिं जोयणसएहिं अबाहाए जोइसते पण्णत्ते, जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पश्चयस्स एकारसहि एकवीसेहिं जोयणसएहिं जोइसे चारं चरइ, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स एकारस गणहरा होत्था, तं०-दभूई अग्गिभूई वायुभूई विअत्ते सोहम्मे मंडिए मोरियपुत्ते अकंपिए अथलभाए मेअजे पभासे, मूले नक्खत्ते एकारसतारे प०, हेडिमगेविजयाणं देवाणं एकारसमुत्तरं गेविजविमाणसतं भवइत्तिमक्खायं, मंदरे णं पच्चए धरणितलाओ सिहरतले एकारसभागपरिहीणे उच्चत्तेणं प०, इमीसे ण रयणपभाए पुढवीए अस्थगइयाणं नेरइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिई ५०, पंचमीए पुढवीए अवेगहयाणं नेरइयाणं एकारस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं एक्कारस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एकारस पलिओवमाई ठिई प०, संतए कप्पे अत्यंगइयाणं देवाणं एकारस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा बंभं सुबंभ बंभावत्तं बंभष्पर्भ बंभकतं बंभवणं बंभलेसं बंमज्झयं भसिंगं बंभसिटुं बंभकूडं बंभुत्तरवडिंसगं विमाणं देवचाए उववण्णा तेसिणं देवाणं एकारस सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा एकारसण्हं अद्धमासाणं आणमैति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसिणं देवाणं एकारसह वाससहस्साणं आहारहे समुष्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे एकारसहिं भवम्गहणेदि सिज्झिस्संति बुझिस्सति मुचिस्संति परिनिवाइस्संति सबदुक्खाणमंतं करिस्वति ॥ सूत्र ११ ॥
अनुक्रम [१९]]
४सा
| एते सूत्रे 'क्रिया' आदि पदार्थस्य एकादशविधत्वं उक्तं | (ईसी तरह आगे भी प्रत्येक समवायमें समझ लेना)
~48~
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[११]
प्रत
अनुक्रम [१९]
समवाय [११], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय०
वृत्तिः
॥ १९ ॥
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [११]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
अथैकादशस्थानं, तदपि गतार्थ, नवरमिह प्रतिमाद्यर्थानि सूत्राणि सप्त स्थित्याद्यर्थानि तु नवेति, तत्रोपासन्ते-सेवन्ते श्रमणान् ये ते उपासकाः - श्रावकास्तेषां प्रतिमाः – प्रतिज्ञाः अभिग्रहरूपाः उपासकप्रतिमाः, तत्र दर्शनं सम्यक्त्वं तत्प्रतिपन्नः श्रावको दर्शन श्रावकः, इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमाप्रतिमावतोरभेदोपचारात्प्रतिभावतो निर्देशः कृतः, एवमुत्तरपदेष्वपि, अयमत्र भावार्थः - सम्यग्दर्शनस्य शङ्कादिशल्यरहितस्याणुत्रतादिगुणविकलस्य योऽभ्युपगमः सा प्रतिमा प्रथमेति, तथा कृतम् - अनुष्ठितं व्रतानाम् - अनुत्रतादीनां कर्म तच्छ्रवण ज्ञानवाञ्छाप्रतिपत्तिलक्षणं येन प्रतिपन्नदर्शनेन स कृतत्रतकर्मा प्रतिपन्नाणुत्रतादिरिति भाव इतीयं द्वितीया, तथा सामायिकं -सावद्ययोगपरिवर्जननिरवद्ययोगासेवनस्वभावं कृतं विहितं देशतो येन स सामायिककृतः, आहिताश्यादिदर्शनात् क्तान्तस्योत्तरपदत्वं तदेवमप्रतिपन्नपौषधस्य दर्शनत्रतोपेतस्य प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं मासत्रयं यावदिति तृतीया प्रतिमेति, तथा पोषं पुष्टिं कुशलधर्माणां धत्ते यदाहारत्यागादिकमनुष्ठानं तत्पौषधं तेनोपवसनम् -- अवस्थानमहोरात्रं यावदिति पौषधोपचास इति, अथवा पौषधं - पर्वदिनमष्टम्यादि तत्रोपवासः - अभक्तार्थः पौषधोप वास इति, इयं व्युत्पत्तिरेव, प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहारशरीरसत्कारान्रह्मचर्यव्यापारपरिवर्जनेष्विति, तत्र पौषधोपवासे निरतः - आसक्तः पौषधोपवासनिरतः (यः) सः, एवंविधस्य श्रावकस्य चतुर्थी प्रतिमेति प्रक्रमः, अयमत्र भावः - पूर्वप्रतिमात्रयोपेतः अष्टमीचतुर्दश्यमावास्यापौर्णमासीघ्वाहारपौषधादि चतुर्विधं पौषधं प्रतिपद्यमानस्य चतुरा मासान्
श्रावकस्य एकादश प्रतिमायाः वर्णनं
For Parts Only
~49~
११ समवायाध्य.
॥ १९ ॥
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [११]. ------------------------------------ मुलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
4
प्रत
--0-%-
5
सुत्रांक
[११]
यावचतुर्थी प्रतिमा भवतीति, तथा पञ्चमीप्रतिमायामष्टम्यादिपु पर्वखेकरात्रिकप्रतिमाकारी भवति, एतदर्थ च। सूत्रमधिकृतसूत्रपुस्तकेषु न दृश्यते दशादिषु पुनरुपलभ्यते इति तदर्थ उपदर्शितः, तथा शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारी रित्तीति रात्री किं ? अत आह-परीमाणं-स्त्रीणां तद्भोगानां वा प्रमाणं कृतं येन स परिमाणकृत इति, अयमत्र भावो-दर्शनत्रतसामायिकाष्टम्यादिपौषधोपेतस्य पर्वखेकरात्रिकप्रतिमाकारिणः शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारिणो रात्रावन-श अपरिमाणकृतोऽस्वानस्यारात्रिभोजिनः अवद्धकन्छस्य पंञ्च मासान् यावत्पञ्चमी प्रतिमा भवतीति, उक्तं च-"अट्ठ-17 मीचउद्दसीसु पडिम ठाएगराईयं ॥ [पश्चाद] असिणाणवियडभोई मउलियडो दिवसर्वभयारी या रत्तिं परिमाणकडो पडिमावजेसु दियहेसु ॥१॥"त्ति ॥ तथा दिवापि रात्रावपि ब्रह्मचारी 'असिणाइ'त्ति अस्त्रायी खानपरिवर्जकः, * कचित्पठाते-अनिसाइ'त्ति न निशायामत्तीत्यनिशादी बियडभोई'त्ति विकटे प्रकटप्रकाशे दिया न रात्रावित्यर्थः, दिवापि चाप्रकाशदेशेन भुङ्क-अशनाद्यभ्यवहरतीति विकटभोजी 'मोलिकडे'चि अवद्धपरिधानकच्छ इत्यर्थः, पष्ठी प्र-18 तिमेति प्रकृतं, अयमत्र भावः-प्रतिमापञ्चकोक्तानुष्ठानयुक्तस्य ब्रह्मचारिणः पण्मासान् यानपटी प्रतिमा भवतीति, तथा 'सचित्त' इति सचेतनाहारः परिज्ञातः-तत्वरूपादिपरिज्ञानात्प्रत्याख्यातो येन स सचित्ताहारपरिज्ञातः श्रावकः सप्तमी प्रतिमेति प्रकृतं, इयमत्र भावना पूर्वोक्तप्रतिमापदकानुष्ठानयुक्तस्य प्रासुकाहारस्य सप्त मासान् याव
प्रत
अनुक्रम [१९]]
ECE5%A6%
१ अष्टमीचतुर्दश्योः प्रतिमा करोस्करात्रिकी । बनानो दिवसभोजी मुस्कलकच्छः दिवा ब्रह्मचारी च । रात्री कृतपरिमाणः प्रतिमावर्जेषु दिवसेषु ॥ १॥
श्रावकस्य एकादश प्रतिमाया: वर्णनं
~50
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [११], -------------------------------- मूल [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
RECE
[११]
प्रत
श्रीसमवा- सप्तमी प्रतिमा भवतीति, तथा आरम्भः-पृथिव्याधुपमईनलक्षणः परिज्ञातः-तथैव प्रत्याख्यातो येनासावारम्भप- ११ सम
यांगे रिज्ञातः श्राद्धोऽष्टमी प्रतिमेति, इह भावना-समस्तपूर्वोक्तानुष्ठानयुक्तस्यारम्भवर्जनमष्टौ मासान् यावदष्टमी प्रति- वायाध्य. श्रीअभय | मेति, तथा प्रेष्याः-आरम्भेषु व्यापारणीयाः परिज्ञाता:-तथैव प्रत्याख्याता येन स प्रेष्यपरिज्ञातः श्रावको नवमीति,
वृत्तिः भावार्थह पूर्वोक्तानुष्ठायिनः आरम्भ परैरप्यकारयतोनव मासान् यावन्नवमी प्रतिमेति, तथा उद्दिष्ट-तमेव आवकम-13 ॥२०॥ द्दिश्य कृतं भक्तम्-ओदनादि उद्दिष्टभक्तं तत्परिज्ञातं येनासावुद्दिष्टभक्तपरिज्ञातः प्रतिमेति प्रकृतं, इहायं भावार्थः
पूर्वोदितगुणयुक्तस्याधाकर्मिकभोजनपरिहारवतः धुरमुण्डितशिरसः शिखावतो वा केनापि किश्चिद्हव्यतिकरे पृष्टस्य तज्ज्ञाने सति जानामीति अज्ञाने च सति न जानामीति ब्रुवाणस्य दश मासान् यावदुत्कर्षेण एवंविधविहारस्य दशमी प्रतिमेति, तथा श्रमणो-निर्गन्धस्तद्वद्यस्तदनुष्ठानकरणात् स श्रमणभूतः, साधुकल्प इत्यर्थः, चकारः समुच्चयेऽपिः सम्भावने, भवति श्रावक इति प्रकृतं, हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! इति सुधर्मस्वामिना जम्बूखामिनमामन्त्रयतोक्तं इत्येकादशीति, इह चेयं भावना-पूर्वोक्तसमग्रगुणोपेतस्य क्षुरमुण्डस्य कृतलोचस्य वा गृहीतसाधुनेपथ्यस्य ईर्यासमित्या
दिकं साधुधर्ममनुपालयतो भिक्षार्थ गृहिकुलप्रवेशे सति श्रमणोपासकाय प्रतिमाप्रतिपन्नाय भिक्षा दत्तेति भाषमा-3 दणस्य कस्त्वमिति कस्मिंश्चित्पृच्छति प्रतिमाप्रतिपन्नः श्रमणोपासकोऽहमिति बुवाणसैकादश मासान् यावदेका
दशी प्रतिमा भवतीति, पुस्तकान्तरे त्वेवं वाचना--दसणसावए प्रथमा कयवयकम्मे द्वितीया कयसामाइए तृतीया|
%
अनुक्रम
[१९]
॥२०
श्रावकस्य एकादश प्रतिमाया: वर्णनं
~51~
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [११], -------------------------------- मूल [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*
प्रत
***%
सुत्रांक
[११]
%
दापोसहोववासनिरए चतुर्थी राइभत्तपरिणाए पञ्चमी सचित्तपरिणाए षष्ठी दिया बंभयारी राओ परिमाणकडे| |सप्तमी दियावि राओवि बंभयारी असिणाणए यावि भवति. वोसहकेसरोमनहे अष्टमी आरंभपरिण्माए पेसणपरिण्णाए नवमी उदिवभत्तवजए दशमी समणभूए यावि भवइत्ति समणाउसो एकादशीति, क्वचित्तु आरम्भपरिज्ञात इति नवमीप्रेष्यारम्भपरिज्ञात इति दशमी उद्दिष्टभक्तवर्जकः श्रमणभूतश्चैकादशीति, तथा जम्बूद्वीपे २ मन्दरस्य पर्वत-18 स्वैकादश 'एगवीस'ति एकविंशतियोजनाधिकानि वोजनशतानि 'अवाहाए' अबाधया व्यवधानेन कृत्येति शेषः ज्योतिषं-ज्योतिश्चक्रं चार-परिभ्रमणं चरति-आचरति, तथा लोकान्तात् णमित्यलङ्कारे एकादश शतानि 'ए-17 कारे'त्ति एकादशयोजनाधिकानि अबाधया-बाधारहितया कृत्वेति शेषः 'जोतिसंतेति ज्योतिश्चक्रपर्यन्तः प्रज्ञप्त इति,
इदं च वाचनान्तरं व्याख्यातं, उक्तं च-"एकारसेक्कचीसा सय एकाराहिया य एकारा । मेरुअलोगावाहं जोइसचकं हैचरह ठाइ ॥१॥” इति, अधिकृतवाचनायां पुनरिदमनन्तरं व्याख्यातमालापकद्वयं व्यत्ययेनाऽपि दृश्यते, 'विमाणसयं
भवतित्तिमक्खाय'ति इह मकारस्थागमिकत्वादयमों-विमानशतं भवतीतिकृत्वा आख्यातं-प्ररूपितं भगवता अन्यैश्च केवलिभिरिति सुधर्मस्वामिवचनं, तथा 'मंदरे णं पव्वए धरणितलाओ सिहरतले एकारसभागपरिहीणे उच्च-3 |पण्णत्ते' अस्थायमर्थः-मेरुभूतलादारभ्य शिखरतलमुपरिभाग यावद्विष्कम्भापेक्षयाउलादेरेकादशभागेनैराश- मागेन परिहीणो-हानिमुपगतः उच्चत्वेन-उपर्युपरि प्रज्ञप्तः, इयमत्र भावना-मन्दरो भूतले दश योजनसहस्राणि विष्क
प्रत
%
अनुक्रम [१९]]
AC
%
REnainital
Maurary.om
श्रावकस्य एकादश प्रतिमाया: वर्णनं
~52~
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[११]
प्रत अनुक्रम [१९]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [११]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [११], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवा
यांग
श्रीअभय० वृत्तिः
॥ २१ ॥
म्भतः, ततश्वोश्चत्वेनाङ्गुले गतेऽङ्गुलस्यैकादशभागो विष्कम्भतो हीयते, एवमेकादशखगुलेप्यकुलं हीयते एतेनैव न्यायेनैकादशसु योजनेषु योजनं एवं एकादशसहस्रेषु सहस्रं ततो नवनवत्यां योजनसहस्रेषु नव सहस्राणि हीयन्ते, ततो भवति सहस्रं विष्कम्भः शिखरे इति, अथवा धरणीतलात् धरणीतलविष्कम्भात्सकाशाच्छिखरतलं-शिखरविष्कम्भमाश्रित्य मेरुरेकादशभागेन परिहीणो भवति, कस्यैकादशभागेन ? इत्याह- 'उचत्तेणं'ति उच्चत्वस्य, तथाहि -मेरोरुचत्यं नवनवतिः सहस्राणि तदेकादशभागो नव तेहींनो मूलविष्कम्नापेक्षया शिखरतले, शिखरस्य साहसिकत्वात्, | दशसाहस्रिकत्वाच्च मूल विष्कम्भखेति, ब्रह्मादीनि द्वादश विमाननामानि ॥ ११ ॥
वारस भिक्खुपडिमाओ पण्णत्ताओ, तंजहा- मासिभ भिक्खुपडिमा दोमासिआ भिक्खुपडिमा तिमासिआ भिक्खुपडिमा चउमासिआ भिक्खुपडिमा पंचमासिआ भिक्खुपडिमा छमासिया भिक्खुपडिमा सत्तमासिआ भिक्खुपडिमा पढमा सतराईदिआ भिक्खुपडिमा दोच्चा सत्तराइंदिआ भिक्खुपडिमा तथा सत्त इंदिआ भिक्खुपडिमा अहोराइआ भिक्खुपडिमा एगराइया भिक्खुपडिमा दुवालसविहे सम्भोगे प० तं० - उवहीसुअभत्तपाणे, अंजलीपग्गहेत्ति य । दायणे य निकाए अ, अग्मुद्वाणेति आवरे ॥ १॥ किञकम्मस्स य करणे, वेयावच्चकरणे इअ । समोसरणं संनिसिजा य, कहाए अपबन्धणे ॥ २ ॥ दुवालसावत्ते कितिकम्मे प० तंदुओणयं जहाजायं, कितिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च, दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥ १ ॥ विजया णं रायहाणी दुवालस जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता, रामे णं बलदेवे दुवालस वाससयाई सव्वाउयं पालिता देवत्तं गए, मंदरस्स णं पव्वयस्स चूलिआ
For Pasta Use Only
~ 53~
१२ समवायाध्य.
॥२१॥
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१२], -------------------------------- मूल [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२]
प्रत अनुक्रम [२०-२५]
मूले दुवालस जोयणाई विक्खंभेणं पण्णत्ता, जंबूदीवस्स णं दीवस्स वेइआ मूले दुवालस जोयणाई विक्खभेणं पण्णता, सहजहण्णिा राई दुवालसमुहुत्तिा पण्णता, एवं दिवसोऽवि नायचो, सवट्ठसिद्धस्स णं महाविमाणस्स उवरिलाओ थुभिअग्गाओ दुवालस जोयणाई उद्धं उपद्दआ ईसिपम्भारनामपुढवी पण्णता, इसिपमाराए णं पुढवीए दुवालस नामधेजा पण्णत्ता, तंजहाईसित्ति वा इसिपब्भाराति वा तणूड वा तणूयतरित्ति वा सिद्धित्ति वा सिद्धालएत्ति वा मुत्तीति वा मुत्तालएत्ति वा बभेत्ति वा बंभवाडिसएत्ति वा लोकपडिपूरणेत्ति वा लोगग्गचूलिआइ वा, इमीसे णं रयणपभाए पुढवीए अत्येगइआण नेरइयाणं बारस पलि
ओवमाई ठिई प०. पंचमीए पुढवीए अत्येगइयाण नेरइयाणं बारस सागरोवमाई ठिई ५०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं चारस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं बारस पलिओवमाई ठिई प०, लंतए कप्पे अत्थेगइयाणं देवाणं बारस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा महिंद महिंदज्झयं कंबुं कंधुग्गीवं पुंखे सुपुंखं महापुंखं पुंडं सुपुंडं महापुडं नरिंदं नरिंदकंतं नरिंदुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उकोसेणं वारस सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा बारसण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं चारसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिा जीवा जे बारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १२ ॥ द्वादशस्थानमथ, तच सुगम, नवरं स्थितिसूत्रेभ्योऽागेकादश सूत्राण्याह, तत्र भिक्षणां विशिष्टसंहननश्रुतवतां
~54~
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१२], ------------------------------------ मूल [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
वायाध्या
प्रत
सूत्रांक
[१२]
श्रीसमवा-प्रतिमाः-अभिग्रहा भिक्षुप्रतिमाः तत्र मासिक्यादयः सप्तमासिक्यन्ताः सप्त मासेन मासेनोचरोत्तरं श्रद्धा एकैकाभिर्भ
यांगे तपानदत्तिभिश्चेति, तथा सप्त रात्रिन्दिवानि-अहोरात्राणि यासु ताः सप्तरात्रिन्दिवास्ताश्च तिस्रो भवन्तीति, ससानामु। श्रीअभय पर्यष्टमी प्रथमा सप्तरात्रिन्दिवा एवं नवमी द्वितीया दशमी तृतीया, आसां च तिसृणामप्यनुष्ठानकृतो विशेषः, तथा
वृत्तिः हि-अष्टम्यां चतुर्थभक्तं तपः प्रामादेवहिरवस्थानमुत्तानादिकं च स्थानमिति, नवम्यां तु उत्कटुकाद्यासनेन विशेषः,II ॥२२॥
दशम्यां वीरासनादिना, तथा अहोरात्रप्रमाणाऽहोरात्रिकी एकादशी, सा च षष्ठभक्तेन भवतीति विशेषः, एकरात्रिकी-रात्रिप्रमाणा, सा चाष्टमभक्तपर्यन्तरात्रौ प्रलम्बभुजस्य संहतपादस्पेषदवनतकायस्यानिमेषनयनस्येति । तथा-121 सम्-एकीभूय समानसमाचाराणां साधूनां भोजनं सम्भोगः, स चोपध्यादिलक्षणविषयभेदात् द्वादशधा, तत्र 'उबही'स्यादिरूपकद्वयं, तत्रोपधिर्वनपात्रादिस्तं सम्भोगिकः साम्भोगिकेन सार्द्धमुद्रमोत्पादनैषणादोपैर्विशुद्धं गृह्णन् शुद्धः अशुद्धं गृह्णन् प्रेरितः प्रतिपन्नप्रायश्चित्तो वारत्रयं यावत्सम्भोगाईश्चतुर्थवेलायां प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानोऽपि विसम्भो-IN |गार्ह इति, विसम्भोगिकेन-पावस्थादिना वा संयत्या वा सार्द्धमुपधि शुद्धमशुद्धं वा निष्कारणं गृह्णन् प्रेरितः प्रतिपन्नप्रायश्चित्तोऽपि वेलात्रयस्योपरि न सम्भोग्यः, एवमुपधेः परिकर्म परिभोग वा कुर्वन् सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति, उक्तं च-"एगं व दो व तिन्नि व आउटुंतस्स होइ पच्छित्तं । [आलोचयत इत्यर्थः] आउटुंतेवि तओ परेण तिण्हं विसंयोगो ॥१॥"त्ति, 'सुयति' सम्भोगिकस्यान्यसांमोगिकस्य योपसम्पन्नस्य श्रुतस्य वाचनाप्रछनादिकं विधिना कुर्वन् तथा
प्रत अनुक्रम २०-२५]
॥२२॥
Saintaintind
r a
HALndiaram.org
भिक्षुणाम द्वादश: प्रतिमाया: वर्णनं
~55~
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
प्रत
अनुक्रम [२०-२५]
समवाय [१२], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
Education
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
भिक्षुणाम द्वादश: प्रतिमायाः वर्णनं
शुद्धः, तस्यैवाविधिनोपसम्पन्नस्यानुपसम्पन्नस्य वा पार्श्वस्यादेर्वा स्त्रिया वा वाचनादि कुर्वस्तथैव वेळात्रयोपरि बिसम्भोग्यः, तथा 'भत्तपाणे'त्ति उपधिद्वारवदवसेयं, नवरमिह भोजनं दानं च परिकर्मपरिभोगयोः स्थाने वाच्यमिति, तथा 'अंजलीपग्गहेति य' इहेतिशब्दा उपदर्शनार्थाः चकाराः समुच्चयार्थाः, तत्रोपलक्षणत्वादअलिप्रग्रहस्य वन्दनादिकमपीह द्रष्टव्यं तथाहि —सम्भोगिकानामन्यसम्भोगिकानां वा संविमानां कन्दनकं प्रणाममञ्जलिप्रग्रहं नमः क्षमाश्रमणेभ्य इति भणनं, आलोचनासूत्रार्थनिमित्तनिवद्याकरणं च कुर्वन् शुद्धः पार्श्वस्थादेरेतानि कुर्वस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति, तथा 'दायणे य'त्ति दानं, तत्र सम्भोगिकः सम्भोगिकाय [वस्त्रादिभिः शिष्यगणोपग्रहा| समर्थ सम्भोगिके] ऽन्यसम्भोगिकाय वा शिष्यगणं यच्छन् शुद्धः, निष्कारणं विसम्भोगिकस्य पार्श्वस्थादेर्वा संयत्या वा तं यच्छंस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति, तथा 'निकाए य'त्ति निकाचनं छन्दनं निमन्त्रणमित्यनर्थान्तरं तत्र शय्योपध्याहारैः शिष्यगणप्रदानेन खाध्यायेन च सम्भोगिकः सम्भोगिकं निमन्त्रयन् शुद्धः, शेषं तथैव, तथा 'अब्भुट्ठाणेति यावरे' त्ति अभ्युत्थानमासनत्यागरूपमित्यपरं सम्भोगासम्भोगस्थानमित्यर्थः, तत्राभ्युत्थानं पार्श्वस्थादेः कुर्वस्तथैवासम्भोग्यः, उपलक्षणत्वादभ्युत्थानस्य किङ्करतां च- प्राघूर्णकग्लानाद्यवस्थायां किं विश्रामणादि करोमीत्येवंप्रलक्षणां तथाs|भ्यास करणं- पार्श्वस्थादिधर्माच्युतस्य पुनस्तत्रैव संस्थापनलक्षणं, तथा अविभक्तिं च-अपृथग्भावलक्षणां कुर्वनशुद्धोऽसम्भोग्यश्चापि एतान्येव यथाऽऽगमं कुर्वन् शुद्धः सम्भोग्यश्चेति, तथा 'किकम्मस्स य करणेत्ति कृतिकर्म-चन्द
For Penal Lise Only
मूलं [१२] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~56~
Sayor
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१२]. ------------------------------------ मुलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१२]
प्रत अनुक्रम [२०-२५]
श्रीसमवा- नकं तस्य करणं-विधानं तद्विधिना कुर्वन् शुद्धः, इतरथा तथैवासम्भोग्यः, तत्र चायं विधिः-यः साधुर्वातेन है| १२ समयांग
स्तब्धदेह उत्थानादि कर्तुमशक्तः स सूत्रमेवास्खलितादिगुणोपेतमुचारयति, एवमावर्त्तशिरोनमनादि यच्छनोति वायाध्य. वृतिः
तत्करोत्येयं चाशठप्रवृत्तिर्वन्दनविधिरिति भावः, तथा 'वेयावचकरणे इय'त्ति वैयावृत्त्यम्-आहारोपधिदानादिना
प्रश्रवणादिमात्रकार्पणादिनाऽधिकरणोपशमनेन सहायदानेन बोपष्टम्भकरणं तस्मिंश्च विषये सम्भोगासम्भोगी भ-18 वित इति, तथा 'समोसरणं ति जिनस्पनरथानुयानपट्टयात्रादिषु यत्र बहवः साधो मिलन्ति तत्समवसरणं, इह
च क्षेत्रमाश्रित्य साधूनां साधारणोऽवग्रहो भवति, बसतिमाश्रित्य साधारणोऽसाधारणश्चेति, अनेन चान्येऽप्यवग्रहा है उपलक्षिताः, ते चानेके, तद्यथा-वर्षावग्रह ऋतुबद्धावग्रहो वृद्धवासावग्रहश्चेति, एकैकश्चायं साधारणावग्रहः प्रत्ये-10
कावग्रहश्चेति द्विधा, तत्र यत् क्षेत्रं वर्षाकल्पाद्यर्थ युगपत् व्यादिभिः साधुभिभिन्नगच्छस्थैरनुज्ञाप्यते स साधारणो इयत्तु क्षेत्रमेके साधवोऽनुज्ञाप्याश्रिताः स प्रत्येकावग्रह इति, एवं चैतेष्ववग्रहेषु आकुट्टया अनाभाव्यं सचित्तं शिष्य-8
मचित्तं वा वस्त्रादि गृह्णन्तोऽनाभोगेन च गृहीतं तदनर्पयन्तः समनोज्ञा अमनोज्ञाश्च प्रायश्चित्तिनो भवन्त्यसंभोग्याश्च, ॥२३॥ पार्थस्थादीनां चावग्रह एव नास्ति तथापि यदि तत् क्षेत्र क्षुलकमन्यत्रैव च संविना निर्वहन्ति ततस्तत् क्षेत्रं परिहरन्त्येव, अथ पार्श्वस्थादीनां क्षेत्र विस्तीर्ण संविनाश्चान्यत्र न निर्वहन्ति ततस्तत्रापि प्रविशन्ति सचित्तादि च गृहन्ति |
JMEnirahin
~57~
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
प्रत
अनुक्रम [२०-२५]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१२], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
Eticatur
प्रायश्चिन्तिनोऽपि न भवन्तीति, आह च - "संमणुन्नमसमणुन्ने अदिन्नणा भवगिण्हमाणे वा । सम्भोग वीसुकरणं [पृथकरणमित्यर्थः ] इयरे य अलंभ पे ंति ॥ १ ॥" [ इतरान् पार्श्वस्थादीनित्यर्थः ] तथा 'सन्निसिज्जा य'त्ति सन्निषद्या-आसनविशेषः, सा च सम्भोगासम्भोगकारणं भवति, तथाहि —संनिषद्यागत आचार्यो निषद्यागतेन सम्भोगिकाचार्येण सह श्रुतपरिवर्त्तनां करोति शुद्धः, अथामनोज्ञपार्श्वस्थादिसाध्वीगृहस्यैः सह तदा प्रायश्चित्ती भवति, तथा अक्षनिषद्यां विनाऽनुयोगं कुर्वतः शृण्वतश्च प्रायश्चित्तं, तथा निषद्यायामुपविष्टः सूत्रार्थी पृच्छति अतिचारान् वाऽऽलोचयति यदि तदा तथैवेति, तथा 'कहाए य पंबंधणे ति कथा-वादादिका पञ्चषा तस्याः प्रबन्धनं-प्रबन्धेन करणं कथाप्रबन्धनं, तत्र सम्भोगासम्भोगी भवतः, तत्र मतमभ्युपगम्य पञ्चावयवेन व्यवयवेन वा वाक्येन यत्तत्समर्थनं स छलजातिविरहितो भूतार्थान्वेषणपरो वादः, स एव छलजातिनिग्रहस्थानपरी जल्पः यत्रैकस्य पक्षपरियहोऽस्ति नापरस्य सा दूषणमात्रप्रवृत्ता वितण्डा, तथा प्रकीर्णकथा चतुर्थी, सा चोत्सर्गकथा द्रव्यास्तिकन्यकथा वा, तथा निश्चयकथा पञ्चमी, सा चापवादकथा पर्यायास्तिकनयकथा वेति, तत्राद्यास्तिस्रः कथाः श्रमणीवजैः सह करोति, श्रमणीभिस्तु सह कुर्वन् प्रायश्चित्ती, चतुर्थवेलायां चालोचयन्नपि विसम्भोगाई इति रूपकद्वयस्य संक्षेपार्थः विस्तरार्थस्तु निशीथपञ्चमोद्देशक भाष्यादवसेय इति, तथा 'दुवालसावत्ते किकम्मे त्ति द्वादशावर्त्त कृतिकर्म-चन्दनकं
१ समनोज्ञामनोज्ञयोरदत्तमनाभान्ये गृहति वा संभोगविश्वकरणं इतरांचाला प्रेरयन्ति ॥ १ ॥
For Parts Only
मूलं [१२] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~58~
nary or
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१२], ----------------------------------- मूल [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा-
प्रत
सूत्रांक
श्रीअभय वृत्तिः २४
[१२]
प्रत अनुक्रम [२०-२५]
प्रज्ञस, द्वादशावर्ततामेवास्थानुवदन् शेषांश्च तद्धर्मानभिधित्सुः रूपकमाह-'दुओणए'त्यादि, अवनतिरवनतम्-उत्त- १२ सममाजप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः, द्वे अवनते यस्मिंस्तवषवनतं, तत्रैकं यदा प्रथममेव 'इच्छामि खमासमणो! वंदिउं जावणि- वायाध्य. जाए निसीहियाए'त्ति अभिधायावग्रहानुज्ञापनायावनमतीति, द्वितीयं पुनर्यदाऽवग्रहानुज्ञापनायैवावनमतीति, यथा जातं-श्रमणत्वभवनलक्षणं जन्माश्रित्य योनिनिष्क्रमणलक्षणं च, तत्र रजोहरणमुखवत्रिकाचोलपट्टमात्रया श्रमणो जातो रचितकरपुटस्तु योन्या निर्गत एवंभूत एव वन्दते तदन्यतिरेकाद्वा यथाजातं भण्यते, कृतिकर्म-वन्दनकं 'वारसावर्य'ति द्वादशावर्ताः-सूत्राभिधानगर्भाः कायव्यापारविशेषाः यतिजनप्रसिद्धा यस्मिंस्तद् द्वादशावत, तथा 'चउ-3 सिरं"ति चत्वारि शिरांसि यस्मिंस्तचतुःशिरः प्रथमप्रविष्टस्य धामणाकाले शिष्याचार्यशिरोद्वयं पुनरपि निष्क्रम्य प्रविष्टस्य इयमेवेति भावना, तथा 'तिगुत्तं ति तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुप्तः पाठान्तरेऽपि तिसृभिः (श्रद्धाभिः) गुसिभिरेवेति, तथा 'दुपवेति द्वौ प्रवेशी यस्मिंस्तद् द्विप्रवेशं तत्र प्रथमोऽवग्रहमनुज्ञाप्य प्रविशतो द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति, 'एगनिक्खमण'ति एकं निष्क्रमणमवग्रहादावश्यिक्या निर्गच्छतः, द्वितीयवेलायां नवग्रहान्न निर्गच्छति, पाद-18 पतित एव सूत्रं समापयतीति, तथा 'विजयराजधानी' असङ्ख्याततमे जम्बूद्वीपे आधजम्बूद्वीपविजयाभिधानपूर्व- ॥२४॥ द्वाराधिपस्य विजयाभिधानस्य पल्योपमस्थितिकस्य देवस्थ सम्बन्धिनीति, तथा रामो नवमो बलदेवः 'देवत्तं मर त्ति देवत्वं-पञ्चमदेवलोके देवत्वं गतः, तथा सर्वजघन्या रात्रिरुत्तरायणपर्यन्ताहोरात्रस्य रात्रिः, सा च द्वादशमीहूर्तिका-151
द्वादशावात वन्दंस्य व्याख्या एवं विधि:
~59~
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१२]. ------------------------------------ मुलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२]
+
+
चतुर्विंशतिघटिकाप्रमाणा, एवं 'दिवसोवि' त्ति सर्वजघन्यो द्वादशमौहूर्तिक एवेत्यर्थः, स च दक्षिणायनपर्यन्तदिवस इति । माहेन्द्रमाहेन्द्रध्वजकम्बुकम्बुग्रीवादीनि त्रयोदश विमाननामानीति ॥ १२॥
तरेस किरियाठाणा प० त०-अट्ठादंडे अणहादंडे हिंसादंडे अकम्हादंडे दिविविपरिआसिआदंडे मुसावायवत्तिए अदिन्नादाणवत्तिए अज्झथिए मानवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए लोभवत्तिए इरिआवहिए नाम तेरसमे, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु तेरस विमाणपत्थडा प०, सोहम्मबडिंसगे णं विमाणे ण अद्धतेरसजोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं प०, एवं ईसाणवडिसगेवि, जलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिआणं अद्धतेरस जाइकुलकोडीजोणीपमुहसवसहस्साई प०, पाणाउस्स णं पुवस्स तेरस वत्यू प०, गम्भवक्कंतिअपंचेंदिअतिरिक्खजोणिआणं तेरसविहे पओगे प० तं०-सच्चमणपओगे मोसमणपओगे सचामोसमणपओगे असचामोसमणपओगे सञ्चवइपओगे मोसवइपओगे सच्चामोसवइपओगे असच्चामोसवईपओगे ओरालिअसरीरकायपओगे ओरालिअमीससरीरकायपओगे वेउब्विअसरीरकायपओगे वेउन्विअमीससरीरकायपओगे कम्मसरीरकायपओगे, सूरमंडलं जोयणेणं तेरसेहिं एगसहिभागहिं जोयणस्स ऊणं प०, इमीसे गं स्यणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं तेरस पलिओवमाई ठिई प०, पंचमीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेरस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं तेरस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइआणं देवाणं तेरस पलिओवमाई ठिई प०, लंतए कप्पे [सु] अत्थेगइआणं देवाणं तेरस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा वजं सुवर्ज वजावत्तं वजप्पभं वजकतं वजवणं वालेसं वजरूवं वासिंग वजसिद्ध वअकडं वअत्तरवडिंसगं वरं वइरावत्तं
प्रत अनुक्रम [२०-२५]
+
5CRORER5R-5
५स.
~60~
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
प्रत
अनुक्रम [२६]
समवाय [१३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे
श्री अभय० वृचि:
॥ २५ ॥
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१३]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
वइरप्पनं वइरकंतं वइरवण्णं वइरलेसं वइररूवं वइरसिंगं वइरसिद्धं वइरकूडं वइरुत्तरवडिसगं लोगं लोगावचं लोगप्पभं लोगकतं लोगवण्णं लोगलेसं लोगरूवं लोगसिंगं लोगसिद्धं लोगकूडं लोगुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेरस सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा तेरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीस्ससंति वा तेसि णं देवाणं तेरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पज्जइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे तेरसहिं भवग्गहृणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिब्वाइस्संति सब्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १३ ॥
अथ त्रयोदशस्थानके किञ्चिल्लिख्यते, इह स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वागष्ट सूत्राणि, तत्र करणं क्रिया-कर्मबन्धनिबन्धनचेष्टा तस्याः स्थानानि-भेदाः पर्यायाः क्रियास्थानानि, तत्रार्थाय - शरीरखजनधर्मादिप्रयोजनाय दण्डः -- त्रसस्थावरहिंसा अर्थदण्डः क्रियास्थानमितिप्रक्रमः १ तद्विलक्षणोऽनर्थदण्डः २ तथा हिंसामाश्रित्य हिंसितवान् हिनस्ति हिंसिष्यति वा अयं वैरिकादिर्मामित्येवंप्रणिधानेन दण्डो - विनाशनं हिंसादण्डः ३ तथाऽकस्माद् - अनभिसंधिनोऽन्यवधाय प्रवृत्त्या दण्डः-अन्यस्य विनाशोऽकस्माद्दण्डः ४ तथा रष्टे:-बुद्धेर्विपर्यासिका विपर्यासिता या दृष्टिविपर्यासिका दृष्टिविपर्यासिता वा मतिभ्रम इत्यर्थः तया दण्डः प्राणिवधो दृष्टिविपर्यासिकादण्डो दृष्टिविपर्यासितादण्डो वा, मित्रादेरमित्रादिबुद्धचा हननमिति भावः ५ तथा मृषावादः -- आत्मपरो भयार्थमठी कवचनं तदेव प्रत्ययः कारणं यस्य दण्डस्य स मृषावादप्रत्ययः ६ एवमदत्तादानप्रत्ययोऽपि ७ तथा अध्यात्मनि मनसि भव आध्यात्मिको वाह्यनिमि
क्रियाया: त्रयोदश: स्थानानाम् वर्णनं
For Parts Only
~61~
१३ सम
वायाध्य.
॥ २५ ॥
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१३], ------------------------------------ मुलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[१३]
RECACCORECASSES
सानपेक्षः शोकाभि(दि)भव इति भावः ८ तथा मानप्रत्ययो-जात्यादिमदहेतुकः९तथा मित्रद्वेषप्रत्ययः-मातापित्रादीनामल्पेऽप्यपराधे महादण्डनिर्वर्तनमिति भावः १० मायाप्रत्ययो मायानिवन्धनः ११ एवं लोभप्रत्ययोऽपि १२ ऐर्यापथिकः केवलयोगप्रत्ययः कर्मवन्धः-उपशान्तमोहादीनां सातवेदनीयबन्धः १३॥ तथा 'विमाणपत्थड'त्ति विमानप्र
स्तटा उत्तराधर्यव्यवस्थिताः, तथा सोहम्मवडिसए'त्ति सौधर्मस्य देवलोकस्या चन्द्राकारस्य पूर्वापरायतस्य दक्षिणोत्तर8] विस्तीर्णस्य मध्यभागे त्रयोदशप्रस्तटे शकावासभूतं विमानं सौधर्मावतंसकं सौधर्मदेवलोकस्यावतंसकः-शेखरकः स
इव प्रधानत्वात् इत्येवं यथार्थनामकमिति, शंका वाक्यालङ्कारे, अर्द्ध त्रयोदशं येषु तान्यर्द्धत्रयोदशानि तानि च तानि योजनशतसहस्राणि चेति विग्रहः सार्दानि द्वादशेत्यर्थः, तथाऽर्द्धत्रयोदशानि जाती-जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्गती कुलकोटीनां योनिप्रमुखानि-उत्पत्तिस्थानप्रभवानि यानि शतसहस्राणि तानि तथोच्यन्त इति, तथा 'पाणाउस्स'त्ति यत्र प्राणिनामायुर्विधानं सभेदमभिधीयते तत्प्राणायुादशं पूर्व तस्य त्रयोदश वस्तूनि-अध्ययनवद्विभागविशेषाः, तथा गर्भ-गर्भाशये व्युत्कान्तिः-उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, ते च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेति विग्रहः, प्रयोजन-मनोवाकायानां व्यापारणं प्रयोगः स त्रयोदशविधः, पञ्चदशानां प्रयोगाणां मध्ये आहारकाहारकमिश्रलक्षणकायप्रयोगद्वयस्य तिरश्चामभावात् , तौ हि संयमिनामेव स्तः, संयमश्च संयतमनुष्याणामेव न तिरश्वामिति, तत्र सत्यासत्योभयानुभयखभावाश्चत्वारो मनःप्रयोगाः वाक्प्रयोगाश्चेति अष्टौ पुनरौदारिकादयः पञ्च कायप्रयोगाः एवं त्र
प्रत
अनुक्रम [२६]
SAREnatanATI
क्रियाया: त्रयोदश: स्थानानाम् वर्णनं
~62~
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१३], ------------------------------------ मुलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा
यांग श्रीअभय
NMCAE%A5%
सूत्राक
वृत्तिः
[१३]]
॥२६॥
प्रत
योदशेति, तथा सूरमण्डलस्य-आदित्यविमानवृत्तस्य योजनं सूरमण्डलयोजनं तत् 'ण'मित्यलङ्कारे त्रयोदशभिरेकप-13 १४ समटिभागैर्येषां भागानामेकषष्टया योजनं भवति तै गर्योजनस्य सम्बन्धिभिरून-न्यूनं प्रज्ञप्तमष्टचत्वारिंशद् योजन-1 भागा इत्यर्थः । वब्राभिलापेन द्वादश वइराभिलापेन लोकाभिलापेन चैकादश विमानानीति ॥ १३ ॥
चउहस भूअग्गामा ५० त०-सुहुमा अपज्जत्तआ सुहुमा पअत्तया बादरा अपजत्तया बादरा पजत्तया इंदिआ अपजत्तया बेइंदिया पजत्तया तेंदिआ अपजत्तया तेंदिया पजत्तया चरिंदिआ अपजत्तया चरिंदिया पजत्तया पंचिंदिआ असन्निअपजत्तया पंचिदिआ असन्निपजतया पंचिंदिआ सन्निअपजत्तया पंचेंदिआ सन्निपजत्तया, चउदस पुन्वा प० त०-उपायपुग्वमग्गेणियं च तइयं च वीरियं पुवं । अत्थीनस्थिपवायं तत्तो नाणणवायं च ॥१॥ सञ्चप्पवायपुवं तत्तो आयप्पवायपुव्वं च । कम्मप्पवायपुवं पचक्खाणं भवे नवमं ॥२॥ विजाअणुप्पवाय अवंशपागाउ बारसं पुवं । तत्तो किरियविसालं पुवं तह बिंदुसार च ॥३॥ अम्गेणीअस्स णं पुब्बस्स चउद्दस वत्थू प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चउद्दस समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समणसंपया होत्या, कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवहाणा प० त०--मिच्छदिट्ठी सासायणसम्मदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्टी अविरयसम्मदिट्ठी विरयाविरए पमत्तसंजए अप्पमत्तसंजए निअट्टीबायरे अनिअट्टिबायरे सुहुमसंपराए उवसामए या खवए वा उवसंतमोहे खीणमोहे सजोगी केवली अयोगी केवली, मरहेरवयाओ णं जीवाओ चउद्दस चउद्दस जोयणसहस्साई चत्तारि म एगुत्तरे जोयणसए छच एगूणवीसे भागे जोयणस्स आयामेणं १०, एगमेगस्स णं रन्नो चाउरतचक्कवट्टिस्स चउद्दस रयणा ५० त०-इत्थी
अनुक्रम
[२६]
॥२६॥
~63~
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [१४], ------------
...--------------------------- मूल [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*
प्रत
सूत्रांक
A84%
[१४]
रयणे सणावइरयण गाहावइरयणे पुरोहियरयणे वडइरयणे आसरयणे हत्धिरयणे असिरयणे दंडरवणे चक्करयणे छत्तरयणे चम्मरयणे मणिरयणे कागिणिरयणे, जंबुद्दीवे ण दीवे चउद्दस महानईओ पुब्बावरेण लवणसमुदं समपति, तं गंगा सिंधू रोहिआ। रोहिअंसा हरी हरिकता सीआ सीओदा नरकन्ता नारिकांता सुवण्णकूला रुप्पकूला रत्ता रत्तवई, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं चउदस पलिओवमाई ठिई प०, पञ्चमीए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरदवाणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं चउद्दस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं चउद्दस पलिओवमाई ठिई प०, लंतए कप्पे सु] देवाणं अत्थेगइयाणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई प०, महासुके कप्पे देवाणं अत्गइयाणं बहण्णेणं चउदस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा सिरिकतं सिरिमहिनं सिरिसोमनसं लंतयं काविट्ठ महिंदकंतं महिंदुत्तरवळिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि क देवाणं उक्कोसेणं चउद्दस सागरोवमाई ठिई प० ते ण देवा चउरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसिणं देवाणं चउद्दसहिं वाससहस्सेहिं आहारहे समुष्पजह, संतेगइआ भवसिद्धिा जीवा जे चउद्दसहिं भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्र १४ ॥
अथ चतुर्दशस्थानकं सुबोध, नवरमिहाष्टौ सूत्राण्याक् स्थितिसूत्रादिति, तत्र चतुर्दश भूतग्रामाः' भूतानि-जीवाः तेषां ग्रामाः-समूहाः भूतप्रामाः, तत्र सूक्ष्माः सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्त्तित्वात् पृथिव्यादय एकेन्द्रियाः, किंभूताअपर्याप्तकाः-तत्कर्मोदयादपरिपूर्णखकीयपर्याप्तय इत्येको ग्रामः, एवमेते एव पर्यासकाः-तथैव परिपूर्णखकीयपर्या
प्रत
CG
अनुक्रम [२७-३१]
CAG
SUREmirat
n
a
चतुर्दश-भूतग्रामानाम् वर्णनं
~64~
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१४], ------------------------- ----- मूल [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
[१४]
प्रत
श्रीसमवा- प्य इति द्वितीयः, एवं बादरा बादरनामकर्मोदयात् पृथिव्यादय एव, तेऽपि पर्यासेतरभेदाद् द्विधा, एवं द्वीन्द्रियादयो- १४ समयांगे पि, नवरं पञ्चेद्रियाः सब्जिनो-मनःपर्याप्त्युपेता इतरे त्वसचिन इति । तथा 'उप्पायपुव्बे'त्यादि गाथात्रयं, तथा :
वायाध्य. श्रीअभय
'उप्पायपुबमग्गेणियं चत्ति यत्रोत्पादमाश्रित्य द्रव्यपर्यायाणां प्ररूपणा कृता तदुत्पादपूर्व, यत्र तेषामेवानं-परिमा-1 वृतिः हा
णमाश्रित्य तदप्रेणीयं, 'तइयं च वीरियं पुर्व'ति यत्र जीवादीनां वीर्य प्रोच्यते-प्ररूप्यते तद्वीर्यप्रवादं 'अत्थीनत्थिप-12 ॥ २७॥४ावार्य'ति यद्यथा लोके अस्ति नास्ति च तद्यत्र तथोच्यते तदस्सिनास्तिप्रवादं 'तत्तो नाणप्पवायं च'त्ति यत्र ज्ञानं-म-18
दत्यादिकं खरूपमेदादिभिः प्रोच्यते तत् ज्ञानप्रवादमिति । 'सच्चप्पवायपुर' ति यत्र सत्यः-संयमः सत्यं वचनं वा समेदं ।
सप्रतिपक्षं च प्रोच्यते तत्सत्यप्रवादपूर्व, ततः 'आयष्पवायपुवं चत्ति यत्रात्मा-जीवोऽनेकनयैःप्रोच्यते तदात्मप्र४बादमिति, 'कम्मप्पवायपुर्व'ति यत्र ज्ञानावरणादि कर्म प्रोच्यते तत्कर्मप्रवादमिति. 'पचक्वाणं भवे नवम'ति यत्र हा प्रत्याख्यानस्वरूपं वर्ण्यते तत्प्रत्याख्यानमिति । 'विजाअणुप्पवायति यत्रानेकविधा विद्यातिशया वर्ण्यन्ते तद्विद्यानु-18
प्रवादं, 'अवंझपाणाउ बारसं पुर्वति यत्र सम्यगज्ञानादयोऽवन्ध्याः -सफला वर्ण्यन्ते तदवन्ध्यमेकादशं, यत्र प्राकणा-जीवा आयुश्चानेकधा वर्ण्यन्ते तत्प्राणायुरिति द्वादशं पूर्व, 'तत्तो किरियविसालं'ति यत्र क्रियाः-कायिक्या- ॥२७॥ दिकाः विशाला-विस्तीर्णाः सभेदत्वादभिधीयन्ते तत् क्रियाविशालं 'पुचं तह विंदुसारं च' त्ति लोकशब्दोऽत्र लुतो| द्रष्टव्यः, ततश्च लोकस्य बिन्दुरिवाक्षरस्य सार--सर्वोत्तमं यत्तल्लोकबिन्दुसारमिति ३ । तथा 'चोइस वत्थूणि त्ति द्वितीय
अनुक्रम [२७-३१]
| चतुर्दश-भूतग्रामानाम् वर्णनं
~65~
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१४], ------------------------- ----- मूल [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४]
CALCOCCADACOCKRE
पर्वस्य वस्तुनि-विभागविशेषाः तानि च चतुर्दश मूलवस्तूनि, चूलावस्तूनि तु द्वादशेति, तथा 'साहस्सिओ'त्ति सहस्राण्येव साहरुयं, तथा 'कम्मचिसोही'त्यादि, कर्मविशोधिमार्गणां प्रतीत्य-ज्ञानावरणादिकर्मविशुद्धिगवेषणामा-14 श्रित्य चतर्दश जीवस्थानानि-जीवभेदाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-मिथ्या-विपरीता रष्टियस्यासी मिथ्यारष्टिः-उदितमि-18 ध्यात्वमोहनीयविशेषः, तथा 'सासायणसम्मदिहित्ति सहेपत्तत्त्वश्रद्धानरसास्वादनेन वर्तते इति साखादनः, घण्टालालान्यायेन प्रायःपरित्यक्तसम्यक्त्वः तदुत्तरकालं पडावलिकः, तथा चोक्तम्-"उवसमसंमत्ताओ चयओ मिच्छं अ-12 पावमाणस्स । सासायणसंमत्तं तदंतरालंमि छावलियं ॥१॥” इति, साखादनश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्चेति विग्रहः, 'सम्मा-18 मिच्छदिट्रिति सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिरस्पेति सम्यगमिथ्याष्टिः-उदितदर्शनमोहनीयविशेषः, तथाऽविरतसम्यग्दष्टिशविरतिरहितः विरताविरतो-देशविरतः श्रावक इत्यर्थः, प्रमत्तसंयतः-किश्चित्प्रमादवान् सर्वविरतः, अप्रमआत्तसंयतः-सर्वप्रमादरहितः स एव, 'नियट्टी.' इह क्षपकश्रेणिमुपशमणि वा प्रतिपन्नो जीवः क्षीणदर्शनसप्तक उप-1
शान्तदर्शनसप्तको वा निवृत्तिवादर उच्यते, तत्र निवृत्तिः-यद्गुणस्थानकं समकालप्रतिपन्नानां जीवानामध्यवसाय-3 दाभेदः तत्प्रधानो वादरो-बादरसम्परायो निवृत्तिवादरः, 'अणियट्टिबायरे'त्ति अनिवृत्तिवादरः, सच कपायाष्टकक्षप
णारम्भानपुंसकवेदोपशमनारम्भाचारभ्य वादरलोभखण्डक्षपणोपशमने यावद्भवतीति, 'सुहुमसंपराए'त्ति सूक्ष्मःसज्वलनलोभासक्वेयखण्डरूपः सम्परायः-कषायो यस्य स सूक्ष्मसम्परायो-लोभानुवेदक इत्यर्थः, अयं च द्विविध
प्रत
अनुक्रम [२७-३१]
SAREauratonm
चतुर्दश-जीव/गुण-स्थानानाम् वर्णनं
~66~
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१४]
प्रत
अनुक्रम [२७-३१]
समवाय [१४], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवा
यांगे
श्रीअभय०
वृत्तिः
॥ २८ ॥
Jan Eaton
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
चतुर्दश-जीव / गुण-स्थानानाम् वर्णनं
| इत्याह- उपशमको वा-उपशम श्रेणीप्रतिपन्नः क्षपको वा — क्षपकश्रेणिप्रतिपन्न इति दशमं जीवस्थानमिति तथा | उपशान्तः - सर्वथानुदयावस्थो मोहो- मोहनीयं कर्म यस्य स उपशान्तमोहः, उपशमवीतराग इत्यर्थः, अयं चोपशमश्रेणिसमाप्तावन्तर्मुहूर्तं भवति, ततः प्रच्यवत एवेति तथा क्षीणो-निःसत्ताकीभूतो मोहो यस्य स तथा, क्षयवीतराग इत्यर्थः, अयमप्यन्तर्मुहूर्त्तमेवेति, तथा सयोगी केवली - मनःप्रभृतिव्यापारवान् केवलज्ञानीति, तथाऽयोगी केवली - निरुद्धमनःप्रभृतियोगः शैलेशीगतो हखपञ्चाक्षरोद्गिरणमात्रं कालं यावदिति चतुर्दशं जीवस्थानमिति, 'भरहे' इत्यादि, भरतैरावतयोजवा, इह भरतमैरवतं चारोपितगुणकोदण्डाकारं यतस्त (तस्त) योजीवे भवतः, तत्र भरतस्य हिमवतोऽर्वागनन्तरप्रदेशश्रेणिर्जीवा ऐरावतस्य च शिखरिणः परतोऽनन्तरप्रदेशश्रेणीति भरतैरावतजीवा, 'चाउरंतच कव| हिस्स' ति चत्वारोऽन्ता-विभागा यस्यां सा चतुरन्ता भूमिः तत्र भवः स्वामितयेति चातुरन्तः स चासौ चक्रवर्त्ती चेति विग्रहः, रत्नानि - खजातीयमध्ये समुत्कर्षवन्ति वस्तूनीति, यदाह - "रत्नं निगद्यते तज्जातौ जातौ यदुत्कृष्ट" मिति, 'गाहावर 'चि गृहपतिः - कोष्ठागारिकः 'पुरोहिय'त्ति पुरोहितः --- शान्तिकर्मादिकारी 'वह' त्ति वर्द्धकिः - रथादिनि|र्मापयिता मणि:- पृथिवीपरिणामः काकिणी - सुवर्णमयी अधिकरणीसंस्थानेति, इह सप्ताद्यानि पञ्चेन्द्रियाणि शेषायेकेन्द्रियाणीति, श्रीकान्तमित्यादीन्यष्टौ विमाननामानीति ॥ १४ ॥
पन्नरस परमाहम्मिश्र प० तं० – 'अंबे अंबरिसी चैव, सांमे सबैलेत्ति आवरे । रुदोवरुद्दकाले थ, महाकालेति आवरे ॥ १ ॥
For Para Use Only
मूलं [१४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~67~
१५ समवायाध्य.
॥ २८ ॥
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [१५], ------------
----------------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
असिपत्ते घेणु कुम्भे, वालुए वेअरणीति । खरस्सरे महाघोसे, एते पन्नरसाहिआ ॥२॥ णमीणं अरहा पन्नरस धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, धुवराहू णं बहुलपक्खस्स पडिवए पन्नरसभागं पन्नरसभागेणं चंदस्स लेसं आवरेचाणं चिट्ठति, तंजहा-पडमाए पढमं भागं बीआए दुभागं तइआए तिभागं चउत्थीए चउभार्ग पञ्चमीए पञ्चभागं छट्ठीए छभागं सत्तमीए सत्तभागं अट्टमीए अट्ठभाग नवमीए नवभागं दसमीए दसभागं एक्कारसीए एक्कारसभागं बारसीए वारसभागं तेरसीए तेरसभागं चउद्दसीए चउद्दसभागं पन्नरसेसु पन्नरसभाग, तं चेव सुक्कपक्खस्स य उवदंसेमाणे उवदंसेमाणे चिट्ठति, तंजहा-पढमाए पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसभाग, छ णक्खत्ता पन्नरसमुहत्तसंजुत्ता प००-सतभिसय भरणि अद्दा असलेसा साई वहा जेट्टा । एते छण्णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता ॥१॥ चेतासोएसुणं मासेसु पन्नरसमुहत्तो दिवसो भवति, एवं चेत्तमासेसु पण्णरसमुहुत्ता राई भवति, विजाअणुप्पकायस्स णं पुवस्स पन्नरस वत्यू पणत्ता, मणसाणं पण्णरसविहे पओगे पतं०-सच्चमणपओगे मोसमणपओगे सच्चमोसमणपओगे असचामोसमणपओगे सच्चबइपओगे मोसवइपओगे सच्चमोसवइपओगे असच्चामोसवइपओगे ओरालिअसरीरकायपओगे ओरालिअमीससरीरकायपओगे वेउन्वियसरीरकायपोगे वेउल्विअमीससरीरकायपओगे आहारयसरीरकायप्पओगे आहारयमीससरीरकायपओगे कम्मयसरीरकायपओगे, इमीसे णं रयणप्पमाए पुढवीए अत्थेगइआण नेरहआणं पण्णरस पलिओवमाई ठिई प०, पंचमीए पुढवीए अस्थेगइयाणं नेरइआणं पण्णरस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं पण्णरस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्यंगइआणं देवाणं पण्णरस पलिओवमाई ठिई प०, महासुक्के कप्पे अत्येगइआणं देवाणं पण्णरस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा
प्रत अनुक्रम [३२-३७]
CHECRUGROGROCE
REndDonal
For P
OW
Maanasurary.orm
~68~
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५]
प्रत
अनुक्रम [ ३२-३७]
समवाय [१५], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे श्रीअभय ० वृत्तिः
॥ २९ ॥
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१५]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
मंद सुगंद मंदावतं दर्भ णंदकंतं णंदवणं णंदलेसं णंदज्झयं णंदसिगं गंदसिंहं णंदकूडं गंदुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमाई ठिई प० ते णं देवा पण्णरसण्डं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं पण्णरसहिं वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पअर, संतेगइआ मवसिद्धिआ जीवा जे पन्नरसहिं भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुद्दिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १५ ॥
अथ पञ्चदशस्थानके सुगमेऽपि किञ्चिल्लिख्यते, इह स्थितेरर्वाक् सप्त सूत्राणि, तत्र परमाश्च तेऽधार्मिकाश्च संक्लिष्ट| परिणामत्वात्परमा धार्मिकाः -- असुरविशेषाः ये तिसृषु पृथिवीषु नारकान् कदर्थयन्तीति तत्रांबेत्यादि लोकद्वयं, एते च व्यापारभेदेन पञ्चदश भवन्ति, तत्र 'अंबे' त्ति यः परमाधार्मिकदेवो नारकान् हन्ति पातयति बभाति नीत्वा चाम्बरतले विमुञ्चति सोऽम्ब इत्यभिधीयते १, 'अम्बरिसी चेव' त्ति यस्तु नारकान्निहतान् कल्पनिकाभिः खण्डशः कल्पयित्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोति सोऽम्बरिषीति २, 'सामे' ति यस्तु रज्जुहस्तप्रहारादिना शातनपातनादि करोति वर्णतश्च श्यामः स श्याम इति ३, 'सबलेति यावरे' ति शबल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः, स चाब्रवसा| हृदयकालेयकादीन्युत्पाटयति वर्णतश्च शवलः कर्बुर इत्यर्थः ४, 'रुद्दोवरुद्दे' त्ति यः शक्ति कुन्तादिषु नारकान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्र इति ५, यस्तु तेषामङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्र इति ६, 'काले' त्ति यः कण्ड्रादिषु | पचति वर्णतः कालश्च स कालः ७, महाकाल इति चापरः परमाधार्मिक इति प्रक्रमः, स च ऋणमांसानि खण्ड
परमाधार्मिकानाम् देवानाम् वर्णनं
For Penal Use Only
~69~
१५ समवायाध्य.
॥२९॥
nary org
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१५], ------------------------- ----- मूल [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१५]
दायित्वा खादयति वर्णतश्च महाकाल इति ८, 'असिपत्ते'त्ति असिः-खड्गस्तदाकारपत्रबद्वनं विकुळ यस्तत्समाश्रितान्।
नारकानसिपत्रपातनेन तिलशश्छिनत्ति सोऽसिपत्रः ९, 'धणु'त्ति यो धनुर्विमुक्तार्द्धचन्द्रादिवाणैः कर्णादीनां छेदन
भेदनादि करोति स धनुरिति १०, 'कुंभे'त्ति यः कुम्भादिषु तान् पचति स कुम्भः ११, 'बालु'त्ति यः कदम्बपुष्पा8|कारासु बजाकारासु वैक्रियवालुकासु तप्तासु चणकानिव तान् पचति स वालुका इति १२, 'वेयरणी इय'त्ति चैतर-18
णीति च परमाधार्मिकः, सच पूयरुधिरत्रपुताम्रादिभिरतितापात्कलकलायमान तां विरूपं तरणं प्रयोजनमस्या इति वैतरणीति यथार्थी नदी विकुळ तत्तारणेन कदर्थयति नारकानिति १३, 'खरस्सरे'त्ति यो वज्रकण्टकाकुलं शाल्मलीवृक्षं नारकमारोप्य खरखरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कषेति स खरखर इति १४, 'महाघोस'त्ति यो भीतान् पलायमानान्
नारकान् पशनिव वाटकेषु महाघोपं कुर्वन्निरुणद्धि स महाघोष इति १५, 'एवमेव (एमे) पन्नरसाहिय'त्ति 'एव'मित्यलम्बादिक्रमेणेते परमाधार्मिकाः पञ्चदशाख्याताः-कथिता जिनैरिति ॥२॥ 'धुवराहू ण' मित्यादि, द्विविधो राहुः भव
ति-पर्वरादुर्धवराहुथ, तत्र यः पर्वणि-पौर्णमास्याममावास्यायां वा चन्द्रादित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहुः, यस्तु |
चन्द्रस्य सदैव सन्निहितः सञ्चरति स ध्रुवराहुः, आह च-'किण्हं राहुविमाणं निचं चंदेण होइ अविरहिआचउरंगुलहै मप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरद ॥१॥" ति, ततोऽसौ ध्रुवराहुः 'ण'मित्सलकारे बहुलपक्षस्य प्रतीतस्य 'पाडिवयं ति|
प्रत अनुक्रम [३२-३७]
CI १ कृष्ण राहु विमानमधलानिय चन्त्रेण भवत्यविरहितम् । चतुरङ्गुलमप्राप्तमधसामन्द्रस तयरति ॥ १॥
परमाधार्मिकानाम् देवानाम् वर्णनं
~70~
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१५], ------------------------------------ मुलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१५]
श्रीसमवा- प्रतिपद-प्रथमतिथिमादौ कृत्वेति वाक्यशेषः पञ्चदशभाग पञ्चदशभागेनेति बीप्सायां द्विवचनादि यथा पदं पदेन गच्छ-
1१५ समयांगे तीत्यादिषु, प्रतिदिनं पञ्चदशभागं पञ्चदशभागमिति भावः, चन्द्रस्य प्रतीतस्य लेश्यामिति लेश्या-दीप्तिस्तत्कारणत्वात् वायाध्य. श्रीअभय मण्डलं लेश्या तामावृत्य-आच्छाद्य तिष्ठति, एतदेव दर्शयन्नाह-'तद्यथे'त्यादि 'पढमाइ' ति प्रथमायां तिध्यां वृत्तिः प्रथमं भागं पञ्चदशांशलक्षणं चन्द्रलेश्याया आवृत्य तिष्ठतीति प्रक्रमः, अनेन क्रमेण यावत् ‘पन्नरसेसु'त्ति पञ्चदशसु
कादिनेषु पञ्चदशं पञ्चदशभागमावृत्य तिष्ठति, 'तं चेव त्ति तमेव पञ्चदशभार्ग शुक्लपक्षस्य प्रतिपदादिषु चन्द्रलेश्याया|
उपदर्शयन २-पञ्चदशभागतः स्वयमपसरणतः प्रकटयन् प्रकटयन् तिष्ठति ध्रुवराहुरिति, इह चायं भावार्थ:-पोडशभागीकृतस्य चन्द्रस्य षोडशभागोऽवस्थित एवास्ते, ये चान्ये भागास्तान् राहुः प्रतिदिनमेकैकं भागं कृष्णपक्षे आवणोति शुक्लपक्षे तु विमुश्चतीति, उक्तं च ज्योतिष्करण्डके-'सोलसभागे काऊण उडुबई हायएत्थ पन्नरसं । तत्तियमेसे भागे पुणोषि परिवहुई जोण्हा ॥१॥ इति, ननु चन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वात् राहुविमा-14 नस्य च ग्रहविमानत्वेनार्द्धयोजनप्रमाणत्वात्कथं पञ्चदशर्दिनैश्चन्द्रविमानस्य महत्त्वेनेतरस्य च लघुत्वेन सर्वावरणं स्यात् इति, अत्रोच्यते, यदिदं प्रहविमानानामर्द्धयोजनमिति प्रमाणं तत्प्रायिकमिति राहोहस्य योजनप्रमाणमपि विमानं ही ॥३० सम्भाव्यते, लघीयसोऽपि वा राहुविमानस्य महता तमिस्ररश्मिजालेन तस्यावरणान्न दोष इति, तथा षड् नक्षत्राणि
प्रत
अनुक्रम [३२-३७]
१षोडश भागान करवोद्धपतिहीयतेऽत्र पबदश । वाचन्मात्रान् भागान् पुनरपि परिवर्धते ज्योत्सा ॥१॥
availaanasurary.orm
~71~
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१५], ------------------------- ----- मूल [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५]
पञ्चदश मुहूर्तान् यावचन्द्रेण सह संयोगो येषा तानि पञ्चदशमुहूर्तसंयोगानि, तद्यथा-सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छन्नक्षत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजुत्ता ॥१॥' संयुक्तं संयोग इति, तथा 'चेतासोएसु मासेसु'ति, स्थूलन्यायमाश्रित्य चैत्रेऽश्वयुजि च मासे पञ्चदशमुहूत्तों दिवसो भवति रात्रिश्च, निश्चयतस्तु मेषसहान्तिदिने तु-15 लासंक्रान्तिदिने चैवं दृश्यमिति । 'पओगे'ति प्रयोजनं प्रयोगः सपरिस्पन्द आत्मनः क्रियापरिणामो व्यापार इत्यर्थः, अथवा प्रकर्षेण युज्यते-संयुज्यते सम्बध्यतेऽनेन क्रियापरिणामेन कर्मणा सहात्मेति प्रयोगः, तत्र सत्यार्थालोचननिवन्धनं मनः सत्यमनस्तस्य प्रयोगो-व्यापारः सत्यमनःप्रयोगः, एवं शेषेष्वपि, नवरमौदारिकशरीरकायप्रयोग औ-12 दारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्धसमुदायरूपत्वेनोपचीयमानत्वात् कायस्तस्य प्रयोग इति विग्रहः, अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः, तथौदारिकमिश्रकायप्रयोगः अयं चापर्याप्तकस्खेति, इह चोत्पत्तिमाश्रित्यौदारिकस्य प्रारब्धस्य प्रधानत्वादीदारिकः कार्मणेन मिश्रः, यदा तु मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिया बादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकस्य प्रारम्भकत्वेन प्रधानत्वादीदारिको वैक्रियेण मिश्रो याबद्वैक्रियपर्यात्या न पर्याप्तिं गच्छति, एवमाहारकेणाप्यौदारिकस्य मिश्रताऽवसेयेति, तथा वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्य, तथा चैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगस्तदपर्यासकस्य देवस्य नारकस्य वा कार्मणेनैव लब्धिक्रियपरित्यागे वा औदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्तक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि मिश्रतेत्येके, तथा आहारकशरीरकायप्रयोगस्तदभिनिवृत्तौ सत्यां तस्यैव प्रधानत्वात् , सथा आ
प्रत अनुक्रम [३२-३७]
६साला
H
inrayog
~72~
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५]
प्रत
अनुक्रम [ ३२-३७]
समवाय [१५],
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१५]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीअमय ० वृतिः
॥ ३१ ॥
| हारकमिश्रशरीरकायप्रयोगः औदारिकेण सहाहारकपरित्यागेनेतरग्रहणायोद्यतस्य, एतदुक्तं भवति यदाहारकशरी|रीभूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावाद्यावत् सर्व|थैव न परित्यजत्याहारकं तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति, आह-न तसेन सर्वथा मुक्तं पूर्वनिर्वर्त्तितं तिष्ठत्येव तत्कथं गृहाति १, सत्यं, तथाप्यौदारिकशरीरोपादानार्थं प्रवृत्त इति गृहात्येव तथा कार्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्धातगतस्य च केवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भवतीति ॥ १५ ॥
सोलस य गाहासोलसगा पं० तं० समए वेयालिऐ उवसग्गपरिनों इत्थीपरिणों निरयविभैती महावीरथुई कुसीलपरिभासिएँ वीरि धम्मे' समही मग्गे” समोसरणे भाहातहिए गये जमईए गाहासोलसमे सोलसगे, सोलस कसाया पं० तं०-अणंताणुबंधी कोहे अनंताणुबंधी माणे अणंताणुबंधी माया अनंताणुबंधी लोने अपञ्चक्खाणकसाए कोहे अपचक्खाणकसाए माणे अपचक्खाणकसाए माया अपञ्चक्खाणकसाए लोगे पञ्चक्खाणावरणे कोहे पचक्खाणावरणे माणे पञ्चाक्खाणावरणा माया पचक्खागावरणे लोभे संजलणे कोहे संजलणे माणे संजलणे माया संजलणे लोभे, मंदरस्स णं पञ्चयस्स सोलस नामधेया पं० तं-मंदरमेरुमणोरमं सुदंसणं सर्वपैमे य गिरिराय । रयणुञ्चर्यं पियदंसण मज्झेलोगस्सेनामी य ॥१॥ अत्थे में सुरिश्रावत्ते सूरिभवरणेत्ति अ । उत्तरे अ दिसाई में, वर्डिसे इr सोलसमे ॥ २ ॥ पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स सोलस समणसाहस्सीओ उक्कोसिभा समण संपदा होत्या, आयप्पवायरस णं पुत्रस्स णं सोलस वत्थू १०, चमरवलीणं उवारियालेणे सोलस जोयणसहस्साइं आयामविक्संमेणं
For Park Lise Only
~73~
१६ समवायाध्य.
॥ ३१ ॥
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत सूत्रांक
[१६]
प्रत
अनुक्रम [३८-४१]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१६]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [१६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
Education h
प०, लक्षणे णं समुदे सोलस जोयणसहस्साइं उस्सेहपरिबुट्टीए प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढषीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं सोलस पलिओचमाई ठिई प०, पंचमाए पुढविए अत्थेगइयाणं देवाणं सोलस सागरोवमाठिती प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्येगइयाणं सोलस पलिओ माई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्येगइयाणं देवाणं सोलस पलिओ माई ठिई प०, महासुके कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं सोलस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा आवत्तं विभवत्तं नंदिआवत्तं महाणंदिआवत्तं अंकुसं अंकुसपलंब मदं सुभदं महामदं सवभोमदं भदुत्तरवहिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सोलस सागरोवमाइं ठिई प० ते णं देवा सोलसहिं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं सोलसवाससहस्सेहिं आहार समुप्पज्जर, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे सोठसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुबिस्संति परिनिब्वाइस्संति सब्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १६ ॥
अथ षोडशस्थानकमुच्यते सुगमं चेदं, नवरं गाथाषोडशकादीनि स्थितिसूत्रेभ्य आारात्सप्त सूत्राणि, तत्र सूत्रकृतागस्य प्रथमथुतस्कन्धे षोडशाध्ययनानि तेषां च गाथाभिधानं षोडशमिति गाथाभिधानमध्ययनं षोडशं येषां तानि गाथाषोडशकानि, तत्र 'समय'ति नास्तिकादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययनं समय एवोच्यते, वैतालीयच्छन्दोजातिबद्धं वैतालीयम्, एवं शेषाणां यथाभिधेयं नामामि, 'समोसरणे'ति समवसरणं त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां प्रवादिशतानां मतपिण्डनरूपं, 'अहातहिए' ति यथा वस्तु तथा प्रतिपाद्यते यत्र तद्यथातथिकं प्रस्थाभिधायकं ग्रन्थः, 'जम
For Pernal Use On
~74~
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१६], ------------------------------------ मुलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा
प्रत सूत्रांक [१६]]
यांगे श्रीअमय वृत्तिः
PACLOPEN
॥३२॥
प्रत
इए'त्ति यमकीयं यमकनिबद्धसूत्र 'गाहेति प्राक्तनपञ्चदशाध्ययनार्थव गानाद्गाथा गाथा वा तत्प्रतिष्ठाभूतत्वादिति, १७ सममेरुनामसूत्रे गाथा श्लोकश्च 'मज्झेलोगस्सनाभी यत्ति लोकमध्ये लोकनाभिश्चेत्यर्थः ।। 'उत्तरे यत्ति भरतादीनामुत्त-151वायाध्य. रदिग्वर्त्तित्वाद, यदाह-'सब्वेसिं उत्तरो मेरु'त्ति [सर्वेषामुत्तरो मेरुः] 'दिसाइय'त्ति दिशामादिदिंगादिरित्यर्थः 'बडिंसे इय'त्ति अवतंसः-शेखरः स इवावतंस इति, 'पुरिसादाणीय'त्ति पुरुषाणां मध्ये आदेयवेत्यर्थः, तथा आत्मप्रवादपूवस्थ सप्तमस्य, तथा चमरवल्योदक्षिणोत्तरयोरसुरकुमारराजयोः, 'उवारियालेणे'त्ति चमरचञ्चावलीचञ्चाभिधानराजधा-2 न्योर्मध्यभागे तद्भवनयोर्मध्योन्नताऽवतरत्पार्थपीठरूपे आवतारिकलयने पोडश योजनसहस्राण्यायामविष्कम्भाभ्यां वृत्तत्वात्तयोरिति, तथा लवणसमुद्रे मध्यमेषु दशसु सहस्रेषु नगरप्राकार इब जलमूर्ध्व गतं तस्य चोत्सेधवृद्धिः षोडश सहस्राणि अत उच्यते-लवणसमुद्रः षोडश योजनसहस्राण्युत्सेधपरिपक्ष्या प्रज्ञप्त इति, आव दीन्येकादश विमाननामानि ॥१६॥
सत्तरसविद्दे असंजमे प० त०-पुढविकायअसंजमे आउकायअसंजमे तेउकायअसंजमे चाउकायअसंजमे वणस्सइकायअसंजमे बेइंदिअअसंजमे तेइंदियअसंजमे चउरिदियअसंजमे पंचिंदिअअसंजमे अजीवकायअसंजमे पेद्दाअसंजमे उहाभसंजमे अवहहु असं- ॥३२॥ जमे अप्पमअणाअसंजमे मणअसजमे वइअसंजमे कायअसंजमे, सत्तरसविहे संजमे प० त०-पुढवीकायसंजमे आउकायसंजमे तेउकायसंजमे वाउकायसंजमे वणस्सइकायसंजमे इंदिअसंजमे तेइंदिअसंजमे चउरिदिअसं जमे पंचिंदिअसंजमे अजीवकायसंजमे
अनुक्रम [३८-४१]
~75
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१७], ------------------------------------ मुलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[१७]
पेहासंजमे उवेहासंजमे अवह(संजमे पमजणासजमे मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे, माणुसत्तरे णं पच्चए सत्तरसएकवीसे जोयणसए उड्डू उच्चत्तेणं प०, सव्वेसिपि णं वेलंधरअणुवेलंधरणागराईणं आवासपव्वया सत्तरसएकवीसाई जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, लवणे णं समुद्दे सत्तरस जोयणसहस्साई सचम्गेणं प०, इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ सातिरेगाई सत्तरस जोयणसहस्साई उड्डे उप्पतित्ता ततोपच्छा चारणाणं तिरिआ गती पवत्तति, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो तिगिछिकूडे उप्पायपवए सत्तरस एकवीसाई जोयणसवाई उई उच्चत्तेणं ५०, बलिस्स णं असुरिंदस्स रुअगिंदे उप्पायपव्वए सत्तरस एकवीसाई जोयणसयाई उड्डे उपत्तेणं प०, सत्तरसविहे मरणे प०-आवीईमरणे ओहिमरणे आयंतियमरणे वलायमरणे वसट्टमरणे अंतोसलमरणे तम्भवमरणे चालमरणे पंडितमरणे चालपंडितमरणे छउमत्थमरणे केवलिमरणे वेहाणसमरणे गिद्धपिट्ठमरणे भत्तपचक्खाणमरणे इंगिणिमरणे पाओवगमणमरणे, सुहुमसंपराए णं भगवं सुहुनसंपरायभावे वट्टमाणे सत्तरस कम्मपगडीओ णिबंधति तं०-आभिणियोहियणाणावरणे सुयणाणावरणे ओहिणाणावरणे मणपजवणाणावरणे केवलणाणावरणे चक्खुदंसणावरणे अचक्खुदसणावरणे मोहीदसणावरणे केवलदंसणावरणे सायावेयणिजं जसोकित्तिनाम उच्चागोयं दाणंतरायं लाभंतरायं भोगंतराय उवभोगतरायं वीरिअअंतराय, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यगइआणं नेरइयाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिई प०,पंचमीए पुढवीए अत्येगइयाण नेरइयाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई प०, छट्ठीए पुढवीए अत्येगइआणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइआणं सत्तरस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइआणं देवाणं सत्तरस पलिओवमाई ठिई प०, महासुक्के कप्पे देवाण उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई ५०, सहस्सारे कप्पे देवाणं जहण्णेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा सामाणं सुसामाणं
प्रत
अनुक्रम [४२]
Santaratm
ona
mararyorg
~76~
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
प्रत
अनुक्रम
[४२]
समवाय [१७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे श्रीअमय ० वृचि:
॥ ३३ ॥
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१७]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
महासामाणं पउमं महापउमं कुमुदं महाकुमुदं नलिणं महानलिणं पोंडरीअं महापोंडरीअं सुकं महासुकं सीहं सीहकंतं सीहवीअं भावि विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा सत्तरसहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं सत्तरसहिं वाससहस्सेहिं आहारडे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे सत्तरसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुश्चिस्संति परिनिब्वाइस्संति सब्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं १७ ॥ अथ सप्तदशस्थानकं, तथ व्यक्तं, नवरमिह स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाग् दश, तथा अजीवकायासंयमो - विकटसुवर्णबहु| मूल्यवस्त्रपात्रपुस्तकादिग्रहणं, प्रेक्षायामसंयमो यः स तथा स च स्थानोपकरणादीनामप्रत्युपेक्षणमविधिप्रत्युपेक्षणं वा, उपेक्षाऽसंयमोऽसंयमयोगेषु व्यापारणं संयम योगेष्वव्यापारणं वा, तथा अपहृत्यासंयमः अविधिनोचारादीनां परिष्ठापनतो यः स तथा अप्रमार्जनाऽसंयमः -पात्रादेरप्रमार्जनयाऽविधिप्रमार्जनया वेति मनोवाक्कायानामसंयमास्तेषामकुशलानामुदीरणानीति । असंयमविपरीतः संयमः । वेलन्धरानुवेलन्धरावासपर्वतस्वरूपं क्षेत्रसमासगाथाभिरखगन्तव्यं, एताश्चैताः - "देस जोयणसाहस्सा लवणसिहा चक्कवालओ रुंदा । सोलससहस्स उच्चा सहस्समेगं तु ओगाढा ॥ १ ॥ देसूणमद्धजोयण लवणसिहोवरि दगं तु कालदुगे । अतिरेगं २ परिवगृह हायए वावि ॥ २ ॥ अच्तरियं वेलं धरंति लवणोदहिस्स नागाणं । बायालीससहस्सा दुसत्तरि सहस्स बाहिरियं ॥ ३ ॥ सट्ठी नागसहस्सा घरंति अग्गे
१ दशयोजन सहस्राणि लवणशिक्षा चक्रवालतो विस्तीर्णा सहसोबा सहस्रमेकं लगाढा ॥१॥ देशोनार्थ योजनं लवमशिखोपरि दकं तु काद्विके अतिरे कमतिरेकं परिवर्धते हीयते वाऽपि ॥ २ ॥ अभ्यन्तरां वेलां धारयन्ति सरणोदनगानां द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि द्विसप्ततिः सहस्राणि बाह्यां ॥३॥ षष्टि नागसहस्राणि धारयति अत्रे दकं समुद्रख वेदन्धराणामावासाः रूपणे चलतसृषु दिक्षु चत्वारः ४
'असंयम'स्य सप्तदश भेदा:
For Penal Use On
~77 ~
१७ सप
वायाध्य.
॥ ३३ ॥
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-6] “स्थान” – अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१७]. ------------------------------------ मलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
FACHAR
सूत्राक
[१७]
दगं समुदस्स । वेलंधर आवासा लवणे य चउदिसिं चउरो ॥४॥ पुब्धदिसा अणुकमसो गोधुभ १ दगभास २ संख ३४ दगसीमा ४ । गोथुमे १ सिवए २ संखे ३ मणोसिले ४ नागरायाणो ॥५॥ अणुवेलंधरवासा लवणे विदिसासु संठिा चउरो । ककोडे १ विजुप्पभे २ केलास ३ ऽरुणप्पभे ४ चेव ॥६॥ ककोडय कद्दमए केलासऽरुप्पभेत्थ[नाग] रायाणो। वायालीससहस्से गंतुं उयहिंमि सव्वेवि ॥७॥ चत्तारि य जोयणसए तीसे कोसं च उग्गया भूमी । सत्तरस जोयण-18 सए इगवीसे ऊसिआ सब्बे ॥८॥"त्ति 'चारणाणं'ति जयाचारणानां विद्याचारणानां च 'तिरित्ति तिर्यग् रुचकादिद्वीपगमनायेति, तिगिन्छिकूट उत्पातपर्वतो यत्रागत्य मनुष्यक्षेत्राभिगमनायोत्पतति, स चेतोऽसङ्ख्याततमेऽरुणोदयसमुद्रे दक्षिणतो द्विचत्वारिंशतं योजनसहस्राण्यतिक्रम्य भवति, रुचकेन्द्रोत्पातपर्वतस्त्वरुणोदयसमुद्र एव उत्तर-13 तो एवमेव भवतीति, 'आवीईमरणे त्ति आ-समन्ताद्वीचय इव बीचयः-आयुर्दलिकविच्युतिलक्षणावस्था यस्मिंस्त-14 दावीचि अथवा बीचिः-विच्छेदस्तदभावादवीचि, दीर्घत्वं तु प्राकृतत्वात्तदेवंभूतं मरणमावीचिमरणं-प्रतिक्षणमायुर्द्रव्यविचटनलक्षणं, तथाऽवधिः-मर्यादा तेन मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिवन्धनतयाऽऽयुःकर्मद-15 लिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्व्यापेक्षया पुनस्तद्हणावधि
पूर्वदिगनुक्रमती गोस्यूमदकभासशसयकसीमानः । गोस्तूभशिवशकमनःशिला नागराजाः ॥ ४॥ अनुचेलम्धरावासा वणे विदिक्षु चत्वारः संस्थिताः । कर्कोटको विद्युत्प्रभः कैलासोऽरूणप्रभवैन ॥ ५ ॥ कटककर्दमककैलासोऽक्षणप्रभोन राजानः । वाचल्लारिंशत् सहस्राणि गत्वोदधौ सरें ॥६॥ चत्वारि योजनशतानि विशन कोश चोदता भूमिः । सप्तदशयोजनशतानि एकविंशाम्युच्छ्रिताः सर्वे ॥४॥
प्रत
अनुक्रम [४२]
N
iminary.om
~78~
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
प्रत
अनुक्रम
[४२]
[भाग-6] “स्थान” – अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
समवाय [१७],
मूलं [१७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीसमवा
यांग
श्रीअभय० वृत्तिः *
॥ ३४ ॥
यावज्जीवस्य मृतत्वादिति, तथा 'आयंतियमरणे'त्ति आत्यन्तिकमरणं यानि नारकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय मरिष्यतीति, एवं यन्मरणं तद्द्रव्यापेक्षया अत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति, 'बलाय मरणे'त्ति संयमयोगेभ्यो वलतां भग्नत्रतपरिणतीना प्रतिनां मरणं वलन्मरणं तथा वशेन-इन्द्रियविषयपारतच्येण ऋता बाधिता बशार्त्ताः स्त्रिग्धदीपकलिकावलोकनात् शलभवत् तथाऽन्तः - मध्ये मनसीत्यर्थः शल्यमिव शल्यमपराधपदं यस्य सोऽन्तः शल्यो – लज्जाभिमानादिभिरनालोचितातीचारस्तस्य मरणम् अन्तःशल्यमरणं, तथा यस्मिन् भवे - तिर्यगूमनुष्य भवलक्षणे वर्त्तते जन्तुस्तद्भव योग्यमेवायुर्वद्धा पुनः तत्क्षयेण त्रियमाणस्य यद्भवति तत्तद्भ वमरणं, एतच तिर्यगमनुष्याणामेव न देवनारकाणां तेषां तेष्वेवोत्पादाभावादिति, तथा बाला इव बाला:- अविर - तास्तेषां मरणं वालमरण, तथा पण्डिताः सर्वविरतास्तेषां मरणं पण्डितमरणम्, वालपण्डिताः देशविरतास्तेषां मरणं बालपण्डितमरणं, तथा छद्मस्थमरणम् - अकेवलिमरणं, केवलिमरणं तु प्रतीतं, 'बेहासमरणं'ति विहायसि -न्योमनि भवं वैहायसं विहायो भवत्वं च तस्य वृक्षशाखाद्युद्धद्धत्वे सति भावात्, तथा एः-पक्षिविशेषैरुपलक्षणत्वाच्छकुनि |काशिवादिभिश्व स्पृष्टं-स्पर्शनं यस्मिंस्तभ्रस्पृष्टम् अथवा गृभ्राणां भक्ष्यं पृष्ठमुपलक्षणत्वादुदरादि यत्र तत्रपृष्टम् इदं च करिकरभादिशरीर मध्यपातादिना गृभ्रादिभिरात्मानं भक्षयतो महासत्त्वस्य भवति, तथा भक्तस्य-भोजनस्य यावज्जीवं प्रत्याख्यानं यस्मिंस्तत्तथा इदं च त्रिविधाहारस्य चतुर्विधाद्वारस्य वा नियमरूपं सप्रतिकर्म च भक्तपरिज्ञेति
मरणस्य सप्तदश भेदा:
For Parts Only
~79~
१७ सम
बायाध्य.
॥ ३४ ॥
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१७], ----------------------------------- मूल [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[१७]
यद्तम्, तथा इग्यते प्रतिनियतदेश एव चेष्ट्यतेऽस्यामनशनक्रियायामितीङ्गिनी तया मरणमिङ्गिनीमरणम्, तद्धि चतुर्विधाहारप्रत्याख्यातुर्निप्रतिकर्मशरीरस्येङ्गितदेशाभ्यन्तरवर्त्तिन एवेति, तथा पादपस्येवोपगमनम्-अवस्थान यस्मिन् तत्पादपोपगमनं तदेव मरणमिति विग्रहः, इदं च यथा पादपः क्वचित् कथञ्चिद् निपतितः सममसममिति चाविभावयन्निश्चलमेवास्ते तथा यो वर्त्तते तस्य तद्भवतीति । तथा सूक्ष्मसम्परायः उपशमकः क्षपको वा सूक्ष्मलोभकपायकिट्टिकावेदको भगवान्-पूज्यत्वात् सूक्ष्मसम्परायभावे वर्तमानः-तत्रैव गुणस्थानकेऽवस्थितः नातीतानागतसूक्ष्मसम्परायपरिणाम इत्यर्थः सप्तदश कर्मप्रकृतीर्निवभाति विंशत्युत्तरे बन्धप्रकृतिशतेऽन्या न बनातीत्यर्थः, पूर्वतरगुणस्थानकेषु बन्धं प्रतीत्य तासां व्यवच्छिन्नत्वात्, तथोक्तानां सप्तदशानां मध्यादेका साताप्रकृतिरुपशान्तमोहादिषु बन्धमाश्रित्यानुयाति, शेषाः षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते, यदाह-"नाणं ५तराय १० दसगं दंसण चत्तारि १४ उच १५/ जसकित्ती १६ । एया सोलसपयडी सुहुमकसायमि वोच्छिन्ना ॥१॥" सूक्ष्मसम्परायात्परे न वान्तीत्यर्थः, सा-1 मानादीनि सप्तदश विमानानां नामानीति ॥ १७॥
अट्ठारसविहे बंभे पं० तं०-ओरालिए कामभोगे णेव सयं मणेणं सेवइ नोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ मणेणं सेवंतं पि अण्णं न समणुजाणाइ ओरालिए कामभोगे णेव सर्य वायाए सेवइ नोवि अण्णं वायाए सेवावेइ वायाए सेवंतंपि अण्णं न समणुजाणाइ ओरालिए कामभोगे णेव सयं कायेणे सेवइ णोवि यऽणं कारणं सेवावेइ कारणं सेवतंपि अण्णं न स मणुजाणाइ, दिवे
प्रत
अनुक्रम [४२]
REmiratinindia
मरणस्य सप्तदश भेदा:
~80~
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[°C]
प्रत
अनुक्रम [४३-४५]
समवाय [१८], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमerयांग श्रीअमय ० वृचि:
॥ ३५ ॥
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१८]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
*
Education intemational
कामभोगे णेव सेयं मणेणं सेवइ णोवि अण्णं मणेणं सेवावेइ मणेणं सेवतंपि अण्णं न समणुजाणाइ दिब्वे कामभोगे णेव सयं वायाए सेवर णोवि अण्णं वायाए सेवावेद वायाए सेवतंपि अण्णं न समणुजाणाइ दिव्वे कामभोगे णेव सयं कारणं सेवइ णोवि अण्णं कारणं सेवावेइ कारणं सेवंतंपि अण्णं न समणुजाणाइ, अरहतो णं अरिट्ठनेमिस्स अट्ठारस समणसाहस्सीओ उक्कोसिया समणसंपया होत्या, समणेण भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं सखुइयविभत्ताणं अट्ठारस ठाणा १० तं वयछकं ६ कायछकं १२, अकप्पो १३ गिहिभावणं १४ । पलियंक १५ निसिजा १६ य, सिणाणं १७ सोभव जणं १८ ॥ १ ॥ आयारस्स णं भगवतो सचूलिआगस्स अट्ठारस सहस्साई पयग्गेणं प०, बंभीए णं लिबीए अट्ठारसविहे लेखविद्दाणे प० सं०- भी जवणी लियोदोसा ऊरिओं खरोहिओ खरसाविआँ पहाराइँया उच्चत्तरि अकूखरपुट्टियां भोगवयतां वेणतियों णिण्हइयों अंकलिपि गणिअलिवी गंधव्यलिवी भूयलिवि आदंसलिंबी माहेसरीलिवी दामिलिवी बोलिदिलिवी, अत्थिनत्थिष्यवायस्स णं पुव्वस्स अट्ठारस वत्थू प०, धूमप्पमाए णं पुढवीए अट्ठारसुत्तरं जोयणसयसहस्सं बाइलेणं प०, पोसासाढेसु णं मासेसु सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ सइ उक्कोसेणं अट्ठारसमुडुत्ता राती भवइ, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगाणं अट्ठार पलिओ माई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्येगइआणं देवाणं अट्ठारस पलिभोवमाई ठिई प०, सहस्सारे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई प०, आणए कप्पे देवाणं अत्थेगइयाणं जणेणं अट्ठारस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा कालं सुकालं महाकालं अंजणं रिडं सालं सगाणं दुमं महादुमं विसालं सुसालं पउमं पउमगुम्मं कुमुदं कुमुदगुम्मं नलिणं नठिणगुम्मं पुंडरी पुंडरीयगुम्मं सहस्सारवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं अट्ठारस सागरोवमाई
For Park Use Only
~ 81~
१८ सम
वायाध्य.
॥ ३५ ॥
wor
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [१८], ---------------
...--------------------------- मूल [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१८]
99-256
पाते देवाण अटारसेहिं अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि ण देवाणं अटारसवाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पाइ, संतेगइआ भवसिद्धिया जे अद्वारसहिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुविस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ सूत्र १८॥
अथाष्टादशस्थानकम्, इह चाष्टौ सूत्राणि स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाक् सुगमानि च, नवरं 'बभेत्ति ब्रह्मचर्य ययौदारिककामभोगान्-मनुष्यतिर्यक्सम्बन्धिविषयान् तथा दिव्यकामभोगान्-देवसम्बन्धिन इत्यर्थः । तथा 'सखुड्डगवियताणं'ति सह क्षुद्रकैर्व्यक्तैश्च ये ते सक्षुद्रकव्यक्ताः तेषां, तत्र क्षुद्रका-वयसा श्रुतेन वाऽव्यक्ताः, व्यक्तास्तु ये वयाश्रुताभ्यां परिणताः, स्थानानि-परिहारसेवाश्रयवस्तूनि 'प्रतषटकं' महात्रतानि रात्रिभोजनविरतिश्च 'कायपदक' पृथिवीकायादि, अकल्पः-अकल्पनीयपिण्डशय्यावस्त्रपात्ररूपः पदार्थः, 'गृहिभाजन'स्थाल्यादिः पर्यको-मञ्चकादि निषद्यास्त्रिया सहासनं 'स्नानं शरीरक्षालनं 'शोभावर्जन' प्रतीतं। तथा 'आचारसं प्रथमाङ्गस्य सचूलिकाकस्य-चूडासमन्वि-18 तस्य, तस्य पिण्डैषणाद्याः पञ्च चूलाः द्वितीयश्रुतस्कन्धात्मिकाः स च नवब्रह्मचर्याभिधानाध्ययनात्मकप्रथमश्रुतस्कन्धरूपः, तस्यैव चेदं पदप्रमाणं न चूलानां, यदाह-"नेववंभचेरमइओ अट्ठारस पयसहस्सीओ वेओ । हवइ य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥१॥" ति, यच्च सचूलिकाकस्पेति विशेषणं तत्तस्य चूलिकासत्ताप्रतिपादनार्थ, न तु पदप्रमा
१ नवनामचर्गमयोऽष्टादशपदसाहतिको वेदः । भवति च सपञ्चचूलो बाहुबहुतरका पदामेण ॥१॥
प्रत अनुक्रम [४३-४५]]
k%250-250%%
HIRTUNaturary.org
~82
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१८], ------------------------------------ मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१९समवायाध्य.
प्रत
सूत्रांक
[१८]
प्रत अनुक्रम [४३-४५]]
श्रीसमवा- णाभिधानार्थ, यतोऽवाचि नन्दीटीकाकृता-'अट्ठारसपयसहस्साणि पुण पढमसुयखंधस्स नववंभचेरमइयस्स पमाणं,
यांगे विचित्तत्थाणि य सुत्ताणि गुरूवएसओ तेसिं अत्यो जाणियन्वोत्ति, पदसहस्राणीह यत्रार्थीपलब्धिस्तत्पदं, 'पदाणे'-18 श्रीअभयाति पदपरिमाणेनेति, तथा 'बंभि'त्ति ब्रामी-आदिदेवस्य भगवतो दुहिता ब्राझी वा-संस्कृतादिभेदा वाणी तामा-1
चिः श्रिय तेनैव या दर्शिता अक्षरलेखनप्रक्रिया सा ब्रामीलिपिः अतस्तस्या ब्राझ्या लिपेः 'ण' मित्यलङ्कारे लेखो-लेखनं । ॥३६॥ तस्या विधान-भेदो लेखविधानं प्रज्ञप्त, तद्यथा-वभीत्यादि, एतत्खरूपं न दृष्टमिति न दर्शितं। तथा यलोके यथा-15
Mस्ति यथा वा नास्ति अथवा स्थाद्वादाभिप्रायस्तत्तदेवास्ति नाति वेत्येवं प्रवदंतीत्यस्तिनास्तिप्रवादं, तच चतुर्थ पूर्व तस्य,
तथा धूमप्रभा पञ्चमी अष्टादशोत्तरं अष्टादशयोजनसह साधिकमित्यर्थः, 'बाहल्येन' पिण्डेन, 'पोसासाढे'त्यादेरेवं योजना-आषाढमासे 'सई' इति सकृदेकदा कर्कसङ्क्रान्तावित्यर्थः उत्कर्षेण-उत्कर्षतोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, पत्रिंशघटिका इत्यर्थः, तथा पौषमासे सकृदिति-मकरसान्तौ रात्रिश्चैवंविधेति, कालसुकालादीनि विंशतिर्विमानानि ॥१८॥ एगूणवीसं णायज्झयणा पं० तं०-उक्खित्तणाएं संघाडे, अंडे कुम्मे अ सेलएँ । तुंबे अ रोहिणी मल्ली, मागंदी चंदिमाति अ ॥१॥ दावईवे उदगाएं, मर्दुक्के तेत्तली इथ। नंदिफैले अवरकों, आईणे सुंसी इ ॥२॥ अवरे अपोण्डरीए, गोए एगूणवीसमे । जंबूद्दीवे णं दीवे सूरिआ उक्कोसेणं एगूणवीस जोयणसयाई उड़महो तवयंति, सुक्केणं महग्गहे अवरेणं उदिए समाणे एगूणवीस णक्खत्ताई समं चार चरित्ता अवरेणं अस्थमणं उवागच्छइ, जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स कलाओ एगूणवीसं छेअणाओ प०, एगूणवीस
V
~83~
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक [१९]
प्रत
अनुक्रम
[४६-४९]
समवाय [१९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
७ स०
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [१९]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Jan Educator
तित्थयरा अगारवा समझे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं अगाराओ अणगारिअं पव्वइआ, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्येगइआणं नेरहआणं गूणवीस पलिओ माई ठिई प०, छट्ठीए पुढवीए अत्येगइआणं नेरइयाणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवा अत्मआणं गुणवीसपलिओ माई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्येगइयाणं देवाणं एगूणवीसं पलिओ माई ठिई प०, आणयकप्पे अत्थे आणं देवाणं उक्कोसेणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई प०, पाणए कप्पे अत्येगइआणं देवाणं जहणणेणं एगूवीससागरोवमाई टिई प०, जे देवा आणतं पाणतं णतं विणतं घणं सुसिरं इंदं इंदोकंतं इंदुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसिणं देवानं उक्कोसेणं एगूणवीससागरोवमाई ठिई प०, तेणं देवा एगूणवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेति णं देवाणं एगूणवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइ आ भवसिद्धिया जीवा जे एगूणवीसाए भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुषिस्संति परिनिच्वाइस्संति सब्वदुक्खाणं अंतं करिस्सति ॥ सूत्रं १९ ॥
अथैकोनविंशतितमस्थानं, तत्र स्थितिसूत्रेभ्यः पञ्च सूत्राणि सुगमानि च, नवरं ज्ञातानि दृष्टान्तास्तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि पष्ठाङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धवर्त्तीनि, 'उक्खित्ते'त्यादि सार्द्धं रूपकद्वयम् इदं च षष्ठाङ्गाधिगमादवसेयमिति, तथा 'जंबुद्दीवे णं' इत्यादी भावना - सूर्यौ खस्थानादुपरि योजनशतं तपतोऽधश्वाष्टादश शतानि, तत्र च समभूतलेऽष्टौ भवन्ति, दश चापरविदेहे जगतीप्रत्यासन्नदेशे, जम्बूद्वीपापरविदेहे हि निम्नीभवत् क्षेत्रमन्तिमे विजयद्वारस्य | देशे अधोलोक देशमधिगतमिति, द्वीपान्तरसूर्यास्तु र्द्ध शतमधोऽष्टशतानि क्षेत्रस्य समत्वादिति, तथा शुक्रसूत्रे 'नक्ख
For Penal Use Only
~84~
nary org
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१९], ------------------------- ----- मूल [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
श्रीसमवा- ताईति विभक्तिपरिणामानक्षत्रैः समं सह चार-चरणं चरित्वा-विधायेति, तथा 'कलाओ'त्ति 'पंचसए छब्बीसे ।
१९ सम. यांगे दछच्च कला वित्थडं भरहवास'मित्यादिषु जम्बूद्वीपगणितेषु याः कला उच्यन्ते ता योजनस्सैकोनविंशतिभागच्छेदनाः, वायाध्य. श्राअभया एकोनविंशतिभागरूपा इति भावः, 'अगारमझे वसित्त'त्ति अगारंगोहं अधिक-आधिक्येन चिरकालं राज्यपरिपा-|| वृत्तिः
लनतः आ-मर्यादया नीत्या बसित्वा-उपित्वा तत्र वासं विधायेति, अध्येष्टया प्रत्रजिताः, शेषास्तु पञ्च कुमार॥३७॥ भाव एवेत्साह च-“वीरं अरिहनेमिं पास मलिं च वासुपुजं च । एए मोत्तूण जिणे अवसेसा आसि रायाणो॥१॥"ति॥
वीसं असमाहिठाणा पं० २०-दवदवचार यावि भवइ अपमनियचारि आवि भवई दुप्पमनियचारि आवि भवइ अतिरितसजासणिऐं रातिणिअपरिभासी थेरोवघाइए भूओवघाइएं संजलणे कोहणे पिटिमंसिएं अभिक्खणं २ ओहारइत्ता भवई णवाणं
अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उपाएत्ता भवेई पोराणाणं अधिकरणाणं खामिअविउसविआणं पुणोदीरत्ता भवइ ससरक्खपाणिपाएँ अकालसजायकारए यावि भई कलहकरे सहकरें झंझकरें सरप्पमाणभोई एसणाऽसमिते आवि भवइ, मुणिसुव्वए गं अरहा वीसं धणूई उड्डे उच्चतेणं होत्था, सव्वेविअ णं घणोदही वीस जोयणसहस्साई बाहल्लेणं प०, पाणयस्स णं दविदस्स देवरणो वीसं सामाणिअसाहस्सीओप०, णपुंसयवेयणिअस्स णं कम्मस्स वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ बंधओ बंधठिई प०, पचक्खाणस्सण पुवस्स वीस वत्थू, उस्सप्पिणिओसप्पिणिमंडले वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यंगइयाण नेरइयाण पीस पलिओवमाई ठिई प०, छठ्ठीप पुढवीए अत्यंगइयाण नेरयाणं वीर्स सागरोवमाई ठिई प०,
प्रत
अनुक्रम [४६-४९]
॥३७
SARERainintamanna
~85
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२०], ------------------------------------ मुलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं वीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्यंगइयाणं देवाणं वीसं पलिओवमाई ठिई प०, पाणते कप्पे देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाई ठिई प०, आरणे कप्पे देवाणं जहरणेण वीस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा सायं विसायं सुविसायं सिद्धत्थं उप्पलं भित्तिलं तिगिच्छं दिसासोवत्थियं पलंब रुलं पुप्फ सुपुप्फ पुप्फावत्तं पुष्फपमं पुष्फकंतं पुप्फवण्णं पुप्फलेसं पुप्फज्झयं पुष्फर्सिगं पुष्फसिद्धं पुप्फुत्तरवर्डिसगं विमाणं देवत्ताए उचवण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाइं ठिई प०, ते णं देवा वीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसिणं देवाणं वीसाए वाससहस्सेहिं आहारढे समुष्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिआ जीवा जे वीसाए भवम्गहणेहिं सिन्झिस्संति बुझिस्संति मुचिस्संति परिणिव्वाइस्संति सब्बदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २०॥
अथ विंशतितमस्थाने किञ्चिलिख्यते, तत्र स्थितिसूत्रेभ्योऽर्वाक् सप्त सूत्राणि, तत्र समाधानं समाधिः-चेतसः खास्थ्य मोक्षमार्गेऽवस्थानमित्यर्थः न समाधिरसमाधिस्तस्याः स्थानानि-आश्रयभेदाः पर्याया वा असामाधिस्थानानि,
तत्र 'दवदवचारित्तियो हि द्रुतं द्रुतं चरति-गच्छति सोऽनुकरणशब्दतो दवदवचारीत्युच्यते, चापीत्युत्तरासमाधिस्थादिनापेक्षया समुथयार्थः, भवतीति प्रसिद्धं, स च द्रुतं द्रुतं संयमात्मनिरपेक्षो ब्रजन्नात्मानं प्रपतनादिभिरसमाधौ
योजयति अन्यांश्च सत्त्वान् भन्नसमाधौ योजयति, सत्त्ववधजनितेन च कर्मणा परलोकेऽप्यात्मानमसमाधौ योजयति, अतो द्रुतगन्तृत्वमसमाधिकारणत्वादसमाधिस्थानम् , एवमन्यत्रापि यथायोगमवसेयं १, तथा अप्रमार्जि
प्रत
अनुक्रम [५०]
SAMEmirathinRI
| असमाधे: विंशति स्थानानि
~86~
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२०], ------------------------------------ मुलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
श्रीसमवा- तचारी २ दुष्प्रमार्जितचारी च ३ स्थाननिपीदनत्वग्वर्तनादिष्वात्मादिविराधनां लभते, तथाऽतिरिक्ता-अतिप्र-II २०सम
यांगे |माणा शय्या-वसतिरासनानि च-पीठकादीनि यस्य सन्ति सोऽतिरिक्तशय्यासनिकः, स च अतिरिक्तायां शय्यायां | वायाध्य. श्रीअभय० घयशालादिरूपायामन्येऽपि कार्पटिकादय आवसन्ति इति तैः सहाधिकरणसम्भवादात्मपरावसमाधौ योजयतीति,
वृत्तिः एवमासनाधिस्येनापि वाच्यमिति ४, तथा 'राविकपरीभाषी' आचार्यादिपूज्यपुरुषपराभवकारी, स चात्मानम॥३८॥
न्यांचासमाधौ योजयत्येव ५, तथा स्थविरा-आचार्यादिगुरवः तानाचारदोषेण शीलदोषेण च ज्ञानादिभिर्वोपहन्ती-1 | येवंशीलः स एव चेति स्थविरोपघातिकः ६, तथा भूतानि-एकेन्द्रियास्ताननर्थत उपहन्तीति भूतोपघातिकः ७, तथा सवलतीति सज्ज्वलनः-प्रतिक्षणरोषणः ८, तथा क्रोधनः-सकृत् क्रुद्धोऽत्यन्तकुद्धो भवति ९, तथा पृष्ठिमांसाशिका-पराइमुखस्य परस्थावर्णवादकारी १०, 'अभिक्खणं अभिक्खणं ओहारयित्त'त्ति अभीक्ष्णमभीक्ष्णमवधारयिता-शक्षितस्याप्यर्थस्य निःशक्षितस्यैवमेवायमित्येवं वक्ता, अथवाऽवहारयिता-परगुणानामपहारकारी, यथा अदासा-12 दिकमपि परं भणति-दासस्त्वं चौरस्त्वमित्यादि ११, तथाऽधिकरणानां-कलहानां यत्रादीनां वोत्पादयिता १२, पोराणाण'ति पुरातनानां कलहानां क्षमितव्यवशमितानां-मर्पितत्वेनोपशान्तानां पुनरुदीरयिता भवति १३, तथा|
॥३८॥ M'सरजस्कपाणिपादों' यः सचेतनादिरजोगुण्डितेन हस्तेन दीयमानां भिक्षां गृह्णाति, तथा योऽस्थण्डिलादेः
स्थण्डिलादौ सकामन्न पादौ प्रमार्टि अथवा यस्तथाविधे कारणे (ऽसति) सचित्तादिप्रथिव्यां कल्पादिनाऽनन्त
%ARCॐॐ
[२०]
प्रत
CRECE5A5%25A5%
अनुक्रम [५०]
RACK
wintamarary.org
असमाधे: विंशति स्थानानि
~87~
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२०], ------------------------- ----- मूल [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
रितायामासनादि करोति स सरजस्कपाणिपाद इति १४, तथा अकालखाध्यायादिकारकः प्रतीतः १५, तथा ट्रा |'कलहकरः' कलहहेतुभूतकर्तव्यकारी १६, तथा 'शब्दकरः' रात्री महता शब्देनोलापखाध्यायादिकारको गृहस्थ-है Pभाषाभाषको वा १७, तथा 'झम्झाकरो' येन येन गणस्य भेदो भवति तत्तत्करो, येन वा गणस्य मनोदुःखं समुत्प-12
द्यते तदापी १८, तथा 'सूरप्रमाणभोजी' सूर्योदयादस्तमयं यावदशनपानाद्यभ्यवहारी १९, एषणाअसमितश्चापि भवति-अनेषणां न परिहरति, प्रेरितश्चासौ साधुभिः कलहायते, तथाऽनेषणीयमपरिहरन् जीवोपरोधे वर्तते, एवं चात्मपरयोरसमाधिकरणादसमाधिस्थानमिदं विंशतितममिति २०॥ तथा घनोदधयः-सप्तपृथिवीप्रतिष्ठानभूताः, सामानिकाः-इन्द्रसमानर्द्धयः साहस्यः-सहस्राणि, बन्धतो-बन्धसमयादारभ्य बन्धस्थितिः स्थितिवन्ध इत्यर्थः, प्रत्याख्याननामकं पूर्व नवम, सातादीनि चैकविंशतिर्विमाननामानीति ॥२०॥
एकवीस सबला पण्णता, तंजहा-हत्यकम्मं करेमाणे सर्बले मेहुणं पडिसेवमाणे सेंबले राइमोषणं भुंजमाणे सर्वले आहाकम्म भुंजमाणे संघले सागारियं पिंडं मुंजमाणे सर्वले उद्देसियं कीयं आइडे दिजमाणं भुंजमाणे सर्वले अभिक्खणं पडियाइक्खेत्ताणं भुंजमाणे सबैले अंतो छण्हं मासाणं गणाओ गणं संकममाणे सर्वले अंतो मासस्स तो दगलेवे करेमाणे सबैले अंतो मासस्स तओ माईठाणे सेवमाणे संबले रायपिंडं भुंजमाणे संपले आउट्टियाए पाणाइवायं करेमाणे संबैले आउट्टिाए मुसावायं वदमाणे संबले आउहिआए अदिण्णादाणं गिण्हमाणे संबैले आउट्टिआए अणंतरहिआए पुढवीए ठाणं वा निसीहियं वा
प्रत
A5%25A
अनुक्रम [५०]
5
%
REscam
murary.com
| असमाधे: विंशति स्थानानि
~88~
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२१], ------------------------- ----- मूल [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय० वृत्तिः
|२१ समवायाध्य.
प्रत
सूत्राक
[२१]
॥३९॥
प्रत
चेतेमाणे सबैले एवं आउट्टिा चित्तमंताए पुढवीए एवं आउट्टिा चित्तमंताए सिलाए कोलावासंसि वा दारुए अणं वा सिज वा निसीहियं वा चेतेमाणे सर्पले जीवपइदिए सपाणे सबीए सहरिए सउत्तिने पणगदगमट्टीमकडासंताणए तहप्पगारे ठाणं वा सिज वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबैले आउद्दिआए मूलभोअणं वा कंदमोअणं वा तयाभोयणं वा पवालभोयणं वा पुप्फभोयषं वा फलभोयणं हरियभोयणं वा भुजमाणे सर्पले अंतो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे संपले अंतो संबच्छरस्स दस माइठाणाइ सेवमाणे सर्वले अभिक्खणं २ सीतोदयवियडवग्धारियपाणिणा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा पडिगाहित्ता भुंजमाणे संघले । पिकद्विवादरस्स ण खवितसत्तयस्स मोहणिजस्स कम्मरस एकवीस कम्मंसा संतकम्मा प० त०-अपचक्खाणकसाए कोहे अपचक्खाणकसाए माणे अपचक्खाणकसाए माया अपञ्चक्खाणकसाए लोमे पञ्चक्खाणावरणकसाए कोहे पचक्वाणावरणकसाए माणे पच्चक्याणावरणकसाए माया पथक्खाणावरणकसाए लोभे इत्थिवेदे पुंवेदे णपुंवेदे हासे अरति रति भय सोग दुगुंछा । एकमेक्काए णं बोसप्पिणीए पंचमछट्ठाओ समाओ एकवीस एकवीस वाससहस्साई कालेणं प००-दूसमा दूसमसमा, एगमेगाए ण उस्सप्पिणीए पढमवितिआओ समाओ एकवीस एकवीसं वाससहस्साई कालेषं प० तं-दूसमदूसमाए दसमाए य, इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए अत्गइयाणं नेरझ्याणं एकवीसपलिओवमाई ठिई ५०, मट्ठीए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं एकवीस सांगरोधमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाण एगवीसपलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं एकवीसं पलिओवमाई ठिई ५०, आरणे कप्पे देवाणं उक्कोसेणं एकवीसं सागरोवमाइं ठिई प०, अबते कप्पे देवाणं जहणेणं एकवीस सागरोवमाई ठिई प०,जे देवा सिविच्छं सिरिदामकडं मलं कि चावोणतं अरण्णवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उवषण्णा तेसि णं देवाणं
अनुक्रम
[५१]
४
॥३९॥
~89~
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत सूत्रांक
[२१]
प्रत
अनुक्रम
[५१]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [२१]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [२१], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
एकवीसं सागरोवमाई ठिई प०, ते गं देवा एक्कवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, सेसि णं देवा एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ, संतेगइया भवसिद्धिआ जीवा जे एकवीसाए भवग्गद्दणेहिं सिज्मिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २१ ॥
अथैकविंशतितमस्थानकं, तत्र चत्वारि सूत्राणि स्थितिसूत्रैर्चिना सुगमानि, नवरं शवलं- कर्बुरं चारित्रं यैः क्रियाविशेषैर्भवति ते शबलास्तद्योगात्साधवोऽपि ते एवं तत्र हस्तकर्म-वेदविकारविशेषं कुर्वनुपलक्षणत्वात्कारयन् वा शबलो भवत्येकः १ एवं मैथुनं प्रतिसेवमानोऽतिक्रमादिभिस्त्रिभिः प्रकारैः २ तथा रात्रिभोजनं दिवागृहीतं दिवाभुक्तमित्यादिभिश्चतुर्भिर्भङ्गकैरतिक्रमादिभिश्च भुञ्जनः ३ तथा आधाकर्म ४ सागारिकः - स्थानदाता तत्पिण्डं ५ औद्देशिक क्रीतमाहत्य दीयमानं (च) भुञ्जनः उपलक्षणत्वात्पामिचाच्छेद्यानिसृष्टग्रहणमपीह द्रष्टव्यमिति ६, यावत्करणोपात्तपदान्येवमर्थतोऽवगन्तव्यानि, अभीक्ष्णं २ प्रत्याख्यायाशनादि भुञ्जानः ७ अन्तः षण्णां मासानामेकतो गणाद्गणमन्यं सङ्क्रामन् ८ अन्तर्भासस्य त्रीनुदकलेपान् कुर्वन्, उदकलेपश्च नाभिप्रमाणजलावगाहनमिति, ९, अन्तर्मासस्य त्रीणि मायास्थानानि, स्थानमिति - मेदः १०, राजपिण्डं भुञ्जनः ११, आकुट्टया प्राणातिपातं कुर्वन्, उपेत्य पृथिव्यादिकं हिंसन्नित्यर्थः १२, आकुट्टया मृषावादं वदन् १३, अदत्तादानं गृह्णन् १४, आकुटुमैवानन्तर्हितायां पृथिव्यां स्थानं वा नैषेधिकं वा चेतयन् कायोत्सर्गे खाध्यायभूमिं वा कुर्वन्नित्यर्थः १५ एवमाकुट्टधा
शबल्स्य एकविंशति भेदायाः व्याख्या:
For Parts Only
~90~
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२१], -------------------------------- मूल [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा-
प्रत
यांग श्रीअभय
सुत्रांक
वृत्तिः
[२१]
॥४०॥
सस्निग्धसरजस्कायां पृथिव्यां सचित्तवत्या शिलायां लेष्टी वा कोलावासे दारुणि, कोला-घुणाः तेषामावासः १६ २२ समअन्यसिंच तयाप्रकारे सप्राणे सवीजादौ स्थानादि कुर्वन् १७ आकुट्टया मूलकन्दादि भुञ्जानः १८ अन्तः संवत्सरस्य वायाध्य. दशोदकलेपान् कुर्वन् १९ तथाऽन्तः संवत्सरस्य दश मायास्थानानि च २० तथा अभीक्ष्णं-पौनःपुन्येन शीतोदकलक्षणं यद्विकट-जलं तेन व्यापारितो-व्यासो यः पाणिः-हस्तः स तथा तेनाशनं प्रगृह्म भुञ्जानः शवलः इत्येकविंशतितमः । २१॥ तथा निवृत्तिवादरस्य-अपूर्वकरणस्याष्टमगुणस्थानवर्त्तिन इत्यर्थः, णं वाक्यालक्कारे, क्षीणं सप्तकम्-अनन्तानुव-10 बन्धिचतुष्टयदर्शनत्रयलक्षणं यस्य स तथा, तस्य मोहनीयस्य कर्मणः एकविंशतिः कर्माशा-अप्रत्याख्यानादिकपाय-14 द्वादशनोकपायनवकरूपा उत्तरप्रकृतयः सत्कर्म-सत्तावस्थं कर्म प्रज्ञसमिति, तथा श्रीवत्सं श्रीदामगण्डं माल्यं कृष्टिं चापोन्नतं आरणावतंसकं चेति षड् विमाननामानीति ॥ २१॥
बावीस परीसहा प० तं-दिगिंगछापरीसंहे पिवासापरीसँहे सीतपरीसहे उसिणपरीसह दसमसगपरीसैहे अचेलपरीसद्दे अरइपरीसहे इत्थीपरीसँहे चरिआपरीसेहे निसीहियापरीसँहे सिजापरीसहे अक्कोसपरीसहे वहपरीसहे जायणापरीसहे अलाम
॥४०॥ परीसहे रोगपरीसहे तणफासपरीसहे जलपरीसँहे सक्कारपुरकारपरीसहे पण्णापरीसहे अण्णापपरीसह दसणपरीसहे, दिद्विवायस्स पंचावीस सुत्ताई छिन्नछेयणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए बावीसं सुत्ताई अछिन्नछेयणइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए बावीस सुताई तिकणइयाई तेरासिअसुत्तपरिवाडीए पावीस सुत्ताई चउक्कणझ्याई समयसुत्तपरिवाढीए, बावीसविहे पोग्गलपरिणामे प० तं०-काल
प्रत
अनुक्रम
CAMERA
[५१]
AIRainrary.org
~91
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [२२], -------------
--------------------------- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[२२]
वष्णपरिणामे नीलवण्णपरिणामे लोहियवण्णपरिणामे हालिद्दवण्णपरिणामे सुकिलवण्णपरिणामे सुब्भिगंधपरिणामे दुन्मिगंधपरिणामे तित्तरसपरिणामे कडुयरसपरिणामे कसायरसपरिणामे अंबिलरसपरिणामे महुररसपरिणामे कक्खडफासपरिणामे मउयफासपरिणामे गुरुफासपरिणामे लहुफासपरिणामे सीतफासपरिणामे उसिणफासपरिणामे णिद्धफासपरिणामे लुक्खफासपरिणामे अगुरुलहुफासपरिणामे गुरुलहुफासपरिणामे, इमीसे णं स्यणप्पभाए पुडवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं बावीस पलिओवमाई ठिई १०, छडीए पुढवीए उक्कोसेणं यावीस सागरोवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुडवीए अत्यंगइयाण नेरइयाणं जहाणेणं बावीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं चावीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं बावीसं पलिओवमाई ठिई प०, अकुते कप्पे देवाणं बावीस सागरोवमाई ठिई ५०, हेहिमहेडिमगेवेअगाणं देवाणं जहण्णेणं बावीस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा महियं विसहियं विमलं पभासं वणमालं अचुतवडिंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाण उकोसेणं चावीस सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा गं बावीसाए अद्धमासएणं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं बावीस वाससहस्सेहिं आहारढे समुप्पअइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पावीसं भवग्गहणेहि सिझिसंति धुझिस्संति मुश्चिस्संति परिनिब्वाइस्संति सम्बदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्र २२॥
द्वाविंशतितमं तु स्थानं प्रसिद्धार्थमेव, नवरं सूत्राणि पद स्थितेराक, तत्र मार्गाच्यवननिर्जराथै परिषद्यन्ते इति परीषहाः, 'दिगिंछ'त्ति बुभुक्षा सैव परीषहो दिगिन्छापरीषह इति, सहनं चास्य मर्यादानुलानेन, एवमन्यत्रापि १, तथा पिपासा-तृट् २ शीतोष्णे प्रतीते ३-४ तथा दंशाश्च मशकाश्च दंशमशका उभयेऽप्येते चतुरिन्द्रिया महत्त्वा
प्रत
अनुक्रम [१२]
द्वाविंशति परिषहा: भेदा: एवं व्याख्या;
~92~
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय रिश. ------------------------------------ मुलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा-
यांगे श्रीअमय वृत्तिः
%
सुत्राक
%
[२२]
॥४१॥
प्रत
महत्वकृतश्चैषां विशेषोऽथवा दंशो-दंशनं भक्षणमित्यर्थः, तत्प्रधाना मशका दंशमशकाः, एते च यूकामत्कुणमत्को-||२२ समटकमक्षिकादीनामुपलक्षणमिति ५ तथा चेलानां-वस्त्राणां बहुधननवीनावदातसुप्रमाणानां सर्वेषां वाऽभावः अचे- वायाध्य. लत्वमित्यर्थः ६ अरतिः मानसो विकारः ७ स्त्री प्रतीता ८'चर्या' ग्रामादिष्यनियतविहारित्वं ९ 'नषेधिकी' सोपद्रवेतरा च खाध्यायभूमिः १० 'शय्या' मनोज्ञामनोज्ञवसतिः संस्तारको वा ११ 'आक्रोशो' दुर्वचनं १२ 'बधों यष्टयादिताडनं १३ 'याचना' भिक्षणं तथाविधे प्रयोजने मार्गणं वा १४ अलाभरोगी प्रतीतौ १६ तृणस्पर्शः संस्तारकाभावे तृणेषु शयानस्य १७ 'जल' शरीरवस्त्रादिमलः १८ सत्कारपुरस्कारौ च वखादिपूजनाभ्युत्थानादिसंपादनेन । सत्कारेण वा पुरस्करण-सन्माननं सत्कारपुरस्कारः १९ ज्ञान-सामान्येन मत्यादि क्वचिदज्ञानमिति श्रूयते २० दर्शनसम्यग्दर्शनं, सहनं चास्य क्रियादिवादिनां विचित्रमतश्रवणेऽपि निश्चलचित्ततया धारणं २१ प्रज्ञा' खयं विमर्शपूर्वको वस्तुपरिच्छेदो मतिज्ञानविशेषभूत इति २२। 'दृष्टिवादो' द्वादशाङ्गः, स च पञ्चधा-परिकर्म १ सूत्र २ पूर्वगत ३ प्रथमानुयोग ४ चूलिका ५ भेदात् , तत्र दृष्टिवादस्य द्वितीये प्रस्थाने द्वाविंशतिः सूत्राणि, तत्र सर्व द्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि, 'छिन्नच्छेयणइयाईति इह यो नयः सूत्रं छिन्नं छेदेनेच्छति स छिन्नछेदनयः यथा 'धम्मो मंगलमुक्ढ'मित्यादि
॥४१॥ श्लोकः सूत्रार्थतः छेदनयस्थितो न द्वितीयादिश्लोकानपेक्षते, इत्येवं यानि सूत्राणि छिन्नछेदनयवन्ति तानि छिन्नछेदनयिकानि, तानि च खसमया-जिनमताश्रिता या सूत्राणां परिपाटि:-पद्धतिस्तस्यां खसमयपरिपाट्यां भवन्ति तया|
अनुक्रम [२]
4%
82%252%
| द्वाविंशति परिषहा: भेदा: एवं व्याख्या;
~93~
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२२], -------------------------------- मूल [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[२२]
-%***64646499299*99964X
या भवन्तीति, तथा 'अछिन्नच्छेयणइयाई ति इह यो नयः सूत्रमच्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नछेदनयो यथा 'धम्मो मंगलमुक्कदमित्यादिश्लोकोऽर्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाण इत्येवं यान्यच्छिन्नच्छेदनयवन्ति तान्यछिन्नच्छेदनयिकानि तानि चाऽऽजीविकसूत्रपरिपाट्यां-गोशालकमतप्रतिबद्धसूत्रपद्धत्त्यां तया वा भवन्ति,अक्षररचनाविभागस्थितानप्यर्थतो|ऽन्योऽन्यं प्रेक्षमाणानि भवन्तीति भावना, तथा 'तिकणइयाईति नयत्रिकाभिप्रायाचिन्त्यन्ते यानि तानि नयत्रिकब-|| न्तीति त्रिकनयिकानीत्युच्यन्ते, त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्या इह त्रैराशिका गोशालकमतानुसारिणोऽभिधीयन्ते, यस्मात्ते सर्व || व्यात्मकमिच्छन्ति, तद्यथा-जीवोऽजीवो जीवाजीवश्चेति, तथा लोकोऽलोको लोकालोकश्चेत्यादि, नयचिन्तायामपि||: ते त्रिविधनयमिच्छन्ति, तद्यथा-द्रव्यास्तिकः पर्यायास्तिकः उभयास्तिकश्चेति, एतदेव नयत्रयमाश्रित्य त्रिकनयिकानीत्युक्तमिति, तथा 'चउक्कनइयाईति नयचतुष्काभिप्रायात्तैश्चिन्त्यन्ते यानि तानि चतुष्कनयिकानि, नयचतुष्कं चैवंनैगमनयो द्विविधः-सामान्यग्राही विशेषग्राही च, तत्र यः सामान्यग्राही स सबहेऽन्तर्भूतो विशेषग्राही तु व्यवहारे, तदेवं सङ्ग्रहव्यवहारऋजूसूत्राः शब्दादित्रयं चैक एवेति चत्वारो नया इति, 'खसमये' त्यादि तथैवेति, तथा पुद्गलानाम्-अण्वादीनां परिणामो-धर्मः पुद्गलपरिणामः, स च वर्णपञ्चकगन्धद्वयरसपञ्चस्पष्टिकभेदाविंशतिधा, तथा गुरुलघुरगुरुलघु इति भेदद्वयक्षेपाद् द्वाविंशतिः, तत्र गुरुलघु द्रव्यं यत्तिर्यग्गामि वाय्वादि अगुरुलधुर्यत् स्थिरं सिद्धिक्षेत्रं घण्टाकारव्यवस्थितज्योतिष्कविमानादीति, तथा महितादीनि षड् विमाननामानि ॥२२॥
प्रत
अनुक्रम [२]
SAREnatandana
MAudiorary au
~94~
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[२३]
प्रत
अनुक्रम
[ ५३ ]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [२३]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [२३], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे श्रीअभय०
वृत्ति:
॥ ४२ ॥
तेवीसं सुयगडज्झणा प० नं० - समर्थ वेतालिएं उवसग्गपरिणां थीपरिणों नरयविभत्ती महावीरथुंई कुसीलपरिभासिएँ विरिए घम्मे समही मग्गे समोसरणे आहतहिए गये जमईए गाथा पुंडरीएं' किरियाठाणी आहारपरिणी अपचक्खाणकिरिओं अणगारसुंयं अजं पालंदजं, जंबूदीवे णं दीवे भारहे वासे इभीसे णं ओसप्पिणीए तेवीसाए जिणाणं सूरुग्गमणमुत्तंसि केवलवरनाणदंसणे समुप्पण्णे, जंबुदीचे णं दीवे इमीसे णं ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थकरा पुब्वमवे एक्कारसंगिणी होत्या तं०- अजित संभव अभिनंदण सुमई जाव पासो वद्धमाणो य, उसमे णं अरहा कोसलिए चोदसपुब्बी होत्या, जंबुद्दीचे णं दीवे इमीसे ओसप्पिणीए तेवीसं तित्थंकरा पुव्यभवे मंडलिरायाणो होत्या तं०- अजित संभव अभिनंदण जाव पासो वद्धमाणो य, उसमे णं अरहा कोसलिए पुब्बभवे चक्कवट्टी होत्था, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं पलिभोवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए णं पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवा अत्थेगइयाणं तेवीसं पठिओवमाई ठिई प०, सोहम्नीसाणाणं देवाणं अत्येगइयाणं तेवीसं पलिओमाई ठिई प०, हिममज्झिमगेविजाणं देवाणं जणेणं तेवीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा हेट्ठिमगेवेजय विमाणेसु देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं तेवीस सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा तेवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाप्पमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं तेवीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पजइ, संतेगइआ भवसिद्धिया जीवा जे तेवीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्यदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २३ ॥
For Parts Only
~95~
२३ समवायाध्य.
॥ ४२ ॥
rary org
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[२३]
प्रत
अनुक्रम
[43]
समवाय [२३],
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
८ सम
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [२३]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
म
त्रयोविंशतिस्थानकं सुगममेव, नवरं चत्वारि सूत्राणि अर्वाक् स्थितिसूत्रेभ्यः, तत्र सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे श्रुतस्कन्धे षोडशाध्ययनानि द्वितीये सप्त तेषां चान्यर्थस्तदधिगमाधिगम्य इति ॥ २३ ॥
चउच्चीसं देवाहिदेवा प० तं०-उसभअजितसंभव अभिणं दण सुमइपउमप्पह सुपास चंदप्पहसुविधिसी अलसिस वा सुपुजविमल अणंतधस्मसंतिकुंथुअरमल्ली मुणिसुब्बयनमिनेमीपासवद्धमाणा, चुलहिमवंत सिहरीणं वासहरपब्वयाणं जीवाओ चउव्वीसं चउन्चीसं जोयणसहस्साई णवबत्तीसे जोयणसए एगं अट्ठत्तीसइभागं जोयणस्स किंचिविसेसाहिआओ आयामेण प०, चउवीसं देवठाणा सइंदया प०, सेसा अहर्मिंदा अनिंदा अपुरोहिया, उत्तरायणगते णं सूरिए चउवीसंगुलिए पोरिसीकायं णिव्वत्तइत्ता णं णिअट्टति, गंगासिंधूओ णं महाणदीओ पवाहे सातिरेगेणं चउवीसं कोसे वित्थारेण प०, रत्तारत्तत्रतीओ णं महानदीओ पवाहे सातिरेगे चउवीसं कोसे वित्थारेण पत्ता, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थे० चडवीसं पलिओवमाई० असत्तमाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं चउवीसं सागरोवभाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवागं अत्येगइयाणं चउवीस पलिओ माई ठिई प०, सोहम्मीसाणे णं देवा अत्येगइयाणंचवीसं पलिओ माई ठिई प०, हेट्टिमउवरिममेवे खाणं देवाणं जणे चउवीसं सागसेवमाई ठिई प०, जे देवा हे द्विममज्झिमगेवे जयविमाणेसु देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई ठिई प०, ते गं देवा चउवीसाए अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा, तेसि णं देवाणं चडवीसाए वाससहस्से हिं आहारट्ठे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे चवीसाए मवग्गहणेहिं सिज्मस्संति बुज्जिस्पति मुविस्संति परिनिब्वाइस्संति सच्चदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २४ ॥
For Parts Only
~96~
४
yor
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२४], ------------------------------------ मुलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
SERes
प्रत
%
[२४]
॥४३॥
प्रत
श्रीसमवा
चतुर्विंशतिस्थानके षट् सूत्राणि स्थितेः प्राक्, सुगमानि च, नवरं देवानाम्-इन्द्रादीनामधिका देवाः पूज्यत्वाद्देवा- २४ समयांगे घिदेवा इति, तथा 'जीवाओ'त्ति जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य वर्षाणां वर्षधराणां (च) ऋज्वी सीमा जीवोच्यते, आरोपि- चायाध्य. श्रीअमयतज्याधनुर्जीयाकल्पत्वात, तयोष लघुहिमवच्छिखरिसत्कयोः प्रमाणं २४९३२ अष्टत्रिंशद्भागश्च योजनस्य किञ्चिद्वि-13 वृचिः शेषाधिकः, अत्र गाथा-'चउवीस सहस्साई नव य सए जोयणाण बत्तीसे । चुलहिमवंतजीवा आयामेणं कलद्धं च । 13॥१॥"त्ति, कलार्द्धमिति-एकोनविंशतिभागस्था, तच्चाष्टत्रिंशद्भाग एव भवतीति, चतुर्विंशतिर्देवस्थानानि-देव
भेदाः,दश भवनपतीनां, अष्टौ व्यन्तराणां, पञ्च ज्योतिष्कानां, एकंकल्पोपपन्नवैमानिकानां, एवं चतुर्विंशतिः, सेन्द्रा-1 [णि चमरेन्द्राधधिष्ठितानि, शेषाणि च अवेयकानुत्तरसुरलक्षणानि अहं अहं इत्येवमिन्द्रा येषु तान्यहमिन्द्राणि, प्रत्याल्मेन्द्रकाणीत्यर्थः, अत एव अनिन्द्राणि-अविद्यमाननायकानि अपुरोहितानि-अविद्यमानशान्तिकर्मकारीणि, उपलक्षणपरत्वादस्थाविद्यमानसेवकजनानीति, तथोत्तरायणगतः-सर्वाभ्यन्तरमण्डलप्रविष्टः सूर्यःकर्कसङ्क्रान्तिदिन इत्यर्थः, चतुर्विशत्यङ्गुलिका पौरुष्या-प्रहरे भवा छाया पौरुषीया तां छायां हस्तप्रमाणशङ्कोरिति गम्यते, 'निर्वर्य' कृत्वा णं वाक्यालङ्कारे 'निवर्तते' सर्वाभ्यन्तरमण्डलात् द्वितीयमण्डलमागच्छति, आह च-'आसाढमासे दुपये'त्यादि, 'पवह' इति यतः स्थानान्नदी प्रवहति-बोढुं प्रवर्तते, स च पब्रहृदात्तोरणेन निर्गम इह सम्भाव्यते, न पुनर्योs न्यत्र प्रवहशब्देन मकरमुखप्रणालनिर्गमः प्रपात कुण्डनिर्गमो या विवक्षितः, तत्र हि जंबूद्वीपप्रज्ञत्यामिह च पञ्च
4-5
अनुक्रम [५४]
SARERatun international
| देवानाम् चर्विशति भेदाः
~97~
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [२४], ------------
---------------------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[२४]
RAKXESAKALSAE%
विंशतिक्रोशप्रमाणा गङ्गादिनद्यो विस्तारतोऽभिहिताः ॥ २४ ॥
पुरिमपच्छिमगाणं तित्थगराणं पंचजामस्स पणवीसं भावणाओ पण्णता, तंजहा-ईरिआसमिई मणगुत्ती वयगुत्ती आलोयभायणभोयणं आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई ५ अणुवीतिभासणया कोहविवेगे लोभविवेगे भयविवेगे हासविवेगे ५ उग्गहअणुण्णवणया उग्गहसीमजाणणया सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया साहम्भियउग्गहं अणुण्णविय परिभुंजणया साहारणभत्तपाणं अणुण्णविय पडिभुंजणया ५ इत्थीपसुपंडगसंससगसयणासणवजणया इत्थीकविवजणया इत्थीणं इंदियाणमालोयणवजणया पुवरयपुवकीलिआणं अणणुसरणया पणीताहारविवअणया ५ सोइंदियरागोवरई चक्खिदियरागोवरई पाणिदियरागोवरई जिभिदियरागोवरई फासिदियरागोवरई ५, माली णं अरहा पणवीस घणु उड्डे उचतेणं होत्या, सखेवि दीहवेयहुपव्यया पणवीसं जोयणाणि उखु उच्चत्तेण प० पणवीसं पणवीसं गाऊआणि उन्विद्रेणं प०, दोचाए णं पुढवीए पणवीसं णिरयावाससयसहस्सा प० [आयारस्स णं भगवओ सचूलिआयस्स पणवीसं अज्झयणा प० त०सत्थपरिणां लोगविजओ सीओसणी सम्मतं । ओवंति धुर्यविमोहँ उवहाँणसुयं महपरिणो ॥१॥ पिंडेसैण सिर्जिरिओ भासज्झयणा य वैत्व पाएसा । उग्गहपडिमाँ सत्तिकसत्या भावणे विमुंती ॥२॥ निसीहज्झयर्ण पणवीसइमं । मिच्छादिविविगलिंदिए णं अपञ्जत्तए णं संकिलिट्ठपरिणामे णामस्स कम्मस्स पणवीसं उत्तरपयडीओ णिबंधति-तिरियगतिनाम विगलिंदियजातिनाम ओरालिअसरीरणाम तेअगसरीरणामं कम्मणसरीरनाम हुंडगसंठाणनामं ओरालिअसरीरंगोवंगणाम छेवट्ठसंघयणनामं वपणनामं गंधणाम रसणाम फासणाम तिरिआणुपुचिनामं अगुरुलहुनामं उवघायनामं तसनामं बादरणाम अपजत्तयणाम
प्रत
AAROCKSECREXXX
अनुक्रम [१४]
awrajurasurary.com
~98~
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२५], -------------------------------- मूल [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय
वृत्तिः ॥४४॥
सूत्रांक
[२५]
प्रत अनुक्रम [५५-५९]
पत्तेयसरीरणाम अधिरणाम असुभणाम दुभगणामं अणादेजनामं अजसोकित्तिनाम निम्माणनामं २५, गंगासिंधूओ पं महाणदीओ
२५ सम
वायाध्य. पणवीसं गाऊयाणि पुहुत्तेणं दुहओ घडमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति, रत्तारत्तवईओ णं महाणदीओ पणवीसं गाऊयाणि पुहुत्तेणं मकरमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं पवातेण पडंति, लोगबिंदुसारस्स णं पुवस्स पणवीसं वत्यू प०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं पणवीसं पलिओवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्गइआणं नेरइयाणं पणवीसं सागरोक्माई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं पणवीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणे णं देवाणं अस्थेगइआणं पणवीस पलिओवमाई ठिई प०, मज्झिमहेट्ठिमगेवेाण देवाणं जहण्षणं पणवीसं सागरोक्माई ठिई प०, जे देवा हेट्ठिमउवरिममेवेअगविमाणेसु देवताए उववण्णा तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा पणवीसाए भद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीस्ससंति वा, तेसि णं देवाणं पणवीसं वाससहस्सेहिं आहारहे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे पणवीसाए भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुञ्चिस्संति परिनिवाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २५॥
पञ्चविंशतिस्थानकमपि सुबोध, नवरमिह स्थितेरवोग नव सूत्राणि, तत्र "पंचजामस्स"त्ति पञ्चानां यामानां-महा-IMIngen प्रतानां समाहारः पञ्चयामं तस्य भावणाओ'त्ति प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणमहाप्रतसंरक्षणाय भाव्यन्ते इति || भावनास्ताश्च प्रतिमहाव्रतं पञ्च पश्चेति, तत्रेर्यासमित्याद्याः पञ्च प्रथमस्य महाव्रतस्य, तत्रालोकभाजनभोजन-आलो.
SantaratanALI
पञ्चविंशति-भावनाया: वर्णनं
~99~
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२५], -------------------------------- मूल [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२५]
कनपूर्व भाजने-पात्रे भोजन-भक्तादेरभ्यवहरणम्, अनालोक्यभाजनभोजने हि प्राणिहिंसा सम्भवतीति, तथा अनुविचिन्त्यभाषणतादिका द्वितीयस्थ, तत्र विवेकः-परित्यागः, तथा अवग्रहानुज्ञापनादिकास्तृतीयस्थ, तत्रावग्रहानुज्ञापना १ तत्र चानुज्ञाते सीमापरिज्ञानं २ ज्ञातायां च सीमायां खयमेव 'उग्गहण' मिति अवग्रहखानुग्रहणता पश्चात्खीकरणमवस्थानमित्यर्थः ३, साधर्मिकाणां-गीतार्थसमुदायविहारिणां संविग्नानामवग्रहो मासादिकालमानतः पञ्चक्रोशादिक्षेत्ररूपः साधर्मिकावग्रहस्तं तानेवानुज्ञाप्य तस्यैव परिभोजनता-अवस्थानं साधर्मिकाणां क्षेत्रे वसती वाट तैरनुज्ञाते एव वस्तव्यमिति भावः ४, साधारणं-सामान्यं यद्भक्तादि तदनुज्ञाप्याचार्यादिकं तस्य परिभोजनं चेति ५, तथा ख्यादिसंसक्तशयनादिवर्जनादिकाश्चतुर्थस्य, प्रणीताहारः अतिस्नेहवानिति, तथा श्रोत्रेन्द्रियरागोपरत्यादिकाः पञ्चमख, अयमभिप्रायो-यो यत्र सजति तस्य तत्परिग्रह इति, ततश्च शब्दादौ रागं कुर्वता ते परिग्रहीता भवन्तीति परिग्रह|विरतिर्विराधिता भवति, अन्यथा त्याराधितेति, वाचनान्तरे आवश्यकानुसारेण दृश्यन्ते । तथा 'मिच्छदिट्ठी'त्यादि, मिथ्यादृष्टिरेव तिर्यग्गत्यादिकाः कर्मप्रकृतीनाति न सम्यग्दृष्टिः, तासां मिथ्यात्वप्रत्ययत्वादिति मिथ्याष्टिग्रहणं, विकलेन्द्रियो-द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामन्यतमः, णमित्यलङ्कारे, पर्याप्तोऽन्या अपि बनातीत्यपर्याप्तग्रहणं, अपर्याप्तक एव ह्येता अप्रशस्ताः परिवर्त्तमानिका बनाति, सोऽप्येताः सक्लिष्टपरिणामो वनातीति सक्लिष्टपरिणाम इत्युक्तम्, अयमपि द्वीन्द्रियाद्यपर्यासकमायोग्यं वनाति, तत्र 'विगलिंदियजाइनाम'ति कदाचित् द्वीन्द्रियजात्या सह पञ्चविंशतिः
प्रत अनुक्रम [५५-५९]
R
ainrary.org
| पञ्चविंशति-भावनाया: वर्णनं
~100~
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२५], ------------------------------------ मुलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[२५]
प्रत अनुक्रम [५५-५९]
श्रीसमवा- कदाचिद त्रीन्द्रियजात्या एवमितरथाऽपीति, 'गंगा' इत्यादि पञ्चविंशतिगव्यूतानि पृथुत्वेन यः प्रपातस्तेनेति शेषः, २५-२६
समवाया. यांग 'दुहओ'त्ति द्वयोर्दिशोः पूर्वतो मङ्गा अपरतः सिन्धुरित्यर्थः, पाहदाद्विनिर्गते पञ्च २ योजनशतानि पर्वतोपरि गत्वा | वृत्तिः ।
दक्षिणाभिमुखे प्रवृत्ते 'घडमुहपवित्तिएणं'ति घटमुखादिव पञ्चविंशतिकोशपृथुलजितिकात् मकरमुखप्रणालात् प्रवृ-18 तेन मुक्तावलीनां मुक्तासरीणां यो हारस्तत्संस्थितेन प्रपातेन-प्रपतज्जलसंतानेन योजनशतोच्छितस्य हिमवतोऽधोकतिनोः खकीययोः प्रपातकुण्डयोः प्रपततः, एवं रक्तारक्तवत्यौ, नवरं शिखरिवर्षधरोपरिप्रतिष्ठितपुण्डरीकहदात्रपतत इति, तथा लोकपिन्दुसारं-चतुर्दशपूर्वमिति ॥ २५ ॥
छब्बीसं दसकप्पववहाराणं उद्देसणकाला १० त०-दस दसाणं छ कप्पस्स दस ववहारस्स, अमवसिद्धियाणं जीवाणं मोहणिजस्स कम्मस्स छन्चीस कम्मंसा संतकम्मा प००-मिच्छत्तमोहणिज सोलस कसाया इत्थीवेदे पुरिसवेदे नपुंसकवेदे हासं अरति रति भयं सोग दुगुंछा, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्यगइयाण नेरइयाणं छब्बीस पलिओवमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्यगइयाणं नेरइयाणं छब्बीस सागरोबमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यगइयाण छव्वीस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणे णं देवाणं अत्येगइणाणं छब्बीस पलिओवमाई ठिई ५०, मज्झिममज्झिमगेवेजयाणं देवाणं ॥४५॥ जहण्णेणं छब्बीस सागरोवमाई ठिई ५०,जे देवा मज्झिमहेडिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं छब्बीस सागरोवमाई ठिई प० ते ण देवा छन्वीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उससंति वा नीससंति वा,
SAREaratinal
Inditurary.com
~101~
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[२६]
प्रत
अनुक्रम [६०]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [२६]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [२६], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
Education!
तेसि णं देवाणं छव्वीस वाससहस्सेहिं आहारट्ठे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे छब्बीसेदिं भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइस्संति सब्वदुक्खाणमंतं करिस्सति ॥ २६ ॥
पइविंशतिस्थानकं व्युक्तमेव, नवरं उद्देशनकाला यत्र श्रुतस्कन्धेऽध्ययने च यावन्त्यध्ययनान्युद्देशका वा तत्र तावन्त एव उद्देशनकाला - उद्देशावसराः श्रुतोपचाररूपा इति, तथा अभव्यानां त्रिपुञ्जीकरणाभावेन सम्यक्त्वमिश्ररूपं प्रकृतिद्वयं सत्तायां न भवतीति षडविंशतिसत्कर्माशा भवन्तीति ॥ २६ ॥
सत्तावीसं अणगारगुणा प० तं० पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावायाओ वेरमणं अदिन्नादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं परिग्गहाओ वेरमणं सोइंदियनिग्गछे चक्विंदियनिग्गहे घार्णिदियनिग्गहे जिम्मिदियनिग्गहे फार्सिदियनिग्गहे कोविवेगे. माणविवेगे मायाविवेगे लोभविवेगे भावसचे करणसच्चे जोगसचे खमा विरागया मणसमाहरणया वयसमाहरणया कायसमाहरणया णाणसंपण्णया दंसणसंपण्णया चरितसंपण्णया वेयणअहियासणया मारणंतिय अहियासणया, जंबुद्दीवे दीवे अभिश्वजेहिं सत्तावीसाए क्खत्तेहिं संववहारे वट्टति, एगमेगे णं णक्खत्तमासे सत्तावीसाहिं राइंदियाहिं राइंद्रियगेणं प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणपुढवी सत्तावीसं जोयणसयाई बाइलेणं प०, वेयगसम्मत्तबन्धोवरयस्स णं मोहणिजस्स कम्मस्स सत्तावीसं उत्तरपगडीओ संतक्रम्मंसा प०, सावणसुद्धसत्तमीसु णं सूरिए सत्तावीसंगुलिये पोरिसिच्छायं णिव्वत्तइत्ता णं दिवसखेत्तं नियट्टेमाणे रयणिखेत्तं अभिविट्टमाणे चारं चरइ, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं पलिओ माई ठिई प०, अड़े
For Parts Only
~102~
Dry org
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२७], ------------------------------------ मुलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
२७ समबाया.
प्रत
यमि
सूत्राक
इचिः
[२७]
श्रीसमवा
सत्तमाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरइयाणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यंगइयाणं सत्तावीस पलि
ओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु अत्थेगइयाणं देवाणं सत्तावीसं पलिओवमाई ठिई ५०, मज्झिमउवरिमगेवेज्जयाणं देश्रीअभय
वाणं जहण्णेणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई प०,जे देवा मज्झिमगेवेन्जयविमाणेस देवत्ताए उववण्णा तेसिणं देवाणं उक्कोसणं सत्तावीसं सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा सत्तावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसिण
देवाणं सत्तावीस वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे सत्तावीसाए भवग्गहणेहिं सिनिस्संति ॥४६॥ बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २७॥
सप्तविंशतिस्थानमपि व्यक्तमेव, केवलं षट् सूत्राणि स्थितेराक्, तत्र अनगाराणां-साधूनां गुणाः-चारित्रविशेषरूपाः अनगारगुणाः, तत्र महाव्रतानि पञ्चेन्द्रियनिग्रहाश्च पञ्च क्रोधादिविवेकाश्चत्वारः सत्यानि त्रीणि, तत्र भावसत्य-शुद्धान्तरात्मता करणसत्सं-यत्प्रतिलेखनाक्रियां यथोक्तां सम्यगृपयुक्तः कुरुते योगसत्सं-योगाना-मनःप्रभृती-1
नामवितथत्यं १७ क्षमा-अनभिव्यक्तक्रोधमानखरूपस्य द्वेषसज्ञितस्याप्रीतिमात्रस्थाभावः, अथवा क्रोधमानयो-18 है रुदयनिरोधः,क्रोधमानविवेकशब्दाभ्यां तदुदयप्राप्सयोस्तयोनिरोधः प्रागेवाभिहित इति न पुनरुक्तताऽपीति १८ विरा-
गताअभिष्वङ्गमात्रसाभावः, अथवा मायालोभयोरनुदयो, मायालोभविवेकशब्दाभ्यां तूदयप्राप्तयोस्तयोनिरोधः प्राग-2 भिहित इतीहापि न पुनरुक्ततेति १९, मनोवाकायानां समाहरणता, पाठान्तरतः समन्याहरणता-अकुशलानां नि
प्रत
अनुक्रम
[६१]
॥४६॥
For P
OW
अनागाराणाम् सप्तविंशति गुणानाम् वर्णनं
~103~
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२७], ------------------------------------ मुलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[२७]
रोधास्त्रयः २२ ज्ञानादिसम्पन्नतास्तिस्रः २५ वेदनातिसहनता-शीतायतिसहनं २६ मारणान्तिकातिसहनताकल्याणमित्रबुज्या मारणान्तिकोपसर्गसहनमिति २७, तथा जम्बूद्वीपे न धातकीखण्डादौ अभिजिद्वजैः सप्तविंशत्या नक्षत्रैर्व्यवहारः प्रवर्त्तते, अभिजिन्नक्षत्रस्योत्तराषाढचतुर्थपादानुप्रवेशनादिति, तथा मासो नक्षत्रचन्द्राभिवर्द्धित-15 ऋत्वादित्यमासभेदात्पञ्चविधोऽन्यत्रोक्तः, तत्र नक्षत्रमासः-चन्द्रस्य नक्षत्रमण्डलभोगकाललक्षणः सप्तविंशतिः रात्रि-14 [न्दिवानि-अहोरात्राणि रात्रिन्दिवाणेति-अहोरात्रपरिमाणापेक्षयेदं परिमाणं नतु सर्वथा, तस्याधिकत्वाद्
आधिक्यं चाहोरात्रससषष्टिभागानामेकविंशत्येति, "विमाणपुढवी"त्ति विमानानां पृथिवी-भूमिका, तथा वेदक-ए दिसम्यक्त्ववन्धः-शायोपशमिकसम्यक्त्वहेतुभूतशुद्धदलिकपुञ्जरूपा दर्शनमोहनीयप्रकृतिस्तस्य 'उबरओ'त्ति प्राकृत
त्वादुद्वलको-वियोजको जन्तुः तस्य मोहनीयकर्मणोऽष्टाविंशतिविधस्य मध्ये सप्तविंशतिरुत्तरप्रकृतयः सत्कर्माशाः
सत्तायामित्यर्थः, एकस्योदलितत्वादिति, तया श्रावणमासस्य शुद्धसप्तम्यां सूर्यः सप्तविंशत्यङ्गुलिका हस्तप्रमाणशको४/रिति गम्यते पौरुषी छायां निर्वर्त्य दिवसक्षेत्रं-रविकरप्रकाशमाकाशं निवर्द्धयन्-प्रकाशहान्या हानि नयन् रजनी
क्षेत्रम्-अन्धकाराक्रान्तमाकाशमभिवर्धयन्-प्रकाशहान्या वृद्धिं नयन् चारं चरति-प्योममण्डले भ्रमणं करोति, अय
मत्र भावार्थः-इह किल स्थूलन्यायमाश्रित्य आषायां चतुर्विशत्यङ्गुलप्रमाणा पौरुपीच्छाया भवति, दिनसप्तके | Pसातिरेकं छायाऽङ्गुलं वर्द्धते, ततश्च श्रावणशुद्धसप्तम्यामकुलत्रयं वर्द्धते, सातिरेकैकविंशतितमदिनत्वात्तस्याः, तदेव
प्रत
अनुक्रम
[६१]
अनागाराणाम् सप्तविंशति गुणानाम् वर्णनं
~104 ~
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२७], ------------------------------------ मूल [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
२८ सम
का वाया.
प्रत
सूत्राक
[२७]
श्रीसमवा- माषाढ्याः सत्कैरनुलैः सह सप्तविंशतिरजुलानि भवन्ति, निश्चयतस्तु कर्कसक्रान्तेरारभ्य यत्सातिरेकैकविंशति-
यांग मातम दिनं तत्रोक्तरूपा पौरुषीच्छाया भवति ॥ २७ ॥ श्रीअभय
अट्ठावीसविहे आयारपकप्पे प० त०-मासिआ आरोवणा सपंचराईमासिया आरोवणा सदसराइमासिआ आरोवणा एवं चेव
दोमासिआ आरोवणा सपंचराईदोमासिया आरोवणा एवं तिमासिआ आरोवणा चउमासिया आरोवणा उवघाइया आरोवणा ॥४७॥ अणुवघाइया आरोवणा कसिणा आरोवणा अकसिणा आरोवणा एतावता आयारपकप्पे एताव ताव आयरियचे, भवसिद्धियाणं
जीवाणं अत्यंगइयाणं मोहणिजस्स कम्मस्स अट्ठावीसं कम्मंसा संतकम्मा प० तं०-सम्मत्तवेअणिनं मिच्छत्तवेयणिजं सम्ममिछत्तवेयणिजं सोलस कसाया णव णोकसाया, आमिणिबोहियणाणे अट्ठावीसइविहे प० त०-सोइंदियअत्यावग्गहे चक्विंदियअत्थावग्गहे पाणिदियअस्थावग्गहे जिभिदियअत्थावग्गहे फार्सिदियअत्थावग्गहे णोइंदियअत्थावग्गहे सोइंदियवंजणोग्गहे पाणिदियवंजणोग्गहे जिभिदियवंजणोग्गहे फार्सिदियवंजणोग्गहे सोर्तिदियईहा चक्विदियईहा पाणिदियईहा जिम्भिदियईहा फार्सिदियईहा णोइंदियईहा सोतिंदियावाए चक्खिदियावाए पाणिदियावाए जिभिदियावाए फार्सिदियावाए णोइंदियावाए सोइंदिअधारणा चक्खिदियधारणा घाणिदियधारणा जिन्मिदियधारणा फासिदियधारणा णोइंदियधारणा, ईसाणे जे कप्पे अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा प०, जीवे णं देवगइम्मि बंधमाणे नामस्स कम्मस्स अट्ठावीसे उत्तरपगडीओ णिबंधति, त०-देवगतिनाम पंचिंदियजातिनाम वेउल्वियसरीरनामं तेयगसरीरनाम कम्मणसरीरनाम
प्रत
अनुक्रम
[६१]
॥४७॥
awraturasurary.com
~105~
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२८]. ..........-------------------------- मल [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
समचउरंससंठाणणाम वेउब्वियसरीरंगोवंगणाम वण्णणामं गंधणामं रसणाम फासनाम देवाणुपुविणामं अगुरुलहुनाम उवधायनाम पराघायनाम उस्सासनामं पसत्यविहायोगइणामं तसनामं पायरणामं पजत्तनाम पत्तेयसरीरनामं थिराथिराणं सुभासुभाणं आएआणाएजाणं दोण्हं अण्णयरं एग नाम णिबंधइ जसोकित्तिनाम निम्माणनाम, एवं चेव नेरइआवि, णाणतं अप्पसत्यविहायोगइणामं हंडगसंठाणणामं अथिरणाम दुन्भगणामं असुमनाम दुस्सरनाम अणादिजणाम अजसोकित्तीणाम निम्माणनाम, इमीसे थे रयणप्पभाए पुढवीए अत्धेगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई प०, अहे सत्तमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्यगइयाणं अट्ठावीस पलिओवमाई ठिई प०. सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्यंगइयाणं अट्ठावीसं पलिओवमाई ठिई प०, उवरिमहेट्ठिमगेवेजयाणं देवाणं जहण्णेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा मज्झिमउवरिमगेवेजएसु विमाणेसु देवताए उवण्णा तेसिणं देवाणं उक्कोसेणं अट्ठावीस सागरोवमाई ठिई ५०, ते गं देवा अट्ठावीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा, तेसिणं देवाणं अट्ठावीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुपज्जइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे अट्ठावीसाए भवग्गबणेहिं सिज्झिस्संति खुशिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सम्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ २८॥
अष्टाविंशतिस्थानकमपि व्यक्तं, नवरमिह पञ्च स्थितेः प्राक् सूत्राणि, तत्र आचार:-प्रथमाझं तस्य प्रकल्पः-अदध्ययनविशेषो निशीथमित्यपराभिधानं आचारस्य वा-साध्वाचारस्य ज्ञानादिविषयस्य प्रकल्पो-व्यवस्थापनमित्या
[२८]
CHECRAF%
45
SABSEARCRACKS
प्रत
अनुक्रम [६२]
~106~
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२८], ------------------------- ----- मूल [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा-
यांगे श्रीअभय
दृचिः ॥४८॥
सुत्रांक
[२८]
A
चारप्रकल्पः, तत्र क्वचिद् ज्ञानाद्याचारविषये अपराधमापनस्य कस्यचित् प्रायश्चित्तं दत्तं, पुनरन्यमपराधविशेषमा-1 २८ समपन्नस्ततस्तत्रैव प्राक्तने प्रायश्चित्ते मासवहनयोग्यं मासिकं प्रायश्चित्तमारोपितमित्येवं मासिक्यारोपणा भवति, तथा 31 वाया.
पञ्चरात्रिकशुद्धियोग्यं मासिकशुद्धियोग्यं चापराधद्वयमापनस्ततः पूर्वदत्ते प्रायश्चित्ते सपञ्चरात्रिमासिकप्रायश्चित्तारो-11 पापणात्सपञ्चरात्रमासिक्यारोपणा भवति, एवं मासिक्यारोपणाः षट् ६ एवं द्विमासिक्यः ६ त्रिमासिक्यः ६ चतुर्मासिक्योऽपि ६ चतुर्विशतिरारोपणाः, तथा सार्द्धदिनद्वयस्य पक्षस्य चोपघातनेन लघूनां मासादीनां प्राचीनप्रायश्चित्ते आरोपणा उपघातिकारोपणा, यदाह-"अरेण छिन्नसेसं पुवद्धेणं तु संजुयं काउं। देजा य लहुयदाणं गुरुदाणं तत्तियं चेव ॥१॥" त्ति, यथा-मासार्द्ध १५ पञ्चविंशतिकार्द्ध च सार्द्धद्वादश सर्वमीलने सार्द्धसप्तविंशतिरिति लघुमासः, तथा मासद्वयार्द्ध मासो मासिकस्याद्ध पक्ष उभयमीलने सार्हो मास इति लघुद्विमासिकं २५ तथा
तेषामेव सार्द्धदिनद्वयाद्यनुरातनेन गुरूणामारोपणा अनुद्घातिकारोपणा २६, तथा यावतोऽपराधानापन्नस्तावलातीनां तच्छुद्धीनामारोपणा कृत्वारोपणा २७ तथा बहूनपराधानापन्नस्य पण्मासान्तं तप इतिकृत्वा षण्मासाधिक
तपःकर्म तेष्वेवान्तर्भाव्य शेषमारोप्यते यत्र सा अकृत्वारोपणेत्यष्टाविंशतिः २८, एतच सम्यग् निशीथविंशतितमो- ॥४८॥ देशकादवगम्यम्, अत्रैव निगमनमाह-एतावांस्तावदाचारप्रकल्पः, इह स्थानके आरोपणामाश्रिय विवक्षितोऽन्यथा तव्यतिरेकेणापि तस्योद्घातिकानुद्घातिकरूपस्य भावात्, अथवैतावानेवायं तावदाचारप्रकल्पः, शेषस्यात्रैवान्तर्भा
प्रत
अनुक्रम [६२]
REauratoninatantanal
~107~
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय २८1. ------------------------------------ मल २८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[२८]
वात्, तथा एतावत्तावदाचरितव्यमित्यपि, तथैव देवगतिसूत्रे स्थिरास्थिरयोः शुभाशुभयोरादेयानादेययोश्च परस्पर विरोधित्वेनैकदा बन्धाभावादन्यदन्यतरमातीत्युक्तं, तत्र चैकशब्दग्रहणं भाषामात्र एवावसेयमिति, नारकसूत्रे विंशतिस्ता एव प्रकृतयोऽष्टानां तु स्थाने अष्टावन्या वनाति, एतदेवाह-एवं चेवे'त्यादि, नानात्व-विशेषः ॥२८॥
एगूणतीसइविहे पावसुयपसंगे णं प० त०. भोमे उप्पाए सुमिणे अंतरिक्खे अंगे सरे वंजणे लक्खणे, भोमे तिविहे प० त०-सुत्ते वित्ती वत्तिए, एवं एक्वेकं तिविहं, विकहाणुजोगे विजाणुजोगे मंताणुजोगे जोगाणुजोगे अण्णतित्थियपवत्ताणुजोगे, आसाढे ण मासे एगूणतीसराइंदिआई राइंदियम्गेणं प०, (एवं चेव ) भद्दवए पं मासे कत्तिए णं मासे पोसे णं मासे फग्गुणे णं मासे वइसाहे णं मासे, चंददिणे णं एगूणतीस मुहुत्ते सातिरेगे मुहुत्तग्गेणं प०, जीवे णं पसत्थज्झवसाणजुत्ते. भविए सम्मदिट्ठी तित्थकरनामसहिआओ णामस्स णियमा एगूणतीसं उत्तरपगडीओ निबंधित्ता वेमाणिएसु देवेसु देवत्ताए उववअइ, इमीसे गं रयणप्पमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं एगूणतीस पलिओवमाई ठिई प०, अहे सत्तमाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं एगणतीसं सागरोवमाई ठिई ५०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्येगइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेस कृप्पेसु देवाणं अत्थेगइयाणं एगूणतीसं पलिओवमाई ठिई प०, उवरिममज्झिमगेवेअयाणं देवाणं जहण्जेणं एगूगतीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा उवरिमहेहिमगेवेजयविमाणेसु देवत्ताए उक्वण्णा तेसि णं देवाण उक्कोसेणं एगूणतीस सागरोवमाई ठिई प०, ते ण देवा एगूणतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा तेसि णं देवाणं एगूणतीस वाससहस्से
प्रत
E% AC%C4-
3G-%%
अनुक्रम
[६२]
९समा
~108~
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२९], ------------------------------------ मुलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
ला
श्रीसमवा- हिं थाहारडे समुपजइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एगणतीसमवग्गहोहिं सिज्झिस्सति बुझिसति सुचिसति परिनियांगे ब्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं २९ ॥
सवायाध्य. श्रीअमय एकोनत्रिंशत्तमस्थानकमपि व्यक्तमेष, मवरं नवेह सूत्राणि स्थित प्राक, तत्र पापोपादामानि ब्रुतानि पापश्रुतानि वृत्तिः
तेषां प्रसन:-तथाऽऽसेवनारूपः पापश्रुतप्रस, सच पापश्रुतानामेकोनविंशद्विधत्वात् तद्विध उक्तः, पापश्रुतविपर्वतया ॥४९॥ पापश्रुतान्येवोच्यन्ते, अत एवाह-भोमे सादि, तत्र मौर्म-भूमिविकारफलाभिधानप्रधानं निमित्तशाख, तथा
।'उत्पात' सहजरुधिरदृष्टयादिलक्षणोत्पातफलनिरूपकं निमित्तशासं, एवं सर्म-खमफलाविभौवर्क, 'अन्तरिक्षम्' | आकाशप्रभवग्रहयुद्धभेदादिभावफलनिवेदकं अजशरीरावयवप्रमाणस्पन्दितादिविकारफलोद्भावकं 'खरं' जीवाजीवादिकाश्रितखखरूपफलाभिधायकं प्यजन-मयादिव्यजनफलोपदर्शकं लक्षण-छाछनाद्यनेकविधलक्षणयुत्तादकमित्यष्टी, एतान्येव सूत्रवृत्तिवार्तिकमेदावतुर्विंशतिः, सत्रावर्जितानामन्येषां सूत्र सहलप्रमाणे तिर्लक्षप्रमाणा वार्तिक-पृत्तेाख्यानरूपं कोटिप्रमाणं, अगस्य तु सूत्रं लक्षं वृत्तिः कोटी कार्तिकमपरिमितमिति, तथा विकथामुवोगः-अर्थकामोपायप्रतिपादनपराणि कामन्दकवात्स्यायनादीनि भारतादीनि वा शास्त्राणि २५ तथा विद्यानु- ॥४९॥
घोगो-रोहिणीप्रभृतिविद्यासाधनाभिधायकानि शास्त्राणि २६ मन्त्रानुयोगभेटकाहिमत्रसाधनोपावशास्त्राणि २७/ दियोगानुयोगो-शीकरणादियोगाभिधायकानि हरमेखलादिशास्त्राणि २८ अन्यतीक्षिकेभ्यः कपिलादिभ्यः
प्रत
अनुक्रम [६३]
पापश्रुत-प्रसङ्गानां एकोनत्रिंशत भेदाया: वर्णनं
~ 109~
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२९], -------------------------------- मूल [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सकाशायः प्रपत्त: खकीयाचारवस्तुतत्त्वानामनुवोगो-पिचारः तत्पुरस्करणार्थः शास्त्रसन्दर्भ इत्यर्षः सोऽम्यतीपिकप्रवृत्तानुयोग इति १९ तथाऽऽपाढादय एकान्तरिता पम्मासा एकोनत्रिंशद्रोत्रिंदिवा इति-रात्रिदिवसपरिमागेन भवन्ति स्थूलम्यायेम, कृष्ण पक्षे अखेकं रात्रिन्दियसैकस्य याद्, आह च-"बासाहबहुलपक्खे भवएर किसिए व पोसे य । फग्गुणवइसाहेसु व बौद्धन्धा ओमरत्ताजों" ॥१॥ति [ भाषाढकृष्णपक्षे भाद्रपदे कार्तिके
च पीपे या काल्गुने वैशाखे च बोद्धव्या अवमरात्रयः।।१॥ इवमत्र मावना-चन्द्रमासो दिएकोमत्रिंशदिनानि
दिनख र द्विषष्टिभागानां द्वात्रिंशत्, ऋतुमासश्च त्रिंशदेव दिनानि मवन्तीति चन्द्रमासापेक्षया ऋतुमासोऽहोदि रात्रहिपष्टिभागानां त्रिंशता साधिको भवति, ततश्च प्रलहोरात्रं चन्द्रदिनमेकैकेन द्विषष्टिभागेन हीयते इत्यवसी
यते, एवं द्विपश्या चन्द्रदिवसानामेकषष्ट्यहोरात्राणां भवतीत्येवं सातिरेके मासद्वये एकमवमरात्रं भवतीति, विशेषस्त्विह चन्द्रप्रज्ञसेरवसेय इति, तथा 'चंददिणे णं ति चन्द्रदिन-प्रतिपदादिका तिषिः, तचेकोनत्रिंशत् मुहूत्ताः ४ा सातिरेकमुहर्तपरिमाणेनेति, कथं ?, यतः किल चन्द्रमास एकोनविंशदिनानि द्वात्रिंशच दिनद्विषष्टिभागा भवन्ति,
ततचन्द्रदिनं चन्द्रमासस्य त्रिंशता गुणनेन मुहूर्तराशीकृतस्य त्रिंशता भागहारे एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता द्वात्रिंशश्च मुहूर्तस्य द्विषष्टिांगा लभ्यन्त इति, तथा जीवः प्रशताध्यवसानादिविशेषणो वैमानिकेप्युत्पत्तुकामो नामकर्मण एकोनत्रिंशदुत्तरप्रकृतीवभाति, ताश्चेमाः-देवगतिः १ पञ्चेन्द्रियजातिः २ वैक्रियद्वयं ४ तैजसकार्मणशरीरे ६ सम-1
अनुक्रम [६३]
पापश्रुत-प्रसङ्गानां एकोनत्रिंशत भेदाया: वर्णनं
~110~
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [२९], ------------------------------------ मुलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा- यांगे श्रीअमय०
EASE
वृत्तिः
RECE
॥५०॥
प्रत
चतुरस्र संस्थानं ७ वर्णादिचतुष्कं ११ देवानुपूर्वी १२ अगुरुलघु १३ उपघातं १४ पराघातं १५ उच्छासं १६३० समप्रशस्तविहायोगतिः १७ वसं १८ बादरं १९ पर्याप्त २० प्रत्येकं २१ स्थिरास्थिरयोरन्यतरत् २२ शुभाशुभयोरन्यतरत् २३|| | वायाध्य. सुभग २४ सुखरं २५ आदेयानादेययोरन्यतरत् २६ यशःकीत्ययशकीोरेकतरं २७ निर्माणं २८ तीर्थकरश्चेति ॥२९॥ तीस मोहणीयठाणा पं० ते-जे यावि तसे पाणे, वारिमज्ञ विगाहिआ । उदएण कम्मा मारेई, महामोहं पकुव्वद ॥१॥ सीसावेढेण जे केई, आवेदेइ अभिक्खणं । तिब्बासुभसमायारे, महामोहं पकुब्बइ ॥२॥ पाणिणा संपिहिताण, सोयमावरिय पाणिणं । अंतोनदंत मारेई, महामोहं पकुम्बइ ॥३॥ जायतेयं समारम्भ, बहुं ओलंमिया जणं । अंतोधूमेण मारेई(जा), महामोहं पकुव्वद ॥ ४ ॥ सिस्सम्मि जे पहणइ, उत्तमंगम्मि चेयसा । विभज मत्थय फाले, महामोहं पकुवइ ॥ ५॥ पुणो पुणो पणिधिए, हरित्ता उवहसे जणं । फलेणं अदुवा दण्डेणं, महामोई पकुब्बइ ॥६॥ गूढायारी निगूदिआ, माय मायाएँ छायए। असच्चवाई णिण्हाई, महामोहं पकुब्बइ ॥ ७॥ धंसेइ जो अभूएणं, अकम्मं अत्तकम्मुणा । अदुवा तुम कासित्ति, महामोई पकुवइ ॥८॥ जाणमाणो परिसओ, सच्चामोसाणि भासइ । अक्खीणझंझे पुरिसे, महामोहं पकुबइ ॥९॥ अणायगस्स नयवं, दारे तस्सेव धंसिया । विउलं विक्खोभइत्ताणं, किचा णं पडिबाहिरं ॥१०॥ उवगतिपि झंपित्ता; पडिलोमाहिं
॥५०॥ वगुहिं । भोगभोगे वियारेई, महामोहं पकुब्बइ ॥११॥ अकुमारभूए जे केई, कुमारभूएत्तिहं वए । इत्थीहिं गिद्धे वसए, महामोहं पकुवइ ॥ १२ ॥ अभयारी जे केई, बंभयारीत्तिहूं वए । गद्दहेच गा मज्झे, विस्सरं नयई नदं ॥१३॥
अनुक्रम [६३]
~111~
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[३०]
प्रत
अनुक्रम [६४-९९]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [३०]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [३०], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
Jan Education
अप्पणी अहिए वाले, मायामोसं बहुं भसे । इत्थीविसयगेहीए, महामोदं पकुब्बइ ॥ १४ ॥ १२ ॥ जं निस्सिए उच्चदर, जससाहिगमेण वा । तस्स लुम्भइ वित्तम्मि, महामोहं पकुब्वइ ।। १५ ।। १३ ।। ईसरेण अदुवा गामेणं, अणिसरे ईसरीकए । तस्स संपयहीणस्स, सिरी अतुलमागया ॥ १६ ॥ ईसादोसेण आविडे, कलुसाविलचेयसे । जे अंतराभं चेएइ, महामोहं पकुब्वइ ॥ १७ ॥ १४ ॥ सप्पी जहा अंडउडं, भत्तारं जो विहिंसह सेणावई पसत्यारं महामोहं कुव्व ॥ १८ ॥ १५ ॥ जे नायगं च रस्स, नेयारं निगमस्स वा । सेट्ठि बहुरवं हंता, महामोहं पकुच्वइ ॥ १९ ॥ १६ ॥ बहुजणस्स णेयारं, दीवं ताणं च पाणिणं । एयारिसं नरं हंता, महामोहं पकुब्वइ ॥ २० ॥ १७ ॥ उवद्वियं पडिवियं संजयं सुतवस्सियं । वुकम्म धम्माओ मंसेइ, महामोहं पकुब्बइ ॥ २१ ॥ १८ ॥ तद्देवाणतणाणीणं, जिणाणं वरदंसिणं । तेर्सि अवण्णवं बाले, महामोहं पकुब्बइ ॥ २२ ॥ १९ ॥ नेयाइअस्स मग्गस्स, दुडे अवयरई बहुं । तं तिप्पयंतो भावेइ, महामोहं पकुव्वइ ॥ २३ ॥ २० ॥ आयरियउवज्झाएद्दि, सुयं विजयं च गाहिए। ते चैव खिंसई वाले, महामोहं पकुव्वइ ॥ २४ ॥ २१ ॥ आयरियउवज्झायाणं, सम्मं नो पडितप्पद् । अप्पडिपूयए यद्धे, महामोहं पकुव्व ॥ २५ ॥ २२ ॥ अबहुस्सुए य जे केई, सुएणं पविकत्थई । सज्झायवायं वयइ, महामोहं पकुब्बइ ॥ २६ ॥ २३ ॥ अतवस्सीए य जे केई, तवेण पविकत्थइ । सव्वलोयपरे तेणे, महामोहं पकुब्वइ ॥ २७ ॥ २४ ॥ साद्दारणट्ठा जे केई, गिलाणम्मि उवडिए । पभूण कुणई किवं, मज्छंपि से न कुब्बइ ॥ २८ ॥ सढे नियडीपण्णाणे, कलुसाउलचेयसे । अप्पणो य अबोहीय, महामोहं पकुव्व ॥ २९ ॥ २५ ॥ जे काहिगरणाई, संपउंजे पुणो पुणो । सव्वतित्थाण भेयाणं, महामोहं पकुव्व ॥ ३० ॥ २६ ॥ जे अ आहम्मिए जोए, संपओजे पुणो पुणो । सहाहे
For Parts Only
~ 112~
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], ------------------------- ----- मूल [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
३० समवायाध्य.
प्रत
श्रीसमवा
यांगे श्रीअमय वृतिः
7-BACCES
सूत्रांक
[३०]
SHRSt%
प्रत अनुक्रम [६४-९९]
सहीहेउं, महामोई पकुब्वइ ॥ ३१ ॥ २७ ॥ जे अ माणुस्सए मोए, अदुवा पारलोइए । तेऽतिप्पयतो बासयर, महामोई परध्वद ॥ ३२ ॥२८॥हड्डी जुई जसो वण्णो, देवाण बलवीरियं । सेर्सि अवण्णवं पाले, महामोह पकुष्यद ॥ १३ ॥२९॥ अपस्समाणो पस्सामि, देवे जक्खे व गुज्झगे । अण्णाणी जिणपूयट्टी, महामोहं पकुवह ॥ ३४ ॥३०॥ थेरे में मैडियपुत्ते तीस यासाई सामण्णपरियाय पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जाव सन्चदुक्खप्पहीणे, एगमेगे णं अहोरते तीसमुहते मुहुत्तीर्ण १०, एएसि णं तीसाए मुहुत्ताणं तीसं नामधेआ प० त०-डे सत्ते मित्ते वाऊ सुपीए ५ अमिचंदे माहिदे पलचे मे सथे १० आणंदे विजए विस्ससेणे पायावच्चे उवसमे १५ ईसाणे तठे माविअप्पा वेसमणे वरुणे २० सतरिसमे गंधम्बे अग्गिवेसायणे पातवे आवत्ते२५ तडवे भूमहे रिसभे सम्वसिद्धे रक्खसे ३०, अरे णं अरहा तीसं पणुई उहूं उच्चत्तेणं होत्या, सहस्सारस्स णं देविंदस्स देवरणो तीस सामाणियसाहस्सीओ प०, पासे णं अरहा तीस वासाई अगारवासमझे वसित्ता अगारामो बणगारियं पच्चइए, समणे भगर्व महावीरे तीस वासाई अगारवासमझे वसित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वाइए, रयणप्पभाए णे पुढधीए तीस निरयावाससयसहस्सा प०, इमीसे थे रयणप्पभाए पुढवीए मत्थेगइयाण नेरइयाण तीस पलिओवमाई ठिई ५०, महेसत्तमाए पुढवीए पत्थेगइयाण नेरहयाणं तीस सागरोवमाई ठिई प०, सरकुमाराण देवाणं भरपेगइयाणे तीसं पलिभोवमाई ठिई प०, उपरिमउवरिमगेवेजयाण देवाणे जहण्णेणं तीस सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा उवरिममज्झिमगेवेजएसु विमाणेसुदेवत्ताए उववण्णा तेसि ण देवाणं उन्कोसेणे तीस सागरोवमाई ठिई प०.से णं देवा तीसाए भद्धमासेहिमाणमति वा पाणमति या उस्ससेति वा मीससंति वा, तेसि णं देवाणं तीसाए वाससहस्सेहिं आहारहे समुप्पाइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे तीसाप
4
॥५१॥
-
8-544
~113~
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], ------------------------- ----- मूल [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[३०]
भवग्गहणेहि सिकिस्संति बुझिस्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमतं करिस्संति ।। सूत्र ३०॥ त्रिंशत्तम स्थानकं सुगमम् , नवरं स्थितेरागष्टी सूत्राणि, तत्र मोहनीयं सामान्यनारप्रकारं कर्म विशेषतचतुर्थी प्रकृतिः तस्य स्थानानि-निमित्तानि मोहनीयस्थानानि, तथा “जे मावि तसे" इत्यादि श्लोकः, यथापि प्रसान् प्राणान्-शयादीन् बारिमध्ये विगाह्य-प्रविश्योदकेन शस्त्रभूतेन मारयति, कथं ?, आक्रम्य पादादिना स इति गम्यते मार्यमाणस्य महामोहोत्पादकत्वात्सलिष्टचित्तत्वाच्च भवशतदुःखवेदनीयमात्मनो महामोहं प्रकरोति-जन
यति १ तदेषभूतं समारणेनैकं मोहनीयस्थानमेवं सर्वत्रेति । 'सीसा' श्लोकः, शीपोवेष्टेन-आर्द्रचर्मादिमयेन या ४ कश्चिद्वेष्टयति ख्यादिवसानिति गम्यते अभीक्ष्ण-भृशं तीमाशुभसमाचारः स इत्यस्य गम्यमानत्वात्स मार्यमाणस्य
महामोहोत्पादकत्वेन आत्मनो महामोहं प्रकुरुत इति २, यावत्करणात् केचित्सूत्रपुस्तकेषु शेषमोहनीयस्थानाभिधानपराः श्लोकाः सूचिताः, केचित् दृश्यन्त एवेति ते व्याख्यायन्ते-पाणिना-हस्तेन संपिधाय-स्थगयित्या, किं तत् ?-'श्रोतो रन्धं मुखमित्यर्थः तथा आवृत्य-अवरुध्य प्राणिनं ततः अन्तर्नदन्तं-गलमध्ये रयं कुर्वन्तं घुरघुरायमाणमित्यर्थः, मारयति स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति तृतीयं ३, 'जाततेजसं वैश्वानरं 'समारभ्य प्रज्वाल्य 'बहुँ' प्रभूतं 'अवरुध्य' महामण्डपवादादिपु प्रक्षिप्य 'जन' लोकं अन्तः-मध्ये धूमेन-बहिलिङ्गेन अथवा अन्तधूमो यस्यासावन्तधूमस्तेन जाततेजसा विभक्तिपरिणामात् मारयति योऽसौ महामोहं प्रकरोति चतुर्थ ४, शीर्षे
लक
प्रत अनुक्रम [६४-९९]
EXRARY
X
SaintaintanNT
मोहनीय-स्थानानाम् त्रिंशत् भेदानाम् व्याख्या:
~ 114~
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], ------------------------------------ मुलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३०]
प्रत अनुक्रम [६४-९९]
श्रीसमवा- शिरसि यः प्रहन्ति-खङ्गमुद्रादिना प्रहरति प्राणिनमिति गम्यते, किंभूते खभावतः शिरसि ?-'उत्तमाझे' सर्वावय-11३० समयांगे
वानां प्रधानावयवे तद्विधातेऽवश्यं मरणात् चेतसा-सक्लिष्टेन मनसा न यथाकथञ्चिदित्यर्थः तथा विभज्य मस्तकंचायाध्य. श्रीअभय
प्रकृष्टप्रहारदानेन स्फोटयति-विदारयति ग्रीवादिकं कायमपीति गम्यते, स इत्यस्य गम्यमानत्वात् महामोहं प्रकरो-15 धृत्तिः
तीति पञ्चमं ५ । पौनःपुन्येन प्रणिधिना-मायया यथा वाणिजकादिवेषं विधाय गलकर्त्तकाः पथि गच्छता सह ॥५२॥ गत्वा विजने मारयति तथा हत्वा-विनाश्य इति गम्यते उपहसेत् आनन्दातिरेकात् 'जन' मूर्खलोकं हन्यमानं,
४ केन हत्वा ?-'फलेन' योगभावितेन मातलिङ्गादिना 'अदुवा' अथवा दण्डेन प्रसिद्धेन स इति गम्यते, महामोहं।। दिप्रकरोतीति पष्ठम् ६ । 'गूढाचारी' प्रच्छन्नानाचारवान् निगृहयेत-गोपयेत्, खकीयं प्रच्छन्नं दुष्टमाचारं तथा मायां
परकीयां मायया खकीयया छादयेत्-जयेत् , यथा शकुनिमारकाश्छदैरात्मानमावृत्य शकुनीन् गृहन्तः खकीयमायया | शकुनिमायां छादयन्ति, तथा असत्यवादी 'निहवी' अपलापका स्वकीयाया मूलगुणोत्तरगुणप्रतिसेवायाः सूत्रार्थयोवों म-12 हामोहं प्रकरोतीति सप्तमं ७॥ध्वंसयति-छायया भ्रंशयति इति यः पुरुषोऽभूतेन-असद्भतेन, कं?-अकर्मक-अविद्यमान-18 दुश्चेष्टितं आत्मकर्मणा-आत्मकृतऋषिघातादिना दुष्टव्यापारेण 'अदुवा' अथवा यदन्येन कृतं तदाश्रित्य परस्य समक्षमेवं | ॥५२॥ त्वमकारितन्महापापमिति वदति, वदिक्रियायाः गम्यमानत्वात्स इत्यस्यापि गम्यमानत्वात् महामोहं प्रकरोतीत्यष्टमं दाजानानः यथा अनृतमेतत्परिषदः-सभायां बहुजनमध्ये इत्यर्थः, सत्यामपाणि-किश्चित्सवानि बहसत्यानि वस्तूनि वा
+5%%*ॐॐॐ
मोहनीय-स्थानानाम् त्रिंशत् भेदानाम् व्याख्या:
~115
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], ------------------------- ----- मूल [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[३०]
12-%AE%%9544
क्यानि वा भापते 'अक्षीणझन्झः' अनुपरतकलहः यः स इति गम्यते, महामोहं प्रकरोतीति नवमं ९ । अनायका-अविद्यमाननायको राजा तस्य नयवान्-नीतिमानमात्यः स तस्यैव राज्ञो 'दारान्' कलत्रं द्वारं वा-अर्थागमस्थोपायं ध्वंसयित्वा भोगभोगान् विदारयतीति सम्बन्धः, किं कृत्वा ?-'विपुलं' प्रचुरमित्यर्थः, 'विक्षोभ्य' सामन्तादिपरिकरभेदेन संक्षोभ्य नायकं तस्य क्षोभं जनयित्वेत्यर्थः, 'कृत्वा' विधाय णमित्यलकारे प्रतिवाचं-अनधिकारिणं दारेभ्योगिमद्वारेभ्यो वा, दारान् राज्यं वा स्वयमधिष्ठायेत्यर्थः १०॥ तथा 'उपकसन्तमपि' समीपमागच्छन्तमपि, सर्वखापहारे कृते । प्राभृतेनानुलोमैः करुणैश्च बचनैरनुकूलयितुमुपस्थितमित्यर्थः, झम्पयित्वा-अनिष्टवचनावकाशं कृत्वा प्रतिलोमाभिः
तस्य प्रतिकूलाभिर्वाग्भिः-वचनैरेतादृशस्तादृशस्त्वमित्यादिभिरित्यर्थः, 'भोगभोगान्' विशिष्टान् शब्दादीन् विदारहै यति योऽसौ महामोहं प्रकरोतीति दशमं १० । अकुमारभूतः अकुमारब्रह्मचारी सन् यः कश्चित् कुमारभूतोऽहं //
कुमारब्रह्मचारी अहमिति वदति, अथ च स्त्रीषु गृद्धो-वशकश्च स्त्रीणामेवायत्त इत्यर्थः, अथवा 'वसति' आस्ते स महामोहं प्रकरोतीत्येकादशं ११ । अब्रह्मचारी मैथुनादनिवृत्तो यः कश्चित्तत्काल एवासेव्यावसचर्यं ब्रह्मचारी सा-18 |म्प्रतमहमित्यतिधूर्ततया परप्रवञ्चनाय वदति, तथा य एवमशोभावहं सतामनादेयं भणन् गर्दभ इव गवां मध्ये विखरं न वृषभवन्मनोज नदति-मुञ्चति नई-नादं शब्दमित्यर्थः, तथा य एवं भणन्नात्मनोऽहितो-न हितकारी बालोमूढो मायामृषा बहुश:-अनृतं प्रभूतं भाषते, यश्चैवं निन्दितं भापते, कया ?-खीविषयगृया हेतुभूतया स इत्थंभूतो
प्रत अनुक्रम [६४-९९]
KHARKHAKE+
SAREauratondiNL
मोहनीय-स्थानानाम् त्रिंशत् भेदानाम् व्याख्या:
~116
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], ------------------------- ----- मूल [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०]
प्रत अनुक्रम [६४-९९]
श्रीसमवा- महामोहं प्रकरोतीति द्वादशम् १२॥ यं राजानं राजामात्यादिकं वा निश्रितं-आश्रितं उद्बहते-जीविकालामेना
यांग ात्मानं धारयति, कथं ?-यशसा तस्य राजादेः सत्कोऽयमिति प्रसिया अभिगमनेन वा-सेवया आश्रितराजादेसलचायाध्य. भीअभय निर्वाहकारणस्य राजादेलुभ्यति 'वित्' द्रव्ये यः स महामोहं प्रकरोतीति त्रयोदशं १३ । 'ईश्वरेण' प्रभुणा 'अदुवा वृत्तिः
अथवा 'ग्रामेण' जनसमूहेन अनीश्वर ईश्वरीकृतः तस्य पूर्वावस्थायामनीश्वरस्य सम्प्रगृहीतस्य पुरस्कृतस्य प्रभ्वादिना । ॥५३॥ श्रीः-लक्ष्मीरतुला-असाधारणा आगता-प्राप्ता अतुलं वा यथा भवतीत्येवं श्रीः समागता आगतश्रीकश्च प्रभ्वायुपकार-IN
कविषये ईर्ष्यादोषेणाविष्टो-युक्तः कलुषेण-द्वेषलोभादिलक्षणपापेनाविलं-गड्डुलमाकुलं वा चेतो यस्य स तथा यो-16 अन्तरायं-व्यवच्छेदं जीवितश्रीभोगानां 'चेतयते' करोति प्रभुत्वादेरसी महामोहं प्रकरोतीति चतुर्दशं १४ । 'सपी नागी यथा 'अण्डउर्ड' अण्डककूटं खकीयमण्डकसमूहमित्यर्थः, अण्डस्य वा पुर्ट-सम्बन्धदलद्वयरूपं हिनस्ति, एवं भत्तार-पोषयितारं यो विहिनस्ति सेनापति राजानं प्रशास्तार-अमात्य धर्मपाठकं वा स महामोरं प्रकरोतीति, तन्मरणे || बहुजनदुःस्थता भवतीति पश्चदशं १५। यो नायकं वा-प्रभु राष्ट्रस्य राष्ट्रमहत्तरादिकमिति भावः, तथा 'नेतारं प्रवर्तयितारं प्रयोजनेषु निगमस्स-वाणिजकसमूहस्य, कं ?-वेष्ठिनं श्रीदेवताक्तिपट्टबद्धं, किंभूतं ?-'बहुरवं' भूरिशब्दं ॥५३ प्रचुरयशसमित्यर्थः हत्वा महामोहं प्रकुरुत इति षोडशं १६ । 'बहुजनस्य' पञ्चषादीनां लोकानां 'नेतारं नायक द्विीप इव द्वीपः-संसारसागरगतानामाश्वासस्थानं अथवा दीप इव दीपोऽज्ञानान्धकारातबुद्धिरष्टिप्रसराणां शरीरिणां ।
मोहनीय-स्थानानाम् त्रिंशत् भेदानाम् व्याख्याः
~117~
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत सूत्रांक
[३०]
प्रत
अनुक्रम [६४-९९]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
Eratun
हेयोपादेयवस्तुस्तोमप्रकाशकत्वात् तं अत एव त्राणं- आपद्रक्षणं प्राणिनामेतादृशं यादृशा गणधरादयो भवन्ति, 'नवरं' प्रावचनिकादिपुरुषं हत्वा महामोहं प्रकरोतीति सप्तदशं १७ । उपस्थितं प्रव्रज्यायां प्रवित्रजिषुमित्यर्थः, 'प्रतिविरतं' सावद्ययोगेभ्यो निवृत्तं प्रत्रजितमेवेत्यर्थः 'संयतं' साधुं 'सुतपखिनं' तपांसि कृतवन्तं शोभनं वा तपः श्रितं - आश्रितं कचित् 'जे भिक्खु जगजीवणं'ति पाठः, तत्र जगन्ति - जंगमानि अहिंसकत्वेन जीवयतीति जगज्जीवनस्तं विविधैः प्रकारैरुपक्रम्याक्रम्य व्यपक्रम्य वलादित्यर्थः, धर्मात् श्रुतचारित्रलक्षणाशयति यः स महामोहं प्रकरोतीति अष्टादशं १८ । यथैव प्राक्तनं मोहनीयस्थानं तथैवेदमपि, अनन्तज्ञानिनां ज्ञानस्यानन्तविषयत्वेन अक्षयत्वेन वा जिनानां अर्हतां वरदर्शिनां क्षायिकदर्शनत्वात् तेषां ये ज्ञानाद्यनेकातिशयसम्पदुपेतत्वेन भुवनत्रये प्रसिद्धाः 'अवर्णः' अवर्णवादो वक्तव्यत्वेन यस्यास्ति सोऽवर्णवान्, यथा नास्ति कश्चित् सर्वज्ञो, ज्ञेयस्यानन्तत्वात्, उक्तं च- "अज्जवि धावह नाणं अजवि य अणंतओ अटोगोवि। अजवि न कोई विउ पावन्ति सव्वन्नुयं जीवो ॥ १ ॥ अह पावति तो संतो होइ अलोओ न चेयमिति" ति [ अद्यापि धावति ज्ञानं अद्याप्यनन्तोऽलोकोऽपि । अद्यापि न कोऽपि व्यूहं प्राप्नोति सर्वज्ञतां जीवः ॥ १ ॥ अथ प्राप्नोति तदा सान्तोऽलोको भवेत् न चेदमिष्टमिति ] अदूषणं चैतद्, उत्पत्तिसमय एव केवलज्ञानं युगपलोकालोको प्रकाशयदुपजायते, यथाऽपवरकान्तर्वर्त्तिदीपकलिका अपवरक मध्यप्रकाशस्वरूपेत्यभ्युपगमादिति, वालः- अज्ञो महामोहं प्रकरोतीति एकोनविंशतितमं १९ । 'नैया
मोहनीय स्थानानाम् त्रिंशत् भेदानाम् व्याख्या:
For Park Use Only
मूलं [३०] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~118~
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], ------------------------------------ मुलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
वायाध्य.
प्रत
सुत्राक
[३०]
प्रत अनुक्रम [६४-९९]
श्रीसमवा- यिकस्य न्यायमनतिक्रान्तस्य 'मार्गस्य' सम्यग्दर्शनादेः मोक्षपथस्य दुष्टो द्विष्ठो वा 'अपकरोति' अपकारं करोतीति, ३० समयांग 3'बहु' अत्यर्थं पाठान्तरेणापहरति बहुजनं विपरिणमयतीति भावः, तं मार्ग 'तिप्पयंतो'त्ति निन्दयन् भाषयति
निन्दया द्वेषेण वा वासयति आत्मानं परं च यः स महामोहं प्रकरोतीति विंशतितम २० आचार्योपाध्याययः । वृत्तिः
KI श्रुतं-खाध्यायं विनयं च-चारित्रं 'ग्राहितः' शिक्षितः तानेव 'खिंसति' निन्दति-अल्पश्रुता एते इत्यादि ज्ञानतः ॥५४॥ अन्यतीर्थिकसंसर्गकारिण इत्यादि दर्शनतः मन्दधर्माणः पार्थस्थादिस्थानवर्त्तिन इत्यादि चारित्रतः, यः स एवंभूतो
वालो महामोहं प्रकरोतीत्येकविंशतितम २१ । आचार्यादीन् श्रुतदानग्लानावस्थाप्रतिचरणादिभिस्तर्पितवतः-18 उपकृतवतः सम्यक् न तान् प्रति तर्पयति' विनयाहारोपध्यादिभिर्न प्रत्युपकरोतीति, तथा अप्रतिपूजको-न पूजाकारी तथा 'स्तब्धो मानवान् स महामोहं प्रकरोतीति द्वाविंशतितमं २२। अबहुश्रुतश्च यः कश्चित् श्रुतेन 'प्रविकत्थते' आत्मानं श्लाघते श्रुतवानहमनुयोगधरोऽहमित्येवं, अथवा कस्मिंश्चित्त्वमनुयोगाचार्यों वाचकोवेति 51
पृच्छति प्रतिभणति आम, खाध्यायवादं वदति विशुद्धपाठकोऽहमित्यादिकं यः स महामोह-श्रुतालाभहेतुं प्रकरो-|| &ातीति त्रयोविंशतितमं २३ । 'अतवस्सीए' सुगम, पूर्वार्द्ध पूर्ववत्, नवरं 'सर्वलोकात्' सर्वजनात् सकाशात्परः-18॥५४॥
प्रकृष्टः स्तेनः-चौरो भावचीरत्वात् महामोहं अतपखिताहेतुं प्रकरोतीति चतुर्विंशतितमं २४ । साधारणार्थमुप४ कारार्थ यः कश्चिदाचार्यादिलाने-रोगवति 'उपस्थिते' प्रत्यासन्नीभूते 'प्रभु' समर्थ उपदेशेनौषधादिदानेन च
4545
wirejarsurary.org
मोहनीय-स्थानानाम् त्रिंशत् भेदानाम् व्याख्या:
~119~
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], ------------------------------------ मुलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
-
-
प्रत
SCKS
सूत्रांक
[३०]
%ो
प्रत अनुक्रम [६४-९९]
खतोऽन्यतथोपकारं न करोति, कृत्यमुपेक्षते इत्यर्थः, केनाभिप्रायेणेत्याह-ममाप्येप न करोति किंचनापि कृत्यं । |समर्थोऽपि सन्विद्वेषेण, असमर्थों वाऽयं बालवादिना किं कृतेनास्य ?, पुनरुपकर्तुमशक्तत्वादिति लोभेनेति, 'शठः'। | कैतवयुक्तः शक्तिलोपनात् निकृतिः-माया तद्विषये प्रज्ञानं यस्य स तथा, ग्लानः प्रतिचरणीयो मा भवत्विति ग्लानवेषमहं करोमीति विकल्पबानित्यर्थः, अत एव च कलुषाकुलचेताः आत्मनश्चाबोधिको-भवान्तराप्राप्तव्यजिनधमको ग्लानाप्रतिजागरेणाज्ञाविराधनात् , चशब्दात्परेषां चाबोधिकः अविद्यमाना बोधिरस्मादिति व्युत्पादनात्, ये हि तदीयं ग्लानाप्रतिजागरणमुपलभ्य जिनधर्मपराधुखा भवन्ति तेषामबोधिस्तत्कृतेति स एवम्भूतो महामोहं| प्रकरोतीति पञ्चविंशतितम २५ । कथा-वाक्यप्रबन्धः शास्त्रमित्यर्थस्तद्रूपाण्यधिकरणानि कथाधिकरणानि-कौटिल्यशास्त्रादीनि प्राण्युपमर्दनप्रवकत्वेन तेषामात्मनो दुर्गतावधिकारित्वकरणात्, कथया वा क्षेत्राणि कृषत । गामसूयतेत्यादिकया अधिकरणानि तथाविधप्रवृत्तिरूपाणि, अथवा कथा-राजकथादिका अधिकरणानि च-यत्रादीनि कलहा वा कथाधिकरणानि तानि सम्प्रयुक्त पुनः पुनः एवं 'सर्वतीर्थभेदाय' संसारसागरतरणकारण-13 त्वात् तीर्थानि-ज्ञानादीनि तेषां सर्वथा नाशाय प्रवर्त्तमानः स महामोहं प्रकरोतीति षड्विंशतितमं २६ । 'जे य आहम्मिए' कण्ठ्यम् , नवरं अधार्मिकयोगा-निमित्तवशीकरणादिप्रयोगाः किमर्थ-लाघाहेतोः सखिहेतोः-मित्रनिमित्तमित्यर्थः इति सप्तविंशतितमं २७ । यश्च मानुष्यकान् भोगान् अथवा पारलौकिकान् 'ते'त्ति विभक्तिपरिणामात्तस्तेषु
NEON-DERS
१० सम०
Enama
(A
marary ou
मोहनीय-स्थानानाम् त्रिंशत् भेदानाम् व्याख्या:
~120~
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३०], ------------------------------------ मुलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०]
श्रीसमवा-सेवा अतृप्यन्-तृप्तिमगच्छन् 'आखादते' अभिलषति आश्रयति वा स महामोहं प्रकरोतीति अष्टाविंशतितम २८३१ सम
..JPऋद्धिः-विमानादिसम्पत् द्युतिः-शरीराभरणदीप्तिः यश-कीर्तिःवर्णः-शुक्लादिः शरीरसम्बन्धी देवानां वैमानिकादीनां श्रीअभय
बलं-शारीरं वीर्य जीवप्रभवं अस्तीत्यध्याहारः, तेषामिह अपेर्गम्यमानत्वात् तेषामपि देवानामनेकातिशायिगुणवता|मवर्णवान्-अश्लाघाकारी अथवा 'अवर्णवान्' केनोलापेन देवानामृद्धिर्देवानां द्युतिरित्यादि काका व्याख्येयं, न किञ्चि-15 दि देवानामृद्ध्यादिकमस्तीत्यवर्णवादवाक्यभावार्थः, य एवम्भूतः स महामोहं प्रकरोतीति एकोनत्रिंशत्तमं २९। अपश्य
नपि यो ब्रूते पश्यामि देवानित्यादिखरूपेण, अज्ञानी जिनस्येव पूजामर्थयते यः स जिनपूजार्थी, गोशालकवत् , स महामोहं प्रकरोतीति त्रिंशत्तमम् ३० । रौद्रादयो मुहूर्त्ताश्चादित्योदयादारभ्य क्रमेण भवन्ति, एतेषां च मध्ये | मध्यमाः पटू कदाचिदिनेऽन्तर्भवन्ति कदाचिद्रात्राविति ॥३० एकतीसं सिद्धाइगुणा प० तंजहा-खीणे आभिणियोहिवणाणावरणे खीणे सुयणाणावरणे खीणे ओहिणाणावरणे खीणे मणपजवणाणावरणे खीणे केवलणाणावरणे खीणे चक्खुदंसणावरणे खीणे अचक्खुदसणावरणे खीणे ओहिदसणावरणे खीणे केवलदसणावरणे खीणे निदा खीणे णिदाणिदा खीणे पयला खीणे पयलापयला खीणे थीणद्धी खीणे सायावेयणिजे खीणे असायावेयणिजे खीणे देसणमोहणिजे खीणे चरित्तमोहणिजे खीणे नेरइआउए खीणे तिरिआउए खीणे मणुस्साउए खीण देवाउए खीणे उच्चागोए खीणे निधागोए खीणे सुमणामे खीणे असुभणामे खीणे दाणतराए खीणे लाभंतराए खीणे भोगांतराए खीणे
प्रत अनुक्रम [६४-९९]
4-04-04-RAJAST
HEASE
SAREaratinian
Purwanasaram.org
मोहनीय-स्थानानाम् त्रिंशत् भेदानाम् व्याख्याः
~121
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत सूत्रांक
[३१]
प्रत
अनुक्रम
[१००
-१०१]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [३१]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [३९], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
Ja Eucator
उवभोगं तराए खीणे वीरिअंतराए ३१, मंदरे णं पव्वए धरणितले एक्कतीसं जोयणसहस्साइं छच्चैव तेवी से जोयणसए किंचिदेसूणा परिक्खेवेणं प०, जया णं सूरिए सब्बधाहिरियं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरह तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स एक्तीसाए जोयणसहस्सेहिं अहि अ एकतीसेहिं जोयणसएहिं तीसाए सद्विभागे जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फास हव्वमागच्छइ, अभिवडिए णं मासे एक्कतीसं सातिरेगाई राईदियाई राईदियग्गेणं प०, आइचे णं मासे एकतीसं राईदियाई किंचि विसेसूणाई राईदियमेणं प०, इमीसे णं रथणप्पभाए पुढवीए अत्थेगइयाणं नेरयाणं एकतीसं पलिओदमाई ठिई प०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं एकतीसं सागरोबभाई टिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्येगइयाणं एकतीसं पलिओ माई ठिई प०, सोहम्मीसाणे कप्पे अत्येगइयाणं देवाणं एकतीसं पलिओ माई ठिई प०, विजयवेजयंतजयंतअपराजिआणं देवाणं जहणणेणं एकतीसं पलिओ माई ठिई प०, जे देवा उवरिमउवरिमगेवे जयविमाणेसु देवत्ताए उबवण्णा तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरो माई ठिई प०, ते णं देवा एकतीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा निस्ससंति वा, तेसि णं देवाणं एक्कतीसं वाससहस्सेहिं आहार समुप्पाद, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे एकतीसेहिं भवन्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुज्झित्संति मुच्चिस्संति परिनिव्वाइस्संति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ३१ ॥
एकत्रिंशत्तमं स्थानकं सुगमं, नवरं सिद्धानामादौ सिद्धत्वप्रथमसमय एव गुणाः सिद्धादिगुणाः, ते चाभिनित्रोधिकावरणादिक्षय स्वरूपा इति । मन्दरो मेरुः, स च धरणीतले दशसहस्रविष्कम्भ इतिकृत्वा यथोक्तपरिधिप्रमाणो भवतीति ।
For Parts Only
~122~
rary.org
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३१], ------------------------- ----- मूल [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
वायाध्य
सूत्राक
[३१]
प्रत
श्रीसमवा-16"जया णं सूरिए" इत्यादि, किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिक मण्डलशतं भवति, मण्डलं च ज्योतिष्कमार्गोऽभिधीयते, यांगे तत्र जम्बूद्वीपस्थान्तः अशीत्यधिके योजनशते पञ्चषष्टिः सूर्यमण्डलानि भवन्ति, तथा लवणसमुद्रे त्रीणि त्रिंशदधिकानि श्रीअभय
योजनशतान्यवगाबैकोनविंशत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र सर्वबाह्य-समुद्रान्तर्गतमण्डलानां पर्यन्तिम, तस्य इतिः
|चायामविष्कम्भो लक्षं षट् शतानि च योजनानां षष्टयधिकानि, परिधिस्तु वृत्तक्षेत्रगणितन्यायेन त्रीणि लक्षाणि ॥५६॥
अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि ३१८३१५, एतावत्क्षेत्रमादित्योहोरात्रद्वयेन गच्छति, तत्र च पष्टिमुहूर्ता भवन्तीति षष्ठया भागापहारे यलब्धं तन्मुहूर्तगम्यक्षेत्रप्रमाणं भवति, तच पञ्च सहस्राणि त्रीणि च पञ्चोत्त
राणि शतानि पञ्चदश योजनषष्टिभागाः ५३०५।१५, एतच दिवसाठून गुण्यते, यदा च सर्वबाये मण्डले सूर्यश्वरति मतदा दिनप्रमाणं द्वादश मुहर्ताः, तदद्धं च पद, अतः पभिर्मुहत्तर्गुणितं मुहूर्तगतिप्रमाणं चक्षुःस्पर्शगतिप्रमाण
भवति, तत्र एकत्रिंशत्सहस्राणि अष्टौ च शतान्येकत्रिंशदधिकानि त्रिंशच योजनपष्टिभागाः ३१८३१॥३५ अ-15 Bाभिर्द्धितमासः-अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य चतुश्चत्वारिंशदहोरात्रद्विषष्टिभागाधिकन्यशीत्यधिकशतत्रयरूपस्य ३८३५
द्वादशो भागः, अभिवर्द्धितसंवत्सरचासौ यत्राधिकमासको भवति, तत्र त्रयोदशचन्द्रमासात्मकत्याचन्द्रमासश्च एकोनत्रिंशता दिनानां द्वात्रिंशता च दिनद्विषष्टिभागानां भवतीति, 'साइरेगाई ति अहोरात्रस्य चतुर्विशत्युत्तर-| शतभागानामेकविंशत्युत्तरशतेनाधिकानीति, आदित्यमासो येन कालेनादित्यो राशि भुते 'किंचिबिसेसूणाई' ति
अनुक्रम [१००-१०१]
irat-k
॥५६॥
~123~
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३१], -------------------------------- मूल [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[३१]
CASSACROCRACK
अहोरात्रार्द्धन न्यूनानीति ॥ ३१ ॥
बत्तीसं जोगसंगहा प०, तंजहा-आलोयण १ निरवलावे २, आवईसु दढधम्मया ३ । अणिस्सिओबहाणे ४ य, सिक्खा ५ निप्पडिकम्मया ६ ॥१॥ अण्णायया अलोभे ८ य, तितिक्खा ९ अजवे १० सुई ११ । सम्मदिट्टी १२ समाही १३ य, आयारे १४ विणओवए १५ ॥२॥ थिईमई १६ य संवेगे १७, पणिही १८ सुविहि १९ संवरे २० । अत्तदोसोवसंहारे २१, सन्चकामविरत्तया २२ ॥ ३॥ पञ्चक्खाणे २३-२४ विउस्सग्गे २५, अप्पमादे २६ लवालवे २७ । झाणसंवरजोगे २८ य, उदए मारणतिए २९ ॥४॥ संगाणं च परिण्णाया ३०, पायच्छित्तकरणेऽवि य ३१ । आराहणा य मरणंते ३२, बत्तीसं जोगसंगहा ॥ ५॥ बत्तीस देविंदा प० त०-चमरे चली धरणे भूआणंदे जाव पोसे महाघोसे चंदे सूरे सके ईसाणे सणकुमारे जाव पाणए अधुए, कुंथुस्स णं अरहओ बत्तीसहिया बत्तीसं जिणसया होत्था, सोहम्मे कप्पे बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा णं प०, रेवइणक्खत्ते यत्तीसइतारे प०, बत्तीसतिविहे पट्टे प०, इमीसे णं रयणपभाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं बत्तीस पलिओक्माई ठिई ५०, अहेसत्तमाए पुढवीए अत्यंगइयाणं नेरइयाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिई प०, असुरकुमाराणं देवाणं अत्थेगइयाणं बत्तीस पलिओवमाई ठिई प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवाणं अत्यंगइयाणं बत्तीस पलिओवमाई ठिई प०, जे देवा विजयवेजयन्तजयन्तअपराजियविमाणेसु देवताए उववण्णा तेसि णं देवाणं अत्यंगइयाणं पत्तीस सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा बत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमति वा उस्ससंति वा नीससंति वा, तेसि णं देवाणं बचीसवाससहस्सेहिं
प्रत
अनुक्रम [१००-१०१]
-
-
MER
Homurary.om
~124~
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३२]. ------------------------------------ मुलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय
चिः
SALA
३२ समबायाध्य.
[३२]
गाथा:
आहारवे समुपजद, संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे बत्तीसाए भवग्गहणेहिं सिज्झिस्संति बुझिस्संति मुचिस्संति परिनिव्वाइसंति सव्वदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ३२ ॥ द्वात्रिंशतं स्थानकमपि व्यक्तं, नवरं युज्यन्ते इति योगा:-मनोवाकायब्यापाराः ते चेह प्रशस्ता एव विवक्षितास्तेषां शिष्याचार्यगतानामालोचनानिरपलापादिना प्रकारेण सञ्चहणानि सङ्ग्रहाः प्रशस्तयोगसंग्रहाः प्रशस्तयोगसङ्ग्रहनिमित्तत्वादालोचनादय एव तथोच्यन्ते, ते च द्वात्रिंशद्भवन्ति, तदुपदर्शकं श्लोकपञ्चकं 'आलोयणे' त्यादि, अस्व गमनिका-तत्र आलोयण'त्ति मोक्षसाधनयोगसङ्ग्रहाय शिष्येणाचार्यायालोचना दातव्या १ 'निरवलावे'त्ति आचार्योऽपि | मोक्षसाधकयोगसङ्ग्रहायैव दत्तायामालोचनायां निरपलापः स्यात् , नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः २, 'आवईसु दढधम्मय'|ति प्रशस्तयोगसङ्ग्रहाय साधुनाऽऽपत्सु-द्रव्यादिभेदासु दृढधर्मता कार्या, सुतरां तासु दृढधर्मिणा भाव्यमित्यर्थः ३, |'अणिस्सिओवहाणे यत्ति शुभयोगसङ्ग्रहायैवानिश्रितं च-तदन्यनिरपेक्षमुपधानं च-तपोऽनिश्रितोपधानं परसा-18. हाय्यानपेक्षं तपो विधेयमित्यर्थः ४, 'सिक्ख'त्ति योगसङ्ग्रहाय शिक्षाऽऽसेवितव्या, सा च सूत्रार्थग्रहणरूपा प्रत्युपेक्षा-1 द्यासेवनात्मिका चेति द्विधा, ५, 'निप्पडिकम्मय'त्ति तथैव निष्प्रतिकर्मता शरीरस्य विधेया ६ ॥१॥'अण्णायय-12 त्ति तपसोऽज्ञातता कार्या, यशःपूजाधर्थित्वेनाप्रकाशयद्भिस्तपः कार्यमित्यर्थः ७, 'अलोमे यत्ति अलोभता विधिया ८, 'तितिक्ख'त्ति तितिक्षा परीषहादिजयः९, 'अजवें'त्ति आर्जयः-ऋजुभावः १०, 'सुइ'त्ति शुचिः सत्यं संयम
प्रत अनुक्रम [१०२-१०८]
॥५७॥
SAREnaturalMona
'योग' शब्दस्य व्याख्या एवं द्वात्रिंशत 'योगसंग्रहानाम्' व्याख्याः
~125
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[३२]
गाथा:
प्रत
अनुक्रम [१०२
-१०८]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [३२]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [३२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
इत्यर्थः ११ 'सम्मदिद्वि' त्ति सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दर्शनशुद्धिः १२, 'समाही य'त्ति समाधिश्व - चेतःखास्थ्यं १३, 'आयारे विणओवएत्ति द्वारद्वयं तत्राचारोपगतः स्यात् न मायां कुर्यादित्यर्थः १४, विनयोपगतो भवेत् न मानं कुर्या - दित्यर्थः १५ ॥ २ ॥ 'धिइमई यति धृतिप्रधाना मतिर्धृतिमतिः- अदैन्यं १६ 'संवेगो' त्ति संवेगः - संसाराद्भयं मोक्षाभिलाषो वा १७ 'पणिहित्ति प्रणिधिः- मायाशल्यं न कार्यमित्यर्थः १८ 'सुविहि' त्ति' सुविहि' सदनुष्ठानं १९ सं वरश्च - आश्रवनिरोधः २० 'अत्तदोसोवसंहारे' त्ति खकीयदोषस्य निरोधः २१ 'सव्वकामविरत्तय'त्ति समस्त विषयवैमुख्यं | २२|| ३ || 'पच्चक्खाणे'त्ति प्रत्याख्यानं मूलगुणविषयं २३ उत्तरगुणविषयं च २४ 'विउस्सग्गे 'त्ति व्युत्सगों द्रव्यभाव| भेदभिन्नः २५ 'अप्पमाए'त्ति प्रमादवर्जनं २६ 'लवालये चि कालोपलक्षणं तेन क्षणे क्षणे सामाचार्य्यनुष्ठानं कार्य २७ 'झाणसंवरजोगे'त्ति ध्यानमेव संवरयोगो ध्यानसंवरयोगः २८ 'उदए मारणंतिए'त्ति मारणान्तिकेऽपि वेदनोदये न क्षोभः कार्यः २९॥४॥ 'संगाणं च परिण्णाय' त्ति सङ्गानां च ज्ञपरिज्ञाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभेदभिन्ना परिज्ञा कार्या ३० 'पायच्छित्तकरणे' इति प्रायश्चित्तकरणं च कार्य ३१ 'आराहणा य मरणंते'त्ति आराधना 'मरणान्ते' मरणरूपोऽन्तो मरणान्तस्तत्रेत्येते द्वात्रिंशद्योगसङ्ग्रहा इति ३२ ॥ ५ ॥ इन्द्रसूत्रे यावत्करणात् "वेणुदेवे वेणुदाली हरिकंते हरिस्सहे अग्गिसीहे अग्गिमाणवे पुण्णे वसिट्ठे जलकंते जलप्पहे अभियगई अभियवाहणे वेलंबे पहंजणे” इति दृश्यं, पुनः यावत्करणात् " माहिंदे मे लंतए सुके सहस्सारे "त्ति द्रष्टव्यं इह च पोडशानां व्यन्तरेन्द्राणां पोडशा
'योग' शब्दस्य व्याख्या एवं द्वात्रिंशत 'योगसंग्रहानाम् व्याख्या:
For Parata Use Only
~126~
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३२], ------------------------------------ मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीसमवा- यांग
[३२]
वृत्तिः ॥५॥
गाथा:
प्रत अनुक्रम [१०२-१०८]
नामेव चाणपण्णीकादीन्द्राणामल्पर्द्धिकत्वेनाविवक्षितत्वादसङ्ख्यातानामपि चंद्रसूर्याणां जातिग्रहणेन द्वयो-13|३३ समखे विवक्षितत्वावात्रिंशदुक्ता इति, कुन्थुनाथस्य द्वात्रिंशदधिकानि द्वात्रिंशत् केवलिशतान्यभूवन, द्वात्रिंशद्विधं वायाध्य. नाट्यमभिनयविषयवस्तुभेदाद्यथा राजप्रश्नकृताभिधानद्वितीयोपाङ्ग इति सम्भाव्यते, द्वात्रिंशत्पात्रप्रतिबद्धमिति केचित् ॥ ३२ ॥ तेत्तीसं आसायणाओ प०, ०-सेहे राइणियस्स आसन्नं गता भवइ आसायणा सेहस्स १ सेहे राइणियस्स पुरओ गंता भवइ आसायणा सेहस्स २ सेहे राइणियस्स सपक्खं गंता भवइ आसायणा सेहस्स ३ सेहे राइणियस्स आसन्नं ठिचा भवद आसायणा सेहस्स ४ जाव सेहे राइणिवस्स आलबमाणस्स तस्थगए चेव पडिसुणित्ता भवइ आसायणा सेहस्स ३३ । चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए एकमेकबाराए तेत्तीस तेत्तीस भोमा प०, महाविदेहे णं वासे तेत्तीसं जोयणसहस्साई साइरेगाई विक्खंभेणं प०, जया णं सूरिए बाहिराणतरं तचं मंडलं उवसंकमित्ताणं चार चरइ तया णं इहगयस्स पुरिसस्स तचीसाए जोयणसहस्सेहिं किंचिविसेसूणेहि चक्खुप्फासं हन्दमागच्छद, इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए अत्गइयाणं नेरयाणं तेत्तीस पलिओवमाई ठिई (५०), अहेसत्तमाए पुढवीए कालमहाकालरोरुयमहारोरुएसु नेरइयाणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई (प०), अप्पइट्ठाणनरए नेरझ्याण अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई ५०, असुरकुमाराणं अत्यंगइयाणं देवाणं तेचीस पलिओवमाई ठिई ५०, सोहम्मीसाणेसु अत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं पलिओवमाई ठिई ५०, विजयवेजवन्तजयंतअपराजिएसु
~127~
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३३], ------------------------------------ मल [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[३३]
विमाणेसु उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई प०, जे देवा सव्वदृसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववण्णा तेसि णं देवाणं अजहण्णमणुकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई ठिई प०, ते णं देवा तेत्तीसाए अद्धमासेहिं आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससति वा निस्स
संति वा, तेसि णं देवाणं तेत्तीसाए वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पाइ, संतेगइया भवसिद्धिया जीवाजे तेत्तीस भवग्गहणेहिं सि| झिस्संति बुझिस्संलि मुचिस्संति सम्बदुक्खाणमंतं करिस्संति ॥ सूत्रं ३३ ।।
अथ त्रयविंशत्तमं स्थानकं, तत्र आयः-सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातनाः-खण्डनं निरुक्तादाशातनाः, तत्र शैक्षः-अल्पपर्यायो रानिकस्य-बहुपर्यायस्य आसन्नं-आसत्त्या यथा रजोऽञ्चलादिस्तस्य लगति तथा गन्ता भवती| त्येवमाशातना शैक्षस्वेत्येवं सर्वत्र, 'पुरओ'त्ति अग्रतो गन्ता भवति, 'सपक्ख'न्ति समानपक्ष-समपार्श्व यथा भवति समश्रेण्या गच्छतीत्यर्थः, 'ठिचत्ति स्थाता-आसीनो भवति, यावत्करणादशाश्रुतस्कन्धानुसारेणान्या इह द्रष्टव्याः, ताश्चैवमर्थतः-आसन्नं पुरः पार्थतः स्थानेन तिस्रोऽत्र निषीदनेन च तिस्रः तथा विचारभूमौ गतयोः पूर्वतरमाचमतः शैक्षस्याशातना १० एवं पूर्व गमनागमनमालोचयतः ११ तथा रात्री को जागतीति पृष्टे रात्रिकेन तद्वचनमप्रतिशृषवतः १२ रानिकस्य पूर्वमालपनीयं कंचन अवमस्य पूर्वतरमालपतः १३ अशनादि लब्धमपरस्य पूर्वमालोचयतः १४ एवमन्यस्योपदर्शयतः १५ एवं निमन्त्रयतः १६ रात्विकमनापृच्छयान्यस्मै भक्कादि ददतः १७ वयं प्रधानतरं| भुजानस्य १८ क्वचित् प्रयोजने व्याहरतो रात्रिकस्य वचोऽप्रतिशृण्वतः १९ रात्रिकं प्रति तत्समक्षं वा बृहता
प्रत
अनुक्रम [१०९]
SAMEmirathiml
त्रयस्त्रिंशत-आशातनाया: व्याख्या:
~128~
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३३], ------------------------- ----- मूल [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३३]
श्रीसमवा- शब्देन बहुधा भाषमाणस्य २० व्याहतेन मस्तकेन वन्दे इति वक्तव्ये किं भणसीति बुवाणस्य २१ प्रेरयति राबिके |३३ सम
यांग कस्त्वं प्रेरणायामिति बदतः २२ आर्य! ग्लानं किंन प्रतिचरसीत्याधुक्ते त्वं किं न तं प्रतिचरसीत्यादि भणतः २३ श्रीअभय०|
दधर्म कथयति गुरावन्यमनस्कतां भजतोऽननुमोदयत इत्यर्थः २४ कथयति गुरौ न स्परसीति वदतः २५ धर्मकथाबुतिः
माच्छिन्दतः २६ भिक्षावेला वर्त्तते इत्यादिवचनतः पर्षदं भिन्दानस्य २७ गुरुपर्षदोऽनुत्थितायास्तथैव व्यवस्थि॥५९॥ ताया धर्म कथयतः २८ गुरोः संस्तारकं पादेन घट्टयतः २९ गुरुसंस्तारके निषीदतः ३० उच्चासने निषीदतः ३१ दिसमासनेऽप्येवं ३२ प्रयस्त्रिंशत्तमा सूत्रोक्तव, रालिकस्यालपतस्तत्रगत एव-आसनादिस्थित एक प्रतिशृणोति, आगत्य
हि प्रत्युत्तरं देयमिति शैक्षस्याशातनेति ३३ । 'तेत्तीसं तेत्तीसं भोम'त्ति भौमानि-नगराकाराणि, विशिष्ट स्थानानीकासन्ये, तथा 'जया णं सूरिए' इत्यादि, इह सूर्यस्य मण्डलयोरन्तरे द्वे द्वे योजनेऽष्टचत्वारिंशचैकषष्टिभागाः, एतति18|गुणं पच योजनानि पञ्चत्रिंशकषष्टिभागाः, एतावता हीनविष्कम्भ सर्वबाघमण्डलाद्वितीयं मण्डलं भवति, ततश्च
वृत्तक्षेत्रपरिधिगणितन्यायेन परिधितः सप्तदशभिर्योजनैरष्टत्रिंशता चैकपष्टिभागन्यूनं द्वितीयमण्डलं सर्ववाबमण्डला-18| द्रवति, एवं तृतीयमण्डले एतद्द्विगुणेन हीनं भवति, तथाहि-तद्विष्कम्भस्तत एकादशभिर्योजनैनवभिश्चैकषष्टिभागैः प-11
॥ ५९॥ यन्तिमाद्धीनं भवति, परिधितस्तु पश्चत्रिंशता योजनैः पञ्चदशभिश्चैकपष्टिभागनं भवति, तच त्रीणि लक्षाणि अष्टा-II ४ दश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्युत्तरे षट्चत्वारिंशचैकषष्टिभागा इति, तथा अन्तिममण्डलान्मण्डले मण्डले द्वाभ्यां
प्रत अनुक्रम [१०९]
126
त्रयस्त्रिंशत-आशातनाया: व्याख्या:
~129
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३३], ------------------------------------ मुलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
2-१.pdfFM.A
सुत्रांक
[३३]
मुहूर्तस्यैकषष्टिभागाभ्यां दिनवृद्धिर्भवति, तथा च तृतीये मण्डले यदा सूर्यश्चरति तदा द्वादश मुहूर्त्ताश्चत्वारश्चैकपष्टिभागा मुहूर्तस्य दिनप्रमाणं भवति, तदद्धे चैकषष्टिभागीकृतेनाष्टषष्टयधिकशतत्रयलक्षणेन, स्थूलगणितस्य विवक्षितत्वात् परित्यक्तांशाः ३१८२७९ । तृतीयमण्डलपरिधी गुणिते सति एकपष्टया च षष्टिगुणितया भागे हते यल्लभ्यते
तत्तृतीयमण्डले चक्षुःस्पर्शप्रमाणं भवति, तब द्वात्रिंशत्सहस्राण्येकोत्तराणि ३२००१ अंशानामेकषष्टया भागे तहते लब्धाश्चैकोनपञ्चाशत्पष्टिभागा योजनस्य त्रयोविंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनषष्टिभागस्य ३३ एतत्तृती
यमण्डले चक्षुःस्पर्शस्य प्रमाणं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्यामुपलभ्यते, इह तु यदुक्तं त्रयस्त्रिंशत्किश्चिन्यूना, तत्र सातिरेकयोजनस्यापि न्यूनसहस्रता विवक्षितेति सम्भाव्यते, पञ्चदश मण्डले पुनरिदं यथोक्तमेव प्रमाणं भवति, प्रतिमण्डलं योजनस्य चतुरशीयाः साधिकायाः प्रथममण्डलमाने प्रक्षेपणादिति ॥ ३३ ॥
चोतीस बुद्धाइसेसा प०, तं०-अवढिए केसमंसुरोमनहे १ निरामया निवलेवा गायलट्ठी १ गोक्खीरपंडुरे मंससोणिए ३ पउमुप्पलगंधिए उस्सासनिस्सासे ४ पच्छन्ने आहारनीहारे अदिस्से मंस चक्खुणा ५ आगासगयं चकं ६ आगासगवं छत्तं ७ आगासगयाओ सेयवरचामराओ ८ आगासफालिआमयं सपायपीढं सीहासणं ९ आगासगओ कुडभीसहस्सपरिमंडिआभिरामो इंदज्झओ पुरओ गच्छद १० जत्थ जत्यवि य णं अरहंता भगवन्तो चिट्ठति वा निसीयंति वा तत्थ तत्थवि य णं जक्खा देवा संछन्नपत्तयुप्फपल्लवसमाउलो सच्छत्तो सज्झओ सघंटो सपडागो असोगवरपायवो अभिसंजायइ ११ ईसि पिट्ठओ मउडठाणमि तेयमंडलं
.
प्रत
अनुक्रम [१०९]
~130~
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[३४]
प्रत
अनुक्रम [११०]
समवाय [३४], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे
श्रीअभय वृत्तिः
॥ ६० ॥
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [३४]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Educatan Internation
- अभिसंजाय अंधकारेवि य णं दस दिसाओ पभासेइ १२ बहुसमरमणि भूमिभागे १३ अहोसिरा कंटया जायंति १५ उऊविवरीया सुहफासा भवंति १५ सीयलेणं सुहफासेणं सुरभिणा मारुएणं जोयणपरिमंडल सन्चओ समता संपमचिज १६ जुत्तफुसिएणं मेहेण य नियरयरेणूयं किजइ १७ जलथलयभासुरपभूतेणं बिटट्टाइणा दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं जाणुस्सेद्दप्पमाणमिते पुप्फोवयारे किजइ १८ अमणुण्णाणं सदफरिसरसरूवगंधाणं अवकरिसो भवइ १९ मणुण्णाणं सदफरिसर सरूपगंधाणं पाउन्भावो भवइ २० पचाहरओवि य णं हिययगमणीओ जोयणनीहारी सरो २१ भगवं च णं अद्धमागहीए भासा धम्ममाइक्खर २२ साबि य णं अद्धमागही भासा भासिजमाणी तेसिं सवेसिं आरियमणारियाणं दुप्पयचउप्पअमियपसुपक्खिसरीसिवाणं अप्पणी हियसिवसुहयभासताए परिणमइ २३ पुञ्चबद्धवेरावि यणं देवासुरनागसुवण्णजक्खरक्खसकिंनर किंपुरिसग रुल गंधव्यमहोरगा अरहओ पायमूले पसंतचित्तमाणसा धम्मं निसामंत २४ अण्णउत्थियपावयणियावि य णभागया वंदति २५ आगया समाणा अरहओ पायमूले निप्पलिवयणा हवंति २६ जओ जओवि य णं अरहंतो भगवंतो विहरंति तभ तओवि य णं जोयणपणवीसाएणं ईती न भवइ २१ मारी न भवइ २८ सचक्कं न भवइ २९ परचकं न भवइ ३० अइबुट्टी न भवइ ३१ अणावुट्टी न भवइ ३२ दुभिक्खं न भवइ ३३ पुप्पण्णावि य णं उप्पाइया वाही खिष्पमिव उवसमंति ३४ जंबुद्दीवे णं दीवे चडत्तीसं चक्कवट्टिविजया प० ० बत्तीसं महाविदेहे दो मरहे एखए, जंबुद्दीवे णं दीवे चोचीसं दीहवेयडा प०, जंबुद्दीवे णं दीवे उक्कोसयए चोत्तीसं तिथंकरा समुप्पजंति, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो चोत्तीसं भवणावाससयसहस्सा प०, पढमपंचमछट्टीसत्तमासु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरयावाससय सहस्सा प० ॥ सूत्रं ३४ ॥
For Pasta Use Only
~ 131~
३४ सम वायाध्य.
॥ ६० ॥
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३४], ------------------------- ----- मूल [३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[३४]
अथ चतविंशत्तमस्थानके किमपि लिख्यते-'बुद्धाइसेस' ति बुद्धानां-तीर्थकृतामतिशेषाः-अतिशया बुद्धातिशेषाः, अवस्थित-अवृद्धिखभावं केशाश्व-शिरोजाः श्मश्रूणि च कूर्चरोमाणि रोमाणि च-शेषशरीरलोमानि नखाश्च प्रतीता इति । द्वन्द्वैकत्वमित्येकः १ निरामया-नीरोगा निरुपलेपा-निर्मला गात्रयष्टिः-तनुलतेति द्वितीयः २ गोक्षीरपाण्डुरं मांसशोणितमिति तृतीयः ३ तथा पनं च-कमलं [च] गन्धद्रव्यविशेषो वा यत्पद्मकमिति रूढं उत्पलं च-नीलोत्पलमुत्पलकुछ वा गन्धद्रव्यविशेषस्तयोर्यो गन्धः स यत्रास्ति तत्तथोच्छ्वासनिश्वासमिति चतुर्थः ४ प्रच्छन्नमाहारनीहारंॐ अभ्यवहरणमूत्रपुरीपोत्सगौं, प्रच्छन्नत्यमेव स्फुटतरमाह-अदृश्यं मांसचक्षुपा न पुनरवध्यादिलोचनेन पुंसा इति
पञ्चमं ५ एतच द्वितीयादिकमतिशयचतुष्कं जन्मप्रत्ययं । तथा 'आगासगर्य'ति आकाशगतं-व्योमवर्ति आका
शगतं (क) वा-प्रकाशमित्यर्थः, चक्र-धर्मचक्रमिति षष्ठः ६ एवमाकाशगं छत्रं छत्रत्रयमित्यर्थ इति सप्तमः ७ आकाकाशके-प्रकाशे श्वेतवरचामरे प्रकीर्णके इत्यष्टमः ८ 'आगासफालिआमय'त्ति आकाशमिय यदत्यन्तमच्छं स्फटिकर
तन्मयं सिंहासनं सह पादपीठेन सपादपीठमिति नवमः ९ 'आगासगओं'त्ति आकाशगतोऽत्यर्थं तुङ्ग इत्यर्थः 'कुडभि'दति लघुपताकाः संभाव्यन्ते ताभिः परिमण्डितश्चासावभिरामश्च-अभिरमणीय इति विग्रहः 'इंदज्झओं' त्ति शेषध्व
जापेक्षयाऽतिमहत्त्वादिन्द्रश्चासौ ध्वजश्च इन्द्रध्वज इति विग्रहः, इन्द्रत्वसूचको ध्वज इति वा 'पुरओं' ति जिनस्वातो गच्छतीति दशमः १० 'चिट्ठन्ति वा निसीयन्ति वत्ति तिष्ठन्ति गतिनिवृत्त्या निषीदन्ति-उपविशन्ति 'तक्ख
प्रत
अनुक्रम [११०]
winarainrary.org
तीर्थकरस्य चतुस्त्रिंशत-अतिशया:
~1324
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३४], ------------------------------------ मुलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[३४]
प्रत
श्रीसमवा-दणादेव'त्ति तत्क्षणमेव अकालहीनमित्यर्थः, पत्रैः संछन्नः पत्रसंछन्नः पत्रसंछन्न इति वक्तव्ये प्राकृतत्वात् संछन्नपत्र इत्युक्त |३४ समयांग स चासौ पुष्पपल्लवसमाकुलश्चेति विग्रहः, पल्लषाः-अङ्कराः, सच्छत्रः सध्वजः सघण्टः सपताकोऽशोकवरपादप इत्ये- वायाध्य.
कादशः ११'ईसि' ति ईषद्-अल्पं 'पिट्टओ'त्ति पृष्ठतः पश्चाद्भागे 'मउडठाणमिति मस्तकप्रदेशे तेजोमण्डलं-प्रभाफ-12 वृतिः ।
टलमिति द्वादशः १२ बहुसमरमणीयो भूमिभाग इति त्रयोदशः १३ 'अहोसिर'त्ति अधोमुखाः कण्टका भवन्तीति ॥६१॥
| चतुर्दशः १४ ऋतबोऽविपरीताः कथमित्याह-सुखस्पर्शा भवन्तीति पञ्चदशः १५ योजनं यावत् क्षेत्रशुद्धिः संवतकवातेनेति षोडशः १६ जुत्तफुसिएणं'ति उचितविन्दुपातेन 'निहयरयरेणुय'ति बातोत्खातमाकाशवर्ति रजो भूवर्ती तु रेणुरिति गन्धोदकवर्षाभिधानः ससदशः १७ जलस्थलजं यद्भाखरं प्रभूतं च कुसुमं तेन वृन्तस्थायिना-ऊद्धेमुखेन । दशार्द्धवर्णेन-पञ्चवर्णेन जानुनोरुत्सेधस्य-उच्चत्वस्य यत्प्रमाणं तदेव प्रमाणं यस्य स जानूत्सेधप्रमाणमात्रः पुष्पोप|चार:-पुष्पप्रकर इत्यष्टादशः १८ तथा 'कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमघंतगन्धुद्धयाभिराम भवई' चि का-या
लागुरुश्च-गन्धद्रव्यविशेषः प्रवरकुन्दुरुकं च-चीडाभिधानं गन्धद्रव्यं तुरुकं च-शिल्हकाभिधानं गन्धद्रव्यमिति द्वन्द्व18स्तत एतलक्षणो यो धूपस्तस्य मघमघायमानो-बहुलसौरभ्यो यो गन्ध उद्धतः-उद्भतस्तेनाभिराम-अभिरमणीय | SIMom दायत्तत्तथा स्थानं-निषीदनस्थानमिति प्रक्रम इत्येकोनविंशतितमः १९ तथा “उभयो पासिं च णं अरहताणं भगव
ताणं दुवे जक्खा कडयतुडियधभियभुया चामरुक्खेवणं करति"त्ति कटकानि-प्रकोष्ठाभरणविशेषाः त्रुटितानि
45-4-%A5%ाक
अनुक्रम [११०]
तीर्थकरस्य चतुस्त्रिंशत-अतिशया:
~133~
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३४], ------------------------- ----- मूल [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[३४]
बाह्याभरणविशेषाः तैरतिबहुत्वेन स्तम्भिताविव स्तम्भिती भुजी ययोस्ती तथा यक्षी-देवाविति विंशतितमः २०, वृहद्वाचनायामनन्तरोक्तमतिशयद्वयं नाधीयते, अतस्तस्यां पूर्वेऽष्टादशैव, अमनोज्ञानां शब्दादीनामपकर्षः-अभाव इत्येकोनविंशतितमः १९ मनोज्ञानां प्रादुर्भाव इति विंशतितमः २० 'पबाहरओ'त्ति प्रत्याहरतो-याकुर्वतो भगवतः 'हिययगमणीओ'त्ति हृदयङ्गमः 'जोयणनीहारी'ति योजनातिक्रमी खर इत्येकविंशः २१ 'अद्धमागहीए'त्ति प्राकृतादीनां पण्णां भाषाविशेषाणां मध्ये या मागधी नाम भाषा 'रसोर्लसौ मागध्या मित्यादिलक्षणवती सा अस-1 माश्रितखकीयसमग्रलक्षणाऽर्द्धमागधीत्युच्यते, तया धर्ममाख्याति, तस्या एवातिकोमलत्वादिति द्वाविंशः २२ 'भासिजमाणी'ति भगवताऽभिधीयमाना 'आरियमणारियाणं ति आर्यानार्यदेशोत्पन्नानां द्विपदा-मनुष्याश्चतुष्पदा-गवादयः 'मृगा'आटब्याः पशवों ग्राम्याः पक्षिणः प्रतीताः सरीसुपा-उरःपरिसप्पा भुजपरिसप्पाश्चेति, तेषां किम् ?-आत्मन आत्मनः-आत्मीयया आत्मीययेत्यर्थः भाषातया-भाषाभावेन परीणमतीति सम्बन्धः, किम्भूताऽसौ भाषा ? इत्याह-हितम्-अभ्युदयः शिव-मोक्षः सुख-श्रवणकालोद्भवमानन्दं ददातीति हितशिवसुखदेति । प्रयोविंशः २३ 'पूर्वबद्धवेरे'त्ति पूर्व-भवान्तरेऽनादिकाले वा जातिप्रत्ययं बढ़-निकाचितं वैरं-अमित्रभावो येषां ते तथा, तेऽपि चासतामन्ये देवा वैमानिका असुरा नागाश्च-भवनपतिविशेषाः सुवर्णाः-शोभनवर्णोपेतत्याज्योतिष्का यक्षराक्षसकिन्नराः किंपुरुषाः व्यन्तरभेदाः गरुडा-गरुडलाञ्छनत्वात् सुपर्णकुमारा भवनपतिविशेषाः, गन्धवों
प्रत
अनुक्रम [११०]
CRICA
REaratinimali
तीर्थकरस्य चतुस्त्रिंशत-अतिशया:
~134~
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३४], ------------------------------------ मुलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३४]
श्रीसमवा-18 महारगाश्च व्यन्तरविशेषा एव, एतेषा द्वन्द्वः, 'पसंतचित्तमाणसा' प्रशान्तानि-शमं गतानि चित्राणि-रागद्वेषाद्य-15 ३४ समयांगे दनिकषिधविकारयुक्ततया विविधानि मानसानि-अन्तःकरणानि येषां ते प्रशान्तचित्तमानसा धर्म निशमयन्ति इति | वायाध्य. श्रीअभय चतुर्विशः २४ बृहद्बाचनायामिदमन्यदतिशयद्वयमधीयते, यदुत-अन्यतीर्थिकप्रावचनिका अपि च णं वन्दन्ते भगववृत्तिः
तमिति गम्यते इति पञ्चविंशः २५ आगताः सन्तोऽर्हतः पादमूले निष्प्रतिवचना भवन्ति इति पड्विंशः २६ ॥६२॥ 'जओ जओऽवि य 'ति यत्र यत्रापि च देशे 'तओ तओंति तत्र तत्रापि च पञ्चविंशती योजनेषु ईतिः-धान्या
धुपद्रवकारी प्रचुरम्पकादिप्राणिगण इति सप्तविंशः २७ मारिः-जनमरक इत्यष्टाविंशः २८ वचक्रं-खकीयराजसैन्यं तदुपद्रवकारि न भवतीति एकोनत्रिंशः २९ एवं परचक्र-परराजसैन्यमिति त्रिंशः ३० अतिवृष्टिः-अधिकवर्ष इत्ये|कत्रिंशः ३१ अनावृष्टिः-वर्षणाभाव इति द्वात्रिंशः ३२ दुर्मिक्षं-दुष्काल इति त्रयस्त्रिंशः ३३ 'उप्पाइया वाहित्ति
उत्पाता:-अनिष्टसूचका रुधिरवृष्ट्यादयस्तद्धेतुका येऽनास्ते औत्पातिकास्तथा व्याधयो-ज्वराद्यास्तदुपशमः-अभाव है इति चतुर्विंशत्तमः ३४ । अन्यच 'पञ्चाहरओं इत आरभ्य येऽभिहितास्ते प्रभामण्डलं च कर्मक्षयकृताः, शेषा भवप्रत्ययेभ्योऽन्ये देवकृता इति, एते च यदन्यथापि दृश्यन्ते तन्मतान्तरमवगन्तव्यमिति । 'चकवविविजय'त्ति ||
६२॥ |चक्रवर्तिविजेतव्यानि क्षेत्रखण्डानि 'उकोसपए चोत्तीसं तित्थगरा समुष्पजंति'त्ति समुत्पद्यन्ते सम्भवन्तीत्यर्थः | न त्वेकसमये जायन्ते, चतुर्णामेवैकदा जन्मसम्भवात् , तथाहि-मेरी पूर्वापरशिलातलयो द्वे सिंहासने भवतोऽतो।
प्रत अनुक्रम [११०]
RSAMACHAR
SAMEniraunia
तीर्थकरस्य चतुस्त्रिंशत-अतिशया:
~135
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३४], -------------------------------- मूल [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[३४]
CACARRC
द्वौ द्वाववाभिषिच्यते अतो द्वयोयोरेव जन्मेति, दक्षिणोत्तरयोस्तु क्षेत्रयोस्तदानी दिवससद्भावात् न भरतैरावतयो-13 जिनोत्पत्तिरर्द्धरात्र एव जिनोत्पत्तेरिति, 'पढमे'त्यादि प्रथमायां पृथिव्यां त्रिंशन्नरकावासानां लक्षाणि, पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठया पञ्चोनं लक्षं सप्तम्यां पञ्च नरकाः, एवं सर्वमीलने चतुर्विंशलक्षाणि भवन्तीति ॥ ३४ ॥ पणतीसं सञ्चवयणाइसेसा प०, कुंथू णं अरहा पणतीसं धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्या, दत्ते णं वासुदेवे पणतीसं धणूई उहं उच्च
तेणं होत्या, नंदणे णं बलदेवे पणतीसं धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, सोहम्मे कप्पे सुहम्माए सभाए माणवए चेइयक्खंभे ना हेवा उवरिं च अद्धतेरस अद्धतेरस जोयणाणि वजेचा मज्झे पणतीस जोयणेसु वइरामएसु गोलबट्टसमुग्गएसु जिणसकहाओ
प०, वितियचउत्थीसु दोसु पुढवीसु पणतीसं निरयावाससयसहस्सा ५० ॥ सूत्र ३५॥
पञ्चत्रिंशत्तमस्थानकं सुगम, नवरं सत्यवचनातिशया आगमे न दृष्टाः, एते तु ग्रन्थान्तरदृष्टाः सम्भाविताः, वचनं हि गुणवद्वक्तव्यं, तद्यथा-संस्कारवत् १ उदात्तं २ उपचारोपेतं ३ गम्भीरशब्दं ४ अनुनादि ५ दक्षिणं ६|| उपनीतरागं ७ महा) ८ अव्याहतपौर्वापर्य ९ शिष्ट १० असन्दिग्धं ११ अपहृतान्योत्तरं १२ हृदयग्राहि १३ देशकालाव्यतीतं १४ तत्त्वानुरूपं १५ अप्रकीर्णप्रसृतं १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतं १७ अभिजातं १८ अतिस्निग्धमधुरं १९ अपरमर्मविद्धं २० अर्थधर्माभ्यासानपेतं २१ उदारं २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तं २३ उपगतश्लाघ २४ अनप-15 नीतं २५ उत्पादिताच्छिन्नकीतूहलं २६ अद्भुतं २७ अनतिविलम्बित २८ विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविमुक्तं २९/४
प्रत
255555AE%%*
अनुक्रम [११०]
Saintaintina
P
reitrary om
सत्य-वचनस्य पञ्चत्रिशत अतिशया;
~136~
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३५], ------------------------------------ मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
दृचिः
[३५]
श्रीसमवा-
अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्र ३० आहितविशेष ३१ साकारं ३२ सत्त्वपरिग्रह ३३ अपरिखेदितं ३४ अध्युच्छेदं ३५३५ सम
मन यांगे चेति वचनं महानुभावैर्बक्तव्यमिति, [तत्र संस्कारवत्त्वं-संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वं १ उदात्तत्वं-उच्चैवृत्तिता २ उपचा- वायाध्य. श्रीअभयारोपेतत्वं-अग्राम्यता ३ गम्भीरशब्दं मेघस्येव ४ अनुनादित्वं-प्रतिरवोपेतता ५ दक्षिणत्वं-सरलत्वं ६ उपनीतरा
आठ गत्वं-मालकोशादि ग्रामरागयुक्तता ७ एते सप्त शब्दापेक्षा अतिशयाः, अन्ये त्वर्थाश्रयाः, तत्र महार्थत्वं-वृहदभि-13
धेयता ८ अव्याहतपौर्वापर्यत्वं-पूर्वापरवाक्याविरोधः ९ शिष्टत्वं-अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थता वक्तः शिष्टतासूचकत्वं ॥६३॥
वा १० असन्दिग्धत्वं-असंशयकारिता ११ अपहृतान्योत्तरत्वं-परदूषणाविषयता १२ हृदयग्राहित्य-श्रोतृमनोह
रता १३ देशकालाव्यतीतत्व-प्रस्तावोचितता १४ तत्त्वानुरूपत्वं-विवक्षितवस्तुखरूपानुसारिता १५ अप्रकीर्णप्रस-17 || तत्व-सुसम्बन्धस्य सतः प्रसरणं अथवाऽसम्बन्धानधिकारित्वातिविस्तरयोरभावः १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वं-पर-18
स्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता १७ अभिजातत्वं-वक्तुः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकानुसारिता १८ अतिस्निग्धमधुरत्वं-अमृतगुडादिवत् सुखकारित्वं १९ अपरममवेधित्व-परमानुघट्टनखरूपत्वं २० अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वंअर्थधर्मप्रतिबद्धत्वं २१ उदारत्वं-अभिधेयार्थस्वातुच्छत्वं गुम्फगुणविशेषो वा २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वमिति | प्रतीतमेव २३ उपगतश्लाघत्वं-उक्तगुणयोगात्प्राप्तश्लाघता २४ अनपनीतत्व-कारककालवचनलिङ्गादिव्यत्ययरूप-18 वचनदोषापेतता २५ उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्वं-खविषये श्रोतणां जनितमविच्छिन्नं कौतुकं येन तत्तथा तद्भा
प्रत अनुक्रम [१११]
यतत्वमिति
॥६३॥
Hreturasurary.org
सत्य-वचनस्य पञ्चत्रिंशत अतिशया: / लक्षणा:
~137~
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३५], ------------------------------------ मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३५]
वस्तत्त्वं २६ अद्भुतत्वं-अनतिविलम्बितत्वं च प्रतीतं २७-२८ विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविमुक्तत्व-विभ्रमो-वक्तृमनसो भ्रान्तता विक्षेपः-तस्यैवाभिधेयार्थ प्रत्यनासक्तता किलिकिञ्चितं-रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपदा सकृत्करणमादिशब्दान्मनोदोपान्तरपरिग्रहस्तैर्विमुक्तं यत्तत्तथा तद्धावस्तत्त्वं २९ अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वं, इह जातयो वर्णनीयवस्तुरूपवर्णनानि ३० आहितविशेषत्वं-वचनान्तरापेक्षया ढौकितविशेषता ३१ साकारत्वं-| विच्छिन्नवर्णपदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तत्वं ३२ सत्त्वपरिगृहीतत्वं-साहसोपेतता ३३ अपरिखेदितत्वं-अनायाससम्भवः |३४ अव्युच्छेदित्य-विवक्षितार्थानां सम्यसिद्धिं यावदनवच्छिन्नवचनप्रमेयतेति ३५] तथा दत्तः-सप्तमवासुदेवः न-18 न्दनः-सप्तमबलदेवः, एतयोचावश्यकाभिप्रायेण षइविंशतिर्धनुषामुञ्चत्वं भवति, सुबोधं च तत् , यतोऽरनाथमल्लिखामिनोरन्तरे तापभिहिती, यतोऽवाचि-"अरमल्लिअंतरे दोणि केसवा पुरिसपुंडरीय दत्त"त्ति, अरनाथमल्लिनाथियोश्च क्रमेण त्रिंशत्पञ्चविंशतिश्च धनुषामुच्चत्वं, एतदन्तरालवर्तिनोश्च वासुदेवयोः षष्ठसप्तमयोरेकोनत्रिंशत्पड्डि
शतिश्च धनुषां युज्यत इति, इहोक्ता तु पञ्चत्रिंशत् स्यात् यदि दत्तनन्दनौ कुन्थुनाथतीर्थकाले भवतो, न चैतदेवं 8 |जिनान्तरेष्वधीयत इति दुरवबोधमिदमिति । सौधर्मकल्पे सौधर्मावतंसकादिषु विमानेषु सर्वेषु पञ्च पञ्च सभा भIRIवन्ति-सुधर्मसभा १ उपपातसभा २ अभिषेकसभा ३ अलङ्कारसभा ४ व्यवसायसभा ५, तत्र सुधर्मसभामध्यभागे|
मणिपीठिकोपरि षष्टियोजनमानो माणवको नाम चैत्यस्तम्भोऽस्ति, तत्र 'वइरामएसुत्ति वज्रमयेषु तथा गोलवद्वृत्ता
प्रत अनुक्रम [१११]
सत्य-वचनस्य पञ्चत्रिशत अतिशया: / लक्षणा:
~138~
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३५], ----------------------------------- मूल [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
प्रत
श्रीसमवा-वर्तुला ये समुद्का-भाजनविशेपास्तेषु 'जिणसकहाओं'त्ति जिनसक्थीनितीर्थकराणां मनुजलोकनितानां सक्थीनि- ३६ सम
यांग | अस्थीनि प्रज्ञप्तानीति । 'वितियचउत्थी'त्यादि द्वितीयपृथिव्यां पञ्चविंशतिर्नरकलक्षाणि चतुझं तु दशेति पञ्चत्रि- वायाध्य. श्रीअभय शतानीति ॥ ३५॥ वृत्तिः
छत्तीसं उत्तरज्झयणा प० त०-विणयसुर्य १ परीसहो २ चाउरंगिज ३ असंखयं ४ अकाममरणिजं ५ पुरिसविजा ६ उरम्भिनं ७ काविलियं ८ नमिपव्वजा ९ दुमपत्तयं १० बहुसुयपूजा ११ हरिएसिजं १२ चित्तसंभूयं १३ उसुयारिजं १४ सभिक्खुगं १५ समाहिठाणाई १६ पावसमणिनं १७ संजइज १८ मियचारिया १९ अणाहपव्यन्जा २० समुद्दपालिज २१ रहनेमिचं २२ गोयमकेसिज २३ समितीओ २४ जन्नतिजं २५ सामायारी २६ खलुंकिज २७ मोक्खमग्गगई २८ अप्पमाओ २९ तवोमग्गो ३० चरणविही ३१ पमायठाणाई ३२ कम्मपयडी ३३ लेसज्झयण ३४ अणगारमग्गे ३५ जीवाजीवविभत्ती य ३६, चमरस्स ण असुरिंदस्स असुररण्णो सभा सुहम्मा छत्तीसं जोयणाई उहूं उच्चत्तेणं होत्था, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स छत्तीसं अजाणं साहस्सीओ होत्था, चेत्तासोएसु णं मासेसु सइ छत्तीसंगुलियं सरिए पोरिसीछायं निव्वत्तइ ॥ सूत्र ३६॥ पदात्रिंशत्स्थानकं स्पष्टमेव, नवरं चैत्राश्वयुजोर्मासयोः सकूद-एकदा पूर्णिमायामिति व्यवहारो निश्चयतस्तु मेषसत्रा-18|
का॥६४॥ दिन्तिदिने तुलासङ्क्रान्तिदिने चेत्यर्थः । पत्रिंशदङ्गुलिका पदत्रयमानां, आह च-"चेत्तासोएसु मासेसु, तिपया होइ ।
|पोरिसी"ति [चैत्राश्वयुजोर्मासयोस्निपदा पौरुषी भवति ] ॥ ३६ ॥
अनुक्रम [१११]
~139~
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३७], -------------------------------- मूल [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[३७]
SECRETARAKAKAM
कुंथुस्स णं अरहओ सत्ततीसं गणा सत्ततीस गणहरा होत्था, हेमवयहेरपणवयाओ णं जीवाओ सत्ततीसं जोयणसहस्साई उच्च चउसत्तरे जोयणसए सोलसयएगूणवीसइभाए जोयणस्स किंचिविसेसूणाओ आयामेणं प०, सब्बासु णं विजयवेजयंतजयंतअपराजियासु रायहाणीसु पागारा सत्ततीसं सत्ततीसं जोयणाई उखु उच्चत्तेणं प०, खुड्डियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे सत्ततीसं उद्देसणकाला प०, कत्तियबहुलसत्तमीए णं सूरिए सत्ततीसंगुलियं पोरिसीछायं निव्वत्तइत्ता णं चारं चरइ ॥ सूत्र ३७ ॥
सप्तत्रिंशत्स्थानकमपि व्यक्तं, नवरं कुन्थुनाथस्येह सप्तत्रिंशद्गणधरा उक्ताः आवश्यके तु त्रयस्त्रिंशत् श्रूयन्त। माइति मतान्तरं, तथा हैमवतादिजीवयोरुक्तप्रमाणसंवादगाथा-"सत्तत्तीस सहस्सा छच सया जोयणाण चउसयरा ।। हेमवयवासजीवा किंचूणा सोलस कला य ॥१॥"त्ति, कला एकोनविंशतिभागो योजनस्येति । तथा विजयादीनिक पूर्वादीनि जम्बूद्वीपद्वाराणि तन्नायकास्तन्नामानो देवास्तेषां राजधान्यस्तन्नामिका एव पूर्वादिदिक्षु इतोऽसङ्ख्येयतमे जम्बूद्वीप इति । शुद्रिकायां विमानप्रविभक्तो कालिकश्रुतविशेष, तत्र किल वहवो वर्गा-अध्ययनसमुदायात्मका भवन्ति, तत्र प्रथमे वर्गे प्रत्यध्ययनमुद्देशस्य ये कालास्त उद्देशनकाला इति । यदि चैत्रस्य पौर्णमास्यां पत्रिशदङ्गुलिका पौरुषीच्छाया भवति तदा वैशाखस्स कृष्णसप्तम्यामङ्गुलस्य वृद्धिं गतत्वात्सप्तत्रिंशदङ्गुलिका भवतीति ३७ । पासस्स गं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अहतीसं अजिआसाहस्सीओ उक्कोसिया अजियासंपया होत्या, हेमवयएरण्णवईयाणं
जीवाणं धपिढे अहतीसं जोयणसहस्साई सत्त य चत्ताले जोयणसए दस एगूणवीसहभागे जोयणस्स किंचिविसेसूणा परि
प्रत
अनुक्रम [११३]
~140~
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३८]. ------------------------------------ मुलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
इचिः
[३८]
प्रत
||३७-३८सश्रीसमवाक्खेवेणं प०, अत्थस्स णं पन्वयरण्णो वितिए कंडे अद्वतीस जोयणसहस्साई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, खुड़ियाए णं विमाणपवि
|मवायाध्य भत्तीए बितिए वग्गे अद्भुतीसं उद्देसणकाला प० ॥ सूत्रं ३८॥ यांग श्रीअमय० अष्टत्रिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं 'धणुपिटुंति जम्बूद्वीपलक्षणवृत्तक्षेत्रस्य हैमवतैरण्यवताभ्यां द्वितीयषष्ठवर्षा
भ्यामवच्छिन्नस्यारोपितज्याधनुःपृष्ठाकारे परिधिखण्डे धनुःपृष्ठे इव धनुःपृष्ठे उच्यते तत्पर्यन्तभूते ऋजुप्रदेशपट्टी SIतु जीचे इव जीवे इति, एतत्सूत्रसंवादिगाथाई "चत्ताली सत्त सया अडतीस सहस्स दस कला य धणु" ति।
तथा 'अत्थस्स'त्ति अस्तो-मेरुयंतस्तेनान्तरितो रविरस्तं गत इति व्यपदिश्यते तस्य पर्वतराजस्य-गिरिप्रधानस्य द्वितीयं काण्डं-विभागोऽष्टत्रिंशद्योजनसहस्राण्युचवेन भवतीति, मतान्तरेण तु त्रिपष्टिः सहस्राणि, यदाह-"मेरुस्स तिन्नि कंडा पुढयोवलवहरसकरा पढौ । रयए य जायसवे अंके फलिहे य धीयं तु ॥१॥ एकागारं तइयं तं पुण जंबू-I णयमय होइ । जोयणसहस्स पढम बाहलेणं च वितीयं तु ॥२ ॥ तेवद्विसहस्साई तइयं छत्तीस जोयणसहस्सा। मेरुस्मुवरि चूला उषिद्धा जोयणदुवीसं ॥३॥ [मेरोस्त्रीणि काण्डानि पृथ्व्युपलवनशर्करामयं प्रथमं । राजतं जात
रूपं आइक स्फाटिकं च द्वितीयं ॥१॥ एकाकारं तृतीयं तत् पुनर्जाम्बूनदमयं भवति । योजनसहस्रं प्रथम बाह-IM॥६५॥ ४ाल्येन द्वितीयं तु ॥२॥ त्रिषष्टिः सहस्राणि तृतीयं पत्रिंशत् सहस्राणि । मेरोरुपरि चूला उद्विदा योजनानि
चत्वारिंशत् ॥३॥] ॥३८॥
अनुक्रम [११४]
~141
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [३९], ------------------------- ----- मूल [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
4-%
नमिस्स णं अरहओ एगूणचत्तालीस आहोहियसया होत्या, समयखेते एगूणचत्तालीस कुलपव्यया प० त०-तीसं वासहरा पंच मंदरा चत्वारि उसुकारा, दोचचउत्थपंचमछट्टसत्तमासु णं पंचसु पुढवीसु एगूणचत्तालीस निरयावाससयसहस्सा प०, नाणावरणिअस्स मोहणिजस्स गोत्तस्स आउयस्स एयासि णं चउण्हं कम्मपगडीणं एगूणचत्तालीस उत्तरपगडीओ प० ॥ सूत्र ३९ ॥
एकोनचत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं 'आहोहिय'त्ति नियतक्षेत्रविषयावधिज्ञानिनस्तेषां शतानीति, 'कुलपबय'त्ति क्षेत्रमर्यादाकारित्वेन कुलकल्पाः पर्वताः कुलपर्वताः, कुलानि हि लोकानां मर्यादानिवन्धनानि भवन्ती-14 तीह तैरुपमा कृता, तत्र वर्षधरात्रिंशदू जंबूद्वीपे धातकीखण्डपुष्कराईपूर्वापराद्धेषु च प्रत्येकं हिमवदादीनां पण्णां
पण्णां भावात् मन्दराः पञ्चेषुकारा धातकीखण्डपुष्करार्द्धयोः पूर्वेतरविभागकारिणश्चत्वारः, एवमेते एकोनचत्वारिंदशदिति । 'दोचे'त्यादि द्वितीयायां पञ्चविंशतिश्चतुभ्यां दश पञ्चम्यां त्रीणि षष्ठ्वां पञ्चोनलक्षं सप्तम्यां पञ्चेति यथोक्ता है संख्या नरकाणामिति । 'नाणावरणिजे त्यादि, ज्ञानावरणीयस्य पञ्च मोहनीयस्याष्टाविंशतिः गोत्रस्य द्वे आयुषश्चतस्त्रः इत्येवमेकोनचत्वारिंशदिति ॥ ३९ ॥
अरहओ णं अरिष्टनेमिस्स चत्तालीसं अजियासाहस्सीओ होत्था, मंदरचूलियाणं चत्तालीस जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, संती अरहा चत्तालीस धणूई उई उच्चत्तेणं होत्या भूयाणंदस्स णं नागकुमारस्स नागरनो चत्तालीसं भवणावाससयसहस्सा ५०, खुद्धियाए णं विमाणपविभत्तीए तइए बग्गे चत्तालीसं उद्देसणकाला प०, फग्गुणपुणिमासिणीए णं सूरिए चत्तालीसंगुलियं पोरि
प्रत
अनुक्रम [११५]
CAR
DS
~142~
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४०], ------------------------- ----- मूल [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा
यांगे
३९-४० ४१ समवायाध्य,
प्रत
श्रीअभय
सूत्राक
वृत्तिः
[४०]
प्रत अनुक्रम [११६]
सीछायं निवदृइत्ता णं चार चरइ, एवं कत्तियाएवि पुण्णिमाए, महासुक्के कप्पे चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा ५०॥ सूत्र ४०॥ मा चत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तं, नवरं 'वइसाहपुण्णिमासिणीए'त्ति यत्केषुचित पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, 'फग्गुआणपुन्निमासिणीए'त्ति अत्राध्येयं, कथम् ?, उच्यते, 'पोसे मासे चउप्पया' इति वचनात् पौषपूर्णिमास्यामष्टचत्वारिं
शदङ्गुलिका सा भवति ततो माघे चत्वारि फाल्गुने च चत्वारि अकुलानि पतितानीत्येवं फाल्गुनपौर्णमास्यां चत्वारिंशदङ्गुलिका पौरुषीच्छाया भवति, कार्तिक्यामप्येवमेष, यतः 'चेत्तासोएसु मासेसु, तिपया होइ पोरिसी' चित्राश्विनयोर्मासयोखिपदा भवति पौरुषीत्युक्तं. ततः पदत्रयस्य पदत्रिंशदङ्गलप्रमाणस्य कार्तिकमासातिक्रमे चतुरझुलवृद्धी चत्वारिंशंदगुलिका सा भवतीति ॥ ४०॥ नमिस्स णं अरहओ एकचत्तालीसं अजियासाहस्सीओ होत्या, चउस पुढवीसु एकचत्तालीस निरयावाससयसहस्सा प० त०रयणप्पभाए पंकप्पभाए तमाए तमतमाए, महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पढमे वग्गे एकचत्तालीसं उदेसणकाला १०॥ सूत्रं ४१॥
एकचत्वारिंशत्स्थानकं सुगम, नवरं 'चउसु' इत्यादिक्रमेण सूत्रोक्तासु चतसृषु प्रथमचतुर्थषष्ठसप्तमीषु पृथिवीषु त्रिंशतो दशानां च नरकलक्षाणां पञ्चोनस्य चैकस्य पञ्चानां च नरकाणां भावाद्यथोक्तसंख्यास्ते भवन्तीति ॥४१॥
समणे भगवं महावीरे बायालीसं वासाई साहियाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता सिद्धे जात्र सबदुक्खप्पहीणे, जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिलाओ चरमंताओ गोधूभस्स णं आवासपवयस्स पचच्छिमिल्ले चरमंते एस जे पायालीस जोयणसहस्साई
म
॥६६॥
२
~143~
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४२], -------------------------------- मूल [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [४२]
संखे दयसीमे य, कालोए णं समुद्दे पायालीसं चंदा जोइंसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा, बायालीस सूरिया पभासिसु वा ३, समुच्छिमभुयपरिसप्पाणं उक्कोसेणं चायालीसं वाससहस्साई ठिई प०, नामकम्मे पायालीसविहे प०, तं०-गइनामे जाइनामे सरीरनामे सरीरंगोवंगनामे सरीरबंधणनामे सरीरसंघायणनामे संघयणनामे संठाणनामे वण्णनामे गंधनामे रसनामे फासनामे अगुरुलहुपनामे उवधायनामे परापायनामे आणुपुचीनामे उस्सासनामे आयवनामे उओयनामे विहगगइनामे तसनामे यावरनामे सुहमनामे पायरनामे पजत्तनामे अपजत्तनामे साहारणसरीरनामे पत्तेयसरीरनामे थिरनामे अथिरनामे सुभनामे असुमनामे सुमयनामे दुन्भगनामे सुसरनामे दुस्सरनामे आएजनामे अणाएजनामे जसोकित्तिनामे अजसोकित्तिनामे निम्माणनामे तित्थकरनामे, लवणे णं समुद्दे चायालीसं नागसाहस्सीओ अम्भितरियं वेलं धारंति, महालियाए णं विमाणपविभत्तीए बितिए वग्गे चायालीस उद्देसणकाला प०, एगमेगाए ओसप्पिणीए पंचमछट्ठीओ समाओ बायालीसं वाससहस्साई कालेणं प०, एगमेगाए उस्सप्पिणीए पढमबीयाओ समाओ बायालीसं वाससहस्साई कालेणं प० ॥ सूत्र ४२॥
द्विचत्वारिंशत्स्थानकं व्यक्तमेव, नवरं 'बायालीसं'ति छद्मस्थपर्याय द्वादश वर्षाणि षण्मासा अर्द्धमासथेति केवलिपर्यायस्तु देशोनानि त्रिंशद्वर्षाणीति पर्युषणाकल्पे द्विचत्वारिंशदेव वर्षाणि महावीरपर्यायोऽभिहितः, इह तु साधिक उक्तः, तत्र पर्युषणाकल्पे यदल्पमधिकं तन्न विवक्षितमिति सम्भाव्यत इति, 'जाय'त्ति करणात् 'बुद्धे मुत्ते अन्तगडे परिनिव्वुडे सबदुक्खप्पहीणे'त्ति रश्य। 'जम्बूद्वीपस्थे'त्यादि 'पुरच्छिमिलाओ चरिमंताओंति जगतीनाबपरि
प्रत
अनुक्रम [१९८]
१२ सम.
REscadrina
A
ncierary.orm
~144~
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४२. ------------------------------------ मुलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[४२]
प्रत
श्रीसमवा-तधेरपसृत्य गोस्तूभस्यावासपर्वतस्य वेलंधरनागराजसम्बन्धिनः पाश्चात्यचरमान्तः-चरमविभागो यावताऽन्तरेण भ-16 १२ सम
यांगे वति 'एस गं'ति एतदन्तरं द्विचत्वारिंशंद्योजनसहस्राणि प्रज्ञप्तं, अन्तरशब्देन विशेषोऽप्यभिधीयते इत्यत आह- वायाध्य. श्रीअभया 'अबाहाए'त्ति व्यवधानापेक्षया यदन्तरं तदित्यर्थः । 'कालोए णन्ति धातकीखण्डपरिवेष्टके कालोदाभिधाने समुद्रे वृतिः
गइनामें'त्यादि, गतिनाम यदुदयानारकादित्वेन जीवो व्यपदिश्यते, जातिनाम यदुदयादेकेन्द्रियादिर्भवति, शरी-1 ॥७॥ रनाम यदुदयादीदारिकादिशरीरं करोति, यदुदयादङ्गाना-शिरप्रभृतीनां उपाङ्गानां च-अङ्गुल्यादीनां विभागो भवति ।
तच्छरीराङ्गोपाङ्गनाम, तथा औदारिकादिशरीरपुद्गलानां पूर्वबद्धानां वध्यमानानां च सम्बन्धकारणं शरीरवन्धननाम,
तथा औदारिकादिशरीरपुदलानां गृहीतानां यदुदयाच्छरीररचना भवति तच्छरीरसवातनाम, तथाऽस्मां यतस्तथाविधदशक्तिनिमित्तभूतो रचनाविशेषो भवति तत्संहनननाम, संस्थानं समचतुरस्रादिलक्षणं यतो भवति तत्संस्थाननाम, तथा
यदुदयावर्णादिविशेषवन्ति शरीराणि भवन्ति तद्वर्णादिनाम, तथा यदुदयादगुरुलघुत्वं खशरीरस्य जीवानां भवति तद-14 गुरुलघुनाम, तथा यतोऽझावयवः प्रतिजिहिकादिरात्मोपघातको जायते तदुपघातनाम, तथा यतोऽझावयय एव
प . G ॥६७॥ विषात्मको दंष्ट्रात्वगादि परेषामुपघातको भवति तत्पराघातनाम, तथा यदुदयादन्तरालगती जीवो याति तदानुपूर्वी-1 नाम, तथा यदुदयादुच्छ्वासनिःश्वासनिष्पत्तिर्भवति तदुच्छासनाम, तथा यदुदयाजीवस्तापवच्छरीरो भवति तदातपनाम, यथाऽऽदित्यबिम्बपृथिवीकायिकानां, तथा यतोऽनुष्णोद्योतवच्छरीरो भवति तदुद्योतनाम, तथा यतः शुभे
अनुक्रम [१९८]
नामकर्मण: द्विचत्वारिन्शत् प्रकृतयः
~145
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४२], -------------------------------- मूल [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक [४२]
तरगमनयुक्तो भवति तद्विहायोगतिनाम, प्रसनामादीन्यष्टौ प्रतीतार्थानि, तथा यतः स्थिराणा दन्ताद्यवयवानां निष्पत्तिर्भवति तत्स्थिरनाम, यतश्च प्रजिहादीनामस्थिराणां निष्पत्तिर्भवति तदस्थिरनाम, तथा शिरःप्रभृतीनां शु-
17 भानां तच्छुभनाम, पादादीनामशुभानामशुभनाम इति, शेषाणि प्रतीतानि, नवरं यदुदयाजातौ जातौ जीवदेहेषु ख्यादिलिङ्गाकारनियमो भवति तत्सूत्रधारसमानं निर्माणनामेति, 'पञ्चमछट्ठीओ समाओ'त्ति दुष्पमा एकान्तदुष्षमा | चेत्यर्थः 'पढमवीया'त्ति एकान्तदुष्पमा दुष्षमा चेति ॥ ४२ ॥ तेयालीसं कम्मविवागज्जयणा प०, पढमचउत्थपंचमासु पुढवीसु तेयालीसं निरयावाससयसहस्सा प०, जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथूभस्स ण आवासपवयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस ण तेयालीस जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे प०, एवं चउदिसिपि दगभागे संखे दयसीमे, महालियाए णं विमाणपविभत्तीए तइये वग्गे तेयालीसं उद्देसणकाला प०॥ सूत्र ४३॥ त्रिचत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किञ्चिलिख्यते, 'कम्मविवागज्झयण'त्ति कर्मणः-पुण्यपापात्मकस्य विपाकश्च-फलंग तत्प्रतिपादकान्यध्ययनानि कर्मविपाकाध्ययनानि, एतानि च एकादशाद्वितीयानयोः संभाव्यन्त इति । 'जंबुद्दी-12 ४वस्स ण'मित्यादि, जंबूद्वीपस्य पौरस्त्यान्तागोस्तूभपर्वतो द्विचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणि तद्विष्कम्भश्च सहस्रं तद|धिकाया द्वाविंशतेरल्पत्वेनाविवक्षणादेवं त्रिचत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्तीति, एवं 'चउद्दिसिपित्ति उक्तदिगन्त
प्रत
अनुक्रम [१९८]
REauratons
नामकर्मण: द्विचत्वारिन्शत् प्रकृतयः
~146~
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-6] “स्थान” – अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४३], ------------------------------------ मलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
४५ समवायाध्य.
सुत्राक
[४३]
श्रीसमवा-18 र्भावेन चतस्रो दिश उक्ता अन्यथा एवं 'तिदिसिपिचि वाच्यं स्यात्, तत्र चैवममिलाप:-'जंबुद्दीवस्स पं दीवस्स
यांग दाहिणिलाओ चरिमंताओ दोभासस्स णं आवासपचयस्स दाहिणिल्ले चरिमंते एस णं तेयालीसं जोयणसहश्रीजमय० स्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' एवमन्यत्सूत्रद्वयं, नवरं पश्चिमायां शङ्ख आवासपर्वत उत्तरस्यां तु दकसीम इति ॥४३॥
चोयालीसं अज्झयणा इसिभासिया दियलोगचुयामासिया प०, विमलस्स णं अरहओ णं चउआलीसं पुरिसजुगाई अणुपिदि सि॥६८॥
दाई जाव प्पहीणाई, धरणस्स णं नागिंदस्स नागरण्णो चोयालीसं भवणावाससयसहस्सा प०, महालियाए णं विमाणपविभत्तीए चउत्थे वग्गे चोयालीसं उद्देसणकाला प०॥ सूत्र ४४॥
चतुश्चत्वारिंशत्स्थानकेऽपि किञ्चिलिख्यते, चतुश्चत्वारिंशत् 'इसिभासिय'ति ऋषिभाषिताध्ययनानि कालिकश्रुतविशेषभूतानि 'दियलोयचुयाभासिय'त्ति देवलोकच्युतैः ऋषिभूतैराभाषितानि देवलोकच्युताभाषितामि, कचित्पाठः 'देवलोयचुयाणं इसीणं चोयालीसं इसिभासियज्झयणाप.' 'पुरिसजुगाई ति पुरुषा:-शिष्यप्रशिष्यादिक्रमन्यव[स्थिता युगानीव-कालविशेषा इव क्रमसाधर्म्यात्पुरुषयुगानि, 'अणुपिढि'ति आनुपूर्ध्या 'अणुबन्धेण'चि पाठाम्सरे तृतीयादर्शनादनुपन्धेन-सातत्येन सिद्धानि 'जाव'त्ति करणेन 'बुद्धाई मुत्ताई अंतयडाई सबदुक्खप्पहीणाति दृश्य, 'महालियाए णं विमाणपविभत्तीए'चि चतुर्थे वर्गे चतुश्चत्वारिंशदुद्देशनकालाः प्रज्ञप्ताः ॥४४॥
समयखेते णं पणयालीस जोयणसयसहस्साई आयामविखंभेणं प०, सीमंतए णं नरए पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयाम
ॐ485
प्रत अनुक्रम [११९]
६८॥
~147~
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४५], ------------------------- ------ मूल [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [४५]
प्रत अनुक्रम [१२१-१२३]
AAAAAA
विक्खंभेणं प०, एवं उद्यविमाणेवि, ईसिपभारा णे पुढवी एवं चेव, धम्मे णं अरहा पणयालीस वणूई उई उपत्तेणं होत्या, मंदरस्स ण पव्वयस्स पउदिसिपि पणयालीसं २ जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, सब्वेवि णं दिवड्डखेत्तिया नक्खत्ता पणयालीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोगं जोइंसु वा जोइंति वा जोइस्संति वा-तिन्नेव उत्तराई पुणवसू रोहिणी विसाहा य । एएछनक्खत्ता पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥१॥ महालियाए णं विमाणपविभत्तीए पंचमे वग्गे पणयालीसं उदेसणकाला प०॥ (सू०) ४५॥
पञ्चचत्वारिंशत्स्थानके विदं लिख्यते, 'समयखेत्तेचि कालोपलक्षितं क्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रमित्यर्थः, 'सीमंतए गं'ति प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तटे मध्यभागवी वृत्तो नरकेन्द्रः सीमन्तक इति । 'उडविमाणे ति सौधर्मशानयोः प्रथमप्रस्वटवर्ति चतसृणां विमानावलिकानां मध्यभागवर्ति वृत्तं विमानकेन्द्रकमुडुबिमानमिति, ईसिपम्भार'त्ति सिद्धिपृथिवी 'मंदरस्स णं पवयस्से'त्यादि सूत्रे लवणसमुद्राभ्यन्तरपरिभ्यपेक्षयान्तरं द्रष्टव्यमिति । 'सब्वेवि म'मित्यादि, चन्द्रस्य त्रिं
शन्मुहूर्तभोग्यं नक्षत्रक्षेत्र समक्षेत्रमुच्यते, तदेव सार्द्ध व्यर्द्ध द्वितीयमद्धमस्येति यर्द्धमित्येवं व्युत्पादनात् तथाविधं |क्षेत्रं येषामस्ति तानि व्यर्द्धक्षेत्रकाणि नक्षत्राणि अत एव पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्ताःचन्द्रेण सार्दू योगः-सम्बन्धो योजितवन्ति, 'तिन्नेव' गाहा, त्रीण्युत्तराणि उत्तराफाल्गुन्य उत्तरापाढाउत्तराभाद्रपदाश्च ॥४५॥ दिद्विवायरस पं छायालीसं माउयापया प०, भीए पं लिवीए छायालीसं माउयक्खरा प०, पमंजणस्स ण चाउकुमारिंदस्स छायालीसं भवणावाससयसहस्सा ५०॥ सूत्रं ४६ ॥
44
REarating
~148~
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[४६ ]
प्रत
अनुक्रम [१२४]
समवाय [४६ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमचायांग
श्रीअभय०
वृति:
॥ ६९ ॥
[भाग-6] “स्थान” – अंगसूत्र - ३ ( मूलं + वृत्ति:)
मूलं [४६]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Jan Emuratur
अथ षट्चत्वारिंशत्स्थानके किञ्चिल्लिख्यते, 'दिडिवायस्स' त्ति द्वादशाङ्गस्य 'माउयापय'त्ति सकलवाङ्मयस्य अकारादिमातृकापदानीव दृष्टिवादार्थप्रसवनिबन्धनत्वेन मातृकापदानि उत्पादविगमभौन्यलक्षणानि तानि च सिद्धश्रेणिमनुष्य श्रेण्यादिना विषयभेदेन कथमपि भिद्यमानानि षट्चत्वारिंशद्भवन्तीति सम्भाव्यन्ते, तथा 'बंभीए णं लिवीए ति लेख्यविधौ पट्चत्वारिंशन्मातृकाक्षराणि तानि चाकारादीनि हकारान्तानि सक्षकाराणि ऋऋ ऌलू क | इत्येवं तदक्षरपञ्चकवर्जितानि सम्भाव्यन्ते, [ खरचतुष्टयवर्जनात् विसर्गान्तानि द्वादश पञ्चविंशतिः स्पर्शाः चतस्रोऽन्तःस्थाः ऊष्माणश्वत्वारः क्षवर्णश्चेति षट्चत्वारिंशद्वर्णाः ] तथा 'पभंजणस्स' त्ति औदीच्यस्येति ॥ ४६ ॥
जया णं सुरिए सब्वन्मिंतरमंडलं उवसङ्कमित्ता णं चारं चरइ तथा णं इहगयस्त्र मणूसस्स सत्तचत्तालीस जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसएहिं एक्कवीसाए व सट्टिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुफार्स इन्बमागच्छ, थेरे णं अग्गिभूई सत्तचालीसं वासाई अगारम वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए ॥ सूत्रं ४७ ॥
अथ सप्तचत्वारिंशत्स्थानके किमप्युच्यते, 'जया ण'मित्यादि, इह लक्षप्रमाणस्य जम्बूद्वीपस्योभयतोऽशीत्युत्तरेशीत्युत्तरे योजनशते ३६० अपनीते सर्वाभ्यन्तरस्य सूर्यमण्डलस्य विष्कम्भो भवति ९९६४० तत्परिधिस्त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि एकोननवत्यधिकानि ३१५०८९, एतच सूर्यो मुहूर्त्तानां षष्ट्या गच्छतीति षष्टवाऽस्य भागहारे मुहूर्त्तगतिर्लभ्यते सा च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपञ्चाशदुत्तरे योजनशते एकोनत्रिंशब्द पष्टिभागा योजनस्य
For Parts Only
~ 149~
४६-४७ समवायाध्य.
॥ ६९ ॥
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-6] “स्थान” – अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४७], ------------------------------------ मल [४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[४७]
५२५११३१, यदा चाभ्यन्तरमण्डले सूर्यश्चरति तदाऽष्टादश मुहूर्ता दिवसप्रमाणं, तदर्द्धन नवभिर्मुहतैः मुहर्तगतिगुण्यते, ततश्च यथोक्तं चक्षुःस्पर्शप्रमाणमागच्छतीति, 'अग्गिभूइ'त्ति वीरनाथस्य द्वितीयो गणधरस्तस्य चेह सप्तचत्वारिंशद्वर्षाण्यगारवास उक्तः, आवश्यके तु षट्चत्वारिंशत् , सप्तचत्वारिंशत्तमवर्षस्थासम्पूर्णत्वादविवक्षा, इह त्वसम्पूर्णस्यापि पूर्णत्वविवक्षेति सम्भावनया न विरोध इति ॥ ४७॥
एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्वट्टिस्स अडयालीसं पट्टणसहस्सा प०, धम्मस्स णं अरहओ अडयालीसं गणा अडयालीसं गणहरा होत्था, सूरमंडले णं अडयालीस एकसहिभागे जोयणस्स विक्खंभेणं ५०॥ सूत्र ४८॥
अष्टचत्वारिंशत्स्थानके किमपि लिख्यते, 'पट्टण'त्ति विविधदेशपण्यान्यागत्य यत्र पतन्ति तत्पत्तनं-नगरविशेषः, Pापत्तनं रत्नभूमिरित्याहुरेके, 'धम्मस्स'त्ति पश्चदशतीर्थङ्करस्य, इहाष्टचत्वारिंशद्गणा गणधराश्चोक्ताः आवश्यके तु त्रिचत्वारिंशत्पठ्यन्ते तदिदं मतान्तरमिति, 'सूरमंडले'त्ति सूर्यविमानं येषां भागानामेकषष्ट्या योजनं भवति तेषामटचत्वारिंशत् त्रयोदशभिस्तैन्यूनं योजनमित्यर्थः ॥ १८ ॥ सत्त सत्तमियाए णं भिक्खुपडिमाए एगूणपन्नाए राइदिएहिं छन्नउइभिक्खासएणं अहासुत्तं जाव आराहिया भवइ, देवकुरुउत्तरकुरु पसु णं मणुया एगूणपन्ना राईदिएहिं संपन्नजोवणा भवंति, तेइंदियाणं उक्कोसेणं एगूणपन्ना राइंदिया ठिई प० ॥ सूत्र ४९॥ अथैकोनपञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, 'सत्तसत्तमियाए णं' सस सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तमिका-सस सप्त
प्रत अनुक्रम [१२५]
SanEairatna
~150
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-6] “स्थान” – अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [४९], ------------------------- ------ मूल [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
प्रत
श्रीसमवा- दिनानि भवन्ति सप्तसु सप्तकेषु अतः सा सप्तदिनसप्तकमयत्वादेकोनपञ्चाशता दिनैर्भवतीति, 'पडिम'ति अमिग्रहः ४८-४९
यांगे IP'छन्नउएणं भिक्खासएणं'ति प्रथमदिनसप्तके प्रतिदिनमेकोत्तरया भिक्षावृद्ध्या अष्टाविंशतिर्मिक्षा भवन्ति, एवं च २५० समश्रीअभय सप्तखपि षण्णवतिभिक्षाशतं भवति, अथवा प्रतिससमेकोत्तरया वृद्ध्या यथोक्तं भिक्षामानं भवति, तथाहि-प्रथमे 8 वायाध्य.
चिः सप्तके प्रतिदिनमेकैकभिक्षाग्रहणात् सप्त भिक्षा भवन्ति, द्वितीये द्वयो २ ग्रहणाचतुर्दश, एवं ससमे सप्तानां ग्रह॥७०॥
गादेकोनपञ्चाशदित्येवं सर्वमीलने (सङ्कलने) यथोक्तमानं भवतीति, 'अहासुत्तति यथासूत्र-यथागर्म सम्यक् का-| येन स्पृष्टा भवतीति शेषो द्रष्टव्यः, 'सम्पन्नजोषणा भवंति'त्ति न मातापितृपरिपालनामपेक्षन्त इत्यर्थः, 'दिति आयुष्कम् ॥४९॥ मुणिमुब्वयस्स णं अरहओ पंचासं अजियासाहस्सीओ होत्या, अणते णं अरहा पन्नास धणूई उई उच्चत्तेणं होत्था, पुरिसुत्तमे णं वासुदेवे पन्नासं घण्ई उई उचत्तेणं होत्था, सब्वेवि पं दीहवेयड्डा मूले पन्नासं २ जोयणाणि विक्खंभेणं प०, लंतए कप्पे पन्नासं विमाणावाससहस्सा ५०, सचाओ णं तिमिस्सगुहाखंडगप्पवायगुहाओ पन्नासं २ जोषणाई थायामेणं प०, सन्वेवि पं कंचणगपन्वया सिहरतले पन्नासं २ जोयणाई विक्खंभेण प०॥ सूत्र ५०॥
अथ पञ्चाशत्स्थानक, तत्र 'पुरिसोत्तमति चतुर्थों वासुदेवोऽनन्तजिजिनकालभाषी, तथा 'कंचण'चि उत्तरकुरुष । नीलवदादीनां पञ्चानामानुपूर्वीव्यवस्थितानां महादानां पूर्वापरपार्श्वयोः प्रत्येकं दश दश काचनपर्षता मपन्ति, ते
अनुक्रम [१२७]
ARRCRACE
॥७०॥
~151~
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-6] “स्थान” – अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [५०], ------------------------- ------ मूल [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [५०]
BRECSC
च सर्वे शतं, एवं देवकुरुषु निषधादीनां महाहदानां शतं भवति, सर्व एव च ते जम्बूद्वीपे द्विशतमाना भवन्ति, ते दायोजनशतोच्छ्रिताः शतमूलविष्कम्भास्तन्नामकदेवनिवासभूतभवनालङ्कृतशिखरतलाः ॥ ५० ॥
नवण्हं बंभचेराणं एकावन्नं उद्देसणकाला प०, चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररचो सभा सुधम्मा एकावन्चखंभसयसंनिविट्ठा प०, एवं चेव बलिस्सवि, सुप्पमे णं बलदेवे एकावन्नं वाससयसहस्साई परमाउं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सम्बदुक्खप्पहीणे, दंसणावरणनामाणं दोण्डं कम्माणं एकावन्नं उत्तरकम्मपगडीओ प०॥ सूत्रं ५१॥
अथैकपञ्चाशत्स्थानकं, तत्र 'बंभचेराणं'ति आचारप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानां शस्त्रपरिज्ञादीनां, तत्र प्रथमे ससोद्देशका इति सप्तैवोद्देशनकालाः १ एवं द्वितीयादिषु क्रमेण षट् २ चत्वारः ३ चत्वारः ४ एवं षट् ५ पंच ६ | अष्टमे चत्वारः ८ सप्तमे महापरिज्ञायाः सप्तोद्देशाः, व्युच्छिन्नं च तदिति प्रान्ते प्रागप्यध्ययनोलेखे उदिष्टं प्रान्स|8
एवात्रोद्दिष्टा उद्देशा अपि तस्य क्रमापेक्षया सप्तमस्य चेत्येवमेकपञ्चाशदिति, 'सुप्पहे'त्ति चतुर्थो बलदेवः अनन्तजिजिननाथकालभावी, तस्येहैकपञ्चाशद्वर्षलक्षाण्यायुरुक्तमावश्यके तु पञ्चपञ्चाशदुच्यते तदिदं मतान्तरमिति, 'एकावन्नं उत्तरपगडीओ'त्ति दर्शनावरणस्य नव नानो द्विचत्वारिंशदित्येकपञ्चाशदिति ॥५१॥ मोहणिजस्स ण कम्मस्स बावन्नं नामधेजा प०, तं०-कोहे कोवे रोसे दोसे अखमा संजलणे कलहे चंडिक्के मंडपे विवाए १०माणे मदे दप्पे थंभे अत्तुक्कोसे गब्बे परपरिवाए अक्कोसे अवक्कोसे (परिभवे) उन्नए २० उन्नामे माया उवही निवडी वलए
प्रत
अनुक्रम [१२८]
~152~
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-6] “स्थान" - अंगसूत्र-३ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१२], -------------------- ---------- मूलं [५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
यांगे श्रीअभय
सुत्रांक
[१२]
प्रत
श्रीसमवा-15 गहणे णूमे कक्के कुरुए दंगे ३० कूडे जिम्हे किन्बिसे अणायरणया गृहणया वंचणया पलिकुंचणया सातिजोगे लोमे इच्छा ४५१-५२स
४० मुच्छा कंखा गेही तिण्हा भिजा अभिजा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा ५० नन्दी रागे ५२, गोथूभस्स णं आवा- मवायाध्य.
सपब्वयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ क्लयामुहस्स महापायालस्स पञ्चच्छिमिले चरमंते एस णं बावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए इत्तिः अंतरे ५०, एवं दगभासस्स गं केउगस्स संखस्स जूयगस्स दगसीमस्स ईसरस्स, नाणावरणिजस्स नामस्स अंतरायस्स एतेसिणं
तिण्डं कम्मपगडीणं बावन्नं उत्तरपयडीओप०, सोहम्मसणंकुमारमाहिंदेसु तिसु कप्पेसु बावन्नं विमाणवाससयसहस्सा प०॥ सूत्रं ५२ ॥७१॥
अथ द्विपञ्चाशत्स्थानक, तत्र 'मोहणिजस्स कम्मस्स'त्ति इह मोहनीयकर्मणोऽवयवेषु चतुर्यु क्रोधादिकपायेषु मोहनीयत्वमुपचर्यावयवे समुदायोपचारन्यायेन मोहनीयस्वेत्युक्तं, तत्रापि कषायसमुदायापेक्षया द्विपञ्चाशन्नामधेयानिन पुनरेकैकस्य कषायमात्रस्यैवेति, तत्र क्रोध इत्यादीनि दश नामानि क्रोधकपायस्य 'चंडिके चि चाण्डिक्यं, तथा मानादीन्येकादश मानकषायस्य 'अत्तुकोसे'त्ति आत्मोत्कर्षः 'अबक्कोसे त्ति अपकर्षः 'उन्नएत्ति उन्नतः पाठान्तरेण 'उन्नामेति । उन्नामः, तथा मायादीनि सप्तदश मायाकषायस्य ''मे'त्ति न्यवमं 'कक्के त्ति कल्कं 'कुरुए'त्ति कुरुकं 'जिम्हे'त्ति जैसं, तथा लोभादीनि चतुर्दश लोभकपायस्व 'भिजा अभिजत्ति अभिध्यानमभिध्येत्यस्य तीतं पिधानमित्यादाविव वै- ७१॥ कल्पिके अकारलोपे भिध्याऽभिध्या चेति शब्दभेदानामद्वयमिति, 'गोथू'त्यादि गोस्तुभस्य प्राच्या लवणसमुद्र-15 मध्यवर्त्तिनो वेलन्धरनागराजनिवासभूतपर्वतस्य पौरस्त्याचरमान्तादपसृत्य वडवामुखस्य महापातालकलशस्य पाश्चा-1
अनुक्रम [१३०]
मोहनीयकर्मण: द्विपंचाशत-पर्याय नामानि
~153~
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१२], -------------------------------- मूल [५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१२]
त्यश्चरमान्तो येन व्यवधानेन भवतीति गम्यते, 'एस गंति एतदन्तरमबाधया व्यवधानलक्षणमित्यर्थः, द्विपञ्चाशयोजनसहस्राणि भवन्तीत्यक्षरघटना, भावार्थस्त्वयं-दह लवणसमुद्रं पञ्चनवतियोजनसहस्राण्यवगाय पूर्वादिषु दिक्ष चत्वारः क्रमेण बडवामुखकेतुकजूपकेश्वराभिधाना महापातालकलशा भवन्ति, तथा जम्बूद्वीपपर्यन्ताद् द्विचत्वारिंशयोजनसहस्राण्यवगाध सहस्रविष्कम्भाश्चत्वार एव वेलन्धरनागराजपर्वता गोस्तुभादयो भवन्ति, ततश्च पञ्चनबत्यात्रिचत्वारिंशत्यपकर्पितायां द्विपञ्चाशत्सहस्राण्यन्तरं भवति, तथा सौधर्मे द्वात्रिंशद्विमानानां लक्षाणि सनत्कुमारे द्वादश माहेन्द्रे चाष्टाविति सर्वाणि द्विपञ्चाशत् ।। ५२॥
देवकुरुउत्तरकुरुयाओ णं जीवाओ तेवन्नं २ जोयणसहस्साई साइरेगाई आयामेणं प०, महाहिमवंतरुप्पीणं वासहरपब्वयाणं जीवाओ तेवन्नं तेवनं जोयणसहस्साइ नव य एगतीसे जोयणसए छच्च एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामणं प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स तेवन्नं अणगारा संवच्छरपरियाया पंचसु अणुत्तरेसु महइमहालएसु महाविमाणेसु देवताए उववन्ना, संमुच्छिमउरपरिसप्पाणं उक्कोसणं तेवन्नं वाससहस्सा ठिई प० ॥ सूत्रं ५३ ॥ त्रिपञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, 'महाहिमवंते'त्यादि सूत्रे संवादगाथा 'तेवन्नसहस्साइं नव य सए जोयणाण इगतीसे । जीवा महाहिमवओ अद्धकला छच य कलाओ॥१॥त्ति । 'संवच्छरपरियाग'त्ति संवत्सरमेकं यावत् पर्यायः प्रत्रज्यालक्षणो येषां ते संवत्सरपर्यायाः 'महइमहालएसु महाविमणेसु'त्ति महान्ति च तानि-विस्तीर्णानि च अतिमहाल
प्रत
अनुक्रम [१३०]
~154~
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१३], ---------------- ---------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीअभया
समवायाध्य.
प्रत सूत्रांक [५३]
194%
श्रीसमवा- याश्च-अत्यन्तमुत्सवाश्रयभूतानि महातिमहालयास्तेषु महान्ति च तानि प्रशस्तानि विमानानि चेति विग्रहः एते ५३-५४यांगे। |चाप्रतीताः, अनुत्तरोपपातिकाङ्गे तु येऽधीयन्ते ते त्रयस्त्रिंशत् बहुवर्षपर्यायाश्चेति ॥ ५३ ॥
५५ भरहेरवएसु णं वासेसु एगमेगाए उस्सप्पिणीए ओसप्पिणीए चउवन्न २ उत्तमपुरिसा उप्पजिंसु वा ३, तं०-चउवीसं तित्थकरा वृत्तिः
बारस चक्कवट्टी नव बलदेवा नव वासुदेवा, अरहा णं अरिद्वनेमी चउवन्नं राइंदियाई छउमत्थपरियाय पाउणित्ता जिणे जाए ॥७२॥ केवली सम्बनू सब्वभावदरिसी, समणे भगवं महावीरे एगदिवसेणं एगनिसिजाए चउप्पन्नाई वागरणाई वागरित्था, अणंतस्स णं
अरहओ चउपन्नं गणहरा होत्था ॥ सूत्रं ५४॥
चतुष्पश्चाशत्स्थानके लिख्यते, 'पाउणित्त'त्ति प्राप्य, 'एगणिसेजाए'त्ति एकनासनपरिग्रहेण 'वागरणाई'ति व्या-|| माक्रियन्ते-अभिधीयन्ते इति व्याकरणानि-प्रश्ने सति निवर्चनतयोच्यमानाः पदार्थाः 'वागरित्य'त्ति व्याकृतवान्
तानि चाप्रतीतानि, अनन्तनाथस्वेह चतुष्पञ्चाशद्णा गणधराश्चोक्ताः । आवश्यके तु पञ्चाशदुक्तास्तदिद मतान्तरमिति ॥ ५४॥
मलिस्स णं अरहओ पणपन्नं वाससहस्साई परमाउँ पालइत्ता सिद्धेबद्ध जावप्पहीणे, मंदरस्स णं पव्वयस्स पचच्छिमिलाओ चरमंताओ विजयदारस्स पञ्चच्छिमिले चरमंते एस ण पणपन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउदिसिपि बेजयंतज
ब ॥७२॥ यंतअपराजियंति, समणे भगवं महावीरे अंतिमराइयंसि पणपन्नं अज्झयणाई कलाणफलविवागाई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई वागरिचा सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे ॥ सूत्रं ५५॥
प्रत अनुक्रम [१३१]
ACK
SA
~155
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [५५], ------------------------- ----- मूल [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
%%ACCRAC
[५५]]
प्रत
पढमविद्यासु दोसु पुढवीसु पणपन्न निरयावाससयसहस्सा प०, दसणावरणिञ्जनामाउयाणं तिहं कम्मपगडीणं पणपन्नं उत्तरपगडीओ प०॥ सूत्रं ५५ ॥
पञ्चपञ्चाशत्स्थानके विदं लिख्यते, 'मन्दरखे'त्यादि, इह मेरोः पश्चिमान्तात् पूर्वस्य जम्बूद्वीपद्वारस्य पश्चिमान्तः पञ्चपञ्चाशत् सहखाणि योजनानां भवतीत्युक्तं, तत्र किल मेरोर्विष्कम्भमध्यभागात् पञ्चाशत्सहस्राणि द्वीपान्तो भवति, लक्ष-18 प्रमाणत्वादू द्वीपस्थ, मेरुविष्कम्भस्य च दशसाहसिकत्वाद् द्वीपाधै पञ्चसहस्रक्षेपेण पञ्चपञ्चाशदेव भवन्तीति, इह च यद्यपि विजयद्वारस्य पश्चिमान्त इत्युक्तं तथापि जगत्याः पूर्वान्त इति किल सम्भाव्यते, मेरुमध्यात् पञ्चाशतो योजनसहस्राणां जगत्या बाह्यान्ते पूर्यमाणत्वात् , जंबूद्वीपजगतीविष्कम्भेन च सह जम्बूद्वीपलक्षं पूरणीयं, लवणसमुद्रजगतीविष्कम्भेन च सह लवणसमुद्रलक्षद्वयमन्यथा द्वीपसमुद्रमानाजगतीमानस्य पृथग्गणने मनुष्यक्षेत्रपरिधिरतिरिक्ता स्यात् , सा हि पञ्चचत्वारिंशलक्षप्रमाणक्षेत्रापेक्षयाऽभिधीयते, ततश्चैवमतिरिक्ता स्यादिति, अथवेह किञ्चिदूनापि पञ्चपञ्चाशत्पूर्णतया विवक्षितेति, 'अन्तिमरायसि'त्ति सर्वायुःकालपर्यवसानरात्रौ रात्रेरन्तिमे भागे पापायां मध्यमायाँ नगर्या हस्तिपालस्य राज्ञः करणसभायां कार्तिकमासामावास्थायां खातिनक्षत्रेण चन्द्रमसा युक्तेन नागकरणे प्रत्यूषसि पयहासननिषण्णः | पञ्चपञ्चाशदध्ययनानि 'कल्लाणफलविवागाईति कल्याणस्य-पुण्यस्य कर्मणः फलं-कार्य विपाच्यते-व्यक्तीक्रियते यैस्ता-2 नि कल्याणफलविपाकानि, एवं पापफलविपाकानि ब्याकृत्य-प्रतिपाद्य सिद्धो बुद्धः यावत्करणात् 'मुत्ते अंतकडे परि-6
अनुक्रम [१३३]
-%A1
१३ सम.
SHREILLEGunintentiational
~156~
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [५५], ----------------------------------- मूल [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा- यांगे | वृत्तिः ॥७३॥
श्रीअभय
AX
५७ समवायाध्य.
सूत्राक
[५५]
प्रत
निबुडे सघदुक्खप्पहीणे'त्ति दृश्य। 'पढमे त्यादि, प्रथमायां त्रिंशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिरिति पञ्चपञ्चाशत् ।। | 'दसणे'त्यादि, दर्शनावरणीयस्य नव प्रकृतयो नासो द्विचत्वारिंशत् आयुषश्चतस्त्र इत्येवं पञ्चपञ्चाशदिति ॥ ५५॥
जंबुद्दीवे णं दीवे छप्पन्न नक्खत्ता चंदेण सद्धिं जोमं जोइंसु वा ३, विमलस्स णं अरहओ छप्पन्नं गणा छप्पन्नं गणहरा होत्था ॥ सूत्र ५६॥
अथ पट्पञ्चाशत्स्थानके लिख्यते, 'जम्बुद्दीचे'इत्यादि, तत्र चन्द्रद्वयस्य प्रत्येकमष्टाविंशतेर्भावात् षट्पञ्चाशनक्षत्राणि भवन्ति, विमलस्पेह षट्पञ्चाशद्गणा गणधराश्चोक्ताः आवश्यके तु सप्तपञ्चाशदुच्यते तदिदं मतान्तरमिति ॥५६॥ तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलियावजाण सत्तावन्नं अज्झयणा प० तं-आयारे सूयगडे ठाणे, गोथूभस्स णं आवासपव्वयस्स पुरच्छिमिलाओ चरमंताओ वलयामुहस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं सत्तावन्नं जोवणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं दगभासस्स केउयस्स य संखस्स य जूयस्स य दयसीमस्स ईसरस्स य, मल्लिस्स णं अरहओ सत्तावन्नं मणपजवनाणिसया होत्था, महाहिमवंतरूप्पीणं यासहरपव्ययाणं जीवाणं धणुपिटु सत्तावन्नं २ जोयणसहस्साई दोन्नि य तेणउए जोयणसए दस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स परिक्खेवेणं प० ॥ सूत्र ५७ ।।
अथ सप्तपञ्चाशत्स्थानके किमपि लिख्यते, 'गणिपिडगाणं'ति गणिनः-आचार्यस्य पिटकानीय पिटकानि सर्व-18 खभाजनानीति गम्यते गणपिटकानि तेषां आचारस्य श्रुतस्कन्धद्वयरूपस्य प्रथमाङ्गस्य चूलिका-सवोंन्तिममध्ययनं|
अनुक्रम [१३३]
२६%२-२-%
A-%
A
~157~
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[ ५७ ]
प्रत
अनुक्रम
[१३५]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [५७], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
विमुक्त्त्यभिधानमाचारचूलिका तद्वर्जाना, तत्राचारे प्रथमथुतस्कन्धे नवाध्ययनानि द्वितीये षोडश निशीथाध्ययनस्य प्रस्थानान्तरत्वेनेहानाश्रयणात्, षोडशानां मध्ये एकस्याचारचूलिकेति परिहृतत्वात् शेषाणि पञ्चदश, सूत्रकृते द्वितीयाङ्गे प्रथमथुतस्कन्धे षोडश द्वितीये सप्त स्थानाङ्गे दशेत्येवं सप्तपञ्चाशदिति, 'गोधूमे' त्यादौ भावार्थोऽयं द्विचत्वारिंशत्सहस्राणि वेदिकागोस्तुभपर्व तयोरन्तरं सहस्रं गोस्तुभस्य विष्कम्भः द्विपञ्चाशद्गोस्तुभवडवामुखयोरन्तरं दशस| हस्रमानत्वाद्वडवामुखविष्कम्भस्य तदर्द्ध पञ्चेति ततो द्विपञ्चाशतः पञ्चानां च मीलने सप्तपञ्चाशदिति, 'जीवाणं धणुपिट्ठन्ति मण्डलखण्डाकारं क्षेत्रं, वह सूत्रे संवादगाथा - "सत्तावन्न सहस्सा धणुपिडं तेणउय दुसय दस कल" त्ति ५७ पढमदोचपंचमासु तिसु पुढवीसु अट्ठावनं निरयावाससयसहस्सा प०, नाणावरणिजस्स वेयणियआउयनामअंतराइयस्स एएसिणं पंचकम्मपगडीणं अट्ठावन्नं उत्तरपगडीओ प०, गोधुभस्स णं आवासपव्वयस्स पञ्चच्छिमिलाओ चरमंताओ वलयामुइस महापायास्स बहुमज्झदेसभाए एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउदिसिंपि नेयव्वं ॥ सूत्रं ५८ ॥ अष्टपञ्चाशत् स्थानकेऽपि लिख्यते, 'पढमे' त्यादि तत्र प्रथमायां त्रिंशन्नरकलक्षाणि द्वितीयायां पञ्चविंशतिः पञ्चम्या त्रीणीति सर्वाण्यष्टपञ्चाशदिति, 'नाणे'त्यादि, तत्र ज्ञानावरणस्य पञ्च वेदनीयस्य द्वे आयुपश्चतस्त्रो नानो द्विचत्वारिंशत् अन्तरायस्य पञ्चेति सर्वा अष्टपञ्चाशदुत्तरप्रकृतयः 'गोथूनस्से'त्यादि, अस्य च भावार्थ: पूर्वोक्तानुसारेणावसेयः, 'एवं चउद्दिर्सिपि नेयचं ति अनेन सूत्रत्रयमतिदिष्टं तचैवं- 'दओभासस्स णं आवासपवयस्स उत्तरिल्लाओ
For Park Lise Only
मूलं [५७] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~158~
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [५८]. ------------------------------------ मुलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा- यांगे
६० सम
प्रत
वायाध्य.
सुत्राक
वृत्तिः
[५८]
॥७४॥
प्रत
चरिमंताओ केउगस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभागे एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते, एवं संखस्स आवासपचयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ जूयगस्स महापातालस्स, एवं दगसीमस्स आवासपावयस्स दाहिणिलाओ चरिमंताओ ईसरस्स महापायालस्स'त्ति ॥ ५८ ॥
चंदस्सणं संवग्छरस्स एगमेगे उऊ एगूणसहि राईदियाई राइंदियग्गेणं प०, संभवे णं अरहा एगूणसहि पुच्चसयसहस्साई आगारमज्झे पसित्ता मुंडे जाव पब्वइए, मलिस्स गं अरहओ एगूणसहि ओहिनाणिसया होत्था ॥ सूत्र ५९॥
अथैकोनषष्टिस्थानके लिख्यते, 'चंदस्स ण'मित्यादि, संवत्सरो बनेकविधः स्थानाङ्गादिषूक्तः, तत्र यश्चन्द्रगति मङ्गीकृत्य संवत्सरो विवक्ष्यते स चन्द्र एव, तत्र च द्वादश मासाः षट् च ऋतवो भवन्ति, तत्र चैकैक ऋतुरेकोनपष्टिरात्रिन्दिवानां रात्रिन्दिवाग्रेण भवति, कथं ?, एकोनत्रिंशद्रात्रिंदिवानि द्वात्रिंशच पष्टिभागा अहोरात्रस्वेत्येवंप्रमाणः कृष्णप्रतिपदमारभ्य पौर्णमासीपरिनिष्ठितः चन्द्रमासो भवति, द्वाभ्यां च ताभ्यामृतुर्भवति, तत एकोनषष्टिः अहोरात्राण्यसो भवति, यचेह द्विषष्टिभागद्वयमधिकं तन्न विवक्षितं, सम्भवस्यैकोनषष्टिः पूर्वलक्षाणि गृहस्थपर्याय इहोक्तः, आवश्यके तु चतुःपूर्वाङ्गाधिका सोक्तेति ॥ ५९॥ एगमेगे ण मंडले सूरिए सहिए सहिए मुहुत्तेहिं संघाइए, लवणस्स णं समुदस्स सहि नागसाहस्सीओ अम्गोदयं धारंति, विमले णं जरहा सहि धणूई उहूं उच्चत्तेणं होत्था, बलिस्स णं वइरोयर्णिदस्स सहि सामाणियसाहस्सीओ प०, बंभस्स णं देविंदस्स
अनुक्रम [१३६]
॥ ७४॥
SUREairam
~159~
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः ) समवाय [६०], -------------
---------------------------- मूल [६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[६०]
KESARC%AAA
देवरन्नो सहि सामाणियसाहस्सीओ प०, सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पेसु सढि विमाणावाससयसहस्सा प० ॥ सूत्र ६०॥ ___ अथ पष्टिस्थानकं, तत्र 'एगमेगे'इत्यादि, चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां सूर्यमण्डलानामेकैकं मण्डलं-तथाविधचारभूमिः सूर्यः षष्ट्या षष्ट्या मुहूतैः-द्वाभ्यां द्वाभ्यामहोरात्राभ्यामित्यर्थः सङ्घातयति-निष्पादयति, अयमत्र भावार्थ:एकस्मिन्नहि यत्र स्थाने उदितः सूर्यस्तत्र स्थाने पुनर्वाभ्यामहोरात्राभ्यामुदेतीति 'अग्गोदय'ति पोडशसहस्रोच्छ्रिताया बेलाया यदुपरि गन्यूतद्वयमानं वृद्धिहानिखभावं तदनोदकं, 'बलिस्स'त्ति औदीच्यस्य असुरकुमारनिकायरा-13 जस्य भवन, 'बंभस्स'त्ति ब्रह्मलोकाभिधानपञ्चमदेवलोकेन्द्रस्य, 'सढि'त्ति सौधर्म द्वात्रिंशदीशाने चाष्टाविंशतिर्विमानलक्षाणीतिकृत्वा षष्टिस्तानि भवन्तीति ।। ६०॥ पंचसंवच्छरियस्स णं जुगस्स रिउमासेणं मिजमाणस्स इगसहि उऊमासा ५०, मंदरस्स णं पव्वयस्स पढमे कंडे एमसद्विजोयण
सहस्साई उई उचत्तेणं प०, चंदमंडलेणं एगसहिविभागविभाइए समंसे पं०, एवं सूरस्सवि ॥ सूत्र ६१॥ ___ अथ एकपष्टिस्थानकं, तत्र 'पञ्चे'त्यादि, पञ्चभिः संवत्सरैर्निवृत्तमिति पञ्चसांवत्सरिकं तस्य णमित्यलङ्कारे युगस्य । कालमानविशेषस्य ऋतुमासेन न चन्द्रादिमासेन मीयमानस्य एकषष्टिः ऋतुमासाः प्रज्ञप्ताः, इह चायं भावार्थ:युगं हि पञ्च संवत्सरा निष्पादयन्ति, तद्यथा-चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवर्द्धितः चन्द्रोऽभिवर्धितश्चेति, तत्र एकोनत्रिंशदहोरात्राणि द्वात्रिंशच द्विपष्टिभागा अहोरात्रस्येत्येवंप्रमाणेन २९१३ कृष्णप्रतिपदमारभ्य पौर्णमासीनिष्ठितेन
प्रत
अनुक्रम [१३८]
~160~
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६१], ------------------------- ----- मूल [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
[६१]]
श्रीसमवा- चन्द्रमासेन द्वादशमासपरिमाणश्चन्द्रसंवत्सरस्तस्य च प्रमाणमिदं-त्रीणि शतान्यहां चतुष्पञ्चाशदुत्तराणि द्वादश च|६१ समयांगे द्विषष्टिभागा दिवसस्य ३५४१३, तथा एकत्रिंशदां एकविंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानां दिवसस्ये
बाबाध्य श्रीअभय सेवंप्रमाणोऽभिवर्द्धितमासो भवति, ३११३१, एतेन च मासेन द्वादशमासप्रमाणोऽभिवर्द्धितसंवत्सरो भवति, सच वृचिप्रमाणेन त्रीणि शतान्यहां यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच द्विषष्टिभागा दिवसस्य ३८३५५ । तदेवं त्रयाणां च-/ ॥७५॥ न्द्रसंवत्सराणां द्वयोश्चाभिवर्द्धितसंवत्सरयोरकीकरणे जातानि [दिनानां] अष्टादश शतानि त्रिंशदुत्तराणि अहोरात्राणां दी
१८३०, ऋतुमासश्च त्रिंशताऽहोरात्रैर्भवतीति त्रिंशता भागहारे लब्धा एकषष्टिः ऋतुमासा इति । 'मंदरस्से'त्यादि,
इह मेरुर्नवनवतियोजनसहस्रप्रमाणो द्विधा विभक्तः, तत्र प्रथमो भाग एकपष्टिः सहस्राण्युक्तः द्वितीयस्तु अष्टत्रिंशत्-16 दास्थानकेऽष्टत्रिंशदिति प्रोक्तः, क्षेत्रसमासे तु कन्देन सह लक्षप्रमाणस्त्रिधा विभक्तः, तत्र प्रथमकाण्डं सहस्रं द्वितीयं
त्रिषष्टिस्तृतीय पत्रिंशदिति । 'चन्द्रमण्डले' चन्द्रविमानं णमित्यलकृतौ 'एगसहित्ति योजनस्सैकषष्टितमैौगर्विमाजितं-विभागैर्व्यवस्थापितं समांश-समविभागं प्रज्ञसं, न विषमांश, योजनस्यैकपष्टिभागानां षट्पञ्चाशद्भागप्रमाणत्यात्तस्यावशिष्टस्य च भागस्याविद्यमानत्वादिति, ‘एवं सूरस्सवित्ति एवं सूर्यस्यापि मण्डलं वाच्यं, अष्टचत्वारिंशदे-18|॥५॥ कपष्टिभागमात्रं हि तत् न चापरमंशान्तरं तस्याप्यस्तीति समशितेति ॥६१॥ पंचसंवच्छरिए णं जुगे बासीह पुन्निमाओ बावढि अमावसाओ प०, वासुपुद्धस्स णं अरहओ वासढि गणा वासद्धिं गणहरा
प्रत
अनुक्रम [१३९]
~161~
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[६२]
प्रत
अनुक्रम
[१४०]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [६२]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [६२], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
चन्द्रस्य चार वर्णनं
होत्या, सुकपक्खस्स णं चंदे बासहिं भागे दिवसे दिवसे परिवइ, ते चैव बहुलपक्खे दिवसे दिवसे परिहायर, सोहम्मीसासुपे पढमे पत्थडे पढमावलियाए एगमेगाए दिसाए बासहिं विमाणा प०, सब्वे वेमाणियाणं बासहि विमाणपत्थडा
पत्थडग्गेणं प० ॥ सूत्रं ६२ ॥
अथ द्विपष्टिस्थानकं, 'पञ्चेत्यादि, तत्र युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति तेषु पत्रिंशत् पौर्णमास्यो भवन्ति, द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरौ भवतः, तत्र चाभिवर्द्धितसंवत्सरत्रयोदशभिश्चन्द्रमासैर्भवतीति तयोः षड्विंशतिः पौर्णमास्य इत्येवं द्विषष्टिस्ता भवन्ति इत्येवममावास्या अपीति । वासुपूज्यस्येह द्विषष्टिर्गणा गणधराश्रोक्ता आवश्यके तु षट्षष्टिरुक्तेति मतान्तरमिदमपीति, 'सुकपक्खस्से'त्यादि, शुक्लपक्षस्य सम्बन्धी चन्द्रो द्विषष्टिभागान् प्रतिदिनं वर्द्धते, एवं कृष्णपक्षे चन्द्रः परिहीयते, अयं चार्थः सूर्यप्रज्ञयामप्युक्तः, तथाहि "किहं राहुविमाणं निचं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमप्पत्तं हेट्ठा चंदस्स तं चरइ ॥ १ ॥ वावडिं बावडिं दिवसे २ य सुकपक्खस्स । जं परिवदुइ चंदो खवेह तं चैव कालेन || २ || पन्नरसयभागेण य चंदं पन्नरसमेव तं चरइ । पण्णरसयभागेण य पुणोवि तं चैववकमर ॥ ३ ॥ एवं बहुए चंदो परिहाणी एव होइ चंदस्स । कालो वा जोण्डा वा एयणुभावेण चंदस्स ॥ ४ ॥ [ कृष्णं राहुविमानं नित्यं चन्द्रेण भवत्यविरहितं । चतुरङ्गुलमप्राप्तमधस्ताचन्द्रस्य तचरति ॥ १ ॥ द्वाषष्टिं २ दिवसे २ च शुक्लपक्षस्य । परिवर्धते चन्द्रः क्षपयति तावदेव कृष्णेन ॥ २ ॥ पञ्चदशभागेन च चन्द्रं पञ्चदशमेव तत्
For Park Use Only
~162~
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[६२]
प्रत
अनुक्रम [१४०]
समवाय [६२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे
श्रीअभय०
वृत्तिः
॥ ७६ ॥
चरति । पञ्चदशभागेन च पुनरपि तावदेवाक्रामति ॥ ३ ॥ एवं वर्धते चन्द्रः परिहाणिरेवं भवति चन्द्रस्य । कृष्णता वा ज्योत्स्ना वैतदनुभावेन चन्द्रस्य ॥ ४ ॥ ] तथा तत्रैवोक्तम् - "सोलसभागे काऊण उडुबई हायएत्थ पन्नरसं । तत्तियमेत्ते भागे पुणोवि परिवहुए जोन्हा ॥ १ ॥” इति । [ षोडशभागान् कृत्योपतिर्हीयतेऽथ पञ्चदश । तावन्मात्रान् ६ भागान् पुनरपि परिवर्धते ज्योत्स्ना ॥ १ ॥ ] तदेवं भणितद्वयानुसारेणानुमीयते यथा चन्द्रमण्डलस्य एकत्रिंशदुत्तरनवशतभागविकल्पितस्य एकांशोऽवस्थित एवास्ते, शेषाः प्रतिदिवसं द्विषष्टिं द्विषष्टिं कृत्वा वर्द्धन्ते, ततः पञ्चदशे चन्द्रदिने सर्वे समुदिता भवन्ति, पुनस्तथैव हीयन्ते पञ्चदशे दिने एकावशेषा भवन्तीति वचनद्वयसामर्थ्य लभ्यं व्याख्यानमेतत्, जीवाभिगमे तु 'बावहिं २' गाहा तथा 'पन्नरसतिभागेण' गाथा, एते गाथे एवं व्याख्याते - 'बाबा' २ इत्यन्न द्विषष्टि २ भगानां दिवसे २ च प्रत्यहमित्यर्थः, शुक्लपक्षस्य सम्बन्धिनि यत् परिवर्द्धते चन्द्रश्चतुरः साधिकानू द्विषष्टिभागान् क्षपयति तदेव कालेनैतदेवाह - 'पन्नरस' इत्यादिना, चन्द्रविमानं द्विषष्टिभागान् क्रियते ततः | पञ्चदशभिर्भागोऽपहियते ततश्वत्वारो भागाः समधिका द्विषष्टिभागानां पञ्चदशभागेन लभ्यन्ते, अत उच्यते-पञ्चदशभागेन चोकलक्षणेन चन्द्रमधिकृत्य पञ्चदशैव दिवसांस्तद्राहुविमानं चरति, एवमपक्रामतीत्यपि भावनीयमिति, अत्रास्माभिर्यथादृष्टे लिखिते उपनीते बहुश्रुतैर्निर्णयः कार्य इति । [ १ यद्येकमंशं दर्शयचंन्द्रश्वरति एकमेव चांशं राहुश्चरति तदा प्रत्यहं द्वावंशावाच्छादनीयी जायेते पञ्चदशभिश्च दिनैराच्छादितोऽप्यंशद्वयमवतिष्ठते तस्याप्यर्ध
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [६२]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Education international
चन्द्रस्य चार वर्णनं
For Pale Only
~ 163~
६२ समवायाध्य.
11 191
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६२], ------------------------- ----- मूल [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[३२]
प्रत अनुक्रम [१४०]
माच्छादनीयमेकैकेनेति भाग एक आच्छाद्य इति द्विषष्टिभागीकरणं] 'सोहम्मी'यादि, तत्र सौधर्मेशानयोस्त्रयोदश |
विमानप्रवटा भवन्ति, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोदश प्रशलोके पद लान्तके पञ्च शुक्र चत्वार एवं सहस्रारे आनतप्रापणतयोश्चत्वार एवमारणाच्युतयोः देयकेष्वधस्तनमध्यमोपरिमेषु त्रयः २ अनुत्तरेवेक इति द्विपष्टिस्ते भवन्ति,
एतेषां च मध्यभागे प्रत्येकमुडविमानादिकाः सर्वार्थसिद्धविमानान्ता वृत्तबिमानरूपा द्विषष्टिरेव विमानेन्द्रका भवन्ति, तत्पार्थतच पूर्वादिषु दिक्षु त्र्यत्रचतुरस्रवृत्तविमानक्रमेण विमानानामावलिका भवन्ति, तदेवं सौधर्मेशा-14 नयोः कल्पयोः प्रथमे प्रस्तटे-सर्वाधस्तन इत्यर्थः ‘पढमावलियाए'त्ति प्रथमा उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया आद्याश्चतस्र, आवलिका यस्मिन् स प्रथमावलिकाकस्तत्र, अथवा प्रधमात् मूलभूताद्विमानेन्द्रकादारभ्य याऽसावावलिका-विमाना-12
नुपूर्वी तया अथवोत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमा-आद्यावलिका तस्यां 'पढमावलिय'त्ति पाठान्तरे दातु उत्तरोत्तरावलिकापेक्षया एकैकस्यां दिशि या प्रथमावलिका सा द्विषष्टिषिष्टिविमानप्रमाणेन प्रज्ञसेति, 'एगमे
गाए'त्ति उड्डविमानाभिधानदेवेन्द्रकापेक्षया एकैकस्यां पूर्वादिकायां दिशि द्विषष्टिषिष्टिविमानानि प्रज्ञप्तानि, द्विनातीयादिषु पुनः प्रस्तटेषु एकैकहान्या विमानानि भवन्ति यावद्विषष्टितमेऽनुत्तरसुरप्रस्तटे सर्वार्थसिद्धदेवेन्द्रकः पार्थे
तदेकैकमेव भवतीति, तथा 'सोचि सर्वे वैमानिकानां देवविशेषाणां सम्बन्धिनो द्विपष्टिविमानप्रस्तटा-विमानप्रस्तराः प्रस्तटाण-प्रस्तटपरिमाणेन प्रज्ञप्ता इति ॥ ६२ ॥
5-%
SAMEmirational
चन्द्रस्य चार: वर्णनं
~164~
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६३], -------------------------------- मूल [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
मवायाध्य.
सुत्रांक
[६३]
श्रीसमवा- उसमे थे अरहा कोसलिए तेसहि पुव्वसयसहस्साई महारायमझे वसित्ता मुंडे भक्त्तिा अगाराओ अणगारियं पवइए, हरिवासर- |
यांगे II म्मयवासेसु मणुस्सा तेवहिए राइदिएहिं संपत्तजोवणा भवति, निसढे णं पञ्चए तेवहि सूरोदया प०, एवं नीलवंतेवि ॥ सूत्र ६३॥ श्रीअभय० अथ त्रिषष्टिस्थानक, तत्र 'संपत्तजोवण'त्ति मातापितृपरिपालनानपेक्षा इत्यर्थः, 'निसहे ग'मित्यादि, किल सूर्य-IN वृत्तिः
मण्डलानां चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां मध्यात् जम्बूद्वीपस्य पर्यन्तिमे अशीत्युत्तरे योजनशते पञ्चषष्टिर्भवन्ति, तत्र च निषधवर्षधरपर्वतस्योपरि नीलवकर्पधरपर्वतस्योपरि च त्रिषष्टिः सूर्योदयाः-सूर्योदयस्थानानि सूर्यमण्डलानीत्यर्थः, त-15 दन्ये तु द्वे जगत्या उपरि, शेषाणि तु लवणे त्रिपु त्रिंशदधिकेयु योजनशतेषु भवन्तीति भावार्थः ॥ ६३॥ अहमिया णं भिक्खुपडिमा चउसट्ठीए राइदिएहिं दोहि य अट्ठासीएहिं भिक्खासएहिं अहासुत्तं जाव भवइ, चउसहि असुरकुमारावाससयसहस्सा प०, चमरस्स णं रन्नो चउसहि सामाणियसाहस्सीओ प०, सन्चेवि णं दधिमुद्दा पचया पलासंठाणसंठिया सब्बत्य समा विक्खंभुस्सेहेणं चउसहि जोयणसहस्साई प०, सोहम्मीसाणेसु बंभलोए य तिसु कप्पेसु चउसहि विमाणावाससयसहस्सा ५०, सवस्सवि य गं रन्नो चाउरन्तचक्कवहिस्स चउसट्ठिलट्ठीए महग्घे मुत्तामणिहारे प० ॥ सूत्र ६४॥
अथ चतुःषष्टिस्थानकं 'अढे'त्यादि, अष्टावष्टमानि दिनानि यस्यां साऽष्टाष्टमिका यस्यां हि अष्टौ दिनाष्टकानि | भवन्ति तस्यामष्टावष्टमानि भवन्त्येवेति, भिक्षुप्रतिमा-अभिग्रहविशेषः अष्टावष्टकानि यतोऽसौ भवत्यतश्चतुःषष्ट्या रात्रिंदिवैः सा पालिता भवति, तथा प्रथमेऽष्टके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा एवं द्वितीये द्वे द्वे यावदष्टमे अष्टावष्टाविति
प्रत
अनुक्रम [१४१]
॥७७॥
wirelunurary.orm
~165~
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६४], ------------------------- ----- मूल [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
CREA 4
सत्राक
[६४]
सङ्कलनया द्वे शते भिक्षाणामष्टाशीत्यधिके भवतः अत उक्तं-'द्वाभ्यां चे'त्यादि, यावत्करणात् 'अहाकप्पं अहामग्गं फासिया पालिया सोहिया तीरिया किडिया सम्मं आणाए आराहियापि भवतीति दृश्यं, 'सधेवि 'मित्यादि इतोऽष्टमे नन्दीश्वराख्य द्वीपे पूर्यादिपु दिक्षु चत्वारोऽजनकपर्वता भवन्ति, तेषां च प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु चतस्रः युकरिण्यो भवन्ति, तासां च मध्यभागेषु प्रत्येकं दधिमुखपर्वता भवन्ति, ते च षोडश पल्यङ्कसंस्थानसंस्थिताः, यतः सर्वत्र समा विष्कम्भेन, मूलादिषु दशसहस्रविष्कम्भत्वात्तेषां, कचित्तु 'विक्खंभुस्सेहेणं'ति पाठस्तत्र तृतीयैकवचनलोपदर्शनाद्विष्कम्भेनेति व्याख्येयं, तथा उत्सेधेनोवत्वेन चतुःषष्टिश्चतुःषष्टिरिति, 'सोहम्मी'सादि, सौधर्म द्वात्रिशदीशानेऽष्टाविंशतिः ब्रह्मलोके च चत्वारि विमानलक्षाणि भवन्तीति सर्वाणि चतुःषष्टिरिति, 'चउसट्ठिलट्ठीएत्ति चतुःषष्टिर्यष्टीना-शरीराणां यस्मिन्नसौ चतुःषष्टियष्टिकः 'मुत्तामणिमये ति मुक्ताच-मुक्ताफलानि मणयःचन्द्रकान्तादिरलविशेषाः मुक्तारूपा वा मणयो-रत्नानि मुक्तामणयस्तद्विकारो मुक्तामणिमयः ॥ ६४ ॥
जम्पुदीवेणं दीवे पणसहि सूरमंडला प०, थेरे णं मोरियपुत्ते पणसहिवासाई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणयारिय पव्वइए, सोहम्मवळिसयस्स णं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए पणसद्धिं पणसहि भोमा प० ॥ सूत्र ६५ ॥
अथ पञ्चषष्टिस्थानकं, तत्र 'मोरियपुत्ते 'ति मौर्यपुत्रो भगवतो महावीरस्य सप्तमो गणधरस्तस्य पश्चषष्टिवर्षाणि रहस्थपर्यायः, आवश्यकेऽप्येवमेवोक्तो, नवरमेतस्यैव यो वृहत्तरो भ्राता मण्डितपुत्राभिधानः पष्ठो गणधरः तद्दीक्षा
प्रत
A5%
अनुक्रम [१४२]
SAC%
~166~
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६५], ------------------------- ----- मूल [६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा- यांगे
प्रत
मवायाध्य.
तिः
सूत्राक [६५]]
॥७८॥
ARRORE-READ
प्रत
दिन एवं प्रबजितस्तस्यावश्यके, त्रिपञ्चाशद्वर्षाणि गृहस्थपर्याय उक्तो न च बोधविषयमुपगच्छति यतो बृहत्तरस्य ६५-६६सपञ्चषष्टियुज्यते लघुतरस्य त्रिपञ्चाशदिति, 'सोहम्मत्यादि, सौधर्मावतंसक विमानं सौधर्मदेवलोकस्य मध्यभागवर्ति शनिवासभूतं, 'एगमेगाएत्ति एकैकस्यां दिशि प्राकाराभ्यर्णवर्तीनि भौमानि नगराकाराणि, विशिष्टस्थानानीत्येके ६५ दाहिणड्डमाणुस्सखेत्ताणं छावहिँ चंदा पमासिसु वा ३ छावहिँ सूरिया तर्विसु वा ३ उत्तरहृमाणुस्सखेत्ताणं छावढि चंदा पभासिसु वा ३ छावहि सूरिया तर्विसु वा ३, सेअंसस्स णं अरहओ छावहि गणा छावढि गणहरा होत्था, आमिणिबोहियनाणस्स णं उक्कोसेणं छावडिं सागरोवमाई ठिई प०॥ सूत्रं ६६॥ .
अथ षट्षष्टिस्थानकं, तत्र 'दाहिणे'यादि, मनुष्यक्षेत्रस्यार्द्धमर्द्धमनुष्यक्षेत्रं दक्षिणं च तत्तचेति दक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्र है। तत्र भवा दाक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रा पमित्यलकारे षट्षष्टिश्चन्द्राः प्रभासितवन्तः प्रभासनीयं अथवा लिङ्गव्यत्ययादक्षिणानि यानि मनुष्यक्षेत्राणाम नि तानि तथा तानि प्रकाशितवन्तः, पाठान्तरे दक्षिणार्द्धमनुष्यक्षेत्रे प्रभासनीयं प्रभासितवन्तः, ते च एवं-दौ जम्बूद्वीपे चन्द्रौ चत्वारो लवणसमुद्रे द्वादश धातकीखण्डे द्विचत्वारिंशत्कालोदधि-181 समुद्रे द्विसप्ततिश्च पुष्कराधे, सर्वे चैते द्वात्रिंशदधिकं शतं, एतदद्धं च पट्पष्टिदक्षिणपतौ स्थिताः षट्पष्टिश्चोत्तरपती, ७८ ॥ यदा चोत्तरा पतिः पूर्वस्यां गच्छति तदा दक्षिणा पश्चिमायामित्येवं सूर्यसूत्रमप्यवसेयमिति, 'छावढेि गण'त्ति आवश्यके तु पट्सप्ततिरभिहितेतीदं मतान्तरमिति । 'छावहि सागरोयमाई ठिइत्ति यच्चातिरिक्त तदिह न विवक्षितं, यत
अनुक्रम [१४३]
SARERaininternational
~167~
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६६], ------------------------- ----- मूल [६६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[६६]]
K-45
प्रत
एवमिदमन्यत्रोच्यते-'दो बारे विजयाइसु गयस्स तिन्निऽचुए अहव ताई। अइरेगं नरभवियं नाणाजीवाण सबद्धा ॥१॥ इति [द्वे पारे विजयादिषु गतस्य त्रीन् बारान् अथवाऽच्युते तानि । अतिरिक्तं नरभविकं नानाजीवानां | | सर्वाद्धा ॥१॥] ॥६६॥
पञ्चसंवच्छरियस्स ण जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिजमाणस्स सत्तसढि नक्खत्तमासा ५०, हेमवयएरनवयाओ णं पाहाओ सत्तहि सत्चर्टि जोयणसयाई पणपन्नाई तिष्णि य भागा जोयणस्स आयामेणं प०, मंदरस्स णं पव्वयस्स पुरच्छिमिलाओ चरमंताओ गोयमदीवस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं सत्तसढि जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, सन्वेसिपि णं नक्खत्ताणं सीमाविक्खमेणं सत्तढि भाग भइए समंसे प०॥ सूत्र ६७॥
अथ सप्तपष्टिस्थानके किञ्चिद्विप्रियते, तत्र 'पञ्चसंवच्छरी'त्यादि, नक्षत्रमासो येन कालेन चन्द्रो नक्षत्रमण्डलं | मुक्के, स च ससविंशतिरहोरात्राणि एकविंशतिश्चाहोरात्रस्य ससपष्टिभागाः २७१३५, युगप्रमाणं चाष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानीति प्राक् दर्शितम् १८३०, तदेवं नक्षत्रमासस्योक्तप्रमाणराशिना दिनसप्तपष्टिभागतया व्यवस्थापितेन त्रिंशदुत्तराष्टादशशतप्रमाणेन युगदिनप्रमाणराशिः सप्तषष्टिभागतया व्यवस्थापित एक लक्षं द्वाविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि दश चेत्येवंरूपो विभज्यमानः सप्तपष्टिनक्षत्रमासप्रमाणो भवतीति, 'वाहाओ'ति लघुहिमवज्जीवायाः
पूर्वापरभागतो ये प्रवर्द्धमानक्षेत्रप्रदेशपती हैमवतवर्षजीयां यावत्ते हैमवतवाहू उच्यते एवमैरण्यवतबाहू अपि भावनीये, १४ सम. REnation
अनुक्रम [१४४]
Tinaurary.au
~168~
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६], ------------------------- ----- मूल [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[६७]
श्रीसमवा- द इह प्रमाणसंवादः-'बाहा सत्तट्ठिसए पणपन्ने तिन्नि य कलाओत्ति कला-एकोनविंशतिभागः, एतच बाहुप्रमाणं यांगे हैमवतधनुःपृष्ठात् 'चत्ताला सत्त सया अडतीससहस्स दस कला य ध''त्येवंलक्षणात् ३८७४011 हिमवद्धनु:
वाया. श्रीअभय
पृष्ठे 'धणुपिट्ठ कलचउकं पणवीससहस्स दुसय तीसहिय'न्त्येवंलक्षणे २५२३०१४ अपनीते यच्छेषं तदर्कीकृतं सद्भववृतिः
| तीति, आयामेन-दैर्येणेति । 'मंदरस्से'त्यादि, मेरोः पूर्वान्ताजम्बूद्वीपोऽपरस्यां दिशि जगति बाह्यांतपर्यवसानः पञ्च॥७९॥ पञ्चाशयोजनसहस्राणि तावदस्ति, ततः परं द्वादशयोजनसहस्राण्यतिक्रम्य लवणसमुद्रमध्ये गौतमद्वीपाभिधानो द्वी-टू
पोऽस्ति तमधिकृत्य सूत्रार्थः संभवति, पञ्चपञ्चाशतो द्वादशानां च सप्तषष्टित्वभावात्, यद्यपि सूत्रपुस्तकेषु गीतम-1 शब्दो न दृश्यते तथाप्यसौ रश्यः, जीवाभिगमादिषु लवणसमुद्रे गौतमचन्द्ररविद्वीपान् विना द्वीपान्तरस्थाश्रूयमा-11 णत्वादिति । 'सवेसिपि ण'मित्यादि, सर्वेषामपि णमित्यलङ्कारे नक्षत्राणां सीमाविष्कम्भः-पूर्वापरतचन्द्रस्य नक्षत्र-1 भुक्तिक्षेत्रविस्तारः नक्षत्रेणाहोरात्रभोग्यक्षेत्रस्य सप्तषष्ट्या भागैर्भाजितो-विभक्तः समांशः-समच्छेदः प्रज्ञप्तः, भागान्तरेण तु भज्यमानस्य नक्षत्रसीमाविष्कम्भस्य विषमच्छेदना भवति, भागान्तरेण न भक्तुं शक्यते इत्यर्थः, तथाहि-नक्षत्रे-1||
णाहोरात्रगम्यस्य क्षेत्रस्य सप्तपष्टिभागीकृतस्यैकविंशतिर्भागा अभिजिन्नक्षत्रस्य क्षेत्रतः सीमाविष्कम्भो भवति, ॥७९॥ दाएतावति क्षेत्रे चन्द्रेण सह तस्य योगो व्यपदिश्यत इत्यर्थः, तथा तस्यामेवैकविंशतौ त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वादहोरात्रस्य त्रि-II
शता गुणितायां ६३० सप्तषष्ट्या हतभागायां यल्लब्धं तत्कालसीमा भवति, चन्द्रेण सह तस्य योगकाल इत्यर्थः, सा
CRECE%
अनुक्रम [१४५]
~169~
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [६७], -------------
----------------------------- मूलं [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[६७]
च नव मुहूर्ताः सप्तविंशतिश्च सप्तषष्टिभागाः९।६४, आह च-"अभिइस्स चंदजोगो सत्तट्टि खण्डिए अहोरत्ते । भा-I गाओ एकवीसं स होति अहिगा नव मुहुत्ता ॥१॥” इति, [ अभिजिति चन्द्रयोगः सप्तपष्ट्या खण्डितेऽहोरात्रे ।।
भागास्त्वेकविंशतिः स भवन्ति नवमुहूर्ताधिकाः ॥१॥] क्षेत्रतः कालतस्तथा शतभिषग्भरण्याश्लेिपास्वातिज्येPाधानां त्रयस्त्रिंशत्सप्तपष्टिभागास्तद्भागार्द्ध च क्षेत्रसीमाविष्कम्भो भवति, तस्यामेव सार्द्धत्रयस्त्रिंशति त्रिंशता गुणि-|
तायां १००५ सप्तषष्ट्या हृतभागायां यल्लब्धं तदेषां कालसीमा, तच्च पञ्चदश मुहूर्ताः, आह च-"सयभिसया भरणीओ अद्दा अस्सेस साइ जेट्ठा य । एए छण्णक्खत्ता पन्नरसमुहुत्तसंजोगा ॥१॥” इति [शतभिषक भरणी आर्द्रा अश्लेषा खातिज्येष्ठा च । एतानि षड् नक्षत्राणि पञ्चदशमुहूर्तसंयोगानि ॥१॥] तथोत्तरात्रयः पुनर्वसुरोहिणीविशाखानां ससपष्टिभागानां शतं तद्भागार्द्धं च क्षेत्रसीमाविष्कम्भः भवति, तथा तस्मिन्नेव त्रिंशद्गुणिते ३०१५ तथैव हतभागे यल्लब्धं तदेषां कालसीमा भवति, सा च पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्चा इति, आह च-"तिन्नेव उत्तराई पुणवसूरोहिणी बिसाहा य । एए छन्नक्खत्ता, पणयालमुहुत्तसंजोगा ॥१॥” इति [तिस्र एवोत्तराः पुनर्वसू रोहिणी विशाखा च । एतानि षड् नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्त्तानि ॥१॥] शेषाणां पञ्चदशानां नक्षत्राणां सप्तपष्टिरेव
सप्तपष्टिभागानां क्षेत्रसीमाविष्कम्भो भवति, तस्यां च तथैव गुणितायां २०१० हतभागायां च यल्लब्धं तत्कालA सीमा, तच त्रिंशन्मुहूर्ताः, आह च-"अवसेसा नक्खत्ता पन्नरसवि हुंति तीसइमुहुत्ता । चंदस्स तेहिं जोगो समा
प्रत अनुक्रम [१४५]
~170~
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६], ------------------------- ----- मूल [६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
यांगे
सुत्राक
[६७]
श्रीसमवा- सओ एस वक्खामि ॥१॥" [अवशेषाणि नक्षत्राणि पञ्चदशापि भवन्ति त्रिंशन्मुहूर्त्तानि चन्द्रस्य तैर्योग समासत
एष वक्ष्यामि ॥१॥] एवं चैकस्य पण्णां २ पञ्चदशानां चेत्येवमष्टाविंशतेनक्षत्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि समवाया. श्रीअभया सप्तपष्टिभागानामेतदेव द्विगुणं पट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां भवति, तच सहस्रत्रयं षट् शतानि षष्ट्यधिकानि ३६६०१६७॥ वृत्तिः
धायइसंडे णं दीवे अडसद्धिं चक्कवट्टिविजया अडसढि रायहाणीओ प०, उक्कोसपए अडसहिँ अरहंता समुष्पअिंसु वा ३ एवं ॥८॥ चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा, पुक्खरवरदीवड्डेणं अडसहि विजया एवं चेव जाव वासुदेवा, विमलस्स पं अरहओ अडसढि सम- 3
पसाहस्सीओ उकोसिया समणसंपया होत्या ॥ सूत्र ६८॥
अथाष्टषष्टिस्थानके किञ्चिलिख्यते-'धायइसंडे' इत्यादि, इह यदुक्तम् ‘एवं चकचट्टी बलदेवा वासुदेव सि तत्र यद्यपि चक्रवर्चिनां वासुदेवानां नेकदा अष्टषष्टिः सम्भवति यतो जघन्यतोऽप्येकैकस्मिन् महाविदेहे चतुर्णी २ तीर्थकरादीनामवश्यं भावः स्थानाङ्गादिष्यभिहितः, न चैकक्षेत्रे चक्रवर्ती वासुदेवश्चैकदा भवतोऽतः अष्टषष्टिरेवोत्कर्षतचक्रवतिनां वासुदेवानां चाष्टषष्ट्यां विजयेषु भवति तथापीह सूत्रे एकसमयेनेत्यविशेषणात् कालभेदभाविनां चक्रवत्योंदीनां विजयभेदेनाष्टषष्टिरविरुद्धा, अभिलप्यन्ते च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्या भारतकच्छाधभिलापेन चक्रवर्तिन इति ॥ ६८॥11॥८॥
समयखित्ते णं मंदरवजा एगूणसत्तरि वासा वासधरपचया प० त० पणतीस वासा तीस वासहरा चत्वारि उसुयारा, मैदरस्स पवयस्स पञ्चच्छिमिलाओ चरमंताओ गोयमद्दीवस्स पथच्छिमिले चरमते एस ण एगूणसरि जोयणसहस्साई अबाहार अंतरे ५०,मोहणि
अनुक्रम [१४५]
~171
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [६९], ------------------------- ----- मूल [६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[६
]
अवजाणं सत्तण्हं कम्मपगडीणं एगूणसत्तरि उत्तरपगडीओ प० ॥ सूत्रं ६९ ॥
अथैकोनसप्ततिस्थानके किञ्चिलिख्यते-समयेत्यादि, मंदरवर्जा-मेरुवर्जाः वर्षाणि च-भरतादिक्षेत्राणि वर्षधर-17 पर्वताश्च-हिमवदादयस्तत्सीमाकारिणो वर्षधरपर्वताः समुदिता एकोनसप्ततिः प्रज्ञसाः, कथं ?, पञ्चसु मेरुषु प्रति ||
बद्धानि सप्त सप्त भरतहैमवतादीनि पञ्चत्रिंशद्वर्षाणि तथा प्रतिमेरु षट् षट् हिमवदादयो वर्षधराविंशत्तथा चत्वार | जाएयेपुकारा इति सर्वसंख्ययकोनसप्ततिरिति, 'मंदर'त्यादि, लवणसमुद्रं पश्चिमायां दिशि द्वादश योजनसहस्राण्य
वगाय द्वादशसहस्रमानः सुस्थिताभिधानस्य लवणसमुद्राधिपतेर्भवनेनालङ्कतो गौतमद्वीपो नाम द्वीपोऽस्ति, तस्य च पश्चिमान्तो मेरोः पश्चिमान्तादेकोनसप्ततिसहस्राणि भवन्ति, पञ्चचत्वारिंशतो जम्बूद्वीपसम्बन्धिनां द्वादशानामन्त
रसम्बन्धिनां द्वादशानामेव द्वीपविष्कम्भसम्बन्धिनां च मीलनादिति । मोहनीयवर्जानां कर्मणामेकोनसप्ततिरुत्तरप्र-11 Pाकृतयो भवन्तीति, कथं ?, ज्ञानावरणस्य पञ्च दर्शनावरणस्य नव वेदनीयस्य द्वे आयुषश्चतस्रो नाम्रो द्विचत्वारिंशद्गोप्रख द्वे अन्तरायस्य पञ्चेति ॥ ६९ ॥ समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे वइकंते सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहिं वासावासं पोसवेद, पासे णं अरहा पुरिसादाणीए सत्तरि वासाई बहुपडिपुन्नाई सामन्त्रपरियागं पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे, वासुपुछे गं अरहा सत्तरि धणूई उर्दू उचतेणं होत्था, मोहणिअस्स ण कम्मस्स सत्तर सागरोवमकोडाकोडीओ अबाहूणिया कम्महिई कम्मनिसेगे प०, माहि
प्रत
अनुक्रम [१४७]
~172~
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः )
समवाय [७०], ------------------------- ------- मूल [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
७० समवाया.
प्रत
यांग
सूत्रांक
[७०]
प्रत अनुक्रम [१४८]
श्रीसमवा-18] दस्स ण देविंदस्स देवरन्नो सत्तरि सामाणियसाहस्सीओ प० ॥ सूत्र ७० ॥
अथ सप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते-'समणे इत्यादि, वर्षाणां-चतुर्मासप्रमाणस वर्षाकालस्य सविंशतिरात्रे-विश- श्रीअभय
तिदिवसाधिके मासे व्यतिक्रान्ते पञ्चाशति दिनेष्वतीतेष्वित्यर्थः सप्तत्यां च रात्रिदिनेषु शेषेषु भाद्रपद शुक्लपञ्चम्यामि-17 प्रतिः
त्यर्थः, वर्षाखावासो वर्षावासः-वर्षावस्थानं 'पज्जोसवेईत्ति परिवसति सर्वथा वासं करोति, पञ्चाशति प्राक्तनेषु दिव-13 ॥८॥ सेषु तथाविधवसत्यभावादिकारणे स्थानान्तरमप्याश्रयति भाद्रपदशुक्लपञ्चम्यां तु वृक्षमूलादावपि निवसतीति हृदय
मिति, 'पुरिसादाणीय'त्ति पुरुषाणामादानीयः-उपादेयः पुरुषादानीयः 'अबाहूणिया कम्मट्ठिई कम्मणिसेगे कापण्णत्तेत्ति इह किलात्मा अविशिष्टमेव कर्मपुद्गलोपादानं कृत्वा उत्तरकालं ज्ञानावरणीयादिकर्मणां खं खमवाधा-19 8 कालं मुक्त्वा ज्ञानावरणीयादिप्रकृतिविभागतया अनाभोगिकेन वीर्येणोदयसहितं तद्दलिकं निषिञ्चति, उदययोग्यं 8 तारचयतीत्यर्थः, अतो द्विविधा स्थितिः-कर्मत्वापादनमात्ररूपा अनुभवरूपा च, यतः स्थिति:-अयस्थानं तेन भावे
नाप्रच्यवनं, तत्र कर्मत्वापादनरूपां तामधिकृत्य सप्ततिः सागरोपमकोटीकोख्यः, अनुभवरूपां त्वधिकृत्य सप्तवर्षस-1 माहस्रोनेति, तत्र 'अवाहति किमुक्तं भवति ?-बन्धापलिकाया आरभ्य यावत्सप्तवर्षसहस्राणि तावत्कर्म न याधते, ४ नोदयं यातीत्यर्थः, ततोऽनन्तरसमये कर्मदलिक. पूर्वनिषिक्तं उदये प्रवेशयति, निषेको नाम ज्ञानापरणादिकर्मदतिलिकस्यानुभवनार्थ रचना, तच प्रथमसमये बहुकं निषिञ्चति द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं|
॥८१॥
~173~
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७०], ------------------------- ----- मूल [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
**
प्रत सूत्रांक [७०]
यावदुत्कृष्टस्थितिकर्मदलिकं तावद्विशेषहीनं निषिञ्चति, तथा चोक्तम्-"मोत्तूण सगमबाहं पढमाए ठिईए बहुतर दछ । सेसे विसेसहीणं जावुकोसन्ति सच्चासिं ॥१॥” इति [मुक्त्वा खकीयामवाधां प्रथमायां स्थिती बहुतरं द्रव्यं । शेषायां विशेषहीनं यावदुत्कृष्टां सर्वासां ॥१॥] 'बाधु लोडने' बाधत इति बाधा कर्माण उदय इत्यर्थः, न बाधा | अबाधा, अन्तरं कर्मोदयस्येत्यर्थः, तया ऊनिका अबाधोनिका कर्मस्थितिः कर्मनिषेको भवतीत्येवमेके प्राहुः, अन्ये पुनराहुः-अबाधाकालेन-वर्षसहस्रसप्तकलक्षणेनोना कर्मस्थितिः-सप्तसहस्राधिकसप्ततिसागरोपमकोटाकोटीलक्षणा, कर्मनिषको भवति, स च कियान् ?, उच्यते-'सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ'त्ति ॥ ७॥ । चउत्थस्स णं चंदसंवच्छरस्स हेमंताणं एकसत्तरीए राइदिएहिं वीइतेहिं सववाहिराओ मंडलाओ सूरिए आउट्टि करेइ,
वीरियप्पवायस्स णं पुब्बस्स एकसत्चरिं पाहुडा प०, अजिते णं अरहा एकसत्तारें पुब्बसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाव पब्वइए, एवं सगरोवि राया चाउरंतचक्कवट्टी एक्कसत्तरि पुत्व जाव पञ्चइएत्ति ।। सूत्र ७१।।
अथैकसप्ततिस्थानके किश्चित् लिख्यते-'चउत्थस्से'त्यादि, इह भावार्थोऽयं-युगे हि पञ्च संवत्सरा भवन्ति, तत्राद्यौ चन्द्रसंवत्सरी तृतीयोऽभिवर्द्धितसंवत्सरश्चतुर्थश्चन्द्रसंवत्सर एव, तत्र च एकोनत्रिंशता दिनानां द्वात्रिंशता पाच द्विपष्टिभागैर्दिनस्य चन्द्रमासो भवति, अयं च द्वादशगुणश्चन्द्रसंवत्सरो भवति, त्रयोदशगुणवायमेवाभिवड़ितो
भवति, ततश्चन्द्रचन्द्राभिवर्द्धितलक्षणे संवत्सरत्रये दिनानां सहस्रं द्विनवतिः पद् द्विपष्टिभागा भवन्ति १०९२।
प्रत अनुक्रम [१४८]
R*V****中式事一***中只
~174
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७१]. ------------------------------------ मुलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा-
प्रत
यांग
सुत्रांक
श्रीअभय वृतिः
[७१]
॥८२॥
प्रत अनुक्रम [१४९]
SANCHOREOGRA*
तथा आदित्यसंवत्सरे दिनानां शतत्रयं षट्पष्टिश्च भवन्ति, तत्रितये च सहस्रमष्टनवत्यधिकं भवति, इह च किल७१ समचन्द्रयुगमादित्ययुगं चाषाढ्यामेकं पूर्यतेऽपरश्च श्रावणकृष्णप्रतिपदि आरभ्यते, एवं चादित्ययुगसंवत्सरत्रयापेक्षया बाया. चन्द्रयुगसंवत्सरत्रयं पञ्चभिर्दिनैः षट्पञ्चाशता च दिनद्विषष्टिभागैरूनं भवतीतिकृत्वा आदित्ययुगसंवत्सरत्रयं श्रावणकृष्णपक्षस्य चन्द्रदिनषट्के साधिके पूर्यते युगसंवत्सरत्रयं त्वापाड्यां, ततश्च श्रावणकृष्णपक्षसप्तमदिनादारभ्य दक्षिणायनेनादित्यश्चरन् चन्द्रयुगचतुर्थसंवत्सरस्य चतुर्थमासान्तभूतायामष्टादशोत्तरशततमदिनभूतायां कार्तिक्या द्वादशोसरशततमे खकीयमण्डले चरति, ततश्चान्यान्येकसप्ततिमण्डलानि तावत्खेव दिनेषु मार्गशीर्षादीनां चतुर्णा हैमन्तमासानां सम्बन्धिषु चरति, ततो द्विसप्ततितमे दिने माघमासे बहुलपक्षत्रयोदशीलक्षणे सूर्य आवृत्तिं करोति, दक्षिणायनानिवृत्त्योत्तरायणेन चरतीत्यर्थः, उक्ता च ज्योतिष्करण्डके पञ्चसु युगसंवत्सरेणूत्तरायणतिथयः क्रमेणैवं यदुत-1 |"बहुलस्स सत्तमीए १ सूरो सुद्धस्स तो चउत्थीए । बहुलस्स व पाडिवए ३ बहुलस्स य तेरसीदिवसे ४ ॥१॥ सुद्धस्स य दसमीए ५ पवत्तए पंचमी उ आउद्दी। एआ आउट्टीओ सबाओ माघमासंमि ॥२॥" ति, दक्षिणायनदिनानि चैवं-"पढमा बहुलपडिवए १ बीया बहुलस्स तेरसी दिवसे २। सुद्धस्स य दसमीए ३ बहुलस्स व सत्तमीए
४ ८२॥ उ ॥१॥ सुद्धस्स चउत्थीए पयत्तए पंचमी उ आउट्टी। एया आउद्दीओ सबाओ सावणे मासे ॥२॥"त्ति । 'वि-11 रियपुवस्स'त्ति तृतीयपूर्वस्व 'पाहुडत्ति प्राभृतमधिकारविशेषः । 'अजिए'इत्यादि, तस्य हि अष्टादश पूर्वलक्षाणि |
SSC
wrelunurary.orm
~175
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
“[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७१], ------------------------------------ मूलं [७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[७१]
प्रत अनुक्रम [१४९]
कुमारत्वं त्रिपञ्चाशचैकपूर्वाङ्गाधिका राज्यमित्येकसप्ततिरिह च पूर्वाङ्गमधिकमल्पत्वान्न विवक्षितमिति ५, सगरो द्विद्वतीयश्चक्रवर्ती अजितखामिकालीनः ॥ ७१॥
बावत्तरि सुवन्नकुमारावाससयसहस्सा ५०, लवणस्स समुद्दस्स बावत्तरि नागसाइस्सीओ पाहिरियं वेलं धारंति, समणे भगवं महावीरे बावत्तरि वासाई सघाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे, थेरे णं अयलभाया पावत्तरि वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, अम्भितरपुक्खरद्धे णं बावत्तरि चंदा पभासिसु ३ बावत्तरि सूरिया तर्विसु वा ३, एगमेगस्स णं रनो चाउरंतचक्कवहिस्स बावत्तरिपुरवरसाहस्सीओ प०, बावत्तरि कलाओ प० तं०-लेहं १ मणियं २ रूवं ३ नई ४ गीयं ५ वाइयं ६ सरगयं ७ पुक्खरगयं ८ समतालं ९ जूयं १० जणवायं ११ पोक्खर्च १२ अट्ठावयं १३ दगमट्टियं १४ अन्नविहीं १५ पाणविहीं १६ वत्यविहीं १७ सयणविहीं १८ अर्ज १९ पहेलिय २० मागहियं २१ गाई २२ सिलोग २३ गंधजुर्ति २४ मधुसित्थं २५ आभरणविहीं २६ तरुणीपडिकम्म २७ इत्थीलक्खणं २८ पुरिसलक्खणं २९ हयलक्खणं ३० गयलक्खणं ३१ गोणलक्खणं ३२ कुकुडलक्खणं ३३ मिंढयलक्खणं ३४ चक्कलक्षणं ३५ छत्तलक्खणं ३६ दंडलक्खणं ३७ असिलक्खणं ३८ मणिलक्खणं ३९ कागणिलक्खणं ४० चम्मलक्खणं ४१ चंदलक्खणं ४२ सूरचरियं ४३ राहुचरिय ४४ गहचरियं ४५ सोभागकरं ४६ दोभागकर ४७ विजागय ४८ मंतगयं ४९ रहस्सगयं ५० सभासं ५१ चारं ५२ पडिचारं ५३ बूह ५४ पडिवूह ५५ खैधावारमाणं ५६ नगरमाण ५७ वत्थुमाणं ५८ खंधावारनिवेसं ५९ वत्थुनिवेसं ६. नगरनिवेसं ६१
GANGA
~176~
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७२], ------------------------- ----- मूल [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[७२]]
प्रत
श्रीसमवा-18
ईसत्यं ६२ छरुप्पवायं ६३ आससिक्खं ६४ हस्थिसिक्ख ६५ घणुव्वेयं ६६ हिरण्णपार्ग सुवन्न० मणिपागं धातुषार्ग ६७ बायांग हुजुद्धं दंडजुद्धं मुद्विजुद्धं अद्विजुद्धं जुद्धं निजुद्धं जुद्धाई जुद्धं सुत्तखेडं ६८ नालियाखेडं वट्टखेडं धम्मखेडं चम्मखेडं ६९ पत्तछेलं श्रीअभय
कडगळेज ७० सजीवं निजी ७१ सउणस्य ७२ समुच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाण उक्कोसेण पावत्तरि वाससवृत्तिः हस्साई ठिई प० ॥ सूत्र ७२ ॥ ॥८३॥
अथ द्विसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते-सुवर्णकुमाराणां द्विसप्ततिर्लक्षाणि भवनानि, कथं ?, दक्षिणनिकाये अत्रिंशदुत्तरनिकाये तु चतुर्विंशदिति, 'नागसाहस्सीओ ति नागकुमारदेवसहस्राणि बेला-पोडशसहस्रप्रमाणामुत्सेधतो विष्कम्भतश्च दशसहस्रमानां लवणजलधिशिखां बाह्यां-धातकीखण्डद्वीपाभिमुखीं । महावीरो द्विसप्ततिवर्षाण्यायुः
पालयित्वा सिद्धः, कथं ?, त्रिंशद्गृहस्थभावे द्वादश सार्द्धानि पक्षश्च छद्मस्थभावे देशोनानि त्रिंशत्केवलित्वे इति द्विस-13 दसतिः । 'अयलभाय'त्ति अचलो महावीरस्य नवमो गणधरः तस्यायुर्द्विसप्ततिवर्षाणि, कथं ?, पट्चत्वारिंशदाहस्थत्वे टद्वादश छमस्थतायां चतुर्दश केवलित्वे इति । पुष्कराढ़े द्विससतिश्चन्द्राः, तत्रैकस्यां पती पत्रिंशदन्यस्यां पली च ।।
तावन्त एवेति, 'बावत्तरि कलाओ'त्ति कलाः विज्ञानानीत्यर्थः, ताश्च कलनीयभेदाद्विसप्ततिर्भवन्ति, तत्र लेखनं ले- साखोऽक्षरविन्यासः, तद्विषया कला-विज्ञानं लेख एवोच्यते एवं सर्वत्र, स च लेखो द्विधा-लिपिविषयभेदात्, तत्र
लिपिरष्टादशस्थानकोक्ता अथवा लाटादिदेशभेदतस्तथाविधविचित्रोपाधिभेदतो वाऽनेकविधेति, तथाहि-पत्रवल्क
अनुक्रम [१५०]
८३॥
~177~
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७], -------------------------------- मूल [७२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [७२]
--992-%%
-
काष्ठदन्तलोहताम्ररजतादयो अक्षराणामाधारास्तथा लेखनोत्कीर्णनस्यूतव्यूतच्छिन्नभिन्नदग्धसङ्क्रान्तितोऽक्षराणि भवन्तीति, विषयापेक्षयाप्यनेकधा-खामिभृत्यपितृपुत्रगुरुशिष्यभार्यापतिशत्रुमित्रादीनां लेखविषयाणामप्यनेकत्वात्तथाविधप्रयोजनभेदाच, अक्षरदोषाश्चैते–'अतिकायमतिस्थौल्यं, वैषम्यं पलिवक्रता । अतुल्यानां च सादृश्यमभागोऽवयवेषु च ॥१॥ इति, १ तथा गणितं-सङ्ख्यानं सङ्कलिताद्यनेकभेदं पाटीप्रसिद्धं २ रूप्यं-लेप्यशिलासुवर्णमणिवस्खचित्रादिषु रूपनिर्माणं ३ नाट्यकला-भरतमार्गच्छलिकं लास्यविधानमित्यादिभेदादष्टधा नाट्यग्रहणात् नृत्यकलापि गृहीता, सा च अभिनयिका अङ्गहारिका व्यायामिका चेति त्रिभेदा, खरूपं चात्र भरतशास्त्रादवसेयं ४ तथा गीतकला, सा च निबन्धमार्ग-छलिकमार्ग-भिन्नमार्गभेदात् त्रिधा, तत्र 'सप्त खराखयो प्रामा, मूर्च्छना एकविंशतिः । ताना एकोनपश्चाशत् , समाप्तं खरमण्डलम् ॥१॥' इयं च विशाखिलशास्त्रादवसेयेति, ५ 'वाइय'ति वाद्यकला, सा च ततविततशुपिरधनवाद्यानां चतुष्पञ्च(ध्ये)कप्रकारतया त्रयोदशधा ६ इत्यादिकः कलाविभागो लौकिकशास्त्रेभ्योऽवसेयः, इह च द्विसप्ततिरिति कलासंख्योक्ता, बहुतराणि च सूत्रे तन्नामान्युपलभ्यन्ते, तत्र च कासांचित् कासुचिदन्तर्भावोऽवगन्तव्य इति ॥७२॥ हरिवासरम्मयवासयाओ णं जीवाओ तेवत्तरि २ जोयणसहस्साई नव य एगुत्तरे जोयणसए सत्तरस य एगूणवीसइभागे जोयपस्स अद्धभागं च आयामेणं प०, विजए णं बलदेवे तेवतरि वाससयसहस्साई सच्याउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे ।। सूत्रं ७३ ॥
प्रत
अनुक्रम [१५०]
।
SAREBIOTIRLINE
~178~
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७], ------------------------------------ मुलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
७३-७४ समवाया.
प्रत सूत्रांक [७३]
प्रत अनुक्रम [१५१]
श्रीसमवा-11 अथ त्रिसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते, 'हरिवासे'ति अत्र संवादगाथा-'एगुत्तरा नबसया तेवत्तरिमे (व) जो- ..यांग शायणसहस्सा । जीवा सत्तरस कला य अद्धकला चेच हरिवासेत्ति' ॥१॥ (७३९०१-१२)तथा विजयो-द्वितीयो| श्रीअभय
बलदेवस्तखेह त्रिसप्ततिर्वपलक्षाण्यायुरुक्तमावश्यके तु पञ्चसप्ततिरितीदमपि मतान्तरमेव ॥ ७३ ॥ वृत्तिः
थेरे णं अग्गिभूई गणहरे चोवत्तरि वासाई सब्बाउयं पालइचा सिद्धे जावप्पहीणे, निसहाओ णं वासहरपब्वयाओ तिगिच्छिओ ॥८४॥ णं दहाओ सीतोयामहानदीओ चोवत्तरि जोयणसयाइं साहियाई उत्तराहिमुही पवदित्ता बदरामयाए जिभियाए चउजोवणा
यामाए पन्नासजोयणविक्खंभाए वइरतले कुंडे महया घडमुहपवत्तिएणं मुत्तावलिहारसंठाणसंठिएणं पवाएणं महया सदेणं पक्डइ, एवं सीतावि दक्खिणाहिमुही माणियब्वा, चउत्थवजासु छसु पुढवीसु चोवत्तरि नरयावाससयसहस्सा पं० ॥ सूत्र ७४॥ अथ चतुःसप्सतिस्थानके किञ्चित् लिख्यते, तत्रामिभूतिरिति महावीरस्य द्वितीयो गणधरः-गणनायकः तस्येह चतुःसप्ततिवर्षाण्यायुः, अत्र चाय विभागः-पट्चत्वारिंशद्वर्षाणि गृहस्थपर्यायः द्वादश छमस्थपर्यायः षोडश केवलिपर्याय इति, 'निसहाओ णमित्यादि अस्य भावार्थ:-किल निषधवर्षधरस्य विष्कम्भो योजनानां षोडश सहस्राणि अष्टी शतानि द्विचत्वारिंशत् कलाद्वयं चेति, तस्य च मध्यभागे तिगिच्छमहादः सहस्रद्वयविष्कम्भश्चतुःसहस्रायामः तदेवं पर्वतविष्कम्भार्द्धस्स हदविष्कम्भार्द्धन न्यूनतायां सीतोदाया महानद्याः पर्वतस्योपरि चतुःसप्ततिशतान्येकर्विशत्यधिकानि कला चैकेत्येवं प्रवाहो भवति 'वइरामयाए जिभियाए'त्ति वज्रमय्या जिहिकया प्रणालस्थमकरमुख
RACTRICA
॥८४॥
SMEarathi
~179~
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७४], ------------------------- ----- मूल [७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
K
सुत्रांक
[७४]
जितिकया चतुर्योजनदीर्घया पञ्चाशद्योजनविष्कम्भया 'वइरतले कुण्डे'त्ति निषधपर्वतस्थाधोवर्तिनि वज्रभूमिके अ-3 शीत्यधिकचतुयोजनशतायामयिष्कम्भे दशयोजनायगाहे सीतोदादेवीभवनाध्यासितमस्तकेन तद्द्वीपेनालङ्कृतमध्यभागे सीतोदाप्रपातहदे 'महयत्ति महाप्रमाणेन यत्पुनः ‘दुहओत्ति कचित् दृश्यते तदपपाठ इति मन्यते 'घडमुहपवत्तिएणति घटमुखेनेव-कलशवदनेनेव प्रवर्त्तितः-प्रेरितो घटमुखप्रवर्तितस्तेन मुक्तावलीनां-मुक्ताफलशरीराणां स-2
म्बन्धी हारतस्य यत्संस्थानं तेन संस्थितो यस्तेन प्रपातः-पर्वतात्प्रपतजलसमूहस्तेन महाशब्देन-महाध्वनिना प्रप-16 | तति, एवं सीतापि, नवरं नीलवद्वर्षधरादक्षिणाभिमुखी प्रपततीति, 'चउत्थवजेत्यादि तत्र प्रथमायां त्रिंशत् द्विती-15
यायां पञ्चविंशतिः तृतीयायां पञ्चदश पञ्चम्यां त्रीणि लक्षाणि षष्ठयां पञ्चोनं लक्षं सप्तम्यां पश्चेत्येतानि मीलितानि । |चतुःसप्ततिर्भवति ॥ ७४ ॥
सुविहिस्स णं पुष्कदंतस्स अरहो पन्नत्तरि जिणसया होत्या, सीतले णं अरहा पन्नचरि पुब्बसहस्साई अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भविता जाव पव्वइए, संती णं अरहा पन्नत्चरिखाससहस्साई अगारवासमझ बसित्ता मुंडे भक्त्तिा अगाराओ अणगारियं पब्बइए ॥ सूत्र ७५ ॥
अथ पञ्चसप्ततिस्थानके किमपि लिख्यते 'सुविधेः' नवमतीर्थकरस्य नामान्तरतः पुष्पदन्तस्येति, तथा शीतलस्य पञ्चसप्ततिः पूर्वसहस्राणि गृहवासे, कथं?, पञ्चविंशतिः कुमारत्वे पञ्चाशच राज्य इति, तथा शान्तिः पञ्चसप्ततिवर्ष
प्रत
अनुक्रम [१५२]
CRICKEE
REC%A7-%
१५ सम
For P
OW
~ 180~
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७५], ------------------------- ----- मूल [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रींसमवा-
यांगे श्रीअभय वृचिः
७५-७६७७ समवाया.
प्रत
सूत्रांक [७५]]
॥५॥
सहस्राणि गृहवासमध्युष्य प्रबजितः, कथं ?, पञ्चविंशतिः कुमारत्वे पञ्चविंशतिः माण्डलिकत्वे पञ्चविंशतिश्चक्रव- र्तित्वे इति ॥ ७५ ॥
छावत्तरि विज्जुकुमारावाससथसहस्सा प०, एवं-'दीवदिसाउदहीणं विज्जुकुमारिंदयणियमग्गीणं । छण्डंपि जुगलयाणं बाक्त्तरि
सयसहस्साई ॥ सूत्र ७६ ॥ | अथ षट्सप्ततिस्थानके लिख्यते किश्चित्-तत्र विद्युत्कुमाराणां भवनावासलक्षाणि दक्षिणस्यां चत्वारिंशदुत्तरस्यां तु पत्रिंशदिति षट्सप्ततिरिति, 'एव'मिति इदमेव भवनमानं शेषाणां द्वीपकुमारादिभवनपतिनिकायानां, इहार्थे गाथा-'दीवे'त्यादि 'युगलाना मिति-दक्षिणोत्तरनिकायभेदेन युगलं, निकाये निकाय भवतीति, ॥७६ ॥
भरहे राया चाउरतचक्कवट्टी सत्तहत्तार पुष्वसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता महारायाभिसेयं संपत्ते, अगवंसाओ णं सप्तहत्तरि रायाणो मुंडे जाव पव्वइया, गहतोयतुसियाणं देवाणं सत्तहत्तरं देवसहस्सपरिवारा प०, एगमेगे णं मुटुत्ते सत्तहत्तर
लवे लवम्गेणं प० ॥ सूत्र ७७॥ | अथ सप्तसप्ततिस्थानके वित्रियते किञ्चित्-तत्र भरतचक्रवर्ती ऋषभस्वामिनः पद्सु पूर्वलक्षेवतीतेपु जातख्य
शीतितमे च तत्रातीते भगवति च प्रत्रजिते राजा संवृत्तः, ततश्च त्र्यशीत्याः षट्सु निष्कर्पितेषु सप्तसप्ततिस्तस्य कु. |मारवासो भवतीति, अङ्गवंशः-अझराजसन्तानस्तस्य सम्बन्धिनः सप्तसप्तती राजानः प्रबजिताः 'गद्दतोय'त्यादि प्रम
प्रत
अनुक्रम [१५३]
M
॥८५॥
~ 181~
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक [७७]
प्रत
अनुक्रम [१५६ ]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७७], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
Educator
लोकस्याधोवर्त्तिनीष्वष्टासु कृष्णराजिष्वष्टौ सारखतादयो लोकान्तिकाभिधाना देवनिकाया भवन्ति, तत्र गईतोयानां तुषितानां च देवानामुभयपरिवारसंख्यामीलनेन सप्तसप्ततिर्देवसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तानीति, तथैकेको मुहूर्त्तः सप्तसप्ततिर्लवान् लवाग्रेण - लवपरिमाणेन प्रज्ञप्तः, कथं ?, उच्यते, 'हट्ठस्स अनवगलस्स, निरुवकिट्ठस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुबई ॥ १ ॥ सत्त पाणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लगे । लवाणं सत्तहत्तरिए, एस मुहुत्ते वियाहिए ॥ २ ॥ चि [ दृष्टस्यानवग्लानस्य निरुपक्लिष्टस्य जन्तोः एक उच्छ्रासनिःश्वास एष प्राण इति उच्यते ॥ १ ॥ सप्त प्राणास्ते स्तोकः सप्त स्तोकास्ते लवः । लवानां सप्तसप्तत्या एष मुहूर्त्तो व्याख्यातः ॥ २ ॥ ] ॥७७॥ सस्स णं देविंदरस देवरन्नो बेसमणे महाराया अट्ठहत्तरीए सुवन्नकुमारदीवकुमारावासस्यसहस्साणं आहेवचं पोरवचं सामित्तं भट्टित्तं महारायत्तं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे विहरइ, थेरे णं अकंपिए अठहत्तरं वासाई सब्जाउयं पालता सिद्धे जावणहीणे, उत्तरायणनियट्टे णं सूरिए पढमाओ मंडलाओ एगूणचत्तालीसहमे मंडले अत्तारं एगसद्विभाए दिवसखेत्तस्स नि
त्ता स्वणिखेत्तस्स अभिनिवुद्धेत्ता णं चारं चरइ, एवं दक्खिणायणनियद्वेवि ॥ सूत्रं ७८ ॥
मूलं [७७] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
अथाष्टसप्ततिस्थानके किञ्चित् लिख्यते, 'सकस्से' त्यादि, 'बेसमणे महाराय'त्ति सोमयमवरुणवैश्रमणाभिधानानां लोकपालानां चतुर्थ उत्तरदिकपालः, स हि वैश्रमणदेवनिकायिकानां सुपर्णकुमारदेवदेवीनां द्वीपकुमारदेवदेवीनां व्यन्तरव्यन्तरीणां चाधिपत्यं करोति, तदाधिपत्याच्च तन्निवासानामप्याधिपत्यमसौ करोतीत्युच्यते, 'अष्टसप्तत्याः सुवर्णकु
For Parts Only
~ 182~
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७८]. ------------------------------------ मुलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
INबाया.
प्रत सूत्रांक [७८]
श्रीसमवा
मारद्वीपकुमारावासशतसहस्राणा'मिति, तत्र सुवर्णकुमाराणा दक्षिणस्यामष्टत्रिंशद्भवनलक्षाणि द्वीपकुमाराणां च । ७८ समयांगे चत्वारिंशदित्येवमष्टसप्ततिरिति, द्वीपकुमाराधिपत्यमेतस्य भगवत्यां न दृश्यते, इह तूक्तमिति मतान्तरमिदम् , 'आश्रीअभयपाहवय'ति आधिपत्यम्-अधिपतिकर्म 'पोरेवचंति पुरोवर्त्तित्वं अग्रगामित्वमित्यर्थः, भट्टित्तं ति भर्तृत्व-पोषकत्वं 'सावृत्तिः
मित्तंति स्वामित्व-खामिभावं 'महारायत्त'ति महाराजत्वं लोकपालत्वमित्यर्थः, 'आणाईसरसेणावचंति आज्ञाप्रधानसेनानायकत्वं 'कारेमाणे'त्ति अनुनायकैः सेवकानां कारयन् 'पालेमाणे'त्ति आत्मनापि पालयन 'विहरद'त्ति
आस्ते । अकम्पितः स्थविरो महावीरस्याष्टमो गणधरस्तस्य चाष्टसप्ततिवर्षाणि सर्वायुः, कथं ?, गृहस्थपर्याये अष्टचमत्वारिंशत् छद्मस्थपर्याये नव केवलिपर्याये चैकविंशतिरिति । 'उत्तरायणनियट्टेणं ति उत्तरायणाद्-उत्तरदिग्गमनान्नि४ वृत्तः उत्तरायणनिवृत्तः, प्रारब्धदक्षिणायन इत्यर्थः 'सूरिए'त्ति आदित्यः 'पढमाओ मंडलाओं त्ति दक्षिणां दिशं |गच्छतो रवेर्यत्प्रथम तस्मात् न तु सर्वाभ्यन्तरसूर्यमार्गात् 'एकूणचत्तालीसइमे'त्ति एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले दक्षिणायनप्रथममण्डलापेक्षया सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तु चत्वारिंशे 'अट्ठहत्तरिति अष्टसप्ततिः 'एगसद्विभाए'त्ति मुहर्त्तस्यैकपष्टिभागान् 'दिबसखेत्तस्सति दिवसलक्षणस्य क्षेत्रस्य दिवसस्यैवेत्यर्थः, 'निवुहेत्त'त्ति निवर्ध्य हापयित्वेत्यर्थः, तथा 'रयणिखेत्तस्स'त्ति रजन्या एव 'अभिनिवुड्केत्त'त्ति अभिनिवी च वर्द्धयित्वेत्यर्थः, 'चारं चरइत्ति भ्राम्यती-1 त्यर्थः, भावार्थोऽस्यैव चन्द्रप्रज्ञप्तिवाक्यरुपदश्यते-जम्बूद्वीपे यदेतो सूर्यो सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरतस्तदा ।
प्रत
अनुक्रम [१५७]
-
-
-
SHREmiratna
Audiorary au
~183~
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७८], ------------------------- ----- मूल [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७८]
नवनवतियोजनसहस्राणि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनशतान्यन्योऽन्यमन्तरं कृत्वा चरतः, एतच जम्बूद्वीपेऽशी-13 दात्युत्तरं योजनशतं प्रविश्याभ्यन्तरं मण्डलं भवति एतस्मिंश्च द्विगुणे जंबूद्वीपप्रमाणादपकर्षिते यथोक्तमन्तरं भवतीति,
तथा तत्र तयोश्चरतोरुत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति जघन्यका च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिभवति, ततोऽभ्यन्तरमकाण्डलान्निष्क्रम्य प्रथमेऽहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसङ्गम्य यदा चारं चरतस्तदा नवनवतियोजनसहस्राणि[31
षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनशतानि पञ्चत्रिंशय एकपष्टिभागा योजनस्थान्तरं कृत्वा चारं चरतः, तदा चाष्टादश-16 Kमहत्तों दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहर्तस्यैकपष्टिभागाभ्यां न्यूनः, द्वादशमुहूर्ता च रात्रिर्भवति द्वाभ्यां मुहकपष्टिभागा-1 काभ्यामधिकेति, एवं दक्षिणायनस्य द्वितीयादिषु मण्डलेष्वहोरात्रेषु चान्योऽन्यान्तरप्रमाणस्य पञ्चभिः पञ्चभिर्योजन 21
पञ्चत्रिंशता चैकपष्टिभागैर्योजनस्य वृद्धिर्वाच्या, द्वाभ्यां द्वाभ्यां च मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां दिनहानी रात्रिवृद्धिश्चेति,8
एवं च एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले सूर्ययोरन्तरं नवनवतिः सहस्राण्यष्टशतानि सप्तपञ्चाशच योजनानां प्रयोविंशहैतिश्चैकषष्टिभागाः, दिनप्रमाणं चाष्टादशानां मुहूर्तानां मध्यादेकषष्टिभागानामष्टसप्तत्यां पातितायां षोडश मुहूर्त्ताश्च
तुश्चत्वारिंशबैकषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, रात्रेस्त्वष्टसप्तत्यां क्षिप्तायां त्रयोदश मुहूर्ताः सप्तदशैकपष्टिभागाश्चेति, एवं 'दक्खि18 णायणनियद्वेत्ति यथोत्तरायणनिवृत्त एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले अष्टसप्ततिमेकषष्टिभागान् हापयति वर्द्धयति च,
एवं दक्षिणायननिवृत्तोऽपि सूर्यस्तान् हापयति बर्द्धयति च, केवलं दक्षिणायने दिनभागान् हापयति रात्रिभागांश्च
प्रत
अनुक्रम [१५७]
56
~ 184~
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[ ७८ ]
प्रत
अनुक्रम
[१५७ ]
समवाय [ ७८ ], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांग
श्रीअभय ० वृति:
1120 11
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [७८]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Jacatur
वर्द्धयति इह तु दिनभागान् वर्द्धयति रात्रिभागाश्व हापयति ॥ ७८ ॥
वलयामुहस्स णं पायास्स हिद्विलाओ चरमंताओ इमीसे गं रवणष्पभाए पुढवीए हेट्ठिले चरमंते एस णं एगूणासिं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं केउस्सवि जूयस्सवि ईसरस्सवि, छट्टीए पुढवीए बहुमज्झदेसभायाओ छस्स घणोदहिस्स द्विले चरमंते एस णं एगुणासीति जोयणसहस्साई अबाहाए अन्तरे प०, जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स बारस्स य बारस्स व एस णं एगूणासीइं जोयणसहस्साई साइरेगाई अबाहाए अंतरे प० ॥ सूत्रं ॥ ७९ ॥
अथैकोनाशीतितमे स्थानके किञ्चिल्लिख्यते, तत्र 'वलयामुहस्स' त्ति वडवामुखाभिधानस्य पूर्वदिग्व्यवस्थितस्य 'पायालस्स'त्ति महापातालकलशस्याधस्तन चरमान्ताद्रलप्रभा पृथ्वीचरमान्त एकोनाशीत्या (ती) सहस्रेषु भवति, कथं १ रत्नप्रभा हि अशीतिसहस्राधिकं योजनानां लक्षं वाहल्यतो भवति, तस्याश्चैकं समुद्राबगाहसहस्रं परिहृत्याधोलक्षप्रमाणावगाहो वलयामुखपातालकलशो भवति, ततस्तचरमान्तात् पृथिवीचरमान्तो यथोकान्तरमेव भवति, एवमन्येऽपि त्रयो वाच्या इति, 'छडीए' इत्यादि, अस्य भावार्थ:- पष्ठपृथिवी हि बाहल्यतो योजनानां लक्षं पोडश सहस्राणि च भवति, घनोदधयस्तु यद्यपि सप्तापि प्रत्येकं विंशतिसहस्राणि स्युस्तथाप्येतस्य ग्रन्थस्य मतेन षष्ठ्यामसावेकविंशतिः संभाव्यते, तदेवं षष्ठपृथिवीवाहल्यार्द्धमष्टपञ्चाशत् घनोदधिप्रमाणं चैकविंशतिरित्येवमेकोनाशीतिर्भवति, ग्रन्थान्तरमतेन तु सर्वघनोदधीनां विंशतियोजन सहस्रबाहल्यत्वात्पञ्चमीमाश्रित्येदं सूत्रमवसेयं यतस्तद्वाद्दल्य
For Parts Only
~ 185~
७९ सम
चाया.
112011
rary or
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [७९], -------------------------------- मूल [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
७९)
मष्टादशोत्तरं लक्षमुक्तं, यत आह-"पढमासीइ सहस्सा १ बत्तीसा २ अट्ठवीस ३ वीसा य ४ । अट्ठार ५ सोल ६ अह य ७ सहस्स लक्खोवरि कुजा ॥१॥" इति [प्रथमाऽशीतिः सहस्राणि द्वात्रिंशत् अष्टाविंशतिविंशतिश्च । अष्टादश पोडशाष्टौ सहस्राणि लक्षस्योपरि कुर्यात् ॥१॥] अथवा षष्ठ्याः सहस्राधिकोऽपि मध्यभागो विवक्षितः, एवमर्थसू|चकत्याबहुशब्दस्येति, तथा जम्बूद्वीपस्य जगत्याश्चत्वारि द्वाराणि विजयवैजयन्तजयन्तापराजिताभिधानानि चतुश्च-18 तुर्योजनविष्कम्भानि गब्यूतपृथुलद्वारशाखानि क्रमेण पूर्वादिषु दिक्षु भवन्ति, तेषां च द्वारस्य च द्वारस्य चान्योऽन्य
मित्यर्थः, 'एस णं'ति एतदेकोनाशीतियोजनसहस्राणि सातिरेकाणीसेलक्षणमवाधया-व्यवधानेन व्यवधानरूपमिमत्सर्थान्तरं प्रज्ञास, कथं , जम्बूद्वीपपरिधेः ३१६२२७ योजनानि कोशाः ३ धनूंषि १२८ अङ्गलानि १३ साोनी-IN | त्येवंलक्षणस्यापकर्षितद्वारद्वारशाखाविष्कम्भस्य चतुर्विभक्तस्यैवंफलत्वादिति ॥ ७९ ॥
सेअंसे णं अरहा असीई धणूई उई उच्चत्तेणं होत्या, तिविढे णं वासुदेवे असीई धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्या, अयले णं बलदेवे असीई धणूई उई उच्चत्तेणं होत्था, तिविढे णं वासुदेवे असीइवाससयसहस्साई महाराया होत्या, आउबहुले णे कण्डे अ. सीइजोयणसहस्साई बाहलेणं प०, ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो असीई सामाणियसाहस्सीओ प०, जम्बुहरीवे णं दीवे असीउत्तरं जोयणसयं ओगाहेत्ता सरिए उत्तरकट्ठोवगए पढमं उदयं करेइ ॥ सूत्र ८०॥ अधाशीतितमस्थानके किञ्चिल्लिख्यते-श्रेयांसः-एकादशो जिनः, त्रिपृष्ठः श्रेयांसजिनकालभावी प्रथमवासुदेवः,
प्रत
अनुक्रम [१५८]
~ 186~
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं वृत्तिः )
समवाय ८०], ------------------------------------ मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[८०]
प्रत अनुक्रम [१५९]
श्रीसमवा- अचलः-प्रथमबलदेवः, तथा त्रिपृष्ठवासुदेवस्य चतुरशीतिवर्षलक्षाणि सर्वायुरिति, चत्वारि लक्षाणि कुमारत्वे शेष/८०८१
यांगे II महाराज्ये इति । 'आउबहु' इत्यादि, किल रत्नप्रभाया अशीत्युत्तरयोजनलक्षवाहल्यायास्त्रीणि काण्डानि भवन्ति, समवाया. श्रीअभय
तत्र प्रथमं रत्नकाण्डं षोडशविधरत्नमयं षोडशसहस्रबाहल्यं द्वितीयं पङ्ककाण्डं चतुरशीतिसहस्रमानं तृतीयमबहुलवृत्तिः
काण्डमशीतियोजनसहस्राणीति, 'जम्बुद्दीवे ण'मित्यादि, 'ओगाहित्त'त्ति प्रविश्य 'उत्तरकट्ठोवगय'त्ति उत्तरां काष्ठां॥८ ॥ |दिशमुपगतः उत्तरकाष्ठोपगतः प्रथममुदयं करोति, सर्वाभ्यन्तरमण्डले उदेतीत्यर्थः ॥ ८॥
नवनवमिया णं भिक्खुपडिमा एक्कासीइ राइदिएहिं चउहि य पंचुत्तरेहिं अहासुतं जाव आराहिया, कुंथुस्स णं अरहओ एकासीर्ति मणपअवनाणिसया होत्था, विवाहपन्नत्तीए एकासीति महाजुम्मसया प० ॥ सूत्र ८१॥
अथैकाशीतिस्थानके किश्चिदुच्यते-'नवनवमिके'ति नव नवमानि दिनानि यस्यां सा नवनवमिका भवंति च नवसु नवकेषु नव नवमदिनानि, तस्यां च भिक्षुप्रतिमायामेकाशीती रात्रिदिनानि भवंति, एवं नवानां नवकानामेकाशी-| तिरूपत्वात् , तथा प्रथमे नवके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा एवमेकोत्तरया वृद्ध्या नवमे नवके नव नवेति सर्वासां पिण्डने चत्वारि पञ्चोत्तराणि भिक्षाशतानि भवन्तीत्यत उक्तं 'चउहि येत्यादि, इह च भिक्षाशब्देन दत्तिरभिप्रेता 'अहा-5no सुत्तति यथासूत्रं-सूत्रानतिक्रमण 'जाव'त्तिकरणाद्यथाकल्पं यथामार्ग यथातत्त्वं सम्यकायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्तिता आज्ञयाऽऽराधितेति द्रष्टव्यं 'विवाहपन्नत्तीए'त्ति व्याख्याप्रज्ञप्त्यामेकाशीतिर्महायुग्मशतानि
SACREAK
SARERainintenarama
~187
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[८]
प्रत
अनुक्रम [१६० ]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [८१]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [८१],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [ ०४]
Education
प्रज्ञतानि, इह च शतशब्देनाध्ययनान्युच्यन्ते तानि कृतयुग्मादिलक्षणराशिविशेषविचाररूपाणि अत्रान्तराध्ययनस्वभावानि तदवगमावगम्यानीति ॥ ८१ ॥
जम्बुद्दीवे दीवे वासीयं मंडलसयं जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं चारं चरइ तं०-निक्खममाणे य पविसमाणे य, समणे भगवं महावीरे बासीए राईदिएहिं वीइकंतेहिं गन्माओ गन्धं साहरिए, महाहिमवतस्स णं वासहरपव्वयस्स उवरिल्लाओ चरमंताओ सोगंधियरस कंडस्स हेडिले चरमंते एस णं वासीइं जोयणसयाई अवाहाए अंतरे प०, एवं रुप्पिस्सवि ॥ सूत्रं ८२ ॥
अथ द्व्यशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, अत्र जम्बूद्वीपे द्व्यशीत्यधिकं मण्डलशतं -सूर्यस्य मार्गशतं तद्भवतीति वाक्यशेषः, किंभूतं ? - यत् सूर्यो द्विकृत्वो- द्वौ बारौ सङ्क्रम्य-प्रविश्य चारं चरति, तद्यथा - निष्क्रामंश्च जम्बूद्वीपात् प्रविशंथ जम्बूद्वीप एवेति, अयमत्र भावार्थ:-किल चतुरशीत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाधे सकृदेव सङ्क्रामति शेषाणि तु द्वौ वाराविति, इह च द्व्यशीतिविवक्षयैवेदं द्व्यशीतिस्थानकेऽधीतमिति भावनीयं, यद्यपि जम्बूद्वीपे पञ्चषष्टिरेव मण्डलानां भवति तथापि जम्बूद्वीपादिकसूर्यचारविषयत्वाच्छेपाण्यपि जम्बूद्वीपेन विशेषितानीति, 'समणे' इत्यादि आषाढस्य शुक्लपक्षपथ्या आरभ्य यशीत्यां रात्रिन्दिवेष्वतिक्रान्तेषु त्र्यशीतितमे वर्त्तमाने अश्वयुजः कृष्णत्रयोदश्यामित्यर्थः, गर्भात्- गर्भाशयाद्देवानंदात्राह्मणीकुक्षित इत्यर्थः गर्भे- त्रिशलाभिधानक्षत्रियाकुक्षिं संहतो-नीतो देवेन्द्रवचनकारिणा हरिणेगमेष्यभिधानदेवेनेति, इदं च सूत्रं यशीतिरात्रिन्दियान्यधिकृत्य
For Parts Only
~188~
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८२], ------------------------- ----- मूल [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
८२-८३ समवाया.
प्रत
याँगे भीअभय०
सुत्रांक
[८२]]
प्रत
श्रीसमवा-रायशीतिस्थानकेऽधीयते, व्यशीतितमं रात्रिन्दिवमाश्रित्य तु व्यशीतितमस्थानके इति, 'महाहिमपंतस्से'लादि महा-
हिमवतो द्वितीयवर्षधरपर्वतख योजनशतद्वयोच्छूितस्य 'उवरिलाओ'त्ति उपरिमाचरमान्तात् सौगन्धिककाण्डसाधस-
नश्चरमान्तो यशीतिर्योजनशतानि, कथं ?, रत्नप्रभापृथिव्यां हि त्रीणि काण्डानि-खरकाण्डं पक्षकाण्डमबहुलकाण्ड वृत्तिः
चेति, तत्र प्रथमं काण्डं पोडशविध, तद्यथा-रलकाण्डं १ वज्रकाण्डं २एवं बैडूर्य ३ लोहिताक्ष ४ मसारगड ५ ॥८९॥ हंसगर्भ ६ पुलक ७ सौगन्धिक ८ ज्योतीरस ९ अञ्जन १० अञ्जनपुलक ११ रजत १२ जातरूप १३ अङ्क १४ एक
|टिक १५ रिष्ठकाण्डं चेति १६, एतानि च प्रत्येकं सहस्रप्रमाणानि, ततश्च सौगन्धिककाण्डस्थाष्टमत्वादशीतिशतानि वे च शते महाहिमवदुच्छ्य इत्येवं बशीतिशतानि इति, एवं रुक्मिणोऽपि पञ्चमवर्षधरस्व वाच्यं, महाहिमपत्समानोच्छ्यत्वात्तस्येति ॥ ८२॥
समणे भगवं महावीरे बासीइराइदिएहिं चीइतेहिं तेवासीइमे राईदिए वट्टमाणे गम्भाओ गम्भं साहरिए, सीयलस्स थे अरहओ तेसीई गणा तेसीई गणहरा होत्था, थेरे ण मंठियपुत्ते तेसीई वासाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे जावप्पहीणे, उसमे णं अरहा कोसलिए तेसीई पुल्चसयसहस्साई अगारमझे वसित्ता मुंडे भविता णं जाव पवइए, मरहे राया चाउरंतचक्कवट्टी तेसीई पुच्चसयसहस्साई अगारमझे बसित्ता जिणे जाए केवली सम्बन् सम्वभावदरिसी ॥ सूत्र ८३ ।। अथ त्र्यशीतितमस्थानके किमपि लिख्यते-इह शीतलजिनस त्र्यशीतिर्गणाः ध्यशीतिगणधरा उक्ता आवश्यके
अनुक्रम [१६१]
॥८९॥
~ 189~
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८३], --------------- ---------- मूलं [८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%
%
प्रत
%
सुत्राक
4
*
[८३]]
*
त्वेकाशीतिरिति मतान्तरमिदमिति, तथा स्थविरो मण्डितपुत्रो-महावीरस्य षष्ठो गणधरः तस्य च त्र्यशीतिवर्षाणि सर्वायुः, कथं ?, त्रिपञ्चाशद्गृहस्थपर्याय चतुर्दश छनस्थपर्याये पोडश केवलित्वे इत्येवं व्यशीतिरिति, तथा 'कोसलिए'त्ति कोशलदेशे भवः कौशलिकः 'तेसीईति विंशतिः पूर्वलक्षाणि कुमारत्वे त्रिषष्टिः राज्ये इत्येवं त्र्यशीतिः, तथा भरतश्चक्रवर्ती सप्तसप्ततिः पूर्वलक्षाणि कुमारत्वे पट् चक्रवर्तित्वे इत्येवं त्र्यशीतिमगारवासमध्युष्य जिनो जातः-राज्यावस्थस्वैव रागादिक्षयात्केबली-संपूर्णासहायविशुद्धज्ञानादित्रययोगात् सर्वज्ञो विशेषयोधात् सर्वभावदर्शी सामान्यबोधात्ततः पूर्वलक्षं प्रव्रज्याग्रहणपूर्वकं केवलित्वेन विहत्य सिद्ध इति ॥ ८३॥
चउरासीह निरयावाससयसहस्सा ५०, उसमे गं अरहा कोसलिए चउरासीइं पुन्वसयसहस्साई सम्बाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे, एवं भरहो पाहुपली भी सुंदरी, सिजसे णं अरहा चउरासीइं वाससयसहस्साई सब्बाउयं पालइत्ता सिद्धे जावयहीणे, तिविढे णं वासुदेवे चउरासीई वाससयसहस्साई सच्चाउयं पालइचा अप्पइट्टाणे नरए नेरइयत्चाए उववन्नो, सक्कस्स णं देविंदस्स देवरनो चउरासीई सामाणियसाहस्सीओ प०, सब्वेवि णं बाहिरया मंदरा चउरासीई २ जोयणसहस्साई उर्दू उच्चतेण प०, सब्वेवि णं अंजणगपन्चया चउरासीई २ जोयणसहस्साई उहूं उच्चचेणं पन्नत्ता, हरिवासरम्मयवासियाणं जीवाणं धणुपिट्टा चउरासी जोयणसहस्साई सोलस जोयणाईचत्वारि य भागा जोयणस्स परिक्खेवणं प०, पंकबहुलस्स णं कण्डस्स उवरिलाओ घरमसाओ हेहिल्के गरमते एस णं चोरासीइ मोयणसयसहस्साई अथाहाए अंतरे प०, विवाहपन्नत्तीए णं भगव
प्रत
REGRORSCOR
अनुक्रम [१६२]
ERA
%
4
SAREEatinthianitational
~190~
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८४], ------------------------- ----- मूल [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय
प्रत
| मवाया.
RE
सुत्राक
८४]
॥९
॥
तीए चउरासीइं पयसहस्सा पदग्गेणं प०, चोरासीइ नागकुमारावाससयसहस्सा प०, चोरासीइ पइन्नगसहस्साई प०, चोरासीई जोणिप्पमुहसयसहस्सा प०, पुच्चाइयाणं सीसपहेलियापजवसाणाणं सहाणवाणंतराणं चोरासीए गुणकारे प०, उसभस्म णं अरहओ चउरासीइ समणसाहस्सीओ होत्या, सब्वेवि चउरासीइ विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं
च विमाणा भवंतीति मक्खायं ॥ सूत्र ८४ ॥ XI चतुरशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, चतुरशीतिनैरकलक्षाण्यमुना विभागेन-तीसा य ३० पण्णवीसा २० पणरस |१५ दसेव ९ तिन्नि य हवंति । पक्षणसयसहस्सं १ पंचेव ५ अनुत्तरा निरया ॥१॥' इति, श्रेयांसः-एकादश-1
तीर्थकरः एकविंशतिर्वपलक्षाणि कुमारत्वे तायन्त्येव प्रत्रज्यायां द्विचत्वारिंशद्राज्ये इत्येवं चतुरशीतिमायुः पालयित्वा । सिद्धः, तथा 'तिविट्ठ'त्ति प्रथमवासुदेवः श्रेयांसजिनकालभावीति अप्रतिष्ठानो नरकः-सप्तमपृथिव्या पञ्चानां मध्यम इति, तथा 'सामाणिय'त्ति समानर्द्धयः तथा 'बाहिरय'ति जम्बूद्वीपकमेरुव्यतिरिक्ताश्चत्वारो मन्दराश्चतुरशीतिः सहस्राणि प्रज्ञप्ताः "अंजणगपञ्चय'त्ति जम्बूद्वीपादष्टमे नन्दीश्वराभिधाने द्वीपे चक्रवालविष्कम्भमध्यभागे पूर्वादिषु दिक्षु चत्वारोऽक्षनरत्रमया अञ्जनकपर्वताः, 'हरिवासे'त्यादि 'चत्तारि य भागा जोयणस्स'त्ति एकोनविंशतिर्भागाः, इहार्थे गाथा -'धणुपिट्ठकलचउकं चुलसीइसहस्स सोलसहिय'त्ति [८४०१६१] तथा पङ्कबहुलं काण्डं द्वितीयं | तस्य च बाहल्यं चतुरशीतिः सहस्राणीति यथोक्तः सूत्रार्थ इति, तथा व्याख्याप्रज्ञत्यां-भगवत्सां चतुरशीतिः
EXICKR
प्रत
अनुक्रम [१६३]
॥९॥
awretunaturary.orm
~191~
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८४], ------------------------- ----- मूल [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[८४]
पदसहस्राणि पदाग्रेण-पदपरिमाणेन, इह च यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं, मतान्तरेण तु अष्टादशपदसहस्रपरिमाणत्या-13 दाचारस्य एतद्विगुणत्वाच शेषाङ्गानां व्याख्याप्रज्ञप्तिद्वै लक्ष अष्टाशीतिः सहस्राणि पदानां भवन्तीति, तथा चतुरशीतिनागकुमारापासलक्षाणि-चतुश्चत्वारिंशतो दक्षिणायां चत्वारिंशतश्चोत्तरायां भावादिति, चतुरशीतिर्योनयो-जीयोत्पत्तिस्थानानि ता एवं प्रमुखानि-द्वाराणि योनिप्रमुखानि तेषां शतसहस्राणि-लक्षाणि योनिप्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, कथं ?-"पुढविदगअगणिमारुय एकके सत्त जोणिलक्खाओ । वण पत्तेय अणंते दस चउदस जोणिलक्खाओ ॥१॥ विगलिंदिएमु दो दो चउरो चउरो य नारयसुरेसु । तिरिएसु हाँति चउरो चोदसलक्खा उ मणुएमु ॥२॥" ति, [ पृथ्वीदकाग्निमरुतामेकैकस्मिन् सप्त योनिलक्षाः । बने प्रत्येकानन्तयोर्दश चतुर्दश योनिलक्षाः ॥१॥ विकलेन्द्रियेषु द्वे द्वे चतस्रः चतस्रश्च नारकसुरयोः । तिर्यक्षु भवन्ति चतस्रः चतुर्दश लक्षास्तु मनुजेषु ॥२॥] इह च जीवोत्पत्तिस्थानानामसंख्येयत्वेऽपि समानवर्णगन्धरसस्पर्शानां तेषामेकत्वविवक्षणान्न यथोक्तयोनिसंख्याव्यभिचारो मन्तव्य इति, 'पुषाइयाण'मित्यादि, पूर्वमादियेषां तानि पूर्वादिकानि तेषां शीर्षप्रहेलिका पर्यवसाने येषां तानि शीर्षप्रहेलिकापर्यवसानानि तेषां स्वस्थानात्-पूर्वपूर्वस्थानादुत्तरोत्तरस्य संख्यास्थानस्योत्पत्तिस्थानातू संख्याविशेषलक्षणात् गुणनीयादित्यर्थः 'स्थानान्तराणि स्थानान्तराण्यपि अनन्तरस्थानान्यव्यवहितसया-2 विशेषा गुणकारनिष्पन्ना येषु तानि स्वस्थानस्थानान्तराणि क्रमव्यवस्थितसङ्ख्यानविशेषा इत्यर्थः अथवा खस्थानानि
प्रत
अनुक्रम [१६३]
-
.
१६ सम.
REaratma
~192~
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्तिः )
समवाय [८४], ------------------------- ----- मूल [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[८४]
॥९१॥
क-
श्रीसमवा
च-पूर्वस्थानानि स्थानान्तराणि च-अनन्तरस्थानानि खस्थानस्थानान्तराणि अथवा स्वस्थानात्-प्रथमस्थानात् पूर्वा- ८४ समयांगे लक्षणात् स्थानान्तराणि-विवक्षितस्थानानि स्वस्थानस्थानान्तराणि तेषां चतुरशीत्या लक्षैरिति शेषः, गुणकारः- भावाया. श्रीअभय
अभ्यासराशिः प्रज्ञप्तः, तथाहि-किल चतुरशीत्या वर्षलक्षैः पूर्वाङ्गं भवतीति खस्थानं, तदेव चतुरशीत्या लौगुणितं वृत्तिः पूर्वमुच्यते, तच स्थानान्तरमिति, एवं पूर्व स्वस्थानं तदेव चतुरशीत्या लक्षैगुणितमनन्तरस्थानं त्रुटिताकाभिधानं भव
तीति, इह सङ्ग्रहगाधा-'पुचतुडियाडडायवहुहूय तह उप्पले य पउमे य । नलिणच्छिनिउर अउए नउए पउए य नायघो ॥१॥ चूलियसीसपहेलिय चोइस नामा उ अङ्गसंजुत्ता । अट्ठावीसं ठाणा चउणउयं होइ ठाणसयं ॥२॥' ति, अभिलापश्चैषां-पूर्वाङ्गं पूर्व श्रुटिताङ्गं त्रुटितमित्यादिरिति, 'चउरासीति'मित्यादि, चतुरशीतिसंख्यास्थानकविवरणलेख्यं, इह विभागोऽयं-बत्तीस ३२ अट्ठबीसा २८ बार १२४ ८ चउर ४ सयसहस्साई । आरेण बंभलोगा विमाणसंखा भये एसा ॥१॥ पञ्चास ५० चत्त ४ छच्चेव ६ सहस्सा लंत सुक सहसारे । सय चउरो आणयपाणएसु तिषणारणचुयओ ॥२॥ एकारसुत्तरं हेटिमेसु १११ सत्तुत्तरं च मज्झिमए १०७१ सयमेगं उपरिमए १००४ पञ्चेव अणुत्तरषिमाणा ॥३॥"[द्वात्रिंशदष्टाविंशतिद्वादशाष्ट च चतस्रो लक्षाः। अर्वा ब्रह्मलोकात् विमानसंख्या भवेदेपा
॥१॥ पञ्चाशचत्वारिंशत् षट् चैव सहस्राणि लान्तके शुक्रे सहस्रारे चतुःशतानि आनतप्राणतयोस्त्रीण्यारणाच्युतयोः॥२॥ दएकादशोत्तरमधस्तनेषु सप्तोत्तरं च मध्यमेषु । शतमेकमुपरितनेषु पञ्चैवानुत्तरविमानानि ॥३॥] इति भवंतीति
प्रत
अनुक्रम [१६३]
REERSEXSAGACASSAC
--
~ 193~
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८४], ------------------------- ----- मूल [८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[८४]
मक्खाय'ति एतानि विमानान्येवं भवन्ति इति हेतोराख्यातानि भगवता सर्वज्ञत्वात् सत्यवादित्वाचेति ॥ ८४॥
आयारस्स णं भगवओ सचूलियागस्स पंचासीइ उद्देसणकाला प०, धायइसण्डस्स णं मंदरा पंचासीइ जोयणसहस्साई सम्बग्गेणं प०, रुपए ण मंडलियपवए पंचासीइ जोयणसहस्साई सब्वग्गेणं प०, नंदणवणस्स णं हेहिलाओ चरमंताओ सोगंधियस्स कंडस्स हेडिल्ले चरमंते एस णं पंचासीइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प० ॥ (सूत्र)८५॥
अध पञ्चाशीतिस्थानके किञ्चिलिख्यते, तत्राचारस्य-प्रथमाङ्गस्य नवाध्ययनात्मकप्रथमश्रुतस्कन्धरूपस्य 'सचूलियागस्स' इति द्वितीये हि तस्य श्रुतस्कन्धे पञ्च चूलिकाः तासु च पञ्चमी निशीथाख्येह न गृह्यते भिन्नस्थानरूपत्वातस्याः, तासु च प्रथमद्वितीये सप्तससाध्ययनात्मिके तृतीयचतु.वेकैकाध्ययनात्मिके तदेवं सह चूलिकाभिर्वर्तत इति सचूलिकाकस्तस्य पञ्चाशीतिरुद्देशनकाला भवन्तीति, प्रत्यध्ययनं उद्देशनकालानामेतावत्संख्यत्वात् , तथाहि-13 प्रथमश्रुतस्कन्धे नवस्वध्ययनेषु क्रमेण सप्त ७ षट् १३ चत्वार १७ श्चत्वारः २१ षट् २७ पञ्च ३२ अष्ट ४० चत्वारः |४४ सप्त ५१ चेति, द्वितीयश्रुतस्कन्धे तु प्रथमचूलिकायां ससखध्ययनेषु क्रमेण एकादश ६२ त्रय ६५ स्त्रयः ६८ चर्तुषु द्वौ द्वौ ७६ द्वितीयायां सप्तकसराणि ८३ अध्ययनान्येवं तृतीयैकाध्ययनात्मिका ८४ एवं चतुर्थ्यपीति ८५ सर्वमीलने पञ्चाशीतिरिति । तथा धातकीखण्डमन्दरौ सहस्रमवगाढी चतुरशीतिसहस्राण्युच्छ्रिताविति पञ्चाशीतियोजनसहस्राणि सर्वाग्रेण भवतः, पुष्करार्द्धमन्दरावप्येवं, नवरं सूत्रे नाभिहिती विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति, तथा
प्रत
%
अनुक्रम [१६३]
-994-%
44
2
45
4
-%
REsama
aurary.om
E
~194~
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[८५]
प्रत
अनुक्रम
[१६४]
समवाय [८५ ],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवा
यगि श्रीजमय ० वृति:
॥ ९२ ॥
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [८५]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Jan Eucator
रुचको रुचकाभिधानस्त्रयोदशद्वीपान्तर्गतः प्राकाराकृती रुचकद्वीपविभागकारितया स्थितः, अत एव मण्डलिकपर्वतो, मण्डलेन व्यवस्थितत्वात् स च सहस्रमवगाढश्चतुरशीतिरुच्छ्रित इति पञ्चाशीतिः सहस्राणि सर्वाप्रेणेति, तथा 'नन्दनवनस्य' मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छ्रितायां प्रथममेखलायां व्यवस्थितस्याधस्त्याच्चरमान्तात् 'सौगन्धिककाण्डस्य' रत्नप्रभापृथिव्याः खरकाण्डाभिधानप्रथमकाण्डस्थावान्तरकाण्डभूतस्याष्टमस्य सौगन्धिकाभिधानरत्नमयस्य सौगन्धिककाण्डस्याधस्त्यश्वरमान्तः पञ्चाशीतिर्योजनशतान्यन्तरमाश्रित्य भवति, कथम् ?, पञ्च शतानि मेरोः सम्बन्धीनि प्रत्येकं च सहस्रप्रमाणत्वादवान्तर काण्डानामष्टमकाण्डमशीतिशतानीति ॥ ८५ ॥
सुविहिस्स णं पुप्फदन्तस्स अरहओ छलसीइ गणा छलसीइ गणहरा होत्या, सुपासस्स णं अरहओ छलसीई वाइसया होत्या, दोचाए णं पुढवीए बहुमज्झदेसभागाओ दोचस्स घणोद हिस्स हेहिले चरमंते एस णं छलनीइ जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे प० ॥ ( सूत्र ) ८६ ॥
अथ षडशीतिस्थानके किमपि लिख्यते, तत्र सुविधेः - नवमजिनस्येह पडशीतिर्गणा गणधराचोक्ता आवश्यके तु | अष्टाशीतिरिति मतान्तरमिदं, तथा द्वितीया पृथिवी-शर्करप्रभा, सा च वाहल्यतो द्वात्रिंशत्सहस्राधिकलक्षमाना तदर्द्ध पदपष्टिः सहस्राणि घनोदधिश्व तदधोवर्त्ती द्वितीयापृथिवीसम्बन्धित्वात् द्वितीयो विंशतिः सहस्राणि वाहुल्यत इति षडशीतिर्यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ ८६ ॥
For Parts Only
~195~
८५-८६ समवाया.
॥ ९२ ॥
Tantrary or
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८], ------------------------------------ मुलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[८७]
प्रत
मंदरस्स णं पष्वपस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपब्वयस्स पञ्चच्छिमिले चरमंते एस सत्तासीइंजोयणसहस्साई अचाहाए अंतरे प०, मंदरस्स णं पब्वयस्स दक्खिणिलाओ चरमंताओ दगभासस्स आवासपवयस्स उत्तरिले चरमंते एस पं सत्तासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं मंदरस्स पञ्चच्छिमिलाओ चरमंताओ संखस्सावा० पुरच्छिमिले चरमते, एवं चेव मंदरस्स उत्तरिलाओ चरमंताओ दगसीमस्स आवासपब्वयस्स दाहिणिले चरमते एस में सत्तासीई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, छण्हं कम्मपगडीणं आइमउवरिलवजाणं सत्तासीई उत्तरपगडीओ प०, महाहिमवतकूडस्स णं उवरिमंताओ सोगन्धियस्स कंडस्स हेहिले चरमंते एस णं सत्तासीइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०, एवं रुप्पिकूडस्सवि ॥ सूत्र ।। ८७॥
अथ सप्ताशीतिस्थानके किञ्चिलिख्यते, 'मन्दरे'त्यादि, मेरोः पारस्त्यान्तात् जम्बूद्वीपान्तः पञ्चचत्वारिंशत्सहस्राणि द्विचत्वारिंशश्च सहस्राणि लवणजलधिमवगाय गोस्तुभो वेलन्धरनागराजावासपर्वतः प्राच्यां दिशि भवति, एवं सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति, एवमन्येषां त्रयाणामन्तरमवसेयमिति । तथा षण्णां कर्मप्रकृतीनामादिमोपरिमवजर्जानां-ज्ञानावरणान्तरायरहितानां दर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्कनामगोत्रसंज्ञितानामित्यर्थः सप्ताशीतिरुत्तरप्रकतयः प्रज्ञप्ताः, कथं ?, दर्शनावरणादीनां पपणां क्रमेण नव द्वे अष्टाविंशतिः चतस्रो द्विचत्वारिंशद्वे चेत्यतस्तासां |मीलने सूत्रोक्तसंख्या स्वादिति । 'महाहिमवन्ते'त्यादि, महाहिमवति द्वितीयवर्षधरपर्वते अष्टी सिद्धायतनकूटमहाहिमवत्कूटादीनि कूटानि भवन्ति, तानि पञ्चशतोच्छूितानि, तत्र महाहिमवत्कूटस पञ्च शतानि द्वेशते महाहिमव
अनुक्रम [१६६]
~196~
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८], ------------------------------------ मुलं [८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
116-kGRA
सूत्राक
[८७]
श्रीसमवा- वर्षधरोच्छ्यस्य अशीतिश्च शतानि प्रत्येकं सहस्रमानानामष्टानां सौगन्धिककाण्डावसानानां रत्नप्रभाखरकाण्डावान्त-11८७८८
यांगे हारकाण्डानामित्येवं मीलिते सप्ताशीतिरन्तरं भवतीति, एवं 'रुप्पिकूडस्सवित्ति रुक्मिणि पञ्चमवर्षधरे यद्वितीयं समवाया. श्रीअभय
हरुक्मिकूटाभिधानं कूटं तस्याप्यन्तरं महाहिमवत्कूटस्येव वाच्यं, समानप्रमाणत्वाइयोरपीति ॥ ८७ ॥ वृत्तिः
एगमेगस्स पं चंदिमसूरियस्स अट्ठासीइ अट्ठासीइ महम्गहा परिवारो प०, दिद्विवायरस णं अट्ठासीइ सुत्ताई प०, तं०-उज्जु॥९३॥ सुयं परिणयापरिणयं एवं अट्ठासीइ सुत्ताणि भाणियव्याणि जहा नंदीए, मंदरस्स णं पब्वयस्स पुरच्छिमिलाओ चरमंताओ
गोधुभस्स आवासपव्ययस्स पुरच्छिमिले चरमंते एस णं अट्ठासीइंजोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउसुवि दिसासु नेयवं, बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ रिए पढम छम्मासं अयमाणे चोयालीसइमे मंडलगते अट्ठासीति इगसविभागे मुहुतस्स दिवसखेत्तस्स निबुड्ढेत्ता रयणिखेतस्स अभिनिवुहेत्ता रिए चारं चरइ, दक्षिणकट्ठाओ सूरिए दोघं छम्मासं अयमाणे चोयालीसतिम मंडलगते अट्ठासीई इगसहिभागे मुहुत्तस्स रयणिखेत्तस्स निवुहेत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्डित्ता पं सूरिए चारं चरइ ।। सूत्रं ८८॥
अष्टाशीतिस्थानके किञ्चिद्विप्रियते, एकैकस्यासंख्यातानामपि प्रत्येकमित्यर्थः, चन्द्रमाश्च सूर्यश्च चन्द्रमःसूयें तस्य, चन्द्रसूर्ययुगलस्य इत्यर्थः, अष्टाशीतिमहाग्रहाः, एते च यद्यपि चन्द्रस्यैव परिवारोऽन्यत्र श्रूयते तथापि सूर्यस्यापीन्द्रत्वादेत एवं परिवारतयाऽवसेया इति । 'दिद्विवाए'त्यादि, दृष्टिवादस्य-द्वादशाङ्गस्य परिकर्मसूत्रपूर्वगतप्रथमानु
प्रत
अनुक्रम [१६६]
M
॥९३
~197
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [८८], -------------
...--------------------------- मूल [८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%
%
प्रत
%
सूत्राक
[८८]
%
योगचूलिकाभेदेन पञ्चप्रकारस 'सुत्ताईति द्वितीयप्रकारभूतानि अष्टाशीतिभवन्ति 'जहा नंदीए'त्ति अतिदेशतः |
सूत्राणि दर्शितानि तानि चाग्रे व्याख्यास्यामः, 'मंदरस्से त्यादि, मेरोः पूर्वान्तात् जम्बूद्वीपस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनस-* सहस्रमानात् जम्बूद्वीपान्ताच द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्रेषु गोस्तुभस्य व्यवस्थितत्वात् तस्य च सहस्रविष्कम्भत्वाद् यथोक्तः |
सूत्रार्थो भवतीति, अनेनैव क्रमेण दक्षिणादिदिग्व्यवस्थितान् दकावभासशंखदकसीमाख्यान वेलन्धरनागराजनिवाहै सपर्वतानाश्रित्य वाच्यमत एवाह-एवं चउसुवि दिसासु नेयवमिति । 'बाहिराओ णमित्यादि, बाह्यायाः सर्वाअभ्यन्तरमण्डलरूपाया उत्तरस्याः काष्ठायाः कचित् 'बाहिराओ'त्ति न दृश्यते सूर्यः प्रथमं पण्मासं दक्षिणायनलक्षणं
दक्षिणायनादित्वात् संवत्सरस्य 'अयमाणे'त्ति आयान्-आगच्छन् चतुश्चत्वारिंशत्तममण्डलगतोऽष्टाशीतिमेकषष्टिभा-10
गान् , 'दिवसखेत्तस्स'त्ति दिवसस्यैव 'निबुढेतत्ति निवर्ख हापयित्वा 'रयणिखेत्तस्स'त्ति रजन्यास्तु अभिवयं सामरिए चारं चरइ'त्ति भ्राम्यतीति, इह च भावनैव-प्रतिमण्डलं दिनस्य मुहूत्तैकषष्टिभागद्वयहानेर्दक्षिणायनापेक्षया
चतुश्चत्वारिंशत्तमे अष्टाशीतिर्भागा हीयन्ते, रात्रेस्तु त एवं वर्द्धन्त इति, द्विः सूर्यग्रहणं चेह दिनराच्याश्रितवाक्यद्वयभेदकल्पनया ततोन पुनरुक्तमबसेयं, इदं च सूत्रमष्टसप्ततिस्थानकसूत्रबद्भावनीयमिति, दक्षिणकट्ठाओ' इति आदिसूत्र पूर्वसूत्रबदवगन्तव्यं नवरमिह दिनवृद्धिः रात्रिहानिश्च भावनीयेति ॥ ८८॥ उसमे णं अरहा कोसलिए इमीसे ओसप्पिणीए ततियाए सुसमदूसमाए पच्छिमे भागे एगूषणउए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगए
प्रत
ME%
अनुक्रम [१६७]
*
ARE
A
ranya
~1984
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [८९], ------------------------------------ मुलं [८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
८९-९० समवाया.
प्रत
श्रीसमवा
गांगे श्रीअभय
वृत्तिः ॥९४॥
प्रत
SCIENC
जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, समणे भगवं महावीरे इमीसे ओसप्पिणीए चउत्थाए दूसमसुसमाए समाए पच्छिमे भागे एगणनउइए अद्धमासेहिं सेसेहिं कालगए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, हरिसेणे णं राया चाउरंतचकवट्टी एगणनउई वाससयाई महाराया होत्था, संतिस्स णं अरहओ एगणनउई अजासाहस्सीओ उक्कोसिया अजियासंपया होत्था ।। सूत्र ८९॥
अथैकोननवतिस्थानके किश्चिद्विचार्यते-'तईयाए समाए'त्ति सुपमदुष्पमाभिधानाया एकोननवत्यामर्द्धमासेषुत्रिपु वर्षेषु अर्द्धनवसु च मासेषु सखिति गम्यते, 'जाय'त्ति करणात् 'अन्तगडे सिद्धे बुद्धे मुत्ते'त्ति रश्यं, हरिषेणचक्रवर्ती दशमस्तस्य च दश वर्षसहस्राणि सर्वायुतत्र च शतोनानि नव सहस्राणि राज्यं शेषाण्येकादश शतानि कुमारत्वमाण्डलिकत्वानगारत्येषु अबसेयानि, इह शान्तिजिनस्यैकोननवतिरार्यिकासहस्राण्युक्तान्यावश्यके त्वेकपष्टिः सहस्राणि शतानि च षडभिधीयन्त इति मतान्तरमेतदिति ॥ ८९ ॥ सीयले ण अरहा नउई धणई उई उच्चत्तेणं होत्था, अजियस्स णं अरहओ नउई गणा नउई गणहरा होत्या, एवं संतिस्सवि, सयभुस्स णं वासुदेवस्स णउइवासाई विजए होत्था, सव्येसि णं बट्टवेयहपब्धयाणं उवरिलाओ सिहरतलाओ सोगंधियकण्डस्स हेडिले चरमते एस णं नउइजोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०॥ सूत्रं ९०॥
अथ नवतिस्थानके किञ्चिद् व्याख्यायते, तत्राजितनाथस्य शान्तिनाथस्य चेह नवतिगणा गणधराथोक्ताः आवश्यके तु पञ्चनवतिरजितस्य पत्रिंशनु शान्तरुक्तास्तदिदमपि मतान्तरमिति, तथा स्वयम्भूः-तृतीयवासुदेवस्तस्य |
अनुक्रम [१६८]
| ॥९
॥
Ch
Hiranataram.org
~199~
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९०], ------------------------------------ मूल [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
नवतिवर्षाणि विजयः-पृथिवीसाधनव्यापारः, 'सबेसि णमित्यादि, सर्वेषा विंशतेरपि वर्तुलवैताढ्यानां-शब्दापातिप्रभृतीनां योजनसहस्रोच्छ्रितत्वात् सौगन्धिककाण्डचरमान्तस्य चाष्टसु सहस्रेषु व्यवस्थितत्वात् नवसु सहस्रेषु नवतेः शतानां भावात् सूत्रोक्तमन्तरमनयद्यमिति ॥९॥
एकाणउई परवेयावञ्चकम्मपडिमाओ प०, कालोए णं समुद्दे एकाणउई जोयणसयसहस्साई सहियाई परिक्खेवणं ५०, कुंथुस्स णं अरहओ एकाणउई आहोहियसया होत्था, आउयगोयवजाणं छण्डं कम्मपगडीणं एकाणउई उत्तरपगडीओ प० ॥ सूत्रं ९१ ॥
अथैकनवतिस्थानके किञ्चिद्वितन्यते, तत्र परेपां-आत्मव्यतिरिक्तानां वैयावृत्यकर्माणि-भक्तपानादिभिरुपएम्भक्रियास्तद्विषयाः प्रतिमाः-अभिग्रहविशेषाः परवैयावृत्त्यकर्मप्रतिमाः, एतानि च प्रतिमात्वेनाभिहितानि कचि
दपिनोपलब्धानि, केवलं विनयवैयावृत्त्यभेदा एते स(म्भव)न्ति, तथाहि-दर्शनगुणाधिकेपु सत्कारादिर्दशधा विनयः, है आह च-"सकार १ भुट्ठाणे २ सम्माणे ३ आसण[भि]ग्गहो ४ तहय । आसणअणुप्पयाणं ५ किइकम्मं ६
अञ्जलिगहो य ७॥१॥ इंतस्सणुगच्छणया ८ ठियस्स तह पजुवासणा भणिया ९ । गच्छंताणुवयणं १० एसो सुस्सूसणाविणओ' ॥२॥ [सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मानं आसनाभिग्रहः तथा च । आसनानुप्रदानं कृतिकर्म अअलिप्रग्रहः ॥१॥] त्ति [आयतोऽनुगमनं स्थितस्य तथा पर्युपासना भणिता । गच्छतोऽनुब्रजनं एष शुश्रूषाविनयः ॥२॥] तत्र सत्कारो-बन्दनस्तयनादिः १ अभ्युत्थान-आसनत्यागः २ सन्मानो-वखादिपूजनं ३ आसनाभिग्रहः
प्रत
अनुक्रम [१६९]
45614
REauraton
n a
सत्कारादि दशविध-विनयस्य वर्णनं
~200~
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९१], ------------------------------------ मूल [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
वृत्तिः
[९
]
प्रत
श्रीसमवा- तिष्ठत एवासनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेति भणनमिति ४ आसनानुप्रदान-आसनख स्थानात् स्थानान्तरसञ्चारणं ५ ९१ स
यांगे कृतिकादीनि प्रकटानि, तथा तीर्थङ्करादीनां पञ्चदशानां पदानामनाशातनादिपदचतुष्टयगुणितत्वे पष्टिविधोऽना- मवाया. श्रीअभय
शातनाविनयो भवति, तथाहि-तित्थयर १ धम्म २ आयरिय ३ वायग ४ थेरे ५ (य)कुल ६ गणे ७ सङ्घ ८ । सम्भो-181
इय ९ किरियाए १० मइनाणाई(ण) १५ य तहेव ॥१॥ [तीर्थकरधर्माचार्यवाचकस्थविरकुलगणसंघेपु । साम्भोगि॥९५॥
कक्रिययोः मतिज्ञानादीनां तथैव ॥ १॥] अत्र भावना-तीर्थकराणामनाशातना तीर्थकरानाशातना, तीर्थङ्करप्रज्ञप्तस्य |
धर्मस्य अनाशातनाविनयः, एवं सर्वत्र भावना कर्तव्या, "अणसायणा य भत्ती बहुमाणो तहय वणवाओ य । अरतहतमाइयाणं केवलणाणावसाणाणं ॥१॥” इति [अनाशातना च भक्तिबहुमानस्तथैव वर्णवादश्च । अहंदादीनां
केवलज्ञानावसानानां ॥१॥] तथौपचारिकविनयः सप्तधा, यदाह-"अब्भासासण १ छंदाणुवत्तणं २ कयपडिकि।। तय ३।कारियनिमित्तकरण ४ दुक्खत्तगवेसणा तय ॥१॥ तह देसकालजाणण सवत्थे(सु) तहय अणुमई भणिया ७॥ उवयारिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ॥ २॥ [अभ्यासासनं छन्दोऽनुवर्त्तनं कृतप्रतिकृतिस्तथा च ।। कारितनिमित्तं करणं दुःखार्तगवेषणं तथैव ॥ १॥ तथा देशकालज्ञानं सर्वार्थषु तथा चानुमतिर्मणिता औपचारिकस्तु| FM विनय एप भणितः समासेन ॥२॥] इति, अभ्यासासनं-उपचरणीयस्यान्तिके ऽवस्थानं छन्दोऽनुवर्तनं-अभिप्रायानुचिः कृतप्रतिकृतिर्नाम-प्रसन्ना आचार्याः सूत्रादि दास्यन्ति न नाम निर्जरेति मन्यमानस्याहारादिदानं कारितनिमि-IP
अनुक्रम [१७०]
सत्कारादि दशविध-विनयस्य वर्णनं
~ 201~
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९१], ------------------------- ----- मूल [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
[९
]
करणं-सम्यकशासपदमध्यापितस्य विशेषेण बिनये वर्त्तनं तदर्थानुष्ठानं च, शेषाणि प्रसिद्धानि, तथा पैयावृत्त्वं हैदशधा, यदाह-आयरिय उवज्झाए थेरतवस्सी गिलाणसेहाणं । साहम्मिय कुलगणसंघसङ्गयं तमिह कायचं ॥१॥ PI[ आचार्योपाध्यायस्थविरतपखिग्लानशैक्षाणां । साधर्मिके कुलगणसंघानां संगतं तदिह कर्त्तव्यं ॥ १॥] इति, तत्र
प्रजाजना १ दिगु २ देश ३ समुद्देश ४ वाचना ५ चार्यविनयो भवति, तथौपचारिकविनयोऽभ्यासत्यादिः सप्तधा, दतथा वैयावृत्त्यं दशभेदादाचार्यस्य च पञ्चविधत्वात्तदेवं चतुर्दशधेत्येकनवतिर्विनयभेदा एते एव अभिग्रहविषयीभूताः
प्रतिमा उच्यन्त इति । दर्श०१० अना०६० औप० ७ वैया० १४। तथा 'कालोए णति कालोदः समुद्रः, स चैकनयतिर्लक्षाणि साधिकानि परिक्षेपेण, आधिक्यं च सप्तत्या सहस्रः पड्भिः शतैः पश्चोत्तरः सप्तदशभिर्धनुःशतैः पञ्चदशोत्तरैः सप्ताशीत्या चाङ्गुलैः साधिकैरिति 'आहोहिय'त्ति नियतक्षेत्रविषयावधयः । आयुर्गोत्रवर्जानां 'पण्णा'मिति ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयनामान्तरायाणां क्रमेण पञ्चनवद्यष्टाविंशतिर्द्विचत्वारिंशत्पञ्चभेदानामिति ॥११॥ बाण उई पड्रिमाओ पं०, थेरे णं इंदभूती वाणउद वासाई सच्चाउयं पालइत्ता सिद्धे युद्धे, मदरस्स णं पव्वयस्स बहुमज्झदेसभागाओ गोधुभस्स आवासपव्वयस्स पचच्छिमिले चरमंते एस णं थाणउइंजोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउण्हंपि आवासपब्बयाणं ॥ सूत्र ॥ ९२॥ अथ द्विनवतिस्थानके किमप्यभिधीयते, विनवतिः प्रतिमा:-अभिप्रहविशेषाः, ताश्च दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्त्यनु
प्रत
अनुक्रम [१७०]
Jaintaraining
A
Muranam
सत्कारादि दशविध-विनयस्य वर्णनं
~ 202~
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९२], ------------------------- ----- मूल [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[९]
प्रत
श्रीसमवा- सारेण दयन्ते, तत्र किल पञ्च प्रतिमा उक्ताः, तद्यथा-समाधिप्रतिमा द्विविधा १ उपधानप्रतिमा२ विवेकप्रतिमा ३ ९२ स
यांगे प्रतिसंलीनताप्रतिमा ४ एकविहारप्रतिमा चेति ५, तत्र समाधिप्रतिमा द्विविधा श्रुतसमाधिप्रतिमा चारित्रसमाश्रीअभय धिप्रतिमा च, दर्शनं ज्ञानान्तर्गतमिति न भिन्ना दर्शनप्रतिमा विवक्षिता, तत्र श्रुतसमाधिप्रतिमा द्विषष्टिभेदा, कथं?, वृत्तिः
*आचारे प्रथमे श्रुतस्कन्धे पञ्च द्वितीये सप्तत्रिंशत् स्थानाङ्गे षोडश व्यवहारे चतस्र इत्येता द्विषष्टिः, एताच चारि॥९६॥ खभावा अपि विशिष्ट श्रुतवतां भवन्तीति श्रुतप्रधानतया श्रुतसमाधिप्रतिमात्वेनोपदिष्टा इति सम्भावयामः, पञ्च
सामायिकच्छेदोपस्थापनीयाद्याश्चारित्रसमाधिप्रतिमाः, उपधानप्रतिमा द्विविधा भिक्षुश्रावकभेदात्, तत्र भिक्षुप्र-18 Iतिमा 'मासाइसत्ता' इत्यादिनाऽभिहितस्वरूपा द्वादश उपासप्रतिमास्तु 'दसणवय' इत्यादिनाऽभिहितस्वरूपा
एकादशेति सस्त्रियोविंशतिर्विवेकप्रतिमा का क्रोधादेरारभ्यन्तरस्य गणशरीरोपधिभक्तपानादेवानस्य च विवेच-12 ४ानीयस्थानेकत्वेऽप्येकत्वविवक्षणादिति, प्रतिसंलीनताप्रतिमाऽप्येकैव इन्द्रियस्वरूपस्य पञ्चविधस्य नोइन्द्रियखभावस्य 5 हाच योगकषायविविक्तशयनासनभेदतखिविधस्य प्रतिसंलीनताविषयस भेदेनाविवक्षणादिति, पञ्चम्येफविहारप्रति
मैकेब, न चेह सा भेदेन विवक्षिता, भिक्षप्रतिमाखन्तर्भावितत्वादित्येवं द्विषष्टिः पञ्च त्रयोविंशतिरेका एका च हिनव-14॥९६।। तिस्ता भवन्तीति । स्थविर इन्द्रभूतिमहावीरस्य प्रथमगणनायकः, स च गृहस्थपर्याये पञ्चाशतं वर्षाणि त्रिशतं छम-12 स्थपर्यायं द्वादश च केवलित्वं पालयित्वा सिद्ध इति सर्वाणि द्विनवतिरिति । 'मंदरस्से'त्यादि, भावार्थः, मेरुमध्यभागात्
अनुक्रम [१७१]
anditaramorg
| प्रतिमा: / अभिग्रह-विशेषाणाम भेद-प्रभेदा:
~203~
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९२], ------------------------- ----- मूल [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सुत्राक
[९२]
जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशत्सहस्राणि ततो द्विचत्वारिंशत् सहस्राण्यतिक्रम्य गोस्तुभपर्वत इति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति, एवं शेषाणामपि ॥ ९२॥
चंदपहस्स हे अरहओ तेणउई गणा तेणउई गणहरा होत्था, संतिस्स णं अरहओ तेणउई चउदसपुविसया होत्या, तेणउईमडलगते णं सूरिए अतिवट्टमाणे निवट्टमाणे वा समं अहोर विसमं करेइ । सूत्रं ९३ ॥
अथ त्रिनवतिस्थानके किमपि वितन्यते, तेणउईमंडले त्यादि, तत्र अतिवर्तमानो वा-सर्ववाह्यात् सर्वाभ्यन्तरं प्रति गच्छन् निवर्तमानो वा-सर्वाभ्यन्तरात् सर्वबाचं प्रति गच्छन् व्यत्ययो या व्याख्येयः, सममहोरात्रं विषमं करोतीत्यर्थः, अहश्च रात्रिश्च अहोरात्रं तयोः समता तदा भवति यदा पञ्चदश पञ्चदश मुहूर्ता उभयोरपि भवन्ति, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डले अष्टादशमुहर्तमहर्भवति रात्रिश्च द्वादशमुहूर्ता, सर्ववाये तु व्यत्ययः, तथा त्र्यशीत्यधिकमण्डल|शते द्वौ द्वावेकपष्टिभागी बर्द्धते हीयेते च, यदा च दिनवृद्धिस्तदा रात्रिहानिः रात्रिवृद्धौ च दिनहानिरिति, है तत्र द्विनवतितमे मण्डले प्रतिमण्डलं मुहू कषष्टिभागद्वयवृद्ध्या त्रयो मुहर्ता एकेनकषष्टिभागेनाधिकाः वर्द्धन्ते वा
हीयन्ते वा, तेषु च द्वादशमुहूर्तेषु मध्ये क्षिसेषु अष्टादशभ्योऽपसारितेषु वा पञ्चदश मुहूर्ता उभयत्रकेनेकपष्टिभागे-1
नाधिका हीना वा भवन्तो द्विनवतितममण्डलस्याढ़ें समाहोरात्रता तस्यैव चान्ते विषमाहोरात्रता भवति, द्विनव..|तितमं मण्डलं चादित आरभ्य विनवतितमं तत्र र मण्डले यथोक्तः सूत्रार्थ इति ॥ ९३॥
*5555
प्रत
अनुक्रम [१७१]
REmiratna
~ 204 ~
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९४], ------------------------- ----- मूल [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
यांग
[९४]
प्रत
निसहनीलवंतियाओ णं जीवाओ चउणउइ जोयणसहस्साई एवं छप्पन्नं जोयणसयं दोनि य एगूणवीसहभागे जोयणस्स आ
IR९४-९५ श्रीसमवा-1 यामेणं प०, अजियस्स णं अरहो चउणउइ ओहिनाणिसया होत्था ॥ सूत्र ९४ ॥
समवाया. श्रीअभय०61 अथ चतुर्नवतिस्थानके किञ्चिद्विविच्यते, 'निसहे त्यादि, इह पादोना संवादगाथा 'चउणउइसहस्साई छप्पण-1
शुचिः शाहियं सयं कला दो य । जीवा निसहस्सेस" [चतुर्नवतिः सहस्राणि पदपश्चाशदधिकं शतं कले द्वे च । जीवा निष॥९७॥
घिस्सैपा] ति ॥ ९४॥
सुपासस्स णं अरहओ पंचाणउइ गणा पंचाणउद्द गणहस होत्था, जम्बुद्दीवस्स णं दीवस्स चरमंताओ चउदिसिं लवणसमुई पंचाणउइ पंचाणउइ जोयणसहस्साई ओगाहित्ता चत्तारि महापायालकलसा प००-वलयामुहे केऊए जूपए ईसरे, लवणसमुइस्स उभओपासंपि पंचाणउयं पंचाण उयं पदेसाओ उब्बेहुस्सेहपरिहाणीए प०, कुंथू णं अरहा पंचाणउद वाससहस्साई परमाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव पहीणे, थेरे. मोरियपुत्ते पंचाणउइवासाई सब्याउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जावप्पहीणे ।।सूर्य ९५॥
अथ पञ्चनवतिस्थानके किञ्चिलिख्यते, लवणसमुद्रस्योभयपार्श्वतोऽपि पञ्चनवतिः प्रदेशा उद्वेधोत्सेधपरिहान्या विषये प्रज्ञप्ताः, अयमत्र भावार्थः-लवणसमुद्रमध्ये दशसाहस्रिकक्षेत्रख समधरणीतलापेक्षया सहस्रमुद्वेधः, उण्डत्वमित्यर्थः, तदनन्तरं पञ्चनवति प्रदेशानतिक्रम्योद्वेधस्य प्रदेशो हीयते, ततोऽपि पञ्चनवर्ति प्रदेशान् गत्या उद्वेधस्य प्रदेशः परिहीयते, एवं पञ्चनवतिरप्रदेशातिक्रमे प्रदेशमात्रस्य प्रदेशमात्रस्योद्वेधस्य हान्या पञ्चनवत्यां योजनसह
RRC
अनुक्रम [१७३]
॥२७॥
~ 205~
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [९५], -----
---------------------------- मूलं [९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
[९५]
स्रष्वतिक्रान्तेषु समुद्रतटप्रदेशेषु उद्वेधसहस्रस्थापि परिहानिर्भवतीत्यर्थः, समभूतलत्वं भवतीति, तथा समुद्रमध्यभागापेक्षया तत्तटस्य साहसिक उत्सेधो भवति, उत्सेधश्वोचत्वं, तत्र समधरणीतलरूपात्तत्तटात्पञ्चनवर्ति प्रदेशानतिक्रम्य एकप्रदेशिका उत्सेधस्य परिहानिर्भवति, ततोऽपि पञ्चनवतिं प्रदेशान् गत्वा प्रादेशिक्येवोत्सेधहानिर्भवति, एवं पञ्चनवतिपञ्चनवतिप्रदेशातिक्रमेण प्रादेशिक्यां प्रादेशिक्यां उत्सेधहान्यां पञ्चनवत्या योजनसहस्रेष्वतिक्रान्तेषु स| मुद्रमध्यभागे सहस्रमपि उत्सेधस्य परिहीयते, एवं साहस्त्रिकोत्सेधपरिहानौ साहनिकोद्वेधता भवति 'लवणस्से'ति, अथयोद्वेधार्थ योत्सेधपरिहानिस्तस्यां च पञ्चनवतिः प्रदेशाः-प्रज्ञसास्तेष्वतिलचितेषु उत्सेधतः प्रदेशपरिहान्यामुवधः प्रादेशिको भवतीति, तथा कुन्थुनाथस्य-सप्तदशतीर्थकरस्य कुमारत्वमाण्डलिकत्वचक्रवर्त्तित्वानमारत्वेषु प्रत्येकं त्रयोविंशतेवर्षसहस्राणामर्द्धाष्टमवर्षशतानां च भावात्सर्वायुः पञ्चनवतिर्वर्षसहस्राणि भवन्तीति, तथा मौर्यपुत्रो-महावीरस्य सप्तमगणधरस्तस्य पञ्चनवतिर्वर्षाणि सर्वायुः, कथं ?, गृहस्थत्वछमस्थत्वकेवलित्वेषु क्रमेण पञ्चषष्टिचतुर्दशपोडशानां वर्षाणां भावादिति ॥ ९५ ॥ एगमेगस्स णं रन्नो चाउरंतचक्कवट्टिस्स छण्णउई छणउई गामकोडीओ होत्या, वायुकुमाराणं छण्णउद्द भवणावाससयसहस्सा प०, ववहारिए णं दंडे छण्णउइ अङ्गुलाई अंगुलमाणेणं, एवं धणू नालिया जुगे अक्खे मुसलेवि हु, अभितरओ आइमुहुत्ते छपणउइअंगुलछाए प० ॥ सूत्रं ९६ ॥
प्रत
SACROCTOR
अनुक्रम [१७४]
RERatna
~206~
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९६], ------------------------------------ मुलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा-
यांगे श्रीअभय वृत्तिः
[९६]
॥९८॥
प्रत
अथ षण्णवतिस्थानके किमपि व्याख्यायते, वायुकुमाराणां षण्णवतिर्भवनलक्षाणि दक्षिणस्यां पञ्चाशत उत्तरस्यां९६-९७ च षट्चत्वारिंशतो भावादिति 'ववहारिए'त्ति व्यावहारिको येन गन्यूतादि प्रमाणं चिन्त्यते, अव्यावहारिकस्तु लघुः | समकाया. दीर्घो वा भवत्युक्तप्रमाणात्, दण्डो हि चतुःकर उक्त करश्चतुर्विंशत्यङ्गुलः एवं चतुर्विशती चतुर्गुणितायां षण्णवतिः स्यादेवेति । 'अभंतराओं' इत्यादि अभ्यन्तराद्, अभ्यन्तरमण्डलमाश्रित्येत्यर्थः,आदिमुहूर्तः षण्णवत्सगुलच्छायः प्रज्ञप्तः,
अयमत्र भावार्थ:-सर्वाभ्यन्तरमण्डले यत्र दिने सूर्यश्चरति तस्य दिनस्य प्रथमो मुहूों द्वादशाङ्गुलमानं शङ्कमाश्रित्य |पण्णवत्सगुलच्छायो भवति, तथाहि-तदिनमष्टादशमुहूर्त्तप्रमाणं भवतीति मुहूर्तोऽष्टादशभागो दिनस भपति, ततश्च छायागणितप्रक्रियया छेदेनाष्टादशलक्षणेन द्वादशाङ्गुलः शङ्कगुण्यत इति, ततो वे शते पोडशोत्तरे भवतः २१६, तयोरीकृतयोरष्टोत्तरं शतं भवति १०८, ततश्च शङ्कप्रमाणे १२ ऽपनीते षण्णवतिरङ्गुलानि लभ्यन्ते इति ॥ ९६ ॥ मंदरस्स ण पब्वयस्स पञ्चच्छिमिलाओ चरमंताओ गोधुमस्स णं आवासपब्वयस्स पञ्चच्छिमिले चरमंते एस णं सत्ताणउद जोयणसहस्साई अचाहाए अंतरे प०, एवं चउदिसिपि, अट्ठण्ह कम्मपगडीणं सत्ताणउइ उत्तरपगडीओ प०, हरिसणे गं राया चाउरंतचक्कवट्टी देसूणाई सत्ताणउइ वाससयाई अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पन्चाइए ।। सूत्र ९७॥
॥९८॥ अथ सप्तनपतिस्थानके किश्चिदभिधीयते, 'मंदरेत्यादि, भावार्थोऽयं-मेरोः पश्चिमान्तात् जम्बूद्वीपान्तः पञ्चपञ्चाशत् सहस्राणि ततो द्विचत्वारिंशतो गोस्तुभ इति यथोक्तमेवान्तरमिति, हरिषेणो दशमचक्रवर्ती देशोनानि सप्तन
अनुक्रम [१७५]
CNG
2062
~207~
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९७], ------------------------------------ मुलं [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
वर्ति वर्षशतानि गृहमध्युषितस्त्रीणि चाधिकानि प्रत्रज्यां पालितवान् दशवर्षसहलत्वात्तदायुकवेति ॥ ९७॥ नंदणवणस्स णं उवरिलाओ चरमंताओ पंडुयवणस्स हेडिल्ले चरमंते एस णं अट्ठाणउइ जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे ५०, मंदरस्स णं पव्वयस्स पञ्चच्छिमिलाओ चरमंताओ गोथुभस्स आवासपब्वयस्स पुरच्छिमिल्ले चरमंते एस णं अट्ठाणउद्द जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे प०, एवं चउदिसिंपि, दाहिणभरहस्स पं घणुप्पिटे अट्ठाणउद जोयणसयाई किंचूणाई आयामेणं प०, उत्तराओ कट्ठाओ सूरिए पढम छम्मासं अयमाणे एगणपन्नासतिमे मण्डलगते अट्ठाणउद एकसहिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेत्तस्स निवृहेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिबुडित्ता णं सूरिए चारं चरइ, दक्खिणाओ गं कट्ठाओ सूरिए दोचे छम्मासं अयमाणे एगणपन्नासइमे मंडलगते अट्ठाणउइ एकसविभाए मुहुत्तस्स रयणिखित्तस्स निबुड्डेता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुड्डित्ता णं सूरिए चार चरइ, रेवई पढमजेडापजवसाणाणं एगूणवीसाए नक्खचाणं अट्ठाणउद्द ताराओ तारमणं प० ॥ सूत्र ९८॥
अथाटनवतिस्थानके किश्चिदभिधीयते-'नंदणवणे'त्यादि, भावार्थोऽयं-नन्दनयनं मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छ्रितप्रथममेखलाभावि पञ्चयोजनशतोच्छ्रितं तद्तपञ्चयोजनशतोच्छूितकूटाष्टकस्य तद्ब्रहणेन ग्रहणात् तथा पण्डकवनं च | मेरुशिखरव्यवस्थितं अतो नवनवत्या मेरोरुपैस्त्वस्य आये सहस्र अपकृष्टे यथोक्तमन्तरं भवतीति । गोस्तुभसूत्रभावार्थः पूर्ववन्नवरं गोस्तुभविष्कम्भसहस्रे क्षिसे यथोक्तमन्तरं भवतीति । 'यहस्स ण'मित्यादि यः केचित्पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, सम्यक्पाठश्चायं-'दाहिणभरहहस्सणं घणुपिट्टे अट्ठाणउई जोयणसयाई किंचूणाई आयामेणं
NREKAR 26
अनुक्रम [१७६]
%95-15615643
2 5
~208~
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[82]
प्रत
अनुक्रम [१७७]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:)
मूलं [९८]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
समवाय [९८], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
॥ ९९ ॥
श्रीसमवा-पण्णत्ते' इति, यतोऽन्यत्रोक्तं- 'नव चेव सहस्साएं छाबडाई सयाई सत्त भवे । सविसेस कला वेगा दाहिणभरहे धयांगे णुप्पिट्टं ॥ १ ॥ ( ९६०७) ति, वैतान्यधनुः पृष्ठं त्वेवमुक्तमन्यत्र - "दस चेव सहस्साइं सत्तेव सया हवंति तेयाला । श्रीअभय० घणुपिडं वेयडे कला य पण्णारस हवंति ॥ १ ॥” (१०७४३ १५) 'उत्तराओ ण' मित्यादि, भावार्थः पूर्वोक्तभावनावृति: नुसारेणावसेयः, नवरमिह 'एकतालीसइमे' इति केषुचित्पुस्तकेषु दृश्यते सोऽपपाठः, 'एगूणपञ्चासहमे ' त्ति एकोनपञ्चाशतो द्विगुणत्वे अष्टनवतिर्भवति, द्वयगुणनं च प्रतिमण्डलं मुहत्कषष्टिभागद्वयवृद्धेर्दिनस्य रात्रेर्वेति । 'रेवई'त्यादि, रेवतिः प्रथमा येषां तानि रेवतिप्रथमानि तथा ज्येष्ठा पर्यवसाने येषां तानि ज्येष्ठापर्यवसानानि तानि च तानि चेति कर्म्मधारयः तेषामेकोनविंशतेर्नक्षत्राणामष्टनवतिस्तारास्तारापरिमाणेन प्रज्ञप्ताः, तथाहि रेवतिनक्षत्रं द्वात्रिंशत्तारं | ३२ अश्विनी त्रितारं ३५ भरणी (त्रितारं) ३८ कृत्तिका षट्तारं ४४ रोहिणी पञ्चतारं ४९ मृगशिरवितारं ५२ आर्द्रा एकतारं ५३ पुनर्वसुः पञ्चतारं ५८ पुष्यवितारं ६१ अश्लेषा पट्तारं ६७ मघा सप्ततारं ७४ पूर्वाफाल्गुनी द्वितारं ७६ उत्तराफाल्गुनी द्वितारं ७८ हस्तः पञ्चतारं ८३ चित्रा एकतारं ८४ खातिरेकतारं ८५ विशाखा पञ्चतारं ९० अनुराधा चतुस्तारं ९४ ज्येष्ठा त्रितारमित्येवं ९७ सर्वतारामीलने यथोक्तं ताराग्रमेकोनं ग्रन्थान्तराभिप्रायेण भवति, अधिकृतग्रन्थाभिप्रायेण त्वेषामेकतरस्य एकताराधिकत्वं सम्भाव्यते ततो यथोक्ता तत्संख्या भवतीति ॥ ९८ ॥ मंदरे णं पव्व णवणउड जोयणसहस्साई उड्डुं उच्चत्तेणं प०, नंदणवणस्स णं पुरच्छिमिलाओ चरमंताओ पचच्छिमिले चरमंते
Jan Emuratur
For Pernal Use Only
~209~
९८-९९ समवाया.
॥ ९९ ॥
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९९], -------------------------------- मूल [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%ASSRO
एस णं नवनउइ जोयणसवाई अबाहाए अंतरे प०, एवं दक्खिणिलाओ चरमंताओ उत्तरिले चरमंते एस ण णवणउइ जोयणसयाई अवाहाए अंतरे प०, उत्तरे पढमे सूरियमंडले नवनउइजोयणसहस्साई साइरेगाई आयामविक्खंभेणं प०, दोचे सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साई साहियाई आयामविक्खंभेणं प०, तइए सूरियमंडले नवनउइ जोयणसहस्साई साहियाई आयामविक्खंभेणं प०, इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवीए अंजणस्स कंडस्स हेहिलाओ चरमंताओ वाणमंतरभोमेअविहाराषं उवरिमेते एस णं नवनउइ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०॥ सूत्र ९९॥
अथ नवनवतिस्थानके किमपि लिख्यते-'नंदणवणे'त्यादि, अस्य भावार्थ:-मेरुविष्कम्भो मूले दश सहस्राणि, नन्दनवनस्थाने तु नवनवतिर्योजनशतानि चतुःपञ्चाशश्च योजनानि षट् योजनैकादशभागा बायो गिरिविष्कम्भो न-13 न्दनवनाभ्यन्तरस्तु मेरुविष्कम्भ एकोननवतिः शतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि षट् चैकादशभागास्तथा पञ्च शतानि नन्दनवनविष्कम्भः, तदेवमभ्यन्तरगिरिविष्कम्भो द्विगुणनन्दनवनविष्कम्भश्च मिलितो यथोक्तमन्तरं प्रायो भवति, 'पढमसूरियमंडले'ति, इह जम्बूद्वीपप्रमाणस्थाशीत्युत्तरशते द्विगुणिते अपहृते यो राशिः स प्रथममण्डलस्यायामवि-12
कम्भः, स च नवनवतिः सहस्राणि षट् च शतानि चत्वारिंशदधिकानि, द्वितीयं तु नवनवतिः सहस्राणि षट् श-13 दातानि पश्चचत्वारिंशच योजनानि योजनस्य च पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, कथं ?, मण्डलस्य मण्डलस्य चान्तरं द्वे
योजने, सूर्यविमानविष्कम्भश्चाष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, एतद्विगुणितं पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाचेति ।
अनुक्रम [१७८]
RSSCALEGAOC
~210~
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [९९], ------------------------- ----- मूल [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
यांगे
प्रत
श्रीसमवा- जातमेतच पूर्वमण्डलविष्कम्भे क्षिप्तं जातमुक्तप्रमाणमिति, तृतीयमण्डलविष्कम्भोऽप्येवमेवावसेयः, स च नवन
11वतिः सहस्राणि पटू शतानि एकपञ्चाशत् योजनानि नवैकपष्टिभागाश्चेति । 'इमीसे 'मित्यादि, भावार्थोऽयं-18 समचाया. श्रीअभय अञ्जनकाण्डं दशम, तत्र च रत्नप्रभोपरिमान्ताच्छतं शतानां भवति, प्रथमकाण्डे प्रथमशते च व्यन्तरनगराणि स-16 वृत्तिः
न्तीति तस्मिन्नपसारिते नवनवतिशतान्यन्तरं सूत्रोक्तं भवतीति ॥ ९९ ॥ ॥१०॥ दसदसमिया णं भिक्खुपडिमा एगेणं राइंदियसतेणं अद्धछटेहिं भिक्खासतेहिं अहासुत्तं जाव आराहियावि भवइ, सयभिसया
नक्खत्ते एकसयतारे ५०, सुविही पुष्फदंते णं अरहा एग धणूसयं उई उचणं होत्या, पासे णं अरहा पुरिसादाणीए एक्कं वाससय सच्याउयं पालइचा सिद्धे जावप्पहीणे, एवं थेरेवि अजसुहम्मे, सब्वेवि णं दीहवेयड्डपव्यया एगमेगं गाउयसर्थ उहुँ उचत्तेणं प०, सब्वेवि णं चुलहिमवंतसिहरीवासहरपव्यया एगमेगं जोयणसयं उडु उच्चत्तेणं प० एगमेगं गाउयसयं उब्बे हेणं प० सन्वेऽवि णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उह उच्चत्तेणं प० एगमेगं गाउयसयं उबेहेणं प० एगमेगं जोयणसयं मूले विक्खमेणं प०॥ सूत्रं १००॥ अथ शतस्थानके किञ्चिलिख्यते, तत्र दश दशमानि दिनानि यस्यां सा दशदशमिका, या हि दिनानां दश दश-IPI
& ॥१०॥ |कानि भवन्ति, दश दशमदिनानि शतं च दिनानामत उच्यते एकेन रात्रिदिवसशतेनेति, यस्यां च प्रथमे दशके प्रतिदिनमेकैका भिक्षा द्वितीये द्वे द्वे एवं यापदशमे दश दशेयेयं सर्पमिक्षासङ्कलने सूत्रोक्तसंख्या भवत्येव इति,X
अनुक्रम [१७८]
464
Auditurary.com
~211
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [१००, ------------------------------------ मल [१००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१००
है पार्श्वनाथस्त्रिंशद्वर्षाणि कुमारत्वं सप्ततिं चानगारत्वमित्येवं शतमायुः पालयित्वा सिद्धः, एवं 'थेरेवि अजसुहमत्ति
आर्यसुधर्मो-महावीरस्य पञ्चमो गणधरः सोऽपि वर्षशतं सर्वायुः पालयित्वा सिद्धस्तथा च तस्यागारवासः पञ्चा-12 शद्वर्षाणि छद्मस्थपर्यायो द्विचत्वारिंशत्केवलिपर्यायोऽष्टी, भवति चैतद्राशित्रयमीलने वर्षशतमिति । वैताठ्यादिपूचत्वचतुर्थीशः उद्वेधः, काञ्चनका उत्तरकुरुषु देवकुरुषु क्रमव्यवस्थितानां पञ्चानां महाहदानामुभयतो दश दश व्यवस्थितास्ते च जम्बूद्वीपे शतद्वयसंख्याः समवसेया इति ॥१०॥
चंदप्पमे णं अरहा दिवड्डे धणुसयं उड्डे उच्चत्तेणं होत्था, आरणे कप्पे दिवट्ट विमाणावाससयं प०, एवं अन्चुएवि १५० सूत्र १.१॥ सुपासे णं अरहा दो घणुसया उड्डु उचत्तेणं होत्या, सब्वेवि ण महाहिमवतरुप्पीवासहरपब्वया दो दो जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, दो दो गाउयसयाई उबेहेणं प०, जम्बुद्दीवे णं दीवे दो कंचणपब्वयसया प० ॥२०० सूत्रं १०२॥
अथैकोत्तरस्थानवृद्ध्या सूत्ररचना परित्यज्य पञ्चाशच्छतादिवृद्ध्या तां कुर्वन्नाह-'चंदप्पहे'त्यादि, सुगम सर्वमाद्वादशाहगणिपिटकसूत्रात् ॥ २० ॥
पउमप्पभे णं अरहा अड्डाइजाई धणुसयाई उड्डे उच्चत्तेणं होत्या, असुरकुमाराणं देवाणं पासायवर्डिसमा अड्डाइजाई जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं प० ॥२५० सूत्रं ॥ १०३॥
नवरं 'पासायवसिय'त्ति अवतंसकाः-शेखरकाः कर्णपूरांणि वा अवतंसका इव अवतंसकाः प्रधाना इत्यर्थः प्रासादाश्च ते अवतंसकाः प्रासादानां वा मध्ये अवतंसकाःप्रासादावतंसकाः ॥२५० ।।
BHASSACREAS
प्रत अनुक्रम [१७९]
अत्र शत-समवायः परिसमाप्त:, अथ प्रकिर्णक: समवाय: आरभ्यते
~212~
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१०५]
प्रत अनुक्रम [१८४ ]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
मूलं [१०४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय०
वृत्तिः
॥ १०१ ॥
सुमईणं अरहा तिणि धणुसयाई उ उचत्तेणं होत्था, अरिट्ठनेमी णं अरहा तिष्णि वाससवाई कुमारवासमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता जाब पव्वइए, वैमाणियाणं देवाणं विमाणपागारा तिष्णि तिण्णि जोयणसयाई उहुं उचरोणं प०, समणस्स भगवओ महावीरस्स तिन्नि सयाणि चोदसपुथ्वीणं होत्या, पंचधणुसइयस्स णं अंतिमसारीरियस्स सिद्धिगयस्स सातिरेगाणि तिणि धणुसयाणि जीवप्पदेसोगाहणा प० ॥ ३००॥ सूत्रं ॥ १०४ ॥ पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अद्भुट्टयाई चोदसपुथ्वीणं संपया होत्था, अभिनंदणे णं अरहा अधुट्टाई घणुसयाई उङ्कं उच्चत्तेणं होत्था ॥ ३५० ॥ सूत्रं १०५ ॥
तथा 'पंचधणुस्सइयरस णमित्यादि, पञ्चधनुःशतप्रमाणस्य 'अंतिमसारीरियल्स' ति चरमशरीरस्य सिद्धिगतस्व सातिरेकाणि त्रीणि शतानि धनुषां जीवप्रदेशावगाहना प्रज्ञता, यतोऽसौ शैलेशीकरणसमये शरीररन्ध्रपूरणेन देहत्रिभागं विमुच्य घनप्रदेशो भूत्वा देहत्रिभागद्वयावगाहनः सिद्धिमुपगच्छति, सातिरेकत्वं चैवं 'तिन्नि सया तेत्तीसा धणुत्तिभागो य होइ बोद्धवो। एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिय ॥ १ ॥ त्ति [ त्रीणि शतानि त्रयत्रिंशद् धनूंषि त्रिभागश्च भवति बोद्धव्यः । एषा खलु सिद्धानामुत्कृष्टावगाहना भणिता ॥ १ ॥ ] ॥ ३०० ॥ ३५० ॥ संभवेणं अरहा चत्तारि धणुसयाई उहूं उच्चतेणं होत्था, सब्देविणं णिसदनीलवंता वासहरपव्वया चत्तारिं चतारि जोयणसयाई उड्डुं उच्चत्तेणं चत्तारि चत्तारि गाउयसबाई उब्बेहेणं प०, सव्वेवि णं वक्खारपन्चया णिसदनीलवंतवासहरपव्ययए णं चत्तारि चारि जोयणसयाई उहुं उच्चत्तेणं चत्तारि चत्तारि गाउयसयाई उब्बेहेणं प०, आणयपाणएसु दोसु कप्पेसु चत्तारि विमाणसया
For Penal Use Only
~ 213~
१०१-१०२ १०३-१०४
| १०५-१०६
समवाया.
॥ १०१ ॥
॥nary or
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०६]]
CSCS
%45
%A5
प्रत
प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स चत्तारि सया वाईणं सदेवमगुयासुरंमि लोगंमि वाए अपराजियाणं उकोसिया वाइसंपया होत्या ॥ ४०॥ सूत्रं १०६ ॥ 'सपेऽपि णं वक्खारपचए'त्यादि, वक्षस्कारपर्वता एकक्षेत्रप्रतिबद्धा विंशतिस्ते च वर्षधराः ते च चतु:चतुःशतोचाः।
अजिते गं अरहा अपंचमाई धणुसयाई उड्डूं उच्चत्तेणं होत्या, सगरे णं राया चाउरंतचकवट्टी अद्धपंचमाई घणुसयाई उर्ल्ड उच्चत्तेणं होत्था ॥ ४५० ।। सूत्रं १०७॥ सब्वेवि णं वक्खारपन्वय सीआ सीओआओ महानईओ मंदरपव्ययंतेणं पंच पंच जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं पंच पंच गाउयसयाई उम्वेहेणं प०, सव्वेवि चं वासहरकूडा पंच पंच जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था मूले पंच पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं ५०, उसमे ण अरहा कोसलिए पंच धणुसयाई उई उचत्तेणं होत्था, भरहे णं राया चाउरतचक्कवट्टी पंचधणुसयाई उर्दू उच्चत्तेणं होत्था, सोमणसगंधमादणविज्जुप्पभमालवंताणं पक्खारपब्बयाणं मंदरपब्वयंतेणं पंच २ जोयणसयाई उडू उच्चत्तेणं पंच पंच गाउयसवाई उब्वेहेणं प०, सम्येविण वक्खारपब्वयकूडा हरिहरिस्सहकूडवजा पंच पंच जोषणसयाई उड्डे उचत्तेणे मूले पंच पंच जोयणसवाई बायामविक्खंभेणं प०, सव्वेविणं नंदणकूडा बलकूडवजा पंच पंच जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं मूले पंच पंच जोयणसयाई आयाममविक्खंभेणं प०, सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु विमाणा पंच २ जोयणसयाई उड् उच्चत्तेणं प०॥ ५०० ॥ सूत्र १०८॥ सवेविणं वक्खारेत्यादि शीतादिनदीप्रत्यासत्तौ मेरुप्रत्यासत्तौ च पञ्चशतोचा इति, तथा 'सबेवि णं वासे'सादि, तत्र
अनुक्रम [१८५]
-
Santaratarna
~214~
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीसमवा-
यांगे श्रीअभय. वृत्तिः
[१०८]
॥१०२॥
वर्षधरकूटानि शतद्वयमशीत्यधिकं, कथं ?, 'लहुहिमवं हिमवं निसढे एकारस अट्ठ नव य कूडाई। नीलाइसु तिसु| 20७१०८ नवगं अट्ठफारस जहासंखं ॥१॥ [क्षुल्लहिमवति हिमवति निषधे एकादशाष्टौ नव च कूटानि । नीलादिषु त्रिपु १०९ नवकमष्टैकादश च यथासंख्यम् ॥१॥] एतेषां च पञ्चगुणत्वात् , वक्षस्कारकूटानि त्वशीत्यधिकचतुःशतीसंख्यानि, समवाया. कथं ?, “विजुपहमालवंते नव नव सेसेसु सत्त सत्तेव । सोलस वक्खारेसुं चउरो चउरो य कूडाई" ॥१॥ [विद्युप्रभमाल्यवतोर्नव नव शेषेषु सप्त ससैव । पोडश वक्षस्कारेषु चत्वारि चत्वारि च कूटानि ॥१॥] एतेषां पञ्चगुणत्वात्, पञ्चगुणत्वं च जम्बूद्वीपादिमेरूपलक्षितक्षेत्राणां पञ्चत्वात् , सर्वाण्येतानि पञ्चशतोच्छूितानि, एवं मानुषोत्तरादिष्वपि, वैताब्यकूटानि तु सक्रोशषड्योजनोच्छ्याणि, वर्षकूटानि तु ऋषभकूटादीन्यष्टयोजनोच्छूितानीति, हरिकूटहरिसहकूटवर्जनं त्विह तयोः सहस्रोच्छ्यत्वाद्, आह च-'विजुप्पमहरिकूडो हरिस्सहो मालवंतवक्खारे । नंदणवणबलकूडो उबिद्धा जोयणसहस्सं ॥१॥[विधुत्प्रभहरिकूटे हरिसहो माल्यवद्वक्षस्कारः । नन्दनयने बलकूट उद्विद्धा योजनसहस्रं ॥ १॥] ॥ ५० ॥
★ ॥१०॥ सर्णकुमारमार्हिदेसु कप्पेसु विमाणा जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, चुलहिमवंतकूडस्स उवरिलाओ चरमंताओ घुलहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स समधरणितले एस णं छ जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०, एवं सिहरीकूडस्सवि, पासस्स णं अरहओ छ
प्रत
अनुक्रम [१८७]
~215~
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१
प्रत सूत्रांक [१०९]
प्रत अनुक्रम [१८८]
भयावाईण सदेवमणयासरे लोए वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाईसंपया होत्या, अभिचंदे णं कुलगरे छ धणसयाई उलं उचतेणं होत्या, वासुपुछे थे अरहा छहिं पुरिससएहिं सद्धिं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइए ॥ ६००। सूत्र १०९॥ 'चुलहिमचंतकूडस्से'स्पादि, इह मावार्थो-हिमवान् योजनशतोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितं इति सूत्रोक्कमम्तरं भवतीति, 'अभिचंदे णं कुलकरे'त्ति अभिचन्द्रः कुलकरोऽस्थामवसर्पिण्यां ससानां कुलकराणां चतुर्थः, तस्योच्छ्यः षट् धनु शतानि पञ्चाशदधिकानि ॥ ६.०॥ चमलतएसु कप्पेसु विमाणा सत्त सत्त जोयणसयाई उई उच्चत्तेणं १०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स सत्त जिणसया होत्था, समणस्स भगवओ महावीरस्स सत्त घेउव्वियसया होत्था, अरिहनेमी णं अरहा सत्त वाससयाई देसूणाई केवलपरियाग पाउणित्ता सिद्धे बुद्धे जावपहीणे, महाहिमवंतकूडस्स णं उवरिलाओ चरमंताओ महाहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स समधरणितले एस णं सत्त जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०, एवं रुप्पिकूडस्सवि ॥ ७०० सूत्र ११०॥
श्रमणस भगवतो महावीरस्य सप्त जिनशतानि केबलिशतानीत्यर्थः, तथा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सप्त वैक्रियशतानि वैक्रियलब्धिमत्साधुशतानीत्यर्थः, 'अरिडे'लादि, 'देसूणाईति चतुःपञ्चाशतो दिनानामूनानि, तत्प्रमाणत्वात् छानस्थकालखेति, 'महाहिमचंते'त्यादी भावार्थोऽयं-महाहिमवान् योजनशतयोच्छ्रितस्तत्कूटं च पञ्चशतोच्छ्रितमिति सूत्रोक्तमन्तरं भवतीति ॥७..॥
45-
RE
१८ सम.
SUREmiraN
ara
For P
OW
A
nmorary.orm
~216~
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
११२ स
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय
मवाया.
प्रत सूत्रांक
वृत्तिः
[१११]
॥१०॥
प्रत अनुक्रम [१९०]
महासुक्कसहस्सारेसु दोसु कप्पेसु विमाणा अट्ट जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं ५०, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पढमे कंडे अट्ठसु जोयणसएसु वाणमंतरभोमेजविहारा प०, समणस्स णं भगवओ महावीरस्स अट्ठसया अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं गइकल्लाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं उक्कोसिया अणुत्तरोववाइयसंपया होत्या, इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिआओ भूमिभागाओ अहिं जोयणसएहिं सूरिए चार चरति, अरहओ णं अरिट्टनेमिस्स अट्ठ सयाई वाईणं सदेवमणुयासुरंमि
लोगंमि वाए अपराजियाणं उक्कोसिया वाईसंपया होत्था ।। ८०० सूत्रं १११ ॥ त 'इमीसे णमित्यादि, प्रथमं काण्डं खरकाण्डं खरकाण्डस्य षोडशविभागस्य प्रथमविभागरूपं रत्नकाण्डं, तत्र
योजनसहस्रप्रमाणे अध उपरि च योजनशतद्वयं विमुच्यान्येष्वष्टसु योजनशतेषु वनेषु भवा वानास्ते च ते व्यन्तराश्च तेषां सम्बन्धिनः भूमिविकारत्वाद्भौमेयकास्ते च ते विहरन्ति-क्रीडन्ति तेविति विहाराश्र-नगराणि वानव्यन्तरभौमेयकविहारा इति, 'अट्ठ सय'त्ति अष्ट शतानि, केषामित्याह-'अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं'ति देवेषुत्प-15 त्यमानत्वात् देवा द्रव्यदेवा इत्यर्थः तेषां गतिः-देवगतिलक्षणा कल्याण येषां ते गतिकल्याणास्तेषामेवं स्थितिः-1| त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणा कल्याणं येषां ते तथा तेषां, तथा ततश्च्युतानामागमिष्यद्-आगामि भद्र-कल्याणं निर्वाणगमनलक्षणं येषां ते आगमिष्यद्भद्राः तेषां, किमित्याह-'उक्कोसिए'त्यादि ॥ ८०० ॥
आणयपाणयारणअच्चुएसु कप्पेसु विमाणा नव नव जोयणसयाई उड्डे उच्चत्तेणं प०, निसढकूडस्स णं उपरिलाओ सिहरतलाओ
~217
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [११२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११]
प्रत अनुक्रम [१९१]
णिसढस्स वासहरपवयस्स समे धरणितले एस णं नव जोयणसयाई अबाहाए अंतरे ५०, एवं नीलवंतकूडस्सवि, विमलवाहणे णं कुलमरे णं नव धणुसयाई उडे उच्चत्तेणं होत्या, इमीसे थे रयणप्पभाए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ नवहिं जोयणसएहिं सब्बुवरिमे तारारूवे चारं परइ, निसदस्स थे वासहरपब्वयस्स उवरिल्लाओ सिहरतलाओ इमीसे थे रयणप्पभाए पुढवीए पढमस्स कंडस्स बहुमज्झदेसभाए एस णं नव जोयणसयाई अबाहाए अंतरे प०, एवं नीलवंतस्सवि ॥ ९०० सूत्रं ११२ ॥
'निसहकूडस्स णमित्यादि, इहाय भावः-निषधकूटं पञ्चशतोच्छ्रितं निषधश्च चतुःशतोच्छूित इति यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ ९००॥
सब्वेवि णं गेवेजविमाणे दस दस जोयणसयाई उड्ड उच्चत्तेणं ५०, सब्वेवि णं जमगपय्वया दस दस जोयणसयाई उड्डे उच्चतेणं प० दस दस गाउयसयाई उव्वेहेणं प० मूले दस दस जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं प०, एवं चित्तविचित्तकूडावि भाणियब्बा, सव्वेवि वट्टवेयपवया दस दस जोयणसयाई उहूं उच्चत्तेणं प० दस दस गाउयसयाई उब्बहेणं प० मूले दस दस जोयणसयाई विक्खंभेणं प०, सव्वस्थ समा पल्लगसंठाणसंठिया प०, सब्वेवि णं हरिहरिस्सहकूड़ा वक्खारकूडवजा दस दस जोयणसयाई उहुं उच्चत्तेणं प०, मूले दस जोयणसयाई विक्खंभेणं, एवं बलकूडावि नंदणकूडवजा, अरहावि अरिहनेमी दस वाससयाई सव्वाउयं पालइत्ता सिद्धे बुद्धे जाव सव्वदुक्खप्पहीणे, पासस्स णं अरहओ दस सयाई जिणाणं होत्था, पासस्स णं अरहमो दस अन्तेवासीसयाई कालगयाई जाव सव्वदुक्खप्पहीणाई, पउमद्दहपुंडरीयदहा य दस दस जोयणसयाई आयामेणं प०,। १००० सूत्र ११३ ॥ अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं विमाणा एक्कारस जोयणसयाई उहुं उच्चत्तेणं प०, पासस्स णं अरहओ इक्वारस
~218~
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[११४]
प्रत
अनुक्रम
[१९३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
मूलं [११४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय०
वृत्ति:
॥१०४॥
Education
सवाई वेउब्वियाणं होत्या ।। ११०० सूत्रं ११४ ।। महापउममहापुंडरीमदहाणं दो दो जोयणसहस्साइं आयामेणं प० | २००० सूत्रं ११५ ।। इमीसे णं रवणप्पभाए घुढवीए वइरकंडस्स उवरिलाओ चरमेताओ लोहियक्खकंडस्स हेडिले चरमंते एस णं तिनि जोयणसहस्साई अचाहाए अंतरे प० । ३००० सूत्रं ११६ ॥ तिगिच्छिकेसरिदहाणं चत्तारि चचारि जोयणसहस्साइं जायामेणं प० ॥ ४००० सूत्रं ११७ ॥ धरणितले मंदरस्स णं पथ्वयस्स बहुमज्झदेसभाए रुयपगनाभीओ चउदिसिं पथ २ जोयणसहस्साई अथाहाए अंतरे मंदरपण्यए प० ॥ ५००० सूत्रं ११८ ॥ सहस्सारे णं कप्पे छ विमाणावाससहस्सा ५० ॥ ६००० सूत्रं ११९ ॥ इमीसे णं स्वणप्पभाए पुढवीए रयणस्स कंडस्स उवरिलाओ चरमंताओ पुलगस्स कंडस्स हेहिले चरमंते एस णं सत्त जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे प० ॥ ७००० सूत्रं १२० ॥ हरिवासरम्मयाणं वासा अट्ट जोयणसहस्सा साइरेगाई वित्वरेणं प० ॥ ८००० सूत्रं १२१ ॥ दाहिणभरहस्स णं जीवा पाईणपडीणायया दुहओ समुदं पुट्ठा नव जोयणसहस्साई आयामेण प० ॥ ९००० सूत्रं १२२ ॥ मंदरे णं पञ्चए धरणितले दस जोयणसहस्साई विक्खंभेणं प० ॥ १०००० सूत्र १२३ ॥ जम्बूदीवेणं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं प० ।। १००००० सूत्रं १२४ ॥ लवणे णं समुद्दे दो जोवणसयसहस्साइं चक्कवालविक्खभेणं प० ॥। २००००० सूत्रं १२५ ॥ पासस्स णं अरहओ तिनि सयसाहस्सीओ सत्तावीसं च सहस्साई उक्कोसिया सावियासंपया होत्या ।। ३००००० सूत्रं १२६ ॥ घायइखंडे णं दीवे चत्तारि जोयणसयस इस्साई चक्कवालविक्संमेण प० ॥ ४००००० सूत्रं १२७ ।। लवणस्स णं समुद्दस्त पुरच्छिमिलाओ चरमंताओ पञ्चच्छिमिले चरमेते एस र्ण पंच जोयणसयसहस्साइं अषाहार अंतरे प० ।। ५००००० सूत्रं १२८ ॥ भरहे णं राया चाउरंतचकवट्टी छ पुष्वस
For Parts Only
~219~
१२८ स मवाया.
॥१०४॥
Borary or
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१०-१
प्रत सूत्रांक
-44%9
[१२९]
प्रत अनुक्रम [२०८]
-C4AC*
यसहस्साई रायमज्झे वसिचा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए ॥ ६००००० सूत्र १२९ ॥ जम्बूदीवस्स णं दीवस्स पुरच्छिमिलाओ वेइयंताओ घायइखंडचक्वालस्स पञ्चच्छिमिल्ले चरमंते सत्त जोयणसयसहस्साई अवाहाए अंतरे प०॥ ७००००० सूत्र १३० ।। माहिंदे णं कप्पे अढ विमाणावाससयसहस्साई प०८०००००॥ सूत्रं १३१॥ अजियस्स णं अरहओ साइरेगाई नव ओहिनाणिसहस्साई होत्था ॥९००० सूत्रं १३२ ॥ पुरिससीहे णं वासुदेवे दस वाससयसहस्साई सच्याउयं पालइत्ता पक्षमाए पुढवीए नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने ॥१०००००० सूत्रं १३३॥ समणे भगवं महावीरे तित्थगरभवग्गहणाओ छद्वे पोट्टिलभवग्गहणे एगं वासकोडिं सामनपरियागं पाउणिता सहस्सारे कप्पे सबढविमाणे देवताए उववन्ने ॥ १००००००० सूत्र १३४ ॥ उसमसिरिस्स भगवओ चरिमस्स य महावीरवद्धमाणस्स एगा सागरोक्मकोडाकोडी बवाहाए अंतरे प०॥ १०००००००००००००० सूर्य १३५॥ 'सवेवि णं जमगे'त्यादि, उत्तरकुरुषु नीलवर्षधरस्य-उत्तरतः शीताया महानया उभयोः कूलयोडौं बमकाभिधानी पर्वती स्तः, ते च पञ्चखप्युत्तरकुरुपु द्वयोयोर्भावाद्दश, एवं 'चित्तविचित्तकूडाविति पञ्चसु देवकुरुषु यमकवत्तत्सद्भायात् पञ्च चित्रकूटाः पञ्च विचित्रकूटा इति, 'सवेषि णमित्यादि, सर्वेऽपि वृत्ता वैतात्या विंशतिःशब्दापात्यादयः, 'सधेवि णं हरी'सादि, हरिकूट विद्युत्भाभिधाने गजदन्ताकारवक्षस्कारपर्वते हरिसहकूटं तु माल्यववक्षस्कारे, तानि च पञ्चखपि मन्दरेषु भाषात् पञ्च पञ्च भवन्ति सहसोच्छूितानि च, 'वक्खारकूडपजत्ति शेषपक्षस्कारकूटेष्वेवमुच्चस्वं नास्त्येतेवेवास्तीत्यर्थः, एवं 'बलकूडावित्ति पञ्चसु मन्दरेषु पञ्च नन्दनवनानि तेषु प्रत्से
REaramod
~220~
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
यांगे
मवाया.
प्रत सूत्रांक [१३५]]
प्रत
श्रीसमवा- कमैशान्या दिशि बलकूटाभिधानं कूटमस्ति, ततः पञ्च, तानि सहस्रोच्छ्रितानि च, 'नन्दनकूडवज'ति शेषाणि|१३५ स
नन्दनयनेषु प्रत्येकं पूर्वादिदिगविदिग्व्यवस्थितानि चत्वारिंशत्संख्यानि नन्दनकूटानि वर्जयित्वा, तानि साहनि-11 श्रीअभय
काणि न भवन्तीत्यर्थः । 'अरहते'त्यादि, कुमारत्वे त्रीणि वर्षशतान्यनगारत्वे सप्तेत्येवं दश शतानि, 'पउमदहपुंडरी-18 वृत्तिः
यहह'त्ति पाहदः श्रीदेवीनिवासो हिमवद्वर्षधरपर्वतोपरिवर्ती पुण्डरीकहदो लक्ष्मीदेवीनियासः शिखरिवर्षधरोपरि-18 ॥१०५॥ वर्तीति ॥१००० ॥११०० ॥ तथा महापद्ममहापुण्डरीकहदौ महाहिमवद्रुक्मिवर्षधरयोरुपरिवर्तिनी हीबुद्धिदेव्यो-1
निवासभूताविति ॥ २००० ।। 'इमीसे णं रयणे'त्यादि, अयमिह भावार्थः-रत्नप्रभापृथिव्याः प्रथमस्य पोडशवि-17 दाभागस्य खरकाण्डाभिधानकाण्डस्य प्रथम रत्नकाण्डं वज्रकाण्डं नाम काण्डं द्वितीयं वैयकाण्डं तृतीय लोहिता-151 क्षिकाण्डं चतुर्थं तानि च प्रत्येकं साहसिकाणीति त्रयाणां यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ ३००० ॥ तिगिच्छिकेसरिहदो टू
|निषधनीलवर्षधरोपरिस्थिती धृतिकीर्तिदेवीनिवासाविति ॥४००० ॥ 'धरणितले' इत्यादि, धरणितले-ध-18 ४रण्यां समे भूभाग इत्यर्थः, 'रुयगनाभीओ'त्ति 'अट्ठपएसो रुयगो तिरियं लोगस्स मज्झयारंमि । एसप्पभवो दिसाणं,
एसेव भवे अणुदिसाणं ॥१॥[अष्टप्रदेशो रुचकस्तिर्यग्लोकस्य मध्ये । एष प्रभवो दिशामेप एव भवेदनुदिशां ॥१०॥ ॥१॥] ति, रुचक एव नाभिचक्रस्य तुम्बमिवेति रुचकनाभिः, ततश्चतसृष्वपि दिक्षु पञ्च पञ्च सहस्राणि मेरुस्तस्य। दशसहस्रविष्कम्भत्वादिति ॥ ५००० ॥६०००॥ 'इमीसे णमित्यादि, रत्नकाण्डं प्रथमं पुलककाण्ड सप्तममिति:
अनुक्रम [२१४]
~221
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
%
-
-
प्रत सूत्रांक [१३५]]
-AEDk
प्रत अनुक्रम [२१४]
सप्तसहस्राणि ॥ ७००० ॥ 'हरिवासे'त्यादि, इहार्थे गाथा -'हरिवासे इगवीसा चुलसी य सया कला य एका यत्ति ॥ ८००० ॥ 'दाहिणे'त्यादि दक्षिणो भागो भरतस्पेति दक्षिणार्द्धभरतं तस्य जीवेय जीवा-ऋज्वी सीमा 4
प्राचीनं-पूर्वतः प्रतीचीन-पश्चिमतः आयता-दीर्घा प्राचीनप्रतीचीनायता 'दुहओं'त्ति उभयतः पूर्वापरपाश्चर्योरित्यर्थः, ४ समुद्र-लवणसमुद्रं स्पृष्टा-घुसवती नव सहस्राण्यायामत इहोक्ता, स्थानान्तरे तुतद्विशेषोऽयं'नय सहस्राणि सप्त शता-12
न्यष्टचत्वारिंशदधिकानि द्वादश च कला' इति ॥ ९०००॥ १०००० ॥१००००० ॥२०००००॥ ३०००००। ४०००००। 'लवणे'त्यादि, तत्र जम्बूद्वीपस्य लक्षं चत्वारि च लवणस्येति पञ्च ॥ ५०००००। 'जम्बूदीवस्सेत्यादि, तत्र लक्षं जम्बूद्वीपस्य द्वे लवणस्य चत्वारि धातकीखण्डस्येति सप्त लक्षाण्यन्तरं सूत्रोक्तं भवतीति ७००००० ॥ अजितस्याहंतः सातिरेकाणि नवावधिज्ञानिसहस्राणि, अतिरेकश्चत्वारि शतानि, इदं च सहस्रस्थानकमपि लक्षस्थानकाधिकारे यदधीतं तत् सहस्रशब्दसाधाद्विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेलेखकदोषाद्वेति ॥९०००००॥ |पुरुषसिंहः पञ्चमवासुदेवः ॥ १०००००० ॥ 'समणे'त्यादि, यतो भगवान् पोट्टिलाभिधानराजपुत्रो बभूव, तत्र वर्षकोर्टि प्रव्रज्यां पालितवानित्येको भवः, ततो देवोऽभूदिति द्वितीयः, ततो नन्दनाभिधानो राजसूनुः छत्राप्रनगर्या जज्ञे इति तृतीयः, तत्र वर्षलक्षं सर्वदा मासक्षपणेन तपस्तत्वा दशमदेवलोके पुष्पोत्तरवरविजयपुण्डरीकाभिधाने विमाने देवोऽभवदिति चतुर्थस्ततो ब्राह्मणकुण्डग्रामे ऋषभदत्तत्रामणस्य भार्याया देवानन्दाभिधानायाः कुक्षाबुत्पन्न इति
582-%95
%
Santaratma
~222
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१३५ समवाया.
प्रत सूत्रांक [१३५]]
वृत्तिः
प्रत अनुक्रम [२१४]
श्रीसमवा- पञ्चमस्ततपयशीतितमे दिषसे क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे सिद्धार्थमहाराजख त्रिशलाभिधानभार्यायाः कक्षाविन्द्रवचन-
यांग कारिणा हरिनैगमेषिनाम्ना देवेन संहृतस्तीर्थकरतया च जात इति षष्ठः, उक्तभवग्रहणं हि विना नान्यद्भवग्रहणं * श्रीअभय०४ षष्ठं श्रूयते भगवत इत्येतदेव पष्ठभवग्रहणतया व्याख्यातं, यस्माच भवग्रहणादिदं षष्ठं तदप्येतस्मात् पष्ठमेवेति सुष्ट्र
ध्यते तीर्थकरभवग्रहणात्षष्ठे पोट्टिलभवग्रहणे इति ॥१०००००.०॥ 'उसमें त्यादि, 'उसभसिरिस्सति प्राकृत-14 ॥१०॥ त्वेन श्रीऋषभ इति वाच्ये व्यत्ययेन निर्देशः कृतः, एका सागरोपमकोटाकोटी द्विचत्वारिंशता वर्षसहजैः
किञ्चित्साधिकैरूनाऽप्यल्पत्वाद्विशेषस्याविशेषितोक्तेति ॥ १०००००००००००००० ॥ इह य एते अनन्तरं संख्याक्रमसम्बन्धमात्रेण सम्बद्धा विविधा वस्तुविशेषा उक्तात एव विशिष्टतरसम्बन्धसम्बद्धा द्वादशाक्ने प्ररूप्यन्त इति द्वादशाङ्गस्यैव खरूपमभिधित्सुराह
दुवालसंगे गणिपिडगे प० त०-आयारे सूयगडे ठाणे समवाए विवाहपन्नत्ती णायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोषवाइयदसाओ पण्हावागरणाई विवागसुए दिठिवाए । से किं तं आयारे, आयारेणं समणाणं निगंथाणं
& आयारगोयरविणयवेणइयवाणगमणचंकमणपमाणजोगजुंजणभासासमितिगुत्तीसेजोवहिभत्तपाणउग्गमउपायणएसणाविसोहिसुद्धासुभृग्गहणवयणियमतवोवहाणसुष्पसत्यमाहिजइ, से समासओ पञ्चविहे प०, तं०-णाणायारे दसणायारे चरित्तायारे तवायारे विरियायारे, आयारस्स णं परित्ता वायगा संखेजा अणुओगदारा संखेजाओ पढिवत्तीओ संखेजा वेढा संखेना सिलोगा संखे
%
1
॥१०
SUREmiratani
M
arary.ou
.
आचार अगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:
~223~
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१३६]]
जाओ निज्जुचीओ, से णं अंगल्याए पढमे अंगे दो सुयक्खंधा पणवीसं अज्झयणा पंचासीई उद्देसणकाला पंचासीई समुद्देसणकाला अट्ठारस पदसहस्साई पदग्गेणं संखेना अक्खरा अर्णता गमा अणता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा निबद्धा णिकाइया जिणपण्णता भावा आपविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिजति निदंसिर्जति उवदंसिबंति, से एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आपविजंति पण्णविबंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिअंति । सेतं आयारे ॥ सूत्रं १३६ ॥ 'दुवालसंगे' इत्यादि, अथवोत्तरोत्तरसंख्याक्रमसंबद्धार्थप्ररूपणमनन्तरमकारि, साम्प्रतं संख्यामाप्रसंबद्धपदार्थप्ररूपणायोपक्रम्यते-'दुवालसंगे' इत्यादि, तत्र श्रुतपरमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि, द्वादशाङ्गानि-आचारादीनि यनितद्वादशाहू, गुणानां गणोऽस्थास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटकमिव पिटकं-सर्वखभाजनं गणिपिटकं, अथवा गणिशब्दः परिच्छेदवचनः, तथा चोक्तम्-"आयामि अहीए जं नाओ होइ समणधम्मो उ । तम्हा आयारघरो भण्णइ पढमं गणिट्ठाणं ॥१॥[आचारेऽधीते यत् ज्ञातो भवति श्रमणधर्मस्तु । तस्मादाचारधरो भण्यते प्रथमं गणिस्थानं ॥१॥] परिच्छेदस्थानमित्यर्थः, ततश्च परिच्छेदसमूहो गणिपिटकं, अत्र चैवं पदघटना-यदेतद्भणिपिटकं | तत् द्वादशाङ्गं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आचारः सूत्रकृत इत्यादि । 'से किं तमिखादि, अथ किं तदाचारवस्तु ? यहा अप4 कोषमाचारः, आचर्यत इति वा आचारः सायाचरितो ज्ञानाचासेवन विधिरितिभावार्षः, एतत्प्रतिपादको प्र
CABCDSARIES
प्रत अनुक्रम [२१५]
REauratona nd
KAnmurary.com
आचार अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:
~224~
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ---------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
SHENCE
प्रत सूत्रांक
[१३६]]
प्रत अनुक्रम [२१५]
१३६ सश्रीसमवा- न्योऽप्याचार एवोच्यते, 'आयारे गं'ति अनेनाचारेण करणभूतेन श्रमणानामाचारो व्याख्यायत इति योगः, अथवा
मवाया. यांगे आचारेऽधिकरणभूते णमिति वाक्यालङ्कारे 'श्रमणानां' तप:श्रीसमालिङ्गितानां 'निर्ग्रन्धानां सवायाभ्यन्तरग्रन्धरश्रीअमय०हितानां, आह-श्रमणा निर्ग्रन्था एव भवन्तीति विशेषणं किमर्थमिति ?, उच्यते, शाक्यादिव्यवच्छेदार्थम् , उक्तं चवृत्तिः
IA"निग्गंथसकतावसगेरुयआजीच पंचहा समण'त्ति [निर्ग्रन्थशाक्यतापसगैरिकाजीविकाः पञ्चधा श्रमणाः] तत्रा-181 ॥१०॥ IRचारो-ज्ञानाद्यनेकभेदभिन्नः गोचरो-भिक्षाग्रहणविधिलक्षणो विनयो-ज्ञानादिविनयः वैनयिक-तत्फलं कर्मक्षयादि।
स्थान-कायोत्सगर्गोपवेशनशयनभेदात् त्रिरूपं गमनं-विहारभूम्यादिषु गतिश्चमण-उपाश्रयान्तरे शरीरश्रमव्यपो-11 हार्थमितस्ततः सञ्चरणं प्रमाणं-भक्तपानाभ्यवहारोपध्यादेर्मानं योगयोजनं-खाध्यायप्रत्युपेक्षणादिग्यापारेषु परेषां नियोजनं भाषाः-संयतस्य भाषाः सत्यासत्यामृपारूपाः समितयः-ईसिमित्याद्याः पञ्च गुप्तयो-मनोगुप्त्यादयस्तिस्रः । तथा शय्या च-वसतिरुपधिश्च-वस्त्रादिको भक्तं च-अशनादि पानं च-उष्णोदकादीति द्वन्द्वः, तथा उद्गमोत्पादन-1, पणालक्षणानां दोषाणां विशुद्धिः-अभाव उद्गमोत्पादनैपणाविशुद्धिस्ततः शय्यादीनामुद्गमादिविशुद्ध्या शुद्धानां त-12 थाविधकारणेऽशुद्धानां च ग्रहणं शय्यादिग्रहणं, तथा व्रतानि-मूलगुणा नियमाः-उत्तरगुणास्तपउपधानं-द्वादश-15॥१०७॥ |विधं तपः, तत आचारश्च गोचरश्चेत्यादि यावद्गुप्तयश्च शय्यादिग्रहणं च ब्रतानि च नियमाश्च तपउपधानं चेति समाहारद्वन्द्वस्ततस्तञ्च तत्सुप्रशस्तं चेति कर्मधारयः, एतत्सर्वमाख्यायते-अभिधीयते, एतेषु आचारादिपदेषु यत्र कचि-17
REmiratna
आचार अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:
~225
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१३६]]
प्रत अनुक्रम [२१५]
दन्यतरोपादाने अन्यतरस्य गतार्थस्याभिधानं तत्सर्वं तत्प्राधान्यख्यापनार्थमेवेत्यवसेयमिति। 'से समासओ' इत्यादि,18 सःआचारो यमधिकृत्य ग्रन्थस्याचार इति संज्ञा प्रवर्त्तते 'समासतः' संक्षेपतः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानाचार इत्यादि, तत्र ज्ञानाचारः-श्रुतज्ञानविषयः कालाध्ययनविनयाध्ययनादिरूपो व्यवहारोऽष्टधा 'दर्शनाचारः' सम्य|क्त्ववतां व्यवहारो निःशङ्कितादिरूपोऽधा 'चारित्राचारः' चारित्रिणां समित्यादिपालनात्मको व्यवहारः 'तपा-14 साचारों' द्वादशविधतपोविशेषानुष्ठितिः 'वीर्याचारों' ज्ञानादिप्रयोजनेषु वीर्यस्यागोपनमिति, 'आयार'त्ति आचारग्रहिन्धस्य णमित्यलङ्कारे 'परित्ता संख्येया आद्यन्तोपलब्धेर्नानन्ता भवन्तीत्यर्थः, काः-वाचनाः-सूत्रार्थप्रदानलक्षणाः,
अवसपिण्यत्सपिणीकालं वा प्रतीत्य, 'परीते'ति संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि-उपक्रमादीनि, अध्ययनानामेव संख्ये४ यत्वात् प्रज्ञापकवचनगोचरत्वाच 'संखेजाओ पडिवत्तीओ'त्ति द्रव्यार्थे पदार्थांभ्युपगमा मतान्तराणीत्यर्थः, प्रति
पायनि(माधभि)ग्रहविशेषा वा 'संखेज्जा बेढ'त्ति वेष्टका:-छन्दोविशेषाः, एकार्थप्रतिबद्धवचनसङ्कलिकेत्यन्ये, 'संखेज्जा सिलोग'त्ति श्लोकाः-अनुष्टुप्छन्दांसि 'संख्याताः 'नियुक्तयः' नियुक्तानां-सूत्रेऽभिधेयतया व्यवस्थापितानामर्थानां युक्तिः-घटना विशिष्टा योजना नियुक्तयुक्तिः, एतस्मिंश्च वाक्ये युक्तशब्दलोपानियुक्तिरित्युच्यते, एताश्च निक्षेपनियुक्त्याद्याः संख्येया इति । 'से ण'मित्यादि स आचारो णमित्यलबारे 'अङ्गार्थतया' अङ्गलक्षणवस्तुत्वेन प्रथममङ्गं स्थापनामधिकृत्य, रचनापेक्षया तु द्वादशमकं, प्रथमं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्व क्रियमाणत्वादिति, द्वौ श्रुतस्कन्धौ-17
Reck
RECRek
आचार अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:
~226~
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३६]]
प्रत
श्रीसमवा-
अध्ययनसमुदायलक्षणी, पञ्चविंशतिरध्ययनानि, तद्यथा-'सत्यपरिणा १ लोगविजओ २ सीओसणिज्ज ३ संमत्तं अध्ययनसमुदाय
१३६ सयांगे आवंति ५ धुय ६ विमोहो ७ महापरिणो ८ वहाणसुयं९॥१॥' इति प्रथमः श्रुतस्कन्धः, "पिंडेसण १ सेज्जि २ रिया ३ श्रीअभय भासज्जाया य ४ वत्थ ५ पाएसा ६ । उग्गहपडिमा ७ सत्तसत्तिक्कया १४ भावण १५ विमुत्ती १६ ॥२॥ इति द्वि | चिः
तीयः श्रुतस्कन्धः, एवमेतानि निशीथवर्जानि पञ्चविंशतिरध्ययनानि, तथा पञ्चाशीतिरुद्देशनकालाः, कथं ?, उच्यते, ॥१८॥ अङ्गस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्योद्देशकस्य चैतेषां चतुर्णामप्येक एबोद्देशनकालः, एवं शस्त्रपरिज्ञादिषु पञ्चविंशतावध्य-12
यनेषु क्रमेण सप्त १ पट् २ चतु ३ श्चतुः ४ पट् ५ पञ्च ६ अष्ट ७ सप्त ८ चतु ९रेकादश १०त्रि ११ त्रि १२ द्वि|१३ द्वि १४ द्वि१५द्वि १६ संख्या उद्देशनकालाः षोडशखध्ययनेषु शेषेषु नवसु नवैवेति, इह सहगाथा-'सत्त यर
छ चउ चउरो छ पञ्च अद्वेव सत्त चउरो य । एकारा ति ति दो दो दो दो सत्तेक एको य॥१॥'ति, एवं समुद्दे-14 ४ाशनकाला अपि भणितव्याः, अष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण प्रज्ञप्तः, इह यत्रार्थोपलब्धिस्तत्पदं, ननु यदि द्वी श्रुत-12
स्कन्धौ पञ्चविंशतिरध्ययनान्यष्टादश पदसहस्राणि पदाग्रेण भवन्ति ततो यद्भणितं "नववंभचेरमइओ अट्ठारसपद#सहस्सिओ बेउ"त्ति तत्कथं न विरुध्यते !, उच्यते, यत् द्वौ श्रुतस्कन्धावित्यादि तदाचारस्य प्रमाणं भणितं, यत्पु-1||१०८।
नरष्टादश पदसहस्राणि तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मकस्य प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रमाणं, विचित्रार्थबद्धानि च सूत्राणि, गुरूपदेशतस्तेषामर्थोऽवसेय इति, संख्येयानि अक्षराणि, वेष्टकादीनां संख्येयत्वात् , अनन्ता गमाः, इह गमा:-अ
TEACHECARRY
अनुक्रम [२१५]
SAREauratonintennational
Pareluctaram.org
आचार अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:
~227~
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१३६]
प्रत
अनुक्रम
[२१५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
२९ सम
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
Jan Education
थंगमा गृह्यन्ते अर्थपरिच्छेदा इत्यर्थः, ते चानन्ताः, एकस्मादेव सूत्रात्तत्तद्धर्मविशिष्टानन्तधर्म्मात्मकवस्तुप्रतिपत्तेः, अन्ये तु व्याचक्षते - अभिधानाभिधेयवशतो गमा भवन्ति, ते चानन्ताः, अनन्ताः पर्यायाः खपरभेदभिन्ना अक्षरार्थपर्याया इत्यर्थः, परित्ताखसा आख्यायन्त इति योगः, त्रसन्तीति त्रसाः - द्वीन्द्रियादयस्ते च परीत्ता नानन्ताः, एवंरूपत्वादेव तेषां, अनन्ताः स्थावरा वनस्पतिकायसहिताः किंभूता एते ? - 'सासया कडा निबद्धा निकाइयत्ति शाश्रताः द्रव्यार्थतया अविच्छेदेन प्रवृत्तेः कृताः पर्यायार्थतया प्रतिसमय मन्यथात्वावाप्तेर्निबद्धा: -सूत्र एव प्रथिता निकाचिता-निर्युक्तिसङ्ग्रहणिहेतूदाहरणादिभिः प्रतिष्ठिता जिनैः प्रज्ञप्ता भावाः-पदार्था अन्येऽप्यजीवादयः 'आघ विज्वंति त्ति प्राकृतशैल्या आख्यायन्ते - सामान्यविशेषाभ्यां कथयन्त इत्यर्थः, प्रज्ञाप्यन्ते नामादिभेदाभिधानेन, प्ररूप्यन्ते नामादिखरूपकथनेन यथा 'पज्जायाणभिधेय' मित्यादि, दर्श्यन्ते उपमामात्रतः 'यथा गौर्गवयस्तथा' इत्यादि, निदर्श्यन्ते हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन उपदर्श्यन्ते उपनयनिगमनाभ्यां सकलनयाभिप्रायतो वेति, साम्प्रतमाचाराङ्गग्रहणफलप्रतिपादनायाह -- ' से एवमित्यादि, स इत्याचाराङ्गग्राहको गृह्यते, 'एवं आयत्ति अस्मिन् भावतः सम्यगधीते सत्येवमात्मा भवति, तदुक्तक्रियापरिणामाव्यतिरेकात् स एव भवतीत्यर्थः, इदं च सूत्रं पुस्तकेषु न दृष्टं नन्द्यां तु दृश्यते इतीह व्याख्यातमिति, एवं क्रियासारमेव ज्ञानमिति ख्यापनार्थं क्रियापरिणाममभिधायाधुना ज्ञानमधिकृत्य आह- ' एवं नाय'त्ति इदमधीत्य एवं ज्ञाता भवति यथैवेोक्तमिति, 'एवं विनाय'त्ति विविधो विशिष्टो वा ज्ञाता
आचार अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः
For Parts Only
मूलं [१३६ ] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~228~
Xerary org
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१३७ सू कृताङ्ग.
प्रत सूत्रांक
श्रीसमवा-
यांगे श्रीअभय वृतिः
[१३६]]
॥१०॥
प्रत अनुक्रम [२१५]
विज्ञाता एवं विज्ञाता भवति-तत्रान्तरीयज्ञाता भवति, तत्रान्तरीयज्ञातृभ्यः प्रधानतर इत्यर्थः, "एवं मित्यादि नि- गमनवाक्यं, एवं-अनेन प्रकारेणाचारगोचरविनयादभिधानरूपेण 'चरणकरणप्ररूपणता आख्यायत' इति चरण- व्रतश्रमणधर्मसंयमाद्यनेकविधं करणं-पिण्डविशुद्धिसमित्याद्यनेकविधं तयोः प्ररूपणता-प्ररूपणैव आख्यायते इ. त्यादि पूर्ववदिति, 'सेतं आयारे'त्ति तदिदमाचारवस्तु अथवा सोऽयमाचारो यः पूर्व दृष्ट इति ॥१॥
से किं तं सूअगडे ?, सुअगडे णं ससमया सूइजंति परसमया सूइति ससमयपरसमया सूइज्जति जीवा सूइज्जति अजीवा सूइजति जीवाजीवा सूइजंति लोगो सूइजति अलोगो सूइजति लोगालोगो सुइजति, सूअगडे गं जीवाजीवपुण्णपावासवसंवरनिन्जरणबंधमोक्खावसाणा पयत्या सुइअंति, समणाणं अचिरकालपब्वइयाणं कुसमयमोहमोहमइमोहियाणं संदेहजायसहजबुद्धिपरिणामससइयाणं पावकरमलिनमइगुणविसोहणत्यं असीअस्स किरियावाइयसयस्स चउरासीए अकिरियवाईणं सत्तडीए अण्णाणियवाईणं बत्तीसाए वेणइयवाईणं तिण्डं तेवट्ठीणं अण्णदिट्ठियसयाणं बूई किचा ससमए ठाविअति णाणदिटुंतवयणणिस्सारं सुहुदरिसयंता विविहवित्थराणुगमपरमसब्भावगुणविसिट्ठा मोक्खपहोयारगा उदारा अण्णाणतमंधकारदुग्गेसु दीवभूा सोवाणा चेव सिद्धिसुगइगिहुत्तमस्स णिक्खोभनिप्पकंपा सुत्तत्था, सुयगडस्स णं परित्ता वायणा संखेजा अणुभोगदारा संखेआमओ पढिवतीओ संखेजा वेम संखेबा सिलोगा संखेजाओ निजुत्तीओ, से णं अङ्गहयाए दोचे अंगे दो सुयक्खंधा तेवीसं अजमायणा तेत्तीसं उदेसणकाला तेत्तीसं समुदेसणकाला छत्तीसं पदसहस्साई पयग्गेणं प० संखेजा अक्खरा अणंता गमा अर्णता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिवद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आपविजंति पण्णविनंति परूविजंति निद
C
॥१०९॥
A5)
REairat na
M
uniorary.orm
आचार अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:, सूत्रकृत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~229~
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३७]
सिजंति उवदंसिअंति, से एवं आया एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आधविअंति पण्णविजंति परूविजंति निदंसिर्जति उवदंसिर्जति, से तं सूअगडे २ ॥ सूत्रं १३७ ॥ 'से किं तं सूयगडे' 'सूच सूचायाँ' सूचनात् सूत्रं सूत्रेण कृतं सूत्रकृतमिति रूढ्योच्यते, 'सूयगडेणं ति सूत्रकृतेन सूत्रकृते वा खसमयाः सूच्यन्ते इत्यादि कण्ठ्यं, तथा सूत्रकृतेन जीवाजीवपुण्यपापाश्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षावसानाः पदार्थाः सूयन्ते, तथा 'समणाण मित्यादि, अत्र श्रमणानां मतिगुणविशोधनार्थे खसमयः स्थाप्यत इति वाक्यार्थः, तत्र श्रमणानां किंभूतानां ?-अचिरकालप्रवजिताना, चिरकालप्रप्रजिता हि निर्मलमतयो भवन्ति, अहर्निशन शास्त्रपरिचयाबहुश्रुतसंपर्काचेति, पुनः किंभूतानां ?-'कुसमयमोहमोहमइमोहियाण'ति कुत्सितः समयः-सिद्धान्तो येषां ते कुसमयाः-कुतीर्थिकास्तेषां मोहः-पदार्थेष्वयथावबोधः कुसमयमोहस्तस्माद्यो मोहः-श्रोतृमनोमूढता तेन मतिर्मोहिता-मूढतां नीता येषां ते कुसमयमोहमतिमोहिताः, अथवा कुसमयाः-कुसिद्धान्तास्तेषां ओघः-18 संघो मकारस्तु प्राकृतत्वात् तस्माद्यो मोहः-श्रोतृमनोमूढता तेन मतिर्मोहिता येषां ते कुसुमयौघमोहम| तिमोहिताः, अथवा कुसमयानां-कुतीथिकानां मोहो.मोघो वा-शुभफलापेक्षया निष्फलो यो मोहस्तेन मतिर्मोदहिता येषां ते कुसमयमोहमोहमतिमोहिताः कुसमयमोघमोहमतिमोहिता वा तेषां, तथा संदेहाः-वस्तुतत्वं प्रति सं
शयाः कुसमयमोहमतिमोहितानामिति विशेषणसान्निध्यात् कुसमयेभ्यः सकाशात् (ते) जाता येषां ते सन्देहजाताः,
प्रत
अनुक्रम [२१६]
Aniricaturary.com
सूत्रकृत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~230~
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ---------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३७]
वृत्तिः
प्रत अनुक्रम [२१६]
श्रीसमषा-1 तथा सहजात्-खभावसम्पन्नात् न कुसमय श्रवणसम्पन्नादुद्धिपरिणामात्-मतिखभावात् संशयो जातो येषा ते सह-1|१३७ सूयाँगे जबुद्धिपरिणामसंशयिताः सन्देहजाताश्च सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताश्च ये ते तथा तेषां श्रमणानामिति प्रक्रमः, कृतात. श्रीअमय० किमत आह-'पापकरों' विपर्ययसंशयात्मकत्वेन कुत्सितप्रवृत्तिनिवन्धनत्यादशुभकर्महेतुरत एव च मलिनः-स्वरू
पाच्छादनादनिर्मलो यो मतिगुणो-बुद्धिपर्यायस्तस्य विशोधनाय-निर्मलत्वाधानाय पापकरमलिनमतिगुणविशो॥११॥
धनाय । 'असीयस्स किरियावाइयसयस्स'त्ति अशीत्यधिकस्य क्रियावादिशतस्य व्यूहं कृत्वा खसमयः स्थाप्यत इति । योगः, एवं शेषेष्वपि पदेषु क्रिया योजनीयेति, तत्र न कर्तारं विना क्रिया संभवतीति तामात्मसमवायिनी वदन्ति ये तच्छीलाच ते क्रियावादिनः, ते पुनरात्माद्यस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षण अमुनोपायेनाशीत्यधिकशतासंख्या विज्ञेयाः-जीवाजीवाश्रवबन्धसम्बरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षाख्यान्नव पदार्थान् विरचय्य परिपाट्या जीवपदार्थ-12 साधः स्वपरभेदावुपन्यसनीयौ, तयोरधो नित्यानित्यभेदौ, तयोरप्यधः कालेश्वरात्मनियतिखभावभेदाः पञ्च न्यसनीयाः, पुनरित्थं विकल्पाः कर्तव्याः-अस्ति जीवः खतो नित्यः कालत इत्येको विकल्पो, विकल्पार्थश्वायं-18
॥११०॥ विद्यते खल्वात्मा खेन रूपेण नित्यश्च कालवादिनः, उक्तेनैवाभिलापेन द्वितीयो विकल्प ईश्वरकारणिकस्य, तृतीयः आत्मवादिनश्चतुर्थो नियतिवादिनः पञ्चमः स्वभाववादिनः, एवं खत इत्यपरित्यजता लब्धाः पञ्च विकल्पाः, परत इत्यनेनापि पञ्च लभ्यन्ते, नित्यत्वापरित्यागेन चैते दश विकल्पाः, एवमनित्यत्वेनापि दशैव, एवं विंशतिर्जीवपदा
सूत्रकृत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~ 231~
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३७]
प्रत
दार्थेन लब्धाः, अजीवादिष्वप्यष्टाखेवमेव प्रतिपदं विंशतिर्विकल्पानामतो विंशतिर्नवगुणा शतमशीत्युत्तरं क्रियावा-1 Pादिनामिति, 'चउरासीए अकिरियवाईणं'ति एतेषां च खरूपं यथा नन्द्यादिषु तथा वाच्यं, नवरमेतद्याख्याने पुण्यापुण्यवर्जाः सप्त पदार्थाः स्थाप्यन्ते, तदधः खतः परतश्चेति पदद्वयं, तदधः कालादीनां पष्ठी यरच्छा न्यस्थते, ततश्च । नास्ति जीवः खतः कालत इत्येको विकल्पः, एवमेते चतुरशीतिर्भवन्ति । 'सत्तट्ठीए अन्नाणियवाईणं'ति एतेऽपि तथैव, नवरं जीवादीन्नव पदार्थानुत्पत्तिदशमानुपरि व्यवस्थाप्याधः सस सदादयः स्थाप्याः, तद्यथा-सत्त्वमसत्त्वं सदसत्यमवाच्यत्वं सदवाच्यत्वमसदवाच्यत्वं सदसदवाच्यत्वमिति, तत्र को जानाति जीवस्य सत्त्वमिलेको विकल्पः, एवमसत्त्वमित्यादि, तत एते सप्त नवकात्रिषष्टिः, उत्पत्तेस्त्वाद्या एव चत्वारो याच्याः, इत्येवं सप्तपष्टिरिति, तथा 'बत्तीसाए वेणइयवाईणं'ति, एते चैवं-सुरनृपतिज्ञातियतिस्थविराधममातृपितॄणां प्रत्येकं कायवायनोदान-14
चतुर्दा विनयः कार्य इत्यभ्युपगमवन्तो द्वात्रिंशदिति । एवं चैतेषां चतुर्णा वादिप्रकाराणां मीलने त्रीणि त्रिषष्ट्यBाधिकानि अन्यदृष्टिशतानि भवन्त्यत उच्यते-तिण्ह'मित्यादि, 'बूह किच'त्ति प्रतिक्षेपं कृत्वा 'खसमयो' जैनसि-1
द्वान्तः स्थाप्यते, यत एवं सूत्रकृतेन विधीयते अतस्तत्सूत्रार्थयोः खरूपमाह-'नाणे'त्यादि, नाना-अनेकविधाः ब-18 है हुभिः प्रकाररित्यर्थः, 'दिटुंतवयणनिस्सारंति स्याहादिना पूर्वपक्षीकृतानां प्रवादिनां खपक्षस्थापनाय यानि दृष्टा
न्तवचनान्युपलक्षणत्वाद्धेतुवचनानि च तदपेक्षया निस्सारं-सारताशून्यं परेषां मतमिति गम्यते, सुष्टु-पुनरप्रतिक्षेप
अनुक्रम [२१६]
RERIEatinAXE
सूत्रकृत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~232
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
वृत्तिः
[१३७]
प्रत अनुक्रम [२१६]
श्रीसमवा-हाणीयत्वेन दर्शयन्तौ-प्रकटयन्ती तथाविधश्चासौ सत्पदप्ररूपणाधनेकानुयोगद्वाराश्रितत्वेन विस्तारानुगमश्च-अनुगम-14 १३७ मूयांगे नीयानेकजीवादितत्त्वानां विस्तरप्रतिपादनं विविधविस्तारानुगमः तया परमसद्भावः-अत्यन्तसत्यता वस्तूनामैदम्पर्य
वकृताङ्ग मित्यर्थस्तावेव गुणौ ताभ्यां विशिष्टौ विविधविस्तारानुगमपरमसद्भावगुणविशिष्टौ 'मोक्खपहोयारग'त्ति मोक्षपथाव
तारको, सम्यग्दर्शनादिपु प्राणिनां प्रवर्तकावित्यर्थः, 'उदार'त्ति उदाराः सकलसूत्रार्थदोषरहितत्वेन निखिलतद्गुण॥११॥ सहितत्वेन च, तथाऽज्ञानमेव तमः-अन्धकारमात्यन्तिकान्धकारमधवा प्रकृष्टमज्ञानमज्ञानतमं तदेवान्धकारमज्ञान
तमोऽन्धकारमज्ञानतमोऽन्धकारमज्ञानतमान्धकारं वा तेन ये दुर्गा-दुरधिगमास्ते तथा तेषु तत्वमार्गेष्यिति गम्यते । 'दीवभूय'त्ति प्रकाशकारित्वाद्दीपोपमो 'सोवाणा चेव'त्ति सोपानानीव-उन्नतारोहणमार्गविशेष इव सिद्धिसुगतिगृहो-13 त्तमस्य-सिद्धिलक्षणा सुगतिः सिद्धिसुगतिरथवा सिद्धिश्च सुगतिश्च-सुदेवत्वसुमानुषत्वलक्षणा सिद्धिसुगती तलक्षणं यहहाणामुत्तमं गृहोत्तम-वरप्रासादस्तस्य सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्यारोहण इति गम्यते 'निक्खोभनिप्पकंपत्ति निःक्षोभी वादिना क्षोभयितुं-चालयितुमशक्यत्वात् निष्प्रकम्पो खरूपतोऽपीपद्व्यभिचारलक्षणकम्पाभावात् , कावित्याह ?-10 'सूत्रार्थों' सूत्रं चार्थश्च-नियुक्तिभाष्यसङ्ग्रहणिवृत्तिचूर्णिपञ्जिकादिरूप इति सूत्रार्थों, शेपं कण्ठ्यं यावत् 'सेत्तं सूय-18 ॥११॥ गडे'त्ति, नवरं त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकालाः-'चउ ४ तिय ३ चउरो ४ दो २ दो २ एक्कारस चेव हुंति एकसरा । सत्तेव महझयणा एगसरा बीयसुयखंधे ॥१॥' इत्यतो गाथातोऽवसेया इति ॥२॥
SNEnirah
100
infianasaram.org
सूत्रकृत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~233~
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत सूत्रांक
[१३८]
प्रत
अनुक्रम
[२१७
-२१९]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
Jain Educatio
से किं तं ठाणे १, ठाणेणं ससमया ठाविजन्ति परसमया ठाविजंति ससमयपरसमया ठाविजंति जीवा ठाविजंति अजीवा ठाविअंति जीवाजीवा• लोगा० अलोगा• लोगालोगा ठाविअंति, ठाणेणं दव्वगुणखेत्तकालपजव पयस्थाणं- 'सेला सलिला य समुद्दा सुरभवणविमाण आगर नदीओ। णिहिओ पुरिसजाया सरा व गोत्ता य जोइसंचाला || १ || एक्कविद्ववत्तब्वयं दुविह जाव दसविवतव्वयं जीवाण पोग्गलाण य लोगडाई च णं परूवणया आघविजंति, ठाणस्स णं परिता वायणा संखेजा अणुओगदारा संखेजाओ पवित्तीओ संखेजा वेढा संखेजा सिलोगा संखेआओ संगहणीओ, से णं अंगद्वयाए तइए अंगे एगे सुयक्खंधे दस अयणा एकवीस उद्देसणकाला बावतारं पयसहस्साई पयग्गेणं प०, संखेडा अक्खरा अनंता पजवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासया कडा विद्धाणिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आपविजति पण्णविनंति परूविजंति निदंसिजति उवदंसिजंति, से एवं आया एवं णाया एवं विष्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आपविजंति, सेत्तं ठाणे ३ ॥ सूत्रं १३८ ॥
'से किं तं ठाणे' इत्यादि, अथ किं तत् स्थानं ?, तिष्ठन्त्यस्मिन् प्रतिपाद्यतया जीवादय इति स्थानं, तथा चाह'ठाणेण' मित्यादि, स्थानेन स्थाने वा जीवाः स्थाप्यन्ते यथावस्थितस्वरूपप्रतिपादनायेति हृदयं, शेषं प्रायो निगदसिद्धमेव, नवरं ठाणेण इत्यस्य पुनरुचारणं सामान्येनैव पूर्वोक्तस्यैव स्थापनीयविशेषप्रतिपादनाय वाक्यान्तरमिदमिति ज्ञापनार्थ, तत्र 'देवगुणखेत्तकालपजव' ति प्रथमा बहुवचनलोपाद्रव्यगुणक्षेत्रकालपर्यत्राः पदार्थानां जीवादीनां स्थानेन स्थाप्यन्ते इति प्रक्रमः, तत्र द्रव्यं द्रव्यार्थता यथा जीवास्तिकायोऽनन्तानि द्रव्याणि गुणः खभावो यथोपयोगखभावो जीवः क्षेत्रं यथा असंख्येयप्रदेशावगाहनोऽसौ कालो यथा अनाद्यपर्यवसितः पर्ययाः कालकृता अबस्था
स्थान अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Pale Only
मूलं [१३८]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~234~
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ---------- मूलं [१३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१३८]
प्रत अनुक्रम [२१७२१९]
कायथा नारकत्वादयो बालत्यादयो वेति, 'सेला' इत्यादि माथाविशेषः, तत्र शैला-हिमवदादिपर्वताः स्थाप्यन्ते स्था-1|१३८स्थायांगे 18|नेनेति योगः सर्वत्र, सलिलाच गङ्गाद्या महानद्यः समुद्राः-लवणादयः सूरा:-आदित्या भवनानिः-अमुरादीनां नाङ्ग. श्रीअभय विमानानि चन्द्रादीनां आकराः-सुवर्णाधुत्पत्तिभूमयो नद्यः-सामान्या महीकोसीप्रभृतयो निधयः-चक्रवर्तिसम्ब-18
वृत्तिः धिनो नैसदियो नव 'पुरिसजाय'त्ति पुरुषप्रकारा उन्नतप्रणतादिभेदाः पाठान्तरेण 'पुस्सजोय'त्ति उपलक्षण॥११२॥
त्वात् पुष्यादिनक्षत्राणां चन्द्रेण सह पश्चिमाग्रिमोभयप्रमईकादियोगाः खराश्च-पड्जादयः सप्त गोत्राणि च-काश्यपादीनि एकोनपञ्चाशत् , 'जोइसंचालय'त्ति ज्योतिषः-तारकरूपस्य सञ्चलनानि 'तिहिं ठाणेहिं तारारूवे चलेजा | इत्यादिना सूत्रेण स्थाप्यन्ते स्थानेनेति प्रक्रमः । १। तथा एकविधं च तद्वक्तव्यं च-तदभिधेयमित्येकविधवक्तव्यं ४ प्रथमे अध्ययने स्थाप्यत इति योगः, एवं द्विविधवक्तव्यकं द्वितीयेऽध्ययने, एवं तृतीयादिषु यावद्दशविधवक्तव्य
दशमेऽध्ययने, तथा जीवानां पुद्गलानां च प्ररूपणताऽऽख्यायत इति योगः, तथा 'लोगट्ठाई च णं ति लोकस्थायिनां चटू धर्माधर्मास्तिकायादीनां परूपणता-प्रज्ञापना, शेषमाचारसूत्रव्याख्यानवदयसेयं, नवरमेकविंशतिरुद्देशनकालाः,
कथं, द्वितीयतृतीयचतुर्थेष्वध्ययनेषु चत्वारश्चत्वार उद्देशकाः पञ्चमे त्रय इत्येते पञ्चदश, शेपास्तु पद, पण्णामध्यय- ॥११॥
नानां षडुद्देशनकालत्वादिति 'वायत्तरि पदसहस्साई'ति अष्टादशपदसहस्रमानादाचाराद्विगुणत्वात् सूत्रकृतस्य तितोऽपि द्विगुणत्वात् स्थानखेति ॥३॥
Saintairatunal
स्थान अगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~235~
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१३९]
ROCCASECASSES
सतिं समवाए ?, समवाएणं ससमया सूइजति परसमया सूइजति ससमयपरसमया सूइजंति जाव लोगालोगा सूइबंति, सम. वाएणं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियपरिचुडीए दुवालसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइजद ठाणगसयस्स बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स भगवओ समासणं समोयारे आहिजति, तत्थ वणाणाविहप्पगारा जीवाजीवा य वग्णिया वित्थरेण अवरेवि अ बहुविहा विसेसा नरगतिरियमणुअसुरगणाणं आहारुस्सासलेसाआवाससंखआययप्पमाणउववायचवणउग्गहणोवहिवेयणविहाणउवओगजोगइंदियकसाय विविहा य जीवजोणी विक्खंभुस्सेहपरिरयापमाणं विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं कुलगरतित्थगरगणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाण चक्कीणं चेव चकहरहलहराण य वासाण य निगमा य समाए एए अण्णे य एवमाइ एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिअंति, समवायरस णं परित्ता वायणा जाव से णं अद्वयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे एगे सुयक्वंधे एगे उद्देसणकाले एगे चउयाले पदसहस्से पदग्गेणं प०, संखेन्जाणि अक्खराणि जाव चरणकरणपरूवणया आषविजंति, सेत्तं समवाए ४ ॥ सूत्रं १३९ ॥
से किं तमित्यादि, अथ कोऽसौ समवायः?, सूत्रेषु प्राकृतत्वेन वकारलोपात् समाये इत्युक्तं, समवायनं समवायः सम्यक् परिच्छेद इत्यर्थः, तद्धेतुश्च ग्रन्थोऽपि समवायः, तथा चाह-समवायेन समवाये वा खसमयाः सूच्यन्ते इत्यादि कण्ठ्यं, तथा समवायेन समवाये वा 'एगाइयाणंति एकद्वित्रिचतुरादीनां शतान्तानां कोटाकोव्यन्तानां वा 'एगस्थाणति एके च ते अर्थाश्चेत्येकार्थास्तेषां, अयमर्थः एकेषां केषाञ्चित् न सर्वेषां निखिलानां वक्तुमशक्यत्वादर्थानां
56-56525-05-15
प्रत अनुक्रम [२२०]
%252
REauratonmaa
समवाय अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~236~
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१३९]
प्रत
अनुक्रम [२२०]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमदायांगे श्रीअभय०
वृत्तिः
॥११३॥
जीवादीनां 'एगुत्तरिय'त्ति एक उत्तरो यस्यां सा एकोत्तरा सैव एकोत्तरिका, इह प्राकृतत्वात् हखत्वं, 'परिवुहियत्ति परिवृद्धिश्चेति समनुगीयते समवायेनेति योगः, तत्र च परिवर्द्धनं संख्यायाः समवसेयं, चशब्दस्य चान्यत्र सम्बन्धादेकोत्तरिका अनेकोत्तरिका च, तत्र शतं यावदेकोत्तरिका परतोऽनेकोत्तरिकेति तथा द्वादशाङ्गस्य च गणिपिटकस्य 'पलचग्गे'त्ति पर्यवपरिमाणं अभिधेयादितद्धर्मसंख्यानं यथा 'परिता तसा' इत्यादि पर्ययशब्दस्य च 'पलव'त्ति निर्देशः प्राकृतत्वात् पर्यङ्कः पल्यङ्क इत्यादिवदिति, अथवा पलवा इव पलवाः - अवयवास्तत्परिमाणं 'समणुगाइज्जति ति-समनुगीयते प्रतिपाद्यते, पूर्वोक्तमेवार्थ प्रपञ्चयन्नाह - 'ठाणगसयस्स' त्ति स्थानकशतस्यैकादीनां शतान्तानां संख्यास्थानानां तद्विशेषितात्मादिपदार्थानामित्यर्थः, तथा द्वादशविधो विस्तरो यस्याचारादिभेदेन तत् द्वादशविधविस्तरं तस्य श्रुतज्ञानस्य - जिनप्रवचनस्य, किंभूतस्य ? - जगज्जीवहितस्य, 'भगवतः श्रुतातिशययुक्तस्य 'समासेन' संक्षेपेण समाचारः - प्रतिस्थानं प्रत्यङ्गं च विविधाभिधायकत्वलक्षणो व्यवहारः 'आहिज्जइत्ति आख्यायते, अथ समाचाराभिधानानन्तरं यदुक्तं तदभिधातुमाह-'तत्थ ये' त्यादि, 'तत्थ य'त्ति तत्रैव समवाये इति योगः नानाविधः प्रकारो येषां ते नानाविधप्रकाराः तथाहि--एकेन्द्रियादिभेदेन पञ्चप्रकारा जीवाः पुनरेकैकः प्रकारः पर्याप्तापर्याप्तादिभेदेन नानाविधः, 'जीवाजीवा य'त्ति जीवा अजीवाश्च वर्णिता 'विस्तरेण' महता वचनसन्दर्भेण, अपरेऽपि |च बहुविधा 'विशेषा' जीवाजीवधर्म्मा वर्णिता इति योगः, तानेव लेशत आह-'नरये' त्यादि, 'नरय'त्ति निवासनिवा
समवाय अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Parts Only
मूलं [१३९]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~237~
१३९ स मवाया.
॥११३॥
nary or
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१३९]
प्रत
अनुक्रम [२२०]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
Eaton
सिनामभेदोपचारान्नारकाः, ततश्च नारकतिर्यग्मनुजसुरगणानां सम्बन्धिन आहारादयः, तत्र आहारः - ओजआहारादिराभोगिकाना भोगिकखरूपोऽनेकधा उच्छ्वासोऽनुसमयादिकालभेदेनानेकधा लेश्या कृष्णादिका पोढा आवाससंख्या यथा नरकावासानां चतुरशीतिर्लक्षाणीत्यादिका आयतप्रमाणमावासानामेव संख्यातासंख्यातयोजनायामता उपलक्षणत्वादस्य विष्कम्भवाहल्यपरिधिमानान्यप्यत्र द्रष्टव्यानि उपपात एकसमयेनैतावतामेतावता वा कालव्यव धानेनोत्पत्तिः च्यवनमेकसमयेनैतावताभियता वा कालव्यवधानेन मरणं, अवगाहना - शरीरप्रमाणमङ्गुलासंख्येय| भागादि अवधि:-अङ्गुलासंख्येय भागक्षेत्रविषयादि वेदना - शुभाशुभस्वभावा विधानानि भेदा यथा सप्तविधा नारका इत्यादि उपयोगः- आभिनिवोधिकादिर्द्वादशविधः योगः- पञ्चदशविधः इन्द्रियाणि पञ्च द्रव्यादिभेदाद् विंशतिर्वा श्रोत्रादिच्छिद्राद्यपेक्षयाऽष्टौ वा कषायाः क्रोधादयः आहारोच्छ्वासश्चेत्यादिर्द्वन्द्वस्ततः कषायशब्दात्प्रथमाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः तथा विविधा च जीवयोनिः सचित्तादिकं जीवानामुत्पत्तिस्थानं, तथा विष्कम्भोत्सेधपरिरयप्रमाणं विधिविशेषाश्च मन्दरादीनां महीधराणामिति, तत्र विष्कम्भो विस्तार उत्सेधः - उच्चत्वं परिरयः- परिधिः विधिविशेषा इति विधयो-भेदा यथा मन्दरा जम्बूद्वीपीय धातकीखण्डीयपौष्करार्द्धिकभेदात्रिधा तद्विशेषस्तु जम्बूद्वी|पको लक्षोथः शेषास्तु पञ्चाशीतिसहस्रोच्छ्रिता इति एवमन्येष्वपि भावनीयं, तथा कुलकरतीर्थकरगणधराणां तथा | समस्त भरताधिपानां चक्रिणां चैव तथा चक्रधरहलधराणां च विधिविशेषाः समाश्रीयन्त इति योगः, तथा वर्षाणां
समवाय अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Parts Only
मूलं [१३९] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~238~
Monerary.org
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१३९ स
मवाया.
प्रत सूत्रांक [१३९]]
श्रीसमवा- यांगे वृतिः
॥११॥
प्रत अनुक्रम [२२०]
च-भरतादिक्षेत्राणां निर्गमाः-पूर्वेभ्यः उत्तरेपामाधिक्यानि 'समाए'त्ति समवाये चतुर्थे अङ्गे वर्णिता इति प्रक्रमा अवैतन्निगमयन्नाह-एते चोक्ताः पदार्था अन्ये च घनतनुवातादयः पदार्थाः, एवमादयः-एवंप्रकाराः अत्र समवाये विस्तरेणार्थाः समाश्रीयन्ते, अविपरीतखरूपगुणभूषिता बुद्ध्याऽङ्गीक्रियन्त इत्यर्थः, अथया समस्यन्ते-कुप्ररूपणाभ्यः | सम्यकप्ररूपणायां क्षिप्यन्ते, शेष निगदसिद्धमानिगमनादिति ॥५॥
से कि त वियाहे १, वियाहेण ससमया विआहिअंति परसमया विआहिअंति ससमयपरसमया विआहिति जीवा विभाहिजेति अजीवा विआहिजति जीवाजीवा विआहिअंति लोगे विआहिजइ अलोए वियाहिजइ लोगालोगे विआहिजइ, वियाहेणं नाणाविहसुरनरिंदरायरिसिविविहसंसइअपुच्छियाण जिणेणं वित्थरेण भासिवाणं दव्वगुणखेतकालपजवपदेसपरिणामजहच्छिट्टियभावअणुगमनिक्खेवणयप्पमाणसुनिउणोवक्कमविविहप्पकारपगडफ्यासियाणं लोगालोगपयासियाणं संसारसमुद्दरुंदउत्तरणसमत्थाणं सुरवइसंपूजियाणं भवियजणपयहिययाभिनंदियाणं तमरयविधूसणाणं सुदिदीवभूयईहामतिबुद्धिवद्धणाणं छचीससहस्समणूणयाणं वागरणाणं दंसणाओ सुबत्थबहुविहप्पगारा सीसहियत्या य गुणमहत्था, वियाहस्स पं परित्ता वायणा संखेशा अणुओगदारा संखेजाओ पडिबत्तीओ संखेजा वेढा संखेजा सिलोगा संखेजाओ निज्जुत्तीओ, से गं अंगवयाए पञ्चमे अंगे एगे सुयक्खंधे एगे साइरेगे अजायणसते दस उद्देसगसहस्साई दस समुद्देसगसहस्साई छत्तीसं वागरणसहस्साई चउरासीई पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता, संखेबाई अक्खराई अर्णता गमा अणंता पञ्जवा परित्ता तसा अर्णता थावरा सासया कडा णिचद्धा णिकाइया जिण
RECE
॥११४॥
समवाय अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:, वियाह/(भगवती) अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~239~
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
EX
प्रत सूत्रांक [१४०]
%C5%
प्रत अनुक्रम [२२१]
-
पण्णता भावा आपविजंति पण्णविअंति परूविजंति निदंसिअंति उवदंसिजंति, से एवं आया से एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आपविजंति, सेत्तं वियाहे ५॥ सूत्रं १४०॥ 'से किं तं वियाहे' इत्यादि, अथ केयं व्याख्या ?, व्याख्यायन्ते अर्था यस्यां सा व्याख्या, वियाहे इति च लिनिर्देशः प्राकृतत्वात् , 'विवाहेणं'ति ब्याख्यया व्याख्यायां वा ससमया इत्यादीनि नव पदानि सूत्रकृतवर्णके व्याख्यातत्वादिह कण्ठ्यानि, 'बियाहेण मित्यादि, नानाविधैः सुरैः नरेन्द्रः राजर्षिभिश्च विविहसंसइय'त्ति विविधसंशयितेः-विविधसंशयवद्भिः पृष्टानि यानि तानि तथा तेषां नानाविधसुरनरेन्द्रराजऋषिविविधसंशयितपृष्टानां व्याकरणानां पत्रिंशतसहस्राणां दर्शनात् श्रुतार्था व्याख्यायन्त इति पूर्वापरेण वाक्यसंबन्धः, पुनः किंभूतानां व्याकरणाना ?'जिनेने ति भगवता महावीरेण 'वित्थरेण भासियाणं' विस्तरेण भणितानामित्यर्थः, पुनः किंभूताना ?-'द'त्यादि, द्रव्यगुणक्षेत्रकालपर्यवप्रदेशपरिणामावस्थायथास्तिभावाऽनुगमनिक्षेपनयप्रमाणसुनिपुणोपक्रमैर्विविधप्रकारैः प्रफटः प्रदर्शितो यैाकरणैस्तानि तथा तेषां, तत्र द्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि गुणा-ज्ञानवर्णादयः क्षेत्रं-आकाशं काल:समयादिः पर्यवाः-खपरभेदभिन्ना धर्माः अथवा कालकृता अवस्था नवपुराणादयः पर्यवाः प्रदेशा-निरंशावयवाः परिणामा:-अवस्थातोऽवस्थान्तरगमनानि यथा-येन प्रकारेणातिभावः अस्तित्वं-सत्ता यथाऽसिभा अनुगमःसंहितादिव्याख्यानप्रकाररूपः उद्देशनिर्देशनिर्गमादिद्वारकलापात्मको वा निक्षेपो-नामस्थापनाद्रव्यभावैर्वस्तुनो
ॐॐAIRS
-1
15
२०सम०
Kanarary.orm
| वियाह/(भगवती) अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~240~
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४०]
वृत्तिः
प्रत अनुक्रम [२२१]
श्रीसमवा- न्यासः 'नयप्रमाणे नया-गमादयः सप्त द्रम्पास्तिकपर्यावास्तिकोदात् ज्ञाननयक्रियानयभेदान्निश्चयव्यवहारभेदावर १४०व्या
यांगे द्वौ ते एव ताव का प्रमाण-पस्तुतत्त्वपरिच्छेदनं नयप्रमाण तथा सुनिपुगः-सुसूक्ष्मः सुनिपुणो वा सुष्टु निश्चित- ख्यापनश्रीअभय गुण उपक्रमः-आनुपूर्व्यादिः, विविधप्रकारता चैषां भेदभणनत एवोपदर्शितेति, पुनः किंभूतानां ब्याकरणानां ?, प्तिसूत्रा.
लोकालोको प्रकाशितो येषु तानि तथा तेषां, तथा 'संसारसमुद्दरुंद उत्तरणसमत्वाणं ति संसारसमुद्रस्य रुंदस्य-वि॥११५स्तीर्णस्य उत्तरणे-तारणे समर्थानामित्यर्थः अत एव सुरपतिसंपूजितानां-प्रच्छकनिर्णायकपूजनात् सूकत्वेन श्लाषित
त्वाद्वा तथा 'भवियजणपयहिययाभिणंदियाणं'ति भव्यजनानां-भव्यप्राणिनां प्रजा-लोको भव्यजनप्रजा भव्यजनपदो वा तस्यास्तस्य वा हृदयैः-चित्तैरभिनन्दिताना-अनुमोदितानामिति विग्रहः, तथा तमोरजसी-अज्ञानपातके विध्वंसयति-नाशयति यत्तत्तमोरजोविध्वंसं तच तद् ज्ञानं च तमोरजोविध्वंसज्ञानं तेन सुष्टु दृष्टानि-निर्णीतानि यानि तानि तथा अत एव तानि च तानि दीपभूतानि चेति, अत एव तानि ईहामतिबुद्धिवर्द्धनानि चेति, तेषां तमोरजोविध्वंसज्ञानमुटष्टदीपभूतेहामतिबुद्धिवर्द्धनानां, तत्र ईहा-वितर्को मतिः-अवायो निश्चय इत्यर्थः बुद्धिः-औत्पत्तिक्यादिचतुर्विधेति, अथवा तमोरजोविध्वंसनानामिति पृथगेय पदं पाठान्तरेण सुदृष्टदीपभूतानामिति च, तथा 'छ-16॥११५।। त्तीससहस्समणूणयाणं'ति अन्यूनकानि पत्रिंशत् सहस्राणि येषां तानि तथा, इह मकारोऽन्यथा पदनिपातच प्राकृ-1 तत्वादनवद्य इति, 'वागरणाणं ति ब्याक्रियन्ते-प्रश्नानन्तरमुत्तरतयाऽभिधीयन्ते निर्णायकेन यानि तानि व्याकरणानि
| वियाह/(भगवती) अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~241
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४०]
प्रत अनुक्रम [२२१]
तेषां दर्शनात्-प्रकाशनादुपनिवन्धनादित्यर्थः, अथवा तेषा दर्शना-उपदर्शका इत्यर्थः, क इत्याह-'सुतत्थबहुविहप्पयारे'त्ति श्रुतविषया-अर्थाः श्रुतार्था अभिलाप्यार्थविशेषा इत्यर्थः श्रुता वा आकर्णिता जिनसकाशे गणधरेण ये अर्थास्ते श्रुतार्थाः, अथवा श्रुतमिति सूत्र अर्था-निर्युक्त्यादय इति श्रुतार्थास्ते च ते बहुविधप्रकाराश्चेतिविग्रहः श्रुतार्थानां वा बहवो विधाः-प्रकारा इति विग्रहः, किमर्थं ते व्याख्यायन्त इत्याह-शिष्यहितार्थाय' शिष्याणां हितंअनर्थप्रतिघातार्थप्राप्तिरूपं तदेवार्थः प्रार्यमानत्वात्तस्य तस्मै इति, किंभूतास्ते अत आह-गुणहस्ता-गुण एवार्थप्राप्त्यादिलक्षणो हस्त इव हस्तः प्रधानावयवो येषां ते तथा (गुणमहत्था-गुणोत्सवार्थाः), 'वियाहस्से'सादि तु निगमनान्तं सूत्रसिद्ध, नवरं शतमिहाध्ययनस्य संज्ञा, चतुरशीतिः पदसहस्राणि पदाणेति समयायापेक्षया द्विगुजाणताया इहानाश्रयणादन्यथा तद्विगुणत्वे वे लक्षे अष्टाशीतिः सहस्राणि च भवन्तीति ॥५॥ १ से किं तं णायाधम्मकहाओ ?, णायाधम्मकहासु णं णायाणं णगराई उजाणाई चेहआई वणखंडा रावाणो ५ अम्मापियरो समो
सरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइअइड्डीविसेसा १० भोगपरिचाया पवजाओ सुयपरिग्गहातवोवहाणाई परियागा १५सलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपञ्चायायाई २० पुणयोहिलामा अंतकिरियाओ २२ य आधविजंतिजाव नायाधम्मकहासु णं पव्वइयाणं विणयकरणजिणसामिसासणवरे संजमाईण्णपालणधिहमइववसायदुबलाण १ तवनियमतवोवहाणरणदुद्धरभरभग्गयणिस्सहयणिसिट्टाणं २ घोरपरीसहपराजियाणं सहपारस्रुद्धसिद्धालयमग्गनिग्गवाणं ३ विसयसुहतु
--%
-
वियाह/(भगवती) अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः, ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~2424
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ---------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
A
१४१वा
प्रत सूत्रांक
वाधर्म
KAROO
श्रीसमवायांगे भीबमय
चिः ॥११६॥
थाधिकारः
[१४१]
प्रत
आसावसदोसमुच्छियाणं ४ विराहियचरिचनाणदसणजइगुणविविहप्पयारनिस्सारसुन्नयाणं ५ संसारअपारदुक्खदुग्गहमवविविहपरंपरापवंचा ६ धीराण य जियपरिसदकसायसेण्णधिइधणियसंजमउच्छाहनिच्छियाणं ७ आराहियनाणदसणचरित्तजोगनिस्सलसुद्धसिद्धालयमग्गमभिमुहाणं सुरभवणविमाणसुक्खाई अणोवमाई भुत्तूण चिरं च भोगभोगाणि ताणि दिवाणि महरिहाणि ततो य कालकमचुयाणं जह य पुणो लद्धसिद्धिमग्गाणं अंतकिरिया चलियाण य सदेवमाणुस्सधीरकरणकारणाणि बोधणगुसासणाणि गुणदोसदरिसणाणि दिद्रुते पचये य सोऊण लोगमुणिणो जट्ठियसासणम्मि जरमरणनासणकरे आराहिअसंजमा य सुरलोगपडिनियत्ता ओवेन्ति जह सासयं सिर्व सवदुक्खमोक्वं, एए अण्णे य एवमाइअत्था वित्थरेण य, णायाधम्मकहासु णं परिचा वायणा संखेजा अणुओगदारा जाव संखेजाओ संगहणीओ, से गं अंगट्टयाए छठे अंगे दो सुअक्संधा एगूणवीसं अज्झयणा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-चरिता य कप्पिया य, दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्य णे एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाई एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयउवक्खाइयासपाई एवमेव सपुज्वावरेणं अद्भुट्ठाओ अक्खाइयाकोडीओ भवतीति मक्खायाओ, एगणतीस उद्देसणकाला एगूणतीसं समुदेसणकाला संखेजाई पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णता संखेजा अक्खरा जाव चरणकरणपरूवणया आधविअंति, सेत्तं णायाधम्मकहाओ ६॥ सूत्र १४१॥ 'सेकिंत'मित्यादि, अथ कास्ता ज्ञाताधर्मकथा?-जातानि-उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा दीर्घत्वं संज्ञात्वाद् अथवा प्रथमश्रुतस्कन्धो ज्ञाताभिधायकत्वात् ज्ञातानि द्वितीयस्तु तथैव धर्मकथाः, ततश्च ज्ञातानि च धर्म
अनुक्रम [२२२]
%A4%AC%ES
॥११६॥
SAMEnirahi
| ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~2434
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
ACC
[१४१]
कथाच ज्ञाताधर्मकथाः, तत्र प्रथमं व्युत्पत्त्यर्थं सूत्रकारो दर्शयन्नाह-'नायाधम्मकहासु णमित्यादि, ज्ञाताना-उदाहरणभूतानां मेघकुमारादीनां नगरादीन्याख्यायन्ते, नगरादीनि द्वाविंशतिः पदानि कण्ठ्यानि च, नवरमुद्यानं-पत्रपुष्पफलच्छायोपगतवृक्षोपशोभितं विविधवेषोन्नतमानश्च बहुजनो यत्र भोजनार्थ यातीति, चैत्सं-व्यन्तरायतनं, बनख-15 ण्डोऽनेकजातीयैरुत्तमैवृक्षरुपशोभित इति, 'आपविजंति' इह यावत्करणादन्यानि पंच पदानि रश्यानि यावदयं सूबावययो यथा 'नायाधम्मे'त्यादि, तत्र ज्ञाताधर्मकथासु णमित्यलङ्कारे प्रव्रजितानां, क ?-'विनयकरणजिनखामिशासनवरे' कर्मविनयकरे जिननाथसम्बन्धिनि शेषप्रवचनापेक्षया प्रधाने प्रवचने इत्यर्थः, पाठान्तरेण 'समणाणं विणयकरणजिणसासणमि पवरे' किंभूतानां ?-संयमप्रतिज्ञा-संयमाभ्युपगमः सैव दुरधिगम्यत्वात् कातरनरक्षोभकत्वागम्भीरत्वाच पातालमिव पातालं तत्र धृतमतिव्यवसाया दुर्लभा येषां ते तथा, पाठान्तरेण संयमप्रतिज्ञापालने ये धृतिमतिव्यवसायास्तेषु दुर्बला येते तथा तेषां, तत्र धृतिः-चित्तस्वास्थ्यं मतिः-बुद्धिर्व्यवसायः-अनुष्ठानोत्साह इति, तथा तपसि नियमः-अवश्यकरणं तपोनियमो नियत्रितं तपः स च तप उपधानं चानियत्रितं तप एव श्रुतोपचारः तपोनियमतपउपधाने ते एव रणश्च-कातरजनक्षोभकत्वात् सङ्घामो 'दुद्धरभर'त्ति श्रमकारणत्वाहुर्द्धरभरश्च-दुर्बहलोहादिभारस्ताभ्यां भमा इति(एव)-भमका:-पराधुखीभूतास्तथा 'निस्सहगनिसट्ठाणं'ति निःसहा-नितरामशक्तास्त एवं निःसहका निसृष्टान-निसृष्टाका मुक्कामा येते तपोनियमतपउपधानरणदुर्धरभरमनकनिःसहकनिसृष्टाः, पाठान्त
प्रत अनुक्रम [२२२]
REnandana
| ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~244
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१४१]
प्रत
अनुक्रम [२२२]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे श्रीअमय ० वृति:
॥११७॥
रेण निःसहकनिविष्टास्तेषा, इह च प्राकृतत्वेन ककारलोपसन्धिकरणाभ्या भग्ना इत्यादी दीर्घत्वमवसेयं, तथा घोरपरीवहैः पराजिताश्वासहाश्र - असमर्थाः सन्तः प्रारब्धाश्च परीषहैरेव वशीकर्त्तुं रुद्धाश्च मोक्षमार्गगमने ये ते घोरपरीपहपराजिता सहप्रारब्धरुद्वाः अत एव सिद्धालयमार्गात् - ज्ञानादेर्निर्गताः- प्रतिपतिता ये ते तथा ते च ते चेति तेषां घोरपरीपहपराजितासहप्रारब्धरुद्ध सिद्धालयमार्गनिर्गतानां, पाठान्तरेण घोरपरीपहपराजितानां तथा सहयुगपदेव परीपरैर्विशिष्टगुणश्रेणिमारोहन्तः प्ररुद्धरुद्धा: - अतिरुद्धाः सिद्धालयमार्गनिर्गताश्च ये ते तथा तेषां सहप्ररुद्ध सिद्धालयमार्गनिर्गतानां तथा विषयसुखेषु तुच्छेषु खरूपतः आशावशदोपेण-मनोरथपारतब्य वैगुण्येन | मूच्छिता - अभ्युपपन्ना ये ते तथा तेषां विषयसुखतुच्छाशावश दोषमूर्हितानां पाठान्तरेण विषयसुखे या महेच्छा कस्यांचिदवस्थायां या चावस्थान्तरे तुच्छाशा तयोर्वशः-पारतन्त्र्यं तलक्षणेन दोषेण मूच्छिता ये ते तथा तेषां विषयसुखमहेच्छा तुच्छाशावशदोषमूर्च्छितानां तथा विराधितानि चारित्रज्ञानदर्शनानि यैस्ते तथा, तथा यतिगुणेषु विविधप्रकारेषु मूलगुणोत्तरगुणरूपेषु निःसाराः - सारवर्जिताः पलञ्जिप्रायगुणधान्या इत्यर्थः, तथा तैरेव यतिगुणैः शून्यकाः सर्वथा अभावाद्ये ते तथेति, पदत्रयस्य च कर्म्मधारयोऽतस्तेषां विराधितचारित्रज्ञानदर्शनयतिगुणविविधप्रकारनिःसारशून्यकानां, किमत आह- संसारे संसृती अपारदुःखा- अनन्तक्लेशा ये दुर्गतिषु-नारकतिर्यक्कु मानुपकुदेवत्वरूपासु भवा-भवग्रहणानि तेषां ये विविधाः परम्पराः-पारम्पर्याणि तासां ये प्रपञ्चास्ते संसारापारदुर्गति भवविविधपरम्परा
ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Parts Only
मूलं [१४१] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~ 245~
१४१. ज्ञाताधर्मकधाधिकारः
॥११७॥
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], -----------------
मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१४१]
ट्राप्रपश्चाः, आख्यायन्ते इति पूर्वेण योगः, तथा धीराणां च-महासत्वानां, किंभूतानां ?-जितं परीपहकपायसैन्यं यते
तथा, धृते:-मनःस्वास्थ्यस्य धनिका:-स्वामिनो धृतिधनिकाः, तथा संयमे उत्साहो-वीर्य निश्चित:-अवश्यंभावी नयेषा(ते)संयमोत्साहनिश्चितास्ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तेषां जितपरीपहकपायसैन्यधृतिधनिकसंयमोत्साहनिश्चि
ताना, तथा आराधिता ज्ञानदर्शनचारित्रयोगा यैस्ते तथा निःशल्यो-मिथ्यादर्शनादिशल्यरहितः शुद्धश्च-अतीचारविमुहै तो यः सिद्धालयस्य-सिद्धेयो ()मार्गस्तस्याभिमुखा येते तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयःअतस्तेषामाराधितज्ञानदर्शनचा-18
रित्रयोगनिःशल्यशुद्धसिद्धालयमार्गाभिमुखाना, किमत आह-सुरभवने-देवतयोत्पादे यानि विमानसौख्यानि तानि सुरभवनविमानसौख्यानि अनुपमानि ज्ञाताधर्मकथाखाख्यायन्त इति प्रक्रमः, इह च भवनशब्देन भवनपतिभवनानि नव्याख्यातान्यविराधितसंयमप्रत्रजितप्रस्तावात् , ते हि भवनपतिपुनोत्पद्यन्त इति, तथा भुक्त्वा चिरं च भोगभोगान्-मनो-5
शब्दादीन् तांस्तथाविधान् दिव्यान्-खर्गभवान् 'महार्हान्' महतः-आत्यन्तिकान् अन्-िप्रशस्ततया पूज्यानिति भावः, ततश्च-देवलोकात् कालक्रमच्युतानां यथा पुनर्लब्धसिद्धिमार्गाणां-मनुजगतायवासज्ञानादीनामन्तक्रिया-मोक्षो भवति तथाऽऽख्यायन्त इति प्रक्रमः, तथा चलितानां च-कथञ्चित्कर्मवशतः परीषहादावधीरतया संयमप्रतिज्ञायाः
प्रभ्रष्टानां सह देवैर्मानुषाः सदेवमानुपातेषां सम्बन्धीनि धीरकरणे-धीरत्वोत्पादने यानि कारणानि-ज्ञातानि तानि टै सदेवमानुषधीरकरणकारणानि आख्यायन्त इति प्रक्रमः, श्यमत्र मावना-यथा आर्यापाढो देवेन धीरीकृतो यथा वा
प्रत अनुक्रम [२२२]
| ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~246~
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१४१]
प्रत
अनुक्रम [२२२]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे श्री अभय ०
वृचि:
॥११८॥
Jan Eratur
| मेघकुमारो भगवता शैलकाचार्यो वा पन्थकसाधुना धीरीकृतः एवं धीरकरणकारणानि तत्राख्यायंते, किंभूतानि तानीत्याह- 'बोधनानुशासनानि' बोधनानि - मार्गभ्रष्टस्य मार्गस्थापनानि अनुशासनानि - दुःस्थस्य सुस्थतासम्पाद नानि अथवा बोधनं-आमन्त्रणं तत्पूर्वकान्यनुशासनानि बोधनानुशासनानि, तथा गुणदोषदर्शनानि-संयमाराधनायां गुणा इतरत्र दोषा भवन्तीत्येवंदर्शनानि वाक्यान्याख्यायन्त इति योगः, तथा दृष्टान्तान् ज्ञातानि प्रत्ययांश्च बोधिकारणभूतानि वाक्यानि श्रुत्वा 'लोकमुनयः' शुकपरिव्राजकादयो 'यथा' येन प्रकारेण स्थिताः शासने जरामरणनाशनकरे जिनानां सम्बन्धिनीति भावः, तथाऽऽख्यायन्त इति योगः, तथा 'आराहितसञ्जम'त्ति एत एव लौकिकमुनयः संयमं वलिताश्च जिनप्रवचनं प्रपन्नाः पुनः परिपालितसंयमाश्च सुरलोकं गत्वा चैते सुरलोकप्रतिनिवृत्ता उपयान्ति यथा शाश्वतं सदाभाविनं शिवं अवाधाकं सर्वदुःखमोक्षं निर्वाणमित्यर्थः, एते चोक्तलक्षणाः अन्ये च 'एवमादित्य'त्ति एवमादय आदिशब्दस्य प्रकारार्थत्वादेवंप्रकारा अर्थाः - पदार्थाः, 'चित्थरेण य'त्ति विस्तरेण चशब्दात् क्वचित्केचित् संक्षेपेण आख्यायन्त इति क्रियायोगः 'नायाधम्मकहासु ण'मित्यादि कष्ट्य मानिगमनात्, नवरं 'एकूणवीसमज्झयण'ति प्रथमश्रुतस्कन्धे एकोनविंशतिर्द्वितीये च दशेति, तथा 'दस धम्मकहाणं वग्गा' इत्यादी भावनेयं - इहै कोनविंशतिर्ज्ञाताध्ययनानि दान्तिकार्थज्ञापनलक्षणज्ञातप्रतिपादकत्वात्तानि प्रथम तस्कन्धे, द्वितीये त्वहिंसादिलक्षणधर्म्मस्य कथा धर्मकथा - आख्यानकानीत्युक्तं भवति, तासां च दश वर्गाः, वर्ग इति समूहः, तत
| ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Pasta Lise Only
मूलं [१४१]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~ 247 ~
| १४१ ज्ञा
ताधर्मकथाधिकारः
॥११८॥
nary or
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
456-
%%
प्रत सूत्रांक
%
[१४१]
थार्थाधिकारसमूहात्मकान्यध्ययनान्येव दश वर्गा द्रष्टव्याः, तत्र ज्ञातेवादिमानि दश यानि तानि ज्ञातान्येष, न ते-11 प्वाख्यायिकादिसम्भवः, शेषाणि नव ज्ञातानि, तेषु पुनरेकैकस्मिन् पञ्च पञ्च चत्वारिंशदधिकानि आख्यायिकाश-I तानि, तत्राप्येकैकस्यामाख्यायिकायां पञ्च पञ्चोपाख्यायिकाशतानि, तत्राप्येकैकस्यामुपाख्यायिकायां पञ्च पञ्चाख्या-| यिकोपाख्यायिकाशतानि, एवमेतानि संपिण्डितानि कि सातं ?-'इगवीस कोडिसयं लक्खा पण्णासमेव बोद्धचा।। १२१५००००००। एवं ठिए समाणे अहिगयसुत्तस्स पत्थारो ॥१॥ तद्यथा 'दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पञ्च पञ्च अक्खाइयासयाई एगमेगाए अक्खाइयाए पञ्च पञ्चउपक्खाइयासयाई एगमेगाए| | उवक्खाइयाए पञ्च पञ्च अक्खाइउवक्खाइयासयाईति, एवमेतानि सम्पिण्डितानि कि संजातं ?-'पणवीस कोडिसयं १२५००००००० एत्य य समलक्खणाइया जम्हा । नवनाययसंवद्धा अक्खाइयमाइया तेणं ॥१॥ते सोहिजंति फुडं इमाउ रासीओ वेगलाणं तु । पुणरुत्तवज्जियाणं पमाणमेयं विणिदिटुं॥२॥ शोधिते चैतस्मिन् सति अर्द्धचतुर्था एव कथानककोठ्यो भवन्तीति, अत एवाह-'एवमेव सपुवावरेणं'ति भणितप्रकारेण गुणनशोधने कृते सतीत्युक्तं भवति 'अडुट्ठाओ अक्खाइयाकोडीओ भवन्तीतिमक्खाओं'त्ति आख्यायिकाः-कथानकानि एता-एवमेतत्संख्या भवन्तीतिकृत्वा आख्याता भगवता महावीरेणेति, तथा संख्यातानि 'पदसयसहस्साणीति किल पञ्च लक्षाणि षट्सप्सतिश्च सहस्राणि पदाण अथवा सूत्रालापकपदारेण संख्यातान्येव पदसहस्राणि भवन्तीत्येवं सर्वत्र भावयितव्यमिति ॥६॥
CASSSSSCRIGARL
प्रत अनुक्रम [२२२]
*-कर
amurary.om
| ज्ञाताधर्मकथा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~248
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा
यांगे
श्रीअभय
प्रत सूत्रांक [१४२]
कारे.
॥११९॥
प्रत अनुक्रम [२२३]
से किं तं उवासगदसाओं १, उवासगदसासु ण उवासयाणं णगराई उजाणाई चेइआई वणर्खडा रायाणो अम्मापियरो समी- १४२ उसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयइड्डिविसेसा उवासयाणं सीलव्वयवेरमणगुणपञ्चक्खाणपोसहोववासपडि- पासकद्वजणयाओ सुषपरिग्गहा तवोवहाणा पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुल
शाङ्गाधिपञ्चायाया पुणो बोहिलामा अंतकिरियाओ आधविनंति, उवासगदसासु णं उवासयाणं रिद्धिविसेसा परिसा वित्थरधम्मसवणाणि बोहिलाभअभिगमसम्मत्तविसुद्धया पिरतं मूलगुणउत्तरगुणाइयारा ठिईबिसेसा य पहुबिसेसा पडिमाभिग्गहम्मणपालणा उक्सग्गाहियासणा णिरुवसग्गा य तवा य विचित्ता सीलब्बयगुणवरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासा अपच्छिममारणंतिया य सलेहणाझोसणाहिं अप्पाणं जह य भावइत्ता बहणि भत्ताणि अणसणाए य छेअइत्ता उववण्णा कप्पवरविमाणुतमेसु जह अणुभवति सुरवरविमाणवरपौडरीएसु सोक्खाई अणोचमाई कमेण भुत्तूण उत्तमाई तओ आउक्खएणं चुया सभाणा जह जिणमयम्मि बोहि लभ्रूण य संजमुत्तमं तमरयोपविष्णमुक्का उति जह अक्खयं सचदुक्खमोक्वं, एते अने य एवमाइअत्था वित्वरेण य, उवासबदसासु णं परिचा वायणा संखेना अणुओगदारा जाव संखेनाओ संगहणीओ, से णं अंगद्वयाए सत्तमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा दस उदेसणकाला दस समुदेसणकाला संखेजाई पयसयसहस्साई पयगेण प० संखेआई अक्खराई जाव एवं चरणकरणपरूवणया आधविअंति, सेत्तं उवासगदसाओ ७॥ सूत्र १४२ ॥
||२१९॥ 'से कि तमित्यादि अथ कास्ता उपासकदशाः ?, उपासकाः श्रावकास्तगतक्रियाकलापप्रतिबद्धा दशा:-दशाध्य-! यनोपलक्षिता उपासकदशाः, तथा चाह–'उपासकदसासु णं' उपासकानां नगराणि उद्यानानि चैत्यानि वनखण्डा।
REarathiAIIMina
उवासगदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~249~
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१४२]
प्रत
अनुक्रम
[२२३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
Jan Eraton
राजानः अम्बापितरौ समवसरणानि धर्माचार्या धर्मकथा ऐहलौकिकपारलौकिका ऋद्धिविशेषा उपासकाना च शीतविरमणगुणप्रत्याख्यान पौषधोपवासप्रतिपादनताः, तत्र शीलव्रतानि -अणुव्रतानि विरमणानि - रागादिविरतयः गुणा-गुणत्रतानि प्रत्याख्यानानि - नमस्कारसहितादीनि पौषधः - अष्टम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनमाहारशरीरसत्कारादित्यागः पौषधोपवासः, ततो द्वन्द्वे सत्येतेषां प्रतिपादनताः प्रतिपत्तय इति विग्रहः, श्रुतपरिग्रहास्तपउपधानानि प्रतीतानि 'पडिमाओ ति एकादश उपासकप्रतिमाः कायोत्सर्गा या उपसर्गा-देवादिकृतोपद्रवाः संलेखनाभक्तपानप्रत्याख्यानानि, पादपोपगमनानि देवलोकगमनानि सुकुलप्रत्यायातिः पुनर्वोधिलाभोऽन्तक्रिया चाख्यायन्ते पूर्वोक्तमेवेतो विशेषत आह- 'उवास त्यादि, तत्र ऋद्धिविशेषा-अनेक कोटी संख्याद्रव्यादिसम्पद्विशेषाः तथा परिषद:-परिवारविशेषा यथा मातापितृपुत्रादिका अभ्यन्तरपरिषत् दासीदासमित्रादिका वाह्मपरिषदिति, विस्तरधर्मश्रवणानि महावीरसन्निधौ, ततो बोधिलाभोऽभिगमः- सम्यक्त्वस्य विशुद्धता स्थिरत्वं सम्यक्त्वशुद्धिरेव मुलगूणोत्तरगुणा - अणुव्रतादयः अतिचारास्तेषामेव-वधवन्धादितः खण्डनानि स्थितिविशेषाञ्च - उपासक पर्यायस्य कालमानभेदाश्च बहुविशेषाः प्रतिमाः - प्रभूतभेदाः सम्यग्दर्शनादिप्रतिमाः अभिग्रहग्रहणानि तेषामेव च पालनानि उपसर्गाधिसहनानि निरुपसर्गश्व-उपसर्गाभावश्चेत्यर्थः, तपांसि च विचित्राणि शीलत्रतादयोऽनन्तरोक्तरूपा अपश्चिमाः
उवासगदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Pale Only
मूलं [१४२ ] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~250~
Arary org
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
यांगे
प्रत सूत्रांक [१४२]
कारे.
प्रत अनुक्रम [२२३]
श्रीसमवा- पश्चात्कालभाविन्यः अकारस्त्वमङ्गलपरिहारार्थ मरणरूपे अन्ते भवा मारणान्तिक्यः आत्मनः-शरीरस्य जीवस्य च १४२ उ
संलेखनाः तपसा रागादिजयेन च कृशीकरणानि आत्मसंलेखनाः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयस्तासां, 'झोसणं ति:पासकदश्रीअभय जोषणाः सेवनाः कारणानीत्यर्थः, ताभिरपश्चिममारणान्तिकात्मसंलेखनाजोषणाभिरात्मानं यथा च भावयित्वा
शाङ्गाधिवृत्तिः
बहूनि भक्तानि अनशनतया च-नि जनतया छेदयित्वा-व्यवच्छेदयित्वा व्यवच्छेद्य उपपन्ना मृत्वेति गम्यते, केषु?-क-| ॥१२०॥ शल्पवरेषु यानि विमानानि उत्तमानि तेषु, तथा यथानुभवन्ति सुरवरविमानानि वरपुण्डरीकाणीव वरपुण्डरीकाणि यानि ||
तेषु कानि?-सौख्यान्यनुपमानि क्रमेण भुक्त्वोत्तमानि ततः आयुष्कक्षयेण च्युताः सन्तो यथा जिनमते बोधि लब्धा इति शेषः लब्ध्वा च संयमोत्तम-प्रधानं संयम तमोरजओषविप्रमुक्ता-अज्ञानकर्मप्रवाहविनमुक्ता उपयान्ति, यथा अक्षयं-अपुनरावृत्तिकं सर्वदुःखमोक्षं कर्मक्षयमित्यर्थः, तथोपासकदशाखाख्यायन्त इति प्रक्रमः, एते चान्ये चेत्यादि| प्राग्वन्नवरं 'संखेजाई पयसयसहस्साई पयम्गणति किलेकादश लक्षाणि द्विपञ्चाशच सहस्राणि पदानामिति ॥७॥
से किं तं अंतगडदसाओ ?, अंतगडदसासु णं अंतगडाणं णगराई उजाणाई चेइयाई वणाइं राया अम्मापियरो समोसरणा धम्मायरिया धम्मकहा इहलोइयपरलोइअइडिविसेसा भोगपरिचाया पव्वआओ सुयपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ बहुविहाओ 1 ॥२०॥ खमा अजब मदवं च सोनं च सशसहियं सत्तरसविहो य संजमो उत्तमं च बभं आकिंचणया तयो चियाओ समिइगुत्तीओ चैव तह अप्पमायजोगो सज्शायज्झाणेण य उत्तमाणं दोण्हंपि लक्खणाई पत्ताण य संजमुत्तमं जियपरीसदाणं चउबिहकम्म
ॐ4-TAX
उवासगदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:, अंतकृतदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~251~
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१४३]
क्खयम्मि जह केवलस्स लंभो परियाओ जत्तिओ य जह पालिओ मुणिहिं पायोवगओ य जो जहिं जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता अंतगडो मुनिवरो तमरयोपविष्पमुक्को मोक्खसुहमणंतरं च पत्ता एए अन्ने य एवमाइअत्था वित्थारेणं परूवेई, अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा संखेजा अणुभोगदारा जाव संखेजाओ संगहणीओ, जाव से णं अंगठ्ठयाए अट्टमे अंगे एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा सत्त वग्गा दस उदेसणकाला दस समुदेसणकाला संखेबाई पयसहस्साई पयग्गेणं पण्णत्ता संखेना अक्खरा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति, सेत्तं अंतगडदसाओ ॥८॥(सूत्रं १४३) 'से किं तमित्यादि, अथ कास्ता अन्तकृद्दशाः, तत्रान्तो-विनाशः, स च कर्मणस्तत्फलस्य वा संसारस्य कृतो यैस्ते अन्तकृतास्ते च तीर्थकरादयस्तेषा दशाः-प्रथमवर्गे दशाध्ययनानीति तत्संख्यया अन्तकृतदशाः, तथा चाह
अंतगडदसासु णमित्यादि कण्ठ्यं, नवरं नगरादीनि चतुर्दश पदानि षष्ठाझवर्णकाभिहितान्येच, तथा 'पडिमाओंति M द्वादश भिक्षुप्रतिमा मासिक्यादयो बहुविधाः तथा क्षमा मार्दवं आर्जवं च शौचं च सत्यसहितं, तत्र शौचं-परद्रव्या
पहारमालिन्याभावलक्षणं सप्तदशविधश्च संयम उत्तमं च ब्रह्म-मैथुनविरतिरूपं 'आकिंचणिय'त्ति आकिञ्चन्यं तपस्त्याग | इति-आगमोक्तं दानं समितयो गुप्तयश्चैव तथा अप्रमादयोगः स्वाध्यायध्यानयोश्च उत्तमयोयोरपि लक्षणानि-खरू-14 पाणि, तत्र खाध्यायस्य लक्षणं 'सज्झाएण पसत्थं झाण मित्यादि, ध्यानलक्षणं यथा-"अंतोमुहुत्तमित्तं चित्तावत्थाणमेगवत्थुमी"त्यादि, व्याख्यायन्त इति सर्वत्र योगः, तथा प्रासानां च संयमोत्तम-सर्वविरतिं जितपरीपहाणां चतुर्विधक
प्रत अनुक्रम [२२४]
२१ सम०
अतकृतदशा अगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~252~
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
यांगे
प्रत सूत्रांक
[१४३]
प्रत अनुक्रम [२२४]
श्रीममवा- I र्मक्षये सति-पातिकर्मक्षये सति वथा केवलख झामादेाभः पर्याव-वन्यालक्षणो याबाश्च-यावद्वादिप्रयायो| त.
'या' येन तपोविशेषाश्रयणादिना प्रकारेण पालितो मुनिमिः पादपोषगतश्च-पादोपगमाभिधानमनशनं प्रतिपको । कृतदशाः श्रीअभय०|| यो मुनियंत्र शत्रुजयपर्वतादौ यावन्ति च भक्कानि-भोजनानि छेदयित्वा, अनशनिना हि प्रतिदिनं भक्तद्वयच्छेदो भपति,XI
वृत्तिः अन्तकृतो मुनियरो जात इति शेषः, तमोरजओघविनमुक्तः, एथं च सर्वेऽपि क्षेत्रकालादिविशेषिता मुनयो मोक्षसुख॥१२॥ मनुत्तरं च प्राप्ता आख्यायन्त इति क्रियायोगः, एते अन्ये चेत्यादि प्राग्वत् , नवरं 'दस अज्झयण'त्ति प्रथमवर्गापेक्ष
यैव घटन्ते, नन्यां तथैव व्याख्यातत्वात् , यचेह पठ्यते 'सत्त वग्ग'त्ति तत्प्रथमवर्गादन्यवर्गापेक्षया, यतोऽत्र सर्वे|ऽप्यष्ट वर्गाः, नन्यामपि तथा पठितत्वात् , तद्वृत्तिश्चेयं “अट्ट बग्ग'त्ति" अत्र वर्गः समूहः, स चान्तकृतानामध्ययनानां । वा, सर्षाणि चैकवर्गगतानि युगपदुद्दिश्यन्ते, ततो भणितं 'अट्ठ उद्देसणकाला'इत्यादि, इह च दश उद्देशनकाला अ-14 धीयन्ते इति नास्याभिप्रायमवगच्छामः, तथा संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाणेति, तानि च किल त्रयोविंशतिलक्षाणि चत्वारि च सहस्राणीति ॥८॥ से किं तं अणुत्तरोववाइयदसाओ ?, अणुत्तरोववाइयदसासु णं अणुत्तरोववाइयाणं नगराई उजाणाई चेइयाई वणखंडा रायाणो
॥१२॥ अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोगपरलोगइडिबिसेसा भोगपरिचाया पञ्चजाओ सुयपरिम्गहा तवोवहाणाई परियागो पडिमाओ संलेहणाओ भत्तपरणपञ्चरखाणाई पाओवगमणाई अगुत्तरोववाओ सुकुलपञ्चायाया पुणो चोहिलाभो अंतकिरि
KARANA
अंतकृतदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः, अनुत्तरोपपातिकदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~253~
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ---------- मूलं [१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४४]
याओ य भाषविअंति, अणुत्तरोचवाइयदसासु णं तित्थकरसमोसरणाई परमंगल् जगहियाणि जिणातिसेसा य बहुमिसेसा जिणसीसाणं चेव समणगणपवरगंधहत्यीणं थिरजसाणं परिसहसेण्णरिउबलपमद्दणाणं तवदित्तचरितणाणसम्मत्तसारविविहप्पगारवित्थरपसत्वगुणसंजुयाणं अणगारमहरिसीणं अणगारगुणाण वण्णओ उत्तमवरतवविसिट्ठणाणजोगजुत्ताणं जह य जगहियं भगवओ जारिसा इडिविसेसा देवासुरमाणुसाणं परिसाणं पाउन्भावा य जिणसमीवं जह य उवासंति जिणवरं जह य परिकहति धम्मं लोगगुरू अमरनरसुरगणाणं सोऊण य तस्स भासियं अवसेसकम्मविसयविरत्ता नरा जहा अब्भुति धम्ममुरालं संजमं तवं चावि बहुविहप्पगारं जह बहूणि वासाणि अणुचरित्ता आराहियनाणदसणचरित्तजोगा जिणवयणमणुगयमहियं भासित्ता जिणवराण हिययेणमणुण्णेत्ता जे य जहि जत्तियाणि भत्ताणि छेअइत्ता लण य समाहिमुत्तमझामजोगजुत्ता उववना मुणिवरोत्तमा जह अजुत्तरेसु पार्वति जह अणुत्तरं तत्थ विसयसोक्खं तओ य चुआ कमेण काहिंति संजया जहा व अंतकिरियं एए अन्ने य एबमाइभत्या वित्थरेण, अणुत्तरोववाइयदसासु णं परित्ता पावणा संखेजा अणुओगदारा संखेजाओ संग्रहणीओ, से पं बंगट्टयाए नक्मे ये एगे सुयक्खंधे दस अजनयणा तिन्नि वग्गा दस उद्देसणकाला दस समुदसणकाला संखेजाई पयसबसहस्साई पयग्मेणं प०, संखे
आणि अक्खराणि जाव एवं चरणकरणपरूवणया अपविजंति, सेतं अणुत्तरोववाइयदसाओ ॥ ९॥ (सूत्रं १४४) 'से किं तमित्यादि, नास्मादुत्तरो विद्यते इत्यनुत्तर उपपतनमुपपातो जन्मेत्यर्थः अनुत्तरः-प्रधानः संसारे अन्वस्थ तथाविधस्याभावादुपपातो येषां ते तथा त एवानुत्तरोपपातिकाः, तद्वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा-दशाध्ययमोपलक्षिता अनुत्तरोपपातिकदशाः, तथा चाह-'अणुत्तरोक्वाइयदसासु म'मित्यादि, तत्रानुत्तरोपपातिकानामिवि-साधूनां |
प्रत अनुक्रम [૨૨].
Saintairatun
अनुत्तरोपपातिकदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~254~
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
खनऊ
प्रत सूत्रांक
[१४४]
प्रत अनुक्रम [૨૨].
नगरादीनि द्वाविंशतिः पदानि ज्ञाताधर्मकथावर्णकोक्तानि यथा तथा (ज्ञेयानि), एतेषामेव च प्रपञ्च रचयन्नाहश्रीसमवा
१४४ अयाम अनुत्तरोपपातिकदशासु तीर्थकरसमवसरणानि, किम्भूतानि ?-परममाङ्गल्यत्वेन जगद्धितानि परममाङ्गल्यजगद्धि-131
नुत्तरोपपाश्रीअमय० दूतानि जिनातिशेषाश्च-बहुविशेषा 'देहं विमलसुबंध'मित्यादयश्चतुर्विंशदधिकतरा वा तथा जिनशिष्याणां चैव-गण- तिकदशाः
वृत्तिः धरादीनां, किम्भूतानामत आह-श्रमणगणप्रवरगन्धहस्तिनां-श्रमणोत्तमानामित्यर्थः, तथा स्थिरयशसा तथा परी॥१२२॥
पहसैन्यमेव-परीषहवृन्दमेव रिपुबलं-परचक्रं तत्प्रमईनानां, तथा दववद्-दावाग्निरिख दीप्तानि-उज्ज्वलानि पाठान्तरेण तपोदीप्तानि यानि चारित्रज्ञानसम्यक्त्वानि तैः साराः-सफलाः विविधप्रकारविस्तारा-अनेकविधप्रपञ्चाः प्रशस्ताश्च ये क्षमादयो गुणास्तैः संयुतानां, कचिद्गुणध्वजानामिति पाठः, तथा अनगाराश्च ते महर्षयश्चेत्यनगारमहर्षयस्तेषामनगारगुणानां वर्णकः-श्लाघा आख्यायन्त इति योगः, पुनः किम्भूतानां जिनशिष्याणा ?-उत्तमाश्च ते जात्यादिभिर्वरतपसश्च ते विशिष्टज्ञानयोगयुक्ताश्चेत्यतस्तेषामुत्तमवरतपोविशिष्टज्ञानयोगयुक्तानां, किच्चापरं ?, यथा च जगद्धितं भगवत इत्यत्र जिनस्य शासनमिति गम्यते, यादृशाश्च ऋद्धिविशेषा देवासुरमानुषाणां रनोज्ज्वललक्षयोजनमानविमानरचनं सामानिकायनेकदेवदेवीकोटिसमवायनं मणिखण्डमण्डितदण्डपटुप्रचलत्पताकिकाशतोपशोभितमहाध्वजपुरःप्रवर्त्तनं वि
| ॥१२२॥ विधातोद्यनादगगनाभोगपूरणं चैवमादिलक्षणाः प्रतिकल्पितगन्धसिन्धुरस्कन्धारोहणं चतुरङ्गसैन्यपरिवारणं छत्रचामरमहाध्वजादिमहाराजचिह्नप्रकाशनं च एवमादयश्च सम्पद्विशेषाः समवसरणगमनप्रवृत्तानां वैमानिकज्योतिष्काणा
LAST
अनुत्तरोपपातिकदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~255~
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक [१४४]
प्रत
अनुक्रम
[२२५]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
मूलं [१४४]
पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
Jan Educator
भवनपतिभ्यन्तराणां राजादिमनुजानां च अथवा अनुत्तरोपपातिकसाधूनां ऋद्धिविशेषा देवादिसम्बन्धिनस्तादृशा आख्यायन्त इति क्रियायोगः, तथा पर्षदां च 'संजयवेमाणित्थी संजर पुत्रेण पविसिउं वीर' मित्यादिनोक्तखरूपाणां प्रादुर्भावाश्च- आगमनानि, क ? - 'जिणसमीवंति जिनसमीपे यथा-येन च प्रकारेण पञ्चविधाभिगमादिना उपासतेसेवन्ते राजादयो जिनवरं तथाऽऽख्यायत इति योगः, यथा च परिकथयति धर्म्म लोकगुरुरिति - जिनवरोऽमरनरासुरगणानां श्रुत्वा च तस्येति - जिनवरस्य भाषितं अवशेषाणि क्षीणप्रायाणि कर्माणि येषा ते तथा ते च ते विषयविरक्ताश्चेति अवशेषकर्मविषयविरक्ताः, के ? - नराः, किं ? - यथा अभ्युपयन्ति धर्म्ममुदारं, किंखरूपमत आह-संयमं तपश्चापि किम्भूतमित्याह - बहुविधप्रकारं, तथा यथा बहूनि वर्षाणि 'अणुचरित' ति अनुचर्य आसेव्य संयमं तपश्वेति वर्त्तते, तत आराधितज्ञानदर्शनचारित्रयोगास्तथा 'जिणवयण मणुगय महिय भासिय त्ति जिनवचनं - आचारादि अनुगतं सम्बद्धं नाद्देवितर्दमित्यर्थः महितं- पूजितमधिकं वा भाषितं वैरध्यापनादिना ते तथा, पाठान्तरे जिनवचनमनुगत्या - आनुकूल्येन सुष्ठु भाषितं यैस्ते जिनवचनानुगतिसुभाषिताः, तथा 'जिणवराण हियएणमणुण्णेत 'त्ति इति षष्ठी द्वितीयार्थे तेन जिनवरान् हृदयेन मनसा अनुनीय-प्राप्य ध्यात्वेतियावत्, ये च यत्र यावन्ति च भक्तानि छेदयित्वा लब्ध्वा च समाधिमुत्तमं ध्यानयोगयुक्ताः उपपन्ना मुनिवरोत्तमा यथा अनुत्तरेषु तथा आख्यायन्त इति प्रक्रमः, तथा प्राप्नुवन्ति यथाऽनुत्तरं 'तत्य'त्ति अनुत्तरविमानेषु विषयसुखं तथाऽऽख्यायन्ते इति योगः, 'तत्तो य'त्ति अनुत्त
अनुत्तरोपपातिकदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Parts Only
~256~
nirary org
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ---------- मूलं [१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१४४]
प्रत अनुक्रम [૨૨].
श्रीसमवा-रविमानेभ्यब्युताः क्रमेण करिष्यन्ति संवता यथा चान्तक्रियां ते तमाऽऽस्वायन्ते अनुत्तरोपपातिकदशास्विति प्रक-1 १४५ प्रयांगेतं,एते चान्ये चेत्यादि पूर्ववत् , नवरं 'दस अज्झयमा तिमि यम्पति, दहाध्ययनसमूहो वर्गो, वर्गे दशाध्ययनानि, भन्याकरवर्गश्च युगपदेवोदिश्वते इत्यतत्रय एवोद्देशनकाला भवन्तीखेनमेव च नन्यामभिधीयन्ते, इह तु रश्यन्ते दशेखत्राकि
दणदशाः वृतिः
प्रायो न ज्ञायत इति, तथा संख्यातानि 'पदसयसहस्साई पयग्गेण ति किल षट्चत्वारिंशल्लक्षाण्यष्टौ च सहस्राणि॥९॥ ॥१२३॥
से किं तं पण्हावागरणाणि', पण्हावागरणेसु अहत्तरं पसिणसयं अद्भुत्तरं अपसिणसयं अहुत्तरं पसिणापसिणसयं विजाइसया नागसुवन्नेहिं सद्धि दिधा संवाया आपविजेति, पण्हावागरणदसासु णं ससमयपरसमयपण्णवयपत्तेभबुद्धविविहत्थभासाभासियाण अइसयगुणउवसमणाणप्पगारावरिवभासियाणं वित्थरेणं वीरमहसीहिं विविहवित्थरभासियाणं च जगहियाणं अदागंगुहबाहुअसिमणिखोमआइबभासियाणं विविहमहापसिणविजामणपसिणविजादेवयपयोगपहाणगुणप्पगासियाणं सम्भूयदुगुणप्पभावनरगणमइविम्हयकराणं अईसयमईयकालसमयदमसमतित्थकरुत्तमस्स ठिइकरणकारणाणं दुरहिगमदुरवगाहस्स सबसवन्नुसम्मअस्स अबुहजणविवोहणकरस्स परक्खयपञ्चयकराणं पण्हाणं विविहगुणमहत्या जिणवरप्पणीया आघविजंति, पण्हावागरणेमु ण परित्ता वायणा संखेमा अणुओगदारा जाप संखेनाओ संगहणीओ, से गं अंगठ्ठयाए दसमे अंगे एगे सुयक्वंधे पणयालीसं उदेसणकाला पणया
|॥१२३॥ लीस समुदेसणकाला संखेआणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं प०, संखेजा अक्सरा अणता गमा जाव चरणकरणपरूवणया आपविअंति, सेत्तं पाहावागरणाई ॥१०॥ (सूत्रं १४५)
SHOROSCAS SACREK
444
अनुत्तरोपपातिकदशा अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः, प्रश्नव्याकरण अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~257~
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१४५]
से कि तमित्यादि, प्रक्ष:प्रतीतस्तन्निर्वचनं-व्याकरणं प्रश्नानां च व्याकरणानां च योगात्प्रश्वव्याकरणानि तेषु 'अत्तरं पसिणसयं तत्राङ्गुष्ठवाहुप्रश्नादिका मन्त्रविद्याः प्रश्ना या पुनर्विधा मन्त्रविधिना जप्वमाना अपृष्टा एव शुभाशुभं कथयन्ति एताः अप्रश्नाः तथाऽङ्गुष्ठादिप्रश्नभावं तदभावं च प्रतीत्व या विद्याः शुभाशुभं कथयन्ति ताः प्रश्वाप्रश्नाः 'विज्जाइसबसि तथा अन्ये विद्यातिशयाः स्तम्भस्तोभवशीकरणविद्वेषीकरणोबाटनादयः नागसुपर्णेच सह-भवनपतिविशेषैरुपलक्षणवाद्यक्षादिभिश्च सह साधकस्पति गम्यते दिव्या:-सात्तिकाः संवादाः-शुभाशुभगताः संलापाः | आख्यायन्ते, एतदेव प्रायः प्रपञ्चवन्नाह-'पण्हापामरणदसे'वादि, खसमयपरसमयत्रज्ञापका ये प्रत्येकबुद्धाजैः कर
कडादिसरशैविविधार्था यका भाषा गम्भीरेत्यर्थः तवा भाषिताः-दिताः स्वसमयपरसमयप्रज्ञापकप्रत्येकबुद्धविविधापर्थभाषाभाषितास्तासां, किम् ?-आदर्शाङ्गुष्ठादीनां सम्बन्धिनां प्रश्नानां विविधगुणमहार्थाः प्रश्नव्याकरणदशासाख्यायन्त इति योमः, पुनः किम्भूतानां प्रश्चानां ?-'अइसयगुणउबसमनागप्पगारावरिषभासियाति अतिशवाथ-आमपौषध्यादयो गुणाथ-ज्ञानादय उपशमश्च-सपरभेदः एते नावात्रकारा वेषां ते तवा ते पसे आचार्वाश्च तैर्भाषिता
यास्तास्वथा तासां, कथं भाषितानामित्वाह-'वित्थरेणं ति विस्तरेण-महता वचनसन्दर्भेग तया स्थिरमहर्षिभिः पादाठान्तरे वीरमहर्षिभिः 'पिविहवित्थरभासिवाणं च'त्ति विविधषिस्तरेण भाषिताना च, चकारस्तृतीयप्रणायकभेदसमुष
वार्थः, पुनः कयंभूतानां प्रश्नानां ?-'जगहियाणं'ति जगद्धितानां पुरुषार्थोपयोगित्वात् , किंसम्बन्धिनीवामिलाह
प्रत अनुक्रम [२२६]
SHERamanand
R+anditurary.orm
प्रश्नव्याकरण अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~258~
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१४५]
प्रत
अनुक्रम [२२६]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
मूलं [१४५]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४]
श्रीसमवायांगे
श्रीअमप०
॥ १२४॥
'अहाग'त्ति आदर्शश्राङ्गुष्ठश्च बाहू च असिश्च मणिश्च क्षौमं च वस्त्रं आदित्यश्वेति द्वन्द्वस्ते आदिर्येषां कुव्यशङ्खघंटादीनां ते तथा तेषां सम्बन्धिनीनां प्रश्नविद्याभिरादर्शकादीनामावेशनात् किंभूतानां प्रश्नानामत आह— विविधमहाप्रश्नविद्याश्च वाचैव प्रश्ने सत्युत्तरदायिन्यः मनःप्रश्नविद्याश्च-मनःप्रश्नितार्थोत्तरदायिन्यस्तासां देवतानि - तदधिवृचिः छातृदेवतास्तेषां प्रयोगप्राधान्येन तथापारप्रधानतया गुणं विविधार्थसंवादनलक्षणं प्रकाशयन्ति-लोके व्यञ्जयन्ति यास्ता विविधमहाप्रश्नविद्यामनःप्रश्नविद्यादैवतप्रयोगप्राधान्यगुणप्रकाशिकास्तासां पुनः किंभूतानां प्रश्नानां ? -सद्भूतेनतात्त्विकेन द्विगुणेन पुनः उपलक्षणत्वालौकिकप्रश्वविद्याप्रभावापेक्षया बहुगुणेन पाठान्तरे विविधगुणेन प्रभावेन-माहास्पेन नूरगणमतेः- मनुजस मुदयबुद्धेर्विस्मयकाः- चमत्कारहेतवो याः प्रभास्ताः सद्भूतद्विगुणप्रभावनरगणमतिविस्मयकार्यस्तासां पुनः किंभूतानां तासां ? - 'अतिसयमतीतकालसमयेति अतिशयेन योऽतीतः कालः समयः स तथा तत्र, अतिव्यवहिते काले इत्यर्थः, दमः शमस्तत्प्रधानः तीर्थकराणां दर्शनान्तरशास्तृणामुत्तमो यः स तथा भगवान् जिनस्तस्य दमतीर्थकरोत्तमस्य स्थितिकरणं - स्थापनं, आसीद् अतीतकाले सातिशयज्ञानादिगुणयुक्तः सकलप्रणायकशिरः शेखरकल्पः पुरुषविशेषः एवंविधप्रश्नानामन्यथानुपपत्तेरित्येवंरूपं तस्य प्रतिष्ठापनस्य कारणानि -हेतबो यास्तास्तथा तासां, पुनस्ता एव विशिनष्टि-दुरभिगमं - दुःखबोधं गम्भीरं सूक्ष्मार्थत्वेन दुरवगाहं च – दुःखाध्येयं सूत्रवद्दुत्वाद्यत्तस्य सर्वेषां सर्वज्ञानां सम्मतं- इष्टं सर्वसर्वज्ञसम्मतं अथवा सर्व च तत्सर्वज्ञसम्मतं चेति सर्वसर्वज्ञ सम्मतं
प्रश्नव्याकरण अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Parta Use Only
~259~
१४५ प्रश्रव्याकरणदशाः
॥ १२४॥
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१४५]
प्रत
अनुक्रम
[२२६]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
मूलं [१४५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
| प्रवचनतत्त्वमित्यर्थः, तस्य अबुधजनविबोधनकरस्य एकान्तहितस्येति भावः 'पञ्चक्खयपञ्चयकराणं 'ति प्रत्यक्ष केन ज्ञानेन साक्षादित्यर्थो यः प्रत्ययः - सर्वातिशयनिधानमतीन्द्रियार्थोपदर्शनाव्यभिचारि चेदं जिनप्रवचनमित्येवंरूपा प्रति| पत्तिः अथवा प्रत्यक्षेणेवानेनार्थाः प्रतीयन्त इति प्रत्यक्षमिवेदमित्येवं प्रत्ययः प्रत्यक्षकप्रत्ययस्तत्करणशीलाः- प्रत्यक्षक| प्रत्ययकार्यः प्रत्यक्षताप्रत्ययकार्यो वा तासां प्रत्यक्षकप्रत्ययकारीणां प्रत्यक्षताप्रत्ययकारीणां वा, कासामित्याह--प्रश्नानां प्रश्नविद्यानां उपलक्षणत्वादन्यासां च यासामष्टोत्तरशतान्यादौ प्रतिपादितानि, विविधगुणा-बहुविधप्रभावास्ते च ते महार्थाश्च महान्तोऽभिधेयाः - पदार्थाः शुभाशुभसूचनादयो विविधगुणमहार्थाः, किंभूता १- जिनवरप्रणीताः, कि| मित्याह - ' आघविज्वंति 'त्ति आख्यायन्ते शेषं पूर्ववत्, नवरं 'पणयालीस 'मित्यादि यद्यपीद्याध्ययनानां दशत्वाह शैवो|देशनकाला भवन्ति तथापि वाचनान्तरापेक्षया पञ्चचत्वारिंशदिति सम्भाव्यते इति 'पणयालीस 'मित्याद्यविरुद्धमिति, 'संखेज्याणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं'ति तानि च किल द्विनवतिर्लक्षाणि षोडश च सहस्राणीति ॥ १० ॥
से किं तं विवागसुर्य ?, विवागसुए णं सुक्कडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविजंति से समासओ दुविहे पण्णत्ते, तंजा— दुहविवागे चैव सुहविवागे चैव, तत्थ णं दस दुहविवागाणि दस सुहविवागाणि, से किं तंदुहविवागाणि ?, दुहविवागेसु णं दुहविवागाणं नगराई उज्जाणा चेहयाई वणखंडा रायाणो अम्मापियरो समोसरणाई धम्मायरिया धम्मकछाओ नगरगमपाई संसारपबंधे दुहपरंपराओ य आघविजंति, सेत्तं दुहविवागाणि । से किं तं सुहविवागाणि १, सुहविवागेसु सुद्दविवागाणं णगराई उज्जाणाई
प्रश्नव्याकरण अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः, विपाकश्रुत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Parts Only
~260~
caror
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा
यांग श्रीअभय पूचिः
प्रत सूत्रांक
| पाकश्रुतं.
[१४६]]
॥१२५॥
प्रत अनुक्रम [२२७]
CE5CREADCASEOCTORS
चेदयाई पणखंडा रावाली ममापियरो समोसरचाई धम्मायरिया धम्मकहाचो इहलोश्यारसोइयाधिषिसेसा मोमपरिचाया आओ सुवपरिरबहा तपोवहामाई परियामा पडिमाबो सलेहमाको भत्तपक्वाथाई पायोषकमबाई देवसवगपणाई सुफुलपचापावा पुणवोहिलाहा अंतफिरियाओ प वाचविखंति, दुहविवागणं पाणाइवायअलिक्वयणछोरिककरणपरदारोदुणससंगवाए महतिवकसाथईदियणमाषपावप्पओवजसुहनक्साणसंचिवार्ष कम्माणं पाक्माण पावअनुभागफलविवामा गिरवमतितिरिक्खजोणिपहुविहवसणसवपरंपरापबशाम मणुबशेषि आगयाणं जहा पाक्कम्मसेसेण पावमा होन्ति फलविवाणा वदवसभविषासनासाकजुटुंगुहुकरचरणनह छेवणजिम्नअणअंजणकडग्पिदाहनयचलनमलपकालबउलंबणसूललयालउद्विभरणतउनीसमतत्ततेलकलकलबहिसिंचणकुंभिषामकपणाविरबंधवाहपशकत्तमपतियवकरकरपालीवणादिदारुणाणि दुस्खाणि अषोक्माणि बहुविविहारंघराणुबद्धा प मुचंति पावकम्मबलीए, अबेयइत्ता हु पत्थि मोक्खो तवेष थिइधणियबद्धकच्छेष साहेणं तस्स बावि हुडा, एखे य सुहविवागेसुणं सीलसंजमणियमगुणतवोवहाणेसु साहूसु सुविहिए अणुकंपासयप्पधोगतिकालमइविसुद्धभत्तपामाई पययमपसा हियसुहनीसेसतिब्वपरिणामनिच्छियमई पयच्छिऊणं पयोगसुद्धाई जह य निवतेंति उ बोहिलाभ जह य परिचीकरेंति नरनरयतिरियसुरगमणविपुलपरियट्टअरतिभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं अन्नाणतमंधकारचिक्खिलसुदुत्तारं जरमरणजोणिसंखुभियचकवालं सोलसकसायसावयपयंडचंड अणाइअं अणवदग्ग संसारसागरमिणं जह व णिबंधति आउन सुरगणेसु जह य अणुभवति सुरगणविमाणसोक्माणि अणोवमाणि ततो य कालंतरे चुआणं इहेव नरलोममागयाणं आउवपुपुण्णरूवजातिकुलजम्मआरोग्गबुद्धिमहाविसेसा मित्तजणसवणवणवण्णविभवसमिद्धसारसमुदयविसेसा बहुविहकामभोगुभवाय सोक्खाप सुहविवागोत्तमेसु, अणु
॥१२५॥
विपाकश्रुत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~261~
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१४६ ]
प्रत
अनुक्रम [२२७]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४]
वरवरंपराणुबद्धा असुमाणं सुभाषं चैव कम्माणं भासिया बहुविदा विद्यामा विद्यागसुयम्मि भगक्या जिणचरेण संबेगकारणस्था अन्नेवि य एवमाइया बहुविधा विस्थरेणं अत्थपरूषणया आघविअंति, निवानसुअस्त णं परिता वायणा संखेजा अनुओगदारा जाब संखेजाओ संगहणीमो से णं अंगट्टयाए एक्कारसमे अंगे वीसं अशयणा वीसं उद्देसणकाला वीसं समुदेसणकाला, संखेआई पयसयसहस्साई पयग्गेणं प०, संखेाणि अक्खराणि अणंता गमा अनंता पजवा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आपविअंति, सेत्तं विवागसुए ॥ ११ ॥ ( सूत्रं १४६ )
'से किं तमित्यादि, विपचनं विपाकः - शुभाशुभकर्म्मपरिणामस्तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं 'विद्यागसुए 'मित्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'फलविपाके 'ति फलरूपो विपाकः फलविपाकः तथा 'नगरगमणाई'ति भगवतो गौतमस्य भिक्षाद्यर्थं नगरप्रवेशनानीति, एतदेव पूर्वोक्तं प्रपञ्चयन्नाह - 'दुहविषागेसु ण' मित्यादि, तत्र प्राणातिपातालीकवचनचौर्यकरणपरदारमैथुनैः सह 'ससंगयाए'त्ति या ससङ्गता - सपरिग्रहता तथा संचितानां कर्म्मणामिति योगः, महातीत्रक पायेन्द्रियप्रमादपापप्रयोगाशुभाध्यवसायसञ्चितानां कर्मणां पापकानां पापानुभागा-अशुभरसा ये फलविपाका विपाकोदयास्ते तथा ते आख्यायन्त इति योगः, केपामित्याह – निरयगतौ तिर्यग्योनी च ये बहुविधव्यसनशतपरम्पराभिः प्रबद्धाः ते तथा तेषां जीवानामिति गम्यते, तथा 'मणुयते'त्ति मनुजत्वेऽप्यागतानां यथा पापकर्मशेपेण पापका भवन्ति फलविपाका अशुभा विपाकोदया इत्यर्थः, तथा आख्यायन्ते इति प्रकृतं, तथाहि त्रधो-ययादिताडनं वृषणविनाशो-वर्द्धितककरणं तथा नासायाश्च कर्णयोश्च ओष्ठस्य चानुष्ठानां च करयोश्च चरणयोश्च नखानां
विपाकश्रुत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Penal Use Only
मूलं [१४६ ] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~262~
nary org
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ---------- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
योगे
प्रत सूत्रांक
[१४६]]
प्रत अनुक्रम [२२७]
श्रीसमवा- शाच यच्छेदनं तत्तथा जिहाछेदनं 'अंजण'त्ति अञ्जनं तप्ताय शलाकया नेत्रयोः म्रक्षणं वा देहस्य क्षारतैलादिना 'कड-12|१४६ चि
रिगदाहणं'ति कटाना-विदलवंशादिमयानामभिः कटाग्निस्तेन दाहनं कटाग्निदाहनं, कटेन परिवेष्टितस्य बाधनमि- पाकश्रुतं. श्रीअभय
त्यर्थः, तथा गजचलनमलनं फालनं-विदारणं उल्लम्बनं-वृक्षशाखादावुद्वन्धन तथा शूलेन लतया लकुटेन यष्ट्या च। वृत्तिः
भअनं गात्राणां तथा त्रपुणा-धातुविशेषेण सीसकेण च-तेनैव तप्तेन तैलेन च 'कलकल'त्ति सशब्देनाभिषेचन तथा कुम्भ्यां-भाजनविशेषे पाकः कुम्भीपाकः कम्पन-शीतलजलाच्छोटनादिना शीतकाले गात्रोत्कम्पजननं तथा
स्थिरबन्धनं-निबिडनियन्त्रणं वेधः-कुन्तादिना शखेण भेदनं वर्द्धकर्त्तनं-त्वगुत्रोटनं प्रतिभयकर-भयजननं तच तत् K करप्रदीपनं च-यसनावेष्टितस्य तैलाभिषिक्तस्य करयोरग्निप्रबोधनमिति कर्मधारयः, ततश्च वधश्च वृषणविनाशश्चेत्यादि यावत्प्रतिभयकरकरप्रदीपनं चेति द्वन्द्वः, ततस्तानि आदिर्येषां दुःखानां तानि च तानि दारुणानि चेति क-12 र्मधारयः, कानीमानीत्साह-दुःखानि, किंभूतानि ?-अनुपमानि दुःखविपाकेप्वाख्यायन्त इति प्रक्रमः, तथेदमा-15 ख्यायते बहुविविधपरम्पराभिः दुःखानामिति गम्यते, अनुबद्धाः-सन्ततमालिशिता बहुविधपरम्परानुबद्धा जीवा इति गम्यते न मुच्यन्ते-न त्यज्यन्ते, कया ?-पापकर्मवल्ल्या दुःखफलसम्पादिकया, किमित्याह-यतोऽवेदयित्वा-1 अननुभूय कर्मफलमिति गम्यते दुर्यस्मादर्थे नास्ति-न भवति मोक्षो-वियोगः कर्मणः सकाशात, जीवानामिति ग-101 म्यते, किं सर्वथा नेत्याह-तपसा-अनशनादिना किम्भूतेन ?-धृतिः-चित्तसमाधानं तद्रूपा 'धणिय'त्ति अत्यर्थ
विपाकश्रुत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~263~
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१४६]]
प्रत अनुक्रम [२२७]
बिद्धा-निष्पीडिता कच्छा-बन्धविशेषो यत्र तत्तथा तेन, धृतिबलयुक्तेनेत्यर्थः, शोधनं-अपनयनं तस्य कर्मविशेषस्य |
बावित्ति सम्भावनायां 'होजा' सम्पयेत नान्यो मोक्षोपायोऽस्तीति भावः, 'एत्तो येत्यादि इतश्चानन्तरं सुखविपा-14 केषु द्वितीयश्रुतस्कन्धाध्ययनेष्वित्यर्थः यदाख्यायते तदभिधीयत इति शेषः, शीलं-ब्रह्मचर्य समाधिर्वा संयमः-प्राणा-13 तिपातविरतिनियमा-अभिग्रहविशेषाः गुणाः-शेपमूलगुणाः उत्तरगुणाश्च तपोऽनशनादि एतेषामुपधान-विधानं येषां ते तथा अतस्तेषु शीलसंयमनियमगुणतपउपधानेषु, केष्वित्याह-साधुपु-यति', किम्भूतेषु ?-सुष्टु विहितं-अनुष्ठितं येषां ते सुविहितास्तेषु भक्तादि दत्त्वा यथा बोधिलाभादि निवर्तयन्ति तथेहाख्यायत इति सम्बन्धः, इह च सम्प्रदानेऽपि सप्तमी न दुष्टा, विषयस्य विवक्षणात् , अनुकम्पा-अनुक्रोशस्तत्प्रधान आशयः-चित्तं तस्य प्रयोगोव्यावृत्तिरनुकम्पाशयप्रयोगस्तेन, तथा 'तिकालमति'त्ति त्रिषु कालेषु या मतिः-बुद्धिर्यदुत दास्वामीति परितोषो दीयमाने परितोपो दत्ते च परितोष इति सा त्रैकालिमतिस्तया च यानि विशुद्धानि तानि तथा तानि च तानि भक्त-17 पानानि चेति अनुकम्पाशयप्रयोगत्रिकालमतिविशुद्धभक्तपानानि प्रदायेति क्रियायोगः, केन प्रदायेत्याह-प्रयतमन-15 सा-आदरभूतचेतसा, हितोऽनर्थपरिहाररूपत्वात् सुखहेतुत्वात् सुखः शुभो वा 'नीसेस'त्ति निःश्रेयसः कल्याणकर-18
त्वात् तीत्र:-प्रकृष्टः परिणामः-अध्यवसानं यस्याः सा तथा सा निश्चिता-असंशया मतिः-बुद्धिर्येषां ते हितमुखनिः२२ सम
श्रेयसतीत्रपरिणामनिश्चितमतयः किं ?-'पयच्छिऊणं'ति प्रदाय, किंभूतानि भक्तपानानि ?-प्रयोगेषु शुद्धानि दाय
N
arayog
विपाकश्रुत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~264 ~
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१४६ विपाकश्रुतं.
प्रत सूत्रांक
[१४६]]
प्रत अनुक्रम [२२७]
श्रीसमवा-IP कदानब्यापारापेक्षया सकलासादिदोषरहितानि ग्राहकग्रहणव्यापारापेक्षया चोद्गमादिदोपवर्जितानि, ततः किं १-
यांग 1 यथा च-येन च प्रकारेण पारम्पर्येण-मोक्षसाधकत्वलक्षणेन निवर्तयन्ति, भव्यजीवा इति गम्यते, तुशब्दो भाषा- श्रीअभय
मात्रार्थः, बोधिलाभ, यथा च परित्तीकुर्वन्ति-हसतां नयन्ति संसारसागरमिति योगः, किंभूतं ?-नरनिरयतिर्यक्सुवृतिः
रगतिषु यज्जीवानां गमनं-परिभ्रमणं स एव विपुलो-विस्तीर्णः परिवों-मत्स्यादीनां परिवर्तनमनेकधा सञ्चरणं यत्र ॥१२७स तथा, तथा अरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वान्येव शैलाः-पर्वतास्तैः सङ्कटः-सङ्कीर्णो यः स तथा ततः कर्मधा
रयोऽतसं, इह च विषादो-दन्यमानं शोकस्वाक्रन्दनादिचिह्न इति, तथा अज्ञानमेव तमोऽन्धकारं-महान्धकार यत्र स तथा अतस्तं, 'चिक्खिलसुदुत्तारं ति चिक्खिलं-कर्दमः संसारपक्षे तु चिक्खिलं-विषयधनखजनादिप्रतिबन्ध| तेन सुदुस्तरो-दुःखोत्तार्यों यः स तथा तं, तथा जरामरणयोनय एव संक्षुभितं-महामत्स्यमकरायनेकजलजन्तुजातसम्मन प्रविलोडितं चक्रवालं-जलपारिमाण्डल्यं यत्र स तथा तं, तथा पोडश कपाया एवं स्वापदानि-मकरणाहादीनि प्रकाण्डचण्डानि-अत्यर्थं रौद्राणि यत्र स तथा तं, अनादिकमनवदमनन्तं संसारसागरमिमं प्रत्यक्षमित्यर्थः, तथा यथा च सागरोपमादिना प्रकारेण निवघ्नन्त्यायुः सुरगणेषु साधुदानप्रत्ययमिति भावः, यथा चानुभवन्ति सुरगणविमानसीख्यानि अनुपमानि, ततश्च कालान्तरेण च्युतानाम् 'इहेब'त्ति तिर्यग्लोके नरलोकमागतानामायुर्वेपुर्वर्णरूपजातिकूलजन्मारोग्यबुद्धिमेधाविशेषा आख्यायन्त इति योगः, तत्रायुपो विशेष इतरजीवायुषः सकाशात् शुभत्वं
| ॥१२७॥
विपाकश्रुत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
~265
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१४६]]
दीर्घत्वं च एवं वपुः-शरीरं तस्य स्थिरसंहननता वर्णस्योदारगौरत्वं रूपस्यातिसुन्दरता जातरुत्तमत्वं कुलस्याप्येवं जन्मनो विशिष्टक्षेत्रकालौ निराबाधत्वं आरोग्यस्य प्रकर्षः बुद्धिरौत्पत्तिक्यादिका तस्याः प्रकृष्टता मेधा अपूर्वश्रुतग्रहणशक्तिस्तस्या विशेषः प्रकृष्टतैवेति, तथा मित्रजनः-सुहल्लोकः खजनः-पितृपितृव्यादिः धनधान्यरूपो यो विभवोलक्ष्मीः स धनधान्यविभवस्तथा समृद्धः-पुरान्तःपुरकोशकोष्ठागारवलवाहनरूपायाः सम्पदो यानि साराणि-प्रधानानि वस्तूनि तेषां यः समुदयः-समूहः स तथा इत्येतेषां द्वन्द्वस्तत एषां ये विशेषाः-प्रकर्षास्ते तथा, तथा बहुविधकामभोगोद्भवानां सौख्यानां विशेषा इतीहापि सम्बन्धनीयं, शुभविपाक उत्तमो येषां ते शुभविपाकोत्तमातेषु । जीवेष्विति गम्यं, इह चेयं षष्ठ्यर्थे सप्तमी, तेन शुभविपाकाध्ययनवाच्यानां साधूनामायुष्कादिविशेषाः शुभविषाकाध्ययनेष्वाख्यायन्ते इति प्रकृतं, अथ प्रत्येकं श्रुतस्कन्धयोरभिधेये पुण्यपापविपाकरूपे प्रतिपाद्य तयोरेव योगपयेन ते आह-'अणुवरयेत्यादि, अनुपरता-अविच्छिन्ना ये परम्परानुबद्धाः-पारम्पर्यप्रतिबद्धाः, के ?-विपाका इति योगः, केषां ?-अशुभानां शुभानां चैव कर्मणां प्रथमद्वितीयश्रुतस्कन्धयोः क्रमेणैव च भाषिताः-उक्ता बहुविधा है विपाकाः विपाकश्रुते एकादशाङ्गे भगवता जिनवरेण संवेगकारणार्थाः-संवेगहेतवो भावाः अन्येऽपि चैवमादिका
आख्यायन्त इति पूर्वोक्तक्रियया वचनपरिणामाद्वोत्तरक्रियया योगः, एवं च बहुविधा विस्तरेणार्थप्ररूपणता आ
प्रत अनुक्रम [२२७]
RECASSEKASIK
For P
OW
| विपाकश्रुत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~266~
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]
श्रीसमवा-
यांगे श्रीअभय०
वृत्तिः ॥१२॥
प्रत अनुक्रम [२२७]
ख्यायन्त इति, शेषं कण्ठ्यं, नयर संख्यातानि पदशतसहस्राणि पदाग्रेणेति, तत्र किल एका पदकोटी चतुरशीतिश्च ||१४७८लक्षाणि द्वात्रिंशच सहस्राणीति ॥११॥
टिवाद: से किं तं दिहिवाए, १ दिद्विवाए णं सवभावपरूवणवा आधविनंति से समासओ पंचविहे प० त०-परिकम्म सुत्ताई पुवगर्य अणुओगो चूलिया, से किं तं परिकम्मे ?-परिकम्मे सत्तविहे ५० तं-सिद्धसेणियापरिकम्मे मणुस्ससेणियापरिकम्मे पुट्ठसेणिवापरिकम्मे ओगाहणसेणियापरिकम्मे उपसंपजसेणियापरिकम्मे विप्पजहसेणियापरिकम्मे चुआचुअसेणियापरिकम्मे, से किं तं सिद्धसेणियापरिकम्मे?, सिद्धसेणिआपरिकम्मे चोदसविहे प० त०-माउयापयाणि एगद्वियपयाणि पादोद्वपयाणि आगासपयाणि केउभ्यं रासिबद्धं एगगुणं दुगुणं तिगुणं केउमूयं पडिग्गदो संसारपडिग्गहो नंदावतं सिद्धबद्धं, सेत्तं सिद्धसेणियापरिकम्मे, से किं तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे १, मणुस्ससेणियापरिकम्मे चोदसविहे पण्णते, तं जहा ताई चेव माउआपयाणि जाव नंदावर्स मणुस्सपद्धं, सेत्तं मणुस्ससेणियापरिकम्मे, अवसेसा परिकम्माई पुट्ठाइयाई एक्कारसविहाई पनत्ताई, इचेयाई सत्त परिकम्माई ससमइयाई सत्त आजीवियाई छ चउक्कणइयाई सत्त तेरासियाई, एवामेव सपुवावरेणं सत्त परिकम्माई तेसीति भवंतीतिमक्खायाई, सेत्तं परिकम्माई, से कि तं सुत्ताई, सुत्ताई अट्ठासीति भवतीतिमक्खायाई, तंजहा-उजुगं परिणयापरिणयं बहुभंगियं विषवइयं [विन(ज)पचरिय] अगंतरं परंपरं समाण संजूहं [मासाणं] सं भिन्नं अहाच्चयं [अहवायं नन्यां] सोवत्थि(वत्त) यं णंदावतं वहुलं पुट्ठापुढे वियावत्तं एवंभूयं दुआवत्
॥१२८॥ वत्तमाणप्पयं समभिरूदं सबओभदं पणाम[पस्सासं नन्यां] दुपडिग्गह इच्चेयाई बावीसं सुत्ताई छिण्णछेअणदाई ससमयसुत्तपरिवाडीए, इचेआई बावीस सुत्ताई अछिन्नछेवनइयाई आजीवियसुत्तपरिवाडीए, इचेआई बावीसं सुत्ताई तिकणइयाई तेरासियसुत्तपरिवाडिए, इचे
विपाकश्रुत अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः, द्रष्टिवाद अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~267~
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]
प्रत अनुक्रम [२२८-२३२]
आई बावीस सुत्ताई चउक्कणइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए, एवामेव सपुत्वावरेणं अट्ठासीति सुत्ताई भवतीतिमक्खयाई, सेत्तं सुत्ताई। से कि तं पुबगयं १, पुष्वगयं चउदसविहं पन्नत्तं, तंजहा-उप्पायपुव्वं अग्गेणीयं वीरियं अस्थिणस्थिपवायं नाणपवार्य सञ्चप्पवायं आयप्पवाय कम्मपवायं पञ्चक्खाणप्पवायं विजाणुप्पवायं अवझ० पाणाऊ० किरियाबिसालं लोगबिंदुसारं १४, उप्पायपुवस्स णं दस वत्यू प० चत्तारि चूलियावस्थू प०, अग्गेणियस्स णं पुवस्स चोइस वत्थू वारस चूलियावत्थू, वीरियपवायस्स णं पुब्बस्स अट्ट वत्थू अट्ठ चूलियावत्थू प०, अत्थिणत्थिप्पवायस्स णं पुवस्स अट्ठारस वत्थू दस चूलियावत्थू प०, नाणप्पवायस्स णं पुवस्स बारस वत्थू प०, सचप्पवायस्स णं पुवस्स दो वत्थू प०, आयप्पवायस्स णं पुवस्स सोलस वत्थू प०, कम्मप्पवायपुवस्स तीसं वत्थू प०, पचक्खाणस्स णं पुवस्स वीसं वत्थू प०, विजाणुप्पवायरस णं पुण्वस्स पनरस वत्थू प०, अवंझस्स ण पुचस्स बारस बत्थू प०, पाणाउस्स णं पुब्बस्स तेरस वत्थू प०. किरियाविसालस्स णं पुब्बस्स तीस वत्थू प०,लोगबिंदुसारस्स णं पुच्चस्स पणवीसं वत्यू प०, दस चोद्दस अट्ठद्वारसे व वारस दुवे य वत्थूणि । सोलस तीसा वीसा पन्नरस अणुप्पवायमि ॥१॥ बारस एक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे चउदसमे पन्नवीसाओ ॥२॥ चत्तारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूलवत्थूणि । आतिलाण चउण्हं सेसाणं चूलिया णधि ॥३॥ सेत्तं पुवगर्य, से किं तं अणुओगे?, अणुओगे दुविहे पन्नते, तंजहा-मूलपढमाणुओगे य गंडियाणुओगे य, से किं तं मूलपढमाणुओगे?, एत्य णं अरहतार्ण भगवंताणं पुष्वभवा देवलोगगमपाणि आउं चवणाणि जम्मणाणि अ अभिसेया रायवरसिरीओ सीयाओ पञ्चजाओ तवा य भत्ता केवलणाणुप्पाया अतित्थपवत्तणाणि अ संघयणं संठाणं उचत्तं आउं वनविभागो सीसा गणा गणहरा य अआ पवत्तणीओ संघस्स चउनिहस्स जे वाषि
द्रष्टिवाद अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~268~
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१४७ ४|ष्टिवादः
प्रत सूत्रांक [१४७]
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय
वृचिः ॥१२९॥
CROSCOctr
प्रत अनुक्रम [२२८-२३२]
परिमाणं जिणमणपञ्जवओहिनाणसम्मत्तसुयनाणिणो य वाई अणुत्तरगई य जत्तिया सिद्धा पाओवगआ य जे जहिं जत्तियाई भत्ताई छेअइत्ता अंतगडा मुणिवरुत्तमा तमरओपविष्पमुक्का सिद्धिपहमणुत्तरं च पत्ता, एए अन्ने य एवमाइया भावा मूलपढमाणु
ओगे कहिआ आपविजंति पण्णविजंति परू. सेत्तं मूलपढमाणुओगे, से किं तं गंडियाणुओगे?, अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-कुलगरगडियाओ तित्थगरगंडियाओ गणहरगंडियाओ चक्कहरगंडियाओ दसारगंडियाओ बलदेवगंडियाओ वासुदेवगंडियाओ हरिवंसगंडियाओ भदबाहुगंडियाओ तवोकम्मगंडियाओ चित्ततरगंडियाओ उस्सप्पिणीगंडियानो ओसप्पिणीगंडियाओ अमरनरतिरियनिरयगइगमणविविहपरियट्टणाणुओगे, एवमाझ्याओ गंडियाओ आपविजंति पण्णविजंति परूविजेति, सत्तं गंडियाणुओगे. से किं तं चलियाओ?, जणं आइलाणं चउण्हं पुन्वाणं चूलियाओ, सेसाई पुबाई अचूलियाई, सेत्तं चूलियाओ, दिद्विवायस्स णं परित्ता वायणा संखेआ अणुओगदारा संखेआओ पडिवत्तीओ संखेजाओ निजुत्तीओ संखेजा सिलोगा संखेजाओ संगहणीओ, से पं अंगठ्ठयाए पारसमे अंगे एगे सुयखंचे चउद्दस पुन्वाई संखेजा वत्थू संखेजा चूलवत्थू संखेजा पाहुडा संखेजा पाहुडपाहुडा संखेजाओ पाहुडियाओं संखजाओ पाहुडपाहुडियाओ संखेजाणि पयसयसहस्साणि पयग्गेणं पन्नत्ता, संखेना अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासया कडा णिबद्धा णिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आपविजंति पण्णविनंति परूविअंति दंसिर्जति निदंसिर्जति उवदंसिबंति, एवं णाया एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवणया आपविजेति, सेत्तं दिविवाए, सेतं दुवालसंगे गणिपिडगे ॥१२॥ (सूत्र १४७) 'से किं तं दिविवाए'त्ति दृष्टयो-दर्शनानि वदनं वादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः दृष्टीना वा पातो यत्रासौ दृष्टिपातः
॥१२९।।
द्रष्टिवाद अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~269~
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ---------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]
सर्वनयदृष्टय एवेहाख्यायन्त इत्यर्थः, तथा चाह-दिटिवाए णमित्यादि, रष्टिवादेन दृष्टिपातेन वा सर्वभावप्ररू
पणाऽऽख्यायते, 'से समासओ पंचविहे' इत्यादि सर्वमिदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि यथादृष्टं किमपि लिख्यते, तत्र IPIसूत्रादिग्रहणयोग्यतासम्पादनसमर्थानि परिकाणि गणितपरिकर्मवत, तच्च परिकर्मश्रुतं सिद्धश्रेणिकादिपरिकर्म
मूलभेदतः सप्तविधं, उत्तरभेदतस्तु त्र्यशीतिविधं मातृकापदादि, एतच्च सर्व समूलोत्तरभेदं सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नं, दिएतेषां च परिकर्मणां षट् आदिमानि परिकाणि खसामयिकान्येव, गोशालकप्रवर्तिताजीविकपाखण्डिकसिद्धाबातमतेन पुनः व्युताच्युतश्रेणिकापरिकर्मसहितानि सप्त प्रज्ञाप्यन्ते, इदानी परिकर्मसु नयचिन्ता, तत्र नैगमो द्विविधः-साताहिकोऽसावाहिकश्च, तत्र सावाहिकः सङ्ग्रहं प्रविष्टोऽसावाहिकश्च व्यवहार, तस्मात्सकहो व्यवहार ऋजुसूत्रः शब्दादयश्चैक एवेत्येवं चत्वारो नयाः, एतेश्चतुर्भिर्नयैः षट् खसामयिकानि परिकर्माणि चिन्त्यन्ते, अतो भणितं 'छ चउक्कनयाईति भवन्ति, त एव चाजीविकाखैराशिका भणिताः, कस्माइ ?, उच्यते, यस्मात्ते सर्व त्र्यात्मके इच्छन्ति, यथा जीवोऽजीवो जीवाजीवः लोकोऽलोको लोकालोकः सत् असत् सदसत् इत्येवमादि, नय-12
चिन्तायामपि ते त्रिविधं नयमिच्छन्ति, तद्यथा-द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः उभयार्थिकः, अतो भणितं 'सत्त तेरासि-18 दयति सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकपाखण्डिकाखिविधया नयचिन्तया चिन्तयन्तीत्यर्थः, 'सेत्तं परिकम्मे ति निगमनं,
से किं तं सुत्ताइ'मित्यादि, तत्र सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात् सूत्राणि अष्टाशीत्यपि च सूत्रार्थतो व्यवच्छिन्नानि ।
प्रत अनुक्रम [२२८-२३२]
Saintairatun
द्रष्टिवाद अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~270~
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
ACC
प्रत सूत्रांक [१४७]
प्रत
श्रीसमबा- तथापि दृष्टानुसारतः किञ्चिल्लिख्यते, एतानि किल ऋजुकादीनि द्वाविंशतिः सूत्राणि, तान्थेय विभागतोऽष्टाशीति- १४७१
यांगे भवन्ति, कथम् ?, उच्यते, 'इझ्याई बावीसं सुत्ताई छिन्नछेयनइयाई ससमयसुत्तपरिवाडीए'त्ति इह यो नयः सूत्र | ष्टिवादः श्रीअभय छिन्नं छेदेनेच्छति स छिन्नच्छेदनयो यथा “धम्मो मंगलमुकिट्ट"मित्यादिश्लोकः सूत्रार्थतः प्रत्येकच्छेदेन स्थितो न
वृत्तिः द्वितीयादिश्लोकमपेक्षते, प्रत्येककल्पितपर्यन्त इत्यर्थः, एतान्येव द्वाविंशतिः खसमयसूत्रपरिपाट्या सूत्राणि स्थितानि, ॥१३॥ तथा इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि अच्छिन्नच्छेदनयिकान्याजीविकसूत्रपरिपाट्येति, अयमर्थः-इह यो नयः सूत्रम-2
४/च्छिन्नं छेदेनेच्छति सोऽच्छिन्नच्छेदनयो यथा 'धम्मो मंगलमुकिट्ठ'मित्यादि श्लोक एवार्थतो द्वितीयादिश्लोकमपेक्षमाणो| |द्वितीयादयश्च प्रथममिति अन्योऽन्यसापेक्षा इत्यर्थः, एतानि द्वाविंशतिराजीविकगोशालकप्रवर्तितपाखण्डसूत्रपरिपाठ्या अक्षररचनाविभागस्थितान्यप्यर्थतोऽन्योऽन्यमपेक्षमाणानि भवन्ति, 'इच्चेइयाई' इत्यादि सूत्र, तत्र 'तिकनइयाईति नयत्रिकाभिप्रायतश्चिन्त्यन्त इत्यर्थौराशिकाश्चाजीविका एवोच्यन्ते इति, तथा 'इचेइयाई' इत्यादि सूत्रं, तत्र 'चउक्कनइयाईति नयचतुष्काभिप्रायतश्चिन्त्यन्त इति भावना, 'एवमेवे त्यादिसूत्र, एवं चतस्रो द्वाविंशतयोऽष्टाशीतिः।
सूत्राणि भवन्ति 'सेत्तं सुत्ताईति निगमनवाक्यं, से कितं पुष्वगर्य' इत्यादि, अथ किं तत् पूर्वगतं ?, उच्यते, यस्मात्ती- ॥१३०॥ कार्यकरः तीर्थप्रवर्त्तनाकाले गणधराणां सर्वसूत्राधारत्वेन पूर्व पूर्वगतं सूत्रार्थ भाषते तस्मात्पूर्वाणीति भणितानि, | PI
गणधराः पुनः श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च, मतान्तरेण तु पूर्वगतसूत्रार्थः पूर्वमहता ४
अनुक्रम [२२८-२३२]
द्रष्टिवाद अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~271~
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१४७]
प्रत
अनुक्रम
[२२८
-२३२]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
भाषितो गणधरैरपि पूर्वगतश्रुतमेव पूर्व रचितं पश्चादाचारादि, नन्वेवं यदाचारनिर्युक्तयामभिहितं 'सव्वेसिं आयारो पढमो' इत्यादि तत्कथम्?, उच्यते, तत्र स्थापनामाश्रित्य तथोक्तमिह त्वक्षररचनां प्रतीत्य भणितं पूर्व पूर्वाणि कृतानीति, तच पूर्वगतं चतुदर्शविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-'उप्पायेत्यादि, तत्रोत्पादपूर्व प्रथमं तत्र च सर्वद्रव्याणां पर्यवाणां चोत्पादभावमङ्गीकृत्य प्रज्ञापना कृता, तस्य च पदपरिमाणमेका कोटी, अग्गेणीयं द्वितीयं तत्रापि सर्वेषां द्रव्याणां पर्यवाणां | जीवविशेषाणां चात्रं- परिमाणं वर्ण्यत इत्यग्रेणीयं तस्य पदपरिमाणं पण्णवतिः पदशतसहस्राणि, 'वीरियं'ति वीर्यप्रवादं तृतीयं तत्राप्यजीवानां जीवानां च सकर्मेतराणां वीर्य प्रोच्यत इति वीर्यप्रवादं तस्यापि सप्ततिः पदशतसहस्राणि परिमाणं, अस्तिनास्तिप्रवादं चतुर्थे, यद्यलोके यथास्ति यथा वा नास्ति, अथवा स्याद्वादाभिप्रायतः तदेवास्ति तदेव नास्तीत्येवं प्रवदतीति अस्तिनास्तिप्रवादं भणितं, तदपि पदपरिमाणतः षष्टिः पदशतसहस्राणि ज्ञानप्रवादं पञ्चमं, तस्मिन् मतिज्ञानादिपञ्चकस्य भेदप्ररूपणा यस्मात् कृता तस्मात् ज्ञानप्रवादं तस्मिन् पदपरिमाणमेका कोटी एकपदोनेति, सत्यप्रवादं पर्छ सत्यं संयमः सत्यवचनं वा तद्यत्र सभेदं सप्रतिपक्षं च वर्ण्यते तत्सत्यप्रवादं तस्य पदपरिमाणं एका पदकोटी पद च पदानीति, आत्मप्रवादं सप्तमं 'आय'त्ति आत्मा सोऽनेकधा यत्र नयदर्शनैर्वर्ण्यते तदात्मप्रवादं, तस्य पदपरिमाणं पविंशतिः पदकोट्यः कर्म्मप्रवादमष्टमं ज्ञानावरणादिकमष्टविधं कर्म्मप्रकृतिस्थित्यनुभाग| देशादिभिर्भेदैरन्यैश्चोत्तरोत्तरभेदैर्यत्र वर्ण्यते तत्कर्म्मप्रवादं, तत्परिमाणमेका पदकोटी अशीतिश्च सहस्राणीति, प्रत्या
द्रष्टिवाद अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचयः,
For Pernal Use On
मूलं [१४७] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~272~
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]
श्रीसमवा- ख्यानं नवमं तत्र सर्व प्रत्याख्यानखरूपं वर्ण्यत इति प्रत्याख्यानप्रवाई, तत्परिमाणं चतुरशीतिः पदशतसहस्राणीति, १४७ ४
यांग विद्यानुप्रवादं दशमं तत्रानेके विद्यातिशया वर्णितास्तत्परिमाणमेका पदकोटी दश च पदशतसहस्राणीति, अवन्ध्यमे-131ष्टिवादः श्रीअभय कादर्श, वन्ध्यं नाम निष्फलं न बन्ध्यमवन्ध्यं सफलमित्यर्थः, तत्र हि सर्वे ज्ञानतपःसंयमयोगाः शुभफलेन सफला वृतिः वर्ण्यन्ते अप्रशस्ताश्च प्रमादादिकाः सर्वे अशुभफला वर्ण्यन्ते अतोऽवन्ध्यं, तस्य च परिमाणं षड्विंशतिः पदकोटयः, ॥१३॥ प्राणायुादशं तत्राप्यायुःप्राणविधानं सर्व सभेदमन्ये च प्राणा वर्णितास्तत्परिमाणमेका पदकोटी षट्पञ्चाशच
|पदशतसहस्राणीति, क्रियाविशालं त्रयोदशं, तत्र कायिक्यादयः क्रिया विशालत्ति-सभेदाः संयमक्रिया छन्दक्रिया विधानानि च वय॑न्त इति क्रियाविशालं, तत्पदपरिमाणं नव पदकोट्यः, लोकविन्दुसारं च चतुर्दशम, तचास्मिन् लोके श्रुतलोके वा बिन्दुरिवाक्षरस्य सर्वोत्तममिति, सर्वाक्षरसन्निपातप्रतिष्ठितत्वेन च लोकविन्दुसारं भणितं, तत्प्रमाणमर्द्धत्रयोदश पदकोट्य इति । 'उप्पायपुवस्से'त्यादि कण्ठ्यं, नवरं वस्तु-नियतार्थाधिकारप्रतिबद्धो अन्धविशेषोऽध्ययनवदिति, तथा चूडा इव चूडा, इह दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वगतानुयोगोक्तानुक्तार्थसङ्ग्रहपरा ग्रंथपद्धतयथूडा
जाति इति, 'सेत्तं पुषगते'त्ति निगमनं, 'से किं तमित्यादि, अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोगः सूत्रस्य निजेनाभिधेयेन।
॥१३॥ बसाईमनुरूपः सम्बन्ध इत्यर्थः, स च द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-मूलप्रथमानुयोगश्च गण्डिकानुयोगच, 'से किं तमि-18
सादि, इह धर्मप्रणयनात् मूलं तावत्तीर्थकरास्तेषां प्रथमसम्यक्त्वाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानु
25-1-564%85%
प्रत अनुक्रम [२२८-२३२]
SEAR
REatininMUHA
द्रष्टिवाद अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:,
~273~
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१४७]
प्रत अनुक्रम [२२८-२३२]
योगः, तथा चाह-से किं तं मूलपढमाणुओगे' इत्यादि सूत्रसिद्धं यावत् ‘सेत्तं मूलपढमाणुओगे', 'से किं तमित्यादि इहैकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते तासामनुयोगः-अर्थकथनविधिः गण्डिकानुयोगः, तथा चाह-'गंडियाणुओगे अणेगे'त्यादि, तत्र कुलकरगण्डिकासु कुलकराणां विमलवाहनादीनां पूर्वजन्मायभिधीयत इति, एवं शेषाखपि अभिधानवशतो भावनीयं, यावत् चित्रान्तरगण्डिकाः, नवरं दशाहोः-समुद्रविजयादयो दश वसुदेवान्ताः तथा चित्रा-अनेकार्था अन्तरे-ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे गण्डिका-एकवक्तव्यतार्थाधिकारानुगतास्ततश्च चित्राश्च ता अन्तरगण्डिकाच चित्रान्तरगण्डिकाः, एतदुक्तं भवति-ऋषभाजिततीर्थकरान्तरे तद्वंजभूपतीनां शेपगतिगमनव्युदासेन शिवगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्चित्रान्तरगण्डिका इति, ताश्च 'चोइस-13 लक्खा सिद्धा निवईणेको य होइ सबढे । एवेकेकट्ठाणे पुरिसजुगा हुंति संखेजे ॥१॥' त्यादिना ग्रन्थेन नन्दिटीकायामभिहितास्तत एवावधार्याः, इह सूत्रगमनिकामात्रस्य विवक्षितत्वादिति, शेषं सूत्रसिद्धमानिगमनात्, नवरं 'संखेजा वत्थु'त्ति पञ्चविंशत्युत्तरे द्वे शते 'संखेज्जा चूलवत्थुति चतुर्विंशत् ॥१२॥ साम्प्रतं द्वादशाझे विराधनानिष्पन्नं कालिकं फलमुपदर्शयन्नाहइच्चेइयं दुगालसंग गणिपिडगं अतीतकाले अर्णता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टिसु इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पटुप्पण्णे काले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियति इचेइयं दुवालसंग गणिपिडगं
--
द्रष्टिवाद अंगसूत्रस्य शाश्त्रीयपरिचय:, द्वादशांगीनाम् शाश्वतता ...सूत्रारम्भे यत् 'दुगालसंग' मुद्रितं तत् मुद्रणदोष संभाव्यते, मूल शब्द 'दुवालसंग' अस्ति
~274~
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
१४८ गणिपिटकविराधनाराधनाफलं.
[१४८]
श्रीसमवा- अणागए काले अर्णता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियटिस्संति, इवेइयं दुवालसंग गणिपिडर्ग अतीत-
यांगे काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतसंसारकतारं वीईवइंसु एवं पडुप्पण्णेऽवि एवं अणागएवि, दुवालसंगे णं गणिपिश्रीअभय डगेण कयावि णत्थि ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भविस्सइ भुर्वि च भवति य भविस्सति य धुवे णितिए सासए अक्खए अवए वृत्तिः
अवहिए णिचे से जहा णामए पंच अस्थिकाया ण कयाइ ण आसि ण कयाइ णस्थि ण कयाइ ण भविस्सति भुर्वि च भवति य ॥१३२॥
भविस्सति य धुवा णितिया सासया अक्खया अन्वया अवढ़िया णिचा एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगेण कयाइ ण आसि ण कयाइ णस्थि ण कयाइ ण भविस्सइ भुवि च भवति य भविस्सइ य धुवे जाव अवविए णिच्चे, एत्थ ण दुवालसंगे गणिपिडगे अर्णता भावा अणंता अभावा अणंता हेऊ अणंता अहेऊ अणंता कारणा अणंता अकारणा अणता जीवा अणता अजीवा अर्णता भवसिद्धिया अणंता अभवसिद्धिया अणंता सिद्धा अणंता असिद्धा आपविजंति पण्णविअंति परूविअंति दंसिजति निदंसिर्जति उवदंसिजेति, एवं दुवालसंग गणिपिडगं इति (सूत्रं १४८)
'इच्चेय'मित्यादि, इत्येतद्वादशाकंगणिपिटकमतीतकाले अनन्ता जीवा आज्ञया विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारं 'अणुपरियडिंसुत्ति अनुपरिवृत्तवन्तः, इदं हि द्वादशाङ्गसूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं, ततश्च आज्ञया सूत्राज्ञया अभिनि| वेशतोऽन्यथापाठादिलक्षणया अतीतकाले अनन्ता जीवाश्चतुरन्तं संसारकान्तारं नारकतिर्यग्नरामरविविधवृक्ष४जालदुस्तरं भवाटवीगहनमित्यर्थः, अनुपरावृत्तवन्तो जमालिवत् अर्थाज्ञया पुनरभिनिवेशतोऽन्यथाप्ररूपणादिलक्षणया
CASCRECEBCASRAE
प्रत अनुक्रम [२३३]
ला॥१३२॥
द्वादशांगीनाम् शाश्वतता
~275
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], --------------- ----------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४८]
[सा गोष्ठामाहिलवत उभयाज्ञया पुनः पञ्चविधाचारपरिज्ञानकरणोद्यतगुर्वादेशादेरन्यथाकरणलक्षणया गुरुप्रत्पनीकद्रव्यलि
गधार्यनेकश्रमणवत् सूत्रार्थोभयैर्विराध्येत्यर्थः, अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षमागमोक्तानुष्ठानमेवाज्ञा तया तदकरणेने-17 त्यर्थः, 'इचेय'मित्यादि गतार्थमेव, नवरं 'परित्ता जीवा' इति संख्येया जीवाः, वर्तमाने विशिष्टविराधकमनुष्यजीवानां की संख्येयत्वात् 'अणुपरियटुंति'त्ति अनुपरावर्तन्ते भ्रमन्तीत्यर्थः, 'इच्चेय'मियादि इदमपि भावितार्थमेव, नवरम् 'अणुपरियटिस्सतित्ति अनुपरावर्त्तिष्यन्ते पर्यटिष्यन्तीत्यर्थः, 'इच्चेय मित्यादि कण्ठ्यं, नवरं 'विइवइंसुत्ति व्यतित्रजितवन्तः | चतुर्गतिकसंसारोलचनेन मुक्तिमवाप्ता इत्यर्थः, एवं प्रत्युत्पन्नेऽपि, नवरं अयं विशेषः-'विइवयंति'त्ति व्यतिग्रज|न्ति-व्यतिक्रामन्तीत्यर्थः, अनागतेऽप्येवं, नवरं 'वीइवइस्संति'त्ति व्यतित्रजिष्यन्ति-व्यतिक्रमिष्यन्तीत्यर्थः, यदिदमनिसाटेतरभेदभिन्नं फलं प्रतिपादितमेतत्सदावस्थायित्वे सति द्वादशाङ्गस्योपजायत इत्याह-'दुवालसंगे' इत्यादि, द्वादशा
णमित्यलङ्कारे गणिपिटकं न कदाचिन्नासीदनादित्वात् न कदाचिन्न भवति सदैव भावात् न कदाचिन्न भविष्यति अपर्यवसितत्वात्, किं तर्हि ?, 'भुवि 'सादि अभूच्च भवति च भविष्यति च, ततश्चेदं त्रिकालभावित्वादचलं अचलत्वाच भुवं मेर्वादिवत् ध्रुवत्वादेव नियतं पञ्चास्त्रिकायेषु लोकवचनवत् नियतत्वादेव शाश्वतं समयावलिकादिषु कालवचनवत् शाश्वतत्वादेव वाचनादिप्रदानेऽप्यक्षयं गङ्गासिन्धुप्रबाहेऽपि पद्माइदवत् अक्षयत्वादेवाव्ययं मानुषोत्तरादहिः समुद्रवत् अव्ययत्वादेव खप्रमाणेऽवस्थितं जम्बूद्वीपादिवत् अवस्थितत्वादेव नित्यमाकानवदिति, साम्प्रतं दृष्टा
कस%A4%AC-54-%25EAS
प्रत अनुक्रम [२३३]
द्वादशांगीनाम् शाश्वतता
~276~
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
श्रीसमवा- यांगे
प्रत सूत्रांक [१४८]
दशामा| राधनविराधनाफलं.
वृत्तिः ॥१३॥
प्रत अनुक्रम [२३३]
न्तमत्रार्थे आह–से जहा नाम ए' इत्यादि, तद्यथा नाम पञ्चास्तिकाया-धर्मास्तिकायादयः न कदाचिन्नासन्नित्यादि प्राग्वत् , 'एवमेवे'त्यादि दान्तिकयोजना निगदसिद्धेवेति । एत्थ ण मित्यादि अत्र द्वादशाङ्गे गणिपिटके अनन्ता |भावा आख्यायन्त इति योगः, तत्र भवन्तीति भावा-जीवादयः पदार्थाः, एते च जीवपुद्गलानामनन्तत्वादनन्ता इति, तथा अनन्ता अभाषाः, सर्वभावानामेव पररूपेणासत्त्वात्त एवानन्ता. अभावा इति, खपरसत्ताभावाभावोभयाधीनत्वाद्वस्तुतत्त्वस्य, तथाहि-जीवो जीवात्मना भावोऽजीवात्मना चाभावोऽन्यथाऽजीयत्वप्रसङ्गादिति, अन्ये तु धमापेक्षया अनन्ता भावाः अनन्ता अभाषाः (च) प्रतिवस्त्वस्तित्वनास्तित्वाभ्यां प्रतिबद्धा इति व्याचक्षते, तथाऽनन्ता हेतवः, तत्र हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुस्ते चानन्ताः, वस्तुनोऽनन्तधर्मात्मकत्वात् , तत्प्रतिवद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकत्वाच हेतोः सूत्रस्य चानन्तगमपर्यायात्मकत्वादिति, यथोक्तहेतुप्रतिपक्षतोऽनन्ता अहेतवः, तथा अनन्तानि कारणानि मृत्पिण्डतन्त्वादीनि घटपटादिनिर्वर्तकानि, तथा अनन्तान्यकारणानि सर्वकारणानामेव कार्यान्तराकारणत्वात् , नहि मृत्पिण्डः पटं निर्वयतीति, तथा अनन्ता जीवाः-प्राणिनः एवमजीवा:-अणुकादयः भवसिद्धिका-भव्याः सिद्धा-निष्ठितार्था इतरे-संसारिणः, 'आपविजंती'त्यादि पूर्ववदिति । द्वादशाहस्य खरूपमनन्तरमभिहितमथ तदभिधेयस्य राशिद्वयान्तर्भावतः खरूपमभिधित्सुराहदुवे रासी पन्नत्ता, तंजहा जीवरासी अजीवरासी य, अजीवरासी दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूवीजीवरासी अरूवीअजीवरासी
॥१३३॥
IPATumstaram.org
द्वादशांगीनाम् शाश्वतता
~277~
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------- ----------- मूलं [१४९]+गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
गाथा:
य, से किं तं अरूची अजीवरासी?, अरूविअजीवरासी दसविदा पन्नत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए जाव अद्धासमर, रूबीअजीवरासी अणेगविहा०प० जाव से किं तं अणुत्तरोक्वाइआ ?, अत्तणुरोक्वाइआ पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-विजयवेजयंतजयंतअपराजितसव्वद्वसिद्धिा, सेतं अणुतरोवबाइथा, सेत्तं पंचिंदियसंसारसमावण्णजीवरासी, दुविहा णेरड्या पन्नता, तंजहा-पजता य अपजता य, एवं दंडओ भाणियब्बो जाव वेमाणियचि, इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं खेत्तं ओगाहेत्ता केवइया णिरयावासा पण्णत्ता , गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहलाए उवरि एगंजोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेवा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अहसत्तरि जोयणसयसहस्से एस्थ गं रयणप्पभाए पुढवीए औरइयाणं तीसं णिरयावाससवसहस्सा भवतीतिमक्खाया, ते णं णिरयावासा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णिरया असुभाओ णिरएसु वेयणाओ, एवं सत्तवि भाणियवाओ जं जासु जुजइ-'आसीयं बत्तीस अट्ठावीसं तहेव वीस च । अट्ठारस सोलसगं अहुत्तरमेव पाहल्लं ॥१॥ तीसा य पण्णवीसा पन्नरस दसेव सयसहस्साई । तिण्णेगं पंचूर्ण पंचव अणुतरा नरगा ॥२॥ चउसडी असुराणं चउरासीई च होइ नागाणं । यावत्तरि सुवन्नाण वाउकुमाराण छण्णउइ ॥३॥ दीवदिसाउदहीणं विजकुमारिदथणियमग्गीणं । छण्हंपि जुवलयाण पावत्तरिमो य सयसहसा ॥४॥ बत्तीसट्ठावीसा वारस अड चउरो य सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच सहस्सा सहस्सारे ॥ ५॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणबुए तिन्नि । सत्त विमाणसवाई चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥६॥ एकारसुत्तरं हेहिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुतरविमाणा ॥ ७॥ दोचाए णं पुढवीए तबाए णं पुढवीए चउत्थीए पुढवीए पंचमीए पुढवीए छट्टीए पुढवीए सत्तमीए पुढवीए गाहार्हि भाणियचा, सत्तमाए पुढवीए पुच्छा, गोयमा ! सत्तमाए
प्रत अनुक्रम [२३४-२३७]]
REaratinion
~278~
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
गाथा:
श्रीसमधापुढवीए अगुत्तरजोयणसयसहस्साई बाहल्लाए उवरि अद्धतेवनं जोयणसहस्साई ओगाहेत्ता हेहावि अद्धतेवनं जोयणसहस्साई
१४९ रायांगे वअित्ता मज्जे तिसु जोयणसहस्सेसु एत्थ णं सत्तमाए पुढवीए नेरइयाणं पंच अणुत्तरा महइमहालया महानिरया पण्णता, तं
शिप्रज्ञापश्रीअभय जहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए अप्पइट्ठाणे नामं पंचमे, ते णं निरया बट्टे य तंसा य अहे सुरप्पसंठाणसंठिया जाव नास्थावृत्तिः असुभा नरगा असुभाओ नरएसु वेवणाओ (सूत्रं १४९)
नानि. इह च प्रज्ञापनायाः प्रथमपदं प्रज्ञापनाख्यं सर्व तदक्षरमध्येतव्यं, किमवसानमित्याह-'जाब से किं त'मित्यादि, ॥१३॥
केवलमस्य प्रज्ञापनासूत्रस्थ चायं विशेषः, इह 'दुवे रासी पण्णत्ता' इत्यभिलापसूत्रं (तत्र)तु 'दुविहा पण्णवणा पण्णता-18
जीवपणषण्णा अजीवपण्णवणा य'त्ति, अतिदिष्टस्य च सूत्रतः सर्वस्य प्रज्ञापनापदस्य लेखितुमशक्यत्वादर्थतस्तलेश है उपदयते-तत्राजीवराशिर्द्विविधो रूप्यरूपिभेदात्, तत्रारूप्यजीवराशिर्दशधा-धर्मास्तिकायस्तद्देशास्तत्प्रदेशश्चेत्येव
मधर्मास्तिकायाकाशास्तिकायावपि वाच्यावेवं नव दशमोऽद्धासमय इति, रूप्यजीवराशिश्चतुर्की-स्कन्धा देशाः ४प्रदेशाः परमाणवथेति, ते च वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानभेदतः पञ्चविधाः संयोगतोऽनेकविधा इति । जीवराशिद्विविधः |
संसारसमापन्नोऽसंसारसमापन्नश्च, तत्रासंसारसमापन्ना जीवा द्विविधाः अनन्तरपरम्परसिद्धभेदात् , तत्रानन्तरसिद्धाः ॥१३॥
पञ्चदशप्रकाराः, परम्परसिद्धास्त्वनन्तप्रकारा इति, संसारसमापन्नास्तु पश्चधैकेन्द्रियादिभेदेन, तत्रैकेन्द्रियाः पञ्चविधाः मापृथिव्यादिभेदेन, पुनः प्रत्येकं द्विविधाः-सूक्ष्मवादरभेदेन, पुनः पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विधा, एवं द्वित्रिचतुरिन्द्रिया |
प्रत अनुक्रम [२३४-२३७]
5ACASSES
4
%
L
unciaram.org
~279~
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
गाथा:
अपि, पश्चेन्द्रियाश्चतुर्दा नारकादिभेदात् , तत्र नारकाः सप्तविधाः रलप्रभादिपृथ्वीभेदात् , पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चविधा-1 जलस्थलखचरभेदात् , तत्र जलचराः पञ्चविधा मत्स्यकच्छपग्राहमकरसुंसुमारभेदात्, पुनर्मत्स्या अनेकधा-लक्ष्णमत्स्यादिभेदात्, कच्छपा द्विधा अस्थिकच्छपमांसकच्छपभेदात्, पाहाः पञ्चधा दिलिवेष्टकमद्पुलकसीमाकारभेदात् मकरा-मत्स्यविशेषा द्विविधाः-शुण्डामकरा करिमकराश्च, सुंसुमारास्त्वेकविधाः, स्थलचरा द्विधा-चतुष्पदपरिसर्पभेदात्, तत्र चतुष्पदाश्चतुर्की-एकखुरद्विखुरगण्डीपदसनखपदभेदात्, क्रमेण चैते अश्वगोहस्तिसिंहादयः, परिसर्पा द्विधा-उरःपरिसर्पभुजपरिसर्पभेदात्, उरस्परिसाश्चतुर्द्धा-अहिअजगराशालिकमहोरगभेदात् , तत्राहयो द्विधा-दीकरा मुकुलिनश्चेति, खचराश्चतुर्की-चर्मपक्षिणो लोमपक्षिणः समुद्पक्षिणो विततपक्षिणश्च, तत्राद्यौ द्वौ बल्गुलीहंसादिभेदावितरौ द्वीपान्तरेष्वेव स्तः, सर्वे च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च द्विधा-सम्मूछिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च, तत्र संमूछिमाः नपुंसका एव, इतरे तु त्रिलिङ्गा इति, गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यात्रिधा-कर्मभूमिजा अकर्मभूमिजा अन्तरद्वीपजाश्चेति, कर्मभूमिजा द्विविधाः-आर्या म्लेच्छाश्च, आर्या द्वेधा-ऋद्धिप्राप्ता इतरे च, तत्र प्रथमा अहंदादयः, द्वितीया नवविधाः-क्षेत्रजातिकुलकर्मशिल्पभाषाज्ञानदर्शनचारित्रभेदात् , देवाश्चतुर्विधाः भवनवास्थादिभेदा
वनपतयो दशधा असुरनागादयः व्यन्तरा अष्टविधा पिशाचादयः ज्योतिष्काः पञ्चधा चन्द्रादयः वैमानिका द्विधाहै कल्पोपगाः कल्पातीताथ, कल्पोपगा द्वादशधा सौधर्मादिभेदात्, कल्पातीता द्वेधा-अवेयका अनुत्तरोपपातिकाश्च
प्रत अनुक्रम [२३४-२३७]
RECENG
REmiratna
~280~
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
नास्था
गाथा:
श्रीसमवा- वेयका नवधा अनुत्तरोपपातिकाः पञ्चधेति, एतत्समस्तं सूचयतोक्तं 'जाव से किं तं अणुत्तरेत्यादि, पूर्वोक्तमेव १४९ रायांग जीवराशिं दण्डकक्रमेण द्विधा दर्शयन्नाह-'दुबिहे'त्यादि, सुगमं नवरं 'दण्डओ'त्ति 'नेरइया १ असुराई १० पुढवाइ ५ |शिप्रज्ञापवृत्तिः
इंदियादओ ४ मणुया १॥ वंतर १ जोइस १ वेमाणिया य १ अह दंडओ एवं ॥१॥ अथानन्तरं प्रज्ञप्तानां नारका-1|
दीनां पर्याप्तापर्याप्सभेदानां स्थाननिरूपणायाह-'इमीसे णमित्यादि, अवगाहनासूत्रादाक् सर्व कण्ठ्यं, नवरं 'ते नानि. ॥१३५॥ निरया' इत्यादि, अत्र च जीवाभिगमचूर्ण्यनुसारेण लिख्यते-किल द्विविधा नरका भवन्ति आवलिकाप्रविष्टाः आव-15
लिकाबायाश्च, तत्रावलिकाप्रविष्टा अष्टासु दिक्षु भवन्ति, ते च वृत्तव्यस्रचतुरस्रक्रमेण प्रत्यवगन्तव्याः, एतेषां च ६
मध्ये इन्द्रकाः सीमन्तकादयो भवन्ति, आवलिकाबाह्यास्तु पुष्पावकीर्णा दिगविदिशामन्तरालेषु भवन्ति, नानासंहास्थानसंस्थिता इति निरयसंस्थानव्यवस्था, तत्र च बाहुल्यमङ्गीकृत्येदमभिधीयते-'अंतो पट्टे' त्यादि, उक्तं च सूत्रकृत्तिक-II
ता-"नारकाः सीमन्तकादिका बाहुल्यमंगीकृत्यान्तः-मध्ये वृत्ता बहिरपि चतुरस्रा अधश्च क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः,3
एतच संस्थानं पुष्पावकीर्णकानाश्रित्योक्तं तेषामेव प्रचुरत्वात् , आवलिकाप्रविष्टास्तु वृत्तव्यस्रचतुरस्रसंस्थाना भवदन्ती"ति, तत्रान्तर्वृत्ता मध्ये शुषिरमाश्रित्य बहिश्च चतुरखा कुड्यपरिधिमाश्रित्य, यावत्करणादिदं रश्यं यदुत अधः ॥१३॥
क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः-भूतलमाश्रित्य क्षुरप्राकारास्तद्भूतलस्य संचारिसत्त्वपादच्छेदकत्वात् अन्ये वाहुः-तेषामधस्त-1 नांशः क्षुरप्र इवाग्रेऽने प्रतलो विस्तीर्णश्चेति क्षुरप्रसंस्थानता, तथा 'निधयारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइस
प्रत अनुक्रम [२३४-२३७]
~ 281~
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
गाथा:
प्पहा मेयवसापूयरुहिरमंसचिक्खिललित्ताणुलेवणतला असुइवीसा परमदुभिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा' इति तत्र नित्यं-सर्वदा अन्धकार-अन्धत्वकारकं पहलबलाहकपदलाच्छादितगगनमण्डलामावास्वार्द्धरात्रान्धकारवत्तमः-तमिसं येषु ते नित्यान्धकारतमसः, अथवा नित्सेनान्धकारेण सार्वकालिकेनेत्यर्थः तमसः४ तमिस्रा नित्यान्धकारतमसः, जात्यन्धमेद्यान्धकारामावास्यानिशीथतुल्या इत्यर्थः, कथमित्यत आह–प्यपगता-अ|विद्यमाना ग्रहचन्द्रसूरनक्षत्ररूपाणां ज्योतिषां-ज्योतिष्कलक्षणविमानविशेषाणां ज्योतिषो वा-दीपायनेः प्रभाप्रकाशो येषु ते तथा, 'पह'त्ति पथशब्दो वाऽयं व्याख्येयः, तथा मेदोवसापूयरुधिरमांसानि शरीरावयवास्तेषां यच्चि|क्खिलं-कर्दमस्तेन लिप्त-उपदिग्धमनुलेपनेन सकलिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपनेन तलं-भूमिका येषां ते मेदोवसापूयरुघिरमांसचिक्खिल्ललिप्सानुलेपनतलाः, यद्यपि च तत्र मेदःप्रभृतीन्यौदारिकपञ्चेन्द्रियशरीरावयवरूपाणि न सन्ति वैक्रियशरीरत्वान्नारकाणां तथापि तदाकारास्तदवयवास्तत्र प्रोच्यन्त इति, अशुचयो विश्राः-आमगन्धयः पूतिगन्धय इत्यर्थः, अत एव परमदुरभिगन्धाः 'काऊअगणिवण्णाभ'त्ति कृष्णाग्मिलॊहादीनां ध्मायमानानां तद्वर्णवदाभा येषां ते
कृष्णाग्निवर्णाभाः, तथा कर्कशः स्पर्शी येषां ते कर्कशस्पर्शाः, अत एव दुःखेन-कृच्छ्रेणाधिसोढुं शक्यते घेदना येषु ते ४ दुरधिसबाः, अत एवाशुभा नरका अशुभा नरकेपु वेदना इति 'एवं सत्तवि भाणिय'त्ति प्रथमाममुञ्चता सप्स इत्युक्तं,
'जं जासु जुजईत्ति यच्च यस्यां पृथिव्यां बाहलचस्प नरकाणां च परिमाणं युज्यते स्थानान्तरोक्तानुसारेण तच तस्यां
प्रत अनुक्रम [२३४-२३७]
SHREmiratandana
~282~
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय०
वृत्तिः ॥१३६॥
गाथा:
वाच्यं, तचेदं-'आसीत' गाहा'तीसा य' गाहा अशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षं रत्नप्रभायां बाहल्यमेवं शेषासु भावनीयं, तथा त्रिंशलक्षाणि प्रथमायां नरकाबासानामित्येवं शेषाखपि नेयमिति, आवासपरिमाणं चासुरादीनामपि|3|| शिप्रज्ञापदशानां सौधर्मादीनां च कल्पेतराणां सूत्रैर्वक्ष्यतीति, तन्निवासपरिमाणसङ्ग्रहे 'चउसट्ठी' इत्यादि गाथाः पञ्च, एवं नाखाचैव सूत्राभिलापो रश्यः, सकरप्पभाए णं पुढवीए केवइयं ओगाहित्ता केवइया निरया पण्णता ?, गोयमा |नानि. सक्करप्पभाए थे पुढवीए वचीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तरे जोयणसयसहस्से एत्य णं सकरप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं पणवीसं निरयावाससयसहस्सा भवन्तीतिमक्खाया, ते णं निरया' इत्यादि, एवं गाथानुसारेणान्येऽपि पञ्चालापका वाच्या इति, एतदेवाह-'दोचाए' इत्यादि 'वेयणाओं' इत्येतदन्तं सुगम, नवरं 'गाहाहिति गाथाभिः करणभूताभिर्गाथानुसारेणेत्यर्थः, भणितव्या-याच्या नरकवासा इति प्रक्रमः, तथा 'वढे यतंसा यत्ति मध्यमो वृत्तः शेषाख्यत्रा इति, अथा-12 सुराद्यावासविषयमभिलापं दर्शयतिकेवइया णं भंते ! असुरकुमारावासा प०१, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि
॥१३६॥ एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता देवा चेगे जोयणसहस्सं पबित्ता मज्झे अट्टहत्तरिजोयणसयसहस्से एत्य ण रयणप्पभाए पुढवीए चउसदि असुरकुमारावाससयसहस्सा प० ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा अहे पोक्खरकण्णिासंठाणसंठिया उकिणं
प्रत अनुक्रम [२३४-२३७]
~2834
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------
मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [१५०]
गाथा:
तरविउलगंभीरखायफलिहा अट्टालयचरियदारगोउरकवाडतोरणपडिदुवारेदसभागा जंतमुसलमुसंढिसयग्धिपरिवारिया अउज्ज्ञा अडयालकोहरदया अडयालकयवणमाला लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितला कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकडझंतधूवमघमतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधिया गंधवट्टिभूया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सप्पमा समिरीया सउजोआ पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा, एवं जं जस्स कमती तं तस्स जंजं गाहाहिं मणिय तह चेव वण्णओ। केवइया णं भंते ! पुढविकाइयावासा प०१, गोयमा ! असंखेजा पुढवीकाइयावासा प०, एवं जाव मणुस्सत्ति, केवइया णं भंते ! वाणमंतरावासा प०१, गोयमा! इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहलस्स उवरि एग जोयणसयं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगे जोयणसयं वजेत्ता मज्झे अहसु जोयणसएसु एत्य णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेना भोमेा नगरावाससयसहस्सा प०, ते णं भोमेजा नगरा बाहिं वटा अंतो चउरंसा, एवं जहाँ भवणवासीणं तहेव णेयव्वा, णवरं पडागमालाउला सुरम्मा पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा ॥ केवइया ण मते! जोइसियाणं विमाणावासा प०१, गोयमा! इमीसे पं रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तनउयाई जोयणसयाई उड्डे उपइत्ता एत्थ णं दसुतरजोयणसयबाहले तिरियं जोइसविसए जोइसियाण देवाणं असंखेजा जोइसियविमाणावासा प०, ते पंजोइसियविमाणावासा अन्भुग्गयमूसियपहसिया विविहरमणिरयणभत्तिचित्ता वाउद्भुयविजयवेजयंतीपडागछत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहंतसिहरा जालंतररयणपतरुम्मिलियब्च मणिकणगथूमियागा वियसियसयपत्तपुण्डरीयतिलयरयणद्धचंदचित्ता अंतो याहिं च सहा तवणिज्जवालुआपत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिा ॥
प्रत अनुक्रम
[२३८
-२४४]
SAHARS
~284 ~
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५०]
श्रीसमवा'यांगे श्रीअमय
चिः ॥१३७॥
गाथा:
BEGASARACC
केवइया णं भंते ! वेमाणियावासा प०?, गोयमा ! इमीसे णं स्वणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उहुं चंदिमसू- १५० भरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं वीइवइत्ता बहूणि जोयणाणि बहूणि जोयणसयाणि बहूणि जोयणसहस्साणि (बहूणि जोयणसयसह
वनादिस्साणि) बहुइओ जोयणकोडीओ बहुइओ जोयणकोडाकोडीओ असखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ उखु दूरं वीइवइत्ता एस्थ णं विमा- वर्णनम्. णियाणं देवाणं सोहम्मीसाणसणंकुमारमाहिंदवंभलंतगसुक्कसहस्सारआणयपाणयआरणअजुएसु गेवेअममणुत्तरेसु य चउरासीई विमाणावाससयसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीतिमक्खाया, ते णं विमाणा अधिमालिप्पमा भासरासिवण्णाभा अरया नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सवरयणामया अच्छा सण्हा घट्टा मट्ठा णिपंका णिकंकडच्छाया सप्पभा समरीया सउजोया पासाईया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा । सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णता?, गोयमा ! बत्तीसं विभाणावाससयसहस्सा पपणत्ता, एवं ईसाणाइसु अट्ठावीस बारस अट्ठ चत्तारि एयाइ सयसहस्साई पण्णासं चत्तालीसं छ एयाई
सहस्साई आणए पाणए चत्तारि आरणक्षुए तिन्नि एयाणि सयाणि, एवं गाहाहि भाणियब्वं (सूत्रं १५०) | 'केवईत्यादि सुगम, नवरं तानि भवनानि बहिर्वृत्तानि वृत्तप्राकारावृतनगरवत् अन्तः समचतुरस्त्राणि तदवकाशदेशस्य
चतुरस्रत्वात, अधःपुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि, पुष्करकर्णिका-पद्ममध्यभागः, सा चोन्नतसमचित्रविन्दुकिनी || भवतीति, तथा 'उत्कीर्णान्तरविपुलगम्भीरखातपरिखे ति उत्कीर्ण-भुवमुत्कीर्य पालीरूपं कृतमन्तरं-अन्तरालं ययोस्ते ॥१३॥ उत्कीर्णान्तरे ते विपुलगम्भीरे खातपरिखे येषां तानि तथा, तत्र खातमध उपरि च समं परिखा तूपरि विशाला अधः सङ्कुचिता तयोरन्तरेषु पाली यत्रास्तीति भावः, तथा अट्टालका-प्राकारस्योपर्याश्रयविशेषाः चरिका-नगरप्राका
प्रत अनुक्रम
[२३८
-२४४]
~285
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
56-4-%
सूत्रांक [१५०]
EXS
रयोरन्तरमष्टहस्तो मार्गः पाठान्तरेण 'चतुरयन्ति चतुरकाः सभाविशेषाः ग्रामप्रसिद्धाः 'दारगोउर'त्ति गोपुरद्वाराणि प्रतोल्यो-नगरस्यैव कपाटानि प्रतीतानि तोरणान्यपि तथैव प्रतिद्वाराणि-अवांतरद्वाराणि तत एतेषां द्वन्द्व एतानि देशलक्षणेषु भागेषु येषां तानि तथा, इह देशो भागबानेकार्थः, ततोऽन्योऽन्यमनयोर्विशेष्यविशेषणभावो दृश्य इति, तथा जंताणि-पाषाणक्षेपणयत्राणि मुशलानि प्रतीतानि मुसुंब्यः-प्रहरणविशेषाः शतभ्यः-शतानामुपपातकारिण्यो महाकायाः काष्टशैलस्तम्भयष्टयः ताभिः 'परिवारिय'त्ति-परिवारितानि परिकलितानीत्यर्थः, तथा अयोध्यानि-योधयितुंसामयितुं दुर्गत्वान्न शक्यन्ते परवलानि तान्ययोध्यानि अविद्यमाना वा योधाः-परवलसुभटा यानि प्रति तान्ययोधानि, तथा अडयालकोट्ठगरइयत्ति अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविचित्रच्छन्दगोपुररचितानि, अन्ये भणन्ति-अडयालिय(ल)शब्दः किल प्रशंसावाचकः, तथा 'अडयालकयवणमाल'त्ति अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नाः प्रशंसाः कृता वनमाला-वनस्पतिपल-18 बस्रजो येषु तानि तथा, 'लाइय'ति यद्भूमेश्छगणादिनोपलेपनं 'उलोइय'ति कुड्यमालानां सेटिकादिभिः सम्मृष्टीकरणं ततस्ताभ्यामिव महितानि-पूजितानि लाउलोइयमहितानि, तथा गोशीर्ष-चन्दनविशेषः सरसं च-रसोपेतं यद्रक्तचन्दनं-चन्दनविशेषः ताभ्यां दर्दराभ्यां-घनाभ्यां दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तकाः कुड्यादिषु येषु, अथवा गोशीर्पसरसरक्तचन्दनस्य सत्का दर्दरेण-चपेटाभिघातेन ददरेषु वा-सोपानवीथीपु दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला येपुतानि गोशीसरसरक्तचन्दनददरदत्तपश्चाङ्गुलितलानि, तथा कालागुरु:-कृष्णागुरुर्गन्धद्रव्यविशेषः प्रवरः-प्रधानः कुन्दुरका-चीडा
गाथा:
Rece
प्रत अनुक्रम
E k
[२३८
-२४४]
JAMEauraton
.
~286~
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:],
मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५०]
यांगे
गाथा:
श्रीसमवा- तुरुष्का-सिल्हकं गन्धद्रव्यमेव एतानि च तानि 'डझंति'त्ति दह्यमानानि यानि तानि तथा तेषां यो धूमो 'मघ- १५० भ
मत'त्ति अनुकरणशब्दोऽयं मघमघायमानो बहलगन्ध इत्यर्थः तेनोद्धराणि-उत्कटानि यानि तानि तथा तानि च वनादि
तान्यभिरामाणि-रमणीयानीति समासः, तथा सुगन्धयः-सुरभयो ये वरगन्धा:-प्रधानवासास्तेषां गन्धः-आमोदो ट वर्णनम् . वृत्तिः
येष्वस्ति तानि सुगन्धिवरगन्धिकानि, तथा गन्धवतिः-गन्धद्रव्याणां गन्धयुक्तिशास्त्रोपदेशेन निर्त्तितगुटिका तद्भूता॥१३८॥ नि-तत्कल्पानीति गन्धवर्तिभूतानि प्रवरगन्धगुणानीत्यर्थः, तथा अच्छानि आकाशस्फटिकवत् 'सण्ह'त्ति श्लक्ष्णानि 3
सूक्ष्मस्कन्धकनिष्पन्नत्वात् श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत् 'लण्ह'त्ति श्लक्ष्णानि मसणानीत्यर्थः, धुटितपटवत्, 'घट्ट'त्ति धृष्टानीव घृष्टानि खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् 'मट्ठ'त्ति मृष्टानीव मृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव शोधितानि वा प्रमार्जनिकयेब, अत एव 'नीरय'त्ति नीरजांसि रजोरहितत्वात् 'निम्मलति निर्मलानि कठिनमलाभा-121 वात् 'वितिमिर'त्ति वितिमिराणि निरन्धकारत्वात् 'विसुद्ध'त्ति विशुद्धानि निष्कलङ्कत्वान्न चन्द्रवत् सकलङ्कानीत्यर्थः तथा 'सप्पहति सप्रभाणि समभावाणि अथवा खेन-आत्मना प्रभान्ति-शोभन्ते प्रकाशन्ते वेति खप्रभाणि यतः |'समिरीय'त्ति समरीचीनि-सकिरणानि, अत एव 'सउज्जोय'त्ति सहोद्योतेन-यस्त्वन्तरप्रकाशनेन वर्तन्ते इति सोयो
तानि 'पासाईय'त्ति प्रासादीयानि मनःप्रसत्तिकराणि 'दरिसणिज'त्ति दर्शनीयानि, तानि हि पश्यंचक्षुषा न श्रम ५ गच्छतीति भावः, 'अभिरूवत्ति अभिरूपाणि कमनीयानि 'पडिरूव'त्ति प्रतिरूपाणि द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रमणीयानि
प्रत अनुक्रम
[२३८
-२४४]
eCCESS
~287
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [१५०]
गाथा:
नकस्य कस्यचिदेवेत्यर्थः, 'एव'मित्यादि, यथाऽसुरकुमारावाससूत्रे तत्परिमाणमभिहितमेवमिति-तथा यद्भवनादिप-11 रिमाणं यस्य नागकुमारादिनिकायस्य क्रमते-घटते तत्तस्य वाच्यमिति, किंविधतस्य परिमाणमत आह-'जंजं गाहारि भणियं' यद्यद् गाथाभिः 'चउसट्ठि असुराण'मित्यादिकाभिरभिहितं, किं परिमाणमेव तथा वाच्यं नेत्याह-इह चेव 81 वण्णओत्ति यथा असुरकुमारभवनानां वर्णक उक्तस्तथा सर्वेषामसौ वाच्य इति, तथाहि-केवइया णं भंते ! नागकु-II मारावाससयसहस्सा पण्णता ?, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए । उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसहस्से एत्थ पं रयणप्प-10 भाए चुलसीई नागकुमारावाससयसहस्सा भवन्तित्तिमक्खायंति, ते णं भवणा' इत्यादि, द्वीपकुमारादीनां तु पण्णां81 प्रत्येकं षट्सप्ततिर्वाच्येति । 'केवइया णं भंते ! पुढवी'त्यादि गताथै, नवरं मनुष्याणां संख्यातानामेव गर्भव्युत्क्रान्ति-11 कानां असंख्यातानामभावात् संख्याता एवावासाः, सम्मूञ्छिमानां त्वसंख्येयत्वेन प्रतिशरीरमावासभावादसंख्येयानि इति भावनीयमिति । 'केवइया णं भंते ! जोइसियाणं विमाणावासा' इत्यादि, 'अब्भुग्गयमुसियपहसिय'त्ति अभ्युद्गता-सञ्जाता उत्सता-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसूता या प्रभा-दीप्तिस्तया सिताः-शुक्ला इत्यभ्युद्गतोत्सृतप्रभासिताः, तथा विविधा-अनेकप्रकारा मणयः-चन्द्रकान्ताद्या रत्नानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तयो-विच्छित्तिविशेषाताभिश्चित्राः-चित्रवन्तः आश्चर्यवन्तो वेति विविधमणिरतभक्तिचित्र्यः, तथा वातोद्भूता-चातकम्पिता विजया-अ
प्रत अनुक्रम
[२३८
-२४४]
२४ समX
SHREmiratn
a na
~288~
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------
मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
श्रीसमवा-1
सूत्रांक
यांगे
[१५०]
श्रीअमय वृचिः
॥१३९॥
गाथा:
SAKSECREGAAGAR
भ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीत्यभिधाना याः पताका अथवा विजयाँ इति वैजयन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्तेन्ता- १५० भ. धाना या वैजयंत्यस्ताश्च तद्वर्जिताः पताकाच छत्रातिच्छत्राणि च-उपर्युपरिस्थितातपत्राणि तैः कलिता-युक्ता वातो-14 बनायातविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिच्छत्रकलिता इति, तुङ्गा-उच्चैस्त्वगुणयुक्ता, अत एव 'गगनतलमणुलिहंतसिहर'त्ति बास. गगनतलं-अम्बरतलमनुलिखद्-अभिलङ्ग्यच्छिखरं येषां ते गगनतलानुलिखच्छिखराः, तथा जालान्तरेषु-जालकमध्यभागेषु रनानि येषां ते जालान्तररत्नाः, इह प्रथमाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, जालकानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीता-12 न्येव तदन्तरेषु च शोभा रत्नानि सम्भवन्त्येवेति, तथा पञ्जरोन्मीलिता इव-पञ्जरबहिष्कृता इच, यथा किल किञ्चिद्वस्तु पाराद्-वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद्वहि कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वाच्छोभते एवं तेऽपीति भावः, तथा मणिकन|कानां सम्बन्धिनी स्तूपिका-शिखरं येषां ते मणिकनकस्तूपिकाकाः, तथा विकसितानि यानि शतपत्रपुण्डरीकाणि द्वारादौ प्रतिकृतित्वेन तिलकाश्च-भित्त्यादिषु पुण्ड्राणि रत्नमयाश्च ये अर्द्धचन्द्रा द्वाराग्रादिषु तैश्चित्रा ये ते विकसि-151 तशतपत्रपुण्डरीकतिलकरलार्द्धचन्द्रचित्राः, तथा अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णा मसणा इत्यर्थः, तथा तपनीयं-सुवर्णविशेषस्तन्मय्या वालुकाया:-सिकतायाः प्रस्तटः-प्रतरो येषु ते तपनीयवालुकाप्रस्तटाः, अथवा सहशब्दस्य वालुकाविशेषण-1||१३९॥ त्यात् लक्ष्णतपनीयवालुकाप्रस्तटा इति व्याख्येयं, तथा सुखस्पर्शाः शुभस्पर्शा वा, तथा सश्रीक-सशोभं रूपं-आ-1 कारो येषां अथवा सश्रीकाणि-शोभावन्ति रूपाणि-नरयुग्मादीनि रूपकाणि येषु ते सश्रीकरूपाः, प्रासादनीया
प्रत अनुक्रम
[२३८
-२४४]
4.1
iralaunasurary.orm
~289~
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
सूत्रांक [१५०]
गाथा:
दर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपा इति पूर्ववत् । 'केवइए'त्यादि, रत्नप्रभायाः पृथिव्या 'बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ'त्ति बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य ऊर्दू-उपरि तथा चन्द्रमसः-सूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणि णमित्यलङ्कारे किं ?-| वीइवइत्त'त्ति व्यतिव्रज्य-व्यतिक्रम्येत्यर्थः, तारारूपाणि चेह तारका एवेति, तथा 'बहूनी'त्यादि, किमित्याहऊर्द्धम्-उपरि दूरमत्यर्थ व्यतित्रज्य चतुरशीतिविमानलक्षाणि भवन्तीति सम्बन्धः, 'इतिमक्खाय'त्ति इति-एवंप्रकारा अथवा यतो भवन्ति तत आख्याताः सर्ववेदिनेति, 'ते णं'ति तानि विमानानि णमिति वाक्यालङ्कारे 'अचिमालिप्पत्ति अर्चिालिः-आदित्यस्तद्वत्प्रभान्ति-शोभन्ते यानि तान्यर्चिालिप्रमाणि, तथा भासानां-प्रकाशानां राशिःPभासराशि:-आदित्यस्तस्य वर्णस्तद्वदाभा-छायावर्णो येषां केषांचित्तानि भासराशिवर्णाभानि, तथा अरय'त्ति अरजांसि |
खाभाविकरजोरहितत्वात् 'नीरय'त्ति नीरजांसि आगन्तुकरजोविरहात् 'निम्मल'त्ति निर्मलानि कक्खड(कर्कश)मलाभायात् 'वितिमिरत्ति वितिमिराणि आहार्यान्धकाररहितत्वात् विशुद्धानि स्वाभाविकतमोविरहात् सकलदोषविरामावा हा सर्वरत्नमयानि न दादिदलमयानीत्यर्थः, अच्छान्याकाशस्फटिकवत् श्लक्ष्णानि सूक्ष्मस्कन्धमयत्वात् घृष्टानीव घृष्टानि |
खरशाणया पाषाणप्रतिमेव मृष्टानि सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेवेति निष्पङ्का निकलङ्कविकलत्वात् कमविशेषरहितत्वाद्वा निष्कङ्कटा-निष्कवचा निरावरणा निरुपघातेत्यर्थः छाया-दीप्सिर्वेषां तानि निष्कण्टकच्छायानि सप्रमा-12
प्रत अनुक्रम
[२३८
-२४४]
SAREarating
For P
OW
~290~
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५०]
गाथा:
श्रीसमवा-मणि-प्रभावन्ति समरीचीनि-सकिरणानीत्यर्थः 'सोद्योतानि-वस्त्वन्तरप्रकाशनकारीणीत्यर्थः, 'पासाईए' त्यादि प्राग्वत्। १५१ नायांगे 'सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवइया विमाणावासा पण्णता?, गोयमा! बत्तीस विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता' एव-16
| स्कादिश्रीअभयमीशानादिष्वपि द्रष्टव्यं, एतदेवाह-एवं ईसाणाइसुत्ति, 'गाहाहि भाणिय'ति 'बत्तीस अट्ठवीसा' इत्यादिकाभिः
स्थितिः वृत्तिः
पूर्वोक्तगाथाभिस्तदनुसारेणेत्यर्थः, प्रतिकल्पं भिन्नपरिमाणा विमानावासा भणितव्यास्तद्वर्णकश्च वाच्यो 'जाव ते णं वि॥१४॥ माणे त्यादि यावत् 'पडिरूवा', नवरमभिलापभेदोऽयं यथा "ईसाणे गंभंते ! कप्पे केवइया विमाणावाससयसहस्सा
कापण्णता?, गोयमा! अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खाया, ते गं विमाणा जाय पडिरूवा' एवं सर्वे |
पूर्वोक्तगाथानुसारेण प्रज्ञापनाद्वितीयपदानुसारेण च वाध्यमिति ॥ अनन्तरं नारकादिजीवानां स्थानान्युक्तानि, अथ तेषामेव स्थितिमुपदर्शयितुमाहनेरदयाण भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता ?, गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई ठिई प०, अपञ्चतगाणं नरेइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई प०१, जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पजत्तगाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई उकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, इमीसे णं खणप्पमाए पुढवीए एवं जाव विजयवेजयंतजयं
॥१४॥ तअपराजियाण देवाणं केवइयं कालं ठिई प०१, गोयमा! जहन्नेणं बत्तीस सागरोवमाई उकोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई, सबढे अजहण्णमणुकोसेणं तेतीसं सागरोवमाई ठिई पन्नत्ता (सूत्र १५१)
NECOR
प्रत अनुक्रम
[२३८
-२४४]
FATirastaram.org
~291
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत सूत्रांक
[१५१]
प्रत
अनुक्रम
[२४५]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
'नेरया णं भंते!' इत्यादि सुगमं, नवरं स्थितिः -नारकादिपर्यायेण जीवानामवस्थानकाल: 'अपञ्चत्तथाणं ति नारकाः किल लब्धितः पर्याप्तका एव भवन्ति, करणतस्तूपपातकाले अन्तर्मुहूर्त्त यावदपर्याप्तका एव भवन्ति ततः पर्याप्तकाः, ततस्तेषामपर्यासकत्वेन स्थितिर्जघन्यतोऽप्युत्कर्षतोऽपि चान्तर्मुहूर्त्तमेव, पर्याप्तकानां पुनरौधिक्येव जघन्योत्कृष्टा चान्तर्मुहूर्त्तोना भवतीति, अयं चेह पर्याप्तकापर्यातकविभागः - 'नारयदेवा तिरिमणुयगन्मया जे असंखवासाऊ । एते उ अपजत्ता उबवाए चेव बोद्धवा ॥ १ ॥ सेसा य तिरियमणुया उद्धिं पप्पोवबायकाले य । दुहओत्रिय भइयच्चा पज्जत्तियरे य जिणवयणं ॥२॥ 'ति, उक्ता सामान्यतो नारकाणां स्थितिर्विशेषतस्तामभिधातुमिदमाह - 'इमीसे णमित्यादि, स्थितिप्रकरणं च सर्वे प्रज्ञापनाप्रसिद्धमित्यतिदिशन्नाह – 'एव' मिति यथा प्रज्ञापनायां सामान्यपर्याप्तकापर्यास कलक्षणेन गमत्रयेण नारकाणां नारकविशेषाणां तिर्यगादिकानां च स्थितिरुक्ता एवमिहापि वाच्या, कियदूरं यावदित्याह 'जाब विजयेत्यादि, अनुत्तरसुराणामोधिका पर्याप्तकपर्याप्तकलक्षणं गमत्रयं यावदित्यर्थः, इह चैवमतिदिष्टसूत्राण्यर्थतो वाच्यानि रत्नप्रभानारकाणां भदन्त ! कियती स्थितिः ?, गौतम ! जघन्येन दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः सागरोपमं १, अपर्याप्त करलप्रभा पृथिवीनारकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञता ?, गौतम ! उभयथापि अन्तमुहूर्त्तमेव, पर्याप्तकानां तु सामान्यो कैवान्तर्मुहूर्त्ताना वाच्या, एवं शेषपृथ्वीनारकाणां प्रत्येकं दशानामसुरादीनां पृथिवीकायिकानां तिरक्षां गर्भजेतरभेदानां मनुष्याणां व्यन्तराणामष्टविधानां ज्योतिष्काणां पञ्चप्रकाराणां सौधर्म्मादीनां
For Parts Only
मूलं [१५१]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~292~
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
यांगे
प्रत सूत्रांक
[१५१]
श्रीसमवा- वैमानिकानां च गमत्रयं वाय, कियहरं यावदित्याह-जाव विजये त्यादि, इह च विजयादिषु जघन्यतो द्वात्रिंश-४ १५२ श.
|सागरोपमाण्युक्तानि, गन्धहस्त्यादिष्वपि तथैव दृश्यते, प्रज्ञापनायां त्वेकत्रिंशदुक्तेति मतान्तरमिदं, पर्याप्तकापर्या-शरीरसूत्रं. श्रीअभय
सकगमद्वयमिह समूबम्, एवं सर्वार्थसिद्धिस्थितिरपि त्रिभिर्गमैर्वाच्येति ॥ अनन्तरं नारकादिजीवानां स्थितिरुक्केदानी18 वृचिः
है तच्छरीराणामवगाहनाप्रतिपादनायाह॥१४॥ कति णं भंते! सरीरा प०१, गोयमा! पंच सरीरा प०, तं०-ओरालिए वेउचिए आहारए तेयए कम्मए, ओरालियसरीरेणं भंते ।
कइविहे प०१, गोयमा ! पंचविहे प०, तं०-एगिदियओरालियसरीरे जाव गम्भवकंतियमणुस्संपचिंदियओरालियसरीरे य, ओरालियसरीरस्सणं भंते! केमहालिया सरीरोगाणा पनवा?, गोयमा! जहन्नेणं अंगुलअसंखेजतिभागं उक्कोसेणं साइरेगं जोयणसहस्सं, एवं जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियपमाणं तहा निरवसेसं, एवं जाव मणुस्सेत्ति उक्लोसेणं तिष्णि गाउयाई । कइविहे णं भंते ! वेउवियसरीरे ५०१, गोयमा दुविहे प०, एगिदियवेउब्वियसरीरे य पंचिंदियवेउवियसरीरे अ, एवं जाव सर्णकुमारे आढतं जाव अणुत्तराणं भवधारणिला जाव तेर्सि रयणी रयणी परिहायइ । आहारयसरीरेणं भंते ! काविहे पन्नचे, गोयमा! एगाकारे प०, जइ एगाकारे ५० किं मणुस्साहारयसरीर अमणुस्सआहारयसरीरे?, गोयमा! मणुस्साहारगसरीरे णो अमणुस्सआहारगसरीरे, एवं जद मणुस्सआहारगसरीरे किं गम्भवदंतियमणुस्साहारगसरीरे समुच्छिममणुस्साहारगसरीरे १, गोयमा!
॥१४॥ गम्भवतियमणुस्साहारयसरीरेनो समुच्छिममणुस्सआहारयसरीरे, जइ गम्भवतिय० किं कम्मभूमिगा०अकम्मभूमिगा०?,गोयमा! कम्मभूमिगा० नो अकम्मभूमिगा०, जइ कम्मभूमिग० किं संखेजवासाउय० असंखेजवासाउय०१, गोयमा! संखेजवासाउय० नो
ACKAGARGARH
प्रत
अनुक्रम [२४५]
~293~
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
RS
प्रत सूत्रांक [१५२]
CCCCESSAGAR
असंखेजवासाउय०, जइ संखेजवासाउय० किं पजत्तय० अपजत्तय०१, गोयमा! पजत्तय० नो अपअत्तय०, जइ पजत्तय किं समदिट्ठी मिच्छदिट्ठी० सम्मामिच्छदिट्ठी०१, गोयमा ! सम्मदिट्ठी० नो मिच्छदिट्ठी नो सम्मामिच्छदिट्ठी, जइ सम्मदिट्ठी किं संजय० असंजय० संजयासंजय०१, गोयमा! संजय० नो असंजय० नो संजयासंजय०, जइ संजय० किं पम्मत्तसंजय० अपम्मत्तसंजय०१, गोयमा! पमत्तसंजय० नो अपमत्तसंजय०, जइ पमत्तसंजय० किं इड्डिपत्त अणिविपत्त०१, गोयमा! इडिपत्त. नो अणिड्डिपत्त० वयणा विभाणियचा आहारयसरीरे समचउरंससंठागसंठिए, आहारयसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता?, गोयमा! जहन्नेणं देसूणा रयणी उक्कोसेणं पडिपुण्णा रयणी । तेआसरीरे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते, एगिदियतेयसरीरे वितिचउपंच. एवं जाव गेवेस्स णं भंते! देवस्स गं मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स समाणस्स केमहालिया सरीरोगाहणा. पन्नत्ता?, गोयमा! सरीरप्पमाणमेत्ता विक्खंभवाहलेणं आयामेणं जहन्नेणं अहे जाव विजाहरसेडीओ उक्कोसेणं जाव अहोलोइयग्गामाओ, उड्डे जाव सयाई विमाणाई, तिरियं जाव मणुस्सखेत्तं, एवं जाव अणुत्तरोववाइया, एवं कम्मयसरीरं भाणियचं (सूत्र १५२) 'कह णं भंते' इत्यादि कण्ठ्यं, नवरमेकेन्द्रियौदारिकशरीरमित्यादौ यावत्करणाद् द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियौदारिकशरी-11 राणि पृथिव्यायेकेन्द्रियजलचरादिपञ्चेन्द्रियभेदेन प्रागुपदर्शितजीवराशिक्रमेण वाच्यानि, कियहरमित्याह-'गम्भवकतिये'सादि, 'ओरालियसरीरस्से'त्यादि, तत्रोदारं-प्रधानं तीर्थकरादिशरीराणि प्रतीत्य अथवोरालं-विस्तरालं विशालं समधिकयोजनसहस्रप्रमाणत्वात् वनस्पत्यादि प्रतीत्य अथवा उरालं-खल्पप्रदेशोपचितत्वात् बृहत्त्वाच भेण्ड
प्रत
अनुक्रम [२४६]
HAmurary.org
~294~
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१५]
श्रीसमवा- वदिति, अथवा मांसास्थिपूयवद्धं यच्छरीरं तत्समयपरिभाषया उरालमिति, तच तच्छरीरं चेति प्राकृतत्वादोरालि १५२ श
यांगे 18|शरीरं, तस्वावगाइन्ते यस्यां साऽवगाहना-आधारभूतं क्षेत्रं शरीराणामवगाहना शरीरावगाहना अथवौदारिकशरी-मारीरसूत्र.. श्रीअभयरस्य जीवस्य औदारिकशरीररूपावगाहना सा भदन्त ! केमहालिया-किम्महती प्रज्ञप्ता, तत्र जघन्येनाङ्गुलासंख्येय-15 वृत्तिः
भागं यावत् पृथिव्याद्यपेक्षया उत्कर्षेण सातिरेकं योजनसहस्रमिति बादरवनस्पत्यपेक्षयेति 'एवं जाय माणुस्से त्ति ॥१४२ इह एवं यावत्करणादवगाहनासंस्थानाभिधानप्रज्ञापनकविंशतितमपदाभिहितग्रन्थोऽर्थतोऽयमनुसरणीयः, तथाहि
एकेन्द्रियौदारिकस्य पृच्छा निर्वचनं च तदेव, तथा पृथिव्यादीनां चतुर्णा वादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तानां जघन्यत उत्कसप्तश्चाङ्गुलासंख्येयभागो, वनस्पतीनां बादरपर्याप्तानामुत्कर्षतः साधिकं योजनसहस्रं, शेषाणां त्वङ्गुलासंख्येयभाग
एच, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां पर्याप्तानामुत्कर्षतोऽनुक्रमेण द्वादश योजनानि त्रीणि गव्यूतानि चत्वारि चेति, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां जलचराणां पर्याप्तानां गर्भजानां संमूर्छनजानां चोत्कर्षतो योजनसहस्रं, एवं स्थलचराणां चतुष्पदानां संमूर्छनजानांपर्याप्सानां गव्यूतपृथक्त्वं गर्भव्युत्क्रान्तिकानां तेषां षड् गव्यूतानि उर परिसपर्पाणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां योजनसहस्रं एषामेव सम्मूर्छनजानां योजनपृथक्त्वं भुजपरिसाणां गर्भजानां गव्यूतपृथक्त्वं सम्मूर्छनजानां च धनुः- ॥१४२॥ | पृथक्त्वं खचराणां गर्भजानां सम्मूर्छनजानां च धनुःपृथक्त्वमेव, तथा मनुष्याणां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां गन्यूतत्रयं |सम्मूर्छनजानामङ्गुलासंख्येयभागः, एष एव सर्वत्र जघन्यपदे अपर्याप्तपदे चेति, तथा 'कइविहे ण'मित्यादि स्पष्टं, नवरं
प्रत
अनुक्रम [२४६]
~295
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
C
विविधा विशिष्टा या क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं विविधं विशिष्टं वा कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकमिति वा, तत्रै-* केन्द्रियवैक्रियशरीरं वायुकायस्य पञ्चेन्द्रिय क्रियशरीरं नारकादीनां 'एवं जावे त्यादेरतिदेशादिदं द्रष्टव्यं, यदुत 'जह एगिंदियवेउवियसरीरए किं वाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरए अवाउकाइयएगिदियवेउवियसरीरए ?, गोयमा! बाउकाइयएगिदियसरीरए नो अवाउकाइय' इत्यादिनाऽभिलापेनायमर्थो दृश्यः, यदि वायोः किं सूक्ष्मस्य बादरस्य वा ?, बादरस्यैव, यदि बादरस्य किं पर्याप्तकस्यापर्यासकस्य वा ?, पर्याप्तकस्यैव, यदि पञ्चेन्द्रियस्य किं नारकस्य पञ्चेन्द्रियतिरश्चो मनुजस्य देवस्य वा ?, गौतम ! सर्वेषां, तत्र नारकस्य सप्तविधस्य पर्याप्तकस्येतरस्य च, यदि तिरश्चः किं सम्मूछिमस्य इतरस्य वा ?, इतरस्य, तस्यापि संख्यातवर्षायुष एव पर्याप्तस्य, तस्यापि च जलचरादिभेदेन त्रिविधस्थापि, तथा मनुष्यस्य गर्भजस्यैव, तस्यापि कर्मभूमिजस्यैव, तस्यापि संख्यातवर्षायुषः पर्याप्तकस्यैव, तथा देवस्व भवनवास्थादेः, तत्रासुरादेर्दशविधस्स पर्यासकस्खेतरस्य च, एवं व्यन्तरस्याष्टविधस्य ज्योतिष्कस्य पञ्चविधस्य, तथा यदि वैमानिकस्य किं कल्पोपपन्नस्य कल्पातीतस्य ?, उभयस्यापि पर्याप्तस्यापर्याप्तस्य चेति, तथा वैक्रियं भदन्त ! किंसंस्थितं ,15 उच्यते, नानासंस्थितं, तत्र वायोः पताकासंस्थितं, नारकाणां भवधारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थितं, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां नानासंस्थितं, देवानां भवधारणीयं समचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थितमुत्तरवैक्रिय नानासंस्थितं, केवलं कल्पातीतानां भवधारणीयमेव, तथा चैक्रियशरीरावगाहना भदन्त ! किंमहती ?, गौतम ! जघन्यतोऽङ्खलासंख्येयभागमुत्कर्षतः साति
प्रत
अनुक्रम [२४६]
LICA
~296
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीसमवा- रक योजनलक्षं, वायोरुभयथा अलासंख्येयभाग, एवं नारकस्य जघन्येन भवधारणीयं, उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि, १५२ शयांगे एषा च सप्तम्यां, षष्ठ्यादिषु त्वियमेव अर्धार्द्धहीनेति, उत्तरवैक्रिया तु जघन्यतः सर्वेषामप्यनुलसंख्येयभागमुत्कर्ष-11
| रीरमूत्रं. श्रीअभय
तश्च नारकस भवधारणीयद्विगुणेति, पञ्चेन्द्रियतिरथा योजनशतपृथक्त्वमुत्कर्षतः, मनुष्याणां तूत्कर्षतः सातिरेकं योवृत्तिः
जनानां लक्षं, देवानां तु लक्षमेवोत्तरवैक्रिय, भवधारणीया तु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानानां सप्त हस्ताः ॥१३॥ सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः पट् ब्रह्मलान्तकयोः पञ्च महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वार आनतादिषु त्रयो ग्रैबेयकेषु द्वावनुत्तरे वेक |
इति, अनन्तरोक्तं सूत्र एवाह-'एवं जाव सर्णकुमारे सादि, एवमिति-दुविहे पन्नत्ते एगिन्दिय इत्यादिना पूर्वद|र्शितक्रमेण प्रज्ञापनोक्तं वैक्रियावगाहनामानसूत्रं वाच्यं, कियद्दरमित्याह-यावत्सनत्कुमारे आरब्धं भवधारणीयवैक्रिहै यशरीरपरिहानिमिति गम्यं ततोऽपि यावदनुत्तराणि-अनुत्तरसुरसम्बन्धीनि भवधारणीयानि शरीराणि यानि भवन्ति | तेषां रत्नी रनिः परिहीयत इति, एतदर्थसूत्रं भवेत् तावदिति, पुस्तकान्तरे विदं वाक्यमन्यथापि दृश्यते, तत्राप्यक्षरघटनैतदनुसारेण कार्येति । 'आहारये'त्यादि सुगम, नवरं 'एवं मिति यथा पूर्व आलापकः परिपूर्ण उचारित एवमु-1|| तरत्रापि, तथाहि 'जइ मणुस्स'त्ति-जइ मणुस्साहारगसरीरे किंगन्भवतियमणुस्साहारगसरीरे किं समुच्छिममणुस्सा
|१४३॥ |हारगसरीरे ?, गोयमा! गम्भवतियमणुस्साहारगसरीरे नो समुच्छिममणुस्साहारगसरीरे, जा गन्भवतिय'इत्यादि सर्वमूयं 'जाय जइ पमत्तसंजयसम्महिद्विपजत्तयसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिगन्भवतियमणुस्साहारगसरीरे|
30%A5*5*555
[१५२]
*
प्रत
%
अनुक्रम [२४६]
ॐR%A5%
RELIGunintentiaTSHREE
Harianurary.orm
~297~
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५२]
किं इहिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमिगगम्भवतियमणुस्साहारगसरीरे अणिविपत्तपमत्तसं-14 जयसम्मदिद्विपज्जत्तयसंखेजवासाउयकम्मभूमिगगम्भवतियमणुस्साहारगसरीरे ?, गोयमा!' द्वितीयस्य निषेधः प्रथमस्य चानुज्ञा वाच्या, एतदेवाह–'वयणा विभाणियचत्ति सूचितवचनान्यप्युक्तन्यायेन सर्वाणि भणनीयानि, वि-IP भागेन पूर्णान्युचारणीयानीत्यर्थः, 'आहारयत्ति 'आहारगसरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता ?, गोयमा।| इत्येतत् सूचितं, 'जहपणेणं देसूणा रयणीति कथम्?, उच्यते, तथाविधप्रयत्नविशेषतस्तथारम्भकद्रव्यविशेषतश्च प्रारम्भ-18 कालेउप्युक्तप्रमाणभावात् , न हीहौदारिकादेरिवालासंख्येयभागमात्रता प्रारम्भकाले इति भावः । 'तेयासरीरे गं । भंते इत्यादि, एवं यावत्करणात् प्रज्ञापनासत्कैकविंशतितमपदोक्ता तैजसशरीरवक्तव्यता इह वाच्या, सा चेयमर्थतः-ए-12 गिदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते?,गोयमा!पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-पुढवीजाववणस्सइकाइयएगिदियतेयगसरीरे,' एवं जीवराशिप्ररूपणाऽनुसारेण सूत्रं भावनीयं, यावत् 'सबट्टसिद्धगअणुत्तरोववाइयकप्पातीतवेमाणियदेवपंचेन्दियतेयगसरीरेणं भंते! किंसंठिए?, नाणासंठाणसंठिए' यस्य पृथिवादिजीवस्य यदौदारिकादिशरीरसंस्थानं तदेव तेजसस्य कार्मणस्य च, तथा जीवस्य मारणान्तिकसमुद्घातगतस्य कियती तैजसी शरीरावगाहना ?, शरीरमात्रा विष्कम्भवाहल्याभ्यामायामतस्तु जघन्येनाङ्गलस्थासंख्येयभाग उत्कर्षत ऊर्द्रमधश्च लोकान्तालोकान्तं यावदेकेन्द्रियस्य, ततस्तत्रोत्पत्तिमङ्गीकृत्येति भावः, एवं सर्वेषामेवैकेन्द्रियाणांद्वीन्द्रियाणां तु आयामत उत्कर्षेण तिर्यग्लोकालोकान्तं यावत्प्रायस्तिर्यग
प्रत
अनुक्रम [२४६]
--
REairatomi
nd
~298~
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१५२ रीरसूत्र
प्रत
वृत्तिः
सूत्रांक [१५]
श्रीसमवा- लोके द्वीन्द्रियादितिरश्चां भावात् , नारकस्य जघन्यतो योजनसहस्रं, कथं ?, नरकास्पातालकलशस्य सहस्रमानं कुख्य
यांगे भित्त्वा तत्र मत्स्यतयोत्पद्यमानस्य, उत्कर्षेण तु अधःसप्तमी यावत् सप्तमपृथ्वीनारकं समुद्रादिमत्स्येषूत्पद्यमानं प्रतीत्य, श्रीअभय तिर्यक् खयम्भूरमणं यावत् ऊर्ध्व पण्डकवनपुष्करिणी यावत् , यतस्तयोनारक उत्पद्यते, न परतः, मनुष्यस्य लोकान्तं
यावत् , भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मशानदेवानां जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयतमभागः खस्थान एवं पृथिव्यादितयोत्पा-1 ॥१४४॥ दात्, उत्कर्षतस्तु अधस्तृतीयपृथ्वीं यावत् तिर्यक् खयम्भूरमणबहिर्वेदिकान्तं ऊर्ध्वमीपत्प्रारभारां यावत् , यत एते.
शुभपर्याप्सवादरेवेव पृथिव्यादिषूत्पद्यन्ते अतो न परतोऽपीति, सनत्कुमारादिसहस्रारान्तदेवानां तु जघन्यतोऽङ्गुलासंख्येयभागः, कथं ?, पण्डकवनादिपुष्करिणीमज्जनार्थमवतारे मृतस्य तत्रैव मत्स्यतयोत्पद्यमानत्वात् पूर्वसम्बन्धिनी
वा मनुष्योपभुक्तस्त्रियं परिष्वज्य मृतस्य तद्गर्भे समुत्पादादिति, उत्कर्षतस्तु. अधो यावन्महापातालकलशानां द्वितीसायखिभागः, तत्र हि जलसद्भायान्मत्स्येषूत्पद्यमानत्वात्, तिर्यक् स्वयम्भूरमणसमुद्रं यावत् , ऊगेमच्युतं यावत्, तत्र
हि सङ्गतिकदेवनिश्रया गतस्य मृत्वेहोत्पद्यमानत्वादिति, आनतादीनामच्युतानां तु जघन्यतोऽजुलासंख्येय भागः मकथं ?, इहागतस्य मरणकालविपर्यस्तमतेर्मनुष्योपभुक्तस्त्रियमप्यभिष्वज्य मृतस्य तत्रैवोत्पत्चेरिति, उत्कर्षतस्त्वधो या-
वदधोलोकमामान् तिर्यअनुष्यक्षेत्रे ऊर्ध्वमच्युतविमानानि यावत् मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते इति भावना तथैव कार्या, ग्रेवेयकानुत्तरोपपातिकदेवानां जपन्यतो विद्याधरणी यावत् उत्कर्षतोऽधो यावदधोलोकपामान् तिर्यअनुष्यक्षेत्रं ऊर्च
प्रत
SACROSI -Clerk
अनुक्रम [२४६]
॥१४॥
~299~
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
४
4
-2
प्रत सूत्रांक [१५२]
तद्विमानान्येवेति, एवं कार्मणस्याप्यवगाहना दृश्या समानत्वादेव तयोरिति । उक्तार्थमेव सूत्रांशमाह-गेवेजगस्स ण मित्यादि।अनन्तरं शरीरिणामवगाहनाधर्म उक्तोऽधुना त्ववधिधर्मप्रतिपादनायाह-'भेय विसयसंठाणे अम्भितर बाहिरे यदेसोही । ओहिस्स बुट्टिहाणी पडिवाई चेव अपडिवाई ॥१॥' द्वारगाथा, तत्र भेदोऽवधेर्वक्तव्यो, यथा द्विविधोऽवधिर्भवति-भवप्रत्ययः क्षायोपशमिकच, तत्र भवप्रत्ययो देवनारकाणां क्षायोपशमिको मनुष्यतिरश्चामिति, तथा विषयो-गोचरोऽवधेर्वाच्यः, स च चतुर्दा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो जघन्येन तेजोभाषयोरग्रहणप्रायोग्यानि द्रव्याणि जानाति, उत्कर्षतस्तु सर्वमेकाणुकाधनन्ताणुकान्तं रूपिद्रव्यजातं जानाति, क्षेत्रं जघन्यतोऽङ्गुला| संख्येयभागं जानाति उत्कर्षतोऽसंख्येयान्यलोके लोकमात्राणि खण्डानि जानाति, कालं जघन्यत आवलिकाया असंख्येयभागमतीतमनागतं च जानाति, उत्कर्षतः संख्यातीता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीर्जानाति, भावतो जघन्यतः प्रतिद्रव्यं चतुरो वर्णादीन् उत्कर्षतःप्रतिद्रव्यमसंख्येयान् सर्वद्रव्यापेक्षया त्वनन्तानिति, तथा संस्थानमवधेर्वाच्यं, यथा नारकाणां तप्राकारोऽवधिः पल्याकारो भवनपतीनां पटहाकारो व्यन्तराणां झलाकृतियॊतिष्काणां मृदङ्गाकारः क-18 ल्पोपपन्नानां पुष्पावलीरचितशिखरचर्याकारो अवेयकाना कन्याचोलकसंस्थानोऽनुत्तरसुराणां लोकनाल्याकृतिरित्यर्थः, तिर्यअनुष्याणां तु नानासंस्थान इति, तथा 'अभितर'त्ति के अवधिप्रकाशितक्षेत्रस्याभ्यन्तरे वर्तन्ते इति वाच्यं,
प्रत
अनुक्रम [२४६]
२५ सम-
~300~
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१५]
श्रीसमवा- यथा नेरइयदेवतित्थंकरा य ओहिस्सऽवाहिरा कुंती'त्यादि, तथा 'बाहिरे यत्ति केऽवधिक्षेत्रस्य बाह्या भवन्तीति वाच्यं,
१५३ अयांगे तत्र शेषा जीवा बाह्यावधयोऽभ्यन्तरावधयश्च भवन्ति, तथा 'देसोहित्ति अवधिप्रकाश्यवस्तुनो देशप्रकाशी अवधिA-12वधिवेदश्रीअभयशावधिः स केषां भवतीति वाच्यं, तद्विपरीतस्तु सर्वावधिः, तत्र मनुष्याणां उभयमन्येषां देशावधिरेव, यतः सर्वा- नालेश्यावृतिः
वधिः केवलज्ञानलाभप्रत्यासत्तावेवोत्पद्यत इति, तथाऽवघेद्धिानिश्च वाच्या, यो येषा भवति, तत्र तिर्यग्मनुष्याणां हाराः ॥१४५ वर्द्धमानो हीयमानश्च भवति, शेषाणामवस्थित एष, तत्र वर्द्धमानोऽझुलासंख्येयभागादि दृष्ट्वा बहु बहुतरं पश्यति,
विपरीतस्तु हीयमान इति, तथा प्रतिपाती चाप्रतिपाती चावधिर्वाच्यः, तत्रोत्कर्षतो लोकमात्रः प्रतिपात्यतः परम-| प्रतिपाती, तत्र भवप्रत्ययस्तं भवं यावन्न प्रतिषतति, थायोपशमिकस्तूभयथेति । एतदेव दर्शयतिकइविहे थे भंते ! ओही पन्नत्ता ?, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, भवपञ्चइए य खओवसमिए य, एवं सन्न ओहिपदं भाणियवं, सीया य दब सारीर साया तह वेयणा भवे दुक्खा । अन्भुवगमुवक्कमिया णीयाए चेव अणियाए ॥१॥ नेरइया णं मंते ! किं सीतं वेयणं वेयति उसिणं वेयणं वेयंति सीतोसिणं वेयणं वेयंति?, गोयमा ! नेरइया एवं चेव वेयणापदं भाणियत्वं ॥ कइ पं भन्ते ! लेसाओ पं०१, गो०! छलेसाओ पं०, तं०-किण्हा नीला काऊ तेऊ पम्हा सुका, एवं लेसापर्य भाणियव्वं ।। अणंतरा य आहारे
| ॥१४५॥ आहाराभोगणा इय । पोग्गला नेव जाणंति, अज्जवसाणे य सम्मत्ते ॥१॥ नेरइया णं भंते ! अणंतराहारा तो निव्वत्तणया तओ परियाइयणया तो परिणामणया तो परियारणया तओ पच्छा विकुब्वणया ?, हंता गोयमा! एवं आहारपद भाणियच्वं (सूत्र१५३)
प्रत
अनुक्रम [२४६]
~301~
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
<--
प्रत सूत्रांक [१५३]
-
'कइविहे'इत्यादि, अनावसरे प्रज्ञापनायास्त्रयविंशत्तमं पदमन्यूनमध्येयमिति, अनन्तरमुपयोगविशेषः क्षायोपशमिको जीवपर्यायः उक्तोऽधुना स एवौदयिको वेदनालक्षणोऽभिधीयते-'सीया' इत्यादि द्वारगाथा, तत्र 'सीया यति चशब्दोऽनुक्तसमुचये तेन त्रिविधा वेदना-शीता उष्णा शीतोष्णा चेति, तत्र शीतामुष्णां च वेदयन्ति नारकाः, शे-13 पास्त्रिविधामपि, ''त्ति उपलक्षणत्वाच्चतुर्विधा वेदना द्रव्यादिभेदेन, तत्र पुद्गलद्रव्यसम्बन्धात् द्रव्यवेदना नारका-IN घुपपातक्षेत्रसम्बन्धात् क्षेत्रवेदना नारकाद्यायुःकालसम्बन्धात् कालवेदना वेदनीयकम्र्मोदयाद्भाबवेदना, तत्र नारकादयो वैमानिकान्ताश्चतुर्विधामपि वेदनां वेदयन्तीति, तथा 'सारीर'त्ति त्रिविधा वेदना शारीरी मानसी शारीरमा-13 नसी च, तत्र संक्षिपञ्चेन्द्रियाः सर्वे त्रिविधामपि इतरे तु शारीरीमेवेति, तथा 'साय'त्ति त्रिविधा वेदना-साता असाता 8 सातासाता चेति, तत्र सर्वे जीवाः त्रिविधामपि वेदयन्तीति, 'तह वेयणा भवे दुक्ख'त्ति त्रिविधा वेदना-सुखा दुःखाई सुखदुःखा चेति, तत्र सर्वेऽपि त्रिविधामपि वेदयन्ति, नवरं सातासातयोः सुखदुःखयोश्चायं विशेषः-सातासाते क्र-2 मेणोदयप्राप्तवेदनीयकर्मपुद्गलानुभवलक्षणे सुखदुःखे तु परेण उदीर्यमाणवेदनीयकर्मानुभवलक्षणे, तथा 'अभुवग-18 मुवक्कमिय'त्ति द्विधा वेदना-आभ्युपगमिकी औपक्रमिकी चेति, तत्राद्यामभ्युपगमतो वेदयन्ति जीया यथा साधवः शिरोलुश्चनब्रह्मचर्यादिकां द्वितीया तु खयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन बोदयमुपनीतस्य वेदनीयस्यानुभवतः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यअनुष्या द्विविधामपि शेषास्त्वोपक्रमिकीमेव वेदयन्तीति, तथा 'णीयाए चेव अणियाए'त्ति द्विविधा बेदना,
--2
प्रत अनुक्रम [२४७-२५१]
**
*
~302~
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
यांगे
प्रत सूत्रांक
हाराः
[१५३]
श्रीसमबाट तत्र निदया आभोगतः अनिदया त्वनाभोगतः, तत्र संज्ञिन उभयतोऽसंज्ञिनस्त्वनिदयेति, एतद्द्वारविवरणाय 'नेरइया
| १५३ अ'मित्यादि, इहावसरे प्रज्ञापनायाः पञ्चत्रिंशत्तमं वेदनाख्यं पदमध्येयमिति । अनन्तरं वेदना प्ररूपिता, सा च लेश्यावत
वधिवेदश्रीअभय०18 एव भवतीति लेश्याप्ररूपणायाह-'कह भंते'इत्यादि, इह स्थाने प्रज्ञापनायाः सप्तदर्श पडद्देशक लेश्याभिधानं
नालेश्यावृत्तिः पदमध्येतव्यं, तचास्माभिरतिबहुत्वादर्थतोऽपि न लिखितमिति तत एवावधारणीयमिति । अनन्तरं लेश्या उक्ताः, ॥१४६॥
है सलेश्या एव चाहारयन्तीत्याहारप्ररूपणायाह-'अणंतरा येत्यादिद्वारश्लोकमाह, तत्र 'अणंतरा य आहारे त्ति अनन्त
राश्च-अव्यवधानाचाहारविषये अनन्तराहारा जीवा वाच्या इत्यर्थः, तथाऽऽहारस्याभोगता, अपिचेति वचनादनाभोगता च वाच्या, तथा पुद्गलान जानन्त्येव एवकारान्न पश्यन्तीति चतुर्भङ्गी सूचिता, तथा अध्यवसानानि सम्यक्त्वं च वाच्यमिति, तत्राद्यद्वारार्थमाह-'नेरइए'त्यादि, 'अनन्तराहार'त्ति उपपातक्षेत्रप्राप्सिसमय एवाहारयन्तीत्यर्थः 'ततो निबत्तणया' इति ततः शरीरनिवृत्तिः, ततो 'परियाइयणयत्ति ततः पर्यादानमङ्गप्रत्यङ्गैः सम-12 तात्या (दादा)नमित्यर्थः, 'ततो परिणामय'त्ति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः ततो पच्छा विउवणयति ततः 8| पश्चाद्विक्रिया नानारूपा इत्यर्थः, हन्ता गौतम!, एवमेतदिति भावः, एवं सर्वेषां पञ्चेन्द्रियाणां वक्तव्यं, नवरं देवानां ॥१४६॥ पूर्व विकुर्वणा पश्चात्परिचारणा शेषाणां तु पूर्व परिचारणा पश्चाद्विकुर्वणा, एकेन्द्रियादीनामप्येवं प्रश्ने, निर्वचने तु यत्र वैक्रियसम्भवो नास्ति तत्र विकुर्वणा निषेधनीयेति, 'एक्माहारपयं भाणिय'ति यथाऽऽद्यद्वारस्य प्रश्न उक्तस्तथा
प्रत
अनुक्रम [२४७-२५१]
ABAR-%EGRECORRE
~3034
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
C
प्रत सूत्रांक [१५३]
प्रत अनुक्रम [२४७-२५१]
तदत्तरं शेषद्वाराणि च भणद्भिः प्रज्ञापनायाश्चतुर्विंशत्तमं परिचारणापदाख्यं पदमिह भणितव्यमिति, इदं चात्राहा-14 रविचारप्रधानतया आहारपदमुक्तमिति, तत्पुनरेवमर्थतस्तत्र 'आहाराभोगणाइय'त्ति एतस्य विवरण-नारकाणा किमाभोगनिवर्तित आहारोऽनाभोगनिवर्तितो वा ?, उभयथापीति निर्वचनं, एवं सर्वेषां नवरमेकेन्द्रियाणामनाभोगनिवर्तित एवेति, तथा 'पोग्गला नेव जाणंति'त्ति अस्थार्थः-नारका यान् पुद्गलान आहारयन्ति तानवधिनापि न जानन्ति अविषयत्वात्तदवधेस्तेषां, न पश्यन्ति चक्षुषाऽपि लोमाहारत्वात् तेषां, एवमसुरादयस्त्रीन्द्रियान्ताः, केवलं हूँ एकेन्द्रिया अनाभोगाहारत्वावित्रीन्द्रियाश्च मत्यज्ञानित्वान्न जानन्ति चक्षुरिन्द्रियाभावाच्च न पश्यन्तीति, चतुरिन्द्रियास्तु |चक्षुःसद्भावेऽपि मत्यज्ञानित्वात् प्रक्षेपाहारं न जानन्ति, चक्षुषापि न पश्यन्ति, तथा त एव लोमाहारमाश्रित्य न
जानन्ति न पश्यन्तीति व्यपदिश्यते, चक्षुषोऽविषयत्वात्तस्य, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च केचिजानन्ति पश्यन्ति चाहै वधिज्ञानादिषु युक्ताः लोमाहारप्रक्षेपाहाराच, तथाऽन्ये जानन्ति न पश्यन्ति लोमाहारं जानन्त्यवधिना न पश्यन्ति
चक्षुषा, तथा अन्ये न जानन्ति पश्यन्ति, तत्र न जानन्ति प्रक्षेपाहारं मत्यज्ञानित्वात्पश्यन्ति चक्षुषा, तथा अन्ये न जानन्ति न पश्यन्ति लोमाहारं निरतिशयत्वादिति, व्यन्तरज्योतिष्का नारकवत्, वैमानिकास्तु ये सम्यग्दृष्टयस्ते जा-8 नन्ति विशिष्टावधित्वात् पश्यन्ति चक्षुषोऽपि विशिष्टत्वात् , मिध्यादृष्टयस्तु न जानन्ति न पश्यन्ति, प्रत्यक्षपरोक्षज्ञानयोस्तेषामस्पष्टत्वादिति, तथा 'अज्झवसाणे य'त्ति द्वारं, नारकादीनां प्रशस्ताप्रशस्तान्यसंख्येयान्यध्यवसायस्थाना
OCOCCAS
~304~
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
| युर्बन्धमे
दोत्पादो
प्रत सूत्रांक [१५३]
दर्तनाविरहाकः
प्रत अनुक्रम [२४७-२५१]
श्रीसमवा-1 नीति, तथा 'संमत्ते'त्ति द्वारं, तत्र नारकाः किं सम्यक्त्वाभिगमिनो मिथ्यात्वाभिगमिनः सम्यक्त्वमिथ्यात्वाभिगमि
यांगे 18नश्चेति, त्रिविधा अपि, एवं सर्वेऽपि, नवरमेकेन्द्रियविकलेन्द्रिया मिथ्यात्वाभिगमिन एवेति । अनन्तरमाहारप्ररूपणा श्रीअभय
कृता आहारश्चायुर्बन्धवतामेव भवतीत्यायुर्वन्धप्ररूपणायाहवृतिः
कइविहे थे भंते ! आउगवन्धे पन्नत्ते ?, गोयमा! छविहे आउगवन्धे पत्नत्ते, तंजहा-जाइनामनिहत्ताउए गतिनामनिहत्ताउए ॥१४७॥
ठिइनामनिहत्ताउए पएसनामनिहत्ताउए अणुभागनामनिहत्ताउए ओगाहणानामनिहत्ताउए, नेरइयाणं भंते! कइविहे आउगवन्धे पन्न?, गोयमा! छबिहे पन्नत्ते, तंजहा-जातिनाम० गइनाम० ठिइनाम०पएसनाम० अणुभागनाम० ओगाहणानाम० एवं जाव वेमाणियाणं ॥ निरयगई णं भंते! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पं०१. गोयमा! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं बारस मुहत्ते, एवं तिरियगई मणुस्सगई देवगई, सिद्धिगई णं मंते ! केवइयं कालं विरहिया सिज्मणयाए पन्नता, गोयमा! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं छम्मासे, एवं सिद्धिवजा उन्चट्टणा, इमीसे गं भते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केवइयं कालं विरहिया उववाएणं, एवं उववायदंडओ भाणियचो उवट्टणादंडओ य, नेरइया णं भंते ! जातिनामनिहत्ताउर्ग कति आगरिसेहि पगरति ?, गो० सिय १ सिय २।३।४।५।६।७। सिय अहदि, नो चेव णं नवहि, एवं सेसाणवि आउगाणि जाव वेमाणियत्ति ।। सूत्र १५४ ॥ 'काविहे'त्यादि, तत्रायुपो बन्धनिषेक आयुर्वन्धः, निषेकश्च प्रतिसमयं बहुहीनहीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थ रचना, निधत्तमपीह निषेक उच्यते, अत एवाह-'जाइनामनिधत्ताउए, जातिनामा सह निधत्तं-निषिक्तमनुभ
*
॥१४७॥
REnatinikana
~305~
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५४]
प्रत
S4%SSSSSRCTCh
बनार्थ बहल्पाल्पतरक्रमेण व्यवस्थापितमायुर्जातिनामनिधत्तायुः, अथ किमर्थ जासादिनामकर्मणाऽऽयुर्विशेष्यते ?, आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थ, यस्मान्नारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोपनाहकं चायुरेव, यस्माद्याख्याप्रज्ञत्यामुक्तं-"नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जइ अनेरइए नेरइएसु उववजइ ?, गोयमा! नरइए नेरइएसु उववजइ नो अनेरइए नेरइएसु उववज्जई" एतदुक्तं भवति-नारकायुःप्रथमसमयसंवेदनकाल एव नारक इत्युच्यते; तत्सहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति, तथा 'गतिनामनिधत्ताउए'त्ति गतिनारकगत्यादिः तल्लक्षणं नामकर्म तेन सह निधत्तं-निषिक्तमायुर्गतिनामनिधत्तायुः, तथा 'ठिइनामनिधत्ताउए'त्ति स्थितियत् स्थातव्यं तेन भावनायुर्दलिकस्य सैव नामः-परिणामो धर्म इत्यर्थः स्थितिनाम, गतिजात्यादिकर्मणां च प्रकृत्यादिभेदेन चतुर्विधानां यः स्थितिरूपो भेदस्तत् स्थितिनाम तेन सह निधत्तमायुः स्थितिनामनिधत्तायुरिति, तथा 'पएसनामनिधत्ताउए'त्ति प्रदेशानां-प्रमितपरिमाणानामायुःकर्मदलिकानां नाम-परिणामो यः तथाऽऽत्मप्रदेशेषु सम्बन्धनं स प्रदेशनाम जातिगत्यवगाहनाकर्मणां वा यत्प्रदेशरूपं नामकर्म तत्पदेशनाम तेन सह निधत्तमायुः प्रदेशनामनिधत्तायुरिति, तथा 'अणुभागनामनिधत्ताउए'त्ति अनुभागः-आयुष्कर्मद्रव्याणां तीब्रादिभेदो रसः स एव तस्य वा नामः-परिणामोऽनुभागनाम अथवा गत्यादीनां नामकर्मणामनुभागवन्धरूपो भेदोऽनुभागनाम तेन सह निधत्त|मायुरनुभागनामनिधत्तायुरिति, तथा 'ओगाहणानामनिधत्वाउए'त्ति अवगाहते जीवो यस्यां साऽवगाहना-शरीरमौदा
अनुक्रम [२५२]
~306~
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
यांगे
प्रत सूत्रांक
वृत्तिः
वनावि
[१५४]
श्रीसमवा-INIरिकादिपञ्चविधं तत्कारणं कर्माप्यवगाहना तद्रूपं नामकविगाहनानाम तेन सह निधत्तमायुरवगाहनानामनिधत्तायु- १५४ आ
रिति॥'नेरइयाण मित्यादि स्पष्टं । अनन्तरमायुर्बन्ध उक्तोऽधुना बद्धायुषां नारकादिगतिषूपपातो भवतीति तद्विरहकाल- युबन्धभभीअभयाप्ररूपणायाह-निरयगई 'मित्यादि कण्ठ्यं, नवरं यद्यपि रत्नप्रभादिषु चतुर्विशतिमुहूर्तादिविरहकालो, यथोक्तं-181
|'चउवीसई मुहुत्ता सत्त अहोरत्त तय पन्नरसा । मासो य दो य चउरो छम्मासा विरहकालोत्ति ॥१॥' तथापि सा-101 ॥१४८
मान्यगत्यपेक्षया द्वादश मुहूर्ता उक्ताः, तथा एवंकरणाद्यत्तिर्यमनुष्यगयोः सामान्येन द्वादश मुहूर्ता उक्ताः तद्गर्भव्युत्क्रान्तिकापेक्षया, दैवगतौ तु सामान्यत एव, 'सिद्धिवजा उबद्दणे ति नारकादिगतिषु द्वादशमुहूर्तो विरहकाल उ-131 द्वर्तनायामिति, सिद्धानां तूद्वर्त्तनैव नास्ति, अपुनरावृत्तित्वात्तेषामिति, 'इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केव-14 इयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता, एवं उपवायदंडओ भाणियघोत्ति, स चायं-“गोयमा! जहण्णेणं एकं स-II मयं उक्कोसेणं चउवीसं मुहुत्ताई' अनेनाभिलापेन शेषा वाच्याः, तथाहि-'सकरप्पभाए णं उक्कोसेणं सत्त राईदियाणि | 21
वालुयप्पभाए अद्धमासं पंकप्पभाए मासं धूमप्पभाए दो मासा तमप्पभाए चउरो मासा अहेसत्तमाए छमास'त्ति है असुरकुमारा 'चउवीसइ मुहुत्ता' एवं जाव थणियकुमारा, पुढविकाइया अविरहिया उववाएणं एवं सेसावि, बेइंदिया ॥१८॥
अंतोमुहुतं, एवं तेइंदियचउरिदियसमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियावि गब्भवतियतिरिया मणुया य बारस मुहुत्ता संमुच्छिममणुस्सा चउवीसई मुहुत्ता पिरहिआ उववाएणं, वंतरजोइसिया चउवीसं मुहुत्ताई, एवं सोहम्मी
RASACRACCIA
प्रत
अनुक्रम [२५२]
~307~
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५४]
प्रत
अनुक्रम
[२५२]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र- ४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [ ०४] अंगसूत्र- [०४]
साणेवि, सणकुमारे णव दिणाई वीसा य मुहुत्ता, माहिंदे वारस दिवसाई दस मुहुत्ता गंभलोए अद्धतेवीसं राईदियाई लंतर पणयालीसं महासुके असीई सहस्सारे दिणसयं आगए संखेजा मासा एवं पाणएवि जरणे संखेबा वासा एवं अचुएवि गेवेज्जपत्थडेसु तिसु कमेण संखेजाई वाससयाई वाससहस्साई वासस्यसहस्साइं विजयाइसु असंखेज्जं कालं, सङ्घट्टसिद्धे पलिओनमस्सा संखेज्जइभागं ति 'एवं उबट्टणादंडओवित्ति । उपपात उद्वर्त्तना चायुबन्धे एव भवतीत्यायुर्वन्धे विधिविशेषप्ररूपणायाह – 'नेरहए' त्यादि कण्ठ्यं, नवरं आकर्षो नाम कर्मपुद्गलोपादानं, यथा गौः पानीयं पिवन्ती भयेन पुनः पुनः आबृहति, एवं जीवोऽपि तीत्रेणायुर्वन्धाध्यवसानेन सकृदेव जातिनामनिधत्तायुः प्रकरोति, मन्देन द्वाभ्यामाकर्षाभ्यां मन्दतरेण त्रिभिर्मन्दतमेन चतुर्भिः पञ्चभिः षड्भिः सप्तभिरष्टाभिर्वा न पुनर्नवभिः एवं शेषाण्यपि, 'आउगाणि त्ति गतिनामनिधत्तायुरादीनि वाच्यानि यावद्वैमानिका इति, अयं चैकाद्याकनियमो जात्यादिनामकर्मणामायुर्वन्धकाल एवं बध्यमानानां शेषकालमायुर्बन्धपरिसमाप्तेरुत्तरकालमपि बन्धोऽस्त्येव, एषां ध्रुववन्धिनीनां च ज्ञानावरणादिप्रकृतीनां प्रतिसमयमेव बन्धनिर्वृत्तिर्भवति, एतास्तु परावृत्य वध्यन्त इति, अनन्तरं जीवानामायुर्वन्धप्रकार उक्तोऽधुना तेषामेव संहननसंस्थानवेदप्रकारमाह
कवि णं भंते! संघयणे पनते १, गोयमा ! छव्विहे संघयणे पन्नत्ते, तंजद्दा वइरोस भनारायसंघयणे रिसभनारायसंघयणे नारायसंघणे अद्धनारायसंघणे कीलियासंघयणे छेवट्टसंघयणे, नेरइया गं भंते! किंसंघयणी १, गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी
For Park Use Only
मूलं [१५४]
"समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
~308~
junrary org
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
१५५ स
हननसं
प्रत
स्थानानि.
श्रीसमवा-IN
यांगे श्रीअमय वृत्तिः ॥१४९॥
सूत्रांक
[१५५]]
प्रत अनुक्रम [२५३]
ACCIA
व अढि णेव छिराणेव पहारू जे पोग्गला अणिट्ठा अकंता अप्पिया अणाएजा असुभा अमणुण्णा अमणामा अमणाभिरामा ते तेसिं असंघयणचाए परिणमंति, असुरकुमारा णं भंते ! किसंघयणा पन्नत्ता?, गोयमा! छण्डं संघयणाणं असंघयणी णेवट्ठी णेव छिरा व पहारू जे पोग्गला इट्टा कंता पिया मणुण्णा मणामा मणाभिरामा ते तेसिं असंघयणत्ताए परिणमंति, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढचीकाइयां णं भंते ! किंसंघयणी पन्नत्ता ?, गोयमा ! छेवट्ठसंघयणी प०, एवं जाव संमुच्छिमपश्चिन्दियतिरिक्खजोणियत्ति, गम्भवतंतिया छव्विहसंघयणी, समुच्छिममणुस्सा छेवट्ठसंघयणी गब्भवक्कंतियमणुस्सा छब्विहे संघयणे प०, जहा अमरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया य॥ कविहे गं भंते! संठाणे पन्नते. गोयमा! छबिहे संठाणे ५०,०समचउरंसे १ णिग्योहपरिमण्डले २ साइए ३ वामणे ४ खुजे ५ हुंडे ६, रइया पं भंते ! किंसंठाणी प०१, गोयमा ! हुंडसंठाणी प०, असुरकुमारा किंसंठाणी ५०१, गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिया प०, एवं जाव थणियकुमारा, पुढवी मसूरसंठाणा ५०, बाऊ थिव्यसंठाणा पन्नत्ता, तेऊ सूइकलावसंठाणा पन्नत्ता, वाऊ पडागासंठाणा पन्नत्ता, वणस्सई नाणासठाणसंठिया पन्नत्ता, वेइंदियतेईदियचउरिदियसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खा हुंडसंठाणा प०, गम्भववंतिया छब्बिहसंठाणा समुच्छिममणुस्सा हुंडसंठाणसंठिया पन्नत्ता, गन्भवतंतियाणं मणुस्साणं छविहा संठाणा पन्नत्ता, जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणियावि ॥ (सूत्र१५५)
M 'काविहे णमित्यादि, दण्डकत्रयं कण्ठ्यं, नवरं संहननमस्थिवन्धविशेषः, मर्कटस्थानीयमुभयोः पार्थयोरस्थि नाराचं। ऋषभस्तु पट्टः वजं कीलिका, वज्रश्च ऋषभश्च नाराचं च यत्रास्ति तद्ववर्षभनाराचसंहननं, मर्कटपट्टकीलिकारचना-18
SOSANSARACK
॥१४॥
aitincturary.orm
~309~
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------------------------ मूलं [१५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१५५]
युक्तः प्रथमोऽस्थिवन्धः मर्कटपट्टाभ्यां द्वितीयः मर्कटयुक्तस्तृतीयः मर्कटकैकदेशबन्धनद्वितीयपार्श्वकीलिकासम्बन्धश्चKI तुर्थः अङ्गुलिद्वयसंयुक्तस्य मध्यकीलिकैव दत्ता यत्र तत्कीलिकासंहननं पञ्चमं यत्रास्थीनि चर्मणा निकाचितानि केवलं
तत्सेवार्त, स्नेहपानादीनां नित्यपरिशीलना सेवा तया ऋतं-व्यासं सेवामिति षष्ठं, 'छण्हं संघयणाणं असंघयणे'त्ति उक्तरूपाणां षण्णां संहननानामन्यतमस्याप्यभावेनासंहनिनः-अस्थिसञ्चयरहिताः, अत एवाह-'नेवट्ठी'नैवास्थीनि तच्छरीरके 'नेव छिर'त्ति नैव शिरा-धमन्यः 'णेव हारुत्ति नैव वायूनीतिकृत्वा संहननाभावः, तत्सहितानां हि प्रचुरमपि दुःखं न वाधाविधायि स्यात् , नारकास्त्वत्यन्तशीतादिवाधिता इति, न चास्थिसञ्चयाभावे शरीरं नोपपीयते, स्कन्धवत्तदुपपत्तेः, अत एवाह-'जे पोग्गले'त्यादि, ये पुद्गला अनिष्टाः-अवल्लभाः सदैवैषां सामान्येन तथा| अकान्ता-अकमनीयाः सदैव तद्भावेन तथा अप्रिया-द्वेष्याः सर्वेषामेव तथाऽशुभाः-प्रकृत्यसुन्दरतया अमनोज्ञा-अम-18 नोरमाः कथयापि तथा अमनःआपा-न मनःप्रियाश्चिन्तयापि ते एवंभूताः पुद्गलास्तेषां-नारकाणां 'असंघयणत्ताए'त्ति अस्थिसञ्चयविशेषरहितशरीरतया परिणमंति, 'कइविहे णं भंते! संठाणे'स्यादि, तत्र मानोन्मानप्रमाणानि अन्यूनान्यनतिरिक्तानि अङ्गोपाङ्गानि च यस्मिन् शरीरसंस्थाने तत्समचतुरस्रसंस्थानं, तथा नामित उपरि सर्वावययाश्चतुरस्रा-लक्षणाऽविसंवादिनोऽधस्तु तदनुरूपं यन्न भवति तयग्रोधसंस्थानं तथा नाभितोऽधः सर्वावयवाश्चतुरखा लक्षणाविसंवादिनो यस्योपरि च यत्तदनुरूपं न भवति तत्सादिसंस्थान, तथा प्रीवा हस्तपादाश्च समचतुरस्रा लक्ष
प्रत
अनुक्रम [२५३]
ESSAGE
C
~310~
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------------- ----------- मूलं [१५५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
यांगे
१५६ वेदः १५७ समवसरणं.
प्रत सूत्रांक [१५५]
श्रीसमवा-12 णयुक्ता यत्र संक्षिप्तं विकृतं च मध्ये कोष्ठं तत् कुब्जसंस्थानं, तथा यल्लक्षणयुक्तं कोष्ठं चतुरस्रलक्षणापेतं ग्रीवाद्यवय-
वहस्तपादं च तद्वामनं, तथा यत्र हस्तपादाद्यवयवाः बहुप्रायाः प्रमाणविसंवादिनच तदुण्डमित्युच्यते । श्रीअभय
कइविहे णं भंते ! ए प०१, मोयमा ! तिविहे वेए प०, २० इत्थीवेए पुरिसवेए नपुंसवेए, नेरइया णं भैते! किं इत्थीवेया पुरिवृत्तिः
सवेया णपुंसगयेया १०१, गोयमा! णो इत्थी० णो पुंवेए णपुंसगवेया प०, असुरकुमारा णं भंते! कि इत्थी पुरिस० नपुंसगवेया ?, ॥१५०॥
गोयमा! इत्थी० पुरिसवेया णो णपुंसगवेया जाव थणियकुमारा, पुढवी आऊ तेऊ वाऊ वणस्सई चितिचउरिदियसमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खसमुच्छिममणुस्सा पपुंसगवेया गम्भवतियमणुस्सा पंचिंदियतिरिया यतिवेया, जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरा जोइसियवेमाणियावि (सूत्र १५६) तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेयव्वं जाव गणहरा सावधा निरवचा वोच्छिणा जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीयाए उस्सप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्था तं-मित्तदामे सुदामे य, सुपासे य सर्वपमे । विमलपोसे सुघोसे य, महाघोसे य सत्तमे ॥१॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे तीयाए ओसप्पिणीए दस कुलगरा होत्या, तंजहा-सयंजले सयाऊ य, अजियसेणे अर्णतसेणे य । कजसेणे भीमसेणे महाभीमसेणे य सत्तमे ॥२॥ दढरहे दसरहे सयरहे ॥ जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए समाए सत्त कुलगरा होत्या, तंजद्दा-पढमेत्य विमलवाहण [चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्चो पसेणईए मरुदेवे चेव नाभी य ॥३॥] एतेसि णं सत्तण्हं कुलगराण सत्त भारिया होत्या, तंजहा-चंदजसा चंदकता [सुरुवपडिरूव चक्खुकता य । सिरिकता मरुदेवी कुलगरपत्तीण णामाई ॥४॥] जंबुद्दीवे णं दीवे मारहे वासे इमीसे णं ओसप्पिणीए चउवीस तित्थगराणं पियरो होस्था, तंजहा-णामी य जियसत्तु य [जियारी संवरे इय, मेहे घरे पहढे य महसेणे
प्रत अनुक्रम [२५३]
R
॥१५॥
~311~
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६१५९] गाथा: १-९३
य खत्तिए ॥५॥ सुग्गीवे दढरहे विण्हू वसुपूजे य खत्तिए । कयवम्मा सीहसेणे भाणू विस्ससणे इय ॥६॥ सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्तविजए समुदविजये य । राया य आससेणे य सिद्धत्येचिय खत्तिए ॥७॥] उदितोदियकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उववेया । तित्यप्पवत्तयाणं एए पियरो जिणवराणं ॥८॥ जंबूद्दीवे ण दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्यगराणं मायरो होत्या तं.-मरुदेवी विजया सेणा [सिद्धत्या मंगला सुसीमा य । पुहवी लखणा रामा नंदा विण्हू जया सामा ॥९॥ सुजसा सुचय अइरा सिरिया देवी पभावई पउमा । वप्पा सिवा य वामा तिसला देवी य जिणमाया ॥१०॥] जंबूहीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा होत्था, तंजहा-उसभ १ अजिय २ संभव ३ अभिणंदण ४ सुमइ ५ पउमप्पह ६ सुपास ७ चंदणम ८ सुविदिपुष्पदंत ९ सीयल १० सिजंस ११ वासुपुज १२ विमल १३ अर्णत १४ धम्म १५ संति १६ कुंथु १७ अर १८ मलि १९ मुणिसुवय २० णमि २१ मि २२ पास २३ वडमाणो २४ य, एएसिं चउवीसाए तित्वगराणं चउच्चीसं पुत्वभवया णामधेया होत्था, तं०-'पढमेत्थ वइरणाभे विमले तह विमलवाहणे चेव । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह धम्ममित्ते य ॥ ११॥ सुंदरवाहु तह दीहबाहु जुगबाहु लहबाह य । दिण्णे य इंददत्ते सुंदर माहिदरे चेव ॥१२॥ सीहरहे मेहरहे रुप्पी अ सुंदसणे य बोद्धव्वे । ततो य नंदणे खलु सीहगिरी चेव वीसइमे ॥१३॥ अदीणसत्तु संखे सुदंसणे नंदणे य बोद्धये ॥ [इमीसे ] ओसप्पिणीए एए, तित्थकराणं तु पुत्वभवा ॥ १४ ॥ एएसिं चउच्चीसाए तिस्थकराणं चउव्वीसं सीयाओ होत्या, तंजहा-सीया सुदंसणा सुप्पभा य सिद्धत्थ सुप्पसिद्धा य । विजया य वेजयंती जयंती अपराजिया चेव ॥१५॥ अरुणपम चंदप्पभ सूरप्पह अम्गि सप्पमा चेव । विमला य पंचवण्णा सागरदचा य णागदत्ता य ॥ १६ ॥
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
२६सम
SAREnicatinian
WI
~312~
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीसमवा
यांगे
|१५७अव: सर्पिणी
भीअभय वृचिः
जिनादि
[१५६१५९] गाथा: १-९३
॥१५१॥
अभयकर निलुइकरा मणोरमा तह मणोहरा चेव । देवकुरूत्तरकुरा विसाल चंदप्पभा सीया ॥ १७ ॥ एआओ सीआओ सब्वेसि चेव जिणवरिंदाणं । सब्बजगवच्छलाणं सव्वोउगसुभाए छायाए ॥१८॥ पुचि ओखित्ता माणुसेहिं साह(१) रोमक्वेहिं । पच्छा वहति सीब असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥ १९॥ चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउब्वियाभरणधारी। सुरअसुरवंदिआणं वहति सी जिणंदाणं ॥२०॥ पुरओ वहंति देवा नागा पुण दाहिणम्मि पासम्मि । पचच्छिमेण असुरा गरुला पुण उत्तरे पासे ॥२१॥ उसभो अविणीयाए चारवईए अरिद्ववरणेमी । अवसेसा तित्थयरा निर्खता जम्मभूमीसु ॥२२॥ सब्वेवि एगदूसेण [णिगया जिणवरा चउव्वीस । ण व णाम अण्णलिंगे ण य निहिलिंगे कुलिंगे य ॥ २३ ॥] एको भगवं वीरो [पासो मल्ली य तिहि तिहि सरहिं । मगवंपि वासुपुओ छहिं पुरिससएहि निक्खंतो ॥ २४ ॥] उग्गाणं भोगाणं राइण्णाणं [च खत्तियाणं च । चउहि सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥ २५॥] सुमइत्व णिच्च भत्तेण [जिग्गओ वासुपुज चोत्येणं । पासो मल्ली य अट्ठमेण सेसा उम्टेणं ॥ २६॥] एएसिणं चउच्चीसाए तित्थगराण चउन्बीस पढममिक्खादायारो होत्या, तेजहा-'सिजंस बंभदत्ते सुरिंददत्ते य इंददत्ते य । पउमे य सोमदेवे माहिदे तह सोमदत्ते य ॥२६ ।। पुस्से पुणब्वसू पुष्णणंद सुर्णदे जये य विजये य । तत्तो य धम्मसीहे सुमित्त तह वग्गसीहे अ॥२७॥ अपराजिय विस्ससेणे वीसहमे होइ उसभसेणे य । दिपणे वरदते धणे बहुले य आणुपुब्बीए ॥ २८॥ एए विसुद्धलेसा जिणवरमत्तीइ पंजलिउडा उ । तं कालं तं समयं पडिलामेई जिणवरिंदे ॥ २९ ॥ संवच्छरेण मिक्खा [लद्धा उसमेण लोयणाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥३०॥] उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगणाहस्स । सेसाणं परमणं अमियरसरसोवमं आसि ॥३१॥] सव्वेसिपि जिणाणं
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
॥१५॥
SAREauratonlinene
~313~
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५६
१५९]
गाथा:
१-९३
प्रत
अनुक्रम
[२५४
-३८३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
मूलं [१५६ से १५९ ] + ९३ गाथा:
जहियं लद्धाउ पदमभिक्खाउ । तहियं वसुधाराओ सरीरमेत्तीओ वुडाओ ॥ ३२ ॥ एएसिं चउब्बीसाए तित्थगराणं चडवीसं इक्खा होत्या, तंजा--गग्गोहसत्तिवण्णे साले पियए पियंगु उत्ताहे । सिरिसे य णागरुक्खे माली व पिलंक्खुरुक्खे य ॥ ३३ ॥ ति॑िदुग पाडल जंबू आसत्ये खलु तदेव दद्दिवण्णे । गंदीरक्खे तिलए अंबयरुक्खे असोगे य ॥ ३४ ॥ चंपय बउले व ता वेडसरुक्खे य धायईरुक्खे । साले य वहुमाणस्स चैइयरुक्खा जिणवराणं ॥ ३५ ॥ बत्तीसं धणुवाई चेहयरुक्खी य वद्धमाणस्स । णिचोउगो असोगो ओच्छण्णो सालरुक्खेणं ॥ ३६ ॥ तिष्णे व गाउजाई चेइयरुक्खो जिणस्स उसमस्स । सेसाणं पुण रुक्खा सरीरओ पारसगुणा उ ॥ ३७ ॥ सच्छत्ता सपडागा सवेइया तोरणेहिं उनवेया । सुरअसुरनरुलमहिया चेइयरक्खा जिणवराणं ॥ ३८ ॥ एएसिं चउब्बीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पढमसीसा होत्या, तंजदा- 'पढमेत्य उसभसेणे बीइए पुण होइ सीहसेणे य । चारू य वज्रणाभे चमरे तह सुब्वय विदन्मे ॥ ३९ ॥ दिष्णेय वराहे पुणे आणंदे गोथुमे सुहम्मे य । मंदर जसे अरिट्टे चक्काह सयंभु कुंभे य ॥ ४० ॥ इंदे कुंभे य सुभे वरदत्ते दिण्ण इंदभूई य । उदितोदितकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहि उबवेया । तिरथप्पवत्तयाणं पढमा सिस्सा जिणवराणं ॥ ४१ ॥ एएसि णं चउवीसाए तित्वगराणं चउवीसं पढमसिस्सिणी होत्या, तंजहा - बंभी व फग्गु सामा अजिया कासवीरई सोमा । सुमणा वारुणि सुलसा धारणि धरणी य धरणिवरा ॥ ४२ ॥ पढम सिवासुयी तह अंजुया भावियप्पा य रक्खी य। बंधुवती पुप्फवती अजा अमिला य अहिया ॥ ४३ ॥ जक्खिणी पुप्फचूला य चंदणऽजा य आहियाउ ॥ उदितोदियकुलवंसा विसुद्धवंसा गुणेहिं उबवेया । तित्यप्यवत्तयाणं पढमा सिस्सी जिणवराणं ॥ ४४ ॥ गाहा । ( सूत्रं १५७ ) जंबुद्दीवे णं भारदे वासे इमीसे ओसप्पिणीए वारस चकवहि
For Parks Use Only
~314~
yor
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५६
१५९]
गाथा:
१-९३
प्रत
अनुक्रम
[२५४
-३८३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
मूलं [१५६ से १५९ ] + ९३ गाथा:
श्रीसमवा
यांगे
श्रीअभय० वृति:
॥१५२॥
Jucatori Intention
पियरो होत्या, तंजा - उसमे सुमित्ते विजए समुदविजए य आससेणे व विस्ससेणे य सूरे सुदंसणे कत्तवीरिए चेव ॥ ४५ ॥ पउमुत्तरे महाहरी, विजए राया तव य । चंभे चारसमे उत्ते, पिउनामा चक्कवट्टिणं ॥ ४६ ॥ जंबूद्दीने भार वासे इमीसे ओसप्पिणीए बारस चक्कवट्टिमायरो होत्या, तंजहा - सुमंगला जसवती भद्दा सहदेवी अइरा सिरिदेवी तारा जाला मेरा वप्पा चुणि अपच्छिमा || जंबुद्दीवे० घारस चकवट्टी होत्या, तंजहा मरहो सगरो मघवं [ सणकुमारो य रायसधूलो। संती कुंथू य अरो हवइ सुभूमो य कोरव्वो ॥ ४७ ॥ नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसद्दूलो । जयनामो य नरवई, बारसमो भदत्तो य ॥ ४८ ॥ ] एएसिं बारसण्डं चकवट्टीणं वारस इत्थिरयणा होत्या, तंजा-पढमा होइ सुभदा भद्द सुनंदा जया य विजयाय । किण्हसिरी सूरसिरी पउमसिरी वसुंधरा देवी ॥ ४९ ॥ लच्छिमई कुरुमई इत्थीरयणाण नामाई ॥ जंबूद्दीवे० नवबलदेव नववासुदेवपितरो होत्या, तंजहा- पयावई य बंभो [ सोमो रुदो सिवो महसिवो य । अग्गिसिद्दो य दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवो ॥ ५० ॥ जंबूदीवे गं० णव वासुदेवमायरो होत्या, तंजद्दा मियावई उमा चैव पुहवी सीया य अम्मया । लच्छिमई सेसमई, केकई देवई तहा ॥ ५१ ॥ जंबूदीवे गं० णवबलदेवमायरो होत्या, तंजा-भद्दा तह सुभद्दा य, सुप्पमा य सुदंसणा । विजया वेजयंती य, जयंती अपराजिया ॥ ५२ ॥ णवमीया रोहिणी य, बलदेवाण मायरो || जंबूदीवे णं नव दसारमंडला होत्या, तंजद्दा- उत्तमपुरिसा मज्झमपुरिसा पहाणपुरिसा भयंसी तेयंसी वबंसी जसंसी छायंसी कंता सोमा सुभगा पियदंसणा सुरूआ सुहसीला सुद्दाभिगमा सव्वजणणयणकंता ओहवठा अतिबला महाबला अनिहता अपराइया सत्तुमद्दणा रिपुसहस्समाणमद्दणा साणुकोसा अमच्छरा अचवला अचंडा मियमंजुलपलावहसिया गंभीरमधुरपडिपुण्णसच्चवयणा अन्भुवगयव
For Para Use Only
~315~
१५८ अवसर्पिणी
चक्रपादि
॥१५२॥
www.yor
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६१५९] गाथा: १-९३
%
चाला सरण्णा लक्षणवंजणगुणोववेा माणुम्माणपमाणपडिपुग्णसुजायसवंगसुंदरंगा ससिसोमागारकंतपियदसणा अमरिसणा पयंडदंडप्पभारा गंभीरदरसणिजा तालद्धओविद्धगरुलकेऊमहाधणुविकट्टया महासत्तसारा दुद्धरा धणुद्धरा धीरपुरिसा जुद्धकित्तिपुरिसा विउलकुलसमुन्भवा महारयणविद्दाडगा अद्धभरहसामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजियरहा हलमुसलकणकपाणी संखचक्कगयसत्तिनंदगधरा पवरुजलसुक्तविमलगोत्युभतिरीडधारी कुंडल उबोइयाणणा पुंडरीयणयणा एकावलिकण्ठलइयवच्छा सिरिवच्छसुलछणा वरजसा सम्बोउयसुरभिकुसुमरचितपलंबसोभंतकंतविकसंतविचित्तवरमालरइयवच्छा अवसयविभत्तलक्खणपसस्थसुंदरविरइयंगमंगा मत्तगयवरिंदललियविक्कमविलसियगई सारयनवयणियमहुरगंभीरकुंचनिग्योसदुंदुभिसरा कडिसुतगनीलपीयकोसेजवाससा पवरदित्ततेया नरसीहा नरवई नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अमहियरायतेयलच्छीए दिपमाणा नीलगपीयगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो होत्था, तंजहा-तिविद् जाव कण्हे अयले जाव रामे यावि अपच्छिमे ॥ ५३ ॥ एएसि ण णवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुखभविया नव नामधेडा होत्या, तंजहा-विस्समूई पक्षयए धणदत्त समुदत्त इसिवाले। पियमित्त ललियमिते पुणवसू गंगदत्ते य ॥५४॥ एयाई नामाई पुत्वभवे आसि वासुदेवाणं । एतो चलदेवाणं जहाकम कित्तइस्सामि ॥५५॥ विसनंदी य सुषन्धू सागरदचे असोगललिए य । वाराह धम्मसेणे अपराइय रायललिए य ॥५६॥ एएर्सि नवण्ई बलदेववासुदेवाणं पुष्यभविया नव धम्मायरिया होत्था, संजद्दा-संभूय सुभद सुदंसणे य सेयंस कण्ह गंगदत्ते आसागरसमुदनामे दुमसेणे यणवमए ॥५७॥ एए धम्मायरिया कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । पुच्चमवे एसिं जत्य नियाणाई कासीय ॥५८॥ एएर्सि नवण्हं वासुदेवाणं पुन्वभवे नय नियाणभूमिओ होत्या, तंजहा-महरा य० हथिणाउरं च ॥ ५९॥ एतेसि ण नवदं वासुदेवाणं नव
%
-
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
6-2548
SNERural)
~316~
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५६
१५९]
गाथा:
१-९३
प्रत
अनुक्रम
[२५४
-३८३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:)
मूलं [१५६ से १५९ ] + ९३ गाथा:
समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
श्रीसमवा
यांग
भीअभय०
वृति:
॥१५३॥
नियाणकारणा होत्या, तंजहा गावी जुवे० जाच माउआ ॥ ६० ॥ एएसिं नवदं वासुदेवाणं नव पडिसत्तू होत्या, तंजाअस्सग्गीवे जाव जरासंधे ॥ ६१ ॥ एए खलु पडिसत्तू जाव सचकेहिं ॥ ६२ ॥ एको य सत्तमीए पंच य छडीऍ पंचमी एको । एक्को य चउत्थीए कण्डो पुर्ण तचपुढवीए ||६३|| अणिदाणकडा रामा [ सब्वेवि य केसवा नियाणकडा । उडुंगामी रामा केसव सव्वे अहोगामी ॥ ६४ ॥ ] अड़ंतकडा रामा एगो पुण बंगलोयकप्पंमि । एक्कस्स गन्भवसद्दी सिज्झिस्सद आगमिस्सेणं ॥ ६५ ॥ (सूत्रं १५८ ) जंबूद्दीवे० एरवए वासे इमीसे ओसप्पिणीए चउब्बीसं तित्थयरा होत्या, तंजहा - चंदाणणं सुचंद अग्गीसेण च नंदिसेणं च । इसिदिण्णं ववहारिं वंदिमो सोमचंदं च ।। ६६ ।। वंदामि जुत्तिसेणं अजियसेणं तदेव सिवसेणं । बुद्धं च देवसम्म सययं निखित्तसत्यं च ॥ ६७ ॥ असंजलं जिणवसहं वंदे य अनंतयं अमियणाणि । उक्तं च धुयरयं वंदे खलु गुत्तिसेणं च ॥ ६८ ॥ अतिपासं च सुपासं देवेसरवंदियं च मरुदेवं । निव्वाणगयं च वरं खीणदुहं सामकोडं च ॥ ६९ ॥ जियरागमग्गिसेणं वंदे खीणरायमग्गिउत्तं च । वोक्कसियपि दोसं वारिसेणं गयं सिद्धिं ॥ ७० ॥ जंबूद्दीवे० आममिस्साए उस्सप्पिणीए मारहे वासे सत्त कुलगरा भविस्संति, तंजदा-मियवाहणे सुभूमे य, सुप्पमे य सयंपमे । दत्ते सुदुमे सुबन्धू य, आगमिस्साण होक्खति ॥७१॥ जंबुद्दीवे णं दीवे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए एरवए वासे दस कुलगरा भविस्संति, तंजा - विमलवाहणे सीमंकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरे दधणु दसवणू सयधणू पढिसूई सुमइति । जंबुद्दीवे णं दीवे मारछे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए चउवीसं तित्थगरा भविस्संति, तंजद्दा- मद्दापउमे सूरदेवे, सुपासे य सयंपमे । सब्वाणुभूई अरहा, देवस्सुए य होक्खई ॥ ७९ ॥ उदए पेढालपुत्ते य, पोट्टिले सत्तकित्ति य । मुणिसुब्बए य अरहा, सव्वभावविऊ जिणे ॥ ७३ ॥ अममे णिक्कसाए य, निप्पुलाए
For Penal Use Only
~317~
****
tet e
१५९ ऐर
बतादीजिनादि
॥१५३॥
nary.org
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६१५९] गाथा: १-९३
RockSCACANC4
य निम्ममे । चित्तउत्ते समाही य, आगमिस्सेण होखई ॥ ७४ ॥ संवरे अणियट्टी य, विजए विमलेति य । देवोववाए बरहा, अणतविजए इस ॥ ७५ ।। एए वुत्ता चउव्वीस भरहे वासम्मि केवली । आगमिस्सेण होक्खंति, धम्मतिस्थस्स देसगा ॥७६॥ एएसि गं चउन्नीसाए तित्यकराणं पुब्बभविया चउब्धीसं नामधेजा भविस्संति, तंजहा-सेणिय सुपास उदए पोहिल अणगार तह दढाऊ य । कत्तिय संखे य तहा नंद सुनंदे य सतए य॥ ७७॥ बोद्धव्वा देवई य सच्चइ तह वासुदेव बलदेवे । रोहिणि सुलसा चेव तत्तो खलु रेखई चेव ॥ ७८ ॥ ततो हवइ सयाली बोद्धले खलु तहा भयाली य । दीवायणे य कण्हे तत्तो खलु नारए चेव ॥ ७९ ॥ अंबड दारुमडे व साई बुद्धे य होइ बोद्धचे । भावी तित्थगराणं णामाई पुब्बभवियाई ॥८॥ एएसि णं चउन्धीसाए तित्थगराणं चउच्चीसं पियरो भविस्सति चउब्बीसं मायरो भविस्संति चउन्चीस पढमसीसा भविस्सति चउध्वीसं पढमसिस्सणीयो भविस्संति चउच्चीसं पढमभिक्खादायगा भविस्संति चउव्वीसं चेइयरुक्खा भविस्संति, जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए पारस चक्कवट्टिणो भविस्संति, तंजहा-भरहे य दोहदंते गूढदंते य सुद्धदंते य । सिरिउत्ते सिरिमूई सिरिसोमे य सत्तमे ॥८१।। पउमे य महापउमे विमलवाहणे (लेतह) विपुलवाहणे चेव । वरिटे घारसमे बुने आगमिसा भरहाहिवा ॥ ८२ ॥ एएसिणं बारसण्डं चक्कवट्टीणं बारस पियरो भविस्संति, बारस मायरो भविस्संति, बारस इत्थीरयणा भविस्संति, जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए नव बलदेववासुदेवपियरो भविस्सति, नववासुदेवमायरो भविस्संति, नव बलदेवमायरो भविस्संति, नव दसारमंडला भविस्संति, तंजहा-उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पदाणपुरिसा ओयंसी तेयसी एवं सो चैव वणी भाणियवो जाव नीलगपीतगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्सति, तंजहा-नंदे य नंदमिते दीहवाहू तहा
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
+KC+CRI
CA
mimrary.om
~318~
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
१५९ऐर
श्रीसमवा-1
यांगे श्रीअभय
बवादौ
जिनादि
+
%
[१५६१५९] गाथा: १-९३
564GGI
॥१५४||
C
E
महाबाहू । अइबले महावले बलभद्दे य सत्तमे ॥८३॥ दुविद य तिविद् य आगमिस्साण वहिणो । जयंते विजए भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे । आणंदे नंदणे पउमे, संकरिसणे य अपच्छिमे ॥ ८४॥ एएसिणं नवण्हं चलदेववासुदेवाणं पुल्वभविया णव नामधेजा भविस्संति, नव धम्मायरिया भविस्संति, नव नियाणभूमीओ मविस्संति, नव नियाणकारणा भविस्संति, नव पडिसत्तू भविस्संति, तंजहा-तिलए य लोहजषे, वइरजंघे य केसरी पहराए । अपराइए य भीमे, महाभीमे य सुग्गीवे ॥८५।।एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सब्वेवि चक्कजोही हम्मिदिति सचकेहि ॥ ८६ ॥ जंबुद्दीवे एरवए वासे आगमिस्साए उस्सपिणीए चउबीसं तित्थकरा भविस्संति, तंजहा-सुमंगले अ सिद्धत्थे, णिवाणे य महाजसे। धम्मज्मए य अरहा, आगमिस्साण होक्खई ।। ८७।। सिरिचंदे पुप्फकेऊ, महाचंदे य केवली । सुयसागरे य अरहा, आगमिस्साण होक्खई ॥८८॥ सिद्धत्थे पुण्णधोसे य, महाघोसे य केवली । सबसेणे य अरहा, आगमिस्साण होक्खई ॥ ८९ ॥ सूरसेणे य अरहा, महासेणे य केवली । सम्वाणंदे य अरहा, देवउत्ते य होक्खई ।। ९० ॥ सुपासे सुब्बए अरहा, अरहे य सुकोसले । अरहा अणंतविजए, आगमिस्सेण होक्खई ॥ ९१॥ विमले उत्तरे अरहा, अरहा य महाबले । देवाणंदे य अरहा, आगमिस्सेण होक्खई ॥ ९२ ॥ एए वुत्ता चउव्वीस, एरवयम्मि केवली । आगमिस्साण होक्खंति, धम्मतित्थस्स देसगा ॥९३॥ बारस चकवहिणो भविस्संति, बारस चकवटिपियरो भविस्सति, बारस मायरो भविस्संति, वारस इस्थीरयणा भविस्संति, नव बलदेववासुदेवपियरो भविस्सति, णव वासुदेवमायरो भविस्संति, णव बलदेवमायरो भविस्संति, णव दसारमंडला भविस्संति, उत्तमपुरिसा मज्झिमपुरिसा पदाणपुरिसा जाव दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति, णव पडिसतू भविस्संति, नव पुत्वभवणामधेआ णव धम्मायरिया णव णियाणभूमीओ णव णियाणकारणा,
%
%
%
%
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
॥१५॥
%
*
~319~
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६१५९] गाथा: १-९३
आयाए एरवए आगमिस्साए भाणियव्वा, एवं दोसुवि आगमिस्साए भाणियव्वा (सूत्र १५८) इचेयं एवमाहिजेति, तंजहा-कुलगरवंसेच य एवं तित्थगरवंसेइ य चकवहिवंसेइ य गणधरवंसेह य इसिवंसेइ य जइवंसेइ य मुणिवंसेइ य सुएइ वा सुअंगेइ वा सुयसमासेइ वा सुयखंधेइ वा समवाएइ वा संखेइ वा सम्मत्तमंगमक्खायं अज्झयणन्तिवेमि ॥ (सूत्र १५९) इति समवाय चउत्थमंग समत्तम् ॥ 'कइविहे वेए'त्यादि, तत्र स्त्रीवेदः-पुंस्कामिता पुरुषवेदः-स्त्रीकामिता नपुंसकवेदः-स्त्रीपुंस्कामितेति, एते च पूवोदिता अर्थाः समवसरणस्थितेन भगवता देशिता इति समवसरणवक्तव्यतामाह-'तेणं कालेणं तेणं समएणं कप्पस्स समोसरणं णेयवं' इह णकारी वाक्यालकारार्थों अतस्ते इति प्राकृतत्वात् तस्मिन् काले सामान्येन दुष्षमसुषमालक्षणे तस्मिन् समये विशिष्टे यत्र भगवानेवं विहरति स्मेति 'कप्पस्स समोसरणं नेय'ति इहावसरे कल्पभाष्यक्रमण समवसरणवक्तव्यताऽध्येया, सा चावश्यकोक्ताया न व्यतिरिच्यते, वाचनान्तरे तु पर्युषणाकल्पोक्तक्रमणेत्यभिहितं, कियहरमित्याह-जाव गणे'यादि, तत्र गणधरः पञ्चमः सुधर्माख्यः सापत्यः शेषा निरपत्याः-अविद्यमानशिष्यस
न्ततय इत्यर्थः 'वोच्छिन्नत्ति सिद्धा इति, तथाहि-परिनिवुया गणहरा जीयन्ते नायए नव जणा उ । इन्दभूइ सुहदम्मो य रायगिहे निबुए वीरे ॥१॥'त्ति, अयं च समवसरणनायकः कुलकरवंशोत्पन्नो महापुरुषश्चेति कुलकराणां
वरपुरुषाणां च वक्तव्यतामाह-जंबुद्दीवे' इत्यादि, सुगमं नवरं 'पढमेत्य विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभि
564444OR+Chic.
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
SAMEnirahux
.
~320~
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
*
प्रत
*
सूत्रांक
[१५६१५९] गाथा: १-९३
श्रीसमवा- चंदे। तत्तो य पसेणइए मरुदेवे चेव नाभीय ॥३॥'त्ति तथा 'चंदजस चंदकंता सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य ।। १५९ जियगि सिरिकता मरुदेवी कुलगरपत्तीण नामाई ॥४॥ ति, तथा 'नाभी य जियसत्तू व जियारी संवरे इय। मेहे घरे पढे नचक्रिवायाय, महसेणे व खत्तिए ॥५॥ सुग्गीवे रढरहे विण्हू बसुपुजे य खत्तिए । कयवम्मा सीहसेणे य भाणू विस्ससणेसुदेवादि
अ६॥ सूरे सुदंसणे कुंभे सुमित्तविजए समुद्दविजये य । रावा य अस्ससेणे य सिद्धत्थे विष खत्तिए.॥७॥'ति, ॥१५५॥ तथा 'मरुदेवी विजयासेणा सिद्धत्था मङ्गला सुसीमा य पुहवी लखणा रामा नंदा विणहू जया सामा ॥९॥ सुजसा|
सुच्चय अहरा, सिरिआ देवी पभावई पउमा वष्पा सिवा य वामा, तिसलादेवी व जिणमाय ॥१०॥ ति तथा 'सबोउगसुभयाए छायाए'त्ति सर्व कया-सर्वेषु शरदादिषु ऋतुषु सुखदया छायया-प्रभया आतपाभावलक्ष-14 जया युक्ता इति शेषः ॥ १७॥ तथा 'सा हट्ठरोमकूवेहिं ति सा शिविका यस्यां जिनोऽध्यारूढः हटरोमकूपैः-उडुपितरोमभिरित्यर्थः ॥ १८॥ तथा 'चलचबलकुंडलधरति चलाश्च ते चपलकुण्डलधराश्चेति वाक्यं, तथा खच्छन्दिन-खरुच्या विकृर्षितानि यान्याभरणानि-मुकुटादीनि तानि धारयन्ति ये ते तथेति ॥ १९ ॥ तथा असुरेन्द्रादय 8 इति योगः 'गरुल'सि गरुडध्वजाः सुपर्णकुमारा इत्यर्थः ॥२१॥ तथा सवेवि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउपीसं १५५॥ न यणाम अण्णलिंगे नय गिहिलिंगे कुलिंगे य ॥२२॥ त्ति 'सेण'त्ति एकेन बनेणेन्द्रसमर्पितेन नोपधिभूतेन युक्ता निक्रान्ता इत्यर्थः न चान्यलिङ्गे-स्थविरकल्पिकादिलिङ्गेन तीर्थकरलिङ्ग एवेत्यर्थः, कुलिके-शाक्यादिलिङ्गे, तथा 'एको
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
~321
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५६
१५९]
गाथा:
१-९३
प्रत
अनुक्रम
[२५४
-३८३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
मूलं [१५६ से १५९ ] + ९३ गाथा:
भगवं वीरो पासो मही य तिहि तिहि सएहिं । भवनंपि वासुपुज्जो छहिं पुरिससएहिं निखतो ॥ २३ ॥ उग्गाणं भोगाणं राइष्णाणं च खत्तियाणं च । चउहिं सहस्सेहिं उसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ||२४|| तथा 'सुमहत्व निबअसेण निग्गओ वासुपुज चोत्थेणं । पासो माहीविय अट्टमेण सेसा उ द्वेणं ॥ २५॥ ति, सुमतिरत्र नित्यभक्तेनानुपोषितो निष्क्रान्त इत्यर्थः, तथा 'संबच्छरेण भिक्खा लद्धा उसभेण लोगनाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ ३० ॥ त्ति तथा 'उसभस्स पढमभिक्खा खोयरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमियरसरसोब आसि ॥ ३१ ॥ 'सरीरमेत्तीओ' ति पुरुषमात्रा 'चेइयरुक्खे'ति बद्धपीठवृक्षा येषामधः केवलान्युत्पन्नानीति, 'बत्तीसं धणुयाएं' गाहा 'निबोउगोति नित्यं सर्वदा ऋतुरेव - पुष्पादिकालो यस्य स नित्यर्त्तकः 'असोगो' चि अशोकाभिधानो यः समवसरणभूमिमध्ये भवति, 'ओच्छन्नो सालरुक्खेणं' ति अवच्छन्नः शालवृक्षेणेत्यत एव वचनादशोकस्योपरि शालवृक्षोऽपि कथञ्चिदस्तीत्यवसीयत इति ॥ ३६ ॥ 'तिण्णेव गाउयाई' गाहा, ऋषभखामिनो द्वादशगुण इत्यर्थः H३७॥ 'सवेइय'त्ति वेदिकायुक्ताः, एते चाशोकाः समवसरण सम्बन्धिनः सम्भाव्यन्त इति ॥ ३८ ॥ तथा 'भरहो सगरो मघवं सणकुमारो य रायसद्द्लो। संती कुंथू य अरहो हवइ सुभूमो य कोरवो ॥४६॥ नवमो य महापउमो हरिसेणो चेव रायसहूलो। जयनामो य नरवई वारसमो बंभदत्तो य ॥ ४७ ॥ तथा 'पयावती य बंभो सोमो रुद्दो सिवो महसिवोय । अग्गिसिहो दसरहो नवमो भणिओ य वसुदेवो'त्ति दशाराणां - वासुदेवानां मण्डलानि - बलदेववासुदेवद्वयइ
For Parts Only
~322~
yor
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीसमवा-
यांगे श्रीअभय
वृत्तिः
[१५६१५९] गाथा: १-९३
॥१५६||
यलक्षणाः समुदाया दशारमण्डलानि अत एव 'दो दोरामकेसव'त्ति वक्ष्यति, दशारमण्डलाव्यतिरिकत्वाच बलदेववासु- १५९ जिदेवानां दशारमण्डलानीति पूर्वमुद्दिश्यापि दशारमण्डलव्यक्तिभूतानां तेषा विशेषणार्थमाह-तद्यथे'त्यादि, तद्यथेति नचक्रिवाबलदेववासुदेवखरूपोपन्यासारम्भार्थः, केचित्तु 'दशारमण्डणाई ति, तत्र दशाराणां-वासुदेवकुलीनप्रजानां मण्डना:
दासुदेवादि शशोभाकारिणो दशारमण्डना उत्तमपुरुषा इति, तीर्थकरादीनां चतुष्पञ्चाशत उत्तमपुरुषाणा मध्यमवर्तित्वात् मध्यम
पुरुषाः, तीर्थकरचक्रिणां प्रतिवासुदेवादीनां च बलाद्यपेक्षया मध्यवर्तित्वात्, प्रधानपुरुषास्तत्कालिकपुरुषाणां शौयोदिभिः प्रधानत्वात् , ओजखिनो मानसबलोपेतत्वात् , तेजखिनो दीप्तशरीरत्वात् , वर्चखिनः शारीरबलोपेतत्वात्, यशखिनः पराक्रमं प्राप्य प्रसिद्धिप्रासत्वात्, 'छायंसि'त्ति प्राकृतत्वात् छायावन्तः शोभमानशरीरा अत एव कान्ताः कान्तियोगात् सौम्या अरौद्राकारत्वात् सुभगा जनवल्लभत्वात् प्रियदर्शनाः चक्षुष्यरूपत्वात् सुरूपाः समचतुरस्त्रसंस्थानत्वात् शुभं सुखं वा सुखकरत्वाच्छीलं-खभावो येषां ते शुभशीलाः सुखशीला वा सुखेनाभिगम्यते-सेन्यन्ते ये शुभशीलत्वादेव ते सुखाभिगम्याः सर्वजनगम्याः सर्वजननयनानां कान्ता-अभिलाष्या ये ते तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, ओपबलाः-प्रवाहबलाः अव्यवच्छिन्नबलत्वात् अतिबलाः शेषपुरुषवलानामतिक्रमात् महाबलाः-प्रश
॥१५६॥ सबलाः अनिहता-निरुपक्रमायुष्कत्वादुरोयुद्धे वा भूम्यामपातित्वात् अपराजितास्तैरेव शत्रूणां पराजितत्वात् , एतदेवाह-शत्रुमर्दनास्तच्छरीरतत्सैन्यकदर्थना रिपुसहस्रमानमथनास्तद्वामिछतकार्यविघटनात् सानुक्रोशाः प्रणतेष्वद्रो
**
*
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
*
ATMasturary.com
~323~
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
-%A-%C
[१५६१५९] गाथा: १-९३
CASE
हकत्वात् अमत्सराः परगुणलवस्थापि ग्राहकत्वात् अचपला मनोवाकायस्थयात् अचण्डा निष्कारणप्रवलकोपरहित
त्यात् मिते-परिमिते मञ्जले-कोमले प्रलापश्च-आलापो हसितं च येषां ते मितमञ्जलप्रलापहसिताः गम्भीरं-अदमर्शितरोपतोषशोकादिविकारं मेघनादवद्वा मधुरं-श्रवणसुखकरं प्रतिपूर्णम्-अर्थप्रतीतिजनकं सत्यम्-अवितथं वचन-वाक्यं सायेषा ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, अभ्युपगतवत्सलास्तत्समनशीलत्वात् शरण्याखाणकरणे साधुत्वात् ल
क्षणानि-मानादीनि बजस्वस्तिकचक्रादीनि चा व्यजनानि-तिलकैमषादीनि तेषां गुणा-महर्द्धिप्राप्त्यादयस्तैरुपेताः शकध्वादिदर्शनादुपपेता-युक्ता लक्षणन्यजनगुणोपपेताः, मानमुदकद्रोणपरिमाणशरीरता, कथं ?, उदकपूर्णायां द्रोण्या निविष्टे पुरुषे यज्जलं ततो निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं स्यात् तदा स पुरुषो मानप्राप्त इत्यभिधीयते, उन्मानं अर्द्धभारपरिमाणता, कथं ?, तुलारोपितस्य पुरुषस्य यद्यद्धभारस्तौल्यं भवति तदाऽसावुन्मानप्राप्त उच्यते, प्रमाणमष्टो-IA तरशतमङ्गुलानामुच्छ्रयः, मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्ण-अन्यून सुजातमागर्भाधानात् पालनविधिना सर्वाङ्गसुन्दरं-निखिलावयवप्रधानं अझं शरीरं येषां ते तथा, शशिवत् सौम्याकारमरौद्रमवीभत्सं वा कान्तं-दीसं प्रियं-जनानां प्रमो
दोत्पादक दर्शनं-रूपं येषां ते तथा, 'अमरिसण'त्ति अममणाः-प्रयोजनेष्वनलसाः अमर्षणा वा-अपराधेष्वपि कु-18 Mतक्षमाः प्रकाण्ड-उत्कटो दण्डप्रकार-आज्ञाविशेषो नीतिभेदविशेषो वा येषा ते तथा, अथवा प्रचण्डो-दुःसाध्यसाधसमकत्वाद्दण्डप्रचारः-सैन्यविचरणं येषां ते तथा, गम्भीरा-अलक्ष्यमाणान्तवृत्तित्वेन रश्यन्ते ये ते गम्भीरदर्शनीयाः,
-%
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
-
-
-
Santamin
N
aturary.om
-
~324~
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५६
१५९]
गाथा:
१-९३
प्रत
अनुक्रम
[२५४
-३८३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित. आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
मूलं [१५६ से १५९ ] + ९३ गाथा:
श्रीसमवा
यांगे
श्रीअभय ०
वृत्तिः
॥१५७॥
ततः पदद्वयस्य कर्म्मधारयः, प्रचण्डदण्डप्रचारेण वा ये गम्भीरा दृश्यन्ते, तथा ताउस्तलो वा वृक्षविशेषो ध्वजो येषां ते तालध्वजाः बलदेवा उद्विद्ध: - उच्छ्रितो गरुडलक्षितः केतुः-ध्वजो येषां ते उद्विद्धगरुडकेतवो वासुदेवाः तालध्वजाश्च उद्विद्धगरुडकेतवश्च तालध्वजोद्विद्धगरुडकेतवः महाधनुर्विकर्षकाः महाप्राणत्वात् महासत्त्वलक्षणजलस्य सागरा इव सागरा आश्रयत्वान्महासत्त्वसागराः दुर्द्धरा रणाङ्गणे तेषां प्रहरतां केनापि धन्विना धारयितुमशक्यत्वात्, धनुर्धराः - कोदण्डप्रहरणाः, धीरेष्वेवैतेषु च ते पुरुषाः- पुरुषकारवन्तो न कातरेध्विति धीरपुरुषाः, युद्धजनिता या कीर्त्ति स्तत्प्रधानाः पुरुषा युद्धकीर्त्तिपुरुषाः, विपुलकुलसमुद्भवा इति प्रतीतं महारतं वज्रं तस्य महाप्राणतया विघटका-अङ्गुष्ठतर्जनीभ्यां चूर्णका महारलविघटकाः, वज्रं हि अधिकरण्यां धृत्वा अयोधनेनाऽऽस्फोटयते न च भिद्यते तावेव भिनतीति दुर्भेदं तदिति, अथवा महती या रचना सागरशकटव्यूहादिना प्रकारेण सिसङ्ग्रामयिषोर्महासैन्यस्य रणरङ्गरसिकतया महावलतया च विघटयन्ति - वियोजयन्ति ये ते महारचनाविघटकाः, पाठान्तरेण तु महारणविघटकाः, अर्द्धभरतखामिनः सौम्या नीरुजा राजकुलवंशतिलकाः अजिताः अजितरथाः, 'हलमुशलकणकपाणयः' तत्र | हलमुशले प्रतीते ते प्रहरणतया पाणी-हस्ते येषां ते तथा बलदेवाः येषां तु कणका-वाणाः पाणी ते शार्ङ्गधन्वानो वासुदेवाः, शंखश्च पाञ्चजन्याभिधानः चक्रं तु सुदर्शननामकं गदा च कौमोदकीसंज्ञा लकुटविशेषः शक्तिश्व त्रिशूलविशेषो नन्दकश्च नन्दकाभिधानः खगस्तान् धारयन्तीति शंखचक्रगदाशक्तिनन्दकधराः वासुदेवाः, प्रवरो वरप्रभाव
For Parts Only
~ 325~
१५९ जि
नचक्रिवासुदेवादि
॥१५७॥
wrary.org
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६१५९] गाथा: १-९३
योगादुज्ज्वलः शुक्लत्वात् खच्छतया वा शुक्लान्तः कान्तियोगात् पाठान्तरे सुकृतः-सुपरिकर्मितत्वात् विमलो म-13
लवर्जितत्वात् गोथुभत्ति-कौस्तुभाभिधानो यो मणिविशेषस्तं तिरीडंति-किरीटं च मुकुटं धारयन्ति ये ते तथा, ४कुण्डलोयोतिताननाः पुण्डरीकवनयने येषां ते तथा, एकावली-आभरणविशेषः सा कण्ठे ग्रीवायां लगिता-अवल||म्बिता सती वक्षसि-उरसि वर्त्तते येषां ते एकावलीकण्ठलगितवक्षसः, श्रीवत्साभिधानं सुष्टु लाञ्छनं महापुरुषत्व
सूचकं वक्षसि येषां ते श्रीवत्सलाञ्छनाः, वरयशसः सर्वत्र विख्यातत्वात् सर्वतुकानि-सर्वऋतुसंभवानि सुरभीणि-सु
गन्धीनि बानि कुसुमानि तैः सुरचिता-कृता या प्रलम्बा-आप्रदीपना सोभंतत्ति-शोभमाना कान्ता-कमनीया विक-| ४|सन्ती-फुलन्ती चित्रा-पञ्चवर्णा वरा-प्रधाना माला-सक रचिता-निहिता रतिदा वा-सुखकारिका पक्षसि येषां ते15
सर्वर्तुकसुरभिकुसुमरचितप्रलम्बशोभमानकान्तविकसचित्रवरमालारचितवक्षसः, तथा अष्टशतसंख्यानि विभक्तानि-2 विविक्तरूपाणि यानि लक्षणानि-चक्रादीनि तैः प्रशस्तानि-मङ्गल्यानि सुन्दराणि च-मनोहराणि विरचितानि-विहितानि 'अंगमंग'त्ति अङ्गोपाङ्गानि शिरोऽङ्गुल्यादीनि येषां ते अष्टशतविभक्तलक्षणप्रशस्तसुन्दरविरचिताङ्गोपाङ्गाः,
तथा मत्तगजवरेन्द्रस्य यो ललितो-मनोहरो विक्रमः-संचरणं तद्विलासिता संजातविलासा गतिः-गमनं येषां ते मदत्तगजवरेन्द्रललितविक्रमविलासितगतयः, तथा शरदि भवः शारदः स चासौ नवं स्तनितं-रसितं यस्मिन्निर्घोष स नवPास्तनितः स चेति समासः स चासौ मधुरो गम्भीरश्च यः क्रौञ्चनिर्घोषः-पक्षिविशेषनिनादस्तद्वद् दुन्दुभिखरो-वर्च
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
SaintairatinENNI
For P
OW
~326
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५६
१५९]
गाथा:
१-९३
प्रत
अनुक्रम
[२५४
-३८३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [०४], अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
मूलं [१५६ से १५९ ] + ९३ गाथा:
श्रीसमवा
यांगे
श्रीअमय ०
वृति:
॥१५८॥
खरो नादो येषां ते शारदनवस्तनितमधुरगम्भीरक्रौञ्चनिर्घोषदुन्दुभिखराः, इह च शरत्काले हि कौश्वा माद्यन्ति मधुरध्वनयश्च भवन्तीति शारदग्रहणं, तथा पौनःपुन्येन शब्दप्रवृत्ती तद्भङ्गादमनोज्ञता तस्य स्यादिति नवस्तनितग्रहणं स्वरूपोपदर्शनार्थे मधुरगभीरग्रहणमिति, तथा कटीसूत्रकं- आभरणविशेषस्तत्प्रधानानि नीलानि बलदेवानां पीतानि वासुदेवानां कौशेयकानि-वस्त्रविशेषभूतानि वासांसि यसनानि येषां ते कटीसूत्रनीलपीत कौशेयवाससः, प्रवरदीसतेजसो वरप्रभावतया वरदीसितया च नरसिंहा विक्रमयोगात् नरपतयः तन्नायकत्वात् नरेन्द्राः परमैश्वर्ययोगात् नरवृपभा उत्क्षिप्तकार्य भरनिर्वाहकत्वात् मरुतुपभकल्पाः देवराजोपमा अभ्यधिकं शेषराजेभ्यः राजतेजोलक्ष्म्या दीप्यमानाः, नीलकपीतकवसना इति पुनर्भणनं निगमनार्थ, कथं ते नवेत्याह- 'दुवे दुवे' इत्यादि, एवं च नय वासुदेवा नव बलदेवा इति, 'तिविद्वे य' यावत्करणात् 'दुविद्वे य, सयंभू पुरिमुत्तमे पुरिससीहे । तह पुरिसपुंडरीये दत्ते नारायणे कण्हे ॥ ५२ ॥ त्ति, 'अयले विजये भद्दे, सुप्पभे य सुदंसणे । आनंदे णंदणे पउमे रामे यावि अपच्छिमे ॥ ५३ ॥ ' ति 'कितीपुरिसाणं'ति कीर्त्तिप्रधानपुरुषाणामिति ॥ ५८ ॥ मडुरा य कणगवत्थू सावत्थी पोयणं च रायसिंहं । कायंदी कोसम्बी मिहिठपुरी हत्थिणपुरं च ॥ ५९ ॥ तथा 'गावि जुए संगामे तह इत्थी पराइओ रहे । भज्जाणुराग गोट्टी परइड्ढी माउया इव ॥ ६० ॥ चि तथा 'अस्सग्गीवे तारए मेरए मटुकेढवे निसुंभे य । बलि पहराए तह रावणे य नवमे जरासंधे ॥ ६१ ॥' चि 'एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वेवि चक्क -
For Parts Only
~327~
१५९ जि
न चक्रिवा
सुदेवादि.
॥१५८॥
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६१५९] गाथा: १-९३
*CRACK
जोही सब्वेवि हया सचकेहिं ।। ६२ ॥ ति 'अणियाणकडा रामा सम्बेवि य केसवा नियाणकडा । उहुंगामी रामा केसव सब्वे अहोगामी ॥६४ ॥'ति 'आगमिस्सेणं'ति आगमिष्यता कालेन 'आगमेस्साणं'ति पाठान्तरे आगमिष्यता-भविष्यतां मध्ये सेत्स्यन्ति ॥ ६५॥' ति जंबूद्वीपैरवते अस्थामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतिस्तीर्थकरा अभूवन् , तांश्च स्तुतिद्वारेणाह-तयथा-'चंदाणणं' गाहा, चन्द्राननं सुचन्द्रं अग्निसेनं च नन्दिसेनं च, कचिदात्मसेनोऽप्ययं । दृश्यते, ऋषिदिन्नं व्रतधारिणं च वन्दामहे श्यामचन्द्रश्च ॥ ६६ ॥ 'वन्दामि' गाहा, वन्दे युक्तिसेनं कचिदयं दीर्घ-12 बाहुर्दीर्घसेनो योच्यते, अजितसेनं कचिदयं शतायुरुच्यते, तथैव शिवसेनं कचिदयं सत्यसेनोऽभिधीयते, सत्यकिश्चेति
बुद्धं चावगततत्त्वं च देवशाणं देवसेनापरनामकं सततं सदा वंद इति, प्रकृतं निक्षिप्तशस्त्रं च नामान्तरतः श्रेदायांसः ॥ ६७ ॥ 'असंजलं' गाहा, असंज्वलं जिनवृषभं पाठान्तरेण खयंजलं वंदे अनन्तकं जिनममितज्ञानिनं सर्वज्ञ-181
मित्यर्थः, नामान्तरेणायं सिंहसेन इति, उपशान्तं च-उपशान्तसंज्ञं धूतरजसं वन्दे खलु गुप्तिसेनं च ॥ ६८ ॥ 'अ-10 इपास' गाहा, अतिपार्श्व च सुपार्श्व देवेश्वरवन्दितं च मरुदेवं निर्वाणगतं च धरं-धरसंज्ञं प्रक्षीणदुःखं श्यामकोष्ठं च ॥ ६९॥ 'जिय' गाहा, जितरागमग्निसेनं महासेनमपरनामकं वन्दे क्षीणरजसममिपुत्रं च व्यवकृष्टप्रेमद्वेषं च वारिपणं गतं सिद्धिमिति, स्थानान्तरे किश्चिदन्यथाप्यानुपूर्वी नानामुपलभ्यते ॥ ७० ॥ महापद्मादयो विजयान्ताश्चतुर्विशतिः ॥ ७५ ॥ एषमिदं सर्वं सुगम ग्रंथसमाप्तिं यावत् , नवरं 'आयाए'त्ति बलदेवादेरायातं देवलोकादेश्युतस्य मनु
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
SNEauratx
~328~
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५६१५९] गाथा: १-९३
श्रीसमवा-
यांगे । श्रीअभय
वृचिः ॥१५९॥
2-56146
प्येषूत्पादः सिद्धिश्च यथा रामस्येति, एवं 'दोसुवि'त्ति भरतैरावतयोरागमिष्यन्तो वासुदेवादयो भणितव्याः। इत्येवमने-II निगमनं. कधार्थानुपदाधिकृतग्रन्थस्य यथार्थान्यभिधानानि दर्शयितुमाह-इत्येतदधिकृतशास्त्रमेवमनेनाभिधानप्रकारेणाऽऽख्यायते-अभिधीयते, तद्यथा-कुलकरवंशस्य-तत्प्रवाहस्स प्रतिपादकत्वात् कुलकरवंश इति च, इतिरुपदर्शने चशब्दः18 समुच्चये, एवं तित्थगरयंसेइ यत्ति यथा देशेन कुलकरवंशप्रतिपादकत्वात् कुलकरवंश इत्येतदाख्यायते एवं देशतस्तीर्थकरवंशप्रतिपादकत्वात् तीर्थकरवंश इति च आख्यायते एतदिति, एवं चक्रवर्तिवंश इति च तत्प्रतिपादकत्वात् । दशारवंश इति च गणधरवंश इति च गणधरव्यतिरिक्ताः शेषा जिनशिष्या ऋषयस्तवंशप्रतिपादकत्वारषिवंश इति च । तत्प्रतिपादनं चात्र पर्युषणाकल्पस्य ऋषिवंशपर्यवसानस्य समवसरणप्रक्रमण भणितत्वादत एव यतिवंशो मुनिवंशश्चैतदुच्यते, यतिमुनिशब्दयोः ऋषिपर्यायत्वात्, तथा श्रुतमिति चैतदाख्यायते, परोक्षतया त्रैकालिकार्थावबोधनसहत्वादस्य, तथा 'श्रुताङ्गमिति वा' श्रुतस्य-प्रवचनस्य पुरुषरूपस्याङ्गं-अवयव इतिकृत्वा, तथा 'श्रुतसमास इति वा' सम- स्तसूत्रार्थानामिह संक्षेपेणाभिधानात् 'श्रुतस्कन्ध इति वा' श्रुतसमुदायरूपत्वादस्य 'समाए बत्ति समवाय इति वा, समस्तानां जीवानां-जीवादिपदार्थानामभिधेयतयेह समवायनात् मीलनादित्यर्थः, तथा एकादिसंख्याप्रधानतया 8 ॥१५९॥ पदार्थप्रतिपादनपरत्वादस्य संख्येति व्याख्यायते, तथा समस्तं-परिपूर्ण तदेतदङ्गमाख्यातं भगवता, नेह श्रुतस्कन्धद्वयादिखण्डनेनाचारादिवदङ्गतेति भावः, तथा 'अज्झयणंति'त्ति समस्तमेतदध्ययनमित्याख्यातं नेहोद्देशकादिखण्ड
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
~329~
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
(०४)
प्रत
सूत्रांक
[१५६
१५९]
गाथा:
१-९३
प्रत
अनुक्रम
[२५४
-३८३]
[भाग-७] “समवाय” – अंगसूत्र - ४ (मूलं + वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] "समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः
मूलं [१५६ से १५९ ] + ९३ गाथा:
नाऽस्ति शस्त्रपरिज्ञादिष्विवेति भावः, इतिशब्दः समाप्तौ 'नवीमी'ति किल सुधर्म्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह स्म, त्रवीमि - प्रतिपादयामि, एतत् श्रीमन्महावीरवर्द्धमानखामिनः समीपे यदवधारितमित्यनेन गुरुपारम्पर्यमर्थस्य प्रतिपादितं भवति, एवं च शिष्यस्य ग्रन्थे गौरवबुद्धिरुपजनिता भवति, आत्मनश्च गुरुषु बहुमानो दर्शित औद्धत्यं च परिहतं, अयमेवार्थः शिष्यस्य सम्पादितो भवति मुमुक्षूणां चायं मार्ग इत्यावेदितमिति समवायाख्यं चतुर्थमङ्गं वृत्तितः समाप्तम् ॥
नमः श्रीवीराय प्रवरवरपाश्रय च नमो नमः श्री वाग्देव्यै वरकविसभाया अपि नमः ॥ नमः श्रीसङ्घाय स्फुटगुणगुरुभ्योऽपि च नमो नमः सर्वस्मै च प्रकृतविधिसाहाय्यक कृते ॥ १ ॥ यस्य ग्रन्थवरस्य वाक्यजलधेर्लक्षं सहस्राणि च चत्वारिंशदहो चतुर्भिरधिका मानं पदानामभूत् ॥ तस्योच्चैश्चलकाकृतिं निदधतः कालादिदोषात्तथा, दुखात् खिलतां गतस्य कुधियः कुर्वन्तु किं मादृशाः १ ॥ २ स्वं कष्टेऽतिनिधाय कष्टमधिकं मा मेऽन्यदा जायतां व्याख्यानेऽस्य तथा विवेक्तमनसामल्पश्रुतानाममुम् ॥ इत्यालोचयता तथापि किमपि प्रोक्तं मया तत्र च दुर्व्याख्यानविशोधनं विदधतु प्राज्ञाः परार्थोद्यताः ॥ ३ ॥ इह वचसि विरोधो नास्ति सर्वज्ञवाक्यात्, वचन तदवभासो यः स मान्द्यान्नृबुद्धेः । वरगुरुविरहाद्वाऽतीतकाले मुनीशैर्गणधरवचनानां श्रस्तसङ्घातनाद्वा ॥ ४ ॥
For Pasta Use Only
~330~
yor
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ------------------- मूलं [१५६ से १५९] + ९३ गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
ॐ
[१५६१५९] गाथा: १-९३
श्रीसमवा
यांगे श्रीअभय
वृतिः ॥१६॥
व्याख्यानं यद्यपीदं प्रबरकवियचःपारतंत्र्येण दृष्टं(ब्ध)सम्भाव्योऽस्मिंस्तथापि कचिदपि मनसो मोहतोऽर्थादिभेदः । गामशस्ति: किन्तु श्रीसबुद्धेरनुशरणविधेर्भावशुद्धेश्च दोषो, मा मेऽभूदल्पकोऽपि प्रशमपरमना अस्तु देवी श्रुतस्य ॥५॥ निःसम्बन्धविहारहारिचरितान् श्री वर्द्धमानाभिधान् , सूरीन् ध्यातवतोऽतितीव्रतपसो ग्रन्थप्रणीतिप्रभोः॥ श्रीमत्सरिजिनेश्वरम जयिनो दपीयसां वाग्ग्मिनां, तद्वन्धोरपि बुद्धिसागर इति ख्यातस्य सूरे वि ॥६॥ शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणा विवृतिः कृता । श्रीमतः समवायाख्यतुर्याङ्गस्य समासतः॥७॥ एकादशसु शतेष्यथ विंशत्यधिकेषु विक्रमसमानाम् । अणहिलपाटकनगरे रचिता समवायटीकेयम् ॥ ८॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्याः, ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । त्रीणि श्लोकसहस्राणि, पादन्यूना च षट्शती ॥९॥
सूत्रसंख्या श्लोक १६६७ वृत्तिः ३५७५ उभयोर्मीलनेन ५२४२ ॥
ॐॐॐ50%
SACROCODSAX
प्रत अनुक्रम [२५४-३८३]
इति चन्द्रकुलाम्बरनभोमणिश्रीमदभयदेवाचार्यब्धा समवायाङ्गसूत्रवृत्तिः समाप्ता ॥
अत्र प्रकिर्णक: समवाय: परिसमाप्त:
भाग
समवाय-अंगसूत्र मूलं एवं अभयदेवसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब | किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
7 किंचित् वा
~331~
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग
कुलपृष्ठ
३१४
01
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८ ५९२
५५२
सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ आगम . आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन १५ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११
आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. आगम-6,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. | आगम १३ राजप्रश्नीय मूल एव वृत्ति. | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५१४ ३८४
५२२
५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६ ५१४
३३६ ६१०
21
~332~
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुलपृष्ठ ६१४
३७६
४२६
३४४
३१२
३३०
४६६
४४२
सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 22 | आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. आगम १९ थी ३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया । आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से १२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ 30 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण)
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति..
आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प(बारसा)सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
४६४
४२६
४७२
३७६
५९०
५२२
४८२
४६६
५२८
५६०
३९४
~333~
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य आनंद-क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
भाग- 7
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधितः संपादितश्च “समवायाङ्गसूत्र” | मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलित: “समवाय” मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्तः
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग- 7
~334~
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
ਮ
ਸ
ਹਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਸਲ
ਸ
ਸ
ਸ
ਹਾਸ ਰ 3 ਨੂੰ
ਸ਼ਾਹ ਦੀ ਸ਼ ਆਸ ਹਲ ਕਲਰ
ਕਸ ਕਰਨਾ
ਗਸ਼
ਦੀ
RISH
ਅੰਕ
30
वाचना शताब्दी वर्ष
ਸ
ਸ
ਸ
ਸ
ਗਰਮ
ਗੁਰੂ
ਕਾਸ਼
ਸਿੰਘ
~ 335 ~
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
ANCE
dication
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी EM.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदावाद Mo 9825598855/98253062751
~336~
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
...
NEETA
OTEOEMONSORansorted to
~337~
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________ आणम आजम आगम आगमन आ आजम मूल संशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आजम आगम आगम आजम आगम - 04 'समवाय' मूलं एवं वृत्ति: आगम आज- अभिनव-संकलनकर्ता आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम् [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आगम आजम आजम ~338~