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आगम (०४)
[भाग-७] “समवाय" - अंगसूत्र-४ (मूलं+वृत्ति:)
समवाय [प्रकिर्णका:], ----------- ----------- मूलं [१४९]+गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.आगमसूत्र- [०४] अंगसूत्र- [०४] “समवाय" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४९]
गाथा:
य, से किं तं अरूची अजीवरासी?, अरूविअजीवरासी दसविदा पन्नत्ता, तंजहा-धम्मत्थिकाए जाव अद्धासमर, रूबीअजीवरासी अणेगविहा०प० जाव से किं तं अणुत्तरोक्वाइआ ?, अत्तणुरोक्वाइआ पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-विजयवेजयंतजयंतअपराजितसव्वद्वसिद्धिा, सेतं अणुतरोवबाइथा, सेत्तं पंचिंदियसंसारसमावण्णजीवरासी, दुविहा णेरड्या पन्नता, तंजहा-पजता य अपजता य, एवं दंडओ भाणियब्बो जाव वेमाणियचि, इमीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए केवइयं खेत्तं ओगाहेत्ता केवइया णिरयावासा पण्णत्ता , गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहलाए उवरि एगंजोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेवा चेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झे अहसत्तरि जोयणसयसहस्से एस्थ गं रयणप्पभाए पुढवीए औरइयाणं तीसं णिरयावाससवसहस्सा भवतीतिमक्खाया, ते णं णिरयावासा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णिरया असुभाओ णिरएसु वेयणाओ, एवं सत्तवि भाणियवाओ जं जासु जुजइ-'आसीयं बत्तीस अट्ठावीसं तहेव वीस च । अट्ठारस सोलसगं अहुत्तरमेव पाहल्लं ॥१॥ तीसा य पण्णवीसा पन्नरस दसेव सयसहस्साई । तिण्णेगं पंचूर्ण पंचव अणुतरा नरगा ॥२॥ चउसडी असुराणं चउरासीई च होइ नागाणं । यावत्तरि सुवन्नाण वाउकुमाराण छण्णउइ ॥३॥ दीवदिसाउदहीणं विजकुमारिदथणियमग्गीणं । छण्हंपि जुवलयाण पावत्तरिमो य सयसहसा ॥४॥ बत्तीसट्ठावीसा वारस अड चउरो य सयसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छच सहस्सा सहस्सारे ॥ ५॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणबुए तिन्नि । सत्त विमाणसवाई चउसुवि एएसु कप्पेसु ॥६॥ एकारसुत्तरं हेहिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं उवरिमए पंचेव अणुतरविमाणा ॥ ७॥ दोचाए णं पुढवीए तबाए णं पुढवीए चउत्थीए पुढवीए पंचमीए पुढवीए छट्टीए पुढवीए सत्तमीए पुढवीए गाहार्हि भाणियचा, सत्तमाए पुढवीए पुच्छा, गोयमा ! सत्तमाए
प्रत अनुक्रम [२३४-२३७]]
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