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________________ आगम (०४) [भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [प्रकिर्णका:], ---------------- ----------- मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १४८ गणिपिटकविराधनाराधनाफलं. [१४८] श्रीसमवा- अणागए काले अर्णता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियटिस्संति, इवेइयं दुवालसंग गणिपिडर्ग अतीत- यांगे काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतसंसारकतारं वीईवइंसु एवं पडुप्पण्णेऽवि एवं अणागएवि, दुवालसंगे णं गणिपिश्रीअभय डगेण कयावि णत्थि ण कयाइ णासी ण कयाइ ण भविस्सइ भुर्वि च भवति य भविस्सति य धुवे णितिए सासए अक्खए अवए वृत्तिः अवहिए णिचे से जहा णामए पंच अस्थिकाया ण कयाइ ण आसि ण कयाइ णस्थि ण कयाइ ण भविस्सति भुर्वि च भवति य ॥१३२॥ भविस्सति य धुवा णितिया सासया अक्खया अन्वया अवढ़िया णिचा एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगेण कयाइ ण आसि ण कयाइ णस्थि ण कयाइ ण भविस्सइ भुवि च भवति य भविस्सइ य धुवे जाव अवविए णिच्चे, एत्थ ण दुवालसंगे गणिपिडगे अर्णता भावा अणंता अभावा अणंता हेऊ अणंता अहेऊ अणंता कारणा अणंता अकारणा अणता जीवा अणता अजीवा अर्णता भवसिद्धिया अणंता अभवसिद्धिया अणंता सिद्धा अणंता असिद्धा आपविजंति पण्णविअंति परूविअंति दंसिजति निदंसिर्जति उवदंसिजेति, एवं दुवालसंग गणिपिडगं इति (सूत्रं १४८) 'इच्चेय'मित्यादि, इत्येतद्वादशाकंगणिपिटकमतीतकाले अनन्ता जीवा आज्ञया विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारं 'अणुपरियडिंसुत्ति अनुपरिवृत्तवन्तः, इदं हि द्वादशाङ्गसूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं, ततश्च आज्ञया सूत्राज्ञया अभिनि| वेशतोऽन्यथापाठादिलक्षणया अतीतकाले अनन्ता जीवाश्चतुरन्तं संसारकान्तारं नारकतिर्यग्नरामरविविधवृक्ष४जालदुस्तरं भवाटवीगहनमित्यर्थः, अनुपरावृत्तवन्तो जमालिवत् अर्थाज्ञया पुनरभिनिवेशतोऽन्यथाप्ररूपणादिलक्षणया CASCRECEBCASRAE प्रत अनुक्रम [२३३] ला॥१३२॥ द्वादशांगीनाम् शाश्वतता ~275
SR No.035007
Book TitleSavruttik Aagam Sootraani 1 Part 07 Samvay Mool evam Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherVardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
Publication Year2017
Total Pages338
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size72 MB
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