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________________ आगम (०४) [भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:) समवाय [५८]. ------------------------------------ मुलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: श्रीसमवा- यांगे ६० सम प्रत वायाध्य. सुत्राक वृत्तिः [५८] ॥७४॥ प्रत चरिमंताओ केउगस्स महापायालस्स बहुमज्झदेसभागे एस णं अट्ठावन्नं जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते, एवं संखस्स आवासपचयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ जूयगस्स महापातालस्स, एवं दगसीमस्स आवासपावयस्स दाहिणिलाओ चरिमंताओ ईसरस्स महापायालस्स'त्ति ॥ ५८ ॥ चंदस्सणं संवग्छरस्स एगमेगे उऊ एगूणसहि राईदियाई राइंदियग्गेणं प०, संभवे णं अरहा एगूणसहि पुच्चसयसहस्साई आगारमज्झे पसित्ता मुंडे जाव पब्वइए, मलिस्स गं अरहओ एगूणसहि ओहिनाणिसया होत्था ॥ सूत्र ५९॥ अथैकोनषष्टिस्थानके लिख्यते, 'चंदस्स ण'मित्यादि, संवत्सरो बनेकविधः स्थानाङ्गादिषूक्तः, तत्र यश्चन्द्रगति मङ्गीकृत्य संवत्सरो विवक्ष्यते स चन्द्र एव, तत्र च द्वादश मासाः षट् च ऋतवो भवन्ति, तत्र चैकैक ऋतुरेकोनपष्टिरात्रिन्दिवानां रात्रिन्दिवाग्रेण भवति, कथं ?, एकोनत्रिंशद्रात्रिंदिवानि द्वात्रिंशच पष्टिभागा अहोरात्रस्वेत्येवंप्रमाणः कृष्णप्रतिपदमारभ्य पौर्णमासीपरिनिष्ठितः चन्द्रमासो भवति, द्वाभ्यां च ताभ्यामृतुर्भवति, तत एकोनषष्टिः अहोरात्राण्यसो भवति, यचेह द्विषष्टिभागद्वयमधिकं तन्न विवक्षितं, सम्भवस्यैकोनषष्टिः पूर्वलक्षाणि गृहस्थपर्याय इहोक्तः, आवश्यके तु चतुःपूर्वाङ्गाधिका सोक्तेति ॥ ५९॥ एगमेगे ण मंडले सूरिए सहिए सहिए मुहुत्तेहिं संघाइए, लवणस्स णं समुदस्स सहि नागसाहस्सीओ अम्गोदयं धारंति, विमले णं जरहा सहि धणूई उहूं उच्चत्तेणं होत्था, बलिस्स णं वइरोयर्णिदस्स सहि सामाणियसाहस्सीओ प०, बंभस्स णं देविंदस्स अनुक्रम [१३६] ॥ ७४॥ SUREairam ~159~
SR No.035007
Book TitleSavruttik Aagam Sootraani 1 Part 07 Samvay Mool evam Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherVardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
Publication Year2017
Total Pages338
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size72 MB
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