Book Title: Kshatrachudamani
Author(s): Niddhamal Maittal
Publisher: Niddhamal Maittal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः (सान्वायार्थः) नीतिका अपूर्व काव्य। मूल्य कच्ची जिल्द १) पक्की जिल्द २) पं० निडामल मैत्तल। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री परमात्मने नमः ॥ श्री महादीभसिंह सूरिविरचित क्षत्रचूडामणिः सान्वयार्थ कर्ता और प्रकाशकःसहारनपुर निवासी पंडित निहामल मैत्तल प्रधानाध्यापकः श्री अभिनन्दन दि० जैन पाठशाला क्षेत्रपाल ललितपुर । ‘जैनविजय' प्रिंटिंग प्रेन, खपाटिया चकला-सूरतमें मूलचन्द किसनदास कापडियाने मुद्रित किया। श्री वीर निर्वाण सं० २४४७ प्रथमावृत्तिः ] मूल्य १॥) नोट:-पुस्तक मिलनेका पता पं. निडामल क्षेत्रपाल ललितपुर । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्र निवेदन । पाठकगण__ मेरा बहुत दिनसे विचार था कि इस पुस्तकका अन्वयार्थ लिख कर छात्रोंके लिए अर्पण करूं किन्तु बहुतसी असुविद्याओंके कारण मैं कृतकार्य नहीं हो सका भाग्योदयसे इस वर्ष सफस्ति हो सका हूं । यद्यपि यह कार्य विद्वानोंकी दृष्टिंमें उपादेय नहीं हैं तथापि इससे जैन समानके संस्कृत पिपठिषु छात्रोंका उपकार अवश्य होगा। ____ मुझे ८ वर्षसे इसका अनुभव है कि छात्रोंको कितनी ही बार इसका अन्वयार्थ समझाया जाता है किन्तु वो फिर भी संक्षिप्त कथाके कारण भूल जाते हैं इससे ऐसे छात्रोंका बहुत ही उपकार होगा। प्रेसके दूर होनेके कारण पुस्तकमें अशुद्धियां बहुत रह गई हैं अतएव पाठकगण शुद्धिपत्रसे अशुद्धियां ठीक कर पढ़नेकी कृपा करें। भवदीयनिडामल मैत्तल। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जीकंधर स्वामीका राशि जीवन चरित्र। --08-- प्रथम लम्ब। इस जम्बूद्वीपमें भरतक्षेत्रकी रानटरी नामकी राजधानी एक सत्यंधर नामका राना रहता था उसकी विजया नामकी सर्व गुणसम्पन्न एक रानी थी इस रानी पर यह राजा इतना मोहित हो गया था कि राजाने अपना सम्पूर्ण राज्याधिकार काष्टाङ्गार नामके किसी राज्य कर्मचारीको दे दिया था उस समय मंत्रियोंने उसे बहुत समझाया पर विषयासक्त होनेके कारण राजाने किसी की एक न सुनी, फिर कुछ दिनोंके अनन्तर उस विनया रानीको गर्भ रहा उस समय रानीको रात्रिके पिछले भागमें तीन. स्वप्न दिखाई दिये उनका फल विचार कर रानाको यह निश्चय हो गया कि मैं अवश्य मारा जाऊंगा। इस लिए उसने गर्भवती रानीकी रक्षा करने के लिये आकाशमें उड़नेवाला एक मयूराकृति यन्त्र बनाया और तदनुसार वह प्रतिदिन रानीको यन्त्रमें बिठलाकर कलके द्वारा आकाशमें उड़ानेका अभ्यास कराने लगा। इधर उस सम्पूर्ण राज्यधिकारी काष्टाङ्गारको क्या दुष्टता सुझी कि इस राजाके जीवित रहते हुए मैं पराधीन सेवक कहलाता हूँ इस लिये राजाको मारकर मुझे स्वतंत्र हो जाना चाहिये फिर उसने Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र । एक दिन मंत्रियोंसे यह बहाना बनाया कि एक देव मुझसे राजाको मार डालनेके लिये आग्रह करता है । मंत्रियोंमेंसे एक धर्मदत्त नामके मन्त्रीने उसकी दुष्टता समझ कर बहुत समझाया किन्तु उस दुष्टने उसकी बात अनसुनी करके राजाके मारनेके लिये एक बड़ी भारी सेना भेजी। राजाने द्वारपालके द्वारा मारनेके लिये आई हुई सेनाको सुनकर रानीको यन्त्रमें बिठलाकर आकाशमें उड़ा दिया और स्वयं युद्ध करनेके लिये चल दिया युद्ध करते हुए राजाने विचारा कि वृथा मनुष्यहत्या हो रही है यह विचार कर राना युद्धसे विरक्त हो गया और संसारकी अनित्यताका विचार करने लगा अन्तमें सम्पूर्ण परिग्रहोंको छोड़कर अपने आत्मस्वरूपका चितवन करता हुआ युद्ध में मारा गया और मरकर देव हुआ। उस समय सारे पुरवासी लोग उदास और विरक्त होकर नाना प्रकारके विचार करने लगे और काष्टाङ्गार निष्कंटक होकर राज्य करने लगा। उसी नगरीमें एक गन्धोक्तट नामका सेठ रहता था एक दिन वह तात्कालिक उत्पन्न हुए और फिर मरे हुए पुत्रको लेकर स्मशानमें उसकी मृत्यु क्रिया करनेके लिये गया तत्पश्चात् किसी मुनिके कथनानुसार वहां पर जीवित पुत्रकी खोज करने लगा। दैव योगसे सत्यन्धरकी विनया रानीको उस यन्त्रने उसी स्मशान भूमिमें जा पटका और उसी विपत्ति अवस्थामें मूर्छित रानीके एक सुन्दर पुत्र हुआ उस पुत्रके पुण्य माहत्म्यसे वहां एक देवी धायका रूप धारण करके आई और उसने विजया रानीको Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । आश्वासन देकर पुत्रके पालन करनेकी चिन्ताको दृरकर कहाकि तुम्हारे इस पूत्रको राजपुत्रोंके सदृश कोई दूसरा पालन करेगा इस लिये तुम इसको यहां ही रखकर छिप चलो । रानी भी विवश होकर उसके कथनानुसार पिताकी मुद्रासे युक्त पुत्रको जीव यह भाशीर्वाद देकर छिप गई और उसी समय उडते फिरते हुए गन्धोत्कटने उस पुत्रको देखकर उठा लिया और जीव यह आशीर्वाद सुनकर जीवक व जीवंघर उसका नाम रक्खा । और घर आकर अपनी मुनन्दनामकी स्त्री पर ऋत्रिम कोपकर कहा मूर्खे ! तूने जीवित पुत्रको कैसे मरा हुआ कह दिया वह भी भानन्दसे उस जीवित पुत्रको गोदमें लेकर फूली न समाई और मारे खुसीके उसका चित्त उछलने लगा फिर क्या था उसने बालककी अच्छी तरह पालन पोषण किया। पुत्रकी खुशीमें गन्धोत्कटने एक बड़ा भारी उत्सव किया निसको मुह काष्टाङ्गारने अपने राजा होनेकी खुशीमें समझकर गन्धोत्कटको बुलाकर बहुत कुछ धन दिया फिर गन्धोत्कटने उस समयके उत्पन्न हुए छोटे २फलोको प्राप्तकर उनके साथ जीवंधर कुमारका पालन किया फिर कुछ दिनके पश्चात् उस कुमारके पुण्य प्रभावसे सुनंदाके एक और गन्धोत्कट नामका पुत्र हुआ जिससे जीवंधरकी शोभा और बढ़ गई। उधर धात्री वेष धारी देवी विजया रानीको दण्डकारुण्यमें तपस्वियोंके समीप छोड़कर स्वयं किसी बहानेसे चली गई। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र । द्वितीय लम्ब। फिर जीवंधरके बड़े हो जाने पर गन्धोत्कटने विद्या पढ़ाने के लिये उनको पाठशालामें विठलाया भाग्यवश सम्पूर्ण विद्याओंके पारगामी आर्यनन्दी नामके मुनि उ के गुरु हुए उनसे विद्या पढ़कर ये संपूर्ण विद्याओं में अतीव निपुण हो गया तब गुरुने शिष्यको सम्पूर्ण विद्याओंमें निपुण देखकर अपना सारा वृतांत्त कह सुनाया " अर्थात् मैं लोकपाल नामका विद्याधर राना था मैंने मेघके मिमित्तसे संसारकी अनित्यता जानकर मुनिवृत्ति धारण करली थी । पश्चात तपश्चरण करते हुए पापकर्मके उदयसे मुझे भस्मकारव्य नामक रोग उत्पन्न हो गया इस रोगसे पीड़ित मैं मुनिवृत्तिको त्यागकर पाखंडी वेष धारण कर क्षुधाकी निवृत्ति करनेके लिये इधर उधर घूमने लगा। दैवयोगसे एक दिन भोजन करनेके समय मैं तुम्हारे रहनेके घरमें गया वहां पर तुमने मुझे अतीव वुभुक्षित जानकर अपने रसोइयेको आज्ञा दी कि इनको पेटभर भोजन कराओ किन्तु मेरे रोगकी उत्कटतासे तुम्हारे गृहमें परिपक्व भोजन मेरी क्षुधाको शान्त नहीं कर सका इससे आश्चर्य युक्त होकर भोजन करनेके लिये उद्युक्त तुमने अपने खानेके मोदकको मेरे हाथमें रख दिया उस समय तुम्हारे पुण्यमय हाथोंके स्पर्शसे वह मोदक मेरी क्षुधाकी निवृत्तिका कारण हुआ तब मैंने सोचा कि मैं इस महान उपकारीका क्या उपकार करूं अन्तमें मैंने विद्या प्रदान करना ही निश्चय किया फिर मैंने तुमको विद्या पढाकर विद्वान बना दिया " वृतान्तके कथनान्तर तपश्चरणके Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । लिये चलते समय गुरूने यह भी कहा कि तुम सत्यंधर महारानके पुत्र हो और काष्टाङ्गारने तुम्हारे पिताको मार डाला है इस बातके सुननेसे कुमार क्रोधित होकर काष्टाङ्गारसे अपने पिताका बदला लेनेके लिये तैयार हो गया किन्तु मुनिने उसकी अल्पवयस्क अवस्था समझकर उससे एक वर्ष न लडनेकी प्रतिज्ञा कराली और वहांसे चलकर पुनः दीक्षा धारण कर मोक्षपद प्राप्त किया। उसी राजपुरी नगरीमें एक नन्दगोप नामका ग्वालियोंका स्वामी रहता था किसी दिनव्याधोंने बनमें आकर उसकी गायें रोकली निससे वह दुःखित होकर अपने साथियों को लेकर काष्टाङ्गार राजाके समीप आक्रंदन शब्दकर चिल्लाने लगा उसके आक्रंदन शब्दसे सदय काष्टाङ्गार राजाने व्याधोंको जीतनेके लिये अपनी सेना भेजी किन्तु भेजी हुई सेना हारकर वापिस चली आई तब नन्दगोपने अपने धनकी रक्षा करनेके लिये यह ढिंढोरा पिटवाया कि जो व्याधोंसे हमारी गायें छडा लावेगा मैं उसके लिये सप्त सुवर्ण पुत्रियों के साथ अपनी गोविन्दा नामकी पुत्री व्याह दूंगा यह सुनकर जीवंधर कुमार अपने मित्रों सहित बनमें गया और व्याधोंको जीतकर नन्दगोपकी गायें छुड़ालाया अपनी प्रतिज्ञानुसार नन्दगोपने अपनी कन्या प्रदान करनेके लिये जीवं. धरके लिये जलधारा छोड़ी किंतु जीवंधर कुमारने स्वयं व्याहनकर अपने प्रधान मित्र पद्मास्यके साथ उसका ब्याह करा दिया । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र । तृतीय लम्ब। पूर्वोक्त पुरीमें ही एक श्री दत्त नामका सेठ रहता था उसे पूर्व पुरुषोंका अधिक संचित धन रहनेपर भी अपने हाथसे धन कमानेकी इच्छा हुई वह नाना प्रकारकी वस्तुओंको बेचनेके लिये नौकाओंमें माल भरकर व्यापार करनेके लिये द्वीपान्तरोंमें गया वहांसे व्यापार द्वारा धन सम्पन्न होकर नौका द्वारा लौटा लौटते समय समुद्रमें इसकी नौका बड़े भरी जलके प्रवाहसे डूबने लगी उस समय नौकामें बैठे हुए अपने साथके मनुष्यों को उसने धैर्य रखनेका उपदेश दिया पश्चात् नौकाके डूबनेके समय दैवयोगसे उसे समुद्रमें बहता हुआ एक बड़ा भारी लकड़ी का टुकड़ा दिखाई दिया यह उसको अवलम्बन करके कथमपि किनारेपर पहुंचा वहां उसने एक अपरचित आगन्तुक पुरुषसे अपना सारा वृतान्त कहा उस पुरुषने भी आश्चर्य युक्त पुरुषकी तरह इसका वृतांत सुन और फिर वृतांत सुनकर इसे किसी बहानेसे विनया पर्वतपर ले गया और वहां जाकर इस विद्याधरने अपना सारा वृतांत इससे कह सुनाया अर्थात् मैंने ही तुमको नौकाके नाशकी भ्रान्ति कराकर लकड़ीके टुकड़ेके सहारे किनारे पहुंचाया है और वहांसे फिर यहां लाया हूं ऐसे करने का मतलब यह है कि मेरे स्वामी गान्धार देशमें नित्यालोका नामकी पुरीके राजाके साथ तुम्हारी कुल परंपरासे मित्रता चली आई है और उन्होंने तुमको लानेके लिये मुझे यहां भेना है इस लिये मुझे और कोई उपाय न सूझकर इस उपायसे आपको यहां लाया हूं कृपया मेरे साथ महारानसे मिलनेके लिये चलिये ।" Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । श्री दत्त उसके इस वृत्तान्तको सुनकर अपने धनके नष्ट न होनेसे प्रसन्नता पूर्वक उसके साथ चल दिया और वहां राजाके दर्शन कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ राजाने भी अभिन्न हृदय मित्रके सदृश इनका अतिथि सत्कार किया । पश्चात् अपनी गन्धर्वदत्ता नामकी पुत्री इसे सोंप दी और यह कह दिया कि इसकी जन्म लग्नके समय ज्योतिषियोंने यह कहा था कि “राजपुरीमें जो कोई इसे वीणा बनानेमें जीतेगा वह इसका पति होगा" इस लिये इस कार्यके करनेके योग्य आप ही हैं। श्री दत्त भी गन्धर्वदत्ताको लेकर अपने घर आया और अपनी स्त्रीसे उसका सारा वृत्तान्त कह कर काष्टाङ्गार राजाकी अनुमति पूर्वक एक भारी मंडप बनाकर इस बातकी घोषणा कराई कि "जो मेरी पुत्रीको वीणा बनाने में जीत लेगा उसके साथमें अपनी गन्धर्वदत्ता नामकी पुत्री ब्याह दूंगा” इस घोषणाको सुनकर सब राजा लोग वीणा मण्डपमें अपनी २ वीणायें लेकर आये किन्तु कन्याकी परिवादिनी नामकी वीणाके बनानेमें सब राजागण परानित हुए इतने में इनमें से जीवंधर कुमारने अपनी घोषवती नामकी बीणा बनाने में कुमारीको जीत लिया। कन्याने इस पराजयको विजयसे भी बढ़कर समझकर जीवंधर स्वामीके गलेमें वरमाला डाल दी। इस सब घटनाको देखकर दुष्ट काष्टाङ्गारने आगन्तुक राजाओंको जीवंधरके साथ लड़नेके लिये भड़का दिया और इसके कथनानुसार अन्तमें वे सब लड़कर पराजयको प्राप्त हुए । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र । चौथा लम्ब। इसके अनंतर वसंत ऋतुमें नागरिक मनुष्यों की जलक्रीड़ाको देखनेके लिये जीवंधर कुमार अपने मित्रोंके साथ वनमें गये जाते समय रास्तेमें हव्य सामग्रीको दूषित करने के कारण याज्ञिक ब्राह्मणोंसे मारे हुए कुत्तेको देख कर अत्यन्त दया युक्त होकर उसके जिलानेकी चेष्टा करने लगे मिलानेकी चेष्टाएं सफ लत न देख कर परलोकमें आत्माको सद्गति देनेवाले पंच नमस्कार मन्त्रका उसके कानोंमें उपदेश दिया। उस मंत्रके प्रभावसे यह पापिष्ट श्वान मर कर यक्ष जातिके देवोंका स्वामी यक्षेन्द्र हुआ पश्चात यक्षेन्द्रने अवधिज्ञानसे अपनी आत्माका वृतांत जानकर अपना उपकार करने वाले कुमारके समीप आकर उनकी पूजा की पश्चात् "किसी कार्यके करनेके लिये मुझे स्मरण कीनिये" यह कहकर तिरोहित हो गया। - तत्पश्चात् कुमारने अपने इष्ट स्थानकी ओर प्रस्थान किया उस जलक्रीड़ामें सुरमञ्जरी और गुणमाला नामकी दो कन्यायें भी आई थीं उन दोनों कन्याओंने अपने २ चूर्णकी उत्तमतामें वाद विवाद किया । गुणमाला यह कहती थी कि मेरा चूर्ण तेरेसे अच्छा है और सुरमञ्जरी भी ऐसा ही कथन करती थी अंतमें दोनोंने यह प्रतिज्ञा की कि जिसका चूर्ण परीक्षामें उत्तम निक लेगा वह जल स्नान करेगी और दूसरी विना स्नान करे वापिस घर चली जयगी फिर उन दोनों कन्याओंने चूर्ण देकर अपनी २ दासिय विद्वानोंके समीप भेनी वह दासीयें अन्य विद्वानोंसे परीक्षा करा कर अंतमें जीवंधरके समीप पहुंची और अपने २ चूर्णकी परीक्षा कराने के लिये प्रार्थना की जीवंधर स्वामीने दोनों Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । क्या तुम भी चूर्णकी परीक्षा करके गुणमालाका चूर्ण उत्तम तत्र सुरमञ्जरीकी दासी क्रोधित होकर कहने औरोंने बतलाया वैसा ही तुमने कहा एक ही शाला में पढ़े हो तब जीवंधर पृथक २ करके फैलाया गुणमालाके आकर उस पर मंडराने लगे यह देख कर वहां चली गई और अपनी स्वामिनीसे सब वृत्तान्त जासुनाया तत्र सुरमञ्जरी अपनी प्रतिज्ञानुसार विना स्नान किये कि मैं जिवघर स्वामीको छोड़कर दूसरेके साथ विवाह नहीं करूंगी ऐसा मनसे संकल्प करके वहांसे चली गई गुणमालाको अपनी सखीके विना स्नान किये चले जानेपर अत्यन्त दुःख हुआ अंत में वह भी स्नान करके घर के लिये चल दी चलते समय रास्ते में काष्टाङ्गारके अपने स्थानसे छूटे हुए मदोन्मत्त हस्तीने मनुष्योंमें खलवली मचाते हुए गुणमालाको अघेरा देख गुणमालाके कुटुम्ब गण सब भाग गये उनमें से बची हुई एक गुणमालाकी धाय जोरसे चिल्लाने लगी जिसके शब्दको सुनकर जीवंधर और उसके हाथीको कुण्डलसे ताडितकर भगा जीवंधर और गुणमाला में परस्परके अवलोकनसे प्रेम उत्पन्न हुआ अंत में गुणमाला जीवंधर के प्रेमको हृदय में छिपाये हुए घर चली गई घर जाकर क्रीडाके तोतेको पत्र देकर जीवंधर के समीप भेजा गुणमाला के माता पिताको इन दोंनो के प्रेम भबकी वार्ता विदित हो जाने पर उन्होने जीवंधर के साथ गुणम ला का विवाह कर दिया | कुमार वहां आये दिया उस समय एक दूसरे के प्रति ११ कुमारने चूर्णकी बतलाया । लगी जैसा उनके साथ दोनोंके चूर्णोको सुगंधता से भरे सुरमञ्जरीकी दासी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्री नीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र । पांचवां लम्ब। जीवंधरके कुंडलकी चोटसे दुःखित होकर हाथीने खाना पीना छोड़ दिया इस समाचारको सुन कर पूर्व कारणोंसे क्रोधित काष्टाङ्गारने जीवंधर स्वामीको पकड़नेके लिये अपने मथन नामके सालेको बहुत सेनाके साथ भेना । जीवंधर भी गुरुके समक्ष की हुई प्रतिज्ञाके अनुमार और गंधीत्कटके समझानेसे नहीं लड़ा फिर क्या था काष्टाङ्गारकी सेनाके मनुष्य उसके हाथ बांध कर रानाके सामने ले गये उस दुष्टने कुमारको जानसे मारडालनेके लिये आज्ञा दे दी मारनेके समय यक्षेन्द्र अपनी विक्रियांसे जीवंधर स्वामीको वहांसे उठा ले गया और अपने स्थान पर ले जा कर जीवंधर स्वामीका क्षीरसागरके जलसे अभिषेक कर उनको "अपनी इच्छानुसार रूप बनानेमें, गानेमें और सर्पका विष दूर करनेमें शक्तिमान तीन मन्त्रोंका उपदेश दिया " पश्चात् यक्षकी अनुमतिसे वहांसे चलकर कुमारने वनमें वन अग्निसे जलते हुए हाथियोंको देखकर सदय हृदय हो भगवानका स्तवन किया जिसके प्रभावसे उसी समय मेघगर्जना करते हुए वरसे यह देखकर जीवंधर स्वामीको अत्यन्त प्रसन्नता हुई पश्चात् वहांसे चलकर अनेक तीर्थ स्थानोंको पूजते हुए चन्द्राभा नगरीमें पहुंचे वहांके राजा धनपतिकी पुत्री पद्माको सांपने काट खाया था जिसको मन्त्रके प्रभावसे जीवदान देकर राजासे सम्मानित हुए अन्त में राजाने पद्माका जीवंधर स्वामीके -साथ विवाह कर दिया। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । छटवां लम्ब। फिर कुछ दिन वहीं रहकर जीवंधर स्वामी वहांसे विना कहे ही चल दिये और मार्गमें अनेक तीर्थस्थानों को वन्दना करते हुए एक तपस्वियोंके आश्रममें पहुंचे वहांपर तपस्वियोंको पंचाग्नि आदिके मध्य में तप करते हुए देखकर उन्हें अनेक प्रकारसे धर्मका उपदेश देकर, सच्चे धर्मका स्वरूप समझा कर भगवत प्रणीत सम्यक् तपमें प्रवृत कराया फिर वहांसे चलकर जीवंधर कुमार दक्षिण देशके सहस्र कूट चैत्यालयमें पहुंचे वहांपर जिन मंदिरके किवाड़ बन्द देखकर बाहरसे ही भगवतका स्तवन प्रारम्भ किया जिसके प्रभावसे जिनमन्दिरके किवाड़ खुल गये यह देख. कर पूर्वसे रहनेवाला वहांका एक मनुष्य जीवंधर स्वामीसे आकर विनयपूर्वक मिला उससे जीवंधर स्वामीने पूछा तुम कौन हो और किस लिये यहां रहते हो उसने कहां मैं क्षेमपुरीमें रहनेवाले सुभद्र नामके सेठका किंकर हूं उसकी क्षेमश्री नामकी कन्याके जन्मलग्नमें ज्योतिषियोंने यह गणना की है कि जिसके आनेपर सहस्र कूट मन्दिरके किवाड़ खुलेंगे वह इसका पति होगा उस मनुष्यकी परीक्षा करनेके लिये भेना हुआ यहां रहता हूं भाग्यवश ! आज आपके शुभागमनसे निन मंदिरके किवाड़ खुल गए हैं इसलिये आप यहां पर कुछ देर ठहरिये ताकि मैं अपने स्वामीको आपके शुभागमनकी सूचना दे आऊं फिर उस मनुष्यने शीघही अपने त्वामीके पास जाकः प्रसन्नता पूर्वक जीवंधर स्वामीका सारा वृतान्त कह सुनाया सुभद्र भी यह बात सुनकर शीघ्र Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र । वहां आया और जीवंधर स्वामीको पूजन करते हुए देखकर शीघ्र ही उनके शरीर और ऐश्वर्य आदिककी परीक्षा करली तानन्तर जीवंधर स्वामीको आने घर ले जाकर शुभ मुहूर्तमें क्षेमश्री नामकी अपनी कन्याका उनके साथ विवाह कर दिया। सातवां लम्ब। फिर क्षेत्रपुरीमें भी कुछ दिन रह कर जीवंधर स्वामी वहांसे चल दिये चलते समय विवाहके जो वस्त्राभूषण पहने हुए थे उन्हें किसी अच्छे पात्रको देनेके लिये उन्होंने विचार किया जब कोई अच्छा पात्र न मिला तो भाग्यवश मार्ग में जाते हुए एक किसानसे बातचीत कर उसे भद्र जान धर्मका उपदेश दे श्रावक बनाकर अपने सब बहु मूल्य वस्त्राभूषण उतारकर उसे दे दिये । . आगे चलकर एक बनमें जब कि वे विश्राम करनेके लिये बैठे हुए थे कि इतने में किसी विद्याधरकी स्त्री वहां आकर उन्हें दूरसे देखकर उनपर आसक्त हो गई और उनके समीप आकर यह बात बनाई कि मैं एक विद्याघरकी अनाथ क या ई मुझे मेरे छोटे भाईके सालेने जबरदस्ती लाकर अपनी स्त्रीके भयसे यहां लाकर छोड़ दिया है इसलिये आप मेरी रक्षा करें जीवंधर कुमार उसके ये बचन सुनकर एकांतमें परस्त्रीके मिलनेसे अत्यन्त मय. भीत हुए वे वहांसे जानेके लिये उद्युक्त ही थे इतनेमें ही दूरसे उन्होंने यह शब्द सुना कि हे प्राण प्यारी ! मुझे छोडकर कहां चली गई मेरे प्राण निकले जाते हैं इस शब्दके सुनतेही वह स्त्री Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । बहाना बनाकर वहांसे शीघ्र ही चली गई उसका पति वहां आकर जीवंधर स्वामीसे कहने लगा कि हे महाभाग ! मैं अपनी प्यासी स्त्रीको इस बनमें बिठलाकर जल लानेके लिए गया हुआ आकर नहीं देखता हूं और विद्याधरोंके उचित मेरी विद्याभी न मालूम इस समय कहां चली गई जीवंधर कुमार उसके यह बचन सुनकर स्त्रीमें अत्यन्त प्रेम करनेसे डरे और उस भवदत्त विद्याधरको बहुत समझाया किन्तु उस कामातुरके चित्तमें जीवधर स्वामीके उपदेशने कुछ भी अप्तर नहीं किया फिर वहांसे चलकर जीवंवर कुमार हेमामा नाम नगरीके समीप पहुंचे वहां दृढ़मित्र राजाके सुमित्रादि बहुतसे पुत्र अपने २ बाणों द्वारा बगीचे में आम्रके फलोंको तोड़ रहे थे किंतु उनमें से कोई भी धनुर्विद्यामें चतुर नहीं था कि आम्र सहित बाणको वापिस अपने हाथमें ले आये किंतु जीवंधर स्वामीने अम्र सहित बाणको अपने हाथमें लेकर उन्हें दिखा दिया यह देख कर बड़े राजकुमारने उनसे कहा कि यदि आप उचित समझें तो हमारे पितासे मिलनेकी कृपा करें वे बहुत दिनोंसे धनुर्विद्यामें चतुर विद्वानकी खोनमें हैं जीवंधर कुमार उनके कहनेको स्वीकार कर रानासे मिले और रानाकी प्रार्थना करने पर इन सबको धनु. विद्यामें प्रवीण कर दिया फिर रानाने इस उपकारसे उपलत हो अपनी कनकमाला नामकी कन्याका उनके साथ विवाह कर दिया। और फिर जीवंधर स्वामी अपने सालोंके प्रेमसे वहां ही रहने लगे। यदि आ. रुपा जानकी खोज कर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवनचरित्र । आठवा लम्ब। - फिर एक दिन मुस्कराती हुई कोई स्त्री उनके पास पहुंची उन्होंने उसे किसी मतलबसे आई हुई समझ कर आदर पूर्वक पूछा “ कि तुम यहां क्यों आई " उसने कहा कि हे स्वामिन् ! आयुधशालामें और यहां पर मैं आपको अभे रूपसे देखती हूं " अर्थात् जिस समय आप यहां हैं उसी समय मुझे आपके समान कोई दूसरा पुरुष वहां दिखाई दिया ” फिर जीवंधर स्वामीने यह बात सुन कर आश्चर्य युक्त हो मनमें विचार किया कि क्या यहां मेरा भाई नंदाढ्य आगया है शीघ्र ही वहां जाकर देखा तो उस स्त्रीका कहना सच निकला वहांपर नंदाढ्य ही था फिर क्या था दोनों भाइयोंके समागम होने पर जीवंघर स्वामीने नंदादयसे पूछा कि तुम यहां कैसे आये तब उसने अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाया अर्थात् “दुष्ट काष्टाङ्गारसे आपका अनिष्ट (मरण) निश्चयकर प्रजावती गन्धर्वदत्ताके रहनेके घर में पहुंचा उसको पतिवियोगसे कुछ भी दुःखित न देशकर मैंने कहा हे स्वामिनि ! पतिके अभावमें कुलीन स्त्रियोंको तुम्हारी जैसी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती हैं यह सुन उसने कहा " हेवत्स तुम क्यों खेदित होते हो तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता आनन्द पूर्वक सुख भोग रहे हैं यदि तुम्हारी इच्छा उनके दर्शन करनेकी है तो मैं तुमको अपनी विद्याके प्रभावसे उनके पास पहुंचा देती हुँ मैं पापिनी उनकी आज्ञाके विना एक पग भी घरसे बाहर नहीं जा सकती हूं" यह कह कर मुझे मन्त्रपूर्वक शय्यापर सुला कर आपके समीप यह पत्र देकर भेना है'। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १७ यह सुनकर स्वामी गुणमालाकी व्यथाका सूचक पत्रको पढ़कर खेचरी गन्धर्वदत्ता के लिये ही खेदित हुए । फिर ससुरालके सब मनुष्य उनके छोटे भाई नन्दाढ्यको घेर कर उससे प्रेमालाप करने लगे । तत्पश्चात् एक दिन बहुतसे ग्वालिये राजाके अङ्गणमें आकर इस प्रकार चिल्लाने लगे कि बनमें हमारी गाऐं बहुत से मनुष्योंने रोक ली है उनके आक्रंदन शब्दको सुनकर श्वसुरसे रोके हुए भी जीवंधर कुमार उनकी गौऐं छुड़ानेके लिये बनमें गये वहां जाकर क्या देखते हैं कि गौओंके पकड़नेवाले नन्दाद्व्यके चले आनेपर गन्धर्वदत्त के द्वारा भेजे हुए सब मेरे मित्र ही है उन सबने मालिककी तरह उनका सन्मान किया और जीवंधर स्वामीका मित्रवद् उन लोगोंके व्यवहार न करनेसे और अधिक सन्मान करने से उन पर संदेह हुवा और उनसे एकान्त में उसका कारण पूछा मित्रों में से प्रधान मित्र पद्मास्यने कहा " स्वामिन्! आपके वियोगसे दुखत हम लोग आपके समीप आते हुए कुछ समय के लिये दण्डकारण्य में ठहरे वहां पर तपस्वियोंके आश्रमको देखनेके लिये इधर उधर घूमते फिरते हुए हम लोगोंने एक स्थान पर किसी एक पुण्य माता को देखा उस माताने हम लोगोंसे पूछा कि तुम कहांके रहने वाले हो और कहां जा रहे हो फिर हमने आपकी घटनाका सब वृत्तान्त माता से कहा जिससे उन्हें दारुण दुःख हुआ फिर वार २ आश्वासन दिलाकर उनकी आज्ञा लेकर आपका वृत्तान्त जानकर आपकी सेवामें आये हैं." फिर जीवंधरस्वामी जीवित जननीको Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र । मरी हुई समझनेसे अतीव दुखी हुए और माताके चरण कपलोंके दर्शनोंके लिये अत्यन्त उत्कंठित हुए फिर क्या था श्वसुगदिककी आज्ञा ले और अपने सालोंको समझाकर वहांसे माताके दर्शनोंके लिये चल दिये दण्डक अरण्यमें आकर उन्होंने माताके दर्शन किये। माताने जन्मसे विछुड़े हुए पुत्रको पाकर पहलेके सारे दुःख भुला दिये। फिर जीवंधरस्वामीने अपनी माताको अपने मामाके समीप भेनकर स्वयं राजपुरीके लिये प्रस्थान किया । चारुवृत्तिसे वहांका वृत्तान्त जाननेके लिये जब कि वे इधर उधर घूम रहे थे एक स्थान परगेंदसेक्रीडा करती हुई एक जबान कन्याको देखकर उसे विवाह करने की इच्छासे उसके दरवाजेके अगाडीके छज्जेपर जा बैठे। इतनेमें उस कन्याके पिताने आकर उनसे कहा कि ज्योतिषियोंने मेरी कन्याके जन्म लग्नमें यह गणनाकी थी कि तुम्हारे घर पर जिसके आनेसे बहुत दिनोंके रखे हुए रत्न बिक जायेंगे वही इस कन्याका पति होगा आज आपके आनेपर मेरे सब रत्न बिक गये हैं इस लिये आप कृपा कर मेरी विमला नामकी कन्याके साथ विवाह करें। जीवंधरस्वामीने उसके आग्रहसे कन्याके साथ विवाह करनेकी स्वीकारता दे दी और विमलाके साथ विवाह कर विवाह के चिन्हों सहित अपने मित्रोंसे जा मिले । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । नवमां लम्ब। फिर जीवंवरकुमारको विवाहके चिन्होंसे युक्त देखकर बुद्धिघेण नामके विदूषकने कहा कि औरोंसे उपेक्षा की हुई कन्याके साथ विहाह करने में मित्र आपका क्या बड़पन है इसको तो हर कोई विवाह सकता था हम आपको चतुर जब हीं समझेंगे । जब सुरमञ्जरीके साथ विवार करलो यह सुन जीवंधर कुमार मित्रों के पाससे चल दिये और यक्षके मंत्रके प्रभाक्से बूढ़े ब्राह्मणका वेष बना कर किसी प्रकार सुरमञ्जरीके यहां पहुंचे सुरमञ्जरीने अत्यन्त वृद्ध ब्राह्मणको भूखा समझ कर मोनन कराया और आराम करनेके लिये एक सुकोमल शय्यो दी फिर क्या था उस बूढ़ेने मंत्रके प्रमावसे जगन्मोहन गाना प्रारम्भ किया निसको सुन सुरमञ्जरी इसको अत्यन्त शक्तिशाली समझी और अपना कार्य अर्थात् इच्छित वरकी प्राप्तिका उपाय इससे पूछा तब उसने कहा कामदेवके मंदिरमें चल कर उसकी उपासना करो अवश्य तुम्हारा इच्छित वर तुमको वहां ही प्राप्त होगा फिर सुरमञ्जरी इसकी बात पर विश्वास कर उसके साथ कामदेवके मंदिरमें गई और जीवंधर कुमारको पतिभावसे पानेके लिये प्रार्थना की वहां पर पूर्व से बैठे हुए बुद्धिसेनने कहा " तुम्हारा पति तुमको मिल गया " पीछे फिर कर क्या देखती है कि जीवंबर कुमार खड़े हुए हंस रहे हैं । कुमारी " यह कामदेवके ही बचन हैं " ऐसा समझी और कुमारको देख कर अत्य त लज्जित हुई अंतमें जीवंधरके साथ उपका विवाह हो गया। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र | दशवा लम्ब । इसके पश्चात् जीवंधर स्वामी अपने माता पिता ( सुनन्दा और गन्धोत्कट से मिले तदनन्तर गन्धर्वदत्ता और गुणमालाको अपने समागमसे प्रसन्न कर पूज्य गन्धोत्कटसे सलाह कर और उनकी अनुमति ले विदेह देशकी धरणी तिलक नामकी नगरीके राजा अपने मामा गोविंद राजके समीप पहुंचे जीवंधर कुमार के वहां पहुचने पर गोविंदराजने काष्टाङ्गारका भेजा हुआ संदेशा मंत्रि योंके समक्ष सुनाया उस संदेशे में काष्टाङ्गारने यह लिखा था कि महाराज सत्यंधर की मृत्यु एक मदोन्मत्त हस्ती के द्वारा हुई थी किंतु पापकर्मके उदयसे मैं ही उस अयशका भागी हुआ और यह बात समझदार राजा गण मिथ्या समझते ही हैं यदि आप भी इस बातको मिथ्या समझकर यहां आकर मुझसे मिलनेकी कृपा करेंगे तो मैं अवश्य सर्वथा निःशल्य हो जाऊंगा । २० फिर गोविन्दराजने कहा कि शत्रु हमको अपने पास बुलाकर हमें भी अपने जाल में फंसाना चाहता है । अस्तु हमको भी इसी बहाने से चलकर उसे इस चालका मजा चखाना चाहिये यह निश्चय कर अपने राज्य में इस बातका ढिंढोरा पिटवा दिया कि हमारी काष्टाङ्गार के साथ मित्रता हो गई है । पश्चात बहुत सी सेना के साथ जीवंधर कुमार व गोविन्दराजने शुभ दिन में भगवत पूजनादि मांगलिीक पूजा विधानकर राजपुरी के लिये प्रस्थान किया फिर कुछ दिनोंके पश्चात् राजपुरी के समीप पहुंचकर अपनी सेना ठहरा दी । - तब कष्टाङ्गारने गोविन्दराजको अपने पास आए हुए समझकर बहुतसी उत्तम २ वस्तुओं की भेट भेजी गोविन्दराजने भी उसके उत्तर में ऐसा ही किया । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । फिर गोविन्दराजने एक चन्द्रक यन्त्र बनाकर इस बातकी घोषणा कराई कि जो इस चन्द्रक यन्त्रको भेदन करेगा उसे मैं अपनी लक्ष्मणा नामकी कन्या व्याह दूंगा इस घोषणाको सुनकर सब धनुषधारी राजा लोग जिस मंडपमें वह यन्त्र रक्खा था वहां पर आये और फिर सब यन्त्र में स्थित वराहोंको भेदन करनेकी कोशिश करने लगे किंतु कोई भी उनका छेदन करनेमें समर्थ नहीं हुआ अन्तमें जीवंधर स्वामीने अपने आलात चक्रके द्वारा क्रीडा मात्रसे उनको छेद दिया ऐसे उत्तम अवसर पर गोविन्द. राजने रानाओंके समक्ष जीवंधर स्वामीका परिचय देते हुए यह कहा कि यह सत्यंधर महारानके पुत्र मेरे भानजे जीवंधरकुमार है । यह सुनकर बहुतसे राजाओंने यह कहा कि हम लोग भी उनके आकारसे ऐसा ही अनुमान कर रहे थे यह सुनकर काष्टाङ्गारके हृदयमें अत्यन्त दारुण दुःख हुआ और मनमें विचार करने लगा कि मैंने व्यर्थ ही अपने नाशके लिये इसके मामाको यहां क्यों बुलाया और प्रथम मेरे सालेने इसको मार दियाथा फिर ये कहांसे आ गया और ये अपने मामाके बलको पाकर मेरे किस २ अनिष्टको नहीं करेगा इस प्रकार चिन्तामें व्याप्त काष्टाङ्गारको स्वामीके मित्रोंने लड़नेके लिये उत्तेजना की और फिर लड़ाई में वह जीवंधर स्वामीके हाथसे मारा गया । पश्चात् गोविन्दराजने अपनी पुत्रीके साथ जीवंधर स्वामीका व्याह कर दिया और फिर राजपुरीमें जाकर यक्षेन्द्र और अन्य राजाओंके साथ जीवंधर स्वामीका राज्याभिषेक किया। राजा होनेके पश्चात् जीवंधर स्वामीने वारह वर्ष पर्यन्त Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्री जीवंधर स्वामीका संक्षिप्त जीवन चरित्र । * अपने राज्यमें टेक्स माफकर दिया और नंदाढ्यको युवराज पद पर स्थितकर अन्य पद्मास्यादि मित्रोंको . यथोचित पद प्रदान किये अन्तमें अपनी सब स्त्रियोंको बुलाकर गन्धर्वदत्ताको पटरानी पद प्रदान कर सुख पूर्वक राज्य करने लगे। ग्यारवां लम्ब। फिर कुछ दिनोंके पश्चात् विनया महारानी अपने पुत्र जीवंधर स्वामीको उसके पिताके राज्यपर स्थित देख और पुण्य पापका फल अपनेमें प्रत्यक्षकर संसारसे विरक्त हो गई और पुत्रकी अनुमति ले सुनन्दाके साथ वनमें जाकर पद्मा नामकी आर्यिकासे दीक्षा ग्रहणकर तपश्चरण करने लगी। ____फिर एक समय वसंत ऋतुमें जीवंधर स्वामी अपनी आठ स्त्रियों सहित बन क्रीड़ा करनेके लिये बनमें गये । वहां एक बानर दूसरी बानरीसे समंध रखनेके कारण कुपित अपनी वानरीका अनुनय करनेमें असमर्थ हो स्वयं मृत तुल्य स्थित हो गया तब यह देख उसकी बानरीको अत्यन्त दुःख हुआ और वह अपने पतिके समीप आकर उसके शरीरको बार २ अपने असे स्पर्श करने लगी तब कपटीबानर हर्षित हो उठ खड़ा हुआ और एक पनसका फल तोड़कर अपनी बानरीको दिया फिर वनपालने वानरीको डरा कर उससे वह फल छीन लिया यह देखकर तत्काल ही नीवंधर स्वामीके हृदयमें वैराग्य उत्पन्न हो गया और विचार करने लगे कि यह वनपाल मेरे समान है और वानर काष्टाङ्गारके सदृश है राज्य Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २३ पनस फलके समान है इस प्रकार संसारमें किसीकी संपत्ति स्थिर नहीं है इत्यादि बारह भावनाओंका बार २ चिन्तवन कर जिनेन्द्र मंदिरमें जाकर निनदेवकी पूजा की पूजा करते समय वहांपर आये हुए चारुण मुनिसे धर्मका उपदेश सुन इन्होंने अपनी पूर्वभव संबंधी भवाबली पूछी। पूछने पर महामुनिने कहा कि " तुम पूर्व जन्ममें धातुकी खंड द्वीपके भूमि तिलक नाम नगरके पवनवेग नाम राजाके.यशोधर नामके पुत्र थे बालक अवस्थामें तुम किसी हंसके बच्चेको उसके स्थानसे क्रीड़ा करनेके लिये उठा लाये थे तब तुम्हारे पिताने तुमको उपदेश देकर धर्मका स्वरूप समझाया तब तुमको अपने कृत्य पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ फिर अन्तमें तुमने अपनी माठ स्त्रियों सहित मुनि पद धारण कर लिया पश्चात् स्वर्गमें उत्पन्न हो वहांसे चयकर यहां पर तुम सत्यंधर महारानके पुत्र हुए । इस लिये पूर्व जन्ममें तुमने हंसके बच्चेको उसके मावाप तथा उसके स्थानसे अलग किया था और अपने घर लाकर उसे पिजरेमें बंद किया था इस लिये उसके अलग करनेसे तुम्हें अपने माता पितासे वियोग और उसके बंधनसे बंधनका दुःख हुआ। फिर जीवंधर स्वामी मुनिके यह बचन सुन कर राज्यसे विरक्त हो घर आकर गन्धर्वदत्ताके पुत्र सत्यंधरको राज्य दे अपनी आठ स्त्रियों और छोटेभाई नन्दाढ्य सहित वर्धमान स्वामीके समीप जाकर मुनिपद धारण कर लिया और अन्तमें फिर घोर तपश्चरणके द्वारा अष्ट कर्मोंका नाश कर मोक्षपद प्राप्त किया। इतिशम् ? शुभं भूयात् ! ! Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति शुद्धि ७ c conn n n n n n m शुद्धिपत्र । अशुद्धि अन्तङ्ग अन्तरङ्ग प्रप्त प्राप्त जीवकोद्भव जीवकोद्भवम् ( एतद् ) इस इम इस खंडन खंडमें हेमाङ्ग हेमाङ्गद नित्योद्यागी नित्योद्योगी तस्य तस्यां पराधन पराराधन देन्यात् दैन्यात् ( इदं) ( इदं विज्ञाप्यं) २ १४ - १ १७ ४ १७ ५ २२ ९ ९ sm come cons... P शुश्रूषी सपदि संपदि हृदी हृदि शुश्रूषा आसित् आसीत् आपत्तिका उपाय आपत्तिके नाशका उपाय अकाल बुद्धि नित्य बुद्धि पराधनातू . पराधीनात् अकल Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) पृष्ठ पंक्ति १४ १४ अशुद्धि कानेन कानने मुक्तसे मुझसे कया किया भवसे १५ १०. एतद् वक्तुमघि एतद्वक्तुमपि १५ १३ भयसे १५ २० कुलन कुलीन आत्मन्निं आत्मघ्नीं धर्महत्तारव्यः धर्मदत्तारव्यः प्रणिनां प्राणिनां २० १२ नाद्भतम् नाद्भुतम् २० १३ जलबुब्दद जलबुद्दुद २२ ९ असाह्याङ्गलिः असाहाय्याङ्गलिः २३ ६ विषयासक्तिः दोष विषयासंग दोषः २३ १९ त्याज्यः त्याज्याः २४ ७ (तद् (तत्त्यागः) उसके उससे २५ २२ करते हैं । मानते हैं करमी २७ १३ कुर्वन्ति करोति २७ १७ . कृत्यः क्वत्यः मोहन्ति मुह्यन्ति ७ भी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति २८ ५ २८ १२ २९ ६ २९ २० ३० २२ सूतम् ३२ २० ३३ ८ ३३ ८ ३३ १२ ३३ १६ ३५ ८ 22:::: शुद्धि अशुद्धि देहिनां देहिनः अघुना अधुना वाली वाले पातयमास पातयामास (पंडिता विभ्यतु) सन्निधात् सन्यधात् सद्दर्शन तदर्शनेन सुतम् अशास्य श्राशास्य मुस्क्यिा मुखिया हंति होती मे० मे. कृत्वा (सहन्धुःमित्रःअयं) (सद्वन्धुमित्रः अयं) हो होते हुए कमपि कापि ऐश्वर्यमें ऐश्वर्य जैनी की जिन संमंधी दग्धं दग्धं अबु भुजत् अबूभुजत पुण्स्य पुण्यस्य से. (विद्यमानापि) ३७ २२ ३८ ४ ४१ २१ ४२. १६ ४३ १० ::: ४६ ११ १७ ९ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ ४७ ४८ १८ ५० ی - - - - - - - ५१ ५१ १५ १५ ५६ १ ५३ ५६ १६ १४ १९ ५८ १ १८ १९ • ५ ww ६० ६२ ६६ a wow ? ६६ पंक्ति ७ ७० ७० ७१ ७१ w 9 १६ १७. १२ १५ १३ १४ २३ ( ४ ) अशुद्धि आयुष्यन्त शेषतः गुणः नश्यांति) अभ्याघात् अभ्यथात् दस्त्वमेव पार्थोके ० जाग्रत्वं अजलाशय लिये ० तक ० जागृति जो " दहेतुस्वमेव पदार्थोंके ( विनाशवत् ) जाग्रत्वं जलाशय (अत्र) ( न यांति) जाग्रति वहां जो यथाशक्तः यथाशक्ति पद्मास्य के ( पद्मास्ये ) ( श्रीदत्त नामक ) ( श्रीदत्त नामकः ) शुद्धि आयुष्मन्तम् विशेषतः गुणाः नश्यति अभ्याधात् घनशा भर्यपि आवरान्तं समुद्रको ० ( पूयं ) पूर्वोक ० धनाशा भूर्यपि अवारान्तं समुद्रको ( गताः ) ( यूयं ) पूर्वोक (अबोधपत्र ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पृष्ठ पंक्ति ७२ १९ ७४४ अशुद्धि होगा लोकोंके योगीन्द्रिाः कारण.. लोकाया० नामकी हो गया दोनों लोकोंके योगीन्द्राः कारण ( अभाणीत् ) लोकाया ख्याता नामकी प्रसिद्ध ७५ १८ ७६ १६ ७६ २० ७७ पराधीन प्रमाणं व्यधातू सूत्यायां तद्दौस्थं १० ७८ १२ ७८ १५ ७९ १४ पराधिन प्रमाणां व्यघात सूत्यां तद्दोःस्थं दुस्व अस्ता अन्य दूरे अन्विषष्य यूपं दोर्य वसंत आस्तां अन्यत् दूरे आविष्य भवन्तः दौनन्य वसन्त ८१. ९ ८१ १५ ८४ १४ (० घीमता पश्चाचैख्यौ धीमता पश्चाच्चेख्यो Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि पृष्ठ पंक्ति ९० ११ ९३ १४ १५ अशुद्धि अभ्पघात् संयोगवीयोगाभं धायक हप्त जाने अभ्यधात संयोगवियोगाभम् धाय (तां पृष्ठतो कृत्वा) गुणमालाको पीछे कर हत हो जाने (द्वन्दकाले) ( सार्वगुणोदयः) संतप्त (सा) दृष्ट्वा बन्द ९५ १५ ९६ १८ ९८ १६ (सर्वगुणोदयः) संतप्त. दृष्ट तदाकण्ये ९९ १ तदाकर्ण्य मृशं अमुष्यामाणौ भृशं अमुष्यायणौ ९९ १० ९९ ८ ९९ १५ गन्धोत्कठान्तिकम् गन्धोत्कटान्तिकम् नहीं नहीं (भवेत् ) गन्धात्कट गन्धोत्कट (तवोर्वाक्यं (तयोर्वाक्यं चेक्रोधाग्निः चेत्क्रोधाग्निः जाने ९९ २० १०३ २१ १०७ १९ १०८ ९ जने स्मरन्तो “स्मरन्तौ यथोदन्तं पथोदन्तं Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टष्ट पंक्ति ११९ ९ of ११९ १० ११९ २३ १२० २२ १२१ १४ १२१ २१ १२१ २३ १२३ २ १२५ १२६ २२ १२७ ९ १२८ ५ १३८ २२ १४३ १४ १४४ १५ १९० ५ १११ ११ १५३ ११ १५९ १५६ ११ १५६ २१ (७) अशुद्धि स्थाने सदाश्रयत् जायेते भवितत्वं तपध्वं "" काष्टगापि भृग्यते आत्माभासादि भेवेत् मत निश्वन से मब्याबाद (सच्चारस्य निजाहार्या घृतान्त (निभेषात् विद्यवित्तो असजेत्तराम् साव्यते दृष्ट्वा शुद्धि स्थान सदाश्रयात् जायते भवितव्यं तप्यध्वं "2 काष्ठगानपि मृग्यते आप्ताभासादि भवेत मत्त निश्वयसे मब्याबाध सञ्चारस्य निजाहार्य वृत्तान्त निमेषात् विद्यावित्तो असजत्तराम् साध्यते दृष्ट्वा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि युक्त क्षत्री पृष्ठ पंक्ति १५६ २२ १५८ १ १६१ १८ १६७ १० १६८ २२ (८) अशुद्धि युक्त नही क्षत्रि . (असंमतिः न (पश्य) (समकल्पयतू ) प्रकार जाननेवाली कृति पुरुषोंके तैननैव प्रातिकूल्पं वीक्ष्य असंमतिः (पश्यन् ) (समकल्पयम्) प्रकार (आलोच्य) जाननेवाली (सा) कृती पुरुषोंका १६९ २१ १७५ १५ १७५ १७ १८१ ३ १८१ १२ १८२ ३ तेनैव १९२ १० १९४४ १९६ १ १९६ १२ २०४ २१ २०५ ७ २०८ ६ २०९ २३ तत्त्रापि भी० . तद्रहम् अम्यधुः नाय • पृथवीके कर्दमें डालेन प्रातिकूल्यं प्रेक्ष्य दृष्ट्वा तत्रापि (अपि) भी तद्गृहम् अभ्यधुः नायम् (धरण्याः ) पृथवीके कर्दमे डालने Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९) शुद्धि - पृष्ठ पंक्तिं अशुद्धि २१० १४ प्रामृतम् २१० १६. तिष्पत्तेः २१३ १९ कत्सित २३६ १ त्यज्या २३८ ४ त् प्राभृतम् निष्पत्तेः कुत्सित त्याज्याः Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री जिनाय नमः॥ श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचित सान्धयार्थ क्षत्रचूड़ामणिः। प्रथमो लम्बः । श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद्भक्तानां वः समीहितम् । यद्भक्तिः शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ॥१॥ __ अन्वयार्थः-(श्री पतिः) अन्तङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मीके स्वामी (भगवान् ) श्री जिनेन्द्र देव (वः युष्माकं) तुम (भक्तानां, मक्तोंके (समीहितम्) इच्छित कार्यको (पुष्यात् ) पूर्ण करें। (यद्भक्तिः) जिप्स निनेन्द्र देवकी भक्ति (मुक्तिकन्याकरग्रहे) मुक्ति रूपी कन्याके विवाहमें (शुल्कताम् ) द्रव्य स्वरूपताको (एति) प्रप्त करती है-॥१॥ संक्षेपेण प्रवक्ष्यामि चरितं जीवकोद्भव । पीयूषं न हि निःशेषं पिवन्नेव सुखायते ॥२॥ ___अन्वयार्थ—(अहं) मैं वादीमसिंह सूरि ( जीवकोद्भवम् ) जीवंधर स्वामीसे उत्पन्न (चरित) चरित्रको (संक्षेपेण ) संक्षेपतासे Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । (प्रवक्ष्यामि) कहूंगा। अत्रनीतिः ! हि) निश्चयसे (निःशेषं) सरकासब ( पीयूषं ) अमृतको ( पिवम् ) पीता हुआ (एव ) ही पुरुष (सुखायते) सुखो होत है (इति न) ऐसा नहीं किन्तु (स्वल्पमपि पिवन सुखायते) थोड़ा पीता हुआ भी सुखी होता है ।। २ ।। श्रेणिकान त्रुद्दिश्य सुधर्मोगणनायकः । यथोवाच म्याप्येतदुच्यते मोक्षलिप्प्तया ॥३॥ अन्वयार्थः-(सुधर्मः) सुधर्म नामके (गणनायकः) मगधरने (श्रेणिकपश्न ) श्रेणिक राजाके प्रश्नको (उद्दश्य) निमित्त पाकर (यथा, जैसे (उवाच) कहा है (तथा मयापि) वसे मैं भी (मोक्ष लप्पया) मोक्षकी वाञ्छ।से इम च स्त्रको ( उच्यते कहता हू ।। ३ ।। इहास्ति भारते खण्डे जम्बद्रापस्यमण्डने । मण्डलं हेमोशाभं हमाङ्गद समाह्वयम् ॥ ४ ॥ ___अन्वयार्थः ---(इह) इस संसारमें (जम्बूद्वोपस्य) जप्यूट्रोएका (मण्डन ) भूषणस्वरूप ( भारते ) भारत ( खण्डे) खण्ड में हेम. कोशाभं) स्वर्ण के खनाने के सामान है आमा निपको ऐना हे मानसमाह्वयम् ) हेम ङ्गद नामका ( मण्डलं ) देश ( अम्रि ) है ! ४ ॥ तत्र राजपुरी नाम राजधानी विराजते । राज राजपुरी स्टो बटुर्या मातृकायते ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ:-(तत्र) उस देशमें (राजकुरी नाम) रा र पुरो ना.. मकी (राजधानी) राजाकी प्रधान नगरी ( बि जिते ) शुशोभित है (या) जो (स्रष्टुः) ब्रह्माके (राज रानपुरी सृष्टौं) कुवेरक' नगरी Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (अलकापुरीकी) रचनामें ( मातृ कायने) माताके सदृश आचरण करती है ॥ ५ ॥ तस्यां सत्यंधरो नाम राजा भूत्सत्यवाङ्मयः। . . . वृहसेवी विशेषज्ञो नित्योबागी निराग्रहः ॥ ६ ॥ ___ अन्वयार्थः- (तस्य) उस नगरीमें (सत्यवाङ्मयः) सच बोलनेवाला (वृद्ध सेवी) वृद्धोंकी सेवा करनेवाला (विशेषज्ञः ) विशेष कार्योका जाननेवाला (नित्योद्योगी) निरंतर उद्योग करनेवाला (निराग्रहः) हट न करनेवाला (सत्यंधरो नाम ) सत्यंधर नामका (राजा) राजा ( अभूत ) था ॥ ६ ॥ महिता महिषी तस्य विश्रुता विजयाख्यया। विजयाद्विश्वनारीणां पातिव्रत्यादिभिर्गुणैः ॥ ७॥ __ अन्वयार्थ:--(तस्य) उम सत्यंधर रानाकी (महिला) बड़ी (महिषो) प्रसिद्ध पट्टरानी (विश्व नारीणां) सम्पूर्ण स्त्रियोंको (पातिव्रत्यादिभिः ) पातिव्रतादि (गुणैः) गुणों के द्वारा ( विनयात् ) जीतसे (विजयाख्यया) विनया नामसे ( विश्रुता ) प्रसिद्ध (आसीत) थी ॥७॥ मत्यप्यन्तः पुरस्त्रोणां समा जे राजवल्लभा । सैवासीन्नापराकाचित्तौभाग्यं हि सु दुर्लभम् ॥८॥ अन्वयार्थः- (अतःपुर स्त्रीणां ) अन्तःपुरकी स्त्रियों के ( समाजे ) समुदाय (सति ) रहनेपर (अपि) भी (सा) वह (एव) ही (राजवल्लभा ) रानाकी प्यारी ( आनीत् ) थो ( अपरा ) दूमरी, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः। (काचित्) कोई (न) नहीं अत्र नीतिः (हि ) निश्चयसे (सामाग्यं ) अच्छामाग्य (सुदुर्लभम् ) बड़ा दुर्लभ है ॥ ८ ॥ निष्कंटकाधिराज्योऽयं राजा राज्ञी मनारतम् । रमयनान्यदज्ञासी त्याज्ञप्राग्रहरोऽपिसन् ॥ ९॥ अन्वयार्थः-(निष्कंटकाधिराज्यः) निष्कंटक है राज्य जिसका ऐसा (अयंराजा) यह राजा (पाज्ञवाग्रहरः) विद्वानोंमें अग्रसर भी (सन् ) होता हुआ ( अनारतम् ) निरंतर ( राज्ञों ) रानीको (रमयन् ) रमन करता हुआ (अन्यत) और कुछ (न) नहीं (अज्ञासीत् ) जानता था ॥९॥ विषयासक्तचित्तानां गुणः को वा न नश्यति । नवैदुष्यं न मनुष्यं नाभिजात्यं न सत्यवाक् ॥१०॥ __अन्वयार्थः--(विषयासक्तचित्तानां) विषयोंमें है आसक्त चित्त जिनका ऐसे पुरुषोंका (को वा ) कौनसा (गुणः !) गुण (न) नहीं (नश्यति) नाश होता है (तेषु, उनमें (नवैदुष्यं) न पण्डित्यपना (न मानुष्यं) न मानुष्यपना (नामिनात्यं) न कुलीनता (न सत्यवाकू) न सचाई रहती है ॥ १० ॥ पराधन जादेन्यात्पैशून्यातपरिवादतः। पराभवाकिमन्येभ्यो न विमेति हि कामुकः॥११॥ __ अन्वयार्थः- ( कामुकः ) कामी पुरुष ( पराराधन जात् ) दूसरेकी सेवासे उत्पन्न ( दैन्यात ) दीनतासे (पैशुन्यात् ) चुगली पनसे ( परिवादतः ) निंदासे और (पराभवात् ) तिरस्कारसे (न) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । नहीं (विभेति ) डरता है ( अन्येभ्यो ) और कामोंसे (f) क्या (भेष्यति) डरेगा ॥ ११ ॥ पाक त्यागं विवेकं च वैभवं मानतामपि । कामार्ताःखलुमुश्चन्ति किमन्यैःस्वञ्च जीवितम्॥१२॥ _. अन्वयार्थः-(कामार्ताः) कामसे पीड़ित पुरुष (पाकं) भोजन (त्याग) दान (विवेक) विवेक (वैभवं सम्पत्ति (च) और (मानतां) पूज्यता (अपि ) भी ( खलु ) निश्चयसे (मुश्चन्ति ) छोड़ देते हैं (अन्यः किं) और तो क्या (स्वञ्च जीवितम्) अपने जीवनको (अपि) भी (मुञ्चन्ति) छोड़ देते हैं ॥१२॥ पुनरैच्छ दयं दातुं काष्टाङ्गाराय काश्यपीम् । अविचारितरम्यं हि रागान्धानां विचेष्टितम् ॥१३॥ अन्वयार्थः-(पुनः) पश्चात् (अयं) इस राजाने (काष्टाङ्गाराय) काष्ठाङ्गारको (काश्यपीम्) पृथवी (दातुं) देनेकी (ऐच्छत् ) इच्छाकी अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे रागान्धानां) स्त्री प्रेमसे अन्धे पुरुषोंकी ( विचेष्टितम् ) चेष्टाएं ( अबिचारितरम्य ) विना विचारके सुन्दर (भवंति) होती हैं ॥१३॥ तावतातं समभ्धेत्य मन्त्रिमुरुषा अबू बुधन् । देवदेवैरपि ज्ञातं विज्ञाप्यं श्रूयतामिदम् ॥ १४ ॥ ____ अन्वयार्थः-(तावता) उसी समय (मन्त्रिमुख्याः) प्रधान मन्त्री (तं ) उप्त राजाके (समभ्येत्य) समीप आकार (अबूबुवन्) समझाते भये (हे देव) हे राजन् ( देवैः ) आपसे (ज्ञातमपि) नानी हुई भी (इदं) यह प्रार्थना ( श्रुयतां) सुनने योग्य है ॥ १४॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । हृदयं च न विश्वास्यं राजभिः किं परो नरः। किन्तु विश्वस्तवद्दश्यो नटायन्ते हि भूभुजः ॥१५॥ अन्वयार्थः-(राजभिः) रागालोग (हृदयं) हृदयका (च) भी (न विश्वास्य) विश्वास नहीं करते हैं (परोनरः किं विश्वास्यः) दूसरे मनुष्यका तो क्या विश्वास करेंगे किन्तु (परो नरः) दूसरे मनुष्यको (विश्वस्तवत् ) विश्वासीके सदृश ( दृश्यः ) देखना चाहिये अत्र नीतिः ( हि) निश्चयसे ( भूभुनः ) राजा लोग (नटायन्ते) नटके समान आचरण करते हैं !! १५ ।। परस्पराविरोधन त्रिवों याद मेव्यते । अनर्गलमतः सौख्यं अपवर्गोप्यनुक्रमात् ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ:--(यदि) अगर परस्परा विरोधेन) एक दूसरेके विरोधके विना (त्रिवर्गः) धर्म, अर्थ, काम यह तीन वर्ग (सेव्यते) सेवन किये जाते हैं (अतः) तो (अनर्गल) विना रुकावटके (सौख्यं सुख (भवति) होता है और ( अनुक्रमात् ) अनुक्रमसे (अपवर्गः) मोक्ष (अपि) भी (भवति) होता है ॥१६॥ ततस्त्याज्यौ न धर्मार्थी राजभिः सुखकाम्यया। अदः काम्यति देव वेदमूलस्य कुतः सुखम् ॥ १७ ॥ अन्वयार्थः--(ततः इस लिये (राजभिः) राजाओंको (सुखकाम्यया) सुख प्राप्त करनेकी वाञ्छासे (धर्मार्थी) धर्म और अर्थको (न) नहीं (त्याज्यौ छोड़ना चाहिये (चेदेवः) यदि आप (अदः) काम सुख (काम्यति) इच्छा करते हैं तो अत्र नीतिः (अमूलस्य कुतः सुखम् ) विना कारणके सुख कैसे हो सकता है ॥१७॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । नाशिनं भाविनं प्राप्यं प्राप्त च फलसंततिम् । विचाय्यैव विधातव्यमनुतापोऽन्यथा भवेत् ॥ १८॥ अन्वयार्थः--(नाशिनं ) जो वस्तु नाश होनेवाली है और जो (भाविनं) आगे होनेवाली है उसे ( प्राप्यं) प्राप्त करना चाहिये (च) और ( प्राप्ते) प्राप्त होनेपर ( फलसंततिम् ) फलों की परंपरा (विचार्य) विचार करके (एव) ही (विधातव्यं, कोई काम करना चाहिये (अन्यथा ) इसके विपरीत करनेसे (अनुतापः ) पश्चात्ताप ( भवेत् ) करना पड़ता है || १८ || अन्वयार्थः इतिप्रबोधितोप्येष धुरिराज्ञां न्यवेशयत् । काष्टाङ्गार महोमोहादुडः कर्मानुसारिणी ॥ १९ ॥ इति इस प्रकार (प्रबोधितः) ममझाया हुआ (अपि) भी (एषः यह राजा (अहो ) खेद है कि (मोहात् ) मोहसे (राज्ञां राजाओं के अगाड़ी (काष्टाङ्गारं ) काष्टाङ्गारको न्य वेशयत् ) चिठलाता भया अत्र नीतिः (बुद्धिः) बुद्धि (कर्मानुसारिण) कर्मके अनुसार (भवती) होती है ॥ १९ ॥ विषवान्ध्यविचारेण विरक्तानां नृपस्य तु । प्रकृष्यमाणरागेण कालो विलयमायवान् ॥ २० ॥ i अन्वयार्थः - (तदा) उस समय (विरक्तानां ) विषयों में विरक्त पुरुषोंका ( कालः) समय (विषगंधविचारेण) विषयों में अब विचार से अर्थात विषयों में विना वाञ्छा के ( विलयं विनाशताको (ईयवान् ) प्राप्त होता था (तु) और (नृपम्य) राजाका ( कालः) समय (प्रंटप्यमाणरागेण विषयों में अत्यंत रागसे (विलयं ईयवान्) वीतता था । २० ' Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः। सातु निद्रावती स्वप्नमद्राक्षीक्षणदाक्षये। अस्वप्नपूर्व हि जीवानां न हि जातु शुभाशुभम् ॥२१॥ . अन्वयार्थः-(तु) इसके अनंतर (निद्रावती सा) नींदमें सोई हुई वह विनया रानी (क्षणदाक्षये) रात्रिके अन्त भागमें (स्वप्नं। स्वप्नको (अद्राक्षीत् ) देखती भई, अत्र नीतिः (ह)) निश्चयसे (जीवानाम् ) मनुष्योंके (अस्वप्न पूर्व) विना स्वप्नके (जातु) कभी भी (शुभाशुभम्) शुभ और अशुभका प्रादुर्भाव (न) नहीं (भवति) होता है ॥२१॥ वैभातिक विधेरन्ते विभोरान्नकमीयुषी। अर्धासननिविष्टेयमभाषिष्ट च भूभुजः ॥ २२ ॥ _ अन्वयार्थः- वैमातिक विधेः ) प्रातःकाल संबंधी शौचादि कार्यके ( अन्ते ) अनन्तर (इयं ) यह रानी (विभोः ) अपने पतिके ( अन्तिकम् ) समीप ( ईयुषो ) आई हुई ( अर्धासन निविष्टा ) आधे आसन पर बैठकर (भुमुनः ) रानासे ( अभाषिष्ट ) कहती भई ॥ २२ ॥ श्रुत्वा स्वप्न त्रयं राजा ज्ञात्वा च फलमक्रमात् । प्रति वक्तुमुपादत्त किंचिन्यन्चन्मनाभवन् ॥२३॥ अन्वयार्थः-(राजा) राना ( स्वप्नत्रयं) तीनों स्वप्नोंको ( श्रुत्वा) सुनकर (च) और (फलं) फलको ( ज्ञात्वा ) जानकर ( अक्रमात् ) अक्रमसे (किंचिन्न्यन्चन्मना भवन् ) दुःखित मनवाला होता हुआ (प्रतिवक्तुं ) उत्तर देनेकी (उपादत्त) स्वीकारता करता भया ॥ २३ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । पुत्रमित्र कलत्रादौ सत्यामपिचसंपदि । आत्मीया पाय शंका हि शुङ्गः प्राणभृनांहृदि ॥२४॥ अन्वयार्थ : – (हि) निश्चयसे ( पुत्रमित्रकलत्रादौ ) पुत्र, मित्र, स्त्री, आदिक (च) और (संपदि) धनादिक सम्पत्तिके (सत्यां ) रहनेपर (अपि) भी (आत्मीयापाय शङ्का) अपने विनाशकी शङ्का ( प्राणभृतां ) प्राण धारियोंके (हृदी) हृदयमें (शकुः) कीलकी तरह दुःख देती है ॥ २४ ॥ देवि दृष्टस्त्वया स्वप्ने बालः शोकः समौलिकः । आचष्टे सोदर्यसूनु मष्टमालास्तु तद्वधूः ॥ २५ ॥ अन्वयार्थः - (देव) हे देवी ( त्वया ) तुम्हारे से ( स्वप्ने) स्वप्न (दृष्टः) देखा हुआ (समौलिकः) मुकट सहित (बालः शोकः ) बाल अशोक वृक्ष (सोदयं ) उदय सहित (सूनुं ) पुत्रको (आचष्टे ) कहता है (तु) और (अष्टमालाः) स्पप्न में देखी हुई आठ मालाऐं (तद्वधूः) पुत्रकी आठ स्त्रियें होंगीं ऐसा कथन करती हैं ॥ आर्यपुत्र ततः पूर्व दृष्ट नष्टस्य किं फलं । कङ्करेरिति चेद्देवि कथयत्येष किंचन ॥ २६ ॥ २५ ॥ अन्वयार्थः — हे आर्य पुत्र) हे आर्य पुत्र (व्रतः पूर्व) उससे पहले ( दृष्ट नष्टस्य ) देखा और फिर नष्ट होगया ऐसे ( कङ्केले : ) अशोक वृक्षका (किं) क्या (फलं) फल है (देवि) हे देवी ! (इतिचेत् ) यदि ऐसा कहती हो तो (एषः) यह भी (किंचन) कुछ (कथयति) कहता है ॥ २६॥ ९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रथमोलम्बः । इतीशवाक्यं शुश्रूषी महिषी भुवि पेतुषी । मूच्छितातन्मुखग्लानेव वक्ति हि मानसम् ॥ २७॥ अन्वयार्थ : - ( इति ) इस प्रकार ( ईश वाक्यं ) स्वमीके वाक्योंको (शुश्रूषा) सुनहर (महिषी) पट्टरानी (तन्मुखर छानेः) उसके मुखकी मलिनता देखने से (भुवि ) पृथ्वी पर (पेतुषी) गिरकर ( मूच्छिता) मूच्छित (आमित्) होती भई । अत्र नोतिः (हि) निश्चय से ( वक्त्र) मुख ( मानसम् ) मनके भावका ( वक्ति ) कह देता है ॥ २७ ॥ तन्मोहान्मोहिनो राजा तामेवायमधू बुधत् । सत्यामप्यभिषङ्गात्तौ जागयैवहि पौरुषम् ||२८|| अन्वयार्थः -- ( तन्मोद्दात् ) इसके मोह से (मोहितः ) मोहित (अ) यह (राजा) राजा (तां एव) उस रानीको ही ( अबूबुधत् ) सचेत करता भया अत्रनीति: (हि) निश्चयसे (अभिपङ्गात) अक स्माद्देवादिजन्य पीड़ा (सत्यां अपि) होनेपर भी ( पौरुषम् ) पुरषत्व ( जागर्देव) जागृत ही रहता है || स्वप्नदृष्ट कृते सो नष्टासुं किं तनोषिनाम् । नहि रक्षितुमिच्छतो निर्दहन्ति फलमम् ॥२९॥ (F अन्वयार्थ :- हे देवी (स्वप्नदृष्ट कृते) स्वप्न देखने ही से (किं) क्यों (माम्) मुझको (मद्यः) तत्काल (नष्टासुं) मरा हुआ ( तनोषि) समझती है अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे फलदुनम् ) फलवाले " वृक्षको ( रक्षितुं इच्छन्तः) रक्षा करने की इच्छावाले पुरुष (तं) उसको ( न निर्दहन्ति) नहीं जला देते हैं ॥ २९ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । ११ विपदः परिहाराय शोकः किं कल्पते नृणाम् । पावेक नहि पातः स्यादातपलेशशान्तये ॥३०॥ अन्वयार्थ : -- (विपदः) विपत्तिके (परिहाराय ) दूर करनेके लिये (नृणाम् ) मनुष्यों के (किं) क्या (शोकः) शोक ( कल्पते) किया जाता है (हि) निश्चय से ( आतपक्लेश शान्तये) गर्मी के क्लेशकी शान्तिके लिये (किं) क्या (पावके) अग्नि में (पात: स्य त् ) पतन होता है (अपि तु न स्यात्) किन्तु नहीं होता है ॥ ३० ॥ ततो व्यापत्प्रतीकारं धर्ममेवविनिश्चिनुः । प्रदीप देशे नास्ति तमसो गतिः ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थ : --- ( ततः इसलिये तू निश्रयसे ( व्यापत्प्रतीकारं ) आपत्तिका उपाय ( धर्मं एव) धर्म ही (विनिश्चिनु ) निश्रय कर क्योंकि ( दीपैः दीपते) दीपकों से प्रकाशित (देशे ) देश में ( तमसः) अन्धकारका ( गतिः) गमन (नास्ति) नहीं होता ॥ ३१ ॥ इत्यादि स्वामिवाक्येन लब्धाश्वासा यथा पुरम् । पत्या साकमसौरेम दुःखचिन्ता हि तत्क्षणे ॥३२॥ --- अन्वयार्थः - ( इत्यादि स्वामि वाक्येन ) इस प्रकार स्वामीके वचनों से (लब्धाश्वासा) प्राप्त हुआ है विश्वास जिसको ऐनी (असौ) यह रानी ( पत्या साकम् ) पति के साथ ( यथा पुरम् ) पहले की तरह ( रेमे रमन करने लगी अत्र नंतिः (हि) निश्चय से (तत्क्षणे ) दुःख के समय में ही (दुःख चिन्ता ) दुःखकी चिन्ता (भवति) होती है ॥ ३२ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः। अथ प्रबोधितं स्वमादमबुद्ध ममुं पुनः।। बोधयन्तीव पनी यमन्तर्वनी धुरां दधौ ॥३३॥ ___ अन्वयार्थः----(अथ) इसके पश्चात् (स्वप्नात् ) स्वप्नसे (प्रबो. धित) सचेत किया हुआ (पुनः अप्रबुद्ध) और फिर अचेत (अनुम् ) इस रानाको (बोधयन्ती) ज्ञान करानेके लिये ही (इव) मानो (इय) पत्नी) यह रानी (अन्तर्वत्नी धुगं) गर्भवतीके भारको (दधौ धारण करती भई ॥ ३३ ॥ सदोहलामिमां वीक्षा दुःस्वप्न फलनिश्वयात् । अनुशंते स्म राजा यमात्मरक्षा परायणः ॥ ३४॥ अन्वयार्थ:--(आत्मरक्षापरायणः) अनी आत्माकी रक्षामें तत्पर (अयंराना) यह राजा (सदोहलां) गर्भवतीके लक्षणों सहित (इमां) इसको (वीक्ष्य) देख कर (दुःस्वप्न फलनिश्चयात् ) खोटे म्वप्नोंके फलके निश्चयसे ( अनुशतेस्म ) पाश्चाताप करने लगा ॥ ३४ ॥ मन्त्रिणां लडितं वाक्यं अभाग्येन मया मुधा । विपाके हि सतां वाक्यं विश्व सन्त्य विवेकिनः॥३२॥ ___अन्वयार्थः- (अभाग्येन) अभागी (मया) मैंने (मंत्रियाम् ) मंत्रियोंके (वाक्यं, वचनोंको मुधा) वृथा लंधितं) उल्लंघन किया अत्र नीतिः (ही) निश्चयसे (अविवेकिनः) विवेक रहित पुरुष (विपाके) अंत समय में (अर्थात् दुःख मिलने पर (सनां) सजनोंके (वाक्य) वाक्योंको (विश्वप्रति विश्वास करते हैं ॥ ३५ ॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । नाकालकृता वाञ्छा संपुष्णाति समीहितम् ।। किं पुष्पावचयः शक्यः फलकाले समागते ॥ ३६ ॥ _अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे ( अकाल कृता) असमयमें की हुई (वाञ्छा) इच्छा (समीहितम्) ईच्छित कार्यको (न संपुष्णाति) पूर्ण नहीं करती है जैसे (फल काले समागते) फल लगनेका समय आजाने पर (किं) क्या (पुष्पावचयः शक्यः) फूलोंका ढेर इकट्ठा कियाजा सकता है (अपि तु न शक्यः) किन्तु नहीं किया जा सकता है ॥३६॥ इत्यातों वंशरक्षार्थ केझियन्त्रम चीकरत् । आस्था सतां यशः काये न घस्थायि शरीरके ॥३७॥ __ अन्वयार्थः-इति) इस प्रकार (आर्तः) दुःखसे पीड़ित उस राजाने (वंशरक्षार्थ) वंशकी रक्षाके लिये (केकियन्त्रम्) मयूराकृति . यन्त्र ( अचीकरत् ) बनाया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (सत्तां आस्था) सजनोंकी आस्था अर्थात् बुद्धि ( यशः काये ) यश रूपी शरीरमें ही (भवति) होती है (अस्थायि शरीरके) अनित्य पुरुषाकति शरीरमें (न भवति) नहीं होती है ॥३७॥ आक्रीडे दौहृद क्रीडामनुभोक्तुं विशांपतिः। व्यजीहरच्चयन्त्रस्थां पनी वर्त्मनि वार्मुचाम् ॥३८॥ अन्वयार्थः—(पुनः) फिर (विशांपतिः) राजा (दौहृद क्रीड़ां) दोहद कीड़ाओंका (अनुभोक्तुं) अनुभव करनेके लिये (आक्रीड़े) क्रीड़ा करने लगा (च) और ( यन्त्रस्था) मयूरयन्त्रमें बैठी हुई Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रथमोलम्बः । (पत्नी) विजया रानीको (बर्मुचाम्) मेघों के ( वर्त्मनि) मार्ग आका - श (जीहतरत् ) |वहार करने लगा || ३८ | तावतैव कृतघ्नाख्यां राजधाख्यां च साधयन् । स्ववियां भुवं चति काष्टाङ्गारो व्यचीचरत् ॥ ३९ ॥ अन्वयार्थ : ( तावता एव) उसी समय ही ( कृतन्नाख्यां) कृतघ्नता (च) और (राजधाख्यां) राज के वध करनेकी संज्ञाको (साधयन्) साधन करता हुआ (च) और (भुवं पृथ्वीको (स्ववि-धियां) अपने आधीन (इच्छन् ) इच्छा करता हुआ काष्टांगारः ) काष्टांगारने (इति) यह (व्यचीचरत् ) विचार किया ।। ३२ ।। जीवतान्तु पराधीनाजीवानां मरणम् वरम् । मृगेन्द्रस्य मृद्रत्वं वितीर्ण केन कानने ।। ४० ॥ 1 अन्वयार्थ :- (पराध नातू) पराधीन (जीवतात्तु) जीवनेसे तो (जीवानां) प्रणियोंका मरणं मरना ही (वरम् ) श्रेष्ठ है अथवा (कान) वन में / मृगेन्द्रस्य) सिंहको (मृगेन्द्रत्वं) सिंहपना बनके पशुओं का स्वामित्व ) केन) किसने ( वितीर्ण) दिया है (स्वपुरुषार्थेनैव सम्पादित) अपने पुरुषार्थसे हो उसने प्राप्त किया ॥ ४० ॥ अचीकथञ्चमन्त्रिभ्यो राजद्रोहो विधीयताम् । इति राजगुहा नित्यं देवतेनाभिधीयते ॥ ४१ ॥ अन्वयार्थ :- (राजद्रोहो विधीयताम् : राजाके साथ द्रोह करो ऐसा (राजदुहा) राजासे द्रोह करनेवाला ( दैवतेन ) देवता (नित्यं) नित्य ही मुक्तसे (अभिधीयते) कहता है (इति) इस प्रकार (सः) उसने (मन्त्रिभ्यः) मन्त्रियों से (अवीकथत् ) कहा ॥ ४१ ॥ FA Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । स्वन्तं किं नु दुरन्तं वा किमुदर्क वितर्यताम् । अतर्कितमि वृत्तं तर्करूढं हि निश्चरम् ॥ ४२ ॥ ___ अन्वयार्थः-(स्वन्तं ) इसका अन्त्त अच्छा है ( किन्नु ) अथवा (दुरन्तं) बुरा है किमुक) इसका क्या परिणाम होगा (वितक्यताम् ) इस विषयको तुम विचारो (इदं वृत्तं) यह वृत्तान्त अभीतक अति ) विना विचार कया हुआ है जब यह (तर्क रूढं ) तर्क पर चढेगा तब (निश्चम् ) स्थिर ( भवेत् ) हो जावेगा ॥४२॥ हिभिवक्तुमप्येतदुक्तिव भयादिति। मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्कर्मन्यडि पापिनाम् ।। ४३ ॥ ___अन्वयार्थः- (अहं) मैं (एत, तुम घ) इसको कहनेके लिये भी (जिहे म) लज्जा करता हूं किन्तु । देवभयात् इति उक्तिः) देवताके भवसे मैंने यह कहा है अत्र नीतिः (हिं ) निश्चयसे (पापिनाम् ) पापियोंके (मनसि) मनमें (अन्यत् । कुछ होता है और (वचसि अन्यत् ) ब चनसे कुछ कहते है अर (कर्मणि अन्यत्) कायसे कुछ ही करते हैं ॥४॥ तद्वाक्याद्वा च्यतोवंइया यमिनः प्राणिहिंसनात् । क्षुद्रादुर्भिक्षनश्चैव मयाः सर्वे हि तत्रतः ॥ ४४॥ ___अन्वयार्थः- तद्वा वयात् ) काष्ठाङ्गारके इन वचनों से (वंश्या) उत्तम कुल न पुरुष तो ( वाच्यतः ) निंदासे ( यमिनः ) संयमी पुरुष (प्राणिहिंसनात् ) जीवोवी हिंमासे ( क्षुद्राः ) क्षुद्र प्रकृतिके पुरुष दुर्भिक्षतः) अकालसे (तत्र :) डरे (एवं) इस प्रकार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । (सर्वेसम्याः तत्रसुः) सम्पूर्ण सभ्य पुरुष भय युक्त होते भये ॥४४॥ मात्माध धर्मदत्ताख्यः सचिवो वाचमूचिवान । गाढा हिस्वामिभक्तिः स्यादात्मप्राणानपेक्षणी॥४५॥ ___अन्वयार्थः- उस समय (धर्महत्तारव्यः) धर्मदत्त नामके (सचिवः) मन्त्रीने (आत्मनीं) अपने आपको नाश करनेवाली (वाचं) वाणी (उचिवान् ) कही अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गाढास्वामिभक्तिः, अतिशय स्वामीकी भक्ति (आत्मप्राणानपेक्षणी) अपने प्राणोंकी अपेक्षा नहीं करनेवाली (स्यात्) होती है ॥४५॥ राजानः प्रणिनां प्राणास्तेषु सत्स्वेव जीवनात् । तत्तत्र सदसत्कृत्यं हि लोक एव कृतं भवेत् ॥४६॥ ___अन्वयार्थः- उसने कहा (राजानः) राजा लोग (प्राणिनां) प्राणियों के (प्राणाः) प्राण हैं (तेषु सत्सु) उनके रहने पर ही (नीवनात) प्राणियोंका जीवन होता है (तत्) इसलिये (तत्र) रानामें किया हुआ (सदसत्कृत्यं) अच्छा बुरा कर्म (लोक एवं कृतं भवेत्) प्रजाके साथ ही किया हुआ होता है ॥ ४६ ॥ एवं राजद्रुहांहन्त सर्व द्रोहित्व संभवे । राजधुगेव किं न स्यात् पञ्चपातकभाजनम् ॥४॥ अन्वयार्थः- (एवम् ) इस प्रकार (राजदुहा) राजद्रोही पुरुषोंके (सर्व द्रोहित्व संभवे) सम्पूर्ण पुरुषोंका द्रोहित्वपना संभव होने पर (हंत) खेद है (किं) क्या (रान ध्रुग् एव) राजद्रोही ही (पञ्चपातक भाननम् ) पंच महा पापोंका करनेवाला (नस्यात् ) नहीं होतो है (किन्तु स्यादेव) किन्तु अवश्य ही होता है ॥४७॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । रक्षन्त्येवात्र राजानो देवान्देहभृतोऽपि च । देवास्तु नात्मनोप्येवं राजा हि परदेवता ॥४८॥ ___अन्वयार्थः-(अत्र) इस लोकमें (राजानः) राना लोग (देवान्) देव (च) और (देहभृतोऽपि) देह धारी दोनोंकी (एव) ही (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं। परन्तु (देवाः) देवता (आत्मनोऽपि) आपनी आत्माकी भी (न) नहीं (रक्षन्ति) रक्षा करते है (एवं) इस लिये (राना हि पर देवता) राना ही निश्चयसे उत्कृष्ट देवता है ॥ किंचात्र दैवतं हन्ति दैवतद्रोहिणं जनम् । राजा राजद्रुहां वंशं वंश्यानन्यच्च तत्क्षणे ॥४९॥ अन्वयार्थः-(किं च अत्र) और लोकमें (दैवतं) देवता (दैवत् द्रोहिणं जनम् ) अपनेसे द्रोह करनेवाले मनुष्यको (हन्ति) मारता है परन्तु (राना) राना (राजद्रुहां) राजद्रोहियोंका (वंश) कुल और (वंश्यान्) वंशके मनुष्योंको (च) और (अन्यत्) उसकी धन सम्पत्यादिकको भी (तत्क्षणे) उसी समय (हन्ति) नाश कर देता है॥४९॥ अर्थिनां जीवनोपायमपायं चाभिभाविनाम् । कुर्वन्तः खलु राजानः सेव्या हव्यवहा यथा ॥५०॥ __अन्वयार्थ:- (अर्थिनां) अर्थीजनोंके (जीवनोपाय) जीवनके उपाय (च) और (अभिभाविनाम् ) प्रजाको दुःख देनेवाले शत्रुओंका (अपायं) नाश (कुर्वन्तः) करनेवाले (राजानः) राजा लोग (खलु) निश्चयसे (हव्यवहायथा) हवनकी अग्निकी तरह (सेव्या) आदरसे सेवा करने योग्य हैं ॥१०॥ इति धर्मवचोऽप्यासीन्मर्मभितीन कर्मणः।। पित्तज्वरवतः क्षीरं तिक्तमेव हि भासते ॥५१॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । अन्वयार्थः-(तीव्रकर्मणः ) दुष्ट कर्मवाले काष्टाङ्गारको (इति) इस प्रकार (धर्मवचोऽपि) धर्मयुक्त वचन भी ( मर्मभित् ) मर्मछेदी (हृदय विदारक) (आसीत् ) हुआ अत्र नीति: (हि। निश्चयसे (पित्तज्वरवतः) पित्तज्वरवाले मनुष्यको (क्षीरं) मधुर दुग्ध (तिक्तमेव) कडुवा ही (भासते) लगता है ॥५१॥ स कातन्यादि दोषं च गुरुद्रोहं च । परैः । परिवादं च नाद्राक्षीत् दोषं नार्थी हि पश्यति॥५२॥ __अन्वयार्थः--(सः ) उसने ( कार्तघ्न्यादि दोषं ) कृतघ्नादि दोषोंको (च) और ( गुरुद्रोहं ) गुरुद्रोह करनेको ( न अद्राक्षीत् ) नहीं देखा। ( परैः किं ) और तो क्या ? ( परिवादं च नाद्राक्षीत् ) अपनी निंदाका भी विचार नहीं किया। अत्रनीति: (हि) निश्चयसे (अर्थी) स्वार्थी मनुष्य (दोष) दोषको (न पश्यति नहीं देखते हैं ॥१२॥ मथनो नाम तत्स्यालः तदाच बहमन्यत । तद्धि पाणौ कृतं दानं परिपन्थिविधायिनः ॥५॥ __अन्वयार्थः- ( मथनो नाम ) मथन नामके ( तत्स्थालः ) उसके सालेने ( तवाचं ) उसके वचन ( बहु अमन्यत ) बहुत माने - अत्र नोतिः (हि) निश्चयसे (तद्वचनं) उसके वचन (परिपन्थिविधायिनः) शत्रुता करनेवाले काष्टाङ्गारके (पाणौकृत) हाथमें आये हुए (दात्रमिव) हंसियेकी तरह (अभवत् ) होते भये । ५३।। प्रादेषीचबलं हन्तुं साजानं हन्त पापधीः। पयो थास्थगतं शक्थं पाननिष्ठीवनये ॥५४॥ अन्वयार्थः--(हन्त) खेद है ? (पापधीः) उस पापबुद्धिवाले Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । काष्टाङ्गारने (राजानं) रानाको (हन्तुं) मारनेके लिये (बलं) सेना (प्राहैषीत् ) भेनी अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (आस्यगतं) मुखमें गया हुआ (पयः' दुग्ध (पान निष्ठीवनद्वये ) पीने और वमन क्रिया द्वयमें (शक्यं) समर्थ (भवति) होता है ॥५४॥ दौवारिकमुखादतदुपलभ्य रुषा नृपः । उदतिष्टत संग्रामें न हि तिष्ठति राजसम् ॥ ५५ ॥ _अन्वयार्थः-(नृपः) रानाने (दौवारिक मुखात्) द्वारपालके मुखसे (एतद) यह (उपलभ्य) जानकर (रुषा) क्रोधसे (संग्रामे उदतिष्ठत् ) युद्धके निमित्त चेष्टा की अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (राजप्तम् न तिष्ठति) राजसी भाव स्थिर नहीं रहता (अपमान होने पर प्रगट हो ही जाता है) ॥१५॥ तावतार्धासानाष्टांनष्टासुं गर्भिणी प्रियाम् । दृष्टया पुनर्व्यवर्तिष्ट स्त्रीष्ववज्ञा हि दुःसहा ॥१६॥ ___अन्वयार्थः-परन्तु (तावता) उसी समय राना (अर्धासनात्) अर्धासनसे (भृष्टां) गिरि हुई अतएव (नष्टासु) गतपाणकी तरह (गर्भणी प्रियाम् ) गर्भवती अपनी प्यारी स्त्रीको (दृष्ट्वा) देखकर (पुनः) फिर (न्यवर्तिष्ट) उल्टा लौट आया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (स्त्रीष्ववज्ञा) स्त्रियोंके विषयमें अनादर व अपमान (दुःसहा) नहीं सहा जा सकता ॥५६॥ अबोधयच्च तां पत्नीं लब्धबोधो महीपतिः। तत्त्वज्ञानं हि.जागर्ति विदुषामातिसंभवे ॥ ५७ ॥ अन्वयार्थः--- (महीपतिः) पृथवीपति रानाने (लब्धबोधः सन् ) स्वयं सचेत होकर (तां पत्नी) उप्स अपनी स्त्रीको (अबोधयत्) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । सचेत किया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (आति संभवे) पोड़ाके होने पर (विपत्ति कालमें) (विदुषां) विद्वानोंका (तत्वज्ञानं जागयेव) सच्चा ज्ञान जागृत ही रहता है ॥ ५७ ॥ शोकेनालमपुण्यानां पापं किं न फलप्रदम् । दीपनाशे तमोराशिः किमाह्वानमपेक्षते ॥ ५८ ॥ अन्वयार्थः- राजा कहने लगा (शोकेन अलम् ) शोक नहीं करना चाहिये ? (अपुण्यानां) पुण्य रहित (पापी पुरुषोंका) (पापं) पाप (किं) क्या ? ( फल प्रदम् न ) फल देनेवाला नहीं होता किंतु (स्यादेव) होता ही है (किं) क्या (दीपनाशे) दीपकके नाश हो जाने पर (तमो राशिः) अन्धकारकी पति (आह्वानमपेक्षते) बुलानेकी अपेक्षा करती है किंतु (नापेक्षते) स्वयं आनाती है ॥२८॥ यौवनं च शरीरं च संपच्च व्येति नाद्भतम् । जलवुद्वदनित्यत्वे चित्रीया न हि तत्क्षये ॥ ५९॥ अन्ययार्थः- (यौवनं) जोवन (च) और (शरीरं) शरीर (च) और (सम्पत् ) धन ये सब (व्येति) नाशको प्राप्त होते हैं (अत्र अद्भुतं न) इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं ? (जलबुद्बदनित्यत्वे) पानीके वुल वुलेके बहुत देर तक ठहरनेमें (चित्रिया) आश्चर्य है (हि) निश्चयसे (तत्क्षये चित्रियान) उसके नाश होनेमें कोई अ-5 चरज नहीं है इसी प्रकार सांसारिक वस्तुके ठहरनेमे आश्चर्य है उसके क्षयमें नहीं ॥ ५९॥ संयुक्तानां वियोगश्च भविता हि नियोगतः। ' किमन्यैरङ्गतोऽप्यङ्गी निःसङ्गो हि निवर्तते ॥६० ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्ययार्थः--(संयुक्तानां) संयोगी पदार्थोंका ( नियोगतः ) अवश्य ही (वियोगः) वियोग (भविता) होता है। (अन्यैः किं) और तो क्या ? (अङ्गतः) इस शरीरसे ( अङ्गी अपि ) आत्मा भी (निः संगो निवर्तते) शरीरको छोड़कर चला जाता है ।। ५.॥ अनादौ सति संसारे केन कस्य न बन्धुता। सर्वथा शत्रुभावश्च सर्वमेतद्धि कल्पना ॥ ११ ॥ अन्ययार्थः-(संसारे ) संसारके ( अनादौ सति) अनादि होनेपर (कस्य) किसकी (केन) किसके साथ (बन्धुता शत्रुता च न) मित्रता और शत्रुता नहीं है अतएव किसीको ( सर्वथा शत्रु भावः मित्रभावश्च) सर्वथा शत्रु व मित्र समझना (सर्वमेतद्कल्पना) ये सब कल्पना मात्र ही है ॥ ६१ ॥ इति धर्य वचस्तस्या लेभे नैव पदं हृदि । दग्धभूभ्युप्तबीजस्य न ह्यकुरसमर्थता ॥६२॥ अन्वयार्थः--(इति) इस प्रकार (धर्म्यवचः) नीति युक्त वचनोंने (तस्याः) उस विजया रानीके (हृदि) हृदयमें (पदं) स्थानको (नैव) नहीं (लेभे) प्राप्त किया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (दग्धभू म्युप्त वीजस्य) जली हुई पृथ्वीमें बोए हुए बीजके अन्दर (अंकुर समर्थता न भवति) अंकुर पैदा होने की शक्ति नहीं होती है ॥६२॥ अयं त्वापन्नसत्वां तामारोप्य शिखियन्त्रकम् । स्वयं तद्भामयामास हन्त क्रूरतमो विधिः ॥६२॥ __अन्वयार्थः-(त) तदनन्तर (अयं) राजा (आपन्नसत्वां तां) गर्भवती उस रानीको (शिरिवयन्त्रकम् ) मयूर यन्त्रमें (आरोप्य) बिठला करके (हन्त) खेद है ? (स्वयं) अपने आप (तद्) उसको Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ प्रथमोलम्बः । (भ्रामयामास) घुमाता भया (अत्र नीतिः) (विधिः क्रूरतमः) पूर्वोपार्जित कर्म अत्यन्त कठोर होते हैं ॥ तात्पर्य कर्म रंक राजाक विचार नहीं करता सबको एकसा ही फल देता है ॥ ६३ ॥ वियतास्मिन्गते योढुं स मोहादुपचक्रमे । न ह्यङ्गुलिरसाहाय्या स्वयं शब्दायतेतराम् ॥६४॥ ___अन्वयार्थः-(अस्मिन् ) इस यन्त्रके (वियता गते) आकाश मार्गसे ऊपर चले जाने पर (सः) उस राजाने (मोहात् ) मोहके वशसे (योढुं) लड़ना (उपचक्रमें) प्रारम्भ किया। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (असाह्यांगुलिः स्वयं) अकेली उंगली अपने आप (नशब्दायते तराम्) शब्दको नहीं करती है अर्थात् विना निमित्तके लड़ाई नहीं होती है ॥ ६४ ॥ अथ युद्ध्वा चिरं योद्धा मुधा प्राणिवधेन किम् । इत्यूहेन विरक्तोऽभूद्त्यधीनं हि मानसम् ॥६५॥ ___ अन्वयार्थः-(अथ) तदनन्तर (योहा) योधा राजा (चिरयुवा) बहुत काल युद्ध करके (मुधा) निष्प्रयोजन (प्राणिवधेन) प्राणियोंकी हिंसासे. (किं) क्या फल है ? (इति उहेन) ऐसा विचार करके (विरक्तोऽभूत्) लड़ाईसे उदासीन हो गया अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गत्यधीनं मानसम्) गतिके अनुकूल ही मनके भाव होते हैं । अर्थात् निसको जिस गतिमें जाना होता है उसके मृत्युके समय वैसे ही भाव हो जाते हैं ॥ ६५ विषयासङ्गन्दोषोऽयं त्वयैव विषयीकृतः । सांप्रतं वा विषप्रख्ये मुश्चात्मन्विषये स्पृहाम् ॥६६॥ अन्ययार्थः-(हे आत्मन् ) हे आत्मा (अयं) इस (विषया Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । २३ सक्तिः दोषः ) विषयासक्ति दोषको ( त्वया एव) तूने ही (विषयी कृतः) प्रत्यक्ष कर लिया है अतएव (सांपतं वा ) अब तो ( विष प्रख्ये ) विषके समान ( विषये ) इन्द्रियोंके विषय में (स्टहां ) इच्छाको (मुञ्च) छोड़ दे ॥ ६६ ॥ भुक्तपूर्वमिदं सर्व त्वयात्मन्भुज्यते ततः । उच्छिष्टं त्यज्यतां राज्यमनन्ता वसुभृद्भवाः ॥६७॥ अन्ययार्थः - - और ( हे आत्मन् ) हे आत्मा ( इंद सर्व ) यह सब (भुक्त पूर्व) पूर्व जन्म में गे हुएको ( त्वया ) तू (भुज्यते) भोगता है ( अतः ) इस ये ( उच्छिष्टं राज्यं ) उच्छिष्ट राज्यको (त्वज्यतां ) त्याग दे अत्र नीतिः (हि) निश्च यसे (असुभृद्भवाः) जीवोंके भव (अनन्ताः) अनन्त (सन्ति) होते हैं। तात्पर्य - अनन्त् जन्मों में से बहुतसे जन्मों में इस जीवने राजसुख भोगा है इसलिये वह उच्छिष्टके समान है ॥ ६७ ॥ अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसृतिरन्यथा । ६८) (अन्वयार्थ :(यदि ) अगर (विषयाः) इन्द्रियोंके विषय (चिरं ) बहुत काल तक ( स्थित्वापि ) स्थिर रहकर भी ( अवश्यं ) अवश्य ( नश्यति) नाशको प्राप्त हो जाते हैं तो (स्वयं) स्वयं ही ( त्याज्यः) छोड़ देने चाहिये ( तथाहि ) ऐसा करने पर (मुक्तिः: स्यात्) आत्मा कर्म बन्धन से मुक्त होती है (छूट जाती है) (अन्यथा ) इसके विपरीत करने से (संसृतिरेव स्यात् ) संसार ही होता है ॥ ६८ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । त्यज्यते रज्यमानेन राज्येनान्येन वा जनः । भज्यते त्यज्यमानेन तत्त्यागोऽस्तु विवकिनाम् ॥१९॥ _अन्वयार्थः- (रज्य मानेन राज्येन अन्येन वा जनः) राग विषय कृत राज्य अथवा अन्य वस्तुसे मनुष्य त्यज्यने) छोड़ा जाता है (त्यज्यमानेन) त्याग विषयी कृत वस्तुसे (जनः) मनुष्य (भज्यते) सेवन किया जाता है (ततः) इसलिये (विवेकिनाम् ) विचारवान् पुरुषोंको (तद् ) उसका (त्यागोऽस्तु) त्याग करना ही उचित है। तात्पर्यः--मनुष्य जिस वस्तुकी इच्छा करता है वह वस्तु उसको प्राप्त नहीं होती है किन्तु अनिच्छित वस्तु प्राप्त हो जाती है अतएव महात्मा पुरुष सांसारिक पदार्थोंमें उदासीन ही रहते हैं ॥ ६९ ॥ इति भावनया राजा वैराग्य परमीयिवान् । त्यक्त्वा सडं निजाडु च दिव्यांसंपदमासदत् ॥७॥ अन्वयार्थः----(राजा) राजाने (इति भावनया) इस प्रकारकी भावनासे (परम् ) उत्कृष्ट (वरोग्य) वैराग्य (ईयिवान्) प्रान किया और फिर अन्तमें (सङ्ग) परिग्रह (निजाङ्गं च) और अपने शरीरको (त्यक्त्वा) छोड़कर (दिव्यां संपदं) स्वर्गसंबंधी ऐश्वर्यको (आसदत्) प्राप्त करता भया ॥ ७० ॥ पौराः जानपदाः सर्वे निर्वेदं प्रतिपेदिरे। पीडा ह्यभिनवा नृणां प्रायो वैराग्यकारणम् । ७१॥ _अन्वयार्थः-उस समय (सर्वे पौराः) सारे पुरवासी (च) और Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (जनपदाः) देशनिवासी (निर्वेदं) उदास और विरक्त पनेको (प्रतिपेदिरे) प्राप्त हुए ? अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (अभिनवा) नई तुरंतको (पीड़ा) पीड़ा (नृणां) मनुष्योंको (प्रायः वैराग्य कारणम्) प्राय: वैराग्यका कारण होती है अर्थात् यह एक नियमसा है कि संसारी लोग नई अच्छी या बुरी वार्तासे शीघ्र ही सुख और दुःखका अनुभवन किया करते हैं ॥ ७१ ।। अधिस्त्रि रागः क्रूरोऽयं राज्यं प्राज्यमसूनपि । तद्वञ्चिता हि मुश्चन्ति किं न मुञ्चन्ति रागिणः॥७२॥ अन्वयार्थः- (अयं) यह (अधिस्त्रिरागःस्त्री विषयक प्रेम वा अनुराग (क्रूरः) बड़ा क्रूर वा कठोर है (तद्वञ्चिता) उसके उगाये हुए मनुष्य (प्राज्यं राज्य) बड़े भारी राज्यको और (असूनपि) प्राणोंको भी (मुञ्चन्ति) छोड़ देते हैं ? सच है (रागिणः) रागी पुरुष (किं न) क्या नहीं (मुच्चन्ति) छोड देते हैं अर्थात् (सर्व मुञ्चन्ति) सबको छोड़ देते हैं ।। ७२ ॥ नारीजघनरन्ध्रस्थविण्मूत्रमयचर्मणा । वराह इव विभक्षी हन्त मूढः सुखायते ॥७३॥ ___अन्वयार्थः- (हन्त) खेद है ? (मूढः) मूर्ख जन (नारी जघन रंघस्थ विण्मूत्रमय चर्मणा) स्त्रियोंकी जंघाओंके छिद्रमें स्थित मलमूत्रसे भरे हुए चमड़ेसे (विड्भक्षी) विष्टा खानेवाले (वराह इव) शूकरकी तरह (सुखायते) सुखी होते हैं अर्थात् विषयासक्त मूर्ख जन निन्दनीक विषय भोगादिकमें भी आनन्द करते हैं ॥ ७३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्रथमोलम्बः । किं कीदृशं कियत्वेति विचारे सति दुःसहम् | अविचारितरम्यं हि रामासंपर्कजं सुखम् ॥ ७४ ॥ अन्वयार्थ : - वह सुख (किं) क्या है (कीदृशं) कैसा है ( कियत् ) कितना है (क) कहां है ( इति विचारे सति ) ऐसा विचार करने पर (दुःसहम् ) दुःसह हो जाता है अर्थात् (रामा संपर्क ) संगसे उत्पन्न (सुखं) सुख (अविचारितरम्यं) विना विचार के ही सुन्दर है || ७४ ॥ निवारिताप्यकृत्ये स्यान्निष्फला दुष्फला च धीः । कृत्ये तु नापि यत्नेन कोऽत्र हेतुर्निरूप्यताम् ॥७५ || अन्वयार्थ – (अकृत्ये ) बुरे काम में (निवारितापि ) निवारण किये जाने पर भी (धी:) बुद्धि (निष्फला) फल रहित (च) और (दुष्फला) बुरे फल वाली (स्यात्) प्रवृत्त होती है (तु) किन्तु ( कृत्ये अच्छे काममें ( प्रयत्नेन अपि ) प्रयत्न करने से भी (न) नहीं (प्रवर्तते) प्रवृत्त होती है। (अत्र हेतु निरूप्यतां ) कहो इसमें क्या हेतु है ? अर्थात् बुरे कामों में आत्माकी प्रवृति विना उपदेशके भी होजाती है किन्तु सत्कार्य में सदुपदेश मिलनेपर भी वैसी प्रवृति नहीं होती ॥ निश्चित्याप्यहेतुत्वं दुश्चित्तानां निवारणे । येनात्मन्निपुणो नासि तद्धि दुष्कर्मवैभवम् ॥ ७६ ॥ अन्वयार्थः - ( हे आत्मन् ) हे आत्मा ( दुचित्तानां) बुरे मानसीक विचारोंको (अधहेतुत्वं ) पापका कारण ( निश्चित्य) निश्चय Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । करके (अपि) भी (येन) जिस कारणसे (त्वं) तू (निवारणे) निवारण करनेमें (निपुणः) समर्थ (नासि) नहीं होता है (हि) निश्चयसे (तत् दुष्कर्म वैभवम् ) यह बुरे कर्मोका ही प्रभाव है। अर्थात् दुर्व्यसनोंका फल बुरा होता है ऐसा समझने पर भी आत्मा उनको छोड़ने में आस्.मर्थ दुष्कर्मके प्रभावसे ही होता है । ७६ ॥ हेये स्वयं सती बुद्धिर्थलेनाप्यसती शुभे। तहेतुकर्म तद्वन्तमात्मानमपि साधयेत् ॥ ७७॥ _ अन्वयार्थः- (बुद्धिः) बुद्धि (हेये) बुरे कार्यमें (स्वयं सती) अपने आप ही लग जाती है किन्तु (शुभेयत्नेनापि असती) अच्छे कामोंमें प्रयत्न करने पर भी प्रवृत्त नहीं होती ( तद्हेतु ) इस प्रवृत्तिसे बंधनेवाला (कर्म) कर्म ही (आत्मानं अपि) आत्माको कर भी (तद्वन्तं कुर्वन्ति) वैसा ही कर देता है ॥७७॥ कोऽहं कीदृग्गुणः कत्यः किंप्राप्यः किनिमित्तकः। इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मातिर्भवेत् ॥ ७८ ॥ ____ अन्वयार्थः- (अहं कः) मैं कौन हूं ? ( कीडग्गुणः) मुझमें कैसे गुण हैं ? (कृत्यः) मैं कहांसे आया हूं ? (किं प्राप्यः) क्या प्राप्त कर सकता हूं ? किं निमित्तकः) और मैं किस निमित्तके लिये हूं ? (चेत् ) यदि (इति उहः) इस प्रकार विचार ( प्रत्यहं नस्यात् ) प्रतिदिन नहीं होवे तो (हि) निश्चयसे (मतिः) मनुष्योंकी बुद्धि ( अस्थाने भवेत् ) अयुक्त स्थानमें प्रवृत्त हो जाती है ॥ ७८ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रथमोलम्बः । मुद्यन्ति देहिनो मोहान्मोहनीयेन कर्मणा । निर्मितान्निर्मिताशेषकर्मणा धर्मवैरिणा ॥ ७९ ॥ अन्वयार्थ - ( निर्मिता शेषकर्मणा ) सम्पूर्ण कर्मोका निर्माण करनेवाले (धर्मवैरिणा ) धर्मके शत्रु (मोहनीयेन कर्मणा ) मोहनीय कर्म से ( निर्मितात्) उत्पन्न (मोहातू) मोहसे (देहिनाम् ) प्राणी (मोहन्ति) अविवेकको प्राप्त होते हैं । अर्थात् यह मोहनीय कर्मका ही प्रभाव है कि आत्मा अपने स्वभावको भूलकर पर पदार्थमें लुभा रहा है || ७९ ॥ किं नु कर्तुं त्वयारब्धं किं नु वा क्रियतेऽधुना । आत्मन्नारव्यमुत्सृज्य हन्त बाह्येन मुह्यसि ॥ ८० ॥ अन्वयार्थः - ( हे आत्मन्) हे आत्मा (त्वया) तूने (किंनु कर्तुं आरब्धं क्या तो करनेके लिये आरंभ किया था और (अघुना किं नु क्रियते ) अब तू क्या कर रहा है ? ( हन्त ) बड़े खेदकी बात है कि (आरब्धं उत्सृज्य ) अपने प्रारंभ किये हुएको छोड़कर (बान) बाह्य पदार्थोंसे (मुह्यति) मोहको प्राप्त हो रहा है ॥ अर्थात् — कर्तव्यको छोड़कर अकृत्य में प्रवृत्ति करना अनुचित है ॥ ८० ॥ इदमिष्टमनिष्टं वेत्यात्मन्संकल्पयन्मुधा | किं नु मोमुह्य से बाह्ये स्वस्वान्तं स्ववशीकुरु ॥८१॥ अन्वयार्थः– (हे आत्मन् ) हे आत्मा ( इदं इष्टं वा अनिष्टं) यह इष्ट है अथवा अनिष्ट है (इति) इस प्रकार ( मुधा ) वृथा ( संकल्पयन् ) संकल्प करता हुआ (त्वं) तू (बाह्य) बाह्य पदा थमें (किंनु ) क्यों (मोमुह्यसे) मुग्ध हो रहा है इस लिये (स्वस्वा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । न्तं स्ववशी कुरु) अपने हृदयको अपने वशमें कर ॥ लोकद्वयाहितोत्पादि हन्त स्वान्तमशान्तिमत । न द्वेक्षि द्वे क्षिते मौख्यादन्यं संकल्प्य विद्विषम् ॥८२॥ अन्ययार्थः -- ( हन्त) बड़े खेदकी बात है (त्वं) तू ( लोकया हतोत्पादि ) इस लोक और परलोकमें अहित ( दुःख ) को उत्पन्न करने वाली ( अशान्तिमत् ) अशान्तिमय ( ते स्वान्तं ) अपने हृदयको (नद्वेक्षि ) द्वेष नहीं करता है किन्तु ( मौढ्यातू ) मूर्खतासे ( अन्यं) दूसरों को ( विद्विषम् संकल्प्य ) शत्रु, समझ कर (द्वेक्षि) द्वेष करता है ॥ ८२ २९ अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता । कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्तः कायेन चेदपि ॥८३॥ अन्दयार्थः—–(अन्यदीयं दोषं इव) दूसरोंके दोषोंके सदृश ( आत्मीयं) अपने ( अपि ) भी ( दोषं प्रपश्यता) दोषोंको देखने वाले पुरुषके (समः) समान (अयं ) यह (क) कौन ( खलु ) निश्व - यसे (कायेन युक्तः चेदपि ) कायसे युक्त होता हुआ भी (मृक्तः ) जीवन मुक्त है ॥ अर्थात् दूसरोंके दोषोंकी तरह अपने दोषोंको देखनेवाला ही सत्पुरुष कहलाता है ॥ ८३ ॥ इत्याहपरे लोके केकी तु वियता गतः । पातयामास राज्ञीं तां तत्पुरप्रेतवेश्मनि ॥ ८४ ॥ अन्वयार्थः — उस समय (इत्याद्यूहपरे) इस प्रकारके विचार में मग्न (लोके) वहांके लोगोंके होनेपर (वियता गतः ) आकाश में हुए (केकी) यन्त्रने ( तां राज्ञीं) उस विजया रानीको (तत्पुरु गये Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रथमोलम्बः । प्रेत वेश्मनि) उस नगरके बाहर श्मशानभूमि में पातयामास ) डाल दिया || ८४ ॥ जीवानां पापवैचित्र श्रुतवन्तः श्रुतौ पुरा । पश्येयुरधुनेतीव श्रीकल्पाभूदकिंचना ॥ ८५ ॥ अन्वयार्थ : – (पुरा) पूर्व काल में (श्रुतौ ) शास्त्रों में (जीवानां पापवैचित्री) जीवोंके पापोंकी विचित्रता ( श्रुतवन्तः) सुननेवाले पुरुष (अधुना) इस समय (पश्येयुः) देख लें कि ( इतीव हेतोः) इसी हेतुसे मानो ( श्री कल्पा ) लक्ष्मी के समान विजया रानी इस समय (अकिंचना अभूत्) जन धनसे निर्धन शून्य हो गई है ॥ ८५ ॥ क्षणनश्वरमभ्वैर्यमित्यर्थ सर्वथा जनः । निरणैषीदिमां दृष्ट्वा दष्टान्ते हि स्फुटा मतिः ॥ ८६ ॥ अन्वयार्थः - ( जनः ) मनुष्य ( ऐश्वर्यम् क्षणनश्वरम् ) राज सम्पति क्षण में नाश हो जाती है ( इत्यर्थ) इस अर्थको (इमां दृष्ट्वा ) रानीको देखकर (सर्वथा) सर्वथा (निर्णेषीत् ) निर्णय कर लें ? क्योंक (दृष्टान्ते) दृष्टान्त मिलने पर ( मतिः) बुद्धि (स्फुटा भवेत् ) विशद व निर्मल हो जाती है ॥ ८६ ॥ पूर्वान्हे पूजिता राज्ञी राज्ञा सैवापराहके । परेतभूशरण्याभूत्पापाद्विभ्यतु पण्डिताः ॥ ८७ ॥ ----- अन्वयार्थः -- (या राज्ञी ) जो रानी (पूर्वान्हे) प्रातः काल ( राज्ञा ) राजासे (पूजिता) पूजित थी ( सा एव) उस ही रानीने ( अपरान्ह के) मध्यान्ह काल में ( परेतभूशरण्या भूतू ) मसान भूमिका शरण लिया अत्र नीतिः अतएव (पापाद् ) पापसे (पण्डित लोग डरें । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । सा तु मूछीपराधीना सूतिपीडामजानती। मासि बैजनने सूनुं सुषुवे हन्त तद्दिने ॥ ८८॥ __अन्वयार्थ---(तु) तदनन्तर (हन्त) खेद है (तदिने) उसी दिन (वैजनने मासि) प्रसव मासमें (दशवें महीने में (मूर्छापराधीना सा) मूर्छाके आधीन उस रानीने (सूतपीडामजानती) प्रसूतकी पीड़ा नहीं जान कर (सूनुं सुपुवे) पुत्र नना (उत्पन्न किया)। तावता देवता काचिद्धात्रीवेषेण संन्यधात् । तत्रैव पुत्रपुण्येन पुण्ये किं वा दुरासदम् ॥ ८९ ॥ ____ अन्वयार्थः --- तावता) उसी समय (तत्रैव) वहां पर (पुत्र पुण्येन) पुत्रके पुण्यसे (काचिद् देवता) कोई देवी (धात्री वेषण) धायका वेष रखकर (संन्निधात् ) आई। अत्र नीतिः (पुण्ये किं) पुण्य रहने पर क्या ? (दुरासदम्) दुष्प्राप्य होता है (न किमपि) कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं होता है ॥ ८९ ॥ तां पश्यन्त्या अभूत्तस्या उदलः शोकसागरः। संनिधौ हि स्वबन्धूनां दुःखमुन्मस्तकं भवत् ॥१०॥ ____ अन्वयार्थः-(तां) उसको (पश्यत्या) देख रर (तस्याः) रानीका (शोकसागरः) शोकरूपी सागर ( उद्वेलः अभूत् ) उमड़ पड़ा) और बढ गया । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे ( स्ववंधूनां ) अपने बंधुओंके (संनिधौ) निकट होनेपर (दुःख) दुःख (उन्मस्तकं) भवेत् ) उन्मस्तक (पूर्वसे अत्यन्त अधिक) होजाता है ॥ ९ ॥ देवता तु समाश्वास्य जातमाहात्म्यवर्णनैः । ऊर्णादिदर्शनोद्भूतैर्देवी तामित्यवोचत ॥ ९१ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । अन्वयार्थः-(तु) तदनन्तर (देवता) देवीने (ऊर्णादि दर्शनोद्भुतैः) भोंके मध्यमें वालोंके ऊपर भौरी इत्यादिक अनेक चिन्ह दिखाकर (जातमाहात्म्यवर्णनै) बालकका माहात्म्य वर्णन करके (तां देवीं समाश्वास्य) उस रानीको विश्वास दिलाकर (इति अवोचत) इस प्रकार कहा ॥ ९१ ॥ पुत्राभिवर्धनोपाये देवि चिन्ता निवर्यताम् । क्षत्रपुत्रोचितं कश्चिदेनं संवर्धयिष्यति ॥ ९२ ॥ ___अन्वयार्थः- (देवि) हे देवी तू (पुत्राभिवर्धनो पाये) पुत्रकी वृद्धिके उपायमें (चिन्ता निवर्त्यताम् ) चिन्ता मत कर (कश्चित् ) कोई क्षत्रि पुत्रो चित) छत्रियोंके पुत्रोंके समान (एन) इसका (संवर्धयिष्यति) पालन पोषण करेगा ॥ ९२ ॥ इत्युक्ते कोऽपि दृष्टोऽभूदिसृष्टप्रेतसूनुकः। सुनुं सूनृतयोगीन्द्र वाक्यात्तत्र गवेषयन् ॥ ९३ ॥ ___अन्वयार्थः-(इत्युक्ते) ऐसा कहते ही (विस्टष्टप्रेतसुनकः) मसान भूमिमें रक्खा है मरे पुत्र को जिसने ऐसा और (सुनृत योगीन्द्रवाक्यात् ) सत्यार्थ मुनिके वचनसे (तत्रसूनुं गवेषयन्) वहां पर जीवित पुत्रको ढूंढ़ता हुआ (कोऽपि दृष्टः अभृत् ) कोई दिखलाई दिया ॥ ९३ ॥ तद्दर्शनेन तद्वाक्यं प्रमाणं निर्णिनाय सा । निश्चलादबिसंवादाबस्तुनो हि विनिश्चयः ॥ ९४ ॥ अन्वयार्थः-(सा) उस विनया रानीने (तदर्शन) उस सेठके देखनेसे (तद्वाक्यं) देवीके वचनोंको (प्रमाणं निर्णिनाय) ठीक प्रमाण समझा। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे निश्चलात्) (अविसंवादात्) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ३३ निश्चल (स्थिर) विसंवाद रहित वचनसे वस्तुनः) वस्तुका (विनिश्रयः) निश्चय होता है ॥ ९४ ॥ ततो गत्यन्तराभावादेवता प्रेरणाच्च सा । पित्रीयमुद्रयोपेत नाशास्यान्तरधात्सुतम् ॥ ९५ ॥ अन्वयार्थः ततः) तदनंतर (मा) वह रानी (गत्यतराभावात् ) और कोई उपाय न देखकर (च) और (देवता प्रेरणात् ) उस देवकी प्रेरणासे ( पित्रीय मुद्रयोपेतं ) पिताकी मुद्रासे युक्त ( सूतम् ) पुत्रको ( अशास्य) आशीर्वाद देकर (अन्तर्वान् ) छिप गई ॥ ९९ ॥ गन्धोत्कटोऽपि तं पश्यन्नात्पश्यनायकः । एधोन्वेषिजनदृष्टः किं वा न प्रीतये माणः ॥ ९६ ॥ अन्वयार्थः – (वैश्यनायकः, वैश्यों का मुखिया (गन्धोत्कटः अपि) गन्धोत्कट भी (तं) उप पुत्रको (पश्यत् ) देखकर (नातृपत् ) तृप्तताको प्राप्त नहीं हुआ। अत्र नीतिः एधोन्वेषिननैः) ईंधन ढूंढ़ने वाले मनुष्यों से (दृष्टः) देखी हुई (मणिः मणि (किंवा ) क्या (प्रोतये न भवति) प्रीतिके लिये नहीं होती है ? किन्तु (स्यादेव ) होती ही है अर्थात् छोटे मनुष्योंसे देखी हुई उत्तम वस्तु प्रीतिकर ही होती है ॥ ९६ ॥ हर्ष कण्टकिताङ्गोऽयमादधानस्तमङ्गजम् । जीवेत्याशिष प्राकर्ण्य तन्नाम समकल्पयत् ॥ ९७ ॥ अन्वयार्थः -- ( हर्ष कण्टकिताङ्गः ) हर्षसे रोमात है अङ्ग जिसका ऐसे (अयं) इस गन्धोत्कटने (तं अङ्गनं) उस पुत्रको Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । ( आदधानः ) उठाकर ( जीव ) जीव (इति आशिषम् ) ऐसी आशीर्वाद ( आकर्ण्य ) सुनकर ( तनाम समकल्पयत् ) जीवक वा जीवंधर उसका नाम रक्खा ॥ ९७ ॥ अमृतं सूनुमज्ञानात्संस्थितं कथमभ्यधाः । इति क्रुध्यन्स्वभार्यायै सानन्दोऽयमदात्लुतम् ॥१८॥ ___अन्वयार्थः- इसके पश्चत् उसने घर जाकर ( स्वभार्यायै ) अपनी स्त्रीके लिये ( अमृतं ) नहीं मरे हुए ( सूनुं ) बालकको ( अज्ञानात् ) अज्ञानसे तूने ( कथं ) कैसे ( संस्थितं ) मरा हुआ ( अभ्यधाः ) कह दिया ( इति क्रुध्यन् ) ऐसा कह कर क्रोव करता हुआ (सानन्दः अयं) आनन्द सहित इसने (सुतं अदात्) पुत्रको उसे सोंप दिया ॥ ९८ ॥ अभ्यनन्दीत्सुनन्दापि नन्दनस्यावलोकनात् । प्राणवपीतये पुत्रा मृतात्पन्नास्तु किं पुनः ॥ ९९ ॥ अन्वयार्थ:-- ( सुनन्दा अपि ) वैश्यकी स्त्री सुनन्दा भी ( नन्दनस्य ) पुत्रको ( अवलोकनात् ) देखनेसे ( अभ्यनन्दीत ) अत्यन्त आनन्दित होती भई । अत्र नीतिः (ही) निश्चयसे (पुत्रः) पुत्र ( प्राणवत् )प्राणोंकी तरह ( प्रीतये भवन्ति ) प्रीतिके लिये होते हैं (तु) और जो ( मृतोत्पन्न: किं पुनः वक्तव्यः ) पुत्र मर कर फिर जन्म धारण करते हैं ! उनका तो कहना ही क्या है ॥ ९९ ॥ देवता जननीमस्य बन्धुवेश्मपराङ्मुखीम् । दण्डकारण्यमध्स्थमनैषीत्तापसाश्रमम् ॥ १० ॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः- ( देवता ) वह देवी ( बन्धुवेश्मपराङ्मुखीं) बन्धुओंके घर जानेसे विमुख ( अस्य जननीं) इस जीवंघरकी माताको (दण्डकारण्यमध्यस्थ) दण्डक वनके मध्यमें स्थित (तापसाश्रमम्) तपस्वियोंके आश्रममें (अनैषीत) पंहुचाती भई ॥१०॥ कृत्वा च तां तपस्यन्ती सतोषा सा मिषादगात् । समीहितार्थसंसिद्धौ मनः कस्य न तुष्यति ॥१०॥ ____ अन्वयार्थः-इसके पश्चात् (तां) उस रानीको (तपस्यन्ती) तपश्चरण क्रियामें लगा करके (सतोषासा) संतुष्ट वह देवी किसी (मिषात् ) बहानेसे (अगातू) चलोगई। अत्र नीतिः (समीहितार्थस सिहौ) मनोमिलषत अर्थके सिद्ध हो जाने पर ( कस्य मनः) किसका मन ( न तुष्यति ) संतुष्ट नहीं होता है ? किन्तु (संतुष्य त्येव) संतुष्ट ही होता है ॥ १०१ ॥ अवात्सीद्राजपत्नी च वत्सं निजमनोगृहे। सिनपादाम्बुजं चैव ध्यायन्ती हन्त तापसी ॥१०॥ ___अन्वयार्थः-(हन्त) खेदक़ी बात है ? (तापसी) तपस्विनी (राजपत्नो) रानाकी स्त्री विनया पट्टरानी (निन पादाम्बुज) निनेन्द्रके चरण कमलोंको (ध्यायन्ती) ध्यान करती हुई (निजमनोगृहे) आने मनरूपी घरमें (वत्सं एव) जीवंधर पुत्रको ही (अवात्सीत) निवास कराती भई ॥ १०२॥ अनल्पतूलतल्पस्थसवृन्तप्रसवादपि। निर्भरं हन्त सीदन्त्यै दर्भशय्याप्यरोचत ॥ १०३ ॥ अन्वयार्थः--और (हन्त) बड़े खेदकी बात है ? (अनल्प Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । तूलतल्पस्थसवृन्तप्रसवाद् अपि) बहुतसी रूईके बिछे हुये हैं गद्दे जिस पर ऐसी शय्याके ऊपर पड़े हुए डोड़ी सहित पुष्पोंसे भी (निर्भरं) अत्यन्त (सीदन्तये) शरीर में क्लेश मानने वाली रानीके लिये आज ( दर्भशय्या अपि ) डामकी चटाई भी ( अरोचत ) रुचिकर हुई है || १०३ ॥ ३६ स्वहस्तलूननीवारोऽप्याहारोऽस्याः परेण किम् । अवश्यं ह्यनुभोक्तव्य कृतं कर्म शुभाशुभम् ॥ १०४॥ अन्वयार्थ:-- ( परेण किं ) और तो क्या ? ( स्वहस्तलूननीवारः अपि ) अपने हाथसे काटा हुआ नीवार धान्य भी (अस्याः ) इसका ( आहार : अजनि ) आहार हुआ । अत्र नीति: ( पूर्वकृतं) पूर्वमें किये हुए (शुभाशुभम् कर्म ) शुभ वा अशुभ कर्म ( अवश्यं अनुभोक्तव्यं) अवश्य ही भोगने पड़ते हैं ॥ १०४ ॥ अथ गन्धोत्कटायार्थमर्भ कार्य महोत्सवम् । आत्मार्थं गणयन्मूढः काष्ठाङ्गारोऽप्यदान्मुदा ॥ १५ ॥ अन्वयार्थः - (अथ) तदन्तर ( मूढः ) मूढ (काष्टाङ्गारः) काष्टाकारने ( अर्मकार्थं महोत्सवम् ) बालकके जन्मके महोत्सवको ( आत्मा ) अपने लिये (मेरे राजा होने से इसने यह महोत्सव किया है ) ( गणयन् ) समझ कर उसने (गन्धोत्कटाय ) गन्धोत्कट सेठके लिये (मुद्रा) हर्षसे (अर्थ) धन ( अदात् ) दिया ॥ १०५ ॥ तत्क्षणे तत्पुरे जाताञ्जातानपि तदाज्ञया । लब्ध्वा वैश्यपतिः पुत्रं मित्रैः सार्धमवर्धयत् ॥ १०६ ॥ अन्वयार्थः - ( वैश्यपतिः ) वैश्योंमें प्रधान गन्धोत्कटने Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (तत्क्षणे ) उस दिन (तत्पुरे जातान् ) उस पुरमें उत्पन्न हुए ( जातान् ) बालकोंको (तदाज्ञया) काप्टाङ्गारकी आज्ञासे (लमा प्राप्त करके (मित्रैः सार्ध ) उन मित्रोंके साथ (पुत्रं अवर्धयत् ) पुत्रको वढाया ॥ १०६ ॥ अथ जातः सुनन्दाया नन्दाढ्यो नामनन्दनः । तेन जीवंधरो रेजे सौभ्रात्रं हि दुरासदम् ।। १०७।। _अन्वयार्थः-(अथ) तदनन्तर (सुनन्दायाः) गंधोत्कटकी स्त्री मुनन्दाके (नन्दाव्यः नाम नन्दनः) नंदाव्य नामका पुत्र ( जातः) उत्पन्न हुआ (तेन) उस पुत्रसे (जीवन्धरः) जीवन्धर (रेजे ) और शोभित होते भये । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे ( सौभ्रात्रं दुरासदम्) अच्छे भाईका मिलना बड़ा कठिन है ॥ १०७ ॥ एवं सहन्धुमित्रोऽयमेधमानो दिनेदिने । अतिशेते स्म शीतांशुमकलङ्काङ्गभावतः ॥ १०८ ।। ___अन्वयार्थः-(एवं) इस प्रकार (सहन्धुः मित्रः अयं) श्रेष्ठ वधु और मित्र हैं निसके ऐसे यह जीवंधर कुमार (दिने दिने) प्रतिदिन ( एधमानः ) बढते हुए ( अकलङ्काङ्गभावतः ) निर्दोष शरीरकी कान्तिसे (शीतांशु ) चन्द्रमाको ( अतिशेते स्म ) जीतते मये ॥ १०८ ॥ ततः शैशवसंभूष्णुसर्वव्यसनदरगः । पञ्चमं च वयो भेजे भाग्ये जाग्रति का व्यथा ॥१०९॥ ___अन्वयार्थः- ( ततः ) तदनन्तर (शैश्वसंभूष्णुसर्वव्यसन दूरगः) बालक अवस्थामें होनेवाले सम्पूर्ण व्यसनोंसे रहित हो Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । हुए जीवंधर कुमारने (पञ्चमं वयो भेजे) पांचवें वर्षकी अवस्था प्राप्त की। अत्रनीतिः (भाग्ये) भाग्यके (जाग्रति सति) जागृत रहने पर (का व्यथा) कौन पीड़ा हो सकती हैं ? अर्थात् (अपि तु न कमपि) कोई भी नहीं हो सकती ॥ १०९॥ अथानर्थकमव्यक्तमतिहृद्यं च वाङ्मयम् । मुक्त्वातिव्यक्तगीरासीत्स्वयं वृण्वन्ति हि स्त्रियः११० ___ अन्वयार्थः-(अथ) तदनन्तर (अनर्थक) अर्थ शून्य (अव्यक्त) अस्पष्ट शब्दवाली (च) और (अतिहा) अत्यन्त मनोहर (वाङ्मयम् ) बालक अबस्थाकी तौतली भाषाको ( मुक्त्वा ) छोड़कर जीवंधरकुमार ( अतिव्यक्तगीः आसीत् ) अत्यन्त स्पष्ट भाषी हुआ । अत्र नीतिः (ही) निश्चयसे (स्त्रियः स्वयं वृण्वन्ति) स्त्रियें अच्छे पतिको स्वयं वर लेती हैं । अर्थात् अस्पष्ट सुसंस्कृत वाणीने जीवंधर स्वामीका आश्रयण किया ॥ ११० ॥ आचायकवपुः कश्चिदार्यनन्दीति कीर्तितः।। • आसीदस्य गुरुः पुण्याद्गुरुरेव हि देवता ॥ १११॥ ___ अन्वयार्थः-उस समय ( कश्चिद् आचार्यएकवपुः ) कोई भाचार्यको पदवीको प्राप्त और (आर्यनन्दीति कीर्तितः) आर्यनन्दी इस नामसे प्रसिद्ध ( अस्य पुण्यात् ) इस जीवंधरके पुण्यसे (गुरु आसीत्) गुरु हुए। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गुरु एव देवता) गुरु ही देवता है ॥ १११ ॥ निष्प्रत्यूहेष्टसिद्ध्यर्थ सिद्धपूजादिपूर्वकम् । सिडमातृकया सिडामथ लेभे सरस्वतीम् ॥११२॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ३९ अन्वयार्थः——(अथ) तदनन्तर कुमार (निष्प्रत्यूहेष्ट सिध्यर्थं ) निर्विघ्न इष्ट सिद्धिके लिये ( सिद्ध पूजादि पूर्वकम् ) सिद्ध परमे - ष्टीकी पूजा करके ( सिद्धभातृकया सिद्धां ) अनादि स्वर व्यंजन मात्राओंसे प्रसिद्ध ( सरस्वर्ती) सरस्वतीको ( लेभे ) प्राप्त करते भये ॥ ११२ ॥ इति श्री वादीभसिंह सूरि विरचते क्षत्रचूगामणौ सान्वयार्थी सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्बः ॥ इति अथ द्वितीयो लम्बः ॥ अथ विद्यागृहं किंचिदासाद्य सरिवमण्डितः । पण्डिताद्विश्वविद्यायामध्यगीष्टातिपण्डितः ॥ १ ॥ अन्वयार्थ :- (अथ) तदनन्तर (सरिवमण्डितः ) मित्रगणोंसे भूषित जीवंधरकुमारने किंचित् विद्यागृह) किसी विद्यालयको (आसाद्य) प्राप्त करके (विश्वविद्यायां पंडितात्) सम्पूर्ण विद्याओं में पण्डित गुरुसे (अध्यगीष्ट) पढ़ा (पश्चात् ) पश्चात् (अतिपण्डितः वभूव ) बड़ा भारी पण्डित हुआ ॥ १ ॥ तस्य प्रश्रयशुश्रूषाचातुर्याद्गुरुगोचरात् । स्मृता इवाभवन्विद्या गुरुस्नेहो हि कामसूः ॥ २ ॥ अन्वयार्थः- (तस्य) उसको (गुरुगोचरात्) गुरुके विषय में ( प्रश्रय शुश्रूषाचातुर्याद्) विनय सेवा शुश्रुषा और चतुराईकी Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । प्रगटतासे ( विद्या स्मृता इव ) विद्यायें यादकी तरह ( अभवन् ) आ गई । अर्थात् जिस प्रकार भूली हुई वस्तु याद आ जाती हैं उसी तरह उसे विद्यायें प्राप्त हो गई ! अत्र नीतिः (ही) निश्चयसे (गुरुस्नेहः कामसूः) गुरुका प्रेम सम्पूर्ण इच्छाओंको पूरा करनेवाला होता है ॥ २ ॥ अनुनावकमेवात्र जीवलोके विपश्चितः । इति निश्चयतः मृरिः सुतरां प्रीतिमवजत् ॥ ३ ॥ __अन्वयार्थः--(अत्र जीवलोके) इस संसार में (विपश्चितः) जितने पण्डित हैं वे सब जीवकं अनु एव) जीवंधरसे हीन (कम योग्यताके) ही हैं ( इति निश्चयतः) ऐपा निश्चय होनेसे (सूरिः ) पढानेवाले आचार्य ( सुतरां प्रतिं ) स्वयमेव उस पर प्रसन्न (अवनत् ) होते भये ॥ १०३ ।। आत्मकृत्यमकृत्यं च सफलं प्रीतये नृणाम् । किं पुनः श्लाघभूतं तम्कि विद्यास्थापनात्परम् ॥४॥ अन्वयार्थ:-- ( नृणाम् ) मनुष्योंको ( आत्मकृत्यं ) अपना कार्य (अकृत्यं च) बुरा भी (सफलं) सफल होने पर ( प्रीतये ) प्रीतिकर (भवति) होता है तो फिर (श्लाध्यभूतं ) अच्छा काम (किं पुनः वक्तव्यं) क्यों अच्छा नहीं लगेगा ? लगेगा ही, उसमें भी ( विद्या स्थापनात्परं तत्किं) विद्या स्थापनसे (विद्यादानसे बढ कर) और दूसरा कौन अच्छा काम है ? (कोई भी अच्छा काम नहीं ह) ॥ ४ ॥ अथ प्रसन्नधीः सूरिरन्तेवासिनमेकदा । एकान्ते हि निजप्रान्तमावसन्तमचीकथत् ॥५॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। अन्वयार्थ? --- ( अथ ) इसके अनंतर ( एकदा ) एक दिन (प्रसन्नधी:) प्रसन्नचित्त ( सूरिः ) गुरुने (निन प्रान्तं आवसन्तं ) अपने पास रहनेवाले (अन्तेवासिन) शिष्यसे (एकान्ते) एकान्तमें (अचीकथत् ) कहा ॥ ५ ॥ श्रुतशालिन्महाभाग श्रूयतामिह कस्यचित् । चरितं चरितार्थेन यदत्यर्थ दयावहम् ॥ ६ ॥ ___ अन्वयार्थ---(श्रुतशालिन्महाभाग) हे शास्त्रज्ञानसे शोभित उत्तम भाग्यवाले ! (इह) इस लोकमें प्रसिद्ध (कस्यचित् ) किसीके (चरित) चरित्रको ( श्रूयतां ) सुनो ! ( यत् चरितं ) जो चरित्र (चरितार्थन) सुननेसे (अत्यर्थ) अत्यंत ( दयावहम् ) दया करनेवाला है ॥ ६ ॥ विद्याधरास्पदे लोके लोकपालाह्वयान्वितः । लोकं वैपालयन्भूपः कोऽपि कालमजीगमत् ॥७॥ ___ अन्वयार्थः---( विद्याधरास्पदेलोके ) विद्याधरोंका है स्थान जिसमें ऐसे लोकमें (ल कपालाह्वयान्वितः) लोकपाल है नाम जिसका ऐसा (कोऽपि भूपः) कोई राजा र लोकं वैपालयन् ) प्रजाका पालन करता हुआ (कालं अनीगमत) कालको विताता भया ॥ ७ ॥ क्षणक्षीणत्वमैश्वर्ये क्षीबाणामिव बोधयत् । क्षेपीयः पश्यतां नश्यदभ्रमैक्षिष्ट सोऽधिराट् ॥८॥ अवधार्थ-एक दिन (सः अधिराट् ) उस राजाने (क्षीवाणां) धनोन्मत्त पुरुषोंको (ऐश्वर्य) ऐश्वर्यमें (क्षणक्षीणत्वं) क्षण मात्रमें नष्ट हो जाता है ? (इति) ऐसा (बोधयत् ) बोध करानेवालेके सदृश Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः । और (पश्यतां अग्रे ) देखने वालोंके अगाड़ी (क्षेपीयः नश्यत् ) शीघ्र ही नाश होनेवाले (अ) मेघको (ऐक्षिष्ट) देखा ॥ ८ ॥ तद्वीक्षणेन वैराग्यं विजजृम्भे महीभुजः । पम्फुलीति हि निर्वेगो भव्यानां कालपाकतः ॥ ९ ॥ अन्वयार्थः - (तद्वीक्षणेन) उस मेघको देख कर (महीभुजः ) राजाको (वैराग्यं ) वैराग्य ( विजजृभ्मे) उत्पन्न हो गया । अत्र नीतिः (ही) निश्चय से ( भव्यानां ) भव्य पुरुषोंके ( कालपाकतः ) काल लब्धके आजाने पर ( निर्देगः) निर्देग (सांसारिक विषयोंमें उदासीनता) भाव (पम्कुलीति ) अतिशयता से प्रगट हो जाता है । अर्थात् समय आजाने पर भव्य आत्माओं का कार्य शीघ्र सिद्ध हो जाता है ॥ ९ ॥ - ४२ ततोऽयं पुत्रनिक्षिप्तराज्यभारः क्षितीश्वरः । जैनीं दीक्षामुपादत्त यस्यां कायेऽपि यता ॥ १० ॥ अन्वयार्थ : - (ततः) इसके पश्चात् (पुत्रनिक्षिप्तराज भारः ) पुत्रके ऊपर छोडा है राज्यभारको जिसने ऐसे (अयं क्षितीश्वरः) इस राजाने (जैनीं दीक्षां) जैनीकी दीक्षा ( उपादत्त ) धारण की ! (यस्यां ) जिस दीक्षा के अंदर (कायेऽपि ) शरीर में मी (हेयता) त्याग बुद्धि होती है ॥ १० ॥ तपांसि तप्यमानस्य तस्य चासीदहो पुनः । भस्मकारूपो महारोगो भुक्तं यो भस्मयेत्क्षणात् । ११ । अन्वयार्थः -- ( पुनश्च ) और फिर (अहो ) खेद है ! (तपांसि तप्यमानस्य) तपको तपते हुए (तस्य) तपस्वी उस राजाको ( भस्म Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। काख्यः) भस्मक नामका (महारोगः) महारोग (आसीत् ) उत्पन्न हुआ (यः) जो रोग (भुक्तं) खाये हुए अत्यंत पौष्टिक पदार्थोंको भी (क्षणात ) क्षण मात्रमें (भस्मयेत् ) भस्म कर देता है ।॥ ११ ॥ न हि वारयितुं शक्यं दुष्कर्माल्पतपस्यया । विस्फुलिङ्गेन किं शक्यं दग्धुमाईमपीन्धनम् ॥१२॥ ___ अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (अल्प तपस्या) थोडीसी तपस्याके द्वारा (दुष्कम) खोटा कर्म (निवारयितुं ) निवारण करनेके लिये कोई भी ( न शक्यं ) समर्थ नहीं हो सकता ? (किं) क्या (विस्फुलिङ्गेन) अग्निकी जरासी चिंगारीसे (आर्द्र इन्धनम् ) गीला ईन्धन (दग्धुं शक्यं ) जलनेके लिये. समर्थ है ? ( अपि तु दग्धं न शक्यं ) अर्थात् जलनेके लिये समर्थ नहीं है ॥ १२ ॥ अशक्तैयव तपः सोऽयं राजा राज्यमिवात्यजत् । श्रेयांसि बहुविध्नानीत्येन्नह्यधुनाभवत् ॥ १३ ॥ ____ अन्वयार्थः-(मः अयं राजा) उस इस राजाने (अशक्त्या एव) शक्ति हीनपनेसे (राज्यमिव) राज्यकी तरह (तपः अत्यजत्) तप करना छोड़ दिया। अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (श्रेयांसि बहु विघ्नानि) कल्याणकारी कार्य बहुत विनवाले ( भवंति) होते हैं (इति एतद् अधुना न अभवत् ) यह किंवदंती अभी ही नहीं हुई ! किंतु पहलेसे चली आती है ॥ १३ ॥ तपसाच्छादितस्तिष्ठन्स्वैराचारी हि पातकी । गुल्मेनान्तहितो गृह्णन्विष्करानिव नाफलः ॥ १४॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रथमोलम्बः । अवर्तिष्ट यथे स पाषण्डितपसा पुनः । चित्रं जैनी तपस्या हि स्वैराचारविरोधिनी ।। १५ ।। युग्मम् अन्वयार्थ : - (पुनः) इसके पश्चात् ( स ) वह (स्वैराचारी पातकी) स्वेच्छाचारी पापी पुरुष ( गुल्मेनांतर्हितः ) छोटे वृक्षसे छिपे हुये (विष्करान् गृह्णन् ) चिड़ियों को पकडनेवाले (नाफल इव) व्याधके सदृश (तपसाच्छादितः तिष्ठन् ) झूठे तपसे आच्छादित होता हुआ अर्थात् तपके बहाने से ( पाषण्ड तपसा ) पाखण्ड तपके द्वारा (यथेष्टं ) इच्छानुसार इधर उधर (अवर्तिष्ट) घूमता भया । अत्रनीतिः (चित्र) आश्चर्य है ? (हि) निश्चय से (जैनी तपस्या) जैन धर्मके अनुकूल तपश्चरण (स्वैराचारविरोधनी) स्वच्छंद आचरणका विरोधी है ॥ १५ ॥ अथ भिक्षुर्बुभुक्षुः सन् गन्धोत्कटगृहं गतः । उपतापरुजोऽप्येष धार्मिकाणां भिषक्तमः ॥ १६ ॥ अन्वयार्थ : ( अथ ) तदनंतर (भिक्षु ) भिक्षुक ( बुभुक्षुः सन् ) भूख से पीड़ित होता हुआ (गंधोलट गृहं गतः) गंधोत्कट सेठके घर गया । तो भी (एषः) यह तापसी ( उपताप रुजः अपि) रोगसे पीड़ित होता हुआ भी (धार्मिकाणां ) धर्मात्मा पुरुषोंका (भिषक्तमः) उत्तम वैद्यथा ॥ १६ ॥ धार्मिकाणां शरण्यं हि धार्मिका एव नापरे । अहेर्न कुलवत्तेषां प्रकृत्यान्ये हि विद्विषः ॥ १७ ॥ अन्वयार्थः - (हि) निश्चय से (धार्मिकाणां ) धार्मिक पुरुषोंके (शरण्यं) रक्षक (धार्मिकाएव) धार्मिक पुरुष ही होते हैं (अपरे न ) Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूडामणिः । ४५ दूसरे नहीं । और ( अन्ये) दुर्जन पुरुष (तेपां ) सज्जन पुरुषोंके ( अहे : नकुलवत् ) सर्पनोलेके सदृश ( प्रकृत्याः ) स्वभावसे (विद्विषः) शत्रु होते हैं ॥ १७ ॥ तत्र मध्येगृहं भिक्षुरद्राक्षीत्पुत्रपुंगवम् । अङ्गत्वां त्वं च तं वीक्ष्य तद्दुभुक्षामलक्षयः ॥ १८ ॥ अन्वयार्थः -- (तत्र ) वहां पर ( भिक्षुः ) भिक्षुकने (गृहं मध्ये) गृहके मध्य में (हे अङ्ग) हे अङ्ग (पुत्रपुङ्गवम् ) पुत्रों में श्रेष्ठ त्वां ) तुमको (अद्राक्षीत् ) देखा (च) और ( त्वं ) तुमने ( तं वीक्ष्य ) उसको देख करके ( तद् बुभुक्षां ) उसकी भूख को (अलक्षयः ) जान लिया ॥ १८ ॥ भोक्तुमारभमाणस्त्वं पौरोगवमचीकथः । भोज्यतामयमित्येष पुनरेनमबूभुजत् ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ -- ( भोक्तुं आरभमणः ) भोजन करनेके लिये प्रवृत्त ( त्वं ) तुमने ( अयं भोज्यतां ) इनको भोजन कराओ ( इति पौरो वम् ) ऐसा रसोइयेसे ( अचीकथः) कड़ा (पुनः) फिर ( एषः ) इस रसोइयेने (एनं ) इनको ( अबुभुज ) भोजन कराया ॥ १९ ॥ अन्नस्तद्गृह संपन्नै भूत्तत्कुक्षिपूरणम् । अहो पापस्य घोरत्वमाशाब्धिः केन पूर्यते ॥ २० ॥ अन्वयार्थः —— (तद्गृहसम्पन्नैः) उस घर में तैयार (अन्नैः) अन्नसे (तत्कुक्षि पूरणम् ) इस भिक्षुककी उदरपूर्ति (न अभूत् ) नहीं हुई अत्र नीतिः (अहो ) अहो । पापस्य घोरत्वं ) ( पापका भयंकर पना कैसा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रथमोलम्बः । है ? ( आशान्विः ) आशासमुद्र (केन पूर्यते ) किससे पूर्ण हो सकता है ॥ २० ॥ अभुञ्जानस्त्वमाश्चर्यादासीनोऽस्मै वितीर्णवान् । कारुण्यादस्य पुण्याद्वा करस्थं कवलं मुदा ।। २१ ।। अन्वयार्थः~~~(अभुआनः ) नहीं भोजन करते हुए और (आश्चर्याद् आसीनः) आश्चर्य से बैठे हुए (त्वं) तुमने ( कारुण्यात् ) करुणासे (वा अस्य पुण्यात्) अथवा इसके पुण्यसे ( करस्थं) हाथ में रक्खे हुए (कवलं ) ग्रासको (मुदा) हर्षसे (अस्मै) इसे (वितीर्णवान् ) देदिया ॥ २२ ॥ वर्णिनो जठरं पूर्ण तदास्वादनतः क्षणात् । आशान्धिरिव नैराश्यादहो पुण्स्य वैभवम् ॥ २२ ॥ अन्वयार्थः – जैसे (नैराश्यात्) निराश पनेसे ( आशाब्धिरिव) आशा रूपी समुद्र पूर्ण हो जाता है उसी तरह (वर्णिन: जठरं ) उस तपस्वीका उदर ( तदास्वादनतः) उसके स्वाद मात्र से ( क्षणात् पूर्ण अभूत) क्षण मात्रमें पूर्ण हो गया ( अहो ) अहो ( पुण्यस्य वैभवम् ) पुण्यकी बड़ी सामर्थ्य है ॥२२॥ -परिव्रापि संप्राप्य सौहित्यं तत्क्षणे चिरात् । महोपकारिणोsस्पाहं किं करोमीत्यचिन्तयत् ॥ २३ ॥ अन्वयार्थ : - (परिव्राडपि) तपस्वीने मी ( तत्क्षणे ) उसी समय (चिरात् ) बहुत कालके पश्चात् (सौहित्यं संप्राप्य ) रोगनिवृति ( स्वास्थता ) को प्राप्त करके ( अस्य महोपकारिणः ) इस महोपकारीका (अहं) मैं ( किं करोमि ) क्या उपकार करूं (इति -अचिन्तयत् ) ऐसा विचार किया ॥ २३ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अपश्चिमफलां विद्यां निश्चित्यात्र प्रतिक्रियाम् । आयुष्मन्तमसौ पश्चाद्विपश्चितमकल्पयत् ॥ २४ ॥ अन्वयार्थ : – (पश्चाद् असौ) फिर इसने (अपश्चिम फलां विद्यां ) उत्कृष्ट फरवाली विद्याको ( अस्य प्रतिक्रियाम्) इसका प्रत्युकार ( निश्चित्य ) निश्चय करके ( आयुष्यन्तं ) चिरजीवी जीवन्धरको ( विपश्चितं अकल्पयत् ) विद्वान बना दिया ॥ २४ ॥ विद्या हि विद्यमानेयं वितीर्णापि प्रकृष्यते । नाकृष्यते च चोराद्यैः पुष्यत्येव मनीषितम् ॥ २५ ॥ अन्वयार्थ :- (हि) निश्चय से (विद्यमान भी ( इयं विद्या ) यह विद्या ( वितीर्णापि ) दुसरेके लिये दी हुई भी ( प्रकृष्यते ) वृद्धिको प्रप्त होती है और यह (चौराद्यैः) चोरोंसे (न आकृष्यते) नहीं चुराई जा सकतीं प्रत्युत ( मनीषितं ) इच्छित कार्यको ( पुष्यति एव) पुष्ट करती है ॥ २५ ॥ वैदुष्येण हि वंश्यत्वं वैभवं सदुपास्यता । सदस्यतालमुक्तेन विद्वान्सर्वत्र पूज्यते ॥ २६ ॥ अन्वयार्थः -- (हि) निश्चयसे (बैदुष्येण पाण्डित्य वाविद्यासे (वंश्यत्वं) कुलीनता, (वैभवं ) प्रभुत्व, (सदुपास्यता) सज्जन पुरुषोंसे पूज्यपना और (सदस्यता) सज्जनता होती है (उक्तेन अलं) बहुत कहने से क्या (विद्वान् सर्वत्र पूज्यते) बुद्धिमान पुरुष सब जगह पूजा जाता है ॥ २६ ॥ वैपश्चित्यं हि जीवानामाजीवितमनिन्दितम् । अपवर्गेऽपि मार्गोऽयमदः क्षीरमिवौषधम् ॥ २७ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमोलम्बः। · अन्वयार्थः-(हि ) निश्चयसे ( जीवानां ) मनुष्यों का (वैपश्चित्यं) पाण्डित्य (आजीवतम् ) जीवनपर्यन्त ( अनिन्दितम् ) प्रशंसनीय है और (अयं) यह (आवर्गे अपि मार्गः) मोक्षका भी मार्ग है ? ( अदः क्षीरं औधिं इव ) जैसे दूध शरीर पुट करने वाला होता हुआ भी औषधी है ॥ २७ ॥ इत्युदन्तं गुरोः श्रुत्वा शिष्यो नोत्तरमूचिवान । स्ववाचा किंतु वक्रेण शैष्योपाध्यायिका हि सा २८ अन्वयार्थ:- शिप्यः) शिष्यने (इति गुरोः उदन्तं) इस प्रकार गुरू के वृतान्तको ( श्रुत्वा ) सुनकरके (स्वः वाचा नोत्तरं उचिवान् ) उसने अपनी वाणोसे उत्तर नहीं दिया किंतु (वक्त्रेण एव) मुखकी चेष्टा से ही (उत्तरं ऊचिवान् ) उत्तर दिया । अत्र नीतिः (हि ) निश्चयसे ( सा एव शैप्योपाध्यायिका ) यही शिप्य और गुरुपना है । अर्थात शिष्ट शिय गुरुके समीर वाचालित नहीं होते हैं ॥ २८ ॥ ___नं टः-छटों श्लोकसे लेकर अट्ठाईसवे श्लोक तक गुरूने जीवंधरसे अपना वृत्तान्त कहा ।। २८ ।। विज्ञातगुरुशुद्धिः स विशेषात्पिप्रियेतराम् । माणिक्यस्य हि लब्धस्य शुद्धोदो विशेषतः ॥२९॥ ___ अन्वयार्थ:-'विज्ञात गुरु शुद्धिः सः) जान ली है गुरुकी शुद्धि जिसने ऐसा यह जीवंधरकुमार (विशेषतः) और अधिक रीतिसे (पिप्रियेतराम् ) प्रसन्न हुआ । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (लब्धस्य माणिक्यस्य) प्राप्त हुई मणिके (शुद्धेः) शानादिके ऊपर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ४९ शुद्धि हो जानेसे ( विशेषतः ) विशेष रीतिसे ( मोदो भवति ) हर्ष होता है ॥ २९ ॥ रत्नत्रयविशुद्धः सन्पात्रस्नेही परार्थकृत् । परिपालितधर्मो हि भवान्धेस्तारको गुरुः ॥ ३० ॥ अन्वयार्थः – (हि) निश्चयसे ( यः रत्नत्रयविशुद्धः सन् ) जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्रसे विशुद्ध होता हुआ, (पात्रस्नेही ) पात्र में स्नेह करनेवाला, ( परार्थकृत् ) परोपकारी, (परिपालित धर्मः ) धर्मका पालन करनेवाला और ( भवाब्धेः तारकः ) संसाररूपी समृद्रसे तारनेवाला हो ( सः गुरु अस्ति ) वह गुरु है अथात् ऐसा गुरु होना चाहिये || १० || गुरुभक्तो भवाद्भीतो विनीतो धार्मिकः सुधीः । शांतस्वान्तो ह्यतन्द्रालुः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते ३१ अन्वयार्थ ः– (यः गुरुभक्तः) जो गुरुभक्त, ( भवाद् भीतः ) संसारसे भयभीत, ( विनीतः ) विनयी, ( धार्मिकः ) धर्मात्मा, ( सुधीः) उत्तम बुद्धिवाला ( शान्तस्वान्तः) हृदयका शान्त, (अतंद्रालु स्य रहित और (शिष्टः) उत्तम आचरणवाला हो ( सोऽयं शिष्यः इष्यते ) वह शिष्य माना गया है। अर्थात् शिष्य ऐसा होना चाहिये । ३१ ॥ गुरुभक्तिः सती मुक्त्यै क्षुद्रं किं वा न साधयेत् । त्रिलोकीमूल्यरत्नेन दुर्लभः किं तुषोत्कर : ॥३२॥ अन्वयार्थ :- जब (सती गुरुभक्तिः समीचीन गुरुकी भक्ति ( मुक्त्यै भवति ) मुक्तिकी प्राप्तिके लिये होती है ? तो फिर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० द्वितीयो लम्बः । (क्षुद्रं किं वा न साधयेत् ) क्षुद्र किस कार्यको साधन नहीं करेगी ? करेगी ही। जैसे ( त्रिलोकी मूल्यरत्नेन ) तीन लोक है मूल्य जिसका ऐसे रत्नसे (तुषोत्करः) भूसेका ढेर मिलना (किं दुर्लभः) क्या दुर्लभ है ? (अपि तु न दुर्लभः) किन्तु दुर्लभ नहीं है ।।३२॥ गुरुद्रुहां गुणः को वा कृतघ्नानां न नश्यति । विद्यापि विद्युदाभा स्यादमूलस्य कुतःस्थितिः॥३३॥ अन्वयार्थः- (गुरुद्रुहां) गुरूसे द्रोह करनेवाले (कृतवानां) कृतघ्नी-उपकारको भूलनेवालोंका ( को वा गुणः ) कौनसा गुण (न नश्यति नष्ट नहीं होता है ? अर्थात् (सर्वे गुण : नश्यं ते) सर्व गुण नष्ट हो जाते हैं (तेषां) उन लोगोंकी (विद्या अपि) विद्या भी ( विद्युत् आभा स्यात् ) विनलीके समान क्षणस्थायी होती है ? ठीक है ( अमूलस्य स्थितिः कुतः भवति ) जड़रहितकी स्थिति कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती । अर्थत् विना कारणके कोई वस्तु नहीं ठहर सकती है ॥ ३३ ॥ गुरुद्रुहो न हि कापि विश्वास्यो विश्वघातिनः । अबिभ्यतां गुरुद्रोहादन्यद्रोहात्कुतो भयम् ॥ ३४॥ ___अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (क्कापि) कहीं पर भी (विश्वघातिनः) सम्पूर्ण जगतके नाश करनेवाले (गुरुद्रुहोः) गुरुद्रोहीका (न विश्वास्यः) विश्वास नहीं करना चाहिये क्योंकि (गुरुद्रोहात् अविभ्यतां) गुरुद्रोहसे नहीं डरनेवाले पुरुषोंको ( अन्य द्रोहात् ) दूसरोंके साथ द्रोह करनेसे ( कुतः भयम् ) कैसे भय हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ॥ ३४ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अथ कृत्यविदाचार्यः कृतकृत्यं यथाविधि । छावं प्रबोधयामास सद्धर्म गृहमेधिनाम् ॥ ३५ ॥ ५१ अन्वयार्थ:—(अथ) इसके अनंतर ( कृत्यवित् आचार्यः ) कृत्यके जाननेवाले आचार्यने ( कृतकृत्यं छात्र ) समाप्त हो गये हैं. पठनादि कार्य जिनके ऐसे छात्र ( जीवंधर) को ( यथाविधि ) विधि पूर्वक (गृहमेधिनाम् सद्धर्मं ) गृहस्थोंके एक देश विरति रूपी धर्मका (प्रबोधयामास ) ज्ञान कराया ॥ ३९ ॥ पुनश्च राजपुत्रत्वमपि बोधयितुं गुरुः । अनुगृह्याभ्याघात्तस्य तदुदन्तमिदंतया ॥ ३६ ॥ अन्वयार्थः -- (पुनश्च गुरुः) फिर गुरूने (अनुगृह्य) अनुग्रह करके (राजपुत्रत्वं बोधयितुं अपि) तुम राजाके पुत्र हो ऐसा -बोध कराने के लिये ही (तस्य) उस जीवंधरका (तदुदन्तं ) पूर्वोक्त सारा वृत्तान्त ( इदंतया अभ्यघात् ) इस रीति से कहा कि जीवंघर से इतर कोई पुरुष न जान सके || ३६ || काष्टाङ्गारमसौ ज्ञात्वा राजघं गुरुवाक्यतः । सत्यंधरात्नजः क्रोधात्संनाहं तद्वधे व्यधात् ॥३७॥ अन्वयार्थः - ( असौ सत्यंधरात्मजः ) इस सत्यंधर राजाके कुमार जीवंधरने (गुरुवाक्यतः ) गुरुके वचनों से ( काष्टाङ्गारं ) काष्टाङ्गारको ( राजघं ) राजाका मारनेवाला ( ज्ञात्वा ) जानकर (तद्वधेः) उसके मारने के लिये (मुंबई) युद्धक विमती छात्) की ॥ ३७ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो लम्बः । मुहनिवार्यमाणोऽपि सूरिणा न शशाम सः। इन्तात्मानमपि घ्नन्तः क्रुद्धाः किं किं न कुर्वते ॥३८॥ ___ अन्वयार्थः-(मुरिणा) आचार्यसे (मुहुर्निवार्यमाणः अपि) वारवार रोका हुआ भी (सः न शशाम) वह कुमार शान्त नहीं हुआ । (हन्त) खेद है ! ( आत्मानं अपि ) अपनी आत्माको भी (अंतः ) नाश करते हुये ( क्रुद्धाः ) क्रोधी पुरुष ( किं किं न कुर्वते ) क्या क्या कर्म नहीं कर डालते हैं ॥ ३८ ॥ वत्सरं क्षम्यतामेकं वत्सेयं गुरुदक्षिणा। गुरुणेति निषिद्धोऽभूत्कोनन्धो लव येद्गुरुम् ॥३९॥ ... अन्वयार्थः-(हे वत्स ) हे बाल ! (एकं वत्सरं) एक वर्ष और (क्षम्यतां) क्षमा करो (इयं गुरु दक्षिणा) यह ही मेरे पढ़ानेकी गुरु दक्षिणा समझो (इति) इस प्रकार (गुरुणा) गुरूसे (निषिद्धः अभूत् ) निषेधित होता भया । (कः अनन्धः ) कौन सुलोचन ( ज्ञानचक्षु ) पुरुष (गुरुं लङ्घयेत् ) गुरुके आदेशको उल्लंघन करता है ॥ ३९ ॥ पश्यन्कोपक्षणे तस्य पारवश्यमसौ गुरुः। अशिक्षयत्पुनश्चैनमपथनी हि वाग्गुरोः ॥४०॥ ___अन्वयार्थः- 'पुनश्च असौ गुरुः) फिर इस गुरूने (कोपक्षणे) कोपके समय (तस्य पारवश्यम् पश्यन् ) उसकी पराधीनताको देख (एन) इसे (अशिक्षयत्) शिक्षा दी । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गुरोःबाक्) गुरुका वचन (अपथनी) खोटे मार्गका नाश करनेवाला होता है॥४०॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । अवशः किमहो मोहादकुपः पुत्रपुङ्गव । सति हेतौ विकारस्य तदभावो हि धीरता ॥४१॥ अन्वयार्थः -- ( हे पुत्र पुङ्गव ) हे श्रेष्ठ पुत्र ! ( त्वं ) तुम ( मोहातू ) मोहसे ( अवशः) विवश होकर (किं) क्यों (अकुपः) कोप करते हो । ( अत्र नीतिः ) (हि) निश्चयसे ( विकारस्य हेतौ सति) विकारका कारण होने पर (तद् अभावः ) विकारका न होना ही (धीरता) धीरता है ॥ ४१ ॥ अपकुर्वति कोपश्चत्किं न कोपाय कुप्यसि । विवर्गस्यापवर्गस्य जीवितस्य च नाशिने ॥ ४२ ॥ ५३ अन्वयार्थः - ( चेत् ) यदि ( अपकुर्वति कोप: ) अपकार करनेवाले से तुम्हारा कोप है तो फिर (त्रिवर्गस्य) धर्म, अर्थ, कामका, (अपवर्गस्य) मोक्षका, और ( जीवतस्य) जीवनका (नाशने) नाश करने वाले (कोपाय) कोपके लिये (किं) क्यों (न कुप्यसि ) कोप नहीं करते हो ॥ ४२ ॥ दस्त्वमेव रोषाग्निर्नापरं विषयं ततः । क्रुध्यन्निक्षिपति स्वाङ्गे वह्निमन्यदिधक्षया ॥ ४३ ॥ अन्वयार्थः -- ( रोषाग्निः) क्रोधरूपी अग्नि ( स्वं एव) अपने आप ही को (दहेत् ) जलाती है अर्थात् क्रोधीको ही पहले भस्म करती है ! (अपरं विषयं न ) दूसरे पदार्थको नहीं । (ततः) इसलिये ( क्रुध्यन् ) क्रोधी पुरुष (अन्य दिधक्षया) दूसरेको जलाने की इच्छा से (स्वाङ्गे) पहले अपने शरीर में ही (वह्नि) अग्निको ( निक्षिपति ) डालता है ॥ ४३ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो लम्बः । हेयोपादेयविज्ञानं नो वेदव्यर्थः श्रमः श्रुतौ । किं व्रीहिखण्डनायासैस्तण्डुलानामसंभवे ॥४४॥ ५४ अन्वयार्थ :- ( चेत् ) यदि ( हेयोपादेय विज्ञानं नो ) हेय वा उपादेयका ज्ञान नहीं है (तर्हि) तो ( श्रुतौ ) शास्त्र में (श्रमः) परिश्रम करना (व्यर्थः) व्यर्थ है क्योंकि ( तण्डुलानां असंभवे ) चावलोंके नहीं निकलने पर (व्रीहिखण्डनायासैः किं ) धान्यके कूटने से क्या फायदा ? अर्थात् कुछ भी फायदा नहीं है ॥ ४४ ॥ तत्त्वज्ञानं च मोघं स्यात्तद्विरुडप्रवर्तिनाम् । पाणौ कृतेन दीपेन किं कूपे पततां फलम् ॥ ४५ ॥ अन्वयार्थः - ( तद्विरुद्धप्रवर्तिनां ) शास्त्र वा तत्वज्ञान के विरुद्ध प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषोंका ( तत्वज्ञानं च ) तत्वज्ञान भी (मोघं स्यात् ) वृथा है । (कृपे पततां ) कुएं में गिरते हुए पुरुषको (पाणौ कृतेन दीपेन) हाथमें रक्खे हुये दीपकसे (किं फलं) क्या फल है ? अर्थात् कुछ भी फल नहीं है ॥ ४५ ॥ तत्वज्ञानानुकूलं तदनुष्ठातुं त्वमर्हसि । मुषितं धीधनं नस्याद्यथा मोहादिदस्युभिः ॥४३॥ अन्वयार्थः -- (तत्तस्मात् ) इसलिये (त्वं) तुम (तत्वज्ञानानुकूलं) तत्वज्ञानके अनुकूल (अनुष्ठातुं ) प्रवृत्ति करनेके लिये (अर्हसि ) ग्य हो ( यथा) जिससे ( मोहादिदस्युभिः ) मोहादिक लुटेरोंसे तुम्हारा (धीधनं ) बुद्धिरूपी धन ( मुषितं न स्यात्) चुराया नहीं जावे ॥ ४६ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । स्त्रीमुखेन कृतद्वारान्स्वपथोत्सुकमानसान् । दुर्जनाहीञ्जहीहि त्वं ते हि सर्व कषाः खलाः॥४७॥ अन्वयार्थः-और ( त्वं ) तुम ( स्त्रीमुखेन कृतद्वारान्) स्त्रियोंके जरियोंसे किया है प्रवेश जिन्होंने और ( स्वपथोत्सुक मानसान् ) अपने खोटे मार्ग पर चलनेके लिये उत्कंठित है मन निनका ऐसे (दुर्जनाहीन् ) दुर्जन रूपी भयंकर सोको (जहीहि) दूरसे ही छोड़ दो अर्थात् उनके साथ सम्बन्ध मत कर (हि) निश्चयसे (ते खलाः) वे दुर्नन पुरुष (सर्वकषाः) सम्पूर्ण पुरुषोंको दुःख देनेवाले होते हैं ।। ४७ ।। स्पृष्टानामहिभिर्नश्यद्गात्रं खल जनेन तु । वंशवैभववैदुष्यक्षान्तिकादिकं क्षणात् ॥४८॥ ____ अन्वयार्थः- (अहिभिः स्पृष्टानां) सोसे डसे हुए पुरुषोंका केवल ( गात्रं नश्येत् ) शरीर ही नष्ट होता है ( तु ) किन्तु (खलजनेन स्टष्टानां) दुर्जन पुरुषोंका सम्बन्ध करनेवाले पुरुषोंका ( वंशवैभववैदुष्यक्षान्तिकीर्त्यादिकं ) कुल, सम्पत्ति, पाण्डित्य, क्षमा और कीर्त्यादिक गुण (क्षणात् ) उसी क्षणसे ( नश्येत ) नाशको प्राप्त हो जाते हैं । ४८ ।।. .. खलः कुर्यात्खलं लोकमन्यमन्यो न कंचन । न हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशवत् ॥४९॥ ___अन्वयार्थः----(खलः) दुर्जन पुरुष (लोकं) लोकको (खलं) दुर्जन (कुर्यात्) बना देता है किन्तु (अन्यः) सज्जन पुरुष कंचन) किसीको भी (अन्यं न कुर्यात्) सज्जन नहीं कर सकता । (हि) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो लम्बः । निश्चयसे (पदार्थानां) पदार्थोके विनाशकी तरह उनका [भावनं] पैदा करना (न शक्यं) शक्य नहीं है । अर्थात्-जिस प्रकार किसी पदार्थ का नाश कर देना बिलकुल सरल है उसी प्रकार उसका बनाना अत्यन्त दुःसाध्य है ॥४९।। सजनास्तु सतां पूर्व समावाः प्रयत्नतः । किं लोके लोष्टवत्प्राप्यं श्लाघ्यं रत्नमयत्नतः ॥५०॥ ____ अन्वयार्थः--(तु) और (सतां) सज्जन पुरुषोंको (प्रयत्नतः) प्रयत्नसे (पूर्व) पहले (सज्जनाः सभावाः ) सज्जनोंको पूजना चाहिये । लोके) लोकमें (किं) क्या (लोष्टवत) ढेलेके समान (श्लाध्यं रत्न) प्रशंसनीय रत्न (अयत्नतः) विना प्रयत्न के (प्राप्यं) मिल सकता है ? अर्थात् नहीं मिल सकता ॥१०॥ जाग्रत्त्वं सोमनस्यं च कुर्यात्सद्वागलं परैः। अजलाशयसंभूतममृतं हि सतां वचः ॥ ५१ ॥ __ अन्वयार्थः---सद्वाक्) सजन पुरुषोंका वचन (जागृत्व) जागृति (च) और (सौमनस्य) उत्तम सहृदयताको (कुर्यात् ) करता है (परैः अलं) बहुत कहनेसे क्या ? [हि निश्चयसे ( सतां वचः ) सज्जन पुरुषोंका वचन (अजलाशय सम्भूतं) अनलाशयसे उत्पन्न हुआ (अमृत) अमृत है। __अर्थात्-अमृत अनलाशयरूप जड़ समुद्रसे पैदा होता है और वचनामृत अनलाशय (सचेतन) सत्पुरुषोंके मुखसे उत्पन्न होता है अतएव अमृतकी अपेक्षा सज्जन पुरुषोंका वचनामृत सर्वोत्कृष्ट है ॥११॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । यौवनं सत्त्वमैश्वर्यमेकैकं च विकारकृत् । समवायो न किं कुर्यादविकारोऽस्तु तैरपि ॥५२॥ ___ अन्वयार्थः---यौवनं) युवावस्था (सत्व) बल वा शरीर सामर्थ्य और (ऐश्वर्य) ईश्वरता अर्थात् प्रभुपना (एकैकं) पृथक् पृथक् (विकारकृत्) विकार भावोंको करनेवाले हैं। अर्थात् इनमेंसे प्रत्येकके होने पर मनुष्य कुपथमें प्रवृत्त होजाता है तो (समवायः) समुदाय अर्थात् समूह (किं) किस अनर्थक कार्यको (न कुर्यात) नहीं करेगा ? करेगा ही (तुतैः अपि) इसलिये इन तीनोंसे भी तुम्हारा चित्त ( अविकारः अस्तु ) विकार रहित होवै ? ऐसा आशीर्वाद गुरुने जीवंधरको दिया ।।५२॥ न हि विक्रियते चेतः सतां तडेतुसंनिधौ । किं गोष्पदजलक्षोभी क्षोभयेन्जलधेर्जलम् ॥५३॥ अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (सतां चेतः) सजन पुरुषोंका चित्त (तद्हेतु संनिधौ) विकारको कारण मिलने पर भी (न विक्रियते) विकारको प्राप्त नहीं होता है। (किं) क्या (गोष्पदनल. क्षोभी) गायके खुर प्रमाण जलको मलिन करनेवाला मेंढक जलधेः] समुद्रके ( जलं ) जलको (क्षोभयेत्.) क्षोभित कर सकता है ? कदापि नहीं ॥५३॥ देशकालखलाः किं तैश्चला धीरेव बाधिका। अवहितोऽत्र धर्मे स्यादवधानं हि मुक्तये ॥५४॥ ____ अन्वयार्थः--(देशकालखलाः) देश, काल और दुर्जन ये (किं कुर्युः) क्या करेंगे (तैः चला) उनसे चलायमान (धीः एव बाधिका) Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ द्वितीयो लम्बः । बुद्धि ही मनुष्यके चरित्रको बिगाड़ देती है इसलिये इस संसार में (धर्मे) आत्मा के स्वभाव में ( अवहितः ) स्थिर होना चाहिये (हि) निश्चयसे ( अवधानं) अपनी आत्मा के स्वभावमें स्थिर रहना (मुक्तये स्यात्) मोक्षकी प्राप्तिके लिये होता है || १४॥ शिक्षावचः सहस्रैर्वा क्षीणपुण्येन धर्मधीः । पात्रे तु स्फायते तस्मादात्मैव गुरुरात्मनः ॥ ५५ ॥ अन्वयार्थः - (क्षीण पुण्ये) क्षीणपुण्य पुरुष में (शिक्षावचः सहस्रैः ) हजार शिक्षा वचनोंसे (धर्म धीः) धर्मबुद्धि ( न स्यात् ) नहीं होती है (तु) और (पात्रे ) उत्तम पात्र में (स्फायते) विना उपदेशके ही धर्मबुद्धि प्राप्त होजाती है । ( तस्मात् ) इसलिये ( आत्मनः ) आत्माका ( आत्मा एव ) आत्मा ही ( गुरुः अस्ति ) गुरु है ||१५|| न श्रृण्वन्ति न बुध्यन्ति न प्रयान्ति च सत्त्थम् । प्रयान्तोऽपि न कार्यान्तं धनान्धा इति चिन्त्यताम् २६ अन्वयार्थः -- (धनान्धाः ) घनसे अन्धे पुरुष (सत्यथम्) आत्माकी उन्नतिके सच्चे मार्गको (न श्रृण्वन्ति ) न तो सुनते हैं ( न बुध्यन्ति ) न जानते हैं और (न प्रयान्ति) न उसपर चलते हैं । (प्रयान्तः अपि ) सत्पथ पर चलने पर भी ( कार्यान्तं) कार्यके अन्त तक (कार्यके नतीजे तक) नहीं पहुंचते हैं (इति) ऐसा घनिक पुरुषोंके विषय में तुम (चिन्त्यताम् ) विचार करो ॥ ५६ ॥ इत्याशास्य तमाश्वास्य कृच्छ्रं स तपसे गतः । प्राणप्रयाणवेलायां न हि लोके प्रतिक्रिया ॥५७॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। ____ अन्वयार्थः-( इति ) इस प्रकार (तं ) उस जीवंधरको (आशास्य) उपदेश रूप आशीर्वाद देकर (च) और (आश्वास्य) विश्वास दिलाकर (कच्छू) खेद है ! (सः) वह जीवंधरके गुरू आर्यनन्दी आचार्य (तपसे) तप करनेके लिये ( गतः ) चले गये। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( अत्रलोके ) इस संसारमें (प्राणप्रयाण वेलायां ) प्राणोंके निकलनेके समय धर्मको छोड़कर दूसरा कोई (प्रतिक्रिया न उपाय नहीं है ।। ५७ ॥ प्रवज्याथ तपः शक्तया नित्यमानन्दमबजत् । निष्प्रत्यूहा हि सामग्री नियतं कार्यकारिणी॥५८॥ ___अन्वयार्थः-( अथ ) तदनन्तर (प्रव्रज्य ) फिर दीक्षा लेकर उन गुरूने ( तपः शक्त्या ) तपश्चरण की सामर्थ्य से (नित्यं आनन्द) शाश्वत आनन्द रूपी मोक्षको ( अवनत् ) प्राप्त किया । अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे ( निष्यप्रत्यूहा) निर्विन (सामग्री) सामग्री (नियतं) नियमसे (कार्यकारिणी) कार्यको सिद्ध करनेवाली होती है ॥ ५८ ॥ तपोवनं गुरौ प्राप्त शुचं प्रापत्स कौरवः । गर्भाधानक्रियामात्रन्यूनौ हि पितरौ गुरुः ॥ ५९॥ अन्वयार्थः-(गुरौ तपोवनं प्राप्ते) गुरूके तपोवनमें चले जानेपर (कौरवः) कुरुवंशी उस जीवंधरने (शुचंपापत् ) अत्यन्त शोक किया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गर्भाधान क्रियान्यूनौ) गर्भ धारण क्रियासे रहित [गुरुः] गुरू (पितरौ) माता पिताके समान हैं ॥ ५९ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो लम्बः। तत्त्वज्ञानजलेनाथ शोकाग्निं निरवापयत्। शैत्ये जाग्रति किं नु स्यादातपातिः कदाचन ॥३०॥ अन्वयार्थः--(अथ) तदनन्तर जीवंधरने (तत्वज्ञाननलेन) तत्वज्ञान रूपी जलसे (शोकाग्नि) गुरुवियोगजन्य शोकरूपी अनिको ( निरवापयत् ) निवारण किया (शैत्ये जागृति) शीतपनेके जागृत होने पर (ठंड रहने पर) (किं) क्या ( आतपातिः ) गर्मीके आतापका दुःख ( कदाचन स्यात् ) कमी हो सकता है ? कदापि नहीं ॥ ६०॥ अथास्मिन्विद्यया कान्त्या विदुषां योषितां हृदि । रथे च योग्यया भाति तत्र प्रस्तुतमुच्यते ॥३१॥ अन्वयार्थः-(अथ) गुरुके वियोगके अनन्तर (विद्यया ) पाण्डित्यतासे (विदुषां) विद्वानोंके (हृदि) हृदयमें और (कान्त्या शरीरकी सौन्दर्यतासे ( योषितां हृदि ) स्त्रियोंके हृदयमें और योग्यतया) शस्त्रसंचालन योग्यतासे ( रथे च ) रथमें (अस्मिन् भाति ) इस जीवंधरको शोभायमान होनेपर (तत्र प्रस्तुतं उच्यते) जो वृत्तान्त हुआ उसे कहते हैं ॥ ११ ॥ अथैकदा समभ्येत्य राजाङ्गणभुवि स्थिताः । गावोऽवस्कन्दिता व्याधैरिति गोपा हि चुक्रुशुः॥६२॥ ___अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनन्तर ( एकदा ) एक समय " हमारी (गाव:) गायें (व्याधैः अवस्कन्दिता) व्याधोंने वनमें रोकलीं हैं " (इति) ऐसा (गोपाः) ग्वालिये (राजाङ्गणभूवि स्थिताः) राजद्वारके अङ्गणमें स्थित होकर (चक्रुशुः) चिल्लाये ॥१२॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । काष्टाङ्गारोऽपि रुष्टोऽभूत्तदाक्रोशवचः श्रुतेः । असमानकृतावज्ञा पूज्यानां हि सुदुःसहा ॥ ६३ ॥ अन्वयार्थः - (काष्टाङ्गारः अपि) काष्टाङ्गार भी ( तदाक्रोशवचः श्रुतेः) उन ग्वालियोंके चिल्लानेको सुनकर ( रुष्टः अभूत् ) व्याधों पर रुष्ट हुआ । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (असमान कृतावज्ञा) छोटे पुरुषोंसे किया हुआ तिरस्कार ( पूज्यानां ) बडे पुरुषोंके ( सुदुःसहा ) सहन नहीं होता है ॥ ६३ ॥ पराजेष्ट पुनस्तेन गवार्थ प्रहितं बलम् । स्वदेशे हि शशप्रायो बलिष्ठः कुञ्जरादपि ॥ ६४ ॥ अन्वयार्थ :- (तेन) उस व्याध सेनाने ( गवार्थं प्रहितं बलम् ) गौओंको छुड़ानेके लिये भेजी हुई काष्टाङ्गारकी सेनाको (व्यजेष्ट ) जीत लिया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( स्वदेशे) अपने स्थानपर (शशप्रायः जन्तुः) खरगोशके समान भी जन्तु (कुञ्जरात् अपि) हाथी से भी (बलिष्ठः) बलवान हो जाता है अर्थात् थोड़ी संख्यावाली व्याध सेनाने बलवान् काष्टाङ्गारकी सेना जीत ली ॥ ६४ ॥ व्यजेष्ट व्याधसेनेति श्रुत्वा घोषोऽपि चुक्षुभे । न बिभेति कुतो लोक आजीवनपरिक्षये ॥ ६५ ॥ अन्वयार्थः - (घोषः अपि) घुसयानेके रहनेवाले भी ( व्याघ सेना व्यजेष्ट ) " व्याधोंकी सेना जीती” (इति श्रुत्वा ) यह सुनकर (चुक्षुभे) क्षोभित हुये अर्थात् स्वयं लड़नेके लिये उत्तेजित होते भये । सच है इस संसार में ( लोकः ) संसारी जीव ( आजीवन - परिक्षये ) जीविकाके नाश हो जाने पर ( कुतो न विभेति ) किससे नहीं डरते हैं ॥ ६५ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ द्वितीयो लम्बः । नन्दगोपायः कोऽपि तजयार्थ व्यचीचरत् । किं स्याकिंकृत इत्येवं चिन्तयन्ति हि पीडिताः॥६६॥ अन्वयार्थ:----(कोऽपि नन्दगोपह्वयः) किसी नन्दगोप नामके ग्वालेने (तज्जयार्थ) उस व्याध सेनाके जीतने के लिये (व्यचीचरत्) विचार किया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (पीड़िताः) दुःखादिकोंसे पीड़ित पुरुष ( किं स्यात् ) क्या होगा (किं कृतः ) क्या करें (इत्येवं चिन्तयन्ति) इस प्रकार विचार किया करते हैं ॥ ६६ ॥ धनार्जनादपि क्षेमे क्षेमादपि च तत्क्षये। उत्तरोत्तरवृद्धाः हि पीडा नृणामनन्तशः ॥ ६७ ॥ ___अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (धनार्जनात् अपि क्षेमे) धनके कमानेसे भी अधिक उसकी रक्षा करनेमें (क्षेमात् अपि तत्क्षये ) और रक्षा करनेसे अधिक उसके नाशमें (नृणाम् ) मनुष्यों के (अनन्तशः) अनन्तगुणी (पडा) पीड़ा (उत्तरोत्तरवृद्धाः) उत्तरोत्तर बढ़ती हुई होती है ॥ ६७ ॥ यथाशक्ति प्रतीकारः करणीयस्तथापि चेत् । व्यर्थः किमत्र शोकेन यदशोकः प्रतिक्रिया ॥१८॥ ___अन्वयार्थः- (तथापि) तौ भी ( यथाशक्तिः ) शक्त्यनुकूल (प्रतीकारः) उसका उपाय (करणीयः) करना चाहिये (व्यर्थः चेत्) यदि उपाय व्यर्थ हो जाय तो ( अत्र शोकेन किं ) इसमें शोक करनेसे क्या ? (यत् अशोकः प्रतिक्रिया) क्योंकि दुःखका प्रतिकार अशोक ही माना गया है ॥ ६८ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । इत्यूहेन स वीराय विजये हि वनौकसाम् । सप्तकल्याणपुत्रीभिर्देया पुत्रीत्यघोषयत् ॥ ६९॥ . .. अन्वयार्थः-'इति उहेन सः) ऐसा विचारकर उस ग्वालेने (हि) निञ्चयसे (वनौकसाम्) व्याधोंको (विनये). जीत लेनेपर (वीराय) जीतनेवाले वीरके लिये ( सप्तकल्याणपत्रीभिः ) सात सुवर्णकी पुत्रियों के साथ (पुत्री देया) पुत्री दूंगा ( इति अघोषयत्) ऐसी घोषणा कराई. ।। ६९ ॥ सात्यंधरिस्तु तच्छृत्वा तद्धोषणमवारयत् । उदात्तानां हि लोकोऽयमखिलो हि कुटुम्बकम् ॥७०॥ अन्वयार्थः-(तु) इसके अनन्तर ( सात्यंधरिः ) सत्यंधर रानाके कुमारने (तद् घोषणं श्रुत्वा) उस घोषणाको सुःकर (तत् अवारयत् ) उसका निवारण किया । अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे (उदात्तानां) उदार चरित्रवाले पुरुषोंका (अयं) यह (अखिलः लोकः) सम्पूर्ण संसार ( कुटुम्बकम् ) कुटुम्बके समान है ॥ ७० ॥ जित्वाथ जीवकस्वामी किरातानाहरत्पशून । तमो ह्यभेद्यं खद्योतैर्भानुना तु विभिद्यते ॥७॥ __अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनन्तर (जीवकस्वामी) जीवंधर स्वामी ( किरातान् जित्वा) व्याधोंको जीतकर ( पशून् आहरत ) पशुओंको ले आये। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( स्वद्योतैः ) पट वीननेसे (अभेद्यतमः) नहीं नाश होनेवाला अन्धकार (भानुना तु विभिद्यते) सूर्य से तो नाश ही हो जाता है ॥७१॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्वितीयो लम्बः । ननन्द नन्दगोपोऽपि गोधनस्योपलम्भतः। असुमतामसुभ्योऽपि गरीयो हि भृशं धनन् ॥७२॥ अन्वयार्थः ---(नन्दगोपः अपि) नन्दगोप भी ( गोधनस्य उपलम्भतः ) गौरूपी धनके मिलनानेसे (ननन्द) अत्यन्त हर्षित होता भया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( असुमतां ) प्राणियोंके (धन) धन (असुभ्यः अपि, प्राणोंसे भी (गरीयः) प्यारा होता है।।७१॥ अथानीय सुतां दातुं स्वामिने वार्यपातयत् । कृत्याकृत्यविमूढा हि गाढस्नेहान्धजन्तवः ॥७३॥ ___ अन्वयार्थः-(अथ) तदनन्तर वह नन्दगोप (सुतां आनीय) पुत्रीको लाकर (स्वामिने दातुं) जीवंधर स्वामीके देनेके लिये (वारि) जल धाराको (अपातयत् ) डालताभया। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गाढस्नेहान्धनन्तवः) अत्यंत स्नेहसे अन्धे पुरुष (कृत्याकृत्यविमूढाः) कृत्याकृत्यके विचारमें मूढ (सन्ति) होते हैं ॥ __अर्थात्-नन्दगोपने यह नहीं विचारा कि जीवंधर स्वामी मेरी पुत्रीको लेंगे या नहीं क्योंकि क्षत्री राजाओंके यहां यह नियम होता है कि पहले क्षत्रि कन्याके साथ विवाह कर फिर दूसरेकी कन्या के साथ विवाह करते हैं ॥७३॥ जीवंधरस्तु जग्राह वार्धारां तेन पातिताम् । पद्मास्यो योग्य इत्युक्त्वा न ह्ययोग्ये स्पृहा सताम्॥७४ . अन्वयार्यः-(तु) फिर (जीवंधरः) जीवंधरने (तेन पातितां) उसके द्वारा डाली हुई (वार्धारा) जलकी धाराको (पद्भास्य योग्यः) "पद्धास्य इस कन्याके योग्य है " ( इति उक्त्वा) यह कह कर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (जग्राह) गृहण की। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (सतां स्टहा) सजन पुरुषोंकी इच्छा (अयोग्ये) अयोग्य पदार्थ में ( न भवति ) नहीं होती है ।। ७४ ॥ माम मामेव पद्मास्यं पश्यति पुनरब्रवीत् । गात्रमात्रेण भिन्नं हि मित्रत्वं मित्रता भवेत् ॥७॥ ___अन्वयार्थः--(हे माम ) हे मामा ! ( मां एव ) मुझको ही (पद्मास्यं पश्य) पद्मास्य जानो ( इति पुनः अब्रवीत् ) ऐसा फिर कहता भया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (गात्र मात्रेण भिन्न) शरीर मात्रसे भिन्न (मित्रत्वं) मित्रपना ( मित्रता भवेत् ) मित्रता कहलाती है । ७५ ॥ गोदावरीसुतां दत्ता नन्दगोपेन तुष्यता। परिणिन्येऽथ गोविन्दा पद्मास्यो वहिसाक्षिकम् ॥७६ अन्वयार्थ:---- अथ) तदनन्तर (पद्मास्यः) पद्मास्यने (तुष्यता नन्दगोपेन; संतुष्ट नन्दगोपसे (दत्तां) दी हुई ( गोदावरीसुतां) गोदावरीकी पुत्री (गोविन्दां) गोविन्दाको (वह्निसासिकम् ) अग्निकी साक्षीपूर्वक ( परिणिन्ये ) स्वीकार की ॥ ७६ ॥ इति श्रीमद्वादीभिसिंह सूरि विरचिते क्षत्राचूणामणौ सान्धयार्थो गोविन्दालम्भो नाम द्वितीयो लम्बः ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो लम्बः । अथ तृतीयो लम्बः॥ अथोपयम्य गोविन्दा पद्मास्ये रमयत्यलम् । वीरश्रियं कुमारे च तत्र प्रस्तुतमुच्यते ॥१॥ अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनन्तर (गोविन्दां) गोविन्दाको (उपयम्य) विवाह करके (पद्मास्यके) पद्मास्यके (अलं रमयति सति) अत्यन्त रमण करने पर (च) और (वीरश्रियं) वीरलक्ष्मीको (प्राप्च) प्राप्त करके (कुमारे) कुमार जीवंधरके (रमयति) रमण करने पर (तत्र) वहां ( यत् ) जो (प्रस्तुतं) वृतान्त हुआ (तद उच्यते) उसको कहते हैं ॥ १ ॥ आसीत्तत्पुरवास्तव्यो वैश्यः श्रीदत्तनामकः । वित्तायास्पृहयत्सोऽयं धनाशा कस्य नो भवेत् ॥२॥ . अन्वयार्थः -- तत्पुर वास्तव्यः) उस पुरमें रहने वाला (श्रो. दत्त नामक) श्रीदत्त नाम (वैश्य:) वैश्य (आसीत) था(सः अय) उस श्रीदत्तने (वित्ताय) धन कमानेके लिये (अस्टहत) वान्छा की। अत्र नीतिः (कस्य) किसके (धनशा) धनकी आशा ( नो भवेत् ) नहीं होती है सवको धनशा होती है ॥ २ ॥ अर्थार्जननिदानं च तत्फलं चायमोहत। निरङ्कशं हि जीवानामैहिकोपायचिन्तनम् ॥३॥ ___ अन्वयार्थः-फिर (अयं) इसने (अर्थार्जननिदान) धनके कमानेका कारण (च) और (तत्फलं) उसका फल (औहत) विचारा। अत्र नीतिः ( हि ) निश्वयसे ( जीवानां ) मनुष्योंके (ऐहिकोपाय चिन्तनम् ) इस लोक सम्बन्धी आजीवकाके उपायका चिंतबन वरना (निरङकुशं) विना उपदेशके ही हो जाता है ॥ ३ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अस्तु पैतृकमस्तोकं वस्तु किं तेन वस्तुना। रोचते न हि शौण्डाय परपिण्डादिदीनता ॥४॥ अन्वयार्थः-(पैतृकं) पिता समंधी अर्थात् पूर्वजोंका उपाजन किया हुआ (अस्तोकं वस्तु अस्तु) बहुतसा धन रहवे (तेन वस्तुना किं) उस धनसे क्या ? अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (शौण्डाय) उद्योगी पुरुषोंके लिये (परिपिण्डादि दीनता) दूसरोंके कमाये हुए अन्नादिक पर निर्वाह करना (न रोचते) रुचिकर नहीं होता है ॥ ४ ॥ स्वापतेयमनायं चेत्सव्ययं व्येति भूर्यति। . सर्वदा भुज्यमानो हि पर्वतोऽपि परिक्षयी ॥५॥ ___ अन्वयार्थ:--- स्वापतेयं ) स्वस्वामिक धन ( चेत् ) यदि (अनायं) आमदनीसे रहित और (सव्ययं) व्यय करके सहित है तो (भर्यपि) बहुत भी (व्येति) समाप्त हो जाता है । अत्र नीतिः (हि) निश्वयसे (सर्वदा भुज्यमानः ) हमेशा भोगमें आने वाला अर्थात् जिसके पत्थर वगेरेह काम में आते हों ऐसा (पर्वतः अपि) पर्वत भी एक दिन (परिक्षयो) नाशको प्राप्त हो जाता है ॥ ५ ॥ दारिद्रयादपरं नास्ति जन्तूनामप्यरुन्तुदम् । अत्यक्तं मरणं प्राणः प्राणिनां हि दरिद्रता ॥६॥ ___अन्वयार्थः- ( जन्तूनां ) मनुष्योंको ( दारिद्रयात् अपरं ) दरिद्रतासे बढ़कर दूसरा कोई ( अरुन्तुदतम् ) दुःखको देनेवाला (नास्ति) नहीं है । अत्रनोतिः (हि) निश्चयसे (पाणिनां दरिद्रता) जीवोंके दरिद्रता (पाणः अत्यक्तं) प्राणोंके निकलनेके विना (मरणं) मरणके समान है ॥ ६॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 良く तृतीयो लम्बः । रिक्तस्य हि न जागर्ति कीर्तनीयोऽखिलो गुणः । हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ॥७॥ अन्वयार्थ : - (हि) निश्चयसे ( रिक्तस्य ) निर्धन पुरुषके (कीर्तिनीयः अखिलः गुणः) जगत्प्रशंसनीय सम्पूर्ण गुण ( न जागर्ति ) प्रकाशित नहीं होते हैं । (हन्त) खेद है ! ( तेन किं ) और तो क्या ? ( विद्यमाना विद्या अपि) उसकी विद्यमान विद्या भी (न शोभते) शोभित नहीं होती है ॥ ७ ॥ स्यादकिंचित्करः सोऽयमाकिंचन्येन वञ्चितः । अलमन्यैः स साकूतं धन्यवक्रं च पश्यति ॥८॥ अन्वयार्थ:----. ( सः अयं ) वह दरिद्र पुरुष ( आकिंचन्येन चितः) दरिद्रतासे उगाया हुआ ( अकिंचित्करः स्यात् ) कुछ. नहीं कर सकता (अन्यैः अलं) बहुत कहने से क्या ? (सः) वह दरिद्र पुरुष ( साकूतं ) अभिप्राय करके सहित (धन्यव) धनिक. पुरुषों के मुखकी तरफ (पश्यति) देखता है ॥ ८ ॥ संपल्लाभफलं पुंसां सज्जनानां हि पोषणम् । काकार्थफलनियोऽपि श्लाध्यते न हि चूतवत् ॥९॥ अन्वयार्थः -- (हि) निश्चयसे ( gसां ) मनुष्यों के (संपल्लाभ फले ) धनकी प्राप्तिका फल ( सज्जनानां पोषणम् ) सज्जन पुरुषोंका पोषण करना ही है । अत्रनीति: (हि) निश्चयसे (काकार्थ फल निम्बः अधि:) कौए के लिये ही है फल जिसका ऐसा नीमका वृक्ष भी (चूतवत् न लाध्यते) आम्रके वृक्षकी तरह प्रशंसनीय नहीं होता है ॥ ९ ॥ लोकद्रयहितं चापि सुकरं वस्तु नासताम् । लवणान्धिगतं हि स्यान्नादेयं विफलं जलम् ॥ १०॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। १९ अन्वयार्थः-(च) और (लोकद्वयहितं अपि ) इस लोक और परलोकमें हितको करनेवाली भी ( असताम् ) दुर्जन पुरुषोंकी ( वस्तु ) वस्तु ( सुकरं न ) सुखके देनेवाली नहीं है। अत्रनीतिः (हि) निश्वयसे (नादेयं जलं) नदीका मीठा जल (लवणाब्धि गत) लवण समुद्रमें गया हुआ ( विफलं स्यात् ) निरर्थक हो जाता है ॥ १० ॥ इत्यूहान्नावमारुह्य प्रतस्थे स वणिक्पतिः। वाधिमेव धनार्थी किं गाहते पार्थिवानपि ॥११॥ ____ अन्वयार्थः-(इति उहात) ऐसा विचार कर (सः वणिक पतिः) वैश्यों में प्रधान उस श्रीदत्तने ( नावं आरुह्य ) नावमें बैठ कर (प्रतस्थे) प्रस्थान किया अत्र नीतिः (धनार्थी कि) धनके इच्छुक क्या (वार्धिमेव) समुद्रको ही (गाहते) अवगाहन करते हैं ?। ऐसा नहीं ( किन्तु पार्थिवानपि गाहते ) किन्तु पृथ्वीमें रहनेवाले खानि आदिक जो बिल हैं उनको भी अवगाहन करते हैं। पक्षान्तरमें बड़े २ पृथवीके राजाओंको भी प्राप्त होते हैं ॥ ११ ॥ दीपान्तरान्यवर्तिष्ट पुष्टः सांयात्रिको धनैः।। अतयं खलु जीवानामर्थसंचयकारणम् ॥ १२॥ ___ अन्वयार्थः-कुछ कालके पश्चात् (धनैः पुष्टः सांयात्रिका) धनसे पुष्ट वह नौकाका स्वामी श्रीदत्त सेठ (द्वीपान्तरात् न्यवर्तिष्ट) दूसरे द्वीपसे धन कमा कर लौटा । अत्र नीतिः (खलु) निश्चयसे ( जीवानां अर्थसंचय कारणम् ) मनुष्योंके धन कमानेका कारण (अतयं) तर्कना रहित है अर्थात् पहलेसे विचार नहीं कर सकता कि हमको अमुक व्यापार में कितना लाभ होगा ॥ १२ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो लम्बः । अवारान्तमथ प्रापत्पारावारस्य नाविकः । चुक्षुभे नौरिहासारान्न हि वेद्यो विपत्क्षणः ॥ १३ ॥ अन्वयार्थः - ( अथ ) इसके अनन्तर ( नाविकः ) जब वह नौकाका स्वामी श्रीदत्त सेठ ( पारावारस्य ) समृद्रके (आवरान्तं ) तटके समीप ( प्रापत्) पहुँचा ( इह ) तत्र यहां आनेपर (आसारात् ) जलकी बड़ी भारी लहर से (नौः चुक्षुमे) नौका क्षोभित हो गई अर्थात् जलके प्रवाहसे डूबने लगी अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (विपत्क्षणः) आने वाला विपत्तिका समय ( न वेद्यः ) नहीं जाना जा सकता है ॥ १३ ॥ पूर्वमेव तु नौनाशाच्छोकाब्धि पोतगा गताः । काष्ठागतस्य दुःखस्य दृष्टान्तं तद्धि नौक्षये ॥१४॥ अन्वयार्थः --- (तु - पुनः) फिर (पोतगा) नावके बैठने वाले मनुष्य ( नौः नाशात् ) नौका के नाशसे ( पूर्व एव ) पहले ही (शोकाव्धं) शोकरूपी समुद्रको प्राप्त होते भये । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( नौक्षये) नौकाके नाश होने पर ( काष्टागतस्य दुःखस्य ) म. नो वह मर्याद रहित दुखका (तत् दृष्टान्तं) वह दृष्टान्त था ॥ १४ ॥ सायान्त्रिकस्तु तत्वज्ञो विकारं नैव जग्मिवान् । अज्ञात्प्राज्ञस्य को भेदो हेतोश्चेद्विकृतिर्द्वयोः ॥१५॥ अन्वयार्थ : --- (तु ) परन्तु ( तत्वज्ञः ) पदार्थ के स्वरूपको जाननेवाला ( सायान्त्रिकः ) नौकाका स्वामी श्रीदत्त ( विकारं ) विकार भावको (नैव जग्मिवान् ) प्राप्त नहीं हुवा अर्थात् घबराया नहीं । अत्र नीति: ( चेत् ) यदि ( हेतोः द्वयोः विकृतिः स्यात्) विकार ( दुःख ) के हेतुसे मूर्ख और विद्वान् इन दोनोंके अन्दर विकार ७० Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । ७१ (शोक) होवे तो ( अज्ञात् प्राज्ञस्य कः भेदः) मूर्ख से ज्ञानिमें क्या भेद रहा ? || १५ ॥ भाविन्या विपदो यूयं विपन्नाः किं बुधाः शुचा । सर्पशङ्काविभीताः किं सर्पास्ये करदायिनः ॥ १६ ॥ अन्वयार्थः - नौकामें स्थित पुरुषों को श्रीदत्त सेठने उपदेश दिया ( हे बुधा:) हे पण्डितो ! ( भाविन्या विपदः ) आनेवाली E • विपत्तिके (शुचा) शोकसे (पूयं किं विपन्नाः ) तुम लोग क्यों दुखी हो रहे हो (किं) क्या (सर्पशङ्का विभीताः ) सर्प के भयसे डरे हुये मनुष्य (सर्पास्ये) सर्पके मुखमें ( करदायिनः सन्ति) हाथ देनेवाले होते हैं कदापि नहीं ॥ १६ ॥ विपदस्तु प्रतीकारो निर्भयत्वं न शोकिता । तच्च तत्वविदामेव तवज्ञाः स्यात तहुधाः ॥१७॥ अन्वयार्थः -- (तु) इस लिये ( विपदः प्रतीकारः) विपत्तिका प्रतीकार ( निर्भयत्वं ) निर्भय पना ही है ( न शोकिता) शोक करना विपत्तिका प्रतीकार नहीं है ( तत् च ) और निर्भय पना (तत्व विदां एव) तत्व ज्ञानी पुरुषोंके ही होता है (तत्) इस लिये (हे बुधा:) हे पण्डितो ! ( यूयं तत्वज्ञाः स्यात ) तुम लोग तत्वोंके जानने वाले हो ॥ १७ ॥ इत्यप्यबोधयत्सोऽयं वणिक्पोताश्रितान्सुधीः । तत्त्वज्ञानं हि जीवानां लोकद्रयसुखावहम् ॥ १८॥ अयं सुधीः वणिक्) उस इस पण्डित वैश्यने (पोताश्रितान् अपि) नौका में बैठे हुए पुरुषों को भी (इति) पूर्वोक्त समझाया । अत्रनीति: (हि) निश्चयसे (जीवानां) मनुष्यों के -0 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तृतीयो लम्बः । (तत्वज्ञानं) तत्व ज्ञान (लोकद्वयसुखावहम् ) इस लोक और परलोकमें सुखका देनेवाला है ॥ १८ ॥ तावता नावि नष्ठायां दृष्टोऽभूत्कूपखण्डकः। सत्यायुषि हि जायेत प्राणिनां प्राणरक्षणम् ॥१९॥ __अन्वयार्थ:---(तावता) उसी समय (नावि नष्टायां) नौकाके नाश होने पर कोई (कूप खण्डकः) लकड़ी विशेष (दृष्टः अभूत् ) दिखलाई दी । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (आयुषि सति) आयुके रहने पर (पाणिनां) प्राणियोंके (प्राणरक्षणम् ) प्राणोंकी रक्षा (जायेत) हो जाती है ॥ १९ ॥ श्रीदत्तस्तु तमारुह्य प्रासदद्वीपसंश्रितः। राज्यभ्रष्टोऽपि तुष्टः स्याल्लब्धप्राणो हि जन्तुकः॥२०॥ अन्वयार्थ:--(तु) इसके अनन्तर (श्रीदत्तः) श्रीदत्त सेठ (तं आरूह्य ) उस लकड़ीके टुकड़े पर चढ़ कर (हीपसंश्रितः प्रासदत) दुसरे द्वीपको प्राप्त होकर प्रसन्न हुआ । अत्रनीति: (हि) निश्चयसे (राज्यभ्रष्टः अपि) राज्य भ्रष्ट होने पर भी (लब्ध प्राणः जन्तुकः)प्राणोंसे बचा हुआ प्राणी (तुष्टः स्यात् ) संतुष्ट होता है ।२०। नष्टशेवधिरप्येष मृष्टमेवमतर्कयत् । दुःखार्थोऽपि सुग्वार्थी हि तत्त्वज्ञानधने सति ॥२१॥ अन्वयार्थः----(नष्टशेवधिः अपि एषः) नाश होगा है उपाजित धन जिसका ऐसे इस श्रीदत्त सेठने भी (एवं मृष्टं अतर्कयत् ) इस प्रकार विचार किया। अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (तत्वज्ञान धने सति) तत्वज्ञान रूपी धनके रहने पर (दुःखार्थः अपि) दुखकर पदार्थ भी (सुखार्थः भवति) सुखकर हो जाते हैं ॥ २१ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । तृष्णाग्निदह्यमानस्त्वं मूढात्मन्कि नु मुखसि । लोकव्यहितध्वंसोर्न हि तृष्णारूषोभिदा ॥२२॥ ____ अन्वयार्थः-(हे मूढात्मन् ) हे मूढ (आत्मा तृष्णाग्निदह्यमानः त्वं) तृष्णा रूपी अग्निसे जलता हुआ तू (किं नु मुह्यसे) क्यों मोहको प्राप्त होता है (हि) निश्चयसे (लोकद्वय हितध्वंसोः) इसलोक और परलोक संबंधी हितके नाश करनेवाले (तृष्णारुषोः) तृष्णा और क्रोधमें (न मिदा) कुछ भेद नहीं है ॥ २२॥ लोकद्रयहितायातमन्नैराश्यनिरतो भव । धर्मसौख्यच्छिदाशा ते तरुच्छेदः फलार्थिनाम् ॥२३॥ . अन्वयार्थः-- हे आत्मन् ) हे आत्मा तू ( लोकद्वय हिताय ) लोंकोंके हितके वास्ते (नैराश्यनिरतः भव) निराशपनेको प्राप्त हो अर्थात् विषयोंमें आशा छोड़ दे क्योंकि (तरुच्छे.. दः फलार्थिनाम् ) फलार्थी पुरुषों के वृक्षके नाश समान अर्थात् जो फल तो चाहते है और वृक्षको काट रहे हैं उन पुरुषोंके समान. ( ते आशा ) तेरी विषय संबंधी आशा (धर्मसौख्यच्छिद् ) धर्म और सुखको नाश करने वाली है ॥ २३ ॥ संसारासारभावोऽयमहो साक्षात्कृतोऽधुना। यस्मादन्यदुपक्रान्तमन्यदापतितं पुन: ॥ २४ ॥ - अन्वयार्थः--(अहो आश्चर्य है ? ( अधुना ) इस समय (मया) मैंने (अयं संसारासार भावः) इस संसारके असारपनेको (साक्षात्कृतः) प्रत्यक्ष कर लिया (यस्मात्) क्योंकि (अन्यत् उपक्रान्तम्) प्रारंभ कुछ और ही किया था (पुनः अन्यत् आपतितं) परन्तु कुछ और ही हो गया ॥ २४ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो लम्बः । अत एव हि योगीन्द्रा अपीन्द्रत्वाईसंपदम् । त्यक्त्वा तपांसि तप्यन्ते मुक्तयै तेभ्यो नमो नमः ॥ २६ ॥ ७४ अन्वयार्थ : - ( अत एव हि ) निश्चयसे इस ही लिये (योगीन्द्रिाः) बड़े योगीश्वर पुरुष ( इन्द्रत्वार्ह संपदम् ) इन्द्र पदके योग्य संपत्ति को (अपि) भी ( त्यक्त्वा) छोड़ कर (मुक्त्यै तपांसि तप्यन्ते) मुक्ति प्राप्त करनेके लिये तप करते हैं ( तेभ्यः नमो नमः ) ऐसे योगीश्वरोंके लिये मेरा बारंबार नमस्कार हो ॥ २५ ॥ इत्यूहोऽपि स दृष्टस्य कस्यचित्स्वार्तिमूचिवान् । मध्येमध्ये हि चापल्यमा मोहादपि योगिनाम् ||२६|| अन्वयार्थः -- ( इति ऊहः अपिसः) इस प्रकार विचार करने पर भी उस वणिकने (दृष्टव्य कस्यचित् अग्रे ) देखे हुए किसी पुरुष अगाड़ी (स्वार्तिम्) अपनी पीड़ा (ऊचिवान् ) कही । अत्र नीति: (हि) निश्रयसे ( योगिना अपि) योगियों के भी ( आमोहात) मोहनीय कर्म सद्भाव पर्यन्त ( मध्ये मध्ये चापल्यम् ) बीचर में चपलता होती है || २६ ॥ यादृच्छिक इवायातस्तत्कृच्छ्रं सोऽपि शुश्रुवान् । संसृतौ व्यवहारस्तु न हि मायाविवर्जितः ||२७|| अन्वयार्यः - ( सः अपि ) उस पुरुषने भी ( यादृच्छिक आयातः इव) बिना मतलब से आये हुयेके सदृश (तत्रुच्छ्रे शुश्रुवान् ) उसका कष्ट सुना । अत्रनीति: (हि) निश्रयसे (संसृतौ व्यवहारः संसारके अंदर व्यवहार ( मायाविवर्जितः न स्यात्) मायासे रहित नहीं होता है अर्थात कुछ कपट छल जरूर रहता है ॥ २७ ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । श्रुत्वा रिषेण केनापि नीत्वा राजतभूधरम् । स्वागतेः कारणं सर्वमभाणीत्त वणिक्पतेः ॥२८॥ ___अन्वयार्थः---- फिर (सः) उसने ( श्रुत्वा ) सेठके दुखको । सुन कर (केनापि मिषेण) किसी उपायसे (राजत भूधरम् नीत्वा) विनया पर्वत पर ले जाकर ( वणिकपतेः ) सेठसे (सर्व स्वागतेः : कारणम् ) अपने आनेका सारी कारण कहा ॥ २८ ॥ विजयागिरावस्ति दक्षिणश्रेणिमण्डने । गान्धारविषये ख्याता नित्यालोकाया पुरी ॥२९॥ ___अन्वयार्थ:-(विजया गिरौ) विजयार्ध पर्वत पर (दक्षिण श्रेणि मण्डने) दक्षिण श्रेणीके भूषण स्वरूप ( गान्धार विषये ) गान्धर देशमें (नित्या लोकाह्वया पुरी अस्ति) नित्यालोका नामकी पुरी है ।॥ २९॥ गरुडवेगनामास्यां राजा राज्ञी तु धारिणी। पुत्री गन्धर्वदत्ताभूदभूत्सापि यवीयसी ॥ ३० ॥ __अन्वयार्थः-- (अस्यां) इस नगरीमें (गरुड़वेगनाम राना) गरुड़ वेग नामका राजा राज्य करता है ( राज्ञीतु धारिणो ) और इसकी धारिणी नामकी रानी है और (गन्धर्वदत्ता पुत्री अभूत) इन दोनोंके गन्धर्व दत्ता नामकी पुत्री. है (सा अपि यवीयसी) और वह पुत्री भी अब जवान हो गई है ॥ ३० ॥ वीणाविजयिनो भार्या राजपुर्यामियं भवेत् । भूमाविति मुहूर्तज्ञा जन्मलग्ने व्यजीगणन् ॥३१॥ अन्वयार्थः--(मुहूर्तज्ञाः) ज्योतिषियोंने (जन्मलग्ने) गन्धर्वदत्ताके जन्म लग्नमें (भूमौ) भूमि गोचरियोंकी (राजपुयाँ) रान Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ तृतीयो लम्बः । पुरीमें ( इयं ) यह (वीणा विजयिनः) वीणा बजाने में विजयी पुरुकी ( भार्या भवेत् ) स्त्री होगी ( इति व्यजीगणन् ) इस प्रकार गणना की ॥ ३१ ॥ तदर्थं पार्थिवः सार्धमेकान्ते कान्तया तया । मन्त्रयित्वा तदन्ते माममन्दप्रीतिरादिशत् ||३२|| अन्वयार्थ :- (अमन्दप्रीतिः पार्थिवः) अत्यन्त प्रीति रखने वाले उस राजाने (एकान्ते) एकान्त में (तया कान्तया ) अपनी स्त्री के साथ (तदर्थ) इस कार्यके लिये ( मन्त्रयित्वा ) सलाह करके (तदन्ते) पश्चात् ( माम् आदिशत् ) मुझको आज्ञा दी ॥ ३२ ॥ कुल क्रमागता मैत्री श्रीदत्तेनास्ति नस्ततः । गत्वा सत्वरमत्रैव सोऽयमानीयतामिति ॥ ३३ ॥ अन्वयार्थः - ( कुल क्रमागता नः मैत्री ) कुल परंपरा से आई हुई हमारी मित्रता ( श्रीदत्तेन अस्ति ) श्रीदत्त सेठके साथ है (ततः) इसलिये (सत्वरं गत्वा) शीघ्र जाकर (सः अयं आनीयतां ) उन श्रीदत्त सेठको यहां ही ले आओ ( इति आदिशत् ) ऐसी आज्ञा ही ॥ ३३ ॥ भवन्तं परतन्त्रोऽहं नौभ्रंशभ्रान्तिमावहन् । नाम्ना वरः कृतेर्भूम्रा पुनरानीतवानिति ॥ ३४ ॥ अन्वयार्थ:-~~( नाम्ना घरः ) घर नामका ( परतन्त्रः अहं ) पराधिन सेवक मैं ( कृतेर्भूम्रा) कार्यकी गुरुतासे ( अत्यन्त आवश्यक कार्य होनेसे ( भवन्तं ) आपको ( नौभ्रंशभ्रांतिम् आवहन् ) नौका नाश होनेके भ्रमको करता हुआ ( पुनः ) पश्चात् ( अत्र Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । आनीतवान् ) यहां लाया हूं । ( इति श्रीदत्तं अकथयत् ) उसने ऐसा श्रीदत्त सेठसे कहा ॥ ३४ ॥ श्रीदत्तोऽपि तदाकर्ण्य तुतोष सुतरामसौ । दुःखस्यानन्तरं सौख्यमतिमात्रं हि देहिनाम् ||३५|| अन्वयार्थः - ( असौ श्रीदत्तः अपि ) श्रीदत्त सेठ भी (तद् आकर्ण्य) यह बात सुनकर ( सुतरां तुतोष ) अत्यंत संतुष्ट हुआ । अत्रनीति: (हि) निश्चयसे ( देहिनाम् ) देहधारी जीवोंके (दुःखस्य अनन्तरं दुःखंके अनन्तर (अतिमात्रं सौख्यं भवति) अत्यन्त सुख होता है ॥ ३५ ॥ असुखायत वैश्योऽपि खेचरेन्द्रावलोकनात् । मित्रं धात्रीपतिं लोके कोऽपरः पश्यतः सुखी ॥३६॥ अन्वयार्थः – (वैश्यः अपि) श्रीदत्त सेठ भी ( खेचरेन्द्रावलोकनात् ) विद्याधरोंके स्वामीके दर्शनसे ( असुखायत) अत्यंत सुखी हुआ । अत्र नीति: ( लोके ) इस संसार में (मित्रं घात्रीपतिं पश्यतः) मित्र राजाको देखनेवाले से (अपरः कः सुखी) दूसरा कौन सुखी है अर्थात् कोई नहीं है । तात्पर्य :- इस संसार में मित्रका दर्शन मात्र भी सुखके लिये होता है फिर अगर पृथ्वी पति मित्र मिल जाय तो उसके सुखका कहना ही क्या है ॥ ३६ ॥ नभश्वराधिपः पश्चातदायत्तां सुतां व्यधात् । प्राणेष्वपि प्रमाणां यत्तद्धि मित्रमितीष्यते ॥३७॥ अन्वयार्थः - ( पश्चात् ) तत्पश्चात् नभश्वराधिपः ) विद्या - धरोंके स्वमी गरुड़वेगने (सुतां ) अपनी पुत्री ( तदायत्तां) उस श्री Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो लम्बः । दत्त सेठके आधीन ( व्यघात् ) कर दी अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (यत्) जो (प्राणेषु अपि) प्राणोंमें भी (प्रमाणं) प्रमाण हो अर्थात् मित्रके लिये अपने प्राणोंको भी तुच्छ समझता हो (तद् मित्रं इति इप्यते) वही सच्चा मित्र माना गया है ॥ ३७ ॥ श्रीदत्तं सत्वरं तस्मात्वंचरेशो न्यवर्तयत् । अङ्गजायां हि मूत्यायामयोग्यं कालयापनम् ॥३८॥ ____ अन्वयार्थः---(खेचरेशः) विद्याधरोंके स्वामी गरुड़ वेगने ( श्रीदत्तं ) श्रीदत्त सेठको (तस्मात्) अपने यहांसे (सत्वरं) शीघ्रही (न्यवर्तयत् ) लौटा दिया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (अङ्गनायां सूत्यां सत्यां) पुत्रीके जवान हो जाने पर (कालयापनम् ) विना विवाहके काल विताना (अयोग्य) सर्वथा अयोग्य है ॥ ३८ ॥ गृहस्थानां हि तद्दो स्थ्यमतिमात्रमरुन्तुदम् । कन्यानामप्रमादेन रक्षणादिसमुद्भवम् ॥ ३९ ॥ अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (गृहस्थानां) गृहस्थोंको (तद्दो:स्थं) वह दुख ( अतिमात्रं अरुन्तुदम् ) अत्यन्त पीड़ा देनेवाला है ( यत् ) जो (कन्यानां) कन्याओंका (अप्रमादेन रक्षणादि समुद्भवम् ) प्रमाद रहित रक्षणादिकसे उत्पन्न हो ॥ ३९ ॥ तयामा स्वपुरं प्राप्य श्रीदत्तोऽप्यथ तत्कथाम् । पत्न्याः प्रकटयामास स्त्रीणामेव हि दुर्मतिः॥४०॥ ____ अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर (श्रीदत्तः अपि) श्रीदत्तने भी ( तया अमा ) उस गंधर्वदत्ता पुत्रीके साथ ( स्वपुरं प्राप्य ) अपने नगरमें आकर (तत्कथां) उसकी सारी कथा (पत्न्याः प्रकटया मास) अपनी स्त्रीसे कह दी। अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (स्त्रीणां एव दुर्मतिः) स्त्रियोंकी बुद्धि खोटी होती है____ अर्थात् श्रीदत्त सेठने इसलिये अपनी स्त्रीसे कहा कि स्त्रियोंके दुष्ट स्वभावसे यह मेरी स्त्री यह न समझ ले कि यह इसकी दूसरी पत्नी है ॥ ४० ॥ वीणाविजयिनो योग्या भोग्या पुत्री ममेति सः । कटके घोषयामास राजानुमतिपूर्वकम् ॥ ४१ ॥ ____अन्वयार्थ:-किर (सः) उस श्रीदत्त सेठने (राजानुमति पूर्वकम्) राजाकी आज्ञापूर्वक ( कटके ) राज्यभरमें “ योग्या) सर्वापमा योग्य (मम पुत्री) मेरो पुत्री (वीणा विजयिनः भोग्या) वीणा बनाने में जीतनेवालेकी भोग्य है अर्थात् जो वीणा बनाने में इसे जीत लेगा वही इसका पति होगा" (इति घोषयामास ) इस प्रकार घोषणा कराई ॥ ४१ ॥ अकुतोभीतिता भूमेर्भूपानामाज्ञयान्यथा । अस्तामन्यत्सुवृत्तानां वृत्तं च न हि सुस्थितम् ॥४२॥ _____ अन्वयार्थः- क्योंकि (भूपानां आज्ञया) राजाओंकी आज्ञासे (भूमेः) प्रनाके रहनेवाले मनुष्योंको (अकुतोभीतिता) किसीसे भी भय नहीं होता (अन्यथा) इसके विपरीत अर्थात् राजाकी आज्ञाके विना (अन्यदूरे आस्तां) और तो दूर ही रहे (सुवृत्तानां) सच्चरित्र पुरुषोंका (वृत्तंच) सदाचार भी (हि न सुस्थितम) निश्चयसे स्थिर नहीं रह सकता ॥ ४२॥ .. ... वीणामण्डपमासेदुस्तावता धरणीभुजः। स्त्रीरागंणात्र के नाम जगत्यांन प्रतारिताः॥४३॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो लम्बः । ___ अन्वयार्थ:-( तावता ) उसी समय घोषणाके सुनते ही (धरणी भुजः) राना लोग (बीणा मण्डपं आसेदुः) वीणा मण्डपमें आ पहुंचे अत्रनीतिः ? (अत्र जगत्यां) इस संसारमें (के नाम) कौन पुरुष (स्त्री रागेण न प्रतारितः) स्त्रीके प्रेमसे नहीं ठगाये गये हैं। अर्थात् स्त्रीका प्रेम सबको अपने आधीन कर लेता है ॥४॥ कन्यायाः परिवादिन्यां पराजेषत पार्थिवाः । अपुष्कला हि विद्या स्यादवकफला कचित् ॥४४॥ ___ अन्वयार्थ:-(पार्थिवाः) राजा लोग (कन्यायाः परिवादिन्यां) कन्याकी परिवादिनी नामकी वीणा बजाने पर (पराजेषत) हार गये । अर्थात् उससे बढकर कोई वीणा न बना सका । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (अपुष्कला विद्या) अपूर्ण विद्या (क्वचित) कहींपर (अवज्ञा एक फला स्यात) तिरस्कार ही है मुख्य फल निसका ऐसी होती है । अर्थात् तिरस्कारके सिवाय उसका दूसरा फल नहीं होता ॥ ४४ ॥ जीवधर कुमारस्तु घोषवत्यां जिगाय ताम् । अनवधा हि विद्या स्थाल्लोकदयफलावहा ॥४५॥ अन्वयार्थः-(तु जीवंधर कुमारः) किन्तु जीवंधर कुमारने (तां) उस कन्याको (घोषवत्यां) अपनी घोषवती नामकी वीणा बनाने पर (निगाय) जीत लिया । अत्रनीति: (हि ) निश्चयसे (अनवद्या विद्या) निर्दोष पूर्ण विद्या (लोकहयफलावहास्यात् ) इस लोक और परलोकमें उत्तम फल देनेवाली होती है ॥ १५ ॥ पराजयं जयाच्छ्लाघ्यं मत्त्वा सापि तमासदत् । अन्तिकं कृतपुण्यानां श्रीरन्विष्य हि गच्छति ॥४६॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ८१. अन्वयार्थः - ( सापि ) कन्या भी ( पराजयं) हारको (जयात्) जीतसे (लाध्यंमत्वा) उत्तम समझ कर (तं आसदत् ) उसके पास आगई । अत्रनीति: ! (हि) निश्चय से (श्रीः) लक्ष्मी (कृत पुण्यानां अन्तिकं ) पूर्व जन्म में किया है पुण्य जिन्होंने ऐसे पुरुषोंके समीपको (अन्विषष्यगच्छति ) स्वयं ढूंढकर चली जाती है ॥४६॥ आमुमोचाथ मोचोरुः स्रजं जीवकवक्षसि । कुर्वन्तु तप इत्येवं सर्वेभ्यो ब्रुवतीव सा ॥ ४७ ॥ अन्वयार्थ : – (अथ ) इसके अनंतर ( सा मोचोरुः ) केले के समान जंघावली उस गंधर्वदत्ताने " ( यूयं एवं तपः कुर्वन्तु) तुम लोग भी इस प्रकार तप करो " ( इति सर्वेभ्यः ब्रुवतीव ) इस प्रकार सबके लिये कहती हुई ही मानो" (जीवक वक्षसि) जीवधर स्वामीके वक्षस्थल में (स्रनं) पति स्वीकारताकी मालाको (मुमोच ) डल द || ४७ ॥ काष्टाङ्गारस्तु तद्वीक्ष्य क्षितिपान्समधुक्षयत् । अन्याभ्युदयखिन्नत्यं तद्धि दौन्यलक्षणम् ॥ ४८ ॥ अन्वयार्थः - ( तु काष्टाङ्गारः ) इसके पश्चात् काष्टाङ्गारने ( तद्वीक्ष्य ) यह देखकर ( क्षितिपान् समधुक्षयत् ) राजा लोगोंको लड़नेके लिये भड़का दिया । अत्र नीतिः (हि) निश्चय से ( अन्या - भ्युदयखिन्नत्व दूसरे की तरक्की में खेदित होना ही ( दौर्जन्य लक्षणम् दुर्जन पुरुषों का लक्षण है ॥४८॥ क्रयविक्रययोर्योग्यः कुप्पानां वैश्यसृनुकः । कथं लभेत स्त्रीरत्नं शस्तं वस्तु हि भूभुजाम् ॥ ४९ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयो लम्बः । अन्वयार्थ :- ( कुप्यानां ) चांदी सोनेसे अन्य पदार्थोंको (क्रय विक्रययोः योग्यः) खरीदने और बेचनेकी योग्यता वाला ( वैश्य सूनुकः) वैश्य पुत्र (कथं ) कैसे ( स्त्रीरत्नं लभेत ) स्त्रीरूपी रत्नको प्राप्त कर सकता है । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (शस्तं वस्तु) उत्तम पदार्थ (भूभुजां भवति) राजाओंके लिये होता है । अर्थात् तुम राजा लोगोंके उपस्थित रहते हुये यह स्त्रीरत्न इसको नहीं मिलना चाहिये ॥ ४९ ॥ ८२ इति संधुक्षिताश्चक्रुः स्वामिना तेऽपि संयुगम् । प्रकृत्या स्यादकृत्ये धीः शिक्षायां तु किं पुनः ॥ ५० ॥ अन्वयार्थ : -- ( इति संधुक्षिता) इस प्रकार भड़काये हुये ( ते अपि) उन राजा लोगों ने भी (स्वामिना) जीवंधर स्वामीके साथ (संयुगम् चक्रुः ) संग्राम किया । अत्र नीति: ( प्रकृत्याधीः अकृत्ये स्यात् ) स्वभावसे बुद्धि खोटे कार्य में प्रवृत्त हो जाती है। (दुःशिक्षायां तु किं पुनः वक्तव्यम् ) खोटी शिक्षा मिलने पर तो फिर कहना ही क्या है ॥१०॥ पराजेषत भूपास्ते धन्विनां चक्रवर्तिनः । अलं काकसहस्रेभ्य एकैव हि दृषद्भवेत् ॥ ५१ ॥ अन्वयार्थः – (ते भूपाः) वे राजा लोग (धन्विनां चक्रवर्तिनः ) धनुष धारियोंके चक्रवर्ती जीवंधर से (पराजेषत) हार गये । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (काक सहस्रेभ्यः) हजार कौऔंके उड़ानेके लिये (एका एव) एक ही ( दृषद् ) पत्थर (अलं भवेत् ) समर्थ होता है ॥५९॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । ८३ स्थाने कन्यामनः सक्तमित्यूचुः सज्जना मुदा । सुधासूतेः सुधोत्पत्तिरपि लोके किमद्भुतम् ॥ ५२ ॥ अन्वयार्थः - ( सज्जनाः ) सज्जन पुरुषोंने ( मुदा ) हर्षसे " ( कन्या मनः स्थाने सक्तं इति ऊचुः) कन्याका मन योग्य पुरुषमें आसक्त हुआ" ऐसा कहा क्योंकि ( लोके ) लोक में (सुधोत्पत्तिः अपि) अमृत की उत्पत्ति (सुधासुतेः) चन्द्रमासे ही (भवति) होती है । ( इति अद्भुतम् ) इसमें क्या आश्चर्य है अर्थात् इस याको ऐसा ही योग्य वर वरना चाहिये था ॥ ९२ ॥ अथ गन्धर्वदन्तां तां श्रीदत्तेनाग्निसाक्षिकम् । दत्तां स जीवकस्वामी पर्यणैष्ट यथाविधि ॥ ५३ ॥ अन्वयार्थ : - ( अथ ) इसके अनंतर (सः जीवक स्वामी) उन जीवंधर स्वामीने ( अग्नि साक्षिकम् ) अग्निकी साक्षी पूर्वक ( श्रीदत्तेन दत्त) श्रीदत्त सेठसे दी हुई ( तां गंधर्वदत्तां) उस गंधर्व दत्ताको ( यथाविधि ) विधिपूर्वक (पर्यणैष्ट) व्याहा ||१३|| इति श्रीमद्वादोभसिंहसूरि विरचिते क्षत्रचुडामणो सान्वयार्थो गन्धर्वदत्ता लम्बो नाम तृतीयो लम्बः ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ चतुर्थो लम्बः । قد चतुर्थो लम्बः अथ जीवंधरस्वामी रेमे रामासमन्वितः । संसारेऽपि यथायोग्यगोग्यान्ननु सुखी जनः ॥ १ ॥ अन्वयार्थः - ( अथ ) इसके अनंतर ( रामासमन्वितः ) अपनी गंधर्वदत्ता नामकी स्त्री सहित ( जीवंधर: ) जीवंधर स्वामोने ( रेमे ) क्रीड़ा की । अत्र नीति: (ननु) निश्चय से (संसारे अपि) संसार में भी ( जनः ) मनुष्य ( यथायोग्यात भोग्यात्) अपनी योग्यताके अनुकूल भोग सामग्री मिलने से ( सुखी भवति ) सुखी होता है ॥ १ ॥ माधवोऽथ जलक्रीडां पौराणामुदपादयत् । रागान्धानां वसन्तो हि बन्धुरग्नेरिवानिलः ||२|| अन्वयार्थ (अथ ) इसके अनंतर ( माधवः ) वसंतऋतुने (पौराणां ) पुरवासियोंके (जलक्रीड़ा) जलकेद्वारा फाग खेलानेकी क्रीड़ा ( उदपादयत् ) उत्पन्न की । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (रागान्धानां ) अनुराग से अन्धे पुरुषों का ( बसन्तः ) बसंत (अग्नेः अनिलः इव) अभिका पवनकी तरह (बन्धु) मित्र है ॥ २ ॥ जीवंधरकुमारोऽपि मित्रैर्द्रष्टुमयादमूम् । नवापगाजलक्रीडां लोको ह्मभिनवप्रियः ॥ ३ ॥ अन्वयार्थः - ( जीवंधर कुमारः अपि) जीवंधर कुमार भी ( अमूम् नवापगा जलक्रीड़ां) इस नवीन नदीके जलकी क्रीड़ाको Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। (दृष्टुं) देखनेके लिये ( मित्रैः सह अयात् ) अपने मित्रोंके साथ गये । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (लोकः) संसारी लोग (अभिनव प्रियः भवति) हमेशा नवीन वस्तुसे प्रेम करने वाले होते हैं ॥३॥ अवधिषुर्दिजास्तत्र हविर्दूषितभाषणम् । क्रूराः किं किं न कुर्वन्ति कर्म धर्मपराङ्मुखाः ॥४॥ अन्वयार्थः-(तत्र) वहां पर ( द्विनाः) याज्ञिक ब्राह्मणोंने " (हविर्दूषितभाषणाम् ) हव्य सामग्रीको दूषित किया है जिसने ऐसे कुत्तेको” (अवधिपु) जानसे मार डाला । अत्र नीतिः (धर्म परामुखाः क्रूराः) धर्मसे पराङ्मुख कठोर हृदय वाले मनुष्य (किं किं कर्म न कुर्वन्ति) क्या क्या नीच कर्म नहीं करते हैं अर्थात् वे सब बुरे कर्म कर डालते हैं ॥ ४ ॥ निनिमित्तमपि सन्ति हन्त जन्तूनामिकाः। किं पुनः कारणाभासे नो चेदत्र निवारकः ॥५॥ ___ अन्वयार्थः-(हन्त) खेद है । ( अधार्मिकाः ) पापी पुरुष (निर्निमित्तं अपि) विना कारणके भी ( जन्तून् ) जीवोंको (नंति) मार डालते हैं (कारणामासे) कारण मिल जाने पर (चेद् अत्र) यदि वहां (निवारकः) कोई निवारण करने वाला (न स्यात) नहीं हो (किं पुनः वक्तव्यम्) तो फिर कहना क्या है ॥ ५ ॥ ताथां वीक्षमाणोऽयं कुमारो विषसाद सः । तद्धि कारुण्यमन्येषां स्वस्येव व्यसने व्यथा ॥ ६॥ अन्वयार्थः-(तद् व्यथां वीक्षमाणः) उस कुत्तेकी पीड़ाको देखते हुवे (अयं कुमारः) यह जीवंधर कुमार (विषसाद) अत्यंत Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो लम्बः । खेदको प्राप्त हुवे । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे ( अन्येषां व्यसने ) दूसरेकी पीड़ामें (स्वस्येव व्यथा) अपने दुःखके समान पीडाका अनुभवन करना ही (तत् कारुण्यं) करुणा है ॥ ६ ॥ प्रत्युज्जीवयितुं श्वानं यत्नेनाप्यथ नाशकत् । परलोकार्थमस्यायं पञ्चमन्त्रमुपादिशत् ॥ ७ ॥ ___अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर ( अयं ) यह जीवंधर कुमार (यत्नेन अपि) यत्नसे भी (श्वानं) कुत्तेको (प्रत्युज्जीवयितुं) जिलानेके लिये (न अशकत् ) समर्थ नहीं हुवे किन्तु (अस्य परलोकार्थ) इसके परलोकके सुधारके लिये (पञ्च मन्त्रं) पञ्च नमस्कार मंत्रको (उपादिशत् ) उपदेश देते भये ॥ ७ ॥ न ह्यकालकृतो यत्नो भूयानपि फलप्रदः। निर्वाणपथपान्थानां पाथेयं तद्धि किं परैः॥ ८॥ अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (अकालकृतः भूयानपि यत्नः) समय निकल जाने पर किया हुआ भी बहुत यत्न (फलप्रदः न) फल देने वाला नहीं है (परैः किं) बहुत कहनेसे क्या (तनिर्वाण पक्षपान्थामां) यह मन्त्र मोक्षके मार्ग पर चलने वाले पथिकोंके लिये (पाथेयं) कलेवा है ॥ ८ ॥ ____अर्थात्-सुख पूर्वक मोक्षको लेजानेवाला यह मन्त्र है।।८॥ यक्षेन्द्रोऽजनि यक्षोऽयमहो मन्त्रस्य शक्तितः । कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ॥ ९॥ अन्वयार्थ:--(अहो) आश्चर्य है ? (अयं यक्षः) यह कुत्ता (मन्त्रस्य) मन्त्रके (शक्तितः) प्रभावसे (यक्षेन्द्रः अननि) यक्ष जातिके Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। देवोंका स्वामी होता भया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (कालाथसं) अत्यन्तकाला लोहा भी (रसयोगतः) रसके संबंधसे (कल्या. णं कल्पते) बहु मूल्य औषधिको प्राप्त हो जाता है ।। ९॥ मरणक्षणलब्धेन येन श्वा देवताजनि। पञ्चमन्त्रपदं जप्यमिदं केन न घीमता ॥ १० ॥ अन्वयार्थः- ( मरणक्षणलब्धेन येन ) मरणके समय प्राप्त जिस मन्त्रसे (श्वा) कुत्ता भी (देवता अननि) देवता हो गया तब (केन धीमता) किप्स बुद्धिमानसे ( इदं पञ्चमन्त्रं ) यह पञ्च णमो कार मन्त्र (न जाप्यं) नहीं जपने योग्य है ॥ १० ॥ _____ अर्थात्-यह मन्त्र सब बुद्धिमानोंको जपना चाहिये ॥१०॥ स कृतज्ञचरो देवः कृतज्ञत्वात्तदागमत् । अन्तर्मुहूर्ततः पूर्तिर्दिव्याया हि तनोर्भवेत् ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ----( स कृतज्ञचरो देवः ) वह कुत्तेका जीव देव ( कृतज्ञत्वात् ) कृतज्ञताके कारण ( तदा ) उसी समय जीवंधर स्वामीके पास ( आगमत् ) आया (हि) निश्चयसे (दिव्यायाः तनो) देवोंके शरीरकी (पूर्तिः) पूर्णता (अन्तर्मुहूर्ततः भवेत् ) अन्तर्मुहूर्तमें हो जाती है ॥ ११ ॥ कुमारममरो दृष्टा हृष्टस्तुष्टाव मृष्टवाक् । उपकारस्मृतिः कस्य न स्यान्नो चेदचेतनः ॥ १२॥ अन्वयार्थः- (मृष्टवाक्) शुद्ध वाणी बोलनेवाला और (हृष्टः) आनंदसे परिपूर्ण ( अमरः ) वह यक्षेन्द्र ( कुमारं दृष्ट्वा ) जीवंधर कुमारको देखकर (तुष्टाव) उनका स्तवन करने लगा। सच है ! Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो लम्बः । (उपकार स्मृतिः ) उपकारका स्मरण ( कस्य ) किसके (नस्यातू ) नहीं होता है ( चेत् ) यदि (सः अचेतनः नस्यात) वह अचेतन नहीं हो ॥ १२॥ व्यस्मेष्ट तेन न स्वामी मनुमाहात्म्यनिर्णयात् । मुक्तिप्रदेन मन्वेण देवत्वं न हि दुर्लभम् ॥ १३ ॥ अन्वयार्थः- (स्वामी) जीवंधर स्वामी (मनुमाहात्म्य निर्णयात् ) मन्त्रके माहात्म्यके निर्णयसे (तेन न व्यस्मेष्ट) उस देवके द्वारा आश्चर्ययुक्त नहीं हुवे (हि) निश्चयसे (मुक्तिप्रदेन मन्त्रेण) मुक्तिके देनेवाले मन्त्रसे (देवत्वं) देव पर्याय मिलना (न दुर्लभम्) कुछ दुर्लभ नहीं है ॥ १३ ॥ स्मर्तव्योऽस्मि महाभागेत्युक्त्वा देवस्तिरोऽभवत् । प्रतिकर्तु कथं नेच्छेदुपकर्तुः सचेतनः ॥ १४ ॥ __अन्वयार्थः-(हे महाभाग) हे महाभाग ! समय पर (अहं) मैं (स्मर्तव्यः अस्मि) स्मरण करने योग्य इं (इति उक्त्वा) ऐसा कह कर (देवः तिरो अभवत्) देव अन्तर्धान हो गया । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (सचेतनः) सचेतन प्राणी (उपकर्तुः) अपने उपकार करने वालेका (प्रतिकर्तु) प्रत्युपकार करनेके लिये (कथं) कैसे (न इच्छेत्) इच्छा नहीं करता है ? करता ही है ॥ १४ ॥ सारमेयचरे देवे तमाश्लिष्य मुहुर्मुहुः। आपृच्छय च गते तस्मिन्नत्र प्रस्तुतमुच्यते ॥ १५ ॥ __अन्वयार्थः-(तस्मिन् सारमेयचरे देवे) उस कुत्तैके जीव देवके " (सं) जीवंधरको (आश्लिष्य) आलिंगन करके (च) और Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (मुहुः मुहुः आप्टच्छय) बार बार पूछ कर” (गते) चले जाने पर (अत्र प्रस्तुतं उच्यते) यहां जो वृतान्त हुआ उसे कहते हैं ॥१५॥ चूर्णार्थ सुरमार्याः स्पर्धाभूद्गुणमालया। एकार्थस्पृहया स्पर्धा न वर्धतात्र कस्य वा ॥१६॥ ____ अन्वयार्थः-(चूर्णार्थ) चूर्णके लिये सुरमअर्याः) सुरमज्जरीकी (स्पर्धा) ईर्षा (गुणमालया अभूत) गुणमालाके साथ हुई । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (अत्र) इस संसारमें (एकार्थस्टहया) एक ही पदार्थकी इच्छा करनेसे (कस्य) किसके (स्पर्धा न भवेत) ईर्षा नहीं बढ़ती है । अर्थात्-सबके यही इच्छा होती है कि मैं ही इस पदार्थको लेलू । अथवा मेरी ही वस्तु औरकी वस्तुसे उत्तम हो ॥ १६ ॥ मा भूत्पराजिता स्नाता नादेये वारिणीति वै।। संगिराते स्म ते सख्यौमात्सर्याटिकन नश्यति ॥१॥ अन्वयार्थः- "(पराजिता) हारी हुई (नादेये वारीणी स्नाता मा भूत) नदीके जलमें स्नान नहीं करै " (इति) ऐसी ( ते सख्यौ ) उन दोंनों सखियोंने (वै संगिराते स्म) प्रतिज्ञा की। अत्र नीत्तिः (मात्सर्यात्किं न नश्यति) द्वेष भावसे क्या नाश नहीं होता है ? अर्थात् सभी कार्य नष्ट हो जाते हैं ॥ १७ ॥ कन्ये प्राहिणतां पश्चाचेट्यौ स्वे निकटे सताम् । कुत्सितं कर्म किं किं वा मत्सरिभ्यो न रोचते ॥१८॥ ____ अन्वयार्थः-(पश्चात् कन्ये) फिर दोनों कन्याओंने (स्वे चेट्यौ) अपनी दो दासिये (सतां निकटे) चूर्णकी परीक्षा करने Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० चतुर्थो लम्बः । वाले सज्जन पुरुषोंके समीपमें ( प्राहिणुतां) भेजी । अत्र नीतिः निश्चयसे (मत्सरिभ्यः) मत्सर करनेवाले पुरुषोंको (किं किं कुत्सितं कर्म) कौन २ खोटा कर्म ( न रोचते) नहीं रुचता है अर्थात् सभी खोटे कर्म रुचते हैं ॥ १८ ॥ अस्थिषातामथागत्य चेट्यौ जीवककोविदे । अनवद्या मती विद्या लोके किं न प्रकाशते ॥ १९ ॥ अन्वयार्थ : - ( अथ ) तदनंतर (चेट्यौ ) वे दोनों दासिय ( जीवककोविदे ) बुद्धिमान जीवंधर स्वामीके समीप ( आगत्य ) आ करके ( अस्थिषातां ) ठहर गईं। अत्र नीति: (हि) निश्वयसे (लोके) प्रसार में ( सती अनवद्या विद्या) समीचीन निर्दोष विद्या ( किं न प्रकाशते ) किस बातको प्रकाशित नहीं करती है । अर्थात् उत्तम विद्यासे इस लोकमें सब बातोंका निर्णय हो जाता है ।। १९ ।। गुणवद्गुणमालायाश्चूर्ण निर्वर्ण्य सोऽभ्यधात् । पाण्डित्यं हि पदार्थानां गुणदोषविनिश्चयः ॥२०॥ अन्वयार्थः - ( स ) उस जीवंधरने ( गुणमालायाश्चूर्ण ) गुणमाला चूर्णको (निर्वर्ण्य) देखकर (गुणवत्) गुणवान् (अभ्यवाद) बतलाया । अत्र नीतिः (हि) निश्चय से ( पदार्थानां गुणदोषविनिश्चयः) पदार्थोंके गुण और दोषका निश्चय करना ही ( पाण्डित्यं ) पाण्डित्य है ।। २० । चेटी तु सुरमञ्जर्यास्तच्छुत्वा रोषणाब्रवीत् । अन्यैरप्युक्तमुक्तं तैः किमध्यैष्ट भवानिति ॥ २१ ॥ अन्वयार्थः – (तु) इसके अनंतर (सुरमञ्जर्याः चेटी) सुरमञ्जकी दासीने (तद् श्रुत्वा ) यह बात सुनकर (रोषणा सती) को धित Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ९१ होते हुए “ (अन्यैः उक्तम् अपि) दूसरों से कहा हुआ ही आपने (उक्तम्) कहा (किं) क्या (तैः सार्धं) उनके साथ ( भवान् अध्यैष्ट) आपने पढ़ा है " (इति) इस प्रकार ( अब्रवीत् ) उत्तर दिया | २१|| चूर्णयोरलिभिः स्वामी गुणदोषाव साधयत् । निर्विवादविधिनों चेन्नैपुण्यं नाम किं भवेत् ॥ २२ ॥ अन्वयार्थः - फिर (स्वामी) जीवंधर स्वामीने ( चूर्णयोः गुणदोष ) गुणमाला और सुरमञ्जरीके चूर्णोंके गुण और दोषोंका निर्णय (अलिभिः) भ्रमरोंके द्वारा ( असाधयत् ) सिद्ध किया । अत्र नीति: ( चेत् ) यदि ( निर्विवादविधिः न स्यात् ) विवाद रहित विधि न होवे तो फिर ( नैपुण्यं नाम किं भवेत् ) चतुराई ही क्या कहलावे ।। २२ ॥ आकालिकतया दुष्टं चूर्णमन्यदवर्णयत् न कालकृतं कर्म कार्यनिष्पादनक्षमम् ॥२३॥ अन्वयार्थ :- जीवंधर स्वामीने ( अन्यत् चूर्ण) सुरमञ्जरीके चूर्ण को ( आकालिकतया ) असमय में बनाये जानेसे (दुष्टं ) दूषित (अवर्णयत्) बतलाया अर्थात् सुरमञ्जरीका चूर्ण शरदऋतुके समयके अनुकूल था इसलिये उसमें सुगंध न होने से उस पर कोई भरा नहीं आया । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे ( अकालकृतं कर्म ) असमय में किया हुआ उद्योग ( कार्य निष्पादनक्षमम् न भवति ) कार्यके निष्पादन करने में समर्थ नहीं होता है || २३ || कुमारादथ कुन्यौ नुत्वा नत्वा च निर्गते । निर्विवाद वितन्वाना न स्तुत्याः केन भूतले ॥ २४ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो लम्बः । ___ अन्वयार्थ-( अथ ) इसके अनंतर ( कुट्टन्यौ ) वे दोनों दासिये जीवंधर कुमारकी ( नुत्वा नत्वा च ) स्तुति और वंदना करके (कुमारात् ) जीवंधर कुमारके पाससे (निर्गते ) चली गई। अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (भूतले) पृथ्वी तल पर (निर्विवाद वितन्वाना) विवाद रहित कार्यको निर्णय करनेवाले पुरुष (केन न स्तुत्याः) किस पुरुषसे स्तुति करने योग्य नहीं हैं अर्थात् सब ऐसे पुरुषोंकी पूजा करते है ॥ २४ ॥ तचासीत्तुरमार्या विरागस्यैव कारणम् । न ह्यत्र रोचते न्यायमीादूषितचेतसे ॥२६॥ ____ अन्वयार्थः- तच्च) और यह निर्णय (पुरमञ्जर्याः) सुरमञ्जरीके (वैराग्यस्य एव ) वैराग्यका ही (कारणं आसीत् ) कारण हुआ । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (अत्र) संसारमें (ईदूिषित चेतसे) ईर्षासे दूषित चित्तवाले पुरुषके लिये (न्यायं) न्यायकी बात (न रोचते) रुचिकर नहीं होती है ॥ २५ ॥ प्रार्थिताप्यकृतस्नाना सत्वरं सुरमञ्जरी । न्यवर्तिष्ट महारोषादीया हि स्त्रीसमुद्भवा ॥२६॥ __अन्वयार्थः -- ( प्रार्थिता अपि सुरमञ्जरी) स्नान के लिये प्रार्थित भी सुरमञ्जरी (अकृतस्नाना) स्नान विना किये हुवे ही (महारोषात) अत्यंत क्रोधसे (सत्वरं) शीघ्र ही (न्यवर्तिष्ट) लौट गई । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( ईर्ष्या) ईर्षा (स्त्री समुद्भवा) स्त्रियोंसे ही उत्पन्न हुई है अर्थात् सबसे अधिक ईर्षा भाव स्त्रियोंमें ही रहता है ॥ २६ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । जीवकादपरान्नेक्षे पुरुषानिति संविदा। कन्यागृहमथ प्रापन्न हि भेद्यं मनः स्त्रियाः ॥ २७॥ अन्वयार्थः- ( अथ ) इसके अनंतर " ( अहं जीवकात् अपरान् पुरुषान् ) जीवंधर कुमारके सिवाय दूसरे पुरुषको (न ईक्षे) नहीं देखूगी" (इति संविदा) ऐसी प्रतिज्ञा करके (कन्या) वह सुरमञ्जरी (गृहं प्रापत्) अपने घरको चली गई। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (स्त्रियाः मनः) स्त्रीका मन (न भेद्य) किसीसे भेदा नहीं जा सकता अर्थात् स्त्रीकी हठ प्रसिद्ध है उसकी हठ किसीसे टाली नहीं जा सकती ॥ २७ ॥ सख्या तथैव यातायां गुणमाला शुशोच ताम् । न ह्यनिष्टष्टसंयोगवियोगाभमरुन्तुदम् ॥ २८ ॥ _अन्वयार्थः-(सख्यां तथैव यातायां) सखिके वैसे ही चले जानेपर (गुणमाला) गुणमालाने (तां शुशोच) उसके लिये बहुत शोक किया। अत्रानीतिः (हि) निश्चयसे (अनिष्टेष्ट संयोगवीयोगाभम् ) अनिष्ट दुखदाई वस्तुसे संयोग और इष्ट सुखदाई वस्तुसे वियोगके समान (अरुन्तुदम् न) कोई पीड़ा देनेवाला नहीं है ॥ २८ ॥ गन्धसिन्धुरतो भीतिरामीदथ पुरौकसाम् । विपदोऽपि हि तभीतिमूढानां हन्त बाधिका ॥२९॥ _अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर ( पुरौकसाम् ) राजपुरी नगरीमें रहने वाले मनुष्योंको (गन्धसिन्धुरतः) गंध हस्तीसे (भीतिः आसीत् ) भय हुआ अर्थात् काष्टाङ्गारका एक हाथी अपने स्थानसे छूटकर मदोन्मत्तासे मनुष्योंको इधर उधर मारता हुआ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो लम्बः । उसी ही वसंतक्रीड़ाके स्थान पर आया । अत्र नीतिः ( हन्त ) खेद है ! (हि) निश्चयसे (विपदः अपि) विपत्तिसे भी (तद्धोतिः) विपत्तिका जो भय है वह (मूढानां बाधिका) मूर्ख पुरुषोंको अत्यंत बाधा करने वाला होता है ॥ २९ ॥ परिजनस्तु तं पश्यन्गुणमालामथात्यजत् । न हि सन्तीह जन्तूनामपाये सति बान्धवाः ॥३०॥ - अन्वयार्थः- ( तं पश्यन् ) हाथीके देखते हुवे (परिजनः) गुणमालाके संबंधी पुरुषोंने (गुणमालां अत्यनत्) उस गुणमालाको अकेली छोड़ दी। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( इह ) इस संसारमें (अपाये सति) विपत्ति पड़ने पर (जन्तूनां ) मनुष्योंके (बान्धवाः न सन्ति) बन्धु नहीं रहते हैं अर्थात् विपत्ति कालमें सब छोड़कर भाग जाते हैं ॥ ३० ॥ कृत्वा तां पृष्ठतो धात्री काचिदस्थाद्दयावहम् । हतायां मय्यतः पूर्व कन्येयं हन्यतामिति ॥ ३१ ॥ __ अन्वयार्थः- (काचिद् धात्री) कोई धाय “ (पूर्वमयि हता. यां सत्यां) पहले मेरे हत जाने पर ( अतः इयं कन्या हन्यतां) पश्चाद् इस कन्याको मारना" (इति उक्त्वा ) यह कह कर (दया वहम् अस्थात्) दयाभावसे खड़ी हो गई ॥ ३१ ॥ समदुःखसुखा एव बन्धवो ह्यत्र बान्धवाः । दूता एव कृतान्तस्य इन्द्रकाले पराखाः ॥३२॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । ९५ अन्वयार्थः — (हि) निश्चय से ( अत्र ) इस संसार में (सम दुःखसुखाः बन्धवः एव) समान हैं दुःख और सुख जिनके ऐसे बन्धु ही (बान्धवाः) मित्र ( सन्ति ) कहलाते हैं और जो ( द्वन्द परामुखाः) विपत्ति कालमें साथ छोड़कर दूर भाग जाते हैं वे कृतान्तस्य) यमके ( दूता एव) दूत ही हैं ॥ ३२ ॥ स्वामी परिणतं वीक्ष्य करिणं तं न्यवारयत् । स्वापदं न हि पश्यन्ति सन्तः पारार्थ्यतत्पराः ॥३३॥ अन्वयार्थ :- स्वामी) जीवंधर स्वामीने (परिणतं दांतोंसे प्रहार करते हुए (तं करिणं) उस हाथीको (वीक्ष्य) देख कर (न्य - वारयत् ) हटा दिया । अत्र नीति: ( हि ) निश्चय से (पारार्थ्य तत्पराः) दूसरे मनुष्योंके उपकार करने में तत्पर / सन्तः) सज्जन पुरुष (स्वापदं न पश्यन्ति ) अपनी आपत्तिको नहीं देखते हैं ॥ ३३ ॥ यत्र कापि हि सन्त्येव सन्तः सार्वगुणोदयः । क्वचित्किमपि सौजन्यं नो चेल्लोकः कुतो भवेत् ॥ ३४ ॥ अन्वयार्थः – (हि) निश्वयसं ( सर्वगुणोदयः ) सबके हितके लिये ही है गुणोंकी उत्पत्ति जिनमें ऐसे ( सन्तः) सज्जन पुरुष (यत्र कापि ) जहां कहीं पर ( सन्त्येव) विद्यमान ही हैं । (चेत्) यदि (क्वचित्) कहीं पर (किमपि) कुछ भी ( सौजन्यं) सुजनता ( न स्यात्) न होवे तो फिर (लोकः कुतः भवेत् ) संसार ही कैसे चले ॥ ३४ ॥ परिवारोऽप्यथायासीदहंपूर्विकया स्वयम् । स्वास्थ्येदृष्टपूर्वाश्च कल्पयन्त्येव बन्धुताम् ||३५|| Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो लम्बः । अन्वयार्थ : -- ( अथ ) इसके अनंतर ( परिवारः अपि ) परिबारके मनुष्य भी (स्वयं) अपने आप ही " ( अहं पूर्विकया) मैं इससे पहले आया मैं इससे पहले आया" (इति) ऐसा कहते हुए (अयामीत्) आये । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( स्वास्थ्ये) सुखमें (अदृष्टपूर्वाश्च) पूर्वमें नहीं देखे हुये पुरुष भी (बन्धुतां कल्पयन्ति ) बन्धुपको कल्पना करते हैं ॥ ३५ ॥ अन्योऽन्यदर्शनादासीत्कामः कन्याकुमारयोः । दुःखस्यानन्तरं सौख्यं ततो दुःखं हि देहिनाम् ||३६|| अन्वयार्थः - ( अन्योन्यदर्शनात् ) एक दूसरेको परस्पर देखने से (कन्याकुमारयोः) कन्या और कुमार में ( कामः आसीत् ) प्रीति उत्पन्न हुई । अत्र नीति: (हि) निश्चय से (देहिनाम् ) मनुप्योंके (दुःखस्यानन्तरं सौख्यं) दुःखके अनंतर सुख और (ततः दुःखं भवति) सुखके पीछे दुःख होता है ॥ ३६ ॥ अशान्तस्वान्तसंतापा निशान्तं पाप सा पुनः । नो चेद्विवेकनीरौघो रागाग्निः केन शाम्यति ||३७|| अवयार्थ : - (पुन) फिर " ( अशान्तस्वान्तसन्तापा ) नहीं शान्त हुआ है हृदयका संताप जिसका अर्थात् काम पीड़ासे संतप्त वह कन्या (निशान्तं प्राप) घरको चली गई । अत्र नीतिः ( चेत् ) यदि (विवेकनीरौधः न स्यात्) विवेकरूपी जलका प्रवाह नहीं होवे तो फिर (रागाग्निः) राग रूपी अग्नि ( केन शाम्यति ) किससे शान्त हो सकती है ? क्रोडाशुकं च प्राहैषीत्सविधे स्वामिनः पुनः । योग्यायोग्य विचारोऽयं रागान्धानां कुतो भवेत् ||३८| ii ३७ ॥ ९६ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः - ( पुनश्च सा) और फिर उसने (स्वामिनः सविधे ) जीवंवर स्वामीके समीप ( क्रीड़ाशुकं प्राहैषीत् ) अपने क्रीड़ा शुकको अर्थात् पाले हुवे तोतेको भेना । अत्र नीति: (हि) निश्वयसे (रागान्धानां ) रागसे अंधे मनुष्योंके (अयं योग्यायोग्य विचारः) योग्य अयोग्यका विचार ( कुतः भवेत् ) कहांसे हो सकता है ॥ ३८ ॥ चाटुं प्रायुङ्क कीरोऽपि तं पश्यन्स्वेष्टसिद्धये । एतादृशेन लिड्रेन परलोकी हि साध्यते ॥ ३९ ॥ • अन्वयार्थ :- (कीरः अपि ) तोता भी ( तं पश्यन् ) जीवधर स्वामीको देख कर ( स्वेष्ट सिद्धये ) अपने कार्यकी सिद्धिके लिये (चार्ट) खुशामदी बातें (प्रायुक्त) करने लगा । अत्र नीति: (हि) निश्रवसे ( एतादृशेन लिङ्गेन) ऐसी खुशामदी बातोंसे हो (परलोकः साध्यते) दूसरे मनुष्य वशमें किये जाते हैं ॥ ३९ ॥ विषयेषु समस्तेषु कामं सफलयन्सदा । गुणमालां जगन्मान्यां जीवयञ्जीवताचिरम् ||४०|| अन्वयार्थ :- तोतेने कहा " ( समस्तेषु विषयेषु ) सम्पूर्ण विषयों में (सदाकामं सफलयन् ) हमेशा अपनी इच्छायें सफलित करते. हुए और ( जगन्मान्यां) जगत में माननीय (गुणमालां) गुणमालाको अथवा अपने जगन्मान्य गुण समूहको " ( जीवयन् ) रक्षा करते हुए (चिरं जीवतात्) चिर काल तक जीते रहो ॥ ४० ॥ इत्याशिषा कुमारोऽपि तत्संदेशाच्च पिप्रिये । इष्टस्थाने सती वृष्टिस्तुष्टये हि विशेषतः ॥ ४१ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो लम्बः । अन्वयार्थः - ( कुमारः अपि ) जीवंधर कुमार भी (इति आशिषा) इस प्रकार के आशीर्वाद से और (तत् संदेशात् च ) उसतोते के संदेश से (पिप्रिये ) अत्यन्त प्रसन्न हुए । अत्र नीतिः) (हि) निश्चय से (इष्ट स्थाने सती वृष्टिः ) इच्छित स्थानमें उत्तम वृष्टि (विशेषतः) अधिकतासे ( तुष्टये भवति ) प्रसन्नता के लिये होती है ॥ ४१ ॥ ९८ प्रतिसन्देशमप्येष कीराय प्रत्यपादयत् । प्रेक्षावन्तो वितन्वन्ति न ह्युपेक्षामपेक्षिते ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थः—( एषः ) इन जीवधर कुमारने ( कीराय ) उस तोते के लिये ( प्रति संदेश अपि ) संदेशका प्रत्युत्तर भी ( प्रत्य - पादयत् ) दिया । अत्र नीतिः (हि) निश्वयसे ( प्रेक्षावन्तः ) बुद्धिमान पुरुष (अपेक्षते वस्तुनि ) अपेक्षित वस्तुमें (उपेक्षां न वितन्वन्ति) उपेक्षा नहीं करते हैं ॥ ४२ ॥ अर्थात् जो अपनेको चाहते हैं उसका तिरस्कार नहीं करते हैं ॥ ४२ ॥ मुमुदे गुणमालापि दृष्ट पत्रेण पत्रिणम् । स्वस्यैव सफलों यत्नः प्रीतये हि विशेषतः ॥ ४३ ॥ अन्वयार्थः -- ( गुणमाला अपि) गुणमाला भी ( पत्रिणम् ) तोतेको ( पत्रेण सह दृष्ट्वा ) पत्र सहित देखकर ( मुमुदे ) अत्यन्त प्रसन्न हुई अत्र नीति: ( हि ) निश्चय से ( स्वस्य एव यत्नः ) अपना किया हुआ ही यत्न ( सफलं ) सफल होने पर (विशेषतः ) अधिकतर ( प्रीतये भवति) प्रीतिदायक होता है ॥ ४३ ॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९९ क्षत्रचूड़ामणिः । पितरावेतदाकण्ये मुमुदातेमृशं पुनः । दुर्लभो हि वरो लोके योग्यो भाग्यसमन्वितः॥४४॥ अन्वयार्थः-(पुनः) फिर (पितरौ) गुणमालाके मातापिता (एतद् आकर्ण्य) यह बात सुनकर (भृशं मुमुदाते) अत्यन्त प्रसन्न हुये (अत्र नीतिः) (हि) निश्चयसे ( लोके ) इस संसारमें (भाग्य समन्वितः) भाग्यवान् (योग्यः वरः) उत्तम वरका मिलना (दुर्लभः) अत्यंत दुर्लभ है ॥ ४४ ॥ अथामुष्यायमाणौ कौचिन्नीतो गन्धोत्कटान्तिकम् । न हि नीचमनोवृत्तिरेकरूपास्थिता भवेत् ॥ ४५ ॥" ___ अन्वयार्थ:-(अथ) इसके अनन्तर (अमुष्यायमाणौ कौचित) प्रसिद्ध कोई दो पुरुष (गन्धोत्कटान्तिकं नीतौ) गन्धोत्कटके समीप गये अर्थात् उन्होंने जीवंधर गुणमालाकी प्रीतिको अनुचित बतला कर चुगली खाई । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (नीच मनोवृत्तिः) नीच मनुष्यके मनकी वृत्ति ( एकरूपा ) हमेशा एकसी ( न स्थिता) स्थित नहीं रहती है ॥ ४५ ॥ अनुमेने तयोर्वाक्यं श्रुत्वा गन्धोत्कटोऽपि सः । अदोषोपहतोऽप्यर्थः परोक्त्या नैव दृष्यते ॥ ४६ ॥ ____ अन्वयार्थ ( सः गन्धोत्कटः अपि ) उस गन्धात्कटने भी (तपोर्वाक्यं श्रुत्वा) उन दोनों पुरुषों के वचन सुनकर (अनुमेने) अनुमति दी अर्थात् उल्टी जीवंधर और गुणमालाकी प्रोतिकी प्रशंसा की। अत्र नीतिः (हि) निश्च पसे (अदोषोपहतः अपि) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थो लम्बः । दोष रहित भी ( अर्थः ) पदार्थ (परोक्त्या ) दूपरेके कहनेसे (नैव. दूप्यते) दृषित नहीं होता है ॥ ४६ ॥ सुतां विनयमालाया गुणमालां यथाविधि । दत्तां कुबेरमित्रेण परिणिन्येऽथ जीवकः ॥ ४७॥ _ अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर (जीवकः) जीवंधरकुमारने ( कुबेरमित्रेण ) कुबेर मित्रसे (दत्तां) दी हुई (विनयमालायाः) विनयमालाकी (सुतां ) पुत्री ( गुणमालां ) गुणमालाको ( यथा विधि) विधिपूर्वक (परिणिन्ये) व्याहा ॥ १७ ॥ इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरि विरचिते क्षत्रचुडामणौ सान्वयार्थो गुणमालालम्भो नान चतुर्थी लम्बः। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ar क्षत्रचूड़ामणिः । पञ्चमो लम्बः। अथ व्यूढामिमां मेने म कुमारोऽतिदुर्लभाम् । प्रयत्नेन हि लब्धं स्यात्यायः स्नेहस्य कारणम् ॥१॥ ___अन्वयार्थ:-(अथ) इसके अनंतर (सः कुमारः) उस जीवंघर कुमारने (व्यूढां इमां) ब्याही हुई इस स्त्रीको (अति दुर्लभाम्) अत्यंत दुर्लभ्य (मेने) जाना। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (प्रयत्नेन लब्धं) प्रयत्नसे प्राप्त की हुई वस्तु (प्रायः) प्रायः करके (स्नेहस्य कारणम् ) स्नेहका कारण (स्यात) होती है ।। १ ॥ नादत्त कबलं दन्ती स्वामिकुण्डलताडितः। न हि सोढव्यतां याति तिरश्चां वा तिरस्कृतिः ॥२॥ अन्वयार्थः- ( स्वामिकुण्डलताड़ितः ) जीवंधर स्वामीके कुण्डलसे ताड़ित (दन्ती) हस्तीने (कवलं) प्राप्तको (न आदत्त) नहीं ग्रहण किया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (तिरश्चां वा तिरस्कृतिः) तिर्यचोंके भी तिरस्कार ( सोढव्यतां ) सहनपनेको (न. याति) प्राप्त नहीं होता है ।। २ ॥ काष्ठाङ्गारस्तदाकर्ण्य चुकोप स्वामिने भृशम् । सर्पिष्पातेन सप्ताचिरुदर्चिः सुतरां भवेत् ॥ ३ ॥ ___ अन्वयार्थ:- ( काष्टाङ्गारः ) काष्टाङ्गारने ( तद् आकर्ण्य ) इस बातको सुन कर (मामिने) जीवंधर स्वामीके लिये (भृशं) अत्यंत (चुकोप) कोप किया । अत्र नीतिः निश्चयसे ( सप्तार्चिः) Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ पञ्चमो लम्बः । अग्नि (सर्पिष् पातेन) घीके डालने से ( सुतरां ) स्वतः ही (उदचिः भवेत् ) ऊंची ज्वाला वाली होती है ॥ ३ ॥ सङ्गादनङ्गमालाया विजयाच वनौकसाम् । वीणाविजयतश्चास्य कोपाग्निः स्थापितो हृदि ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ : - ( अस्य हृदि ) इस काष्टाङ्गर के हृदय में " ( अनन मालायाः सङ्गात् ) अनमाला के समागमसे, ( बनौकसाम् विजयातू) गौओंके पकड़नेवाले व्याघों के जीतनेसे और ( वीणा विजयितः) वीणा में विजयी होनेसे ( इन तीन कारणों से ) " (कोपानि :) क्रोध रूपी अग्नि (स्थापिता) स्थापित थी ॥ ४ ॥ गुणाधिक्यं च जीवानामाधेरेव हि कारणम् । नीचत्वं नाम किं तु स्यादस्ति चेद्गुणरागिता ॥५॥ अन्वयार्थः - (हि) निश्चय से (गुणाधिक्यं च ) दूसरोंमें गुणों की अधिकता ही (जीवानां) नीच मनुष्यों के ( आघेरेव ) मानसीक पीड़ाकाही ( कारणम् ) कारण ( भवेत् होती है । (चेत) यदि ( गुणरागिता अस्ति ) दूसरेके गुणों में प्रीति होवे तो फिर (नीचत्वं नाम ) नीचता ही ( किं नु स्यात् ) क्या रहे || ९ || उपकारोsपि नीचानामपकाराय कल्पते । पन्नगेन पयः पीतं विषस्यैव हि वर्धनम् ॥ ६ ॥ अन्वयार्थः—(नीचानां) नीच पुरुषोंके साथ ( उपकारः ग्रंथ में वर्णन नहीं नोट: - १ -- ग्रंथकारने अनङ्गमाला " का इस किया है किन्तु गद्यचिन्तामणिमें वेश्याकी पुत्री काष्टाङ्गारका अनादर करके जीवंधर के साथ विवाह किया ऐसा लिखा है | अनङ्गमाला " ने • " Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १०३ अपिः) उपकार करना भी (अपकाराय ) अपकारके लिये (कल्पते) होता है (हि) निश्चयसे. (पन्नगेन पीतं) सर्पसे पीया हुआ (पयः) दूध (विपस्य एव) विषकी ही ( वर्धनम् ) वृद्धि करता है ।।६।। हस्तग्राहं ग्रहीतुं स कुमारं प्राहिणोडलम् । मूढानां हन्त कोपाग्निरस्थानेऽपि हि वर्धते ॥७॥ ___अन्वयार्थः-(सः) उस काष्टाङ्गारने (कुमार) जीवंधर कुमारको ( हस्तग्राहं ग्रहीतुं ) हाथ बांधकर पकड़कर लानेके लिये (बलं) सेना (माहिणोत) भेनी । अत्र नीतिः (हन्त) खेद है ? (मूढानां) मूर्ख पुरुषोंकी (कोपाग्निः) क्रोधरूपी अग्नि (अस्थाने अपि) अयुक्त स्थानमें भी (वर्धते) बढ़ती है ॥ ७ ॥ अर्थात् जहां क्रोध नहीं करना चाहिये मूर्ख जन वहां भी क्रोध करते हैं ॥ ७ ॥ कुमारावसथं पश्चात्तत्सैन्यं पर्यवारयत् । मृगाः किं नाम कुर्वन्ति मृगेन्द्र परितः स्थिताः॥८॥ अन्वयार्थः- ( पश्चात् ) इसके अनंतर ( तत्सैन्य ) काष्टाङ्गारकी सेनाने (कुमारावसथं) कुमारके रहनेके स्थानको ( पर्यवारयत् ) चारों तरफसे घेर लिया । अत्र नीतिः ( मृगेन्द्र परितः स्थिताः ) सिंहके चारों ओर घेर कर खड़े हुए ( मृगाः) हिरन ( किं नाम कुर्वन्ति ) सिंहका क्या कर सकते हैं ॥ ८ ॥ प्रारंभे स कुमारोऽपि प्रहर्तु रोषतश्चमूम् । तत्त्वज्ञानजलं नो चेक्रोधाग्निः केन शाम्यति ॥९॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमो लम्बः । अन्वयार्थ :- (सः कुमारः अपि ) उस जीवंधरकुमारने भी ( रोषतः ) क्रोधसे ( चमूम् ) सेनाको ( प्रहतु) मारने का (प्रारेभे ) प्रारंभ किया । अत्र नीति: ( चेतू ) यदि तत्वज्ञान जलं ) तत्वज्ञान रूपी जल ( नो स्यात् ) नहीं होवे तो फिर ( क्रोधाग्निः ) क्रोध रूपी अग्नि ( केन शाम्यति ) कौन बुझा सकता है ? ॥ ९ ॥ न्यरौत्सीत्तस्य संनाहमथ गन्धोत्कटः शनैः । अलङ्घयं हि पितुर्वाक्यम्पत्यैः पथ्यकाङ्क्षिभिः ।। १० अन्वयार्थ : - (अथ ) इसके अनंतर (गन्धोत्कटः) गन्धोत्कट सेठने ( तस्य संनाहं ) उसकी लड़ने की तैयारियोंको ( शनैः) धीरे २ ( न्यरौत्सीत् ) रोका । अत्र नीति: (हि) निश्चय से (पथ्यकाङ्क्षिभिः अपत्यैः ) हितकी इच्छा करनेवाले पुत्रादिक संतान ( पितुः वाक्यं ) पिताका बचन ( अलङ्घयं ) उल्लंघन नहीं करते हैं ॥ १० ॥ पश्चाद्वडममुं पश्चादसौ गन्धोत्कटो व्यधात् । न हि वारयितुं शक्यं पौरुषेण पुराकृतम् ॥ ११ ॥ - १०४ अन्वयार्थ :- ( पश्चात् ) इसके अनंतर ( असौ गन्धोत्कटः) इस गंधोत्कटने ( अमुम् ) जीवंधर कुमारको ( पश्चात् बद्ध) पीछेकी ओरसे मुश्र्के बंधा हुआ (व्यधातू) कर दिया अर्थात् - उसके हाथ पीछे बांध कर सेनाको सोंप दिया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( पुराकृतम्) पूर्व में किया हुआ दुष्कर्म (पौरुषेण) पुरुषार्थसे (वारयितुं ) निवारण ( न शक्यं) नहीं हो सकता ॥ ११ ॥ दृष्ट्रापि तं तथाभूतं हन्तुमाह सः दुर्मतिः । सतां हि प्रहृता शान्त्यै खलानां दर्पकारणम् ॥ १२ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १०५ अन्वयार्थ:-(सः दुर्मतिः) उस दुष्टबुद्धि काष्टाङ्गारने (तथाभूतं तं) बंधे हुए उस जीवंधरको (दृष्ट्वा ) देखकर (हन्तुं) मारनेके लिये सेनाको ( आह ) आज्ञा दी । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (सतां) सन्जन पुरुषोंके अगाड़ी (प्रहता) नम्रता (शान्त्यै) उनको शान्त करनेवाली (भवति) होती है किन्तु (खलानां ) दुर्जन पुरुषोंके अगाड़ी नम्रता (दर्पकारणम् स्यात् ) अहंकारको बढानेवाली होती है ॥ १२ ॥ काष्टाङ्गारं कुमारोऽयं गुरुवाक्येन नावधीत् । न हि प्राणवियोगेऽपि प्राज्ञैलवयं गुरोर्वचः॥ १३ ॥ अन्वयार्थः-(अयं कुमारः) इस जीवंधरकुमारने (गुरुवाक्येन) अपने गुरुके बचनसे (काष्टाङ्गारं ) काष्टाङ्गारको (न अवधीत् ) नहीं मारा !* अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (प्राज्ञैः) बुद्धिमान पुरुष (प्राणवियोगे अपि) प्राणोंका विनाश उपस्थित होने पर भी (गुरोः बचः) गुरुके बचनोंका (न लय ) उल्लंघन नहीं करते हैं ॥१३॥ यक्षेण तत्क्षणे स्वामी स्मृतेनादायि कृत्यवित् । सचेतनः कथं नु स्यादकुर्वन्प्रत्युपक्रियाम् ॥ १४ ॥ ____ अन्वयार्थः-(तत्क्षणे) उसी समय (स्मृतेन यक्षेण । स्मरण किया हुआ यक्षेन्द्र (सत्यवित् स्वामी ) कार्यको जाननेवाले स्वामीको ( आदायि ) उठालेगया। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (प्रत्युपक्रियां अकुर्वन् ) उपकारीके प्रत्युपकारको नहीं करनेवाला (कथं नु सचेतनः स्यात् ) कैसे सचेतन पुरुष कहला सकता है अर्थात् * पूर्व में जीपंधरकुमारसे आर्यनन्दी आचार्यने काष्टाङ्गारको न मारनेकी प्रतिज्ञा कराली थी ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमो लम्बः । सचेतन आत्माओं को अपने उपकारीका प्रत्युपकार अवश्य ही करना चाहिये ॥ १ 11 अतिमात्रशुचा लोकः पुनरेवमचिन्तयत् । गुणज्ञो लोक इत्येषा किंवदन्ती हि सुन्नृतम् ॥ १५ ॥ अन्वयार्थ : - ( पुनः ) फिर ( लोकः ) प्रजाके लोगोंने ( अतिमात्रशुचा ) अत्यन्त शोकसे ( एवं अचिन्तयत् ) इस प्रकार विचार किया || नोट: - ( लोक: गुणज्ञः इति) लोग गुणोंके जानने वाले होते हैं ? || ( एषा किंवदन्ती ) यह किंबदन्ती ( लोकिक कहावत ) ( सूनृतम् ) बिलकुल सत्य है ।। १५ । अतिलोकमिदं शाठ्यं काष्टाङ्गारस्य दुर्मतेः । एतावदेव शास्वामिद्रोहादबिभ्यतः ॥ १६॥ अन्वयार्थ : - (दुर्मतेः ) दुष्टबुद्धि ( काष्टाङ्गारस्य) काष्टाङ्गारकी (इदं शाळां ) यह शठता ( अदिलोकं ) लोकको भी उल्लंघन कर गई अथवा ( स्वामिद्रोहात् अविभ्यतः ) राज देनेवाले स्वामी के दोहसे नहीं डरनेवालेके ( एतावदेव शाठ्यं किं ) इतनी शठता क्या चीज है ॥ १६ ॥ समवर्त्यपि दुर्वृत्तिरासीदणक भूपवत् । न सारतया हन्त सोऽपि गृह्णाति दुर्जनान् ॥ १७ ॥ अन्वयार्थ ः—– (हन्त) खेद है ! ( समवर्ती अपि ) सबके साथ एका वर्ताव करनेवाला यमराज भी ( अणकभूपवत् ) दुष्ट राजाके सदृश (दुर्वृत्तिः आसीत् ) दुराचारी हो गया । (हि) निश्रयसे (सः) अपि) वह भी ( अतारतया ) निःसार समझकर ( दुर्जनान् न गृह्णाति ) दुर्जनोंको गृहण नहीं करता ॥ १७ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। वारि हंस इव क्षीरं सारं गृह्णाति सज्जनः।। यथाश्रुतं यथारुच्यं शोच्यानां हि कृतिर्मता ॥१८॥ ___ अन्वयार्थः- (सजनः) सजन पुरुष (वारि क्षीरं हंस इव ) जलमेंसे दूध गृहण करनेवाले हंसके सदृश (सारं) सार वस्तुका (गृह्णाति) गृहण कर लेते हैं । (हि) निश्चयसे (शोच्यानां कृतिः) शोचनीय दुष्ट पुरुषोंके कार्य ( यथारुच्यं यथा श्रुतं मता ) रुचि और सुननेके अनूकुल हुआ करते हैं ॥ १८ ॥ हेत्वन्तरकृतोपेक्षे गुणदोषप्रवर्तिते । स्यातामादानहाने चेतद्धि सौजन्यलक्षणम् ॥१९॥ ___ अन्वयार्थ---( चेत् ) यदि ( हेत्वंतर कृतोपेक्षे ) दूसरे हेतु पर अपेक्षा रहित (गुणदोष प्रवर्तिते ) केवल गुण और दोषसे प्रवर्तित ‘आदानहाने स्याताम् ) किसी वस्तुका ग्रहण और त्याग होवे तो हि) निश्चयसे (तत् सौजन्य लक्षणम्) वह ही सुजनताका लक्षण है ॥ १९ । युक्तायुक्तवितर्केऽपि तर्करूढविधावपि । पराङ्मुखात्फलं किं वा वैदुष्यादैभवादपि ॥ २० ॥ __अन्वयार्थः-(युक्तायुक्त वितर्के अपि, योग्य और अयोग्यके विचारकी वितर्कना होनेपर भी (तर्क रूढ विधौ अपि) तर्क सिद्ध उचितकार्य निश्चित हो ज ने पर भी (पराङ्मुखात् वैदुष्यात् ) उससे विमुख विद्वत्ता और (बैभवात् अपि) ऐश्वर्य (प्रभुना) पनेसे (किंवा फलं) क्या फल है । अर्थात् युक्त अयुक्त कार्यके निश्चय कर लेने पर भी यदि उसको न करे तो ऐसे पाण्डित्य और ऐश्वर्य होनेसे क्या लाभ ? ॥ २० ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पञ्चमो लम्बः । इत्यूहादाधिमापन्ने लोके तेऽपि युयुत्सवः । सखायः सानुजाः सर्वे पश्चात्तापमुपागमन् ॥ २१॥ ____ अन्वयार्थ:-( इति उहात ) इस प्रकारके विचारसे (लोके) प्रजाके सारे लोंगोको (आधिम् आपन्ने) मानसीक पीड़ा प्राप्त होनेपर (युयुत्सवः) युद्धकी इच्छा करनेवाले (सानुनाः) छोटे भाई नंदाढ्य सहित (ते सर्वे सखायः) वह संम्पूर्ण जीवंधरके मित्र (जो उनके साथ पूर्वमें पाले गये थे ) जीवंधरके वहां न रहनेपर (पश्चात्तापं) पश्चातापको (उपागमन्) करने लगे ॥२१॥ स्मरन्तो मुनिवाक्यस्य सप्राणौ पितरौ स्थितौ । वितथे मुनिवाक्येऽपि प्रामाण्यं वचने कुतः ॥२२॥ ___अन्वयार्थः-(मुनिवाक्यस्य) मुनिके वाक्योंका (स्मरन्तौ) स्मरण करते हुए (पितरौ) जीवंधरके माता पिता (सुनन्दा और गन्धोत्कट) (सप्राणौ स्थितौ) प्राणों सहित स्थित रहे । निश्चयसे (मुनिवाक्ये अपि) मुनिके वचन भी यदि (वितथे) झूठे हो। तो फिर (बचने) वचनमें (प्रामाण्य) प्रमाणपना (कुतः) कैसे हो सकता है।२२। स्वामिनो न विषादो वा प्रसादो वा तदाभवत् । किंतु पूर्वकृतं कर्म भोक्तव्यमिति मानसम् ॥ २३ ॥ अन्वयार्थः---(तदा) उस समय (स्वामिनः) नीवंधरस्वामीको (बिषादः वा प्रसादः) खेद अथवा हर्ष (न अभवत) कुछ भी नहीं हुआ "(किन्तु) किन्तु ( पूर्वकृतंकर्म ) पूर्व जन्ममें संचित किया हुआ कर्म (मोक्तव्यं) अवश्य भोगनीय होता है" (इति मानसम्) इस प्रकार उनके मन में विचार उत्पन्न हुआ ॥ २३ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अथ चन्द्रोदयाह्वानपर्वतस्थं स्वमन्दिरम् । यक्षेन्द्रः स्वामिनं नीत्वा कृतवानभिषेचनम् ॥२४॥ ___अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनतर (यक्षेन्द्रः) उस यक्षेन्द्रने (चन्द्रोदयाह्वान पर्वतस्थं) चन्द्रोदय नामके पर्वत पर स्थित (स्वमन्दिरं) अपने आवास स्थानपर (स्वामिनं नीत्वा) जीवंधर स्वामीको लेजाकर (अभिषेचनम् कृतवान्) उनका अभिषेक किया ॥ २४ ॥ विपञ्च संपदे पुण्याकिमन्यत्तत्र गण्यते । भानुलॊकं तपन्कुर्याद्विकासश्रियमम्वुजे ॥ २५ ॥ ___ अन्वयार्थः-(पुण्यात्) पुण्योदयसे (विपच्च) विपत्ति भी (संपदेस्यात् ) संपत्तिका कारण हो जाती है ( तत्र ) वहांपर ( अन्यत्किं गण्यते ) और तो गणना ही क्या है। निश्चयसे ( लोकं तपन् भानुः ) संसारको तप्तायमान करता हुआ सूर्य (अम्बुजे) कमल दलोंमें भी (विकाप्तश्रियं) विकास श्रीको (कुर्यात् ) कर देता है ॥ २५ ॥ पयोवार्धिपयःपूरैरभिषिच्यायमब्रवीत् । पवित्रोऽसि पवित्रं मां श्वानं यत्कृतवानिति ॥२६॥ ... अन्वयार्थ:--(अयं) इस यक्षेन्द्रने (पयोवार्धिपयःपूरैः) क्षीर सागरके जलकी धारासे (अभिषिच्य) जीवंधर स्वामीका अभिषेक करके "(त्वं) तुमने (श्वानं मां) कुत्तेके जीव मुझको (पवित्र) पवित्र (कृतवान् ) किया (यत् ) इस लिये (त्वं पवित्रः असि) तुम पवित्र हो" (इति अबबीत् ) इस प्रकार कहा ॥ २६ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० पञ्चमो लम्बः । - कामरूपविधौ गाने विषहाने च शक्तिमत् । यक्षेन्द्रः स्वामिने पश्चान्मन्त्रत्रयमुपादिशत् ॥ ६७ ॥ (अन्वयार्थः - ( पश्चात् ) इसके अनंतर ( यक्षेन्द्रः) उस क्षे ने (स्वामिने) जीवंधर स्वामीको ( कामरूप विधौ ) इच्छा के अनुसार रूप बनाने में, (गाने) गान विद्या में (च) और (विष हाने ) सर्पका विष दूर करने में (शक्तिमत) समर्थ ऐसे ( मन्त्रत्रयं ) तीन मंत्रोंका ( उपादिशत् ) उपदेश दिया || २७ ॥ एकहायनमात्रेण धुरि राज्ञां प्रवेक्ष्यसि । मोक्षस्यैव पवित्र त्वं पश्चादिति च सोऽब्रवीत् ||२८|| अन्वयार्थ :- हे पवित्र ! ) हे पवित्र ( त्वं ) तुम (एकहा यन मात्रेण) एक वर्ष में (राज्ञां धुरि ) राजाओं के अगाड़ी ( प्रवेश्यसि ) प्रवेश करोगे । (पश्चात् ) फिर कुछ समय के अनंतर (मोक्षस्य एव ) मोक्षके ही अधिकारी होगे (इति) इस प्रकार (सः) उस यक्षेन्द्र ने ( अब्रवीत् ) कहा ॥ २८ ॥ तथा संभाव्यमानस्य स्वामिनस्तेन सन्ततम् । देशान्तरदिदृक्षाभूद्भाव्यधीनं हि मानसम् ॥ २२ ॥ अन्वयार्थः - (तथा) सर्व प्रकार से ( तेन) उस यक्षेन्द्रसे ( सन्ततम् ) निरंतर ( संभाव्यमानस्य) पूज्यवान् (स्वाभिनः) जीवंधर स्वामीको (देशांतर दिक्षा) अन्य देशों के देखने की इच्छा (अभूत् ) हुई अत्रनीति: ! (हि) निश्चय से ( भाव्यधीनं) होनहार के अनुपार ही (मानसं भवति) मनके विचार हो जाते हैं ॥ २९ ॥ मनीषितं हितान्वेषी ज्ञात्वा तस्य मनीषिणः । अनुमेने स देवोऽपि त्रिकालज्ञा हि निर्जराः ॥ ३०॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । .१११ अन्वयार्थ : - ( हितान्वेषी) हितके चाहनेवाले (सः देवः अपि ) उस देवने भी ( मनीषिणः तस्य) बुद्धिमान इस जीवंधर कुमारकी ( मनीषितं ) इच्छाको (ज्ञात्वा ) जान कर (अनुमेने) अनुमति दी । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (निर्जराः) देव ( त्रिकालज्ञाः भवति) तीनों कालकी बातें जाननेवाले होते हैं ॥ ३० ॥ इदं तया यथोदन्तमुपादिश्याथ संमतः । सुदर्शनेन सोऽयासीद्धितत्त्वं हि मित्रता ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थ : - (अथ ) इसके अनंतर ( इदंतया) इस प्रकार (पथोद उपादिश्य) जानेके मार्गके वृतांतके उपदेशको प्राप्त कर (सुदर्शनेन ) सुदर्शन यक्षकी ( संमतः ) अनुमति सहित (सः) वह जीवंधर कुमार वहांसे (अयासीत् ) चले गये । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (हित कृत्वं) हित करनापना ही (मित्रता भवेत् ) मित्रता कहलाती है ॥ ३१ ॥ एकाकी व्यहरत्स्वामी निर्भयोऽयमितस्ततः । न हि स्ववीर्यगुप्तानां भीतिः केसरिणामिव ॥३२॥ अन्वयार्थः- (अयं स्वामी) इन जीवंधर स्वामीने (निर्भयः) भय रहित ( इतस्ततः) इधर उधर ( एकाकी) अकेले (व्यहरत् ) विहार किया अत्रनीति: (हि) निश्चय से ( स्ववीर्य गुप्तानां ) अपने पराक्रमसे रक्षित पुरुषोंको (केसारिणां इव) सिंहों की तरह ( भीतिः न भवेत् ) भय नहीं होता है ॥ ३२ ॥ एकाकिनोsपि नोद्वेगो वशिनस्तस्य जातुचित् । विक्रिया हि विमूढानां संपदापल्लवादपि ॥ ३३ ॥ 5 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमो लम्बः। .. अन्वयार्थः- एकाकिनः) अकेले (वशिनः) जिनेन्द्रिय (तस्य) उन जीवंधर स्वामीको जातृचित्) कभी भी (उद्वेगः) उद्वेग (न अभूत) नहीं हुआ । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (विमू. ढानां) अज्ञानो मूर्ख पुरुषोंके ही ( संपदापल्लवादपि ) संपत्ति आपत्तिके लेश मात्रसे ( विक्रिया उत्पद्यते ) चित्तमें विकार उत्पन्न हो जाता है ॥ १३ ॥ ___अर्थात्-संपत्तिके लेश मात्रसे गर्व और विपत्तिके लेश मात्रसे उदासीनता व ग्लानि हो जाती है किंतु बुद्धिमानोंके चित्तमें ऐसा नहीं होता ॥ ३३ ॥ अरण्ये कचिदालोक्य वनदावेन वारितान् । दत्यमानानसौ मास्त्रातुमैच्छदेनकपान् ।। ३४ ॥ ___ अवयार्थ:-क्वचिद् अरण्ये) किसी वनमें (अप्सौमद्यः) इन पूज्य जीवंधरकुमारने ( वनदावेन वारितान् ) वनकी अग्निसे घिरे हुये और ( दह्यमानान् ) जलते हुए ( अनेकपान् ) हाथियों को (आलोक्य ) देख कर (त्रातुं ऐच्छत् ) उन्हें बचाने की ईच्छा की ॥ ३४ ॥ धर्मो नाम कृपामूलः सा तु जीवानुकम्पनम् । अशरण्यशरण्यत्वमतो धाभिकलक्षणम् ॥ ३५॥ अन्वयार्थः-(कपामूल: धर्मो नाम) दया है मूल (जड़) निसका वह धर्म है । (सा तु जीवानुकम्पनम् ) और जीवोंकी रक्षा करना ही दया कहलाती है। (अतः) इसलिये (अशरण्यशरण्यत्वं) जिप्तका कोई रक्षक नहीं है उसकी रक्षा करना ही (धार्मिक लक्षणम् ) धर्मात्मा पुरुषों का लक्षण है ॥ ३५ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । ववृषुर्वारिदास्तत्र तावतैव गर्जिताः । सुकृतीनामहो वाञ्छा सफलैव हि जायते ॥ ३६ ॥ अवयार्थः तत्र ) वहां पर ( तावता एवं ) उसी समय ( वारिदाः) मेघ (सगर्जिताः सन्तः) गर्जना करते हुए (ववृषुः ) बरसे अत्र नीति: ! ( अहो ! ) आश्चर्य है ! (हि) निश्चयसे ( सुकृतीनां ) पुण्यवान पुरुषोंकी ( वान्छा) इच्छा ( सफला एव जायते ) सफल ही होती है ॥ ३६ ॥ अनेक पानसौ वीक्ष्य रक्षितानतृपत्तराम् । स्वयं त्वासत्तिमः स्वामी स्वस्थ बन्धविमोक्षयोः॥३७॥ अन्वयार्थ : - ( असौ) जीवंधर कुमार ( रक्षितान् ) प्राणोंसे बचे हुए ( अनेक पानू ) हाथियों को ( वीक्ष्य) देख कर ( अतृपत्तराम् ) अत्यंत संतुष्ट हुए । किंतु स्वयं तु ) अपने आप तो स्वामी) जीवंधर स्वामी (स्वस्य बन्धविमोक्षयोः) अपने फंस जाने और उससे बच जानेमें (समः) विषाद व हर्ष रहित (आनीत् थे ॥ ३= ॥ संपदापये स्वेषां समभावा हि सज्जनाः । परेषां तु प्रसन्नाश्च विपन्नाश्च निसर्गतः ॥ ३८ ॥ , अन्वयार्थः - हि) निश्चयसे (सज्जनाः) सज्जन पुरुष (स्वेषां संपदापये) अपनी सम्पत्ति और विपत्ति में (समभावाः) ध्यस्थ भाववाले (भवन्ति) होते हैं । अर्थात् न तो सम्पत्ति मिलने पर हर्ष होता है और न विपत्ति आने पर शोक होता है || (तु) किंतु ( परेषां ) दूसरोंकी सम्पत्ति और विपत्ति कालमें (निर्गतः ) स्वभाबसे ही (प्रसन्नाश्च विपन्नाश्च भवन्ति) वे सुखी और दुखी होते हैं ॥ ३८ ॥ ११३ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमो लम्बः । ततस्तस्माद्विनिर्गत्य तीर्थस्थानान्यपूजयत् । सदसत्यं हि वस्तूनां संसर्गादेव दृश्यते ॥ ३९ ॥ अन्वयार्थः - (ततः) तदनंतर ( तस्मात् ) उस वन से (विनिर्गत्य ) निकल कर (तीर्थस्थानानि अपूजयत् ) उन जीवंधर स्वामीने तीर्थ स्थानों की वंदना की । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( वस्तूनां ) पदार्थोंका (सदसत्वं) अच्छा व बुरापना (ससर्गात् एव) उनके साथ समंध होने से ही ( दृश्यते) देखा जाता है ॥ ३९ ॥ अथ संभावयामास यक्षी सा धर्मरक्षिणी । धर्ममूर्ति तत्र सम्यक्कशिपुदानतः ॥ ४० ॥ अन्वयार्थः - (अथ ) इसके अनंतर (तत्र ) वहां पर (धर्मरक्षिणी सा यक्षी) धर्म की रक्षा करनेवाली प्रसिद्ध यक्षिणीने (अ धर्ममूर्ति ) इन धर्ममूर्ति जीवंधर कुमारका (कशिपुदानतः) अन्न वस्त्रादिकके देनेसे ( सम्यक ) भले प्रकार (संभावयामास ) आदर ११४ सत्कार किया ।। ४० । दैवतेनापि पूज्यन्ते धार्मिकाः किं पुनः परैः । अतो धर्मरताः सन्तु शर्मणं स्पृहयालवः ॥। ४१ ।। अन्वयाथः - जब ( दैवतेन अपि ) देवता से भी (धार्मिकाः) धार्मिक पुरुष (पूज्यन्ते) पूजित होते हैं और (पोः किं पुनः वक्तव्यः) का तो फिर कहना ही क्या है । ( अतः इस लिये (शर्मणे स्टह यालवः) सुखकी वान्छा करनेवाले पुरुष ( धर्मरताः सन्तु ) धर्म में प्रीति करनेवाले हों ! ॥ ४१ ॥ ततः पल्लवदेशस्यां चन्द्राभाख्यां क्रमात रोन् । भेजे शुभनिमित्तेन सनिमित्तां हि भाविनः ॥ ४२ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । ११५ __ अन्वयार्थः—(ततः) तदनंतर ( क्रमात् ) क्रमसे (पल्लवदेशस्थां) पल्लवदेशमें स्थित ( चन्द्रामाख्यां पुरी) चन्द्राभा नामकी पुरीको इन जीवंधर स्वामीने ( शुभनिमित्तेन ) शुभ निमित्तसे (भेजे) प्राप्त की । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (भाविनः) होनेवाली बात ( सनिमित्ताः भवन्ति ) अवश्य कुछ न कुछ निमित्त वाली होती है ॥ ४२ ॥ राज्ञो धनपतेः पुत्रीमहिदष्टामजीवजत् । निर्हेतुकान्यरक्षा हि सतां नैसर्गिको गुणः ॥ ४३ ॥ ___अन्वयार्थ:---वहां चन्द्रमा नामकी पुरीमें उन ज वंधर कुमारने ( अहिदृष्टां ) सांपसे डसी हुई ( राज्ञः धनपतेः ) राजा धनपतिकी (पुत्री) पुत्रीको ( अनोवयम् ) जीवदान दिया । अत्रनोतिः (हि) निश्चयसे (निर्हेतुका) विना प्रयोजनके ( अन्यरक्षा ) दूसरों की रक्षा करना ही (सतां) सज्जन पुरुषों का (नैसर्गिकः गुण) स्वाभाविक गुण है ॥ १३ ॥ लोकपालस्तदालोक्य तज्ज्जेष्ठस्तमपूजयत् । प्रागप्रदायिनामन्या न ह्यस्ति प्रत्युपक्रिया ॥ ४४॥ - अन्वय र्थः- ( तज्ज्येष्ठः लोकपालः ) उस पुत्रीके बड़े भाई लोकपालने ( तद आलोक्य ) यह देखकर (तं असून यत् ) स्वामीको पूना को अत्रनीति हि) निश्चयसे ( प्राणप्रदायिनां ) प्राणों को बचानेवाले पुरुषोंका ( अल्या प्रत्युपक्रियान ) पूजाको छोड़कर दूसरा प्रत्युपकार नहीं है ॥ ४४ ॥ पूज्या अपि स्वयं सन्तः सज्जनानां हि पूजकाः। पूज्यत्वं नाम किं नु स्यात्पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ॥४५॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चमो लम्बः । अन्वयार्थ : - (हि) निश्चयसे ( स्वयं पूज्याः अपि ) स्वयं पूज्य होते हुए भी ( सन्तः) सज्जन पुरुष (सज्जनानां) सज्जन पुरुषोंके ( पूजका:) पूजक ( भवन्ति ) होते हैं | किन्तु ( पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ) पूज्य पुरुषोंकी पूजाका उल्लंघन करने पर (पूज्यत्वं नाम किं नु स्यात् ) उनमें पूज्यपना कैसे रह सकता है ? ॥ ४५ ॥ प्राज्ञेषु प्रहृतावश्यमात्मवश्योचिता मता । प्रहृतापि धनुष्काणां कार्मुकस्येव कामदा ॥ ४६ ॥ { अन्वयार्थः -- ( आत्मवश्या ) आत्माको वश में रखनेवाली (प्रहृता) नम्रता ( प्राज्ञेषु) बुद्धिमान पुरुषों में (अवश्यं ) अवश्य हो ( उचिता ) उत्तम (मता) मानी गई है । अत्र नीतिः ! निश्चयसे ( प्रताअपि) नम्रता भी धनुष्काणां) धनुष धारियोंके (कार्मुकस्य इव) धनुषकी नम्रताके सदृश (कामदा) इच्छित कार्योंको सिद्ध करने वाली होती है ॥ ४६ ॥ वपुर्वीक्षणमात्रेण निरणाय्यस्य वैभवम् । वपुर्वक्ति हि माहात्म्यं दौरात्म्यमपि तद्विदाम् ॥४७॥ अन्वयार्थः --- उस लोकपालने ( वपुर्वीक्षणमात्रेण ) शरीरके. देखने मात्र से ही (अस्यवैभवम् इन जीवंधर कुमारके वैभवको (निरणायि) निर्णय किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से (बपुः) शरीर ( तद्विदाम् ) शरीर के लक्षणोंको जाननेवाले पुरुषोंके अगाड़ी ( माहात्म्यं दौरात्म्यं वक्ति ) सज्जनता और दुर्जनता कह देता है ॥ ४७ ॥ ११६ अर्धराज्यं च कन्यां च पार्थिवः स्वामिने ददौ । पात्रतां नीतमात्मानं स्वयं यान्ति हि संपदः ॥ ४८ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। अन्वयार्थः-(पार्थिवः) राजा धनपतिने (स्वामिने) जीवंधर स्वामीके लिये ( अर्धराज्यं ) आधा राज्य ( च ) और ( कन्या) कन्याको (ददौ) देदी। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( संपदः ) संपत्तिये ( पात्रतां नीतं ) पात्रताको प्राप्त (आत्मानं) आत्माको (स्वयं यान्ति) स्वयं प्राप्त हो जाती हैं ।। ४८ ॥ तिलोत्तमासुतां पश्चाल्लोकपालसमर्पिनाम् । पर्यणैषीत्पवित्रोऽयं पद्माख्यां तां यवीयसीम्॥४९॥ अन्वयार्थः-(पश्चात् ) पश्चात् (अयं पवित्रः) इस पवित्र जीवंधर कुमारने (लोकपालसमर्पिताम् ) लोकपालसे दी हुई (तिलोतमा सुतां) तिलोत्तमाकी पुत्री (यवीयसी) युवतो (तां पद्भाख्यां) उस पद्भानामकी कन्याको (पर्यणैषीत्) व्याहा ।। ४९ ॥ इति श्रीमद्वादीभसिंह सुरि विरचिते क्षत्रचूडामणौ सान्वयार्थो पद्म लम्भो नाम पञ्चमो लम्बः ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो लम्बः । अथ षष्ठो लम्बः। अथोपयम्य पद्मां तां रमयन्नप्ययात्ततः असक्तो हि सुखं भुङ्के कृतार्थोऽपि जनः कृती ॥१॥ ___अन्वयार्थः- (अथ, इसके पश्चात् (तां पद्मां) उस पद्भानामकी कन्यासे (उपयभ्य) विवाह करके (रमयन् अपि) उसके साथ सुखभोग करते हुए भी जीवंधर स्वामी (ततः अयात्) वहांसे चले गये । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (कतार्थः अपि) भोग सामग्रीसे कृतार्थ होने पर भी (कृती जनः) धर्मात्मा पुरुष (असक्तः सन् ) आसक्त नहीं होते हुए अर्थात् (विरक्त हो कर) (सुख भुङ्क्ते) सुखका भोग करते हैं ॥ १ ॥ पद्मा तु तद्वियोगेन दुःखसागरसादभूत् । तत्वज्ञानविहीनानां दुःखमेव हि शाश्वतम् ॥२॥ __अन्वयार्थः- (तु पुनः) फिर (पद्मा) पद्मा (तद्वियोगेन) जीवंधर स्वामीके वियोगसे ( दुःखसागरसात अभूत) दुःख सागरमें डूब गई । अत्रनीतिः ! (हि) निश्चयसे (तत्वज्ञानविहीनानां) तत्त्वज्ञान रहित जीवोंको (शाश्वतम् ) निरंतर (दुःखमेव स्यात, दुःख ही रहता है ॥ २ ॥ लोकपालजनैर्नायं रोर्बु शेके गवेषिभिः । प्रतिहन्तुं न हि प्राज्ञैः प्रारब्धं पार्यते परैः ॥३॥ अन्वयार्थः-----(गवेषिभिः) ढूंढनेवाले ( लोकपालननैः ) लोक पालके नौकर चाकर (अयं) इन जीवंधर स्वामीको (रोहुँ) रोकने के Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेत्रचूड़ामणिः । ११९ लिये (न शेके) समर्थ नहीं हुए । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे प्राज्ञैः प्रारब्धं) बुद्धिमानोंसे आरम्भ किये हुए कार्य में (परैः प्रति हन्तुं न पार्यते) दूसरे मनुष्य विघ्न डालनेके लिये समर्थ नहीं होते । अर्थात् — बुद्धिमानोंका कार्य नियमसे परिपूर्ण होता है ॥ ३ ॥ सत्वरं गत्वरः स्वामी तीर्थस्थानान्यपूजयत् । पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात् ॥ ४ ॥ अन्वयार्थ — (सत्वरं ) शीघ्र (गत्वरः ) चनेवाले (स्वामी) जीवंधर स्वामीने (तीर्थ स्थानानि ) तीर्थ स्थानोंकी ( अपूजयत् ) पूजा की । अत्र नीति: ! हि निश्चयसे ( स्थानानि अपि ) स्थाने भी (सदाश्रयत्) सज्जन महात्मा पुरुषोंके आश्रयसे (पावनानि जायन्ते) पवित्र हो जाते हैं ॥ ४ ॥ सद्भिरध्युषिता धात्री संपूज्येति किमद्भुतम | कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ॥ ५ ॥ अन्वयार्थ —— (सद्भिः अध्युषिता ) सज्जन महात्मा पुरुषोंसे निवास की गई हुई ( धात्री) पृथवी (संपूज्या ) पूजनीय हो जाती है ( इत्यत्र किमद्भुतम् ) इसमें क्या आश्चर्य है ? || (हि) निश्चयसे ( कालायसं ) काला लोहा भी (रसयोगतः ) रस प्रक्रिया से ( कल्याi) बहुमूल्य औषधिको (कलाते) प्राप्त हो जाता है ॥ ९ ॥ सदसत्संगमादेव सदसत्वे नृणामपि । तस्मात्सत्संगताः सन्तु सन्तो दुर्जनदूरगाः ॥ ६ ॥ अन्वायर्थः -- (सदसत्संगमात् एव) सज्जनों और दुर्तनोंके समागम हींसे (नृणाम) मनुष्यों के (सदसत्वे ) सज्जन और दुर्जनपना ( जायेते) उत्पन्न होता है । (तस्मात् ) इसलिये (सन्तः) सज्जन पुरुष Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठो लम्बः । (दुर्जनदूरगाः सन्तः) दुर्जनोंसे दूर रहते हुए (सत्संगताः स तु) सज्जनोंसे ही समागम करनेवाले होवें ॥ ६ ॥ याजंयाजमटन्नेव तीर्थस्थानानि जीवकः । क्रमेणारण्यमध्यस्थं तापसाश्रममाश्रयत् ॥ ७॥ ___अन्वयार्थः-(जीवकः) जीवंधर स्वामी (अटन् एव) घूमते फिरते हुए ही (तीर्थस्थानानि) तीर्थ स्थानोंकी (यानंयाज) अधिक रीतिसे पूजा कर (क्रमेण क्रमसे (अरण्यमध्यस्थं) वनके मध्यमें स्थित (तापसाश्रमम् ) तपस्वियोंके आश्रममें (आश्रयत्) पहुंचे ॥ ७ ॥ असत्तो विलोक्यासीदनुकम्पी तपस्विनाम् । नियाज सानुकम्पा हि सार्वाः सर्वेषु जन्तुषु ॥८॥ ___अन्वयार्थः-जीवंधर स्वामी (तत्र) वहां पर (तपस्विनाम्) तपस्वियोंके (असत्तपः विलोक्य) झूठे मिथ्या तपको देख करके ( अनुकम्पी आसीत् ) दयायुक्त हुए । अत्र नीतिः ! (ह) निश्चयसे ( सार्वाः पुरुषाः ) सबका हित करनेवाले पुरुष ( सर्वेषु जन्तुषु ) सम्पूर्ण प्राणियोंपर (निव्यानं) निष्कपट (सानुकम्पा भवन्ति) दया करनेवाले होते हैं ।। ८ ॥ अतत्वज्ञेऽपि तत्वज्ञैभवितव्य दयालुभिः । कूप पिपतिषुलो न हि केनाप्युपेक्ष्यते ॥९॥ __अन्वयार्थः- (अतत्वज्ञे अपि) तत्व ज्ञानरहित पुरुषों पर भी (तत्वज्ञैः) तत्वके जाननेवाले पुरुषोंको (दयालुभिः) दयावान् (भवितत्वं) होना चाहिये (हि) निश्चयसे (कूपे पिपतिपुः) कुएँमें Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १२१ गिरनेकी इच्छा करनेवाले (बालः) बालकको (केनापि) कोई भी (न उपेक्षते) उपेक्षा नहीं करता है । अर्थात् सब कोई उसको गिगनेसे बचा लेते हैं ॥९॥ तानप्यबूबुधत्तत्वं तत्वज्ञः सोऽयमादरात् । भव्यो वा स्थान वा श्रोता परार्थ्यहि सतां मनः॥१०॥ _ अन्वयार्थ:-( तत्वज्ञः ) तत्वोंके स्वरूपको जाननेवाले (सः अयं) इन जीवंधरस्वामीने ( आदरात् ) आदर पूर्वक (तान अपि) उन तपस्वियोंको भी ( तत्वं अबूबुधत् ) सत्यार्थ तत्वका जोध कराया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (श्रोता भव्यो वा स्यात् न वा) सुननेवाला भव्य हो अथवा अभव्य हो किंतु (सतां मनः) सज्जन पुरुषोंका मन ( परार्थ्य एव प्रवर्तते ) दूसरोंका उपकार करनेकी ओर ही प्रवर्तित होता है ॥ १० ॥ न हिंस्यात्सर्वभूतानीत्यस्मिन्प्रवचने सति । तपध्वं किं बुधा यूयं हिंसामात्रफलं तपः ॥ ११ ॥ अन्वयार्थ:----( हे बुधाः ! ) हे पण्डितो ! " (न हिंस्यात् सर्व भूतानि) किसी भी प्राणीकी हिंसा मत करो" ( इति प्रवचने सति ) ऐसे वेद वाक्यके रहनेपर ( यूयं ) तुम लोग ( हिंसामात्र फलं ) हिंसा ही है फल जिसका ऐसे (तपः) तपको (किं तपध्वं) क्यों तपते हो ॥ ११ ॥ जलावगाहने लग्नाञ्जटायां काष्ठगानपि । नश्यतः पश्यतां जन्तून्पश्यताग्नौ पुनश्च्युतान् ॥१२॥ ___ अन्वयार्थः-- ( जलावगाहने ) जलमें स्नान करते समय ( जटायां लग्नान् ) जटाओंमें लगे हुये (काष्ठगापि) और लक Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ षष्ठो लम्बः । ड़ियोंमें प्रविष्ट हुये भी ( पुनः ) फिर पंचाग्नि तप करते हुए (अग्नौ च्युतान् ) अग्निमें गिरे हुए (पश्यतां पुरतः) देखनेवालोंके प्रत्यक्ष ( नश्यतः ) प्राणरहित होते हुए ( जन्तून् ) प्राणियोंको (यूयं पश्यत) तुम लोग देखो ॥ १२ ॥ पञ्चाग्निमध्यमस्थानं ततो नैवोचितं तप । जन्तुमारणहेतुत्वादाजवावकारणम् ॥ १३ ॥ अन्वयार्थः--( ततः ) इसलिये ( पंचाग्नि मध्यमस्थानं ) पंचाग्निके मध्यमें है स्थिति निप्तकी ( एतादृशं तपः ) ऐसा तप (नैव उचित ) करना उचित नहीं है क्योंकि यह तप (जंतुमा. रण हेतुत्वात) प्राणियोंके मरणका हेतु होनेसे (आनवंनवकारणम्) उल्टा संसारका ही कारण है अर्थात्-मोक्षका हेतु नहीं है ॥१३॥ तत्तपो यत्र जन्तनां संतापो नैव जातुचित् । तचारम्भानिवृतौ स्यान्न बारम्भो विहिंसनः ॥१४॥ ___अन्वयार्थः- (यत्र) जिसमें (जन्तूनां) जीवोंको (जातुचित) कभी भी (संतापः) संताप (नैव जायते ) नहीं होता है ( तत तपः ) वह ही सच्चा तप है । ( तच्च ) और वह तप ( आरम्भनिवृत्तौ स्यात् ) आरम्भकी सर्वथा निवृत्ति होने पर होता है और (हि) निश्चयसे (आरम्भः) आरम्भ (हिसात्मकक्रिया ) (विहिंसनः न स्यात् ) हिंसारहित नहीं होती है । १४ ॥ आरम्भविनिवृत्तिश्च निग्रन्थेष्वेव जायते । न हि कार्यपराचीनग्यते भुवि कारणम् ॥ १५ ॥ .. अन्ववार्थ:--और ( आरंभंविनिवृत्तिश्च ) आरंभकी निवृत्ति (त्याग) ( निग्रन्थेषु एव जायते ) निग्रंथ पदधारी मुनियोंमें ही Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ · क्षत्रचूड़ामणिः । होती है । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (भुवि) संसारमें (कार्यपराचीनः) कार्यसे पराङ्मुख पुरुष ( कारणं न भृग्यते ) कारणकी खोज नहीं करते ॥ ____. अर्थात्-जिन्हें कोई सांसारिक कार्य करना ही नहीं है वे उनके हेतु आरंभादिक कार्य क्यों करेंगे ।। १५ ॥ नैन्थ्यं हि तपोऽन्यत्तु संसारस्यैव साधनम् । मुमुक्षूणां हि कायोऽपि हेयः किमपरं पुनः ॥ १६ ॥ अन्वायार्थः-(हि) निश्चयसे (नैर्ग्रन्थ्यं तपः) बाहयाभ्यंतर परिग्रह रहित मुनिवृत्ति ही वास्तविक तप है ( अन्यत् ) इसके अतिरिक्त तप (तु) तो ( संसारस्यैव साधनम् ) जन्म मरणरूप संसारका ही साधक है । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (मुमुक्षुणां) मोक्षके चाहनेवाले पुरुषोंको (कायः अपि) शरीर भी (हेयः) छोड़ने योग्य है (अपरं पुनः किं वक्तव्यं) और विषयका तो फिर कहना ही क्या है ॥ १६ ॥ ग्रन्थानुबन्धी संसारस्तेनैव न परिक्षयी। रक्तेन दूषितं वस्त्रं न हि रक्तंन शुध्यति ॥ १७ ॥ ___अन्वयार्थः-( ग्रन्थानुबन्धी संसारः ) रागद्वेषादि परिग्रह कारण ही संसार है (तेन एव न परिक्षयी भवति) इसलिये उस परिग्रह ही से उसका नाश नहीं हो सकता अर्थात् परिग्रहसे संसारकी ही वृद्धि होती, मोक्षकी प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (रक्तन) रुधिरसे ( दूषितं वस्त्रं ) मैला वस्त्र (रक्तेन न शुध्यति) रुधिरसे ही शुद्ध नहीं हो सकता ॥१७॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्टो लम्बः । तत्वज्ञानविहीनानां नैर्ग्रन्थ्यमपि निष्फलम | न हि स्थाल्यादिभिः साध्यमन्नमन्यैरतण्डुलैः ॥१८॥ अन्वयार्थ : - (तत्वज्ञानविहीनानां ) यथार्थ तत्वज्ञानसे रहित जीवों (नैग्रन्थ्यं अपि) मुनिधर्म भी (निष्फलं ) है । अत्रनीति: ! ( हि निश्चय से ( अतण्डुलैः) चावलादिकों के बिना ( अन्यैः स्थाल्यादिभिः) अन्य वटलोई, जल, अग्नि आदिकके द्वारा (अन्नं साध्यं न भवति) अन्नपाक नहीं हो सकता ॥ १८ ॥ अर्थात् उपदान कारणके बिना केवल निमित्त कारणसे safe कार्य france नहीं हो सकता ॥ १८ ॥ तत्त्वज्ञानं च जीवादितत्त्वयाथात्म्यनिश्चयः । अन्यथा धीस्तु लोकेऽस्मिन्मिथ्याज्ञानं हि कथ्यते । १९। अन्वयार्थः - ( जीवादितत्वयाथात्म्य निश्चयः ) जीवादिक (जीव, अजीव, आसवं, बंधे, संवर, निर्जरा, मोल) इन सात तत्वों के असाधारण स्वरूपका संशय विपर्यय और अनध्यैवसाय रहित निश्चय करना ही (तत्वज्ञानं च भवति) सम्यग्ज्ञान कहलाता है । ( तु पुनः ) और ( अस्मिन् लोके ) इस लोक में ( अन्यथा धीः ) उपर्युक्त तत्वोंका विपरीत ज्ञान ही ( मिथ्या ज्ञानं कथ्यते ) मिथ्या ज्ञान कहलाता है ॥ १९ ॥ आप्तागमपदार्थाख्यतत्त्ववेदनतद्रुची । १२४ वृत्तं च तद्वयस्यात्मन्यस्वलयत्तिधारणम् ॥ २० ॥ अन्वयार्थः--( आप्तागमपदार्थाख्यतत्ववेदनतद्रुची ) आप्त, आगम, पदार्थ इन तीनोंके यथार्थ ज्ञानको ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं। और इनमें रुचि व श्रद्धान होनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं (च) और Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १२५ (तदद्वयस्य आत्मनि, इन दोनोंका आत्मामें (अस्खलद्धृत्ति धारणम्) स्थिर वृत्तिसे धारण करनेको (वृत्तं कथ्यते ) सम्यग्चारित्र कहते हैं ॥ २० ॥ इति त्रयी तु मार्गः स्यादपवर्गस्य नापरम् । बाह्यमन्यतपः सर्व तत्रयस्यैव साधनम् ॥ २१ ॥ __ अन्वयार्थः-(तु) और ( इति त्रयी ) यह त्रयी . अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका समुदाय ही (अपवगस्य) मोक्षकी ( मार्गः ) प्राप्तिका उपाय ( स्यात् ) है, (अपरं न) इनसे भिन्न और दूसरा कोई मोक्षका मार्ग नहीं है । (अन्यत्सर्व) इनसे भिन्न और सब (बाह्यं तपः) बाह्य तप (तत्त्रयस्य एव साधनम्) इन्हीं तीनोंके साधक हैं ॥ २१ ॥ न च बाह्यतपोहीनमभ्यन्तरतपो भवेत् । तण्डुलस्यैव विक्लित्तिर्न हिं वयादिकं विना ॥२२॥ ____ अन्वयार्थः--( बाह्यतपोहीन ) बाह्य तपके बिना (अभ्यंतर तपः) अभ्यंतर तप (न च भवेतू) नहीं हो सकता । अत्र नीतिः । (हि ) निश्चयसे ( यथा वह्नयादिकं विना ) जैसे अग्निके बिना (तण्डुलस्य विक्लित्तिः न) चावलोंका पाक नहीं हो सकता ॥२२॥ तत्रयं च न मोक्षार्थमाप्ताभासादिगोचरम । ध्यातो गरुडबोधेन न हि हन्ति विषं वकः ॥ २३ ॥ __ अन्वयार्थः--(च) और ( आत्माभासादि गोचरम् ) झूठे भाप्त, आगम पदार्थ ये हैं विषय जिनके ऐसे (तत्रयं) मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, और मिथ्याचारित्र ये ( मोक्षाथ न भवंति ) मोक्षके साधन नहीं हैं । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे) गरुड़ बोधेन ध्यातः Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ षष्ठो लम्बः । वकः) ये गरुड़ है इम बुद्धिसे ध्यान किया हुआ बगुला ( विपं न हन्ति) विषको दूर नहीं कर सकता ।। २३ ।। सर्वदोषविनिर्मुक्तं सर्वज्ञोपज्ञमञ्जसा । तप्यध्वं तत्तपो यूयं किं मुधा तुषखण्डनैः ॥ २४ ॥ अन्वयार्थ : - (यत्तपः) जो तप ( सर्वदोषविनिर्मुक्तं ) सम्पूर्ण दोषों से रहित ( सर्वज्ञोपज्ञं ) सर्वज्ञका कहा हुआ हो (यू ) तुम लोग ( तत्तपः ) उस तपको ( अञ्जसा नृप्यध्वं ) भले प्रकार तपो ( मुधा तुपखण्डनैः किं ) वृथा भूसेके कूटने से क्या ॥ २४ ॥ रागादिदोषसंयुक्तः प्राणिनां नैव तारकः । पतन्तः स्वयमन्येषां न हि हस्तावलम्बनम् ॥ २५ ॥ अन्वयार्थः -- ( रागादिदोषसंयुक्तः देवः ) रागादि दोषों से सहित देव (प्राणिनां तारक: नैव ) प्राणियों को संसार समुद्रमे पार नहीं कर सकता । अत्र नातिः (हि) निश्चय से ( स्वयं पतन्तः ) आप ही डूबनेवाला ( अन्येषां दूसरोंकों (हस्तावलम्बनं न भवति) अपने हाथका सहारा देनेवाला नहीं हो सकता ।। २२ ॥ न च क्रीडा विभोस्तस्य बालिशेष्वेव दर्शनात् । अतृप्तश्च भवेतृप्तिं क्रीडया कर्तुमुद्यनः ॥ २६ ॥ अन्वयार्थः -- (तस्य विभोः) और उस ईश्वरके (कोड़ा न च ) क्रीड़ा नहीं हो सकती क्योंकि क्रीड़ा तो (बालिशेपु एव दर्शनात् ) बालकों में ही देखी जाती है । (च) और अथवा ( अतृप्तः ) जो अतृप्त पुरुष है ( क्रीड़ाया तृप्तिं कर्तुं ) वह क्रीड़से तृप्ति करनेके लिये (उद्यतः भेवेत्) उद्यत होता है ॥ २६ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । स्वैराचारस्वभावोऽपि नैश्वरस्यैश्यहानितः । अप्यस्मदादिभिर्देष्यं सर्वोत्कर्षवतः कुतः ॥ २७ ॥ अन्वयार्थ:- और ( ऐश्य हानित: ) ईश्वरपनेकी हानि होनेसे (ईश्वरस्य ईश्वरके ( स्वैराचारम्वभावः अपि न ) स्वेच्छाचार स्वभाव भी नहीं है । (अपि च) क्योंकि ( सर्वोत्कर्षवतः) सर्वोत्कर्ष वान उस ईश्वरके ( अस्मदादिभिः सह ) हम लोगों के साथ (कुतः द्वेष्यं) द्वेषपना कैसे हो सकता है || २७ ॥ अदोषश्वेदकृत्यं च कृतिनः किमु कृत्यतः । स्वैराचारविधिर्दृष्टो मत एव न चोत्तम ॥ २८ ॥ अन्वयार्थः -- ( चेत् ) यदि वह ईश्वर ( अदोषः ) निर्दोष (च) और (अकृत्यं) हृत्य रहित है तो फिर (कृतिनः) कृतकृत्य उस ईश्वरको (कृत्यतः ) जगतरूप कार्य करनेसे क्या फल और ( स्वैराचारविधिः) स्वेच्छाचार प्रवृत्ति भी (मत्त एव दृष्टः) उनमत्त पुरुषों में ही देखी जाती है (उत्तमे न) उत्तम पुरुषों में नहीं॥२८॥ इति प्रबोधिताः केचिद्र भूवस्तेषु धार्मिकाः । मृत्स्ना ह्यार्द्रत्वमायाति नोपलं जलसेचनात् ॥ २९ ॥ अन्वयार्थः -- ( इति प्रबोधिताः) इस प्रकार धर्म से संबोधित (तेपु ) उनमें से ( केचित् धार्मिकाः बभूवुः ) कई एक धर्मात्मा पुरुष बन गये अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( जलसेचनात् ) जलके सींचने से (मृत्स्ना ) अच्छी मिट्टी ही ( आर्द्रत्वं आयाति ) गीली हो जाती है ( उपलं न ) पत्थर कभी गीला नहीं होता || २९ ॥ ठीक ही है -- उपदेश पात्रोंमें ही फलित होता है कुपात्रोंको उपदेश देनेसे कुछ फल नहीं होता ।। २९ ॥ १२७ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨૮ षष्ठो लम्बः । धाश्रितान्समालोक्य तापसान्मुमुदे कृती। प्रीतये हि सतां लोके स्वोदयाच परोदयः ॥३०॥ अन्वयार्थः-(कृती) विद्वान् जीवंधर (धर्माश्रितान् तापसान् समालो. क्य) धर्मयुक्त उन तपस्वियोंको देखकर (मुमुदे) अत्यंत आनंदित हुए अत्र नीतिः (हि) निश्चनसे (लोके) इसलोकमें (सतां) सज्जन पुरुषोंको (सोदयात्) अपने उदयकी अपेक्षा (परोदयः) दूसरेका अभ्युदय ही (प्रीतये भवति) प्रीतिके लिये होता है ॥ ३० ॥ बोधिलाभात्परा पुंसां भूतिः का वा जगत्त्रये । किंपाकफलसंकाशैः किं परैरुदयच्छ लैः ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थ:-(जगत्रये) तीनोलोकोंमें (पुंसां) पुरुषोंको (बोधिलाभात्) सम्यग्दर्शन, सम्यगूज्ञान, सम्यग्चारित्रकी प्राप्तिसे (परा) उत्कृष्ट (का वा भूतिः) और कौनसा ऐश्चर्य है । (किंपाक फल संकाशैः उदयच्छलै:) विष वृक्षके फलके समान प्राप्ति कालमें छलने वाले (परैः किं ) धन सम्पत्यादिक इन्द्रिय विषयादिकोंसे क्या फल ।। ३१ ॥ ततस्तस्माद्विनिर्गत्य देशे दक्षिणनामके । सहस्रकूटमाश्रित्य श्रीविमानं नुनाव सः ॥ ३२ ॥ अन्वयार्थः--(ततः) इसके अनंतर (सः) उन जीवंधर स्वामीने (तस्मात् ) उस तापसाश्रमसे (विनिर्गत्य) निकल कर (दक्षिण नामके देशे) दक्षिण नामके देशमें ( सहस्रकूट) सहस्रकूट नामके ( श्री विमानं ) जिनालयको ( आश्रित्य ) प्राप्त होकर (नुनाव) स्तुति प्रारंभ की ॥ ३२॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । भगवन्दुणर्यध्वौन्तराकीर्ण पथि मे सति । सज्ज्ञानदीपिका भूयात्संसारावधिवर्धनी ॥ ३३ ॥ __अन्वयार्थः- हे भगवन् ) हे भगवन् ! (दुर्णयध्वान्तः) दुर्नय रूपी अंधकारसे (आकीर्णे) व्याप्त (मे पथि सति) मेरे मार्गके होने पर (संसारावधिवर्धनी) मोक्षको देनेवाला (सज्ञानदीपिका भूयात् ) सम्यग्ज्ञान रूपी दीपक आपके प्रप्तादसे प्राप्त होवे ॥३३॥ जन्मजीर्णाटवीमध्ये जनुषान्धस्य मे सती। सन्मार्गे भगवन्भक्तिर्भवतान्मुक्तिदायिनी ॥३४॥ अन्वयार्थः- हे भगवन् ! ) हे भगवन् ! (जन्मजीर्णाटवीमध्ये) जन्म मरण रूप संसार रूपी अत्यन्त पुराने वनमें (जनुषान्धस्य) जन्मसे अन्धे (मे) मेरे मुक्तिदायनी) मुक्ति की देनेवाली (सन्मार्गे सती) सन्मार्गमें समीचीन अर्थात् प्रवृत्ति करनेवाली ( ते भक्तिः भवतात् आपकी भक्ति होवे ॥ ३४ ॥ स्वा नाति मालकांनामका रैकनायकः । शांतिना जिः कुशिशीलये ।। ३५ ॥ ___ अन्वयार्थ :- (अनेकान्कनायकः) स्याद्वाद मतके अद्वतीय नायक शांतिनाथः जिनः) शांतिनाथ जिने द्र ( पंसृति शशांतये) संसारके दुःखों की शांतिके लिये एकांतां) हमेशा स्थिर रहनेवाली (मम म्वांत शांतिः) मेरे हृदय की शांतिको (कुर्यत् ) करें ॥३५॥ इति स्तोत्रेण तचासादुद्घाटिनकटकन् ।। मुक्तिद्वारवाटस्य भेदना किं न भिद्यते ॥ ३६॥ ___अन्वयार्थ:--'इति स्तोत्रेण, इस प्रकार स्तुति करनेसे (तत, उद्घाटितकबाटकम् आप्तीत् । वह मिनमंदिर खुले हुए किंवाड़ोंवाला हो गया अर्थात् उस जिनमंदिरके किंवाड़ खुल गये । ठीक Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० षष्ठो लम्बः । ही है ! मुक्तिद्वारक वाटस्य भेदिना) मोक्ष रूपी द्वारके किंवाड़ोंको भेदन करनेवाले स्तवन से (किं न भिद्यते ) क्या भेदन नहीं हो सकता ॥ ३६ ॥ अर्थात् - मोक्षका देनेवाला स्तवन सब कुछ करने में समर्थ है ॥ ३६ ॥ अन्याशक्यमिदं मान्यो वितन्वन्न विसिष्मिये । लोकमालोकसात्कुर्वन्नहि विस्मयते रविः ॥ ३७ ॥ अन्वयार्थ : - ( मान्यः ) माननीय जीवंधरने (अन्याशक्यमिदं वितन्वन् ) दूसरोंके लिये अशक्य इस कार्यको करते हुए (न विसिष्मिये) कुछ भी आश्चर्य नहीं किया अत्र नीति: ! (हि) निश्वयसे (रविः) सूर्य (लोकं) संसारको (आलोकसात् कुर्वन् ) प्रकाशमय करता हुआ स्वयं कुछ भी ( न विस्मयते) आश्चर्य युक्त नहीं होता है ॥ ३७ ॥ तावना तं समासाद्य प्रणतः कोऽपि पिप्रिये । स्वमनीषितनिष्पत्तौ किं न तुष्यन्ति जन्तवः ॥ ३८ ॥ अन्वयार्थः -- ( तावता ) उसी समय (प्रणतः कः अपि) विनयी कोई पुरुष तं समासाद्य) जीवंधर स्वामीके पास आकर (पिप्रिये ) अत्यन्त प्रसन्न हुआ । अत्र नीति: । (हि) निश्चय से ( स्वमनीषित - निष्पत्तौ अपने इच्छित कार्यकी सफलता हो जाने पर ( जन्तवः) प्राणी ( किं न तुष्यंति) क्या संतोषत नहीं होते हैं (किन्तु संतुप्यंति एव) किन्तु संतुष्ट होते ही हैं ॥ ३८ ॥ स्वामी तु तं ममालोक्य कस्वनार्येति पृष्टवान् । प्रभूणां प्राभवं नाम प्रणतेयेरुरूपता ॥ ३९ ॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १३१ अन्वयार्थ : - (तु) फिर (स्वामी) जीवंधर स्वामीने (तं समालोक्य) उसको देखकर (आर्य!) हे आर्य ! (त्वं कः) तुम कौन हो ( इति पृष्टवान् ) इस प्रकार पूछा । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (प्रणतेषु एकरूपता) विनयी (नम्र) पुरुषोंमें एक रूपता अर्थात् उनको अपने समान समझना ही ( प्रभूणां ) प्रभुओंकी अर्थात् बड़े पुरुषोंकी (प्राभवं नाम) प्रभुता अर्थात् बड़प्पन है ॥ ३९ ॥ पृष्टः सोऽप्युत्तरं वक्तुमुपादत्त कृतत्वरः । समीहिनेऽपि साहाय्ये प्रयत्नो हि प्रकृष्यते ॥ ४० ॥ अन्वयार्थः (ष्टष्टः सः अपि) पूछे हुए उसने भी (कृतत्वरः ) शीघ्रता पूर्वक (उत्तरं वक्तुं उपादत्त) उत्तर देना प्रारंभ किया । अत्रनीति: । (हि) निश्चयसे ( समीहिते साहाय्ये ) इच्छित सहायता के (सत्यपि ) होने पर ही ( प्रयत्नः प्रकृप्यते) फलवान होता है ॥ ४० ॥ प्रयत्न अच्छा इह क्षेमपुरी नाम राजधानी विराजते । नरपतिस्तु देवान्तो राजा तत्पुरनायकः ॥ ४१ ॥ अन्वयार्थः -- ( इह ) यहां ( क्षेमपुरो नाम ) क्षेमपुरो नामकी (राजधानी) राजाकी प्रधान नगरी विराजते ) सुशोभित है । (तु) और ( तत्पुरनायकः ) इस नगरीका स्वामी ( देवान्तनरपति राजा अस्ति ) नरपति देव नामका राजा है ॥ ४१ ॥ तस्य श्रेष्ठपदप्राप्तः सुभद्रस्तस्य गेहिनी । नाम्ना तु निर्वृतिः पुत्री क्षेमश्रीरित्यभूत्तयोः ॥४२॥ अन्वयार्थः—( तस्य श्रेष्ठपदप्राप्तः सुभद्रः ) उस राजाके श्रेष्ठे पद पर नियत सुभद्र नामका सेट है । (तु) और (निर्वृत्तिः Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ षष्ठो लम्बः । नाम्नागेहिनी अस्ति ) निवृत्ति नामकी उसकी स्त्री है। (तयोः क्षेमश्री इति नाम्ना पुत्री अभूत ) और उन दोंनोंके क्षेमश्री नामकी पुत्री है ॥ ४२ ॥ जन्मलग्ने च दैवज्ञास्तत्पति तमजीगणन् । स्वयंविघटिलद्वारो येनायं स्याजिनालयः ॥ ४३ ॥ ___अन्वयार्थः- (दैवज्ञाः ) ज्योतिषियोंने ( जन्मलग्ने ) इस कन्याके जन्म लग्नमें " ( येन ) जिस पुरुषके निमित्तसे ( अयं जिनालयः ) यह निन मन्दिर ( स्वयंविधटितद्वारः स्यात् ) स्वयं खुले हुए द्वारवाला हो जावेगा (तं तत्पतिं ) वही उसका पति होगा" ( इति अजीगणन् : ऐसा निश्चय किया है ॥ ४ ३ ॥ तत्परीक्षाकृतेऽत्रैव गुणभद्रसमाह्वयः । प्रेष्योऽई प्ररितस्तिष्ठन्भवन्तं दृष्टवानिति ॥ ४४ ॥ ___अन्वयार्थः- (तत्परीक्षा कते ) उस पुरुषको परीक्षा करनेके लिये (प्रे रतः ) भेना हुआ गुणभद्रसमायः प्रेप्यः अहं) गुणभद्र नामके कि मैंने (अत्रैवातेष्टम् ) यहां पर ठहरे हुए ( भवन्तं आपको ( दृष्टवान् ) देखा । (इति ऐसा जीवंधर स्वामीको उसने उत्तर दिया ॥ १४ ॥ इत्युक्त्वा स पुन त्या गल्या सत्वरमात्मनः। स्वामिने स्वाभिवृत्तान्तममन्दप्रीतिरब्रवीत् ॥ ४५ ॥ अन्वयार्थः--(सः ) उस गुणभद्रने (इति उक्त्वा) यह कह करके और ( पुनः नत्वा ) नमस्कार कर ( आत्मनः स्वामिने) अपने मालिकके पास (सत्वरं गत्या) शीघ्र जाकर (अमन्द प्रीतिः) अत्यन्त प्रीति पूर्वक (स्वामिवृत्तान्तं अब्रवीत् ) स्वामीका वृत्तांत कहा ।। ४५ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १३३ भद्रवाः ततः शृण्वन् सुभद्रोऽपि समागतः। तत्क्षणे च तमद्राक्षीजिनपूजाकृतक्षणम् ॥ ४६ ॥ __अन्वयार्थः- (ततः) इसके अनंतर ( सुभद्रः अपि ) सुमद्र सेठ भी ( भद्रवार्ता श्टण्वन् ) इस उत्तम बातको सुनकर (समागतः) उसी समय वहां आया (च) और (तत्क्षणे) उस समय (जिनपू. नाकृतक्षणम् ) जिनेन्द्र पूजा करनेमें किया है उत्सव जिसने ऐसे (तं अद्राक्षत् ) उन जीवंधर स्वामीको देखा ॥ ४६॥ न गात्रमात्रमद्राक्षीद्विभवं चास्य वैश्यराट् । सौगन्धिकस्य सौगन्ध्यं शपथात्किं प्रतीयते ॥४॥ ___अन्वयार्थः-( वैश्यराट् ) वैश्यपति सुभद्रने ( अस्य गात्र मात्रं न अद्राक्षीत् ) इनके शरीरमात्रको ही नहीं देखा ( किंतु विभवं च अद्राक्षीत् ) किन्तु उनके वैभवको भी देख लिया । अत्र नीतिः ! ( किं सौगन्धिकस्य सौगन्ध्यं ) क्या कस्तूरीकी सुगन्धि (शपथात् प्रतीयते) शपथ खानेसे ही प्रतीत होती है ? नहीं। उसकी सुगन्ध तो स्वयं ही मालूम हो जाती है ॥ ४७ ॥ _अर्थात्-उसने बिना किसीके कहे हुए ही स्वामीका वैभव जान लिया ॥ ४७ ॥ इज्यान्तेऽभूद्यथायोग्यमुपचारः परस्परम् । सतां हि प्रहृता शास्ति शालीनामिव पक्कताम् ॥४८॥ __अन्वयार्थ:--'इज्यांते) पूजाके अन्तमें ( तयोः परस्परं ) उन दोंका परस्पर ( यथायोग्यं ) यथायोग्य ( उपचारः अभूत् ) विनय शुश्रुषाका व्यवहार हुआ । अत्र नीतिः ! (हि, निश्चयसे ( शालीनां इव ) धान्योंके सदृश ( सतां प्रहता ) सज्जन पुरुषोंकी Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ षष्ठो लम्बः । नम्रता ( पक्वतां शास्ति ) उनकी पक्वता अर्थात् योग्यता और बड़प्पनको प्रगट करती है ।। ४८ ॥ तद्देश्म तस्य निर्बन्धादथ बन्धुप्रियो गतः। सख्यं साप्तपदीनं हि लोके संभाव्यते सताम् ॥४९॥ अन्वयार्थः- (अथ; इसके अनंतर (बंधुप्रियः) बंधुओंका प्यारा जीवंधर (तस्य निबन्धात् ) उस सेठके आग्रह करनेसे (तद्वेश्मगतः) उनके घर गये । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (लोके) संसारमें (सतां सख्यं) सज्जन पुरुषोंकी मित्रता (साप्तपदीनं संभाव्यते) दूसरोंके साथ सात पदोंके उच्चारण करनेसे ही हो जाती है ॥४९॥ आश्रयन्तीं श्रियं को वा पादेन भुवि ताडयेत् । कन्यायाः करपीडां च तदैन्यादन्वमन्यत ॥५०॥ ___अन्वयार्थः- (भुवि संसारमें (को वा) कौन पुरुष आश्रयंती श्रियं) अपने आश्रयको प्राप्त होनेवाली लक्ष्मीको (पादेन ताड़येत्) चरणोंसे ताड़न करता है अर्थात् लात मारता है (च) और (तेदैन्यात् ) उस सेठकी दीनता पूर्वक प्रार्थनासे (कन्यायाः) कन्याके (करपीडां) विवाहको (अन्वमन्यत) अपने साथ करना स्वीकार किया ॥५०॥ अथ भद्रतरे लग्ने सुभद्रेण समर्पिताम् । क्षेमश्रियं पवित्रोऽय तुपयेमे यथाविधि ॥५१॥ ___अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनंतर (अयं पवित्रः) इन पवित्र जीवंधर स्वामीने (भद्रतरेलग्ने) शुभ लग्नमें (सुभद्रेण समर्पिताम् ) सुभद्रसेठसे दी हुई (क्षेमनियं) क्षेमश्री नामकी कन्याको (यथाविधि उपयेमे) विधि पूर्वक व्याहा ॥ ५१ ॥ इति श्रीमद्वादीभसिंह सूरि विरचिते क्षत्रचूडामणो सान्वयार्थो क्षेमश्री लम्भो नाम षष्ठो लम्बः ।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अथ सप्तमो लम्बः। अथ वध्वा तया साकमनुबोभूय भूयसीम् । सुखतातिं ततो यातुं विततान मतिं कृती॥१॥ अन्वयार्थ:-(अथ) क्षेमश्रीके विवाहानन्तर (कृती) पुण्यशाली जीवंधरने (तया वध्वा साकं) उस स्त्रीके साथ (भूयसीम् सुखताति) बहुत सुख परंपराको (अनुबोभूय) अनुभवन करके (ततः यातुं) वहांसे जानेके लिये (मति विततान) बुद्धि की ॥१॥ अकथयन्नथ स्वामी गणरात्रात्यये गतः । न हि मुग्धाः सतां वाक्यं विश्वसन्ति कदाचन ॥२॥ अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनन्तर (स्वामी) जीवंधर स्वामी (गणरात्रात्यये) बहुतसी रात्रियोंके बीत जाने पर (अकथयन्) बिना कहे हुए ही वहांसे (गतः) चले गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (मुग्धाः) भोले मनुष्य (सतां वाक्यं) सज्जन पुरुषोंके वाक्योंका (कदाचन) कभी भी (न विश्वसन्ति) विश्वास नहीं करते हैं ॥ २॥ तद्वियोगादभूत्पत्नी दग्धरज्जुसमद्युतिः। प्राणाः पाणिगृहीतीनां प्राणनाथो हि नापरम् ॥३॥ ___अन्वयार्थः--(पत्नी) जीवंधर स्वामीकी क्षेमश्री नामकी स्त्री (तद्वियोगात्) उनके वियोगसे (दग्बरज्जुसमद्युतिः) जली हुई रस्सीके समान कान्तिहीन (अभूत) हो गई । अत्र नीतिः । (हि) Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमो लम्बः । निश्चयसे (पाणिगृहीतीनां) विवाहता स्त्रियोंके (प्राणाः) प्राण (प्राणनाथः) उनके पति ही हैं (अपरं न) और कोई नहीं ॥ ३ ॥ सुभद्रोऽपि पवित्रं तमन्विष्याधिमयोऽभवत् । बहुयत्नोपलब्धस्य प्रच्यवो हि दुरुत्सहः ॥ ४ ॥ ___अन्वयार्थः- (सुभद्रः अपि) सुभद्र नामके सेठ भी (तं पवित्रं) उन पवित्र जीवधर स्वामीको (अन्विप्य) ढूंढकर उनके न मिलने पर (आधिमयः अभवत् ) मनमें अत्यन्त दुःखी हुए। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे ( बहु यत्नोपलव्धस्य ) बहुत यत्नसे प्राप्त वस्तुका (प्रच्यवः) हाथसे निकल जाना (दुरुत्सहः) अतीव दुःखकर होता है ॥ ४ ॥ स्वामी स्वाभरणत्यागमैच्छ गच्छन्नतुच्छधीः । विवेकभूषितानां हि भूषा दोषाय कल्पते ॥ ५ ॥ ___अन्वयार्थः--(अतुच्छधीः स्वामी) श्रेष्ट बुद्धिवाले जीवंधर स्वामीने ( गच्छन् ) जाते समय ( स्वाभरण त्यागं ऐच्छत् ) अपने आभूषणों के देने की इच्छा की । अत्र नीतिः ! (हि) निश्च. यसे (विवेक भूषितानां विवेक बुद्धिसे भूषित पुरुषोंके ( भूषा) भूषणा भरणादि (दोषाय) दोषके लिये ही (कल्पते) होते हैं । ५ धार्मिकाय तदाकल्पं दातुं च समकल्पयत् । स्थाने हि बीजवदत्तमेकं चापि महस्रधा ॥६॥ ___अन्वायर्थः-(तदा) उसी समय (सः) उन जीवंधर स्वामीने (धार्मिकाय ) धार्मिक पुरुषके लिये ( आकल्पं ) भूषणोंको (दातुं) देनेके लिये ( समकल्पयत् ) संकल्प किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (स्थाने) योग्य स्थानमें ( बीजवत् ) बीजके सदृश (दत्तं Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १३७ एकं चापि) दी हुई एक वस्तु भी (सहस्रधा फलति ) हजार गुनी फलती है ॥ ६ ॥ तावता संन्यधात्कोऽपि सन्निधेस्तस्य संनिधौ । भागधेय विधेया हि प्राणिनां तु प्रवृत्तयः ॥ ७ ॥ अन्वयार्थः - ( तावता ) इतने ही में (कः अपि) कोई पुरुष (सन्निधेः तस्य) सज्जनोंके उपकारक उन जीवंधर स्वामीके (संनिधौ ) पास ( सन्यधात् ) आया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( प्राणिनां प्रवृत्तयः) प्राणियों की सारी प्रवृत्तियां ( भागधेय विधेया भवन्ति ) उनके भाग्यके अनुकूल हुआ करती हैं ॥ ७ ॥ आगच्छन्तमपृच्छच्च पामरं पार्श्वमात्मनः । कुतः कुत्र प्रयासि त्वं स्वास्थ्यं चास्ति न वेति च ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ - ( जीवंधरः ) जीवंधर स्वामीने (आत्मनः पाश्च) अपने समीपमें ( आगच्छन्तं ) आये हुए ( पामरं ) उस ग्रामीण पुरुषसे ( अपृच्छत् ) पूछा । ( त्वं ) तुम ( कुतः आगतः ) कहां से आये हो (च) और (कुत्र प्रयासि) कहांको जाओगे (ते स्वास्थ्यं अस्ति न वा ) तुम्हारे कुशल है अथवा नहीं (इति) इस प्रकार पूछा ॥ ८ ॥ प्रीतः प्रत्यब्रवीत्सोऽपि प्रश्रयेण समाश्रितः । मुखदानं हि मुख्यानां लघुनामभिषेचनम् ॥ ९ ॥ अन्वयार्थः - ( सः अपि) उसने भी ( प्रीतः सन् ) प्रसन्न होकर ( प्रश्रयेण समाश्रितः ) विनय पूर्वक ( प्रत्यब्रवीत् ) उनको उत्तर दिया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे (मुख्यानां ) बड़े मनुष्यों का (मुखदानं ) छोटे आदमियोंसे प्रीति पूर्वक बोलना (लघुनां अभिषेच Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ सप्तमो लम्बः । नम् भवति) छोटे आदमियोंके लिये राज्याभिषेकके समान होता है ॥ ९॥ इतस्ततो मया मह्य गम्यते कार्यकाम्यया । स्वास्थ्यं स्वास्थ्तमं भूयात्कार्येऽप्यार्यदृशो मम ॥१०॥ ___अन्वयार्थः-(हे मह्य ! )हे पूज्य ! (मया) मैं (कार्यकाम्यया) कार्यकी ईच्छासे (इतस्ततः) इधरउधर (गभ्यते) जारहा हूं । मम कार्ये )मेरे कार्यमें (आर्यदृशः) आपके दर्शनसे स्वास्थ्यं) सुख (स्वास्थ्य तमं भूयात् ) और भी अधिक सुख देनेवाला होवे ॥१०॥ इत्युक्तेन कुमारेण प्रत्युक्तो वृषलः पुनः ।। स्वास्थ्यं नाम न कृष्यादि जायमानं कृषीवल ॥११॥ अन्वयार्थः-(इत्युक्तेन कुमारेण) इस प्रकार कहे हुए कुमारने (पुनः वृषलः प्रत्युक्तः) फिर उस शूद्र पुरुषसे कहा । कृषीबल ! ) हे किसान (कृष्यादि जायमानं) खेती आदि कर्मोंसे उत्पन्न सुख (न स्वास्थ्यं नाम) सच्चा सुख नहीं है ।। ११ ॥ षट्कर्मोपस्थितं स्वास्थ्यं तृष्णाबीजं विनश्वरम् । पापहेतुः परापेक्षि दुरन्तं दुःखमिश्रितम् ॥ १२ ॥ अन्वयार्थः-(षट् कर्मोपस्थितं स्वास्थ्य) असि, मैसि, कैषि, वाणिज्य, शिल्प और विद्या इन छह कर्मोंसे उत्पन्न सुख (तृष्णाबीज) तृष्णाका कारण, (विनश्वरम् ) नाशशील, (पापहेतुः) पापका कारण (परापेक्षो) दूसरेकी अपेक्षा रखनेवाला, (दुरन्तं) अन्तमें दुःख देनेवाला, (दुःखमिश्रितम् ) और दुःखसे मिश्रित है ॥ १२ ॥ आत्मोत्थमात्मना साध्यमव्याबादमनुत्तरम् । अनन्तं स्वास्थ्यमानन्दमतृष्णमपवर्गजम् ॥ १३ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः-(आत्मोत्थं स्वास्थ्यं) अपनी आत्मामें उत्पन्न हुआ सुख (आत्मना साध्यं) आत्माके द्वारा साध्य, (अव्यावाघ) बाधा रहित, (अनुत्तरं) सर्वोत्कृष्ट, (अनन्तं) अनन्त, (आनन्दं) आनन्द मय, (अतृष्णम् ) तृष्णा रहित और ( अपवर्गजम् ) मोक्ष स्वरूप है ॥ १३ ॥ तदपि स्वपरज्ञाने याथात्म्यरुचिमात्रके। परित्यागे च पूर्णे स्थात्परमं पदमात्मनः ॥ १४ ॥ .. ___अन्वयार्थः—(तदपि) और यह (आत्मनः परमं पदं) आत्माका परम सुख ( याथात्म्यरुचिमात्रके ) यथार्थ रुचिरूप सम्यग्दर्शन, (स्वपरज्ञाने) स्व और परका भेद विज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान, (च) और (पूर्णपरित्यागे) परिपूर्ण सम्यक्चारित्रके होने पर ही (स्यात) होता है ॥ १४ ॥ स्वमपि ज्ञानदृक्सौख्यसामादिगुणात्मकम् । परं पुत्रकलत्रादि विद्धि गात्रमलं परैः ॥ १५ ॥ अन्वयार्थः- (त्वं, और तू (स्वं) आत्माको (ज्ञानटक्सौख्यसामर्थ्यादि गुणात्मकम् ) अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यादिगुणात्मक (विद्धि) जान । और (पुत्रकलत्रादि परं विद्धि) पुत्र स्त्री आदिकको पर जान । (परैः अलं) और तो क्या (गात्रमपि परं विद्धि) अपने शरीरको भी पर जान एवं भिन्नस्वभावोऽयं देही स्वत्वेन देहकम् । बुध्यते पुनरज्ञानादतो देहेन बध्यते ॥ १६ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमो लम्बः । अन्वयार्थः——(एवं भिन्नस्वभाव : ) इस प्रकार भिन्न स्वभावको धारण करने वाला (अयं देही) यह आत्मा ( अज्ञानात् ) अज्ञानता से ( देहकम् ) शरीरको (स्वत्वेन बुध्यते ) निजत्व बुद्धिसे जानता है । ( अतः ) इस लिये (पुनः) फिर ( देहेन ) देहसे (बध्यते) बंधता है ॥ १६ ॥ १४० अज्ञानात्कायहेतुः स्यात्कर्माज्ञानमिहात्मनाम् । प्रती स्यात्प्रबन्धोऽयमनादिः सैव संसृतिः ॥१७॥ अन्वयार्थः - ( इह ) इस संसार में ( आत्मनाम् ) आत्माओंके ( अज्ञानात् ) अज्ञानसे (कायहेतुः ) शरीरका कारण भूत (कर्म; स्यात्) कर्म बंधता है ( प्रतीके) और फिर शरीर के होनेपर (अज्ञानं स्यात् ) अज्ञान होता है । (अयं प्रबंध) यह अज्ञान और शरीरकी परम्परा (अनादिः ) अनादि कालसे है । ( सा एव संसृतिः) और इसीको संसार कहते हैं ॥ १७ ॥ स्वं स्वत्वेन ततः पश्यन्परत्वेन च तत्परम् । परत्यागे मतिं कुर्याः कार्यैरन्यैः किमस्थिरैः ॥ १८ ॥ अन्वयार्थ : - ( ततः ) इसलिये ( स्वं स्वत्वेन पश्यन् ) आत्माआत्मपनेसे और (तत्परं) आत्मा से भिन्न शरीरको (परत्वेन पश्यन् ) भित्र पसे देखता हुआ (पर त्यागे) परवस्तु के त्यागमें ( मतिं कुर्या:) बुद्धिको कर (च) और (अन्यैः अस्थिरैः कार्यैः किं) दूसरे नष्ट होनेवाले कार्यों से क्या लाभ ! ॥ १८ ॥ परत्यागकृतो ज्ञेयाः सानगारा अगारिणः । गात्रमात्रधनाः पूर्वे सर्वसावद्यवर्जिताः ॥ १९ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः- ( परित्यागकृतः ) परवस्तुके त्याग करनेवाले (सानगाराः) अनगार (मुनि) सहित (अगारिण:) गृहस्थी श्रावक ( ज्ञेयाः ) जानने चाहिये । अर्थात् त्यागी दो प्रकारके होते हैं १ यति २ श्रावक । (पूर्व) पूर्वके त्यागी मुनि (सर्वतावद्यवर्जितः) सम्पूर्ण पापोंसे रहित (गात्रमात्रधनाः सन्ति) शरीर मात्र परिग्रह रखनेवाले होते हैं अर्थात् शरीरको छोड़कर दूसरा कोई उनके परिग्रह नहीं होता ॥ १९ ॥ मूलोत्तरादिकान्वोदु त्वं न शक्तो हि तद्गुणान् । न हि वारणपर्याणं भर्तु शक्तो वनायुजः ॥ २० ॥ अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (त्वं) तू (मूलोत्तरादि कान तद्गुणान् ) मूल गुण और उत्तर गुण रूप उनके व्रतोंको (वोढुं) धारण करनेके लिये (न शक्तः) समर्थ नहीं है । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (वनायुनः) पारसी देशका सवारीका श्वेत घोड़ा (वारण पर्याणं) हाथीके पला-को (भर्तु) धारण करने के लिये न शक्तः) समर्थ नहीं है ॥ २० ॥ अतस्त्वमधुना धर्म गृहाण गृहभेधिनाम् । न ह्यारोदुमधिश्रेणिं योगपद्येन पार्यते ॥२१॥ __अन्वयार्थः-(अतः) इस लिये (अधुना) इस समय (त्वं) तू (गृहमेधिनाम् ) गृहस्थोंके (धर्म) धर्मको (गृहाण) स्वीकार कर। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (योगपद्येन) एक ही साथ (अधिश्रेणिं) ऊंची नसैनीको (आरोढुं आरोहण करनेके लिये (न पार्यते) कोई भी समर्थ नहीं है ॥ २१ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमो लम्बः । त्रिचतुःपञ्चभिर्युक्ता गुणशिक्षाणुभिर्व्रतैः । तत्त्वधरुचिसंपन्नाः सावद्या गृहमेधिनः ॥ २२ ॥ अन्वयार्थः-- (त्रिचतुःपञ्चभिः) क्रमसे तीन, चार, पांच, ( गुण शिक्षाणुभिः व्रतैः ) गुणव्रत, शिक्षात्रत और अणुव्रतों से ( युक्ताः ) सहित ( तत्वधी रुचिसंपन्नाः ) सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन संपन्न (सावधा) कुछ दोष सहित (गृहमेधिनः संति) गृहस्थ पुरुष होते हैं ॥ २२ ॥ १४२ अहिंसा सत्यमस्तेयं स्वस्त्री मितवसुग्रहौ । मद्यमांसमधुत्यागैस्तेषां मूलगुणाष्टकम् || २३ ॥ अन्वयार्थः – (तेषां ) उन गृहस्थ पुरुषोंके ( मद्यमांस मधुत्यागैः सह ) मयत्याग, मांसत्याग और मधुत्याग सहित (अहिंसा) हिंसा न करना, (सत्यं सच बोलेना, (अस्तेयं) चोरी नँ करना, (स्वस्त्रीमितवसु ग्रह) स्वस्त्री संतोष और परमितवस्तुका संग्रह (इति मूलगुणाष्टकम् ) यह आठ मूलगुण कहलाते हैं ॥ २३ ॥ भोगोपभोग संहारोऽनर्थदण्डव्रतान्वितः । गुणानुवृंहणादज्ञेयो दिग्वतेन गुणव्रतम् ॥ २४ ॥ अन्वयार्थः- (गुणानुबृंहणात् ) मूल गुणोंकी वृद्धि करने से (अनर्थदण्डव्रतान्वितः) अनर्थदण्डे व्रत युक्त, ( भागोपभोगसंहारः) भोगोपभोगे परिमाण, (दिखतेन दिखत सहित यह तीन ( गुणत्रतम् ज्ञेयम्) गुणत्रत जानने चाहिये || २४ || सप्राषधोपवासेन व्रतं सामायिकेन च । देशावकाशिकेन स्याद्वैयावृत्यं तु शिक्षकम् || २५॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १४३ अन्वयार्थः-(वैयावृत्यं) वैयावृत्ये (सप्रोषधोपवासेन) प्रोषधोपैवास सहित (सामायिकेन) सामायिक (च) और (देशावकाशिकेन) देशावकाशिक व्रतके साथ (शिक्षकम् व्रतं स्यात् ) यह चार शिक्षाव्रत कहलाते हैं । २५ ॥ परिच्छिन्नदिशि प्राप्तिं त्यागं निष्कल दुष्कृतेः। . मितान्नाच्यादिकत्वं च कृत्यं विडि गुणवते ॥२६॥ ___ अन्वयार्थः-(गुणव्रते) गुणव्रतमें (परिच्छिन्नदिशि प्राप्ति) मर्यादित दिशाओं में जाना (निप्फलदुष्कृतेः) और निष्प्रयोजन पापोंका (त्याग) त्याग (च) और (मितान्नस्त्रयादिकत्वं) परमित अन्न स्त्री आदि भोगोपभोग पदार्थोंका सेवन (इतिकृत्यं) यह तीन कार्य (विद्धि) जानो ॥ २६ ॥ सञ्चारस्थावधिर्नित्यं सचिह्ना चात्मभावना । दानाद्यैरुपवासश्च पर्वादिष्वन्यतः कृती ॥ ७॥ अन्वयार्थः-(अन्यतः) शिक्षा व्रतमें (सच्चारस्य नित्यं अवधिः) गमनकी नित्य मर्यादा करना, (सचिन्हा आत्मभावना) सब जीवोंमें समतादि भावों सहित आत्माका चिंतवन करना (च) और (दानाद्यैः) मुनि दानादि सहित (पर्वादिषु उपवासः) अष्टमी चतुदशी आदि पर्वके दिनोंमें उपवास करना ही (कृती) कृत्य जानो ॥२७॥ अणुव्रती व्रतैरेतैः कचिद्देशे कचित्क्षणे । महाव्रती भवेत्तस्माद्ग्राह्य धर्ममगारिणाम् ॥२८॥ __ अन्वयार्थः- ( अणुव्रती ) अणुव्रती श्रावक (एतैः व्रतैः) इन बारह व्रतोंमे (कनिदेशे) किसी देश (कचित्क्षणे, व किसी Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सप्तमो लम्बः । समय में ( महाव्रती भवेत् ) उपचार से महाव्रती हो जाता है ( तस्मात् ) इस लिये ( अगारिणां धर्मग्राह्म) गृहस्थां के धर्मको धारण करना चाहिये ॥ २८ ॥ इत्युक्तः प्रत्यगृहाच्च स धर्म गृहमेधिनाम् । कः कदा कीदृशो न स्याद्भाग्ये सति पचेलिमे ॥ २९ ॥ अन्वयार्थः--( इत्युक्तः स ) इस प्रकार उपदेशित उस किसानने ( गृहमेधिनाम् धर्म प्रत्यगृह्णाच्च ) गृहस्थों के धर्म को स्वीकार किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्रवसे (भाग्ये पचेलिमे सति) उत्तम भाग्यके उदय होनेपर (कः ) कौन (कदा) किस समय ( कीदृशः न स्यात् ) कैसा नहीं हो जाता है || २९ ॥ अत्यादरान्नि जाहार्यममु दानविद्ददौ । नादाने किंतु दाने हि सतां तुष्यति मानसम् ॥३०॥ अन्वयार्थः -- ( दानवित् । दान देनेके जानने वाले उन जीवंवर कुमारने ( अति आदरात् ) अत्यंत आदरसे ( अमुष्मै ) इसके लिये ( निवाहाची ददौ ! अपने आभूषणों को दे दिया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( सतां मानसम् ) सज्जन पुरुषों का हृदय ( दाने तुप्यति ) दूसरों को दान देने में ही संतोषित होता है (किन्तु आदाने न ) दूसरेसे दान लेने में संतोषित नहीं होता है | ३० | अकल्पलाभाच धर्मलाभाच पिप्रिये । तादात्विक सुखप्रीतिः संवृतौ हि विशेषतः ॥३१ ॥ अन्वयार्थः – ( सः ) वह किसान ( अनयकलालाभात् ) बहु मूल्य आभूषणों के लाभसे (च ) और ( धर्म लाभात् ) धर्मके Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । लाभसे (पिप्रिये ) अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (संसृतौ.) संसारमें जीवोंको ( तादात्विकसुख प्रीतिः) तात्कालिक विषय सुखोंकी प्रीति (विशेषतः भवति) विशेष रीतिसे होती है ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-संसारमें जीवोंको विषय सुख मिलने पर उस समय बहुत आनन्द होता है ॥ ३१ ॥ तं विमृज्य ततः स्वामी तस्य स्मृत्वैव निर्ययौ । प्रत्यक्षे च परोक्षे च सन्तो हि समवृत्तिकाः ॥३२॥ अन्वयार्थः---( ततः ) इसके अनंतर ( स्वामी ) जीवंधर स्वामी ( तं विसृज्य ) उसको छोड़कर (तस्य स्मृत्वा एव) उसका स्मरण करते हुए ही वहांसे ( निर्ययौ) चल पड़े। अत्र नीतिः (हि ) निश्चयसे ( सन्तः ) सज्जन पुरुष ( प्रत्यक्षे ) सम्मुख (च) और परोक्षे) पीठ पीछे दोनों अवस्थाओंमें ( समवृत्तिकाः भवंति) एकसा व्यवहार करनेवाले होते हैं ॥ ३२ ॥ अधारण्ये कचिच्छान्तो निषण्णो निरुपद्रवः । शरण्यं सर्वजीवानां पुण्यमेव हि नापरम् ॥ ३३ ॥ __ अन्वयार्थः- ( अथ ) इसके अनंतर (श्रान्तः ) थके हुए (क्वचिद् अरण्ये) किसी वनमें (निरुपद्रवः) उपद्रव रहित (निषण्णः ) होकर बैठ गये। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (पुण्यं एव सर्व जीवानां ) पुण्य ही सब जीवोंका (शरण्यं) रक्षक है ( अपरं न ) और कोई नहीं ॥ ३३ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमो लम्बः । तत्र चैकाकिनी रामां पश्यन्नासीत्पराङ्मुखः । अपदोषानुषङ्गा हि करणा कृतिसंभवा ॥ ३४ ॥ अन्वयार्थः--(तत्र च ) और उस वनमें जीवंधर कुमारने ( एकाकिनी रामां) अकेली एक स्त्रीको ( पश्यन् ) देख कर (पराङ्मुखः आसीत् ) उधरसे मुंह फेर लिया । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चयसे (कृतिसंभवा ) विद्वानोंसे उत्पन्न (करुणा) दया ( अपदोषानुषङ्गा ) दोषोंके संबंधसे रहित होती है । भावार्थ-जिसमें किसी भी दोषकी आशङ्का न हो ऐसी दया विद्वान् लोग किया करते हैं ॥ ३४ ॥ सा तु जाता वृषस्यन्ती वृषस्कन्धस्य वीक्षणात् । अप्राप्ते हि रुचिः स्त्रीणां न तु प्राप्ते कदाचन ॥३२॥ अन्वयार्थः- ( सा तु ) और वह भी (वृषस्कंधस्य) बैलके समान श्रेष्ठ कंधेवाले पराक्रमी स्वामीके ( वीक्षणात् ) देखनेसे (वृषस्यन्ती जाता कामसे पीड़ित हुई। . अर्थात्-उनसे विषय भोग करनेकी इच्छा करने लगी। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (स्त्रीणां रुचि:) स्त्रियोंकी प्रीति (अप्राप्ते स्यात) अप्राप्त पुरुषमें ही होता है (प्राप्ते) प्राप्त पुरुषमें (कदाचन न) कभी भी नहीं होती ॥ ३५ ॥ अश्वस्यन्ती विभाव्यैनामाकूतज्ञो व्यरज्यत । अनुरागकृदज्ञानां वशिनां हि विरक्तये ॥३६॥ अन्वयार्थः--(आकृतज्ञः) परके अभिप्रायको जाननेवाले जीवंधर कुमारने (एनां अश्वभ्यन्ती) इमको पर पुरुषाभिलाषिणी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १४७ ( विभाव्य ) जानकर (व्यरज्यत) उससे विरक्त होगये । अत्र नीतिः (हि) निश्चय से (अज्ञानां) मूर्ख पुरुषों के ( अनुरागकृत् वस्तु) अनुराग करनेवाली वस्तु ( वशिनां ) जितेन्द्रिय पुरुषोंके (विरक्तये) विरागके लिये (भवति) होती है ॥ ३६ ॥ - पृथक्चेदङ्गनिर्माणं चर्ममांसमलादिकम् | सजुगुप्सेऽत्र तत्पुत्रे मूढात्मा हन्त मुह्यति ॥३७॥ अन्वयार्थः - (चेत् ) यदि (अङ्गनिर्माणं पृथक् स्यात् ) शरीरकी रचना ष्टथक् पृथक् होवे तो फिर (चर्ममांसमलादिकम् ) चपड़ा, मांस और मलादिकको ( विहाय ) छोड़कर ( अन्यत् ) और कुछ भी ( अवशिष्टं न भवेत् ) शेष न रहे । ( हन्त ?) बड़े खेदकी बात है ? कि तौ भी ( मूढात्मा) मूर्ख अज्ञानी पुरुष (सजुगुप्से) घृणा सहित (तत्पुञ्जे अत्र) चमड़ा और मांसादिकके ढेर रूप इस शरीर में (मुह्यति) मोहित होते हैं ॥ ३७ ॥ दुर्गन्धमलमांसादिव्यतिरिक्तं विवेचने | नेक्षते जातु देहेऽस्मिन्मोहे को हेतुरात्मनाम् ||३८|| अन्वयार्थः -- (विवेचने सति) भली भांति विचार करने पर ( अस्मिन् देहे ) इस शरीर में ( दुर्गन्धमलमांसादिव्यतिरिक्तं ) दुर्गन्ध मल मांसादिकके सिवाय (जातु न ईक्षते) और कुछ कभी भी दिखाई नहीं देता ( तथापि ) तौ भी ( आत्मनाम् ) जीवोंका (अस्मिन् मोहे) इसके अंदर मोह है इसमें (क: हेतुः ) क्या हेतु है ॥ ३८ ॥ अज्ञानमशुचेर्बीज ज्ञात्वा व्यूहं च देहाय । आत्माव सस्पृहो वक्ति कर्माधीनत्वमात्मनः ॥ ३९ ॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सप्तमो लम्बः । अन्वयार्थः-- (अज्ञानम् ) अज्ञान स्वरूप (अशुचेः बीज) अपवित्र मल मूत्रादिकका कारण (व्यूह) तर्कना रहित विचार शून्य (देहकम् ) शरीरको (ज्ञात्वा अपि) जानकरके भी (अत्र सस्टहः) इसमें इच्छा सहित (आत्मा) आत्मा (आत्मनः कर्माधीनत्वं वक्ति) अपने कर्माधीन पनेको कथन करता है ॥ ३९ ॥ मदीयं मांसलं मांसममीमांसेयमङ्गाना । पश्यन्ती पारवश्यान्धा ततो याम्यात्मनेऽथवा ॥४०॥ ___ अन्वयार्थः- (अमीमांसा) विचारशून्य (इयं अङ्गना) यह स्त्री (मासलं मदीयं मांस) बलवान् पुष्ट मेरे मांस (शरीर) को (पश्यन्ती) देखकर (पारवश्यान्धा) कामकी पराधीनतासे अध (जाता) होगई । (ततः) इसलिये (अथवा) अथवा (आत्मने) अपनी आत्माके हितके लिये (अयामि) मैं जाता हूं ॥ ४० ॥ अङ्गारमहशी नारी नवनीतसमा नराः । तत्तत्मानिध्यमात्रेण द्रवत्पुंसां हि मानसम् ।। ४१॥ ___अन्वयार्थः----( नारी ) स्त्री ( अङ्गार सदृशी ) जलते हुए कोयले के समान है और ( नराः ) मनुष्य ( नवनीत समाः ) नैनृ अर्थात् तुरत निकले हुए घीके समान होते हैं (तत्तस्मात् इसलिये (हि निश्चयसे (तत् सांनिध्यमात्रेण) स्त्रियों की समीपता मात्रसे ही (पुंसां पुरुषोंका (मानसम् ) हृदय (वेत) पिघल जाता है।।४ ११ संशापासहासादित पापभीरूणा। बालथा वृद्धया मात्रा दुहित्रा वा व्रतस्थया ॥४२॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १४९ - अन्वयार्थः-( तत्तस्मात् ) इसलिये ( पापभीरुणा) पापसे डरनेवाले पुरुषोंको (बालया) जवान कन्यासे (वृद्धया) वृद्ध स्त्रीसे (मात्रा) मातासे (वा) अथवा ( दुहिता ) पुत्रीसे और (व्रतस्थया) व्रत पालन करनेवाली श्राविकासे ( संलापवासहासादि ) बोलना, साथमें रहना, और हंसी आदिक वरना ( वयं ) छोड़ देना चाहिये ॥ ४२ ॥ इति वैराग्यतर्केण ततो यातुं प्रचक्रमे । भेतव्यं खलु भेतव्यं प्राज्ञैरज्ञोचितात्परम् ॥ ४३ ।। अन्वयार्थ-(इति वैराग्यतर्केण) इस प्रकार वैराग्योत्पादक विचारसे जीवंधर स्वामी ( ततः ) वहांसे ( यातुं ) जानेके लिये (प्रचक्रमे ) तैयार हुए । अत्र नीतिः ! (खलु) निश्चयसे (प्राज्ञैः) बुद्धिमान पुरुषोंको ( अज्ञोचितात् ) मूर्ख पुरुषोंके करने योग्य कार्योसे (परम्) अत्यन्त (भेतव्यं भेतव्यं) डरना चाहिये ॥४३॥ विरक्तमेव रक्ता सा निश्चिकाय विपश्चितम् । ... निसर्गादिन्तिज्ञाममङ्गनासु हि जायते ॥ ४४ ।। अन्वयार्थः-(रक्ता सा) आसक्त उस स्त्रीने ( विपश्चितम् ) पंडित जीवंधरकुमारको अपने में ( विरक्तं एव ) अत्यन्त विरक्त ( निश्चिकाय ) निश्चय किया । अत्र नीतिः (हि ! निश्चयसे ( अङ्गनासु ) स्त्रियोंमें ( इङ्गित ज्ञानं ) शरीरकी चेष्टासे मनके भावोंको जान लेनेका ज्ञान (निसर्गात् एव जायते ) स्वभावसे ही उत्पन्न होता है ॥ ४४ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सप्तमो लम्बः । तस्य स्वान्तं वशीकर्तुं स्वोदन्तमिघमूचिषी । प्रतारणविधौ स्त्रीणां बहुद्वारा हि दुर्मतिः ॥ ४५ ॥ अन्वयार्थः - ( इयं ) इस स्त्रीने ( तस्य ) उसके ( स्वान्तं ) हृदयको ( वशी कर्तुं ) वश में करनेके लिये ( स्वोदन्तं ) अपना घृत्तान्त ( उचिषी) कहा । अत्र नीति: । (हि) निश्चय से ( स्त्रीणां ) स्त्रियों की दुर्मतिः) खोटी बुद्धि दूसरों को (प्रतारण विधौ ) ठगने में ( बहुद्वारा भवति ) अनेक द्वार वाली होती है ॥ ४१ ॥ विद्धि दीनां महाभाग मां विद्याधरकन्यकाम् । स्यालेनाव बलान्नीतां त्यक्तामात्मप्रियाभयात् ॥ ४६ ॥ अन्वयार्थ : – ( महाभाग ! ) हे महाभाग ! (स्यालेन ) मेरे * भाई के साले से (बलात्) जबर्दस्ती से (नीतां) लाई हुई ( आत्मप्रिया भयात्) अपनी स्त्रीके भय से ( अ ) यहां इस वन में ( त्यक्तां ) छोड़ी हुई ( मां) मुझ (दीनां ) गरीबनीको ( विद्याधर कन्यकां) विद्याधरकी कन्या (त्वं) तुम (विद्धि) समझो ॥ ४६ ॥ अनङ्गतिलकां नाम्ना पुंसां तिलक रक्ष माम् । अशरण्यशरण्यत्वं वरेण्ये वर्ततामिति ॥ ४७ ॥ अन्वयार्थः -- ( पुंसां तिलक) हे पुरुषों के भूषण स्वरूप (नाम्ना अनङ्ग तिलकां माम् ) अनङ्गतिलका नामकी मुझको (रक्ष) रक्षा करो । ( अशरण्य शरण्यत्वं) का कोई शरण नहीं है उनका शरण पना ( वरेण्ये) पुरुषों में श्रेष्ठ आपमें ( वर्ततां ) होवे ? | (इति) ऐसा उस स्त्रीने कहा ॥ ४७ ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । तावदार्तस्वरः कोऽपि शुश्रुवे श्रुतशालिना। क प्रयाता प्रिये प्राणा मम यान्तीति दुःसहः ॥४८॥ ____ अन्वयार्थः-(तावद्) इतने ही में (श्रुत शालिना) शास्त्रमें प्रवीण उन जीवंधरकुमारने (हे प्रिये ) हे प्यारी ( क ) कहां . (प्रयाता) चली गई (मम) मेरे (प्राणा:) प्राण (यान्ति) निकले जाते हैं " (इति) इस प्रकार (कः अपि) कोई (दुःसहः) दुःसह (आर्तस्वरः) दुखी पुरुषका शब्द (शुश्रुवे) सुना ॥ ४८ ॥ योषाप्येषा मिषेणास्मान्निमेषादिव निर्ययौ। मायामयी हि नारीणां मनोवृत्तिनिसर्गतः ॥ ४९ ।। ____ अन्वयार्थः-(एषा) यह (योषा) स्त्री (अपि) भी (मिषेण) किसी बहानेसे ( अस्मात् ) इन जीवंधरकुमारके पाप्तसे ( निभेषात् इव) क्षण मात्रमें ही ( निर्ययो) चली गई । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे ( नारीणां ) स्त्रियोंकी ( मनोवृत्तिः ) चित्तवृत्ति ( निसर्गतः ) स्वभावसे ही ( मायामयी ) छलकपट करनेवाली ( भवति ) होती है ॥ ४९ ॥ आर्तस्वरकरोऽप्याह दैन्यं मान्यस्य वीक्षणात् । शोच्याः कथं न रागांधा ये तुवाच्यान्न बिभ्यति। ५०॥ ___अन्वयार्थ:-( आर्तस्वरकरः अपि ) दुःखित शब्दको करनेवालेने भी ( मान्यस्य ) माननीय जीवंधरके (वीक्षणात् ) देखनेसे (दैन्यं) दीनतापूर्वक (आह) कहा । (ये तु? जो पुरुष (वाच्यात्) अपवादसे व निंदासे ( न ) नहीं ( विभ्यति ) डरते हैं (ते) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सप्तमो लम्बः । वे रागान्धाः) रागसे अन्धे पुरुष ( कथं ) कैसे ( न शोच्याः ) शोचनीय नहीं होते । अर्थात् शोचनीय होते ही हैं ॥ ५० ॥ उदन्योपद्रुतामत्र मान्य भार्या पतिव्रताम् । पानीयार्थमवस्थाप्य नाद्राक्षं प्रस्थितागतः ।। ५१॥ ____ अन्वयार्थः- (मान्य !) हे माननीय ! (अहं) मैं (उदन्यो पद्रुतां) प्याससे व्याकुल ( पतिव्रताम् भार्या ) पतिव्रता अपनी स्त्रीको ( अत्र ) यहां पर (अवस्थाप्य विठला कर ( पानीयार्थ ) पानीके लिये ( प्रस्थितागतः ) जाकर आया हुवा ( न अद्राक्षम् ) नहीं देखता हूं ॥ ११ ॥ विद्याप्यविद्यमानैव मम विद्याधरोचिता। मोत्तम भवानन्त्र कर्तव्यं कथयेदिति ॥ ५२ ॥ अन्वयार्थ:-( मोत्तम ! ) हे मनुष्यों में श्रेष्ठ ! (भम ) मेरी ( विद्याधरोचिता ) विद्याधरोंके लिये उचित ( विद्या अपि ) बुद्धि भी ( अविद्यमाना इव) अविद्यमानके सदृश हो गई । अर्थात स्त्रीके वियोगसे मैं अपनी जब विद्याएँ भूल गया । (भवान् ) आप (अत्र) इस विषय में (कर्तव्यं) करने योग्य उपायको (कथयेत् ) कहिये ॥ (इति) ऐसा उम विद्याधरने कहा ॥ ५२ ॥ पुरन्धीष्वतिसंधानादभैषीद भयंकरः ।। वचनीयाहि भीरुत्वं महतां महनीयता ॥ ५३ ॥ अन्वयार्थः- ( अभयंकरः ) भय नहीं करनेवाले भीवंधर कुमार ( पुरन्ध्रीपु ) स्त्रियोंमें ( अति संधानात ) अत्यन्त प्रेम करनेसे ( अभैषीत् ) डर गये । अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १५३ (वचनीयात् भीरुत्वं) निंद्यनीक, बुरी बातों से डरफोकपना (महतां ) बड़े पुरुषोंका ( महनीयता ) बड़प्पन है || १२ | नभश्वरं पुनश्चैनं सविपश्चिदबोधयत् । अपश्चिमफलं वक्तुं निश्चितं हि हितार्थिनः ॥ ५४ ॥ अन्वयार्थ : - (पुनः) फिर ( सः विपश्विद् ) उन पण्डित जीवंधरने ( एनं नमश्वरं ) इस विद्याधरको (अबोधयत् ) समझाया | अत्र नीति: ! ( हि ) निश्चय से ( हितार्थिनः ) दूसरोंका हित करनेवाले पुरुष ( निश्चितम् ) निश्चय से ( अपश्चिम फलं ) सर्वोत्तम है फल जिसका ऐसी बातको ( वक्तुं ) कहनेके लिये ( इच्छंति ) इच्छा करते हैं ॥ ५४ ॥ भवदत्त सुधार्तोऽसि विद्यवित्तो भवन्नपि । न विद्यते हि विद्यायामगम्यं रम्घवस्तुषु ॥ ५६ ॥ . अन्वयार्थः - ( भवदत्त) हे भवदत्त ! ( त्वं ) तू ( विद्यावित्तः ) विद्यारूपी धनवाला (भवन् अपि होता हुआ भी क्यों ( मुधा ) व्यर्थ ( आर्तः असि ? दुःखी हो रहा है । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( विद्यायां सत्यां) विद्याके होने पर ( रम्य वस्तुपु) सुंदर पदार्थों में (अगभ्यं) दुष्प्राप्य ( न विद्यते ) कुछ भी नहीं है ॥५५॥ नभश्वर न कश्चित्स्याद्विपश्चिदविपश्चितोः । विनिश्चलशुचोर्भेदो यतश्च कुतश्चन ।। ५६ ।। अन्वयार्थ : --- ( नमश्वर !) हे विद्याधर ( यतश्च कुतश्वन) इधर उधर से ( विपत्तौ सत्यां) विपत्ति आजाने पर (विनिश्वल शुचो :) निश्चल रहना और शोक करना इसके सिवाय (विपश्चिद् Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सप्तमो लम्बः । अविपश्चितोः ) विद्वान् और मूर्खमें (कश्चित् भेदः न) और कुछ भी भेद नहीं है ॥ ५६ ॥ परं सहस्रधीभाजि स्त्रीवर्ग का पतिव्रता। पातिव्रत्यं हि नारीगां गत्यभावे तु कुत्रचित् ॥५७॥ ___अन्वयार्थः- परं) केवल ( सहस्रधीभानिस्त्रीवर्गे ) हजारों प्रकारकी बुद्धिको करनेवाली स्त्री समूहमें (का पतिव्रता) पातिवृत्य धर्म कहांसे हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता (हि) निश्चयसे (कुत्रचित्) कहीं पर (गत्यभावे तु) जाने आनेके अभावमें ही (नारीणां पातिवृत्यं भवेत् ) स्त्रियोंका पातिवृत्यपना रह सक्ता है ॥ १७ ॥ मदमात्सर्यमायारागरोषादिभूषिताः। असत्याशुद्धिकौटिल्यशाध्यमौढ्यधनाः स्त्रियः॥॥ ___अन्वयार्थः- (स्त्रियः) स्त्रियां (मदमात्सर्यमायेारागदोषादि भूषिताः ) घमंड, डाह, छल कपट, प्रीति, विरोध और क्रोध इनसे भूषित और ( असत्याशुद्धिकौटिल्यशाट्यमौढ्यधनाः ) झूठ, अपवित्रता, कुटिलता, शठता और मूर्खता ये हैं धन जिसके ऐसी होती हैं ॥ १८ ॥ निघृणे निवे क्रूरे निर्व्यवस्थे निरङ्कुशे। पापे पापनिमित्ते च कलत्रे ते कुतः स्पृहा ।। ५९ ॥ ___अन्वयार्थः-(निघृणे) घृणा रहित, (निवे) दया हीन, (क्रूरे) दुष्ट (निर्व्यवस्थे। अव्यवस्थित, (निरङ्कुशे) स्वतन्त्र, (पापे) पाप रूप (च) और पाप निमित्ते) पापकी कारणी भूत (कलत्रे) स्त्रीमें (ते स्पृहा) तेरी इच्छा (कुतः भवेत् । कैसे होती है ॥१९॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । इत्युपादिष्टमेतस्य हृदये नासजत्तराम् । जठरे सारमेयस्य सर्पिषो न हि सञ्जनम् ॥ ६० ॥ अन्वयार्थ : - ( इति उपादिष्टं ) इस प्रकार यह उपदेश ( एतस्य हृदये) इस विद्याधरके मनमें (न असजेत्तराम् ) नहीं लगा । अर्थात् उसके हृदय में जीवंधर स्वामीके उपदेशने कुछ भी असर नहीं किया । अत्र नीति: । (हि) निश्चय से ( सारमेयस्यजठरे ) कुत्तेके पेट में (सर्पिषो सञ्जनं न भवति) घीका ठहरना नहीं होता है । ॥ ६० ॥ १५५ स्वामी तु तस्य मौट्येन सुतरामन्वकम्पत । उत्पथस्थे प्रबुद्धानामनुकम्पा हि युज्यते ॥ ६१ ॥ अन्वयार्थः - (तु) किन्तु (स्वामी) जीवंधर स्वामी (तस्य ) उसकी (मौन) मूर्खता पर (सुतरां ) स्वयं (अन्वकम्पत ) अत्यंत दयायुक्त हुए । अत्र नीतिः । (हि) निश्चय से ( उत्पथस्थे) खोटे मार्ग में चलने वाले मनुष्यों पर ( प्रबुद्धानां ) बुद्धिमान पुरुषों का (अनुकम्पा ) दया करना ही (युज्यते) युक्त है ॥ ६१ ॥ ततस्तस्माद्विनिर्गत्य कमप्याराममाश्रयत् । अदृष्टपूर्वदृष्टौ हि प्रायेणोत्कण्ठते मनः ।। ६२ ॥ अन्वयार्थः—(ततः) इसके अनंतर ( तस्मात् ) उस स्थान से (विनिर्गत्य ) निकलकर के जीवंधर स्वामीने (कमपि ) किसी (आरामं ) बगीचेको (आश्रयत्) प्राप्त किया । अर्थात् - वे किसी बगीचे में पहुंचे । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे ( अदृष्टपूर्वदृष्टौ ) पहले नहीं देखी हुई वस्तु देखने में (प्रायेण ) बहुत करके (मनः उत्कंठते) मन उत्कंठित हुआ करता है ॥ ६२ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमो लम्बः । तत्राम्रफलमाक्रष्टुं धनुषा कोऽपि नाशकत् । अशक्तैः कर्तुमारब्धं सुकरं किं न दुष्करम् ॥ ६३ ॥ अन्वयार्थः—(तत्र) उस बगीचेमें (कः अपि) उस देशके राज कुमारोंमेंसे कोई भी राजकुमार (धनुषा) धनुषसे (आम्रफलं) किसी भी आम्र फलको आक्रष्टुं। गिरानेके लिये (न अशकत) समर्थ नहीं हुआ। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (अशक्तैः) असमर्थ पुरुषोंसे (कर्तुं आरब्ध) करनेके लिये आरंभ किया हुआ (सुकरं) सरल काम भी किं दुष्करम् न) क्या दुःसाध्य नहीं होता है किन्तु दुःसाध्य होता ही है ॥ ६३ ॥ स्वामी तु तत्फलं विद्धमादत सशिलीमुखम् । तत्तन्मात्रकृतोत्साहैः माव्यते हि समीहितम् ॥६४॥ ___अन्वयार्थ:-(तु) परन्तु (स्वामी) जीवंधर स्वामीने (विद्धं. तत्फलं) बाणसे छेदित उस फलको (सशिलीमुखम् ) बाण सहित ( आदत्त ) ग्रहण कर लिया। अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे (तत्तन्मात्र कृतोत्साहै:) प्रत्येक कार्यमें उत्साह व निपुणता युक्त पुरुष ही : समीहितम् ) इच्छित कार्यको ( साध्यते ) सफल कर लिया करते हैं ॥ ६४ ॥ अपराहपृषत्कोऽपि दृष्ट्वा व्यस्मेष्ट तत्कृतिम् । अपदानमशक्तानामद्भुताय हि जायते ॥ ६५ ॥ ___ अन्वयार्थः--(अपराद्धष्टषत्कोऽपि) लक्ष्यसे च्युत है बाण जिसका ऐसा कोई राजकुमार भी (तस्कृतिम् दृष्ट्वा) जीवंधर स्वामीकी बाण निपुणताको देखकर ( व्यस्मेष्ट ) अत्यंत आश्चर्य युक्त Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १९७ नहीं हुआ । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( अपदानं) स्वयं जिसको न कर सके ऐसा उत्तम कार्य दूसरेसे कर देने पर ( अशक्तानां ) अशक्त पुरुषोंको (अद्भुताय) आश्चर्यके लिये (जायते) होता है ॥ ६९ ॥ स्वामिनोऽयं स्ववृत्तांतं सकातर्य समभ्यधात् । संनिधाने समर्थानां वराको हि परो जनः ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थः - ( अयं ) जिसका बाण खाली गया उस राजकुमारने (स्वामिनः) जीवंधर स्वामी से ( सकातर्थं ) दीनतापूर्वक डरते हुए (स्ववृत्तान्तं ) अपना वृत्तान्त ( समभ्यधात् ) कहा । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( समर्थानां ) समर्थ बड़े पुरुषों के ( संनिधाने) अगाड़ी (परो जनः ) असमर्थ दूसरा मनुष्य ( बराक:भवति ) तुच्छ दीन हो जाता है ॥ ६६ ॥ कर्तव्यं वा न वा प्रोक्तं मया कार्मुककोविद । कर्णकटुपि महाक्यमाकर्णयितुमर्हसि ॥ ६७ ॥ अन्वयार्थः -- ( हे कार्मुककोविद ! ) हे धनुष विद्या में प्रवीण ! (मया प्रोक्तं) मेरे से कहा हुआ ( कर्तव्यं ) करने योग्य है ( वा न वा ) अथवा नहीं (किन्तु कर्णकटु अपि) किन्तु कानों को अप्रिय भी (मवाक्यं) मेरे वचन ( आकर्णयितुं अर्हसि ) आप सुने ॥ ६७ ॥ एतन्मध्यमदेशस्था हेमाभा स्यादियं पुरी । क्षत्रियो दृढमित्रः स्यात्तत्प्रिया नलिनाह्वया ||३८|| अन्वयार्थः – ( एतन्मध्यमदेशस्था ) इस मध्य देशमें स्थित ( इयं ) यह ( हेमाभा ) हेमाभा नामकी ( पुरी ) पुरी ( स्यात् ) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ सप्तमो लम्बः। है उसका राजा ( दृढमित्रः क्षत्रियः ) हदमित्र नामका क्षत्रि है ( तत्प्रिया नलिनाह्वयः स्यात् ) और उसकी स्त्रीका नाम नलिना है ॥ १८॥ सुमित्राद्यास्तयोः पुत्रास्तेष्वप्यन्यतमोऽस्म्यहम् । वयसैव वयं पक्का विश्वेऽपि न तु विद्यया ॥ ६९ ॥ __ अन्वयार्थः—और (तयोः) उन दोनोंके (सुमित्राद्याः पुत्राः अभूवन् ) सुमित्र आदि कई पुत्र हैं । ( तेषु ) उनमें से ( अहं) मैं भी ( अन्यतमः अस्मि ) एक हूं ( वयं विश्वेऽपि ) हम सब (वयसा एव पक्का) उम्रसे ही बड़े हो गये (तु) परन्तु (न विद्यया) विद्यासे बड़े नहीं हैं ॥ १९ ॥ तातपादोऽयमस्माकं चापविद्याविशारदम् । विचिनोति न चेद्दोष एषोऽप्यालोक्यतामिति ॥७०॥ ___ अन्वयार्थः- ( अस्माकं ) हमारे ( अयम् तातपादः ) यह पूज्य पिता ( चापविद्याविशारदम् ) धनुर्विद्यामें पण्डित पुरुषको ( विचिनोति ) खोज रहे हैं । ( चेत् ) यदि ( दोषः न ) आप कुछ दोष न समझें तो ( एषः अपि ) इनको भी ( आलोक्यतां) देखें अर्थात् उनसे मिलें ॥ (इति) ऐसा कुमारने कहा ॥ ७० ॥ तयाहारे विसंवादो विदुषोऽप्यस्य नाजनि । विधिर्घटयतीष्टार्थैः स्वयमेव हि देहिनः ॥ ७१ ॥ __अन्वयार्थः----( तद्व्याहारे ) उस कुमारके कथन में ( अस्य विदुषः अपि ) इन विद्वान् जीवंधरको भी ( विसंवादः ) कुछ भी विरोध ( न अनि ) नहीं हुआ। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , १५९ क्षत्रचूड़ामणिः । ( विधिः ) कर्म (देहिनः) देहवारी मनुष्योंको (स्वयमेव) अपने आप ही ( इष्टार्थः ) इष्ट पदार्थोसे ( घटयति ) सम्बन्ध करा देता है ॥ ७१ ॥ पार्थिवं च ततः पश्यस्तदश्योऽभूच संमतेः । अनुसारप्रियो न स्यात्को वा लोके सचेतनः ॥७२॥ ___ अन्वयार्थः--(ततः) तदनंतर जीवंधर कुमार (पार्थिव पश्यन् ) रानाको देखकर (संमतेः) उनके आदर सन्मान करनेसे (तद्वश्यः) उनके वशीभूत ( अभूत् ) हो गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( लोके ) लोकमें ( को वा ) कौन ( सचेतनः ) सचेतन प्राणी (अनुमारप्रियः न स्यात् ) अपने अनुकूल मनुष्यमें प्रेम करनेवाला नहीं होता है ॥ ७२ ॥ महीक्षिता क्षणात्तस्य माहात्म्यमपि वीक्षितम् । वपुर्वक्ति हि सुव्यक्तभनुभावमनक्षरम् ॥ ७३ ।। अन्वयार्थः-(महीक्षिता अपि) राजाने भी ( क्षणात ) क्षण मात्रमें ( तस्य माहात्म्यं ) उसका माहात्म्य अर्थात् बड़प्पन (वीक्षितम् ) देख लिया अत्रनीतिः । (हि, निश्चयसे (वपुः) शरीर (अनुभावं) मनुष्य के प्रभावको (अनक्षरम् ) विना शब्द कहे हुए ही (सुव्यक्त) स्पष्ट (वक्ति) कथन कर देता है ॥ ७३ ।। सुतविद्यार्थमत्यर्थ पार्थिवस्तमयाचत । आराधनैकसंपाया विद्या न ह्यन्यसाधना ॥ ७४ ।। ___ अन्वयार्थः-(पार्थिवः) राजाने (सुतविद्यार्थ) अपने पुत्रोंको विद्या सिखानेके लिये (तं, उनसे (अत्यर्थ) अत्यन्त (अयाचत) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमो लम्बः । प्रार्थना की । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (विद्या) विद्या (आराधनैक संपाद्या) गुरूकी आराधना ( सेवाशुश्रूषा ) से ही प्राप्त होती है (अन्यसाधना न) और दूसरे साधनोंसे नहीं ।। ७४ ॥ अभ्यर्थनबलात्तस्य कुमारोऽप्यभ्युपागमत् । स्वयं दया सती विद्या प्रार्थनायां तु किं पुनः ॥७॥ ___ अन्वयार्थः-(तस्य अभ्यर्थनबलात् ) उस राजाके बार २ प्रार्थना करनेसे (कुमारः अपि) जीवंधर कुमारने भी (अभ्युपागमत्) उन राज कुमारोंको विद्या पढ़ाना स्वीकार किया । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे सती विद्या) समीचन निर्दोष विद्या नब (स्वयं देया) अपने आप ही देने योग्य है । (प्रार्थनायां तु) प्रार्थना करने पर तो (पुन:) फिर (किं वक्तव्यं कहना ही क्या है ॥ ७९ ॥ पवित्रोऽपि सुतान्विद्यां स प्रापयवञ्चितम् । कृतार्थानां हि पारायमहिकार्थपराङ्मुखम् ॥ ७६ ॥ ___अन्वयार्थ:- (सः पवित्रः अपि पवित्र उन जीवंधर कुमारने भी (सुतान् ) उन राजाके कुमारोंको अवञ्चितं विद्यां प्रापयत्) सच्चे हृदयसे विद्या सिखाई । अत्र नीतिः । हि) निश्यसे (कृतार्थानां) कृतकृत्य पुण्यवान् पुरुषोंका (पारायं) परोपकार करना ही (ऐडिकाथ पराङ्मुखम् ) इम लोक संबंधी प्रयोजनसे रहित होता है ॥ ७६ ॥ प्रश्रयण बभूवुस्ते प्रत्यक्षाचार्थरूपकाः । विनयः खलु विद्यानां दोग्ध्री सुरभिरञ्जसा ॥७॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १६१ अन्क्या र्थः -- (स) वे राजकुमार ( प्रश्रयेण ) जीवंधर गुरुकी fare करनेसे (प्रत्यक्षाचार्य रूपकाः बभूवुः) घनुष विद्या में साक्षात् नीवंधर स्वामीके समान होगये । अत्र नीतिः । ( खलु ) निश्चय से ( अञ्जसा विनयः ) यथार्थ गुरुका विनय (विद्यानां ) विद्याओंको (दोग्ध्री) देनेवाली (सुरभिः) सच्ची कामधेनु है || ७७ ॥ वीक्ष्य तानसृपो विद्यानां पारदृश्वनः पुत्रमात्रं मुदे चित्रोर्विद्यापात्रं तु किं पुनः ॥ ७८ ॥ अन्वयार्थः - (मूपः ) राजा ( विद्यानां पारश्वनः) विद्यामें पारगामी (तान् ) उन पुत्रोंको (वीक्ष्य) देखकर ( अतृपत्) अत्यन्त प्रसन्न हुए । अत्र नीतिः । ठीक ही है (पित्रोः) माता पिताको (पुत्र मात्र ) पुत्र मात्र ही ( मुदे) हर्ष के लिये होता है फिर यदि वह ( विद्यापात्रं ) विद्याका पात्र हो तो ( किं पुनः वक्तव्यं) फिर कहना ही क्या है ॥ ७८ ॥ अतिमात्रं पवित्रं च धात्रिपः समभावयत् । असंभावयितुर्दोषो विदुषां चेदसंमतिः ॥ ७९ ॥ अन्वयार्थः फिर धात्रिपः ) राजाने (पवित्र) पवित्र जीवंधर स्वामीका (अतिमात्र) अत्यंत (समभावयत् ) सन्मान किया ( चेत् ) यदि ( विदुषां ) विद्वानोंका (असं-तिः न स्यात् ) सन्मान न होवे तो ( असंभावयितुः) इसमें सन्मान नहीं करनेवालेका ही (दोषः ) दोष है ॥ ७९ ॥ 4 महोपकारिणः किं वा कुर्यामित्यप्यतर्कयत् । विद्याप्रदायिनां लोके का वा स्यात्प्रत्युपक्रिया ॥ ८० ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सप्तमो लम्बः । ___ अन्वयार्थः-(महोपकारिणः) महान् उपकारी (अस्य) इसका (अहं किं वा कुर्याम् ) मैं क्या उपकार करूं (इति सः अतर्कयत) इस प्रकार उसने बिचार किया। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (लोके) इस संसारमें ( विद्याप्रदायिनां ) विद्यादान करने वालोंका (कावा) क्या (प्रत्युपक्रिया) प्रत्युपकार (स्यात् ) हो सकता है ॥८॥ कन्याविश्राणनं तस्मै करणीयमजीगणत् । शक्यमेघ हि दातव्यं सादरैरपि दातृभिः ।।८१॥ ____ अन्वयार्थः-फिर (सः) उस रानाने (तस्मै) उन जीवंधर कुमारके लिये (कन्याविश्राणनं) अपनी कन्याका दे देना (काणीयं) कर्तव्य (अनीगण ) निश्चय किया । अत्रनीतिः । (हि) निश्चयसे (सादरैः) आदर सहित (दातृभिः) दाताओंको (अपि) भी (शक्यमेव) अपने लिये शक्य ही दातव्यं) दान करना चाहिये ॥८॥ अभ्युपराजीगमत्पुत्री परिणेतुममुं पुनः । उदाराः खलु मन्यन्ते तृणायदं जगत्त्रयम् ।।८२।। अन्वयार्थः-- (पुनः) फिर वह राना (पुत्रीं परिणेतुं) पुत्रीको च्याह देनेके लिये (अमुम् ) जीवंधर स्वामीके पास (अभ्युपानीगमत् ) आया । अत्र नीतिः ! (खलु) निश्चयसे (उदाराः) उदार पुरुष (इदं जगत्त्रयम् ) इस जगत्त्रयको (तृणाय) तृणके समान (मन्यन्ते) मानते हैं ॥ २ ॥ ततः कनकमालाख्यां कन्यां राज्ञा समर्पिताम् । पर्यणैषीत्पवित्रोऽयं पवित्रामग्निसाक्षिकम् ॥ ८३ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । ____ अन्वयार्थः-(ततः) इसके अनंतर (अयं पवित्रः) इन पवित्र जीवंधर स्वामीने (राज्ञा समर्पिताम् ) रामासे प्रदान की हुई (पवित्रां) पवित्र ( कनकमालाख्यां ) कनकमाला नामकी (कन्यां) कन्याको ( अग्निसाक्षिकम् ) अनिकी साक्षी पूर्वक (पर्यणैषीत् ) ब्याहा ॥ ३ ॥ इति श्रीमद्वादीभसिंह सूरि विरचिते क्षत्रचूडामणौ सान्वयार्थः कनकमाला लम्भो नाम सप्तमो लम्बः ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अष्टमो लम्बः । مد अथ अष्टमो लम्बः । 4 अथ तत्करपी डान्तेऽसक्तस्वान्तोऽभवत्सुधीः । तीरस्थाः खलु जीवन्ति न हि रागान्धिमाहिनः ॥ १ ॥ अन्वयार्थः - ( अथ ) फिर ( तत्करपीड़ान्ते ) कनकमालाके विवाह के अनंतर ( सुधीः) बुद्धिमान् जीवंधर स्वामी ( असक्तस्वान्तः) उसमें अतिशय अनुराग युक्त नहीं ( अभवत् ) हुए । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से ( तीरस्थाः ) रागसमुद्रके तट परस्थित पुरुष ही ( जीवन्ति) जीते हैं किन्तु ( खलु रागाब्धिगाहिनः ) विषय रूपी रागसमुद्र में अवगाहन करनेवाले ( न जीवंति ) नहीं जीते हैं अर्थात् संसार में वही पुरुष सुखी है जो विषय भोगोंकी तृष्णासे अलग रहते हैं, उनमें फंसे हुए नहीं रहते ॥ १ ॥ स्यालानां तत्र वात्सल्यादवात्सीत्सुचिरं सुधीः । वत्सलेषु च मोहः स्याद्वात्सत्यं हि मनोहरम् ||२| अन्वयार्थ : - (तत्र) उप हेमाभा नगरी में ( सुधीः) बुद्धिमान जीवंधर कुमार (स्यालानां ) अपने सालोंके (वात्सल्यातू) प्रेमसे (सुचिरं चिरकाल तक ( अवात्सीत् ) स्थित रहे । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे वत्सलेषु) प्रेमियों में (मोहः स्यात् ) मोह हो ही जाता है क्योंकि ( वात्सल्यं ) प्रेमभाव (मनोहरम् ) मनको हरनेवाला (भवति) होता है ॥ २ ॥ यापितोऽपि महाकालस्तस्य नोद्वेगमातनोत् । वत्सलैः सह संवासे वत्सरो हि क्षणायते ॥ ३ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १६५ अन्वयार्थः - (यापितः अपि) बीते हुए भी ( महाकालः) बहुत समयने ( तस्य) उस जीवंधर कुमारके (उद्वेगः) कुछ भी खेद भाव (न आतनोत् ) नहीं किया । अत्र नीतिः ! (हिं) निश्वयसे (वत्सलैः सह ) प्रेमियोंके साथ (संवासे) रहने में (वत्सरः अपि) एक वर्ष भी ( क्षणायते) क्षणके समान बीत जाता है ॥ ३ ॥ कदाचित्कापि तत्प्रान्तं समन्दस्मितमासदत् । नैसर्गिकं हि नारीणां चेनः संमोहि चेष्टितम् ||४|| अन्वयार्थः ~~ (कदाचित् ) एक दिन ( कापि ) कोई स्त्री ( तत्प्रान्तं ) उनके समीप ( समन्दस्मितम् ) कुछ हंसती हुई ( आसदत् ) पहुँची ( अत्र नीतिः ) ! (हि) निश्चय से (नारीणां ) स्त्रियोंकी ( चेष्टितम् ) चेष्टाएं (नैसर्गिकम् ) स्वभावसे ही ( चेतः संमोहि ) चितको मोहित करनेवाली होती हैं ॥ ४ ॥ अप्राक्षीत्तां च साकूतां किमायातेति सादरः । विवक्षालिङ्गितं हि स्यात्प्रष्टुः प्रश्नकुतूहलम् ॥ ५ ॥ अन्वयार्थः - ( सादरः कुमारः ) आदर सहित कुमारने " ( किंम् आयाता ) तुम यहां क्यों आई " (इति) इस प्रकार ( साकूतां तां ) किसी मतलब से आई हुई उस स्त्रीसे ( अप्राक्षीत् ) पूछा । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चय से ( प्रष्टुः ) पूछने वाले का ( प्रश्नकुतूहलम् ) प्रश्न में कुतूहल (विवक्षालिङ्गितम् ) कुछ कहने की इच्छा से युक्त (स्यात्) होता है ॥ ५ ॥ अत्र चायुधशालायां चैकदैवाविशेषतः । स्वामिन्स्वामिममद्राक्षमित्यसौ प्रत्यभाषत ॥ ६ ॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमो लम्बः । ... अन्वयार्थः- (असौ) उस स्त्रीने “(स्वामिन् ! ) हे स्वामी ! ( अत्र ) यहां पर ( च ) और ( आयुधशालायां ) आयुधशालामें ( एकदा एव ) एक ही समयमें (स्वामिनं ) आपको (अविशेषतः) एक रूपसे ( अद्राक्षम् ) देखा है" (इति) इस प्रकार (प्रत्यभाषत) प्रत्युत्तर दिया ॥ ६ ॥ अतिमात्रं पवित्रोऽयमचित्रीयत तच्छृतेः । अयुक्तं खलु दृट वा श्रुतं वा विस्मयावहम् ॥७॥ ____ अन्वयार्थः-(अयं पवित्रः) पवित्र जीवंधर कुमार (तच्छ्रुतेः) उसकी बात सुननेसे (अतिमात्रं) अत्यन्त ( अचित्रीयत ) आश्चर्य युक्त हुए । अत्र नीतिः (खलु) निश्चयसे (दृष्टं) देखी हुई (वा) अथवा (श्रुतं वा) सुनी हुई (अयुक्त) अनहोनी बात (विस्मयावहम् ) आश्चर्य करनेवाली होती है ॥ ७ ॥ नन्दाख्यः किमिहायात इत्ययं पुनरीहत । .. संसारविषये सद्यः स्वतो हि मनसो गतिः॥८॥ __ अन्वयार्थः- (पुनः) फिर ( अयं ) इन जीवंधर कुमारने " ( किम् ) क्या ( इह ) यहां ( नंदाव्यः ) मेरा छोटा भाई नंदाढ्य ( आयात ) आ गया है " (इति) इस प्रकार (औहत) विचार किया। अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे ( संसारविषये ) संसारके विषयोंमें (मनसो गतिः) मनकी प्रवृत्ति (सद्यः) शीघ्र ही (स्वतः) अपने आप (स्यात् ) हो जाती है ॥ ८ ॥ प्रागेव तन्मनोवृत्तेः प्रययौ तत्र तहपुः। आस्थायां हि विना यत्नमस्ति वाकायचेष्टितम् ॥९॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । .. अन्वयार्थः-(तत्र) उस आयुध शालामें (तद् वपुः) उन जीवंधरस्वामीका शरीर ( तन्मनोवृत्तेः ) उनके मनके व्यापारसे प्राग् एव) पहले ही (प्रययौ) नंदाबके प्रेमके कारण पहुंच गया। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (आस्थायां सत्यां) किसी वस्तुकी आस्था रहने पर (यत्नं बिना) विना यत्नके भी ( वाकायचेष्टितम्) बचन और शरीरकी चेष्टा (अस्ति) हो जाती है ॥ ९ ॥ गत्वा तत्र च नन्दाडयं पश्यन्संमदसादभूत् । भ्रातुर्विलोकनं प्रीत्यै विप्रयुक्तस्य किं पुनः ॥ १०॥ ___अन्वयार्थ:--( तत्र च गत्वा ) और वहां जाकर जीवंधर स्वामी (नंदाढ्यं) नंदाढ्यको ( पश्य ) देख ( संमदसात् अभूत् ) अत्यन्त प्रसन्न हुए। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (भ्रातुः) भाईका (विलोकन) देखना ही (प्रीत्यै) प्रीतिके लिये (भवति) होता है (विप्रयुक्तस्य) विछड़े हुएका तो (किं पुनः वक्तव्यं) फिर कहना ही क्या है । अर्थात् विछड़े हुए भाईका मिलना अत्यन्त हर्षका करनेवाला होता है ॥ १० ॥ अनुजोऽपि तमालोक्य मुमुचे दुःखप्तागरात् । विस्मृतं हि चिरं भुक्तं दुःखं स्यात्सुखलाभतः ॥११॥ अन्वयार्थः- (अनुजः अपि) छोटा भाई भी (तं) उन जीवंधर अपने बड़े भाईको (आलोक्य) देखकर ( दुःखसागरात् ) दुःख रूपी समुद्रसे (मुमुचे ) पार होगया । अब नीतिः । (हि) निश्चयसे ( चिरमुक्तं ) चिरकाल तक भोग किये हुए (दुःख) दुःखका ( सुखलाभतः ) सुख मिलनेके अनंतर (विस्मृतं) विस्मरण (स्यात् ) होजाता है ॥ ११ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अष्टमो लम्बः । कथमाथा इति ज्यायानन्वयुक्त मिथोऽनुजम् । वञ्चनं चावमानं च न हि प्राज्ञैः प्रकाश्यते ॥ १२ ॥ अन्वयार्थः -- ( ज्यायान् ) बड़े भाई जीवंधर कुमारने " (त्वं) तुम यहां (कथं ) ( अनुजम् ) छोटे भाई से (मिथः) एकांत में कैसे ( आयाः) आये" (इति) इस प्रकार (अन्वयुङ्ग) पूछा । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( प्राज्ञैः ) बुद्धिमान पुरुष (वञ्चनं) अपने ठगाये जानेको (च) और ( अवमानं च ) अपने निरादरको (न प्रकाश्यते) प्रकाशित नहीं करते हैं ॥ १२ ॥ सखेदं ध्यातदुःखोऽयमाचख्यौ वृत्तिमात्मनः । ध्यातेsपि हि पुरा दुःखे भृशं दुःखायते जनः ॥ १३॥ अन्वयार्थः—(ध्यातदुःखः) ध्यान किया है पहले दुःखका जिसने ऐसे (अयं ) इस नंदायने (आत्मनः) अपना ( वृत्ति) सारा वृत्तांत (सखेदं ) खेद सहित ( आचख्यौ : ) कह दिया । अत्र नीतिः । (हि) निश्चय से ( पुरा ) पहले ( दुःखे ध्याते अपि) दुःखका ध्यान करने पर भी ( जनः ) मनुष्य (भृशं) अत्यन्त ( दुःखायते) दुःखी होता है ॥ १३ ॥ पूज्यपाद तदास्माकं पापाद्भवति निर्गते । मृतकल्पोऽप्यहं म सर्वथा समकल्पयम् ॥ १४ ॥ अन्वयार्थ : - ( पूज्यपाद ! ) हे पूज्यपाद ! ( तदा) उस समय ( अस्माकं ) हमारे (पापा) पापके उदयसे (भवति) आपके (निर्गते सति) यहां चले आने पर ( मृतकल्पः अपि ) मरे हुएके समान भी (अहं) मैंने (सर्वथा मतुं ) सर्व प्रकार से मरनेके लिये ( समकल्पयत ) संकल्प कर लिया ॥ १४ ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ - क्षत्रचूड़ामणिः । विद्याविदिनहतान्ता काटता प्रजावली । इत्यालोच्च संस्थाने बोधो मे समजायत ॥ १५॥ अन्वयार्थः-(वियविदितवृत्तान्ताः ) फिर विद्याके बलसे सब वृत्तान्तको माननेवाली (प्रजावली) मेरी भावज (भाषकी गन्धदत्ता)का (कलंकृत्ता) क्या समाचार है (इति) इस प्रकार विचार करके (संस्थाने) योग्य समयमें (मे बोधः) मुझे ज्ञान (समजायत) उत्पन्न हो गया ॥ १५॥ . एवं भाविभक्दृष्ठिशंभरत्वादहं पुनः । प्रजावतीगृहं प्राप्य सविषादवास्थिषम् ॥ १६ ॥ अन्वयार्थः -- ( पुनः ) फिर (एवं) इस प्रकार ( भाविभवदृष्टि शंभरत्वात् ) भाविमें आपके दर्शन रूपी सुखकी आशासे ( अहं ) मैं (प्रजावतीगृहं प्राप्य ) मैं गन्धर्बदत्ताके घर जाकर वहां (पविषादम्) खेद करता हुआ (अवास्थिषम्) बैठगया ॥१६॥ स्वामिनि स्वामिहीनानां कुतः स्त्रीणां सुखासिका। इति वक्तुमुपक्रान्ते हृदयज्ञा तु साभ्यधात् ॥ १७ ॥ अन्वयार्थः-(हे स्वामिनि ! ) हे स्वामिनि ! ( स्वामिहीनानां ) अपने स्वामी ( निजपति ) के बिना ( स्त्रीणां ) स्त्रियोंकी (सुखासिका ) सुखपूर्वक स्थिति ( कुतः ) कैसे ( स्यात् ) हो सकती है ( इति ) इस प्रकार ( वक्तुं ) कहनेके लिये ( उपक्रान्ते ) मैं प्रारम्भ करनेवाला ही था ( तु) कि ( हृदयज्ञा ) हृदयकी बात जाननेवाली उस गन्धर्वत्ताने ( अम्यधालू ) कहा ॥ १७॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० अष्टमो लम्बः। अङ्ग किं खिद्यसे ज्यायाननुपद्रव एव ते । वयमेव महापापा मध्येदुःखाब्धि पातिताः ॥१८॥ __अन्वयार्थः- (हे अङ्ग ! ) हे वत्स ! ( त्वं ) तू ( किं ) क्यों ( खिद्यसे ) खेद करता है ( ते ) तेरे ( ज्यायान् ) बड़े भाई जीवंधर स्वामी ( अनुपद्रव एव ) सब प्रकारके कष्टोंसे रहित हैं। ( मध्ये दुःखाब्धिः ) किन्तु दुःखरूपी समुद्रके मध्यमें (पातिताः) पडे हुए ( वयम् ) हम सब ( महापापाः ) महा पापी हैं ॥१८॥ प्रतिदेशं प्रतिग्राम प्रतिगृह्मैव मह्यते। विपच्च संपदे हि स्याद्भाग्यं यदि पचेलिमम् ॥ १९॥ अन्वयार्थ:-उनकी तो ( प्रतिदेशं ) प्रत्येक देशमें और (प्रतिग्राम ) प्रत्येक ग्राममें (प्रतिगृह्य एव ) आदर पूर्वक ग्रहण करके ही ( मह्यते ) पूना होती है । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे ( यदि ) अगर ( भाग्यं ) भाग्य ( पचेलिमम् ) अच्छा है तो ( विपञ्च ) विपत्ति भी ( संपदे ) संपत्तिके लिये (स्यात् ) हो जाती है ॥ १९ ॥ द्रष्टुमिच्छसि चेद्वत्स तं जनं तव पूर्वजम् । किं नु ताम्यसि गम्येत कनु पापा हि भामिनी ॥२०॥ ___अन्वयार्थः-(हे वत्स ! ) हे वत्स ! ( चेत् ) यदि (त्वं) तुम (तव) अपने (तं पूर्वजम् ननम् ) अपने बड़े भाई उन जीवंधर स्वामीको ( दृष्टुं ) देखनेके लिए ( इच्छसि ) इच्छा करते हो तो ( किं नु ) क्यों ( ताम्यसि ) दुःखी होते हो (गम्येत) जाओ ! अर्थात् मैं तुम्हें विद्याके प्रभावसे उनके समीप पहुंचा देती हूं Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (पापा भामिनी ) मैं पापिनी स्त्री (कनुगभ्येत ) विना पतिकी आज्ञाके कहां जा सकती हूं ॥ २० ॥ इत्युक्त्वा शाययित्वा च शय्यायां साभिमन्वितम्। मामत्रभवती चात्र सपत्रं प्राहिणोदिति ॥ २१ ।। __ अन्वयार्थः -( इति ) इस प्रकार ( उत्तवा ) कहकर (अत्र भवती ) पूज्य भावजने ( आपकी स्त्रीने ) ( मां) मुझको (शय्यायां) सेज पर ( साभिमन्त्रितम् ) मन्त्रपूर्वक (शाययित्वा) सुलाकर (च) और ( सपत्रं ) पत्रसहित (अत्र) यहां (प्राहिणोत्) भेज दिया । ( इति ) ऐसा नंदाढ्यने जीवंधर स्वामी अपने बड़े भाईसे कहा ॥ ११ ॥ अखिद्यत ततः स्वामी सदयैरनुजोदितः । स्नेहपाशो हि जीवानामासंसारं न मुञ्चति ॥ २२ ॥ __अन्वयार्थः- ( सतः ) इसलिये ( स्वामी) जीवंधर स्वामी ( सदयैः ) दयाजनक ( अनुमोदितैः ) छोटे भाई नंदाढ्यके कहे हुए बचनोंसे (अखिद्यत ) अत्यंत दुखी हुए। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( आसंसारं ) जब तक संसार है तब तक ( जीवानां ) प्राणियोंका ( स्नेहपाशः) स्नेहरूपी बन्धन (न) नहीं ( मुञ्चति ) नहीं छूटता है ॥ २२ ॥ गुणमालाव्यथाशंसि पत्रं चायमवाचयत् । चतुराणां स्वकार्योक्तिः स्वमुखान्न हि वर्तते ॥२३॥ _अन्वयार्थः- ( अयं ) फिर जीवंधर स्वामीने (गुणमाला व्यथाशंसि ) गुणमालाकी विरह पीडाका सूचक (पत्रं च) गन्धर्वदत्ताका भेजा हुआ पत्र ( अवाचयत् ) पढा। अत्र नीतिः Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ अष्टमो लम्बः । (हि ) निश्चयसे ( चतुराणां ) चतुर पुरुषोंका ( स्वमुखात् ) निन मुखसे (स्वकार्योक्तिः) अपने कार्यके लिये कहना (न वर्तते) नहीं होता है ॥ २३ ॥ अन्यापदेशसंदेशाखेचर्या खेदवामभूत् । विद्वेषः पक्षपानश्च प्रतिपात्रं च भिद्यते ॥ २४ ॥ अन्वयार्थः--(नीवंधरः) जीवंधर कुमार ( अन्यापदेशसंदेशात् ) गुणमालाके व्याजसे पत्रमें लिखित संदेशसे (खेचर्या) विद्याधरी गन्धर्वदत्ताके लिये ही (खेदवान् ) खेदित (अभूत् ) हुए । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (विद्वेषः) द्वेषभाव (च) और (पक्षपातः) पक्षपात अर्थात् प्रेमविशेष (प्रतिपात्रं) प्रत्येक वस्तुकी अपेक्षासे (भिद्यते) भेद रूप हुआ करता है ॥ २४ ॥ प्रियाशोकश्रुतेर्जातः शोकोऽप्येतस्य नास्फुरत् । न हि प्रसादखेदाभ्यां विक्रियन्ते विवेकिनः ॥२५॥ - अन्वयार्थः----(प्रियाशोकश्रुतेः) अपनी प्रिया गन्धर्वदत्ताके शोक सुननेसे एतस्य) इस कुमारके (नातः) उत्पन्न (शोकः अपि) शोक भी (न अस्फुरत् ) बाहर प्रगट नहीं हुआ । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (विवेकिनः) विवेकी पुरुष (प्रसादखेदाभ्यां) खुशीसे और दुखसे ( न विक्रियन्ते ) विकार भावको प्राप्त नहीं होते हैं ॥ २५ ॥ वैवाहिकगृहस्थाश्च ह्यातस्थुरनुजं भृशम् । बन्धोर्बन्धौ च बन्धो हि बन्धुता चेदवञ्चिता ॥२६॥ ___ अन्वयार्थः--(च) फिर (वैवाहिकगृहस्थाः ) राना दृढ़मित्र अपने (जीवंधरके) श्वसुरके घरमें रहनेवाले पुरुषोंने ( अनुजम् ) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १७३ कुमारके छोटे भाई नंदाढ्यको (भृशम् आसस्युः) आकर चारों तरफसे घेर लिया । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्रयसे ( चेत् ) यदि (अवचिता) अकृत्रिम निष्कपट (बन्धुता स्यात ) सची बंधुता होवे तो (बन्धोः) बंधुके भी (बंधौ) बंधुमें (बंध: स्यात् ) प्रेम हो जाता है ।। २६ ।। अवस्कन्दाङ्गवां गोपा अथाक्रोशन्नृपाङ्गणे । पीडायां तु भृशं जीवा अपेक्षन्ते हि रक्षकान् ॥६७॥ अन्वयार्थः -- (अ) इसके अनंतर (गोपाः) बहुतसे ग्वालिये ( गवां अवस्कंदात् ) गौओंके पकड़े जानेसे (नृपाङ्गणे) राजाके अङ्गमें (आगत्य ) आकर (अक्रोशन् ) रोने चिल्लाने लगे । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चय से ( भृशम् ) अत्यन्त ( पीड़ायां ) पीड़ा होने पर ( जीवाः ) प्राणी ( रक्षकान् ) अपनी रक्षा करनेवालोंकी (अपेक्षते ) अपेक्षा आशा किया करते हैं ॥ २७ ॥ सानुक्रोशं तदाक्रोशं क्षमाधीशो न चक्षमे । पातापायान्न चेत्पायात्कुतो लोकव्यवस्थितिः ॥ २८ ॥ अन्वयार्थः-~~~( क्षमाधीशः ) राजा ( सानुक्रोश ) करुणाको पैदा करनेवाला ( तदाक्रोश ) उनका रोना ( न चक्षमे ) सहन नहीं कर सका ( चेत् ) यदि ( पातापायात् ) पतन रूपी विनाशसे ( न पायात् ) प्रजाकी रक्षा न की जाय तो ( लोकव्यवस्थिति: कुतः स्यात् ) फिर संसार में राज्य और प्रजा की व्यवस्था कैसे रह सकती है ॥ २८ ॥ स्वामी श्वशुररुडोऽपि गोमोचनकृते ययौ । पराभवो न सोढव्योऽशक्तैः शक्तैस्तु किं पुनः ॥ २९ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अष्टमो लम्बः। अन्वयार्थः- ( श्वशुर रूद्धः अपि ) सुसुरके रोकने पर भी (स्वामी ) जीवंधर स्वामी ( गोमोचनकृते ) गौओंके छुड़ाने के लिये ( ययौ ) चले गये । अत्र नीतिः । ( हि ) निश्चयसे जब ( अशक्तैः ) असमर्थ पुरुषोंसे भी ( पराभवः ) तिरस्कार ( नसोढव्यः ) सहन नहीं होता है । ( शक्तैः ) समर्थ पुरुषोंका तो ( किं पुनः वक्तव्यं ) फिर वहना ही क्या है अर्थात् वह तिरस्कार कैसे सहन कर सकते हैं कभी भी नहीं ॥ २९ ॥ दस्यवोऽपि गवां तत्र मित्राण्येवाभवन्विभोः । एधोगवेषिभिर्भाग्ये रत्नं चापि हि लभ्यते ॥ ३० ॥ ___अन्वयार्थः- ( तत्र ) वहां ( गवां दस्यवः अपि ) गौओंके पकड़नेवाले भी ( विभोः ) जीवंधर स्वामीके ( मित्राणि एव ) मित्र ही (अभवम् ) बन गये । अत्रनीतिः । ( हि ) निश्चयसे ( भाग्ये सति ) भाग्यके उदय होने पर ( एधोगवेषिभिः अपि ) लकड़ी ढूंढ़नेवालोंको भी (रत्नं च ) रत्न ( लभ्यते ) मिल जाता है ॥ ३० ॥ समोऽभूत्स्वामिमित्रेषु स्नेहश्चान्योन्यवीक्षणात् । एककोटिगतस्नेहो जडानां खलु चेष्टितम् ॥ ३१॥ ___अन्वयार्थ:--( अन्योन्यवीक्षणातू ) परस्पर एक दूसरेको देखनेसे ( स्वामिमित्रेषु ) जीवंधर स्वामी और स्वामीके इन मित्रोमें ( समः ) एक सरीखा ( स्नेहः ) प्रेम ( अभूत् ) उत्पन्न हो गया । अत्र नीतिः । (खलु) निश्चयसे ( एककोटिगतस्नेहः) एक कोटिको प्राप्त स्नेह अर्थात् एकङ्गी प्रीति (जड़ानां ) मूर्योकी Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (चेष्टितम् ) चेष्टा है । बुद्धिमानोंकी प्रीति इप्त प्रकार नहीं होती है ॥ ३१ ॥ जामातरि चमत्कारो राज्ञोऽभून्मित्रवीक्षणात् । कृतिनोऽपि न गण्या हि वीतस्फीतपरिच्छदाः ॥३२॥ अन्वयार्थः--( मित्रवीक्षणात् ) स्वामीके मित्रोंको देखनेसे ( अज्ञः ) राजा दृढ़ मित्रको ( जामातरि.) अपने दामाद जीवंधर स्वामीके विषयमें ( चमत्कारः अभूत् ) अत्यन्त आश्चर्य हुआ। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (बीतस्फीलपरिच्छिदाः अपि) विना समृद्धसेनादिक सामग्रीके भी ( कतिनः ) पुण्यात्मा पुरुष (न गण्या) नहीं समझने चाहिये ॥ ३२ ॥ अर्थात् उनको बहुत सामग्री युक्त समझना चाहिये । समित्रावर जोऽहृष्यदतिमात्रमसौ कृती। एकेच्छानामतुच्छानां न ह्यन्यत्संगमात्सुखम् ॥३३॥ __ अन्वयार्थः--(समित्रावरजः) छोटे भाई और मित्रों सहित ( असौ कृति ) विद्वान् नीवंधर कुमार ( अतिमात्रं ) अत्यंत (अहृष्यत्) हर्षित हुए । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (अतुच्छानां) श्रेष्ट पुरुषोंके (एकेच्छानां) एकसी इच्छा रखनेवालोंके (संगमात्) समागमसे ( अन्यत्सुखं ) और कोई दूसरा सुख ( न भवति ) नहीं है ॥ ३३ ॥ अयथापुरसंमानात्समशेत सखीनसौ। विशेते हि विशेषज्ञो विशेषाकारवीक्षणात् ॥३४॥ ____ अन्वयार्थः-( असौ ) इन जीवंधर कुमारने ( अयथापुरसंमानात ) पूर्वमें कभी नहीं किये हुए मित्रोंके द्वारा अपना Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमो लम्बः । विलक्षण सन्मान होते देखनेसे ( सखीन् ) मित्रों पर अत्यन्त (समशेत ) संदेह किया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (विशेषज्ञः) विशेषताका पहचाननेवाला बुद्धिमान् (विशेषाकारवीक्षण त् ) विशेष आकृतियोंके देखनेसे (विशेते) संदेह करने लगता है ॥३४॥ रहस्येव वयस्येषु तन्निदानमचोदयत् । एककण्ठेषु जाता हि बन्धुता ह्यवतिष्ठते ॥ ३५॥ ___अन्वयार्थ:--(रहसि) एकान्तमें जीवंधर स्वामीने (वयस्येषु) मित्रोंसे ( तन्निदानं ) इसका कारण ( अचोदयत् ) पूछा । अत्र नीतिः । ( हि ) निश्चयसे ( एककण्ठेषु ) एकसे अभिप्राय वाले बन्धुओंमें (जाता) उत्पन्न हुई (बन्धुता) मित्रता ही (अवतिष्ठते) स्थिर रहती है ॥ ३५ ॥ मुख्यं सख्यं गतस्तेषामाचख्यौ पङ्कजाननः । सजनानां हि शैलीयं सक्रमारम्भशालिता ॥ ३६॥ ____ अन्वयार्थः---(तेषां) उनमें से (मुख्यं सख्य) प्रधान मित्रताको (गतः) प्राप्त (पङ्कनाननः) पद्मास्य नामका मित्र ( आचख्यौः ) बोला । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे ( सक्रमारम्भशालिता ) क्रम पूर्वक किसी कार्यका आरंभ करना (इयं) यह (सज्जनानां शैली) सजन पुरुषोंकी पद्धति है ॥ ३६ ॥ स्वामिन्स्वामिवियोगेऽपि युक्ता दग्धासुभिर्वयम् । अस्तोकभाविभाग्येन हस्तग्राहं ग्रहादिव ॥ ३७॥ __अन्वयार्थः-(हे स्वामिन् ! ) हे स्वामी ! ( स्वामिवियोगे) आपके वियोग होने पर (दग्धासुभिः वयम् ) जले हुए प्राणोंसे युक्त भी हम लोग ( अस्तोकमावि भाग्येन ) भाविमें उदय होने Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १७७ बाले महान भाग्यके उदयसे ( हस्तग्राहं गृहात् इव) हस्तावलम्बन देकर गृहण किये हुएके सदृश (अजीवन् ) जीवित रहे ॥ ३७ ॥ साश्वासाश्च ततो देव्या दत्तहस्तावलम्बनाः । प्रास्थिष्महि धुरं प्राप्ता वयमश्वीयपाणिनाम् ||३८|| अन्वयार्थः - (ततः) फिर (देव्या) देवी गन्धर्वदत्ताने (दत्तहस्तावलम्बना: ) अपने हाथोंका सहारा देकर (साश्वासाश्च) आश्वासन दिया । तब ( वयं ) हम लोग ( अश्वीयपाणिनाम् ) घोड़ों के बेचनेवालोंके (धुरं प्राप्ता) मुखिया होकर ( प्रास्थिष्महि) वहांसे चल दिये ॥ ३८ ॥ अतिलक्ष्य ततोऽध्वानमध्वश्रमविहानये । दण्डकारण्यविख्यातं तापसः श्रममाश्रिताः ॥ ३९ ॥ अन्वयार्थ : - ( ततः ) इसके अनंतर (अध्वानं अतिलध्य ) बहुतसा मर्ग तै करके ( अध्वश्रमविहानये) मार्गकी थकावट दूर करने के लिये ( दण्डकारण्यविख्यातं ) दण्डकारण्य में प्रसिद्ध (तापसाश्रमम् ) तपस्वियों के आश्रम में (आश्रिताः ) पहुंचे ॥ ३९ ॥ ददर्श ततो दृश्यं विहरन्तोऽत्र विश्वतः । अपश्याम कचित्कांचित्पुण्यतः पुण्यमातरम् ॥४०॥ अन्वयार्थः - ( अत्र ) यहां (विश्वतः ) चारों ओर ( दृश्यं) मनोहर वस्तुओंको (दर्श दर्श) देख देख कर ( विहरन्तः ) विहार करते हुए (वयं) हम लोगोंने ( क्वचित् ) किसी स्थान में (पुण्यतः ) पुण्योदय से (कांचित ) किसी (पुण्यमातरम् ) पवित्र माताको अर्थात् आपकी माताको (अपश्याम) देखा ॥ ४० ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ अष्टमो लम्बः । तन्मात्रा दृष्टमात्रेण कुत्रत्या इति चोदिताः । वयमप्युत्तरं वक्तुमुपक्रम्य यथाक्रमम् ॥ ४१ ॥ अन्वयार्थ : - ( तन्मात्रा) उस माताने ( दृष्टमात्रेण ) हम लोगोंको देखते ही (कुत्या) तुम कहांके रहनेवाले हो (इति) इस प्रकार (चोदिताः) पूछा तब (वयं अपि ) हम लोगों ने भी ( यथाक्रमम् ) यथा क्रमसे (उत्तरं वक्तुं ) माताके प्रश्नका उत्तर देनेके लिये (उपक्रम्य) प्रारम्भ करके ( इति अवोचाम ) ऐसा कह | | क्या ? ॥ ४९ ॥ अस्ति राजपुरे कश्चिद्विबुवानामपश्चिमः । विशां च जीवकारूपोऽयमेतं जीवातुका वयम् ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थ : - (राजपुरे) राजपुर नगर में (विबुधानां ) पण्डितों का (च) और (विशां ) वैश्यों का ( अपश्चिमः ) शिरोभूषण ( कश्चित् ) कोई (अयं ) यह ( जीवाख्यः) जीवक ( जीवंधर नामका ) पुरुष है और (वयं) हम लोग (एतं जीवातुका) उनके अनुजीवी (नौकर चाकर) हैं ॥ ४२ ॥ काष्टाङ्गाराह्वयः कोऽपि कोपादेनमनेनसम् । इन्तुं किलेत्यवोचाम मूच्छिता सा च पेतुषी ॥ ४३ ॥ अन्वयार्थ : - ( तत्र ) उस नगर में (कोऽपि ) कोई (काष्टाङ्गारायः) काष्टाङ्गार नामका राजा (कोपात्) क्रोध से (अनेनसम् ) निर्दोष ( एनं ) इन जीवंधरको ( हन्तुं ) मारनेके लिये ” (किल) बस ( इति अवोचाम ) इतना कहा ही था कि (सा) वह माता ( मूच्छिता) मूर्छित होकर (पेतुषी) गिर पड़ी ॥ ४३ ॥ हन्त हन्त हतो नायमस्त्रेत्यभिहिता मया । पिहिनासुप्रयाणा सा प्रालपल्लब्धचेतना ॥ ४४ ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.त्रचूड़ामणिः । - अन्वयार्थः- "( हन्त ! हन्त ! ) हाय ! हाय ! (हे अम्ब!) हे माता ! (अयं) यह जीवंधर (न हतः) मारे नहीं गये” जब (मया) मैंने (इति) इस प्रकार (अभिहिता) कहा तब (पिहिता सु. प्रयाणा) रुक गया है प्राणोंका निकलना निसका ऐसी (लब्ध. चेतना) सचेत होकर (सा) वह माता ( प्रालपत् ) प्रलाप करने लगी ॥ ४४ ॥ अम्भोदालीव दम्भोलीममृतं च मुमोच सा। देवी समं प्रलापेन देवोदन्तमिदन्तया ॥ ४५ ॥ अन्वयार्थः-(अम्भोदाली) मेघोंकी पति (इव) जिस प्रकार (दम्भोली) वज्रपात (च) और (अमृ) जलको (मुमोच) वर्षाती है उसी प्रकार (सा देवी) उस माताने (प्रलापेन समम्) प्रलापके साथ (देवोदन्तं) आपके वृत्तान्तको (इदंतया) इस रीतिसे (अकथयत्) कहा । अर्थात-आपकी उत्पत्ति आदिककी वीती हुई सब कथा उसने खेदके साथ हम लोगोंको सुनाई ॥ ४५ ॥ तन्मुखात्खादिवोत्पन्नां रत्नवृष्टिं तवोन्नतिम् । उपलभ्य वयं लब्धाममन्यामहि तन्महीम् ॥ ४६॥ ___ अन्वयार्थः-( तन्मुखात् ) उसके मुखसे (तव उन्नतिम् ) आपकी उन्नतिको (खात् ) आकाशसे ( उत्पन्नां ) बरसती हुई (रत्नवृष्टिं) रत्नोंकी वर्षाके (इव) समान (उपलभ्य) सुनकर (वयं) हमलोग (तन्महीं) उप्त पृथ्वीको (लब्धां) हाथमें आई हुई (अमन्यामहि) मानते भये ॥ ४६॥ देववैभवसंकी| ततो देवीं पुनः पुनः। आश्वास्यापृच्छय तद्देशादिमं देशं गता इति ॥४७॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० अष्टमो लम्बः । अन्वयार्थः-(ततः) तदनंतर ( देववैभवसंकीर्त्या ) आपके वैभवकी महिमाके वर्णनसे (देवी) माताको (पुनः पुनः) बार बार ( आश्वास्थ ) धीरज बंधा कर (च) और ( आप्टच्छय ) पूछकर ( तद्देशात् ) उस स्थानसे (इमं देशं) इस देशको (गताः) आये हैं (इति) ऐसा पद्मास्यने कहा ॥ ४७ ॥ मातुर्जीवन्तृतिज्ञानात्तत्त्वज्ञः सोऽप्यखिद्यत । जीवानां जननीस्नेहो न ह्यन्यैः प्रतिहन्यते ॥ ४८ ॥ ____ अन्वयार्थ:-(सतत्वज्ञः) तत्वोंका स्वरूप जाननेवाले उन जीवंधरने (मातुः) माताको ( जीवन् ) जीती हुईको भी (मृतिज्ञानात् ) मरी हुई जाननेसे ( अखिद्यत ) अत्यन्त खेद किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (जीवानां). प्राणियोंका (जननी स्नेहः) मातृप्रेम (अन्यैः) दूसरे कारणोंसे ( न प्रतिहन्यते ) नष्ट नहीं होता है ॥ १८ ॥ अत्वरिष्ट च तां द्रष्टुं कौरवो गुरुगौरवः। अम्बामदृष्टपूर्वी च द्रष्टुं को नाम नेच्छति ॥ ४९॥ अन्वयार्थः- (गुरुगौरवः) माता और पितामें है पूज्य बुद्धि जिनकी से ( कौरवः ) कुरुवंशी जीवंधर कुमारने (तां द्रष्टुं ) अपनी प माताको देखने के लिये (अत्वरिष्ट) शीघ्रता की । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (को नाम) कौनु पुरुष ( अदृष्टपूर्वी) नहीं देखा है पूर्वमें जिसको ऐसी (अम्बां) माताको (द्रष्टुं) देखनेके लिये (न इच्छनि) इच्छा नहीं करता है ? करता ही है ॥४९॥ व्यसा मातरि महान्मान्येनान्यदशेषतः। रागद्वेषादि तेनैव बलिष्ठन हि बाध्यते ॥५०॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः ।. १८१ अन्वयार्थः-(मान्येन) माननीय जीवंधर कुमार (मातरिस्नेहात) अपनी माताके स्नेहसे ( अन्यत्) अन्य सबको (अशेषतः) सर्वथा (व्यस्मारि) भूल गये । अत्र नीतिः । (हि। निश्चयसे (तेननैव बलिष्टन) उस बलवान स्नेहके द्वारा ही ( रागद्वेषादि) रागद्वेष आदि विकार भाव (बाध्यते) नष्ट कर दिये जाते हैं ॥ १० ॥ अन्बजिज्ञपदात्मीयां गति भार्या परानपि । आवश्यकेऽपि बन्धूनां प्रातिकूल्यं हि शल्यकृत् ।।५१॥ ___अन्वयार्थः-उन जीवंधर कुमारने ( भार्या ) अपनी स्त्री और (परानपि) अन्य पुरुषोंसे भी (आत्मीयां गतिं) अपने जानेकी बात (अन्वनिज्ञपत्) प्रा.ट कर दी। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (आवश्यके अपि) आवश्यक कार्य में भी (बन्धूनां) बन्धुओंकी (पातिकूल्प) प्रतिकूलता (शल्यकृत् ) दुख देनेवाली होती हैं ॥११॥ अनुनीयानुगान्वन्धून्प्रसभं प्रययौ ततः। अनुनयो हि माहात्म्यं महतामुपबृंहयेत् ॥५२॥ अन्वयार्थः-(सः जीवंधरः) वे जीवंधर कुमार (अनुगान्) साथ चलनेवाले (बन्धून्) अपने सालोंको (अनुनीय) समझा बुझा करके (ततः) वहांसे (प्रसभं) शीघ्र ( प्रययौ ) चल. दिये। अत्रनीतिः । (हि) निश्चयसे (अनुनयः) दूसरोंको समझाने बुझाने ही से (महतां) बड़े पुरुषोंका (माहात्म्यं) बड़प्पन (उपवृंहयेत् ) बढ़ता है ॥ १२ ॥ प्रसवित्री ततः प्रेक्ष्य प्रेमान्धोऽभूदवन्ध्यधीः । तत्त्वज्ञानतिरोभावे रागादि हि निरङ्कशम् ।। ५३ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमो लम्बः । अन्वयार्थः - ( ततः ) इसके अनंतर ( तत्र ) उस दण्डक अरण्यमें (अवन्ध्यधीः) निष्फल नहीं है किसी कार्य में बुद्धि जिनकी ऐसे जीवंधर कुमार ( प्रसवित्रीं ) अपनी माताको (वीक्ष्य) देख कर ( प्रेमान्धः अभूत् ) मातृप्रेमसे अन्धे हो गये । अत्र नीति: । (हि) निश्चय से (तत्वज्ञान तिरोभावे ) तत्वज्ञान रूपी विचारके छिप जाने पर ( रागादि) रागादिक भाव (निरंकुशम् ) बिना रुकावटके प्रबलतासे (प्रवर्तते ) ही प्रवर्तित हो जाते हैं ॥ १३ ॥ जातजातक्षणत्यागाज्जातं दुर्जातमक्षिणोत् । सुतवीक्षणतो माता सुतप्राणा हि मातरः ॥ ५४ ॥ अन्वयार्थ - (माता) जीवंधर स्वामीकी माताने (जातजातक्षणत्यागात) पुत्र को जन्म समय में ही त्याग देनेसे ( जातं) उत्पन्न (दुर्जातं ) दुःखको (सुतवीक्षणतः) पुत्रके देखनेसे ही (अक्षिणोत ) नष्ट कर दिया अर्थात् भूल गई । अत्र नीति: । (हि) निश्वयसे ( सुतप्राणामातरः सन्ति) पुत्र ही हैं प्राण जिनके ऐसी माताएं होती हैं ॥ १४ ॥ १८२ . सुनोर्वीक्षणतस्तता क्षोणीशं तमियेष सा । लाभं लाभमभीच्छा स्यान्न हि तृप्तिः कदाचन ॥ ५५ ॥ अन्वयार्थः -- ( सूनोः) पुत्रके ( वीक्षणतः ) देख लेनेसे (तप्ता ) तप्तायमान (सा) वह माता (तं) पुत्रको ( क्षोणीशं) राजा होनेकी ( इयेष ) इच्छा करती भई । अर्थात् - यह कब राजा होगा ऐसी उनकी माताने इच्छा की । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (लाभ लाभ अभि) एक वस्तुकी प्राप्ति हो जानेपर मनुष्यकी दूसरी वस्तुकी Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १८३ प्राप्तिके लिये ( इच्छा स्यात् ) इच्छा हुआ करती है परन्तु (तृप्तिः) इच्छा की पूर्ति अर्थात् संतोष ( कदाचन न ) कभी भी नहीं (भवति) होता है ॥ ५५ ॥ (6 कच्चित्पितुः पदं ते स्यादङ्ग पुत्रेत्यचोदयत् । सामग्री विकलं कार्य न हि लोके विलोकितम् ॥५६॥ अन्वयार्थः — “ (अङ्गपुत्र) हे पुत्र ! ( कच्चित् ) कोई (ते) तुम्हारे ( पितुः) पिताका ( पदं स्यात् ) स्थान है " ( इति ) इस प्रकार जीवंधर स्वामीसे उनकी माताने ( अचोदयत् ) कहा 1 अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से (लोके) संसार में ( सामग्री विकलं ) उत्पादक सामग्री के बिना ( कार्य ) कार्य ( नविलोकितम् ) नहीं देखा गया है ॥ ५६ ॥ अम्ब किं बत खेदेन बांढं स्यादिति सोऽभ्यधात् । मुग्धेष्वतिविदग्धानां युक्तं हि बलकीर्तनम् ॥ ५७ ॥ अन्वयार्थः—पुत्रने कहा (बाढं स्यात्) हां है ( है अम्ब ! ) हे माता ! (बत खेदेन किं ) व्यर्थ खेदसे क्या लाभ (इति) इस प्रकार ( सः अभ्यधात् ) उसने कहा । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( अतिविदग्धानां ) चतुर पुरुषोंका ( मुग्धेषु) मूढ जनों में ( बलकीर्तनम् ) अपने बलका कथन करना ( युक्तं स्यात् ) युक्त ही होता है ॥ १७ ॥ पुत्रवाक्येन हस्तस्थां मेने माता च मेदिनीम् । मुग्धाः श्रुतविनिश्श्रेया न हि युक्तिवितर्किणः ॥५८॥ अन्वयार्थ : - ( माता ) माताने ( पुत्रवाक्येन ) पुत्रके इस Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टमो लम्बः । प्रकार वचन सुनकर ( मेदिनीम् ) पृथ्वीको (हस्तस्थां) हाथमें आई हुई (मेने) समझी । अत्र नीतिः ! (हि. निश्चयसे (मुग्धाः) मूह पुरुष (श्रुतविनिश्चेया) किसीकी बात सुनने हीसे निश्चय कर लिया करते हैं किंतु (युक्तवितर्किणः ) युक्ति द्वारा किसी कार्यको विचार करने में तत्पर (न भवंति) नहीं होते हैं ॥ ५८ ॥ अपायस्थानमस्तोकं दूरक्षं व्याहरद्विभोः । अमित्रो हि कलत्रं च क्षत्रियाणां किमन्यतः ॥१९॥ ____ अन्वयार्थः-(माता) माताने (विभोः) जीवंधर स्वामीको (दूरक्षं) कष्टसे रक्षा होनेके योग्य (अस्तोकं) एक बड़े भारी (अपायस्थान) नाशके स्थानको (व्याहरत) कहा अर्थात्-राज्यकी बात कह कर जीवंधर स्वामीको युद्ध के लिये तैयार कर दिया । अत्रनीतिः (हि) निश्चयसे (क्षत्रियाणां) क्षत्रियों की (कलत्रं) स्त्रियां भी (अमित्रः) शत्रु (भवति) हो जाती हैं (अन्यतः किं औरका तो फिर कहना ही क्या है ॥ ५९ ॥ कर्तव्यं च ततो मात्रा मन्त्रितं तेन मन्त्रिणा । विचार्यवेतरैः कार्य कार्य स्यात्कार्यवेदिभिः ॥६०॥ ___अन्वयार्थ:-(ततः) इसके अनंतर (तेन मन्त्रिणा) विचार करनेवाले उन जीवंधर स्वामीने (मात्रा) माताके साथ (कर्तव्यं) करने योग्य कार्यका (मन्त्रित विचार किया । अत्र नीतिः ! निश्चयसे (कार्यवेदिभिः) कार्य करनेमें चतुर पुरुष (इतरैः सह) दूसरोंके साथ (कार्य) कार्यको (विचार्य एव) विचार करके ही (कार्यं स्यात्) कार्य किया करते हैं ॥ ६ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । प्राहिणोत्प्रसवित्री तां मातुलोपांतिके कृती। न हि मातुः सजीवेन सोढव्या स्यादुरासिका ॥६॥ अन्वयार्थः-फिर (कृती) विद्वान् जीवंधरने (तां प्रसवित्री) अपनी उस माताको (मातुलोपान्तिके) अपने मामाके समीप (प्राहिणे त्) भेनदिया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (मातुः दुरासिका) अपनी माताकी दुःख अवस्था (सजीवेन) किसी भी जीवधारी पुरुषसे (न सोढव्या) सहन नहीं की जासकती है ॥६१॥ ततः सपरितोषोऽयं परिव्राजकपार्श्वतः। निकषा स्वपुरं प्राप्य तदारामे निषण्णवान् ।। ६२॥ अन्वयार्थः- ततः) तदनन्तर (सपरितोषः अयं) संतुष्ट यह जीवंधर कुमार (परिव्राजकपार्श्वतः) दण्डक बनके त पस्वियोंके पाससे (स्वपुरं) अपने नगरके (निकषा) समीप (प्राप्य) पहुंच कर (तदारामे) वहांके बगीचे में ( निषण्णवान् ) ठहर गये ॥६॥ तत्र मित्राण्यवस्थाप्य व्यहरत्परितः पुरीम् । विशृङ्खला न हि कापि तिष्ठन्तीन्द्रियदन्तिनः ॥३३॥ अन्वयार्थः- तत्र) वहां पर जीवंधर स्वामीने ( मित्राणि ) मित्रोंको ( अवस्थाप्य ) बिठला कर ( पुरीं परितः ) नगरीके चारों ओर ( व्यहरत ) विहार किया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( विशृङ्खला ) बन्धन रहित ( इन्द्रिय दन्तिनः ) इन्द्रिय रूपी हाथी ( क्वापि ) कहीं एक जगह पर ( न तिष्ठन्ति ) स्थिर नहीं रहते हैं ॥ ६३ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १८६ अष्टमो लम्बः । ततो राजपुरी वीक्ष्य सुतरामतृपत्राधीः। ममत्वधीः कृतो मोहः सविशेषो हि देहिनाम् ॥६॥ अन्वयार्थः- ( ततः ) फिर ( सुधीः ) बुद्धिमान जीवंधर कुमार ( रानपुरी ) राजपुरी नगरीको ( वीक्ष्य ) देखकर (सुतरां) स्वयमेव ( अतृपत् ) अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे ( देहिनाम् ) प्राणधारियोंके ( ममत्वधीः कृतः ) ममत्व बुद्धिसे किया हुआ ( मोहः ) मोह ( स विशेषो भवति ) बहुत अधिक होता है। ___अर्थात् – जहां पर " यह मेरी वस्तु है , वहां पर प्रेम विशेष रीतिसे हुआ करता है ॥ ६४ ॥ क्रीडन्ती कापि हाग्रात्पातयामास कन्दुकम् । संपदामापदां चाप्तिाजेनैव हि केनचित् ॥ ६५ ॥ ... अन्वयार्थः-(तत्र) उस नगरीमें (क्रीडन्ती) क्रीड़ा करती हुई ( कापि ) किसी जवान कन्याने (हाग्रात् ) अपने महलके ऊपरसे ( कन्दुकम् ) गेंद ( पातयामास ) फेंकी। अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे ( संपदां ) सम्पत्ति (च) और (आपदां) आपत्तिकी (आप्तिः) प्राप्ति ( केनचित् ) किसी (व्याजेन एव भवति) वहा. नेसे ही होती है ।। ६५ ।। उबक्रस्तद्वतीं मृत्यां दृष्ट्वामुह्यदबाह्यधीः । वशिनां हि मनोवृत्तिः स्थान एव हि जायते ॥६६॥ ___अन्वयार्थः ---( अबाह्यधीः ) बाह्य पदार्थों में नहीं हैं बुद्धि मिनकी ऐसे जीवंधर स्वामी ( उहकः ) ऊपरको मुख किये हुए Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । हो ( तद्वती) गेंदसे खेलती हुई ( सूत्यां) उस जवान कन्याको ( वीक्ष्य ) देखकर ( अमुह्यत ) उस पर मोहित हो गये । अत्र नीतिः ( हि ) निश्चयसे (वशिनां) जितेन्द्रिय पुरुषोंके (मनोवृत्तिः) मनके भाव ( स्थाने एव ) युक्त स्थानमें ही ( जायते) प्रवृत्त होते हैं । ६६ ॥ तन्मोहादयमध्यास्त तत्सौधाग्रवितर्दिकाम् । अञ्जसा कृतपुण्यानां न हि वाञ्छापि वञ्चिता ॥६॥ __ अन्वयार्थः-(अयं) यह जीवंधर कुमार ( तन्मोहात् ) उस कन्याके प्रेमसे (तत्सौधाग्रवितर्दिकाम् ) उसके मकानके अगाड़ीकी चौकी पर ( अध्यास्त ) बैठ गये । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे ( अञ्जसा कृत पुण्यानां ) किया है अच्छी तरहसे पुण्य जिन्होंने ऐसे पुरुषोंकी (व ञ्छा अपि) इच्छा भी (वञ्चिता न भवति) निष्फल नहीं होती है ॥ ६७ ॥ वैश्येशः कोऽपि तं पश्यन्व्याजहे विकसन्मुखः । चिरकाङ्कितसंप्राप्त्या प्रसीदन्ति हि देहिनः ॥६८॥ अन्वयार्थः- इसके अनन्तर (विकसन् मुखः) प्रसन्न है मुख जिसका ऐसा (कः अपि) कोई (वैश्येशः) सेठ (तं) उसको (पश्यन् ) देख कर (व्यानहे) बोला । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (देहिनः) प्राणी (चिरकाक्षितसंप्राप्त्या) बहुत कालसे चाही हुई वस्तुके मिल जाने पर (पसीदन्ति) प्रसन्न होते हैं ॥ ६८ ॥ भद्र सागरदत्तोऽहं भवत्येष ममालयः। विमला कमलोद्भूता सुता सूत्या च साभवत् ॥६९॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अष्टमो लम्बः । ____ अन्वयार्थः-(हे भद्र !) हे भद्र ! (अहं) मैं (सागरदत्तः) सागरदत्त नामका वैश्य हूं और (एषः) यह (ममालयः) मेरा घर (भवति) है और (कमलोद्भूता) कमला नामकी मेरी स्त्रीसे उत्पन्न (विमला) विमला नामकी मेरी (सुता) पुत्री है (साच) और वह पुत्री भी (सूत्या अभवत्) जवान हो गई है ॥ ६९ ॥ रत्नजालमविक्री विक्रीयेत यदागमे । भाविज्ञास्तं पति तस्याः समुत्पत्तावजीगणन् ॥७०॥ ___अन्वयार्थः-(भाविज्ञाः) ज्योतिष शास्त्रोंके जाननेवालोंने (तस्याः) उसका (समुत्पत्तौ) उत्पत्तिके समयमें "(यदागमे) जिसके आने पर (अविक्रीत) नहीं विका हुआ ,रत्ननालं) रत्नोंका समूह (विक्रीयेत) बिक जायगा" (तं) उसको (पति) इसका पति (अनीगणन् ) गणना की ॥ ७० ॥ भवत्यत्र पविष्टे च दृष्टमेतदलं परैः। भाग्याधिक भवानेव योग्यः परिणयेदिति ।।७।। ____ अन्वयार्थः-और (भवति) आपके (अत्र पविष्ट) यहां प्रवेश करने पर (एतद् दृष्टं च यह सब देखा गया है । ( परैः अलं) और ज्यादा कहनेसे क्या ? अतएव (हे भाग्याधिक ! ) हे महाभाग्य ( योग्यः ) योग्य ( भवान् ) आप ही ( परिणयेत् ) इस कन्याके साथ व्याह करें । इति, इस प्रकार उसने कहा ।। ७१।। तन्निबन्धादयं चाभूदनुमन्ता तथाविधौ। वाञ्छितार्थेऽपि कार्य वशिनां न हि दृश्यते ॥७२॥ अन्वयार्थः- (अयं) इन जीवंधर कुमारने (तन्निबंधात्) Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १८९ उसके अत्यन्त आग्रह करनेपर ( तथाविधौ ) इस विषय में (अनुमन्ता अभूत् ) अपनी अनुमति दी । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से ( वाञ्छितार्थेऽपि ) इच्छित पदार्थ में भी ( वशिनां ) जितेन्द्रिय पुरुषों के ( कार्य ) अधीरता ( न दृश्यते) नहीं देखी जाती है ॥७२॥ अथ सागरदत्तेन दत्तां सत्यंधरात्मजः । व्यवहद्विमलां कन्यां हव्यवाहसमक्षकम् ॥ ७३ ॥ अन्वयार्थः—– (अथ) इसके अनंतर (सत्यंधरात्मनः) सत्यंधर राजाके पुत्र जीवंधर स्वामीने ( सागरदत्तेन ) सागरदत्त से (दत्तां) दी हुई ( विमला) विमला नामकी (कन्यां ) कन्याको ( हव्यवाह समक्षकम् ) अग्निकी साक्षी पूर्वक ( व्यवहत् ) व्याहा ॥ ७३ ॥ इति श्रीमद्वादिभसिंहसूरिविरचिते क्षत्रचूडामणौ सान्वयार्थो त्रिमलालम्भो नाम अष्टमो लम्बः ॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो लम्बः। नवमो लम्बः अथ व्यूढामतिस्निग्धां गाढस्नेहोऽवभूदिमाम् । वाञ्छिता यदि वाञ्छेयुः ससारैव हि संमृतिः॥१॥ ____अन्वयार्थः- अथ) विमलाको व्याहनेके अनंतर (गाढ़स्नेहः) अत्यंत स्नेही जीवंधर स्वामीने (व्यूढां) नई व्याही हुई (इमां) इस विमला नामकी अपनी स्त्रीको ( अतिस्निग्यां ) बहुत प्यारी ( अन्वभूत ) अनुभवन की । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे (वांछिता) निनको हम चाहते हैं (यदि) अगर वे भी ( वांछेयुः) हमें चाहें तो (संसृतिः) संसार भी (सप्तारा एव) सार रूप ही ततोऽनुनीय तां हित्वा स मित्रैः समगच्छत । अन्यरोधि न हि कापि वर्तते वशिनां मनः ।२। __अन्धयार्थः-(ततः) फिर (सः) वे जीवंधर स्वामो (तां) उस अपनी स्त्री को ( अनुनीय ) समझा कर और (हित्वा) वहीं छोड़कर (मित्रैः) अपने मित्रोंसे (समगच्छत) आन मिले । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (वशिनां) नितेन्द्रिय पुरुषोंका (मनः) मन (क्वापि। कहीं पर भी (अन्यरोधि) दूसरोंसे रुकनेवाला (न वर्तते) नहीं होता है ॥ २॥ वरचिह तमालोक्य बहमन्यन्त बान्धवाः । ऐहिकातिशयप्रीतिरतिमात्रा हि देहिनाम् ॥ ३ ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १९१ .. अन्वयार्थ - ( बांधवाः) जीवंधर स्वामीके मित्रोंने ( वर चिह्न) वरके चिन्ह से युक्त (तं) उन जीवंधर स्वामीको (आलोक्य) देखकर ( बहु अमन्यत ) अत्यंत आदरसत्कार किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्वयसे ( देहिनाम् ) प्राणियोंको ( ऐहिकातिशयप्रीतिः ) इन लोक संमधी अतिशय अर्थात् किसीकी सांसारिक बढतीमें प्रेम ( अतिमात्राः भवति) अत्यन्त होता है ॥ ३ ॥ अब्रवीदस्य सोत्प्रासं वुद्धिषेणो विदूषकः । बहुद्वारा हि जीवानां पराराधनदीनता ॥ ४ ॥ -- अन्वयार्थः - फिर (बुद्धिषेण ) बुद्धिषेण नामके (अस्य) इन जीवंधर स्वामी ( विदूषकः ) विदूषकने ( सोत्नासम् ) हंसकर ( अब तू ) कहा । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( परार - धनदीनता) दूसरों की सेवा करनेकी चतुराई ( जीवानां) प्राणियों के ( बहुद्वारा) नाना प्रकार की (भवति) होती है ॥ ४ ॥ सुरभः खलु दौर्भाग्यादन्योपेक्षितकन्यकाः । व्यूढायां सुरमञ्जय पौरोभाग्यं भवेदिति ॥ ५ ॥ अन्वयार्थः–“ (दौर्भाग्यात्) दुर्भाग्य के कारण (अन्योपेक्षितकन्यकाः) दूसरों से उपेक्षा की हुई कन्याएं (सुलभाः खलु) तो सिचाहेको मिल सकत हैं, किन्तु (सुरमञ्जर्यं व्यूढायां) सुरमअरीके साथ व्याह करनेपर ही (पौरोभाग्यं) आप महाभाग्यशाली ( भवेत् ) कहलाएंगे । (इति) इस प्रकार विदूषकने जीवंधर स्वामी से कहा ॥ ५ ॥ तद्वाक्यादयमुद्दोदुमवाञ्छीतां च मानिनीम् । हेतुच्छ लोपलम्भेन जृम्भते हि दुराग्रहः ॥ ६॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो लम्बः । अन्वयार्थः - (अयं ) इन जीवंधरकुमारने (तद्वाक्यात्) उस बुद्धिषेण विदूषक के तानरूप बचनों से ( मानिनीम् तां ) मान करने वाली उस सुरमञ्जरीको (उद्बोढुं) व्याहनेके लिये (अवाञ्छीत्) इच्छा की । अत्र नितिः ! (हि) निश्चय से (हेतुच्छ लोपलम्भेन) किसी वहाने के मिलजानेसे (दुराग्रहः ) मनुष्यों का दुराग्रह (जृम्भते) बढ़ जाता है ॥ ६ ॥ १९२ C तत्राप्यौपयिकं भूयो यक्षमन्त्रं व्यचीचरत् । अनपायादुपायाडि वाञ्छिताप्तिर्मनीषिणाम् ॥७॥ अन्वयार्थः - (भूयः) फिर (अयं ) इन जीवंधर कुमारने (तत्रापि ) इस विषय में ( औपाधिकं ) उपाय भूत (यक्षमन्त्र ) यक्ष के द्वारा दिये हुए मन्त्रको (व्यचीचरत् ) स्मरण किया । अत्र नीति: ! । (हि) निश्रयसे ( मनीषिणाम् ) विद्वानोंके ( वाञ्छिताप्तिः इच्छित वस्तुकी प्राप्ति ( अनपायात उपायात् ) नाश नहीं होनेवाले स्थिर उपायसे ही (भवति) होती है ॥ ७ ॥ वार्धकं तत्र चोपायमुपायज्ञोऽयमौहत । करुणामावपात्रं हि बाला वृद्धाश्च देहिनाम् ॥ ८ ॥ अन्वयार्थः – ( उपायज्ञः) उपायके जाननेवाले (अयं) इन जीवंधर कुमारने (तत्र) उस विषय में " ( वार्धकम् उपायं) बूढेका रूप धारण करना" अच्छा उपाय ( औहत) सोचा । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से (देहिनाम् ) लोगों के (बाला वृद्धाश्र) बालक और वृद्ध ( करुणामात्र पात्र ) अपराध हो जाने पर भी करुणाके पात्र होते हैं । ८ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ क्षत्र चूड़ामणिः । वार्धकं तत्क्षणे चास्य मनुमाहात्म्यतोऽभवत् । अनवद्या सती विद्या फलमूकापि किं भवेत् ॥ २॥ अन्वयार्थः -- ( . मनुमाहात्म्यतः ) मन्त्रकी महिमासे (अस्य) इस जीवंवर कुमारका ( तत्क्षणे ) उसी समय ( वार्धकम् ) बूढ़ेका रूप (अभवत् ) हो गया । अत्र नीतिः (हि, निश्चयसे (अनवद्या) निर्दोष (सती) समीचीन ( विद्या ) विद्या ( अपि किं ) क्या कभी ( फलभूका ) फल रहित ( भवेत् ) होती है ( किंतु न भवेत् ) किन्तु नहीं होती है ॥ ९॥ विजहार पुनश्चायं वर्षीयान्परितः पुरीम् । अन्यैरशङ्कनीया हि वृत्तिर्नीतिज्ञगोचराः ॥ १० ॥ अन्वयार्थः -- ( पुनश्च ) और फिर अयं वर्षीयान् ) यह बूढ़ा ( पुरीं परितः ) उस नगरीके चारों ओर (विजहार ) विहार करने लगा । अत्र नीतिः ( हि ) निश्चय से ( नीतिज्ञगोचरा: ) नीतिज्ञ पुरुष विषयक ( वृत्तिः ) चाल ( अन्यैः ) दूसरों से ( अशङ्कनीया भवति ) शङ्का करने योग्य नहीं होती है ॥ १० ॥ प्रवयोविप्रवेषं तं वीक्षमाणा विवेकिनः । विषयेषु व्यरज्यन्त वार्धकं हि विरक्तये ॥ ११ ॥ वेषधारी (तं) अन्वयार्थः -- ( प्रवयोविप्रवेषं ) बूढ़े ब्राह्मणके उसको ( वीक्षमाणाः ) देखनेवाले ( विवेकिनः ) ( विषयेषु ) इन्द्रियों के विषयों में ( व्यरज्यन्त ) अत्र नीति: ( हि ) निश्चयसे ( वार्धकं ) बुढ़ापा ( विरक्तये भवति ) विरक्तिके लिये ही होता है ॥ ११ ॥ विवेकी पुरुष विरक्त हुए | Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ नक्मो लम्बः। मक्षिकापक्षतोऽप्यच्छे मांसाच्छादनचर्मणि । लावण्यं भ्रांतिरित्येतन्मूढेभ्यो वक्ति वार्धकम् ॥१६॥ ___ अन्वयार्थः- (वार्धकम् ) बुढ़ापा (मूढेभ्यः) मूढ़ मनुष्योंसे (मक्षिकापक्षतः) मक्खियोंके पंखोंसे भी ( अच्छे ) पतले (मांसा. च्छादन चर्मणि ) शरीरके मांसको ढकनेवाले चमड़ेमें (लावण्यं भ्रांतिः) सुन्दरता मानना सर्वथा भ्रम है (इति) (एतद् ) इस बातको ( वक्ति ) कहता है ॥ १२॥ प्रतिक्षणविनाशीदमायुः कायमहो जडाः। नैव बुध्यामहे किंतु कालमेव क्षयात्मकम् ॥ १३ ॥ ___ अन्वयार्थः- (हे जड़ाः) हे मूर्यो (इदम् ) यह ( आयुः कायं ) आयु और शरीर ( प्रतिक्षणविनाशि ) क्षणक्षणमें नाश होनेवाला है किंतु अहो!) खेद है ! (वयं) हम सब (नैव बुध्यामहे) नहीं जानते है (किंतु कालं एव) किंतु समयको (क्षयात्मकम् बुध्यामहे) नष्ट होनेवाला समझते हैं ॥ १३ ॥ हन्त लोको वयस्यन्ते किमन्यैरपि मातरम् । मन्यते न तृणायापि मृतिः श्लाघ्या हि वार्धकात्॥१४॥ _____ अन्वयार्थः– (हन्तः) शोक है ! ( लोकः ) मनुष्य ( अन्ते वयसि) बुढापेकी अवस्थामें (मातरं अपि) जीवन देनेवाली माताको भी (तृणाय अपि.न मन्यते) तृणके समान भी नहीं समझते हैं (अन्यैः किं) औरका तो फिर कहना ही क्या है (हि यतः) इसलिये (मृतिः) मरना ही ( वार्धकात् ) बुढ पेसे (श्लाघ्या) अच्छा है ॥ १४ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । इत्याद्यूहं च हास्थं च जनयन्प्राज्ञयालयोः । अगारं सुरमञ्जर्या वर्षीयान्पुनरासदत् ॥ १५ ॥ १९९ अन्वयार्थ : - ( प्राज्ञबालयोः ) बुद्धिमान और बालकोंके ( इत्यादि) इस प्रकार (ऊ) विचार (च) और ( हास्यं ) हास्यको ( जनयन् ) उत्पन्न करता हुआ ( वर्षीयान् ) यह बूढा (पुनः) फिर (सुरमञ्जर्या अगारं) सुरमञ्जरीके घर ( आसदत् ) पहुंचा ॥ १९ ॥ पृष्टो दौवारिकस्त्रीभिराचष्ट फलमागतेः । कुमारीतीर्थमात्मार्थं न ह्यसत्यं सतां वचः ॥१६॥ अन्वयार्थः -- ( दौवारिकस्त्रीभिः ) द्वारकी रक्षा करनेवाली स्त्रियों से (पृष्टः) पूछे हुए इस बूढेने ( आगतेः फलम् ) अपने आनेके कारणको (आत्मार्थ) आत्माके कल्याणके लिये ( कुमारी तीर्थ) कुमारी तीर्थ में स्नान करनेके लिये आया हूं " (इति) इस प्रकार ( आचष्ट ) कहा । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से (सतां वचः) सज्जन पुरुषों का बचन (असत्यं न भवति) झूठा नहीं होता है ॥ १६ ॥ अहसन्नथ तद्वाक्यादङ्गना अप्यसंगतात् । अविवेकिजनानां हि सतां वाक्यम संगतम् ॥१७॥ अम्वयार्थः - (अथ ) इसके अनंतर (अङ्गनाः) द्वारकी रक्षा करनेवाली स्त्रियां (अपि) भी ( असंगतात् ) असंबद्ध वेतुकी (तद्वा क्यात्) उसकी बातों से ( अहसन् ) हंस पड़ीं अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( अविवेकिजनानां ) अविवेकी पुरुषों को (लतां वाक्यं ) सज्जन पुरुषोंका वचन ( असंगतम् ) अंबड ( सापते ) मालूम दिया करता है ॥ १७ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ नवमो लम्बः । अरुद्धः कृपया ताभिरगाहिष्ट च तद्रहम् । सर्वथा दुग्धबीजाभाः कुतो जीवन्ति निर्घृणाः ॥ १८ ॥ अन्वयार्थः - ( ताभिः) उन स्त्रियोंसे (कृपया ) कृपा करके ( अरुद्ध:) नहीं रोका हुआ वह बूढ़ा (तद्गुहम् ) सुरमञ्जरीके घर में ( अगाहिष्ट ) चला गया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्वयसे ( दग्धबीजाभाः ) जले हुए बीजकी तरह आभावाले (सर्वथा निर्घृणाः) सर्वथा दया रहित जीव (कुतः ) कैसे (जीवंति) जी सकते हैं ॥ १८ ॥ अभ्यधुः सुरमञ्जर्याः सुन्दर्यः सभया इदम् । सभयस्नेहसामर्थ्याः स्वाम्यधीना हि किंकराः ॥ १९ ॥ अन्वयार्थः -- फिर (सुन्दर्यः) द्वार रक्षक सुन्दरियोंने (समया) भय सहित (सुरमञ्जर्याः) सुरमञ्जरीसे ( इदं अम्यथुः ) यह सब बात कह दी । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( स्वाभ्यधीनाः) स्वामी के आधीन रहनेवाले (किंकराः) नौकर लोग ( समय स्नेहसामर्थ्या: 2 भय और स्नेही सामर्थ्य वाले होते हैं ॥ १९ ॥ पुरुषद्वेषिणी सापि वर्षीयांसं न्यशामयत् । भवितव्यानुकूलं हि सकलं कर्मदेहिनाम् ॥ २० ॥ अन्वयार्थः --- ( पुरुषद्वेषिणी सापि ) पुरुषों से द्वेष करनेवाली उस सुरमज्जरीने भी (वर्णीयांसं ) उस बूढ़ेको (न्यशामयत् ) देख कर बैठा लिया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे (देहिनाम् ) जीवोंके ( सकलं कर्म ) सम्पूर्ण काम (भवितव्यानुकूलं भवंति ) होनहारके अनुसार ही हुआ करते हैं ॥ २० ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । . . १९७ 'बुभुक्षितं तमालक्ष्य भोजयामास सा सती।.. अन्तस्तत्त्वस्य याथात्म्ये न हि वेषो नियामकः।।२२।। अन्वयार्थः-( सा सती) उस श्रेष्ठ कन्याने (तं बुभुक्षितं आलक्ष्य) उस बूढ़ेको भूखा समझकर (मोजयाभास) भोजन कराया। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (वेषः) बाहरी वेश (अन्तस्तत्त्वस्य) भीतरी अन्तर स्वरूपकी (याथात्म्ये) यथार्थताका ( नियामकः न भवति ) जतलानेवाला नहीं होता है ॥ २१ ॥ भुक्त्वाथ वार्धकेनेव सुष्वाप तलिमे कृती। योग्यकालप्रतीक्षा हि प्रेक्षापूर्वविधायिनः ॥ २२॥ __अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनंतर (कती) वह बुद्धिमान बूढ़ा (भुक्त्वा ) भोजन करके (वार्धकेन एव) बुढ़ापे की थकावटसे ही मानो (तलमे) किसी शय्या पर (सुष्वाप) आराम करनेके लिये पड़ गया । अत्र नीतिः ! हि) निश्चयसे (प्रेक्षापूर्वविधायिनः) विचारपूर्वक कार्य करनेवाले मनुष्य ( योग्यकालप्रतीक्षा भवंति ) योग्य उत्तम समयकी बाट जोहा करते हैं ॥ २२ ॥ भुवनमोहनं गानमगासीदथ गानवित् । परस्परातिशायी हि मोहः पश्चेन्द्रियोद्भवः ॥२३॥ अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर ( गानवित् ) गान विद्याके जाननेवाले उस बुड्ढ़ेने (भुवनमोहनं) जगतको मोहित करनेवाला ( गानं ) गाना ( अगासीत् ) गाया। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (पंचेन्द्रियोद्भवः ) पांचों इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ( मोहः ) मोह ( विषयों में प्रीति ) ( परस्परातिशायी) एक दूसरेसे अधिकाधिक होती है ॥ २३ ॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ नवमो लम्बः । गानकौशलतः सैनं शक्तिमन्तममन्यत । विशेषज्ञा हि बुध्यन्ते सदसन्तौ कुतश्चन ॥ २४ ॥ अन्वयार्थः - (सा) उस सुरमञ्जरीने ( गान कौशलतः ) गानेकी कुशलता से ( एनं ) इस बुड्ढेको ( शक्तिमन्तं ) और कार्य करनेमें भी शक्तिवाला ( अमन्यत ) समझा । अत्र नीति: । (हि) निश्वय से ( विशेषज्ञाः ) विशेष बात को जाननेवाले मनुष्य ( कुतश्वन ) किसी न किसी कारण से (सदसन्तौ) सद असत् बातका ( बुध्यन्ते) निश्चय कर लिया करते हैं ॥ २४ ॥ ततः स्वकार्यमप्यस्मात्सादराभूत्परीक्षितुम् । स्वकार्येषु हि तात्पर्य स्वभावादेव देहिनाम् ॥ २५ ॥ अन्वयार्थः : - (ततः) इस लिये (सा) वह सुरमञ्जरी (अस्म तू ) उस बूढे ब्राह्मणसे ( स्व कार्यं अपि ) अपने कार्यको भी ( परीक्षितुं ) परीक्षा करनेके लिये ( सादरा अभूत् ) आदरयुक्त हुई । अत्र नीतिः (हि) निश्चय से ( देहिनाम् ) देह धारियों को ( स्वभावात् ) स्वभावसे ही (स्वकार्येषु ) अपने कार्यों में ( तात्पर्यं भवति ) तत्परता हुआ करती है ॥ २५ ॥ गाववच्छक्तिरन्यत्र किमस्तीत्यन्वयुक्त सा । याञ्चायां फलमूकायां न हि जीवन्ति मानिनः ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ :- (सा) उस सुरमञ्जरीने " ( गानवत् ) गानेके सदृश (अन्यत्रापि ) दूसरे कार्यों में भी ( किं ) क्या तुम्हारी ( शक्तिः अस्ति ) शक्ति है " ( इति ) इस प्रकार ( अन्वयुक्त ) पूछा अत्र नीतिः । (हि) निश्चय से ( याञ्चायां ) याचनाके ( फल Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रवृजमणिः । १९९ मूकायां ) निष्फल होनेपर ( मानिनः) मानी पुरुष (न जीवन्ति) नहीं जीते हैं ॥ २६ ॥ बाढमस्ति समस्तेपीत्यब्रवीत्प्रौढनैपुणः । उक्तिचातुर्यतो दायमुक्तार्थे हि विशेषतः ॥ २७॥ अन्वयार्थः-(प्रौढनैपुणः ) अत्यन्त चतुर उस बुड्ढ़ेने ( बाढं) हां (ममशक्तिः) मेरी शक्ति (समस्तेऽपि) सम्पूर्ण विषयोंमें ( अस्ति ) है " (इति) इस प्रकार ( अबवीत् ) कहा ( उत्तर दिया ) अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे (उक्तार्थे) कहे हुए पदार्थके विषयमें ( उक्तिचातुर्यतः ) कहनेकी चतुरतासे ही (विशेषतः) बहुत (दाढयं) दृढता ( भवति ) होती है ।। २७ ॥ अभीप्सितवरप्राप्तावुपायं साप्ययाचत । रागान्धे हि न जागर्ति याश्चादैन्यवितर्कणम् ॥२८॥ ____अन्वयार्थः-तब ( सापि ) उस सुरमञ्जरीने भी ( अभीप्सितवरप्राप्तौ ) अपने चाहे हुए वरकी प्राप्ति विषयक ( उपायं अयाचत) उपायकी याचना की । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (रागान्धे) प्रेमसे अन्धे पुरुषोंमें ( याञ्चादैन्यवितर्कणम् ) याचना संमंधी दीनताका विचार ( न जागर्ति ) नहीं होता है ॥ २८ ॥ कामं कामप्रदं सोऽयं कामदेवमुपादिशत् । मनीषितानुकूलं हि प्रीणयेत्प्राणिनां मनः ॥ २९ ॥ ___ अन्वयार्थः-फिर (सः अयं) उस बुड्ढेने (काम) अतिशय रीतिसे (कामपदं) सब मनोरथोंको सफल करनेवाला (कामदेवं ) कामदेवकी मूर्तिकी पूजाका (उपादिशत् ) उपदेश दिया। अत्र नीतिः Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० नवमो लम्बः । (हि) निश्चयसे ( मनीषितानुकूलं ) इष्ट मनोरथके अनुकूल कहना ही (प्राणिनां मनः) जीवों के मनको ( प्रीणयेत् ) प्रसन्न करता है । मनीषितं च हस्तस्थं मेने सा सुरमञ्जरी । मनोरथेन तृप्तानां मूलब्धौ तु किं पुनः ॥ ३० ॥ अन्वयार्थः तत्र फिर ( सा सुरमञ्जरी) उस सुरमञ्जरीने ( मनीषितम् ) अपने मनोरथको ( हस्तस्थं ) अपने हाथमें आया हुआ (मेने ) समझा । अत्र नीतिः । (हि) निश्चय से ( मनोरथेन तृप्तानां ) मनोरथ से संतुष्ट हो जानेवाले पुरुषोंको ( मूललब्धौ ) यदि मूल पदार्थ मिल जाय (तु) तो ( पुनः ) फिर ( किं वक्तव्यं ) कहना ही क्या है ॥ ३० ॥ अनैषोत्तमसौ पश्चात्कामकोष्ठं यथेप्सितम् । विचाररूढकृत्यानां व्यभिचारः कुतो भवेत् ॥ ३१ ॥ अन्वयार्थः—( पश्चात् ) फिर (असौ ) यह बूढा ब्राह्मण ( यथेप्सितम् ) निश्चित किये हुए ( कामकोष्ठ ) कामदेव के मन्दिर (तां ) उसको ( अनैषीत् ) ले गया । अत्र नीति: । (हि) निश्चयसे ( विचार रूढ़ कृत्यानां ) विचारपूर्वक कार्य करनेवाले पुरुषोंके ( व्यभिचारः ) कार्य में हानि ( कुतः ) कैसे ( भवेत् ) हो सकती है ॥ ३१ ॥ कामं सा प्रार्थयामास जीवकस्वामिकाम्यया । जन्मान्तरानुबन्धौ हि रागद्वेषौ न नश्यतः ॥ ३२॥ अन्वयार्थ :- वहां (सा) उस कुमारीने (जीवक स्वामिकाम्यया) जीवंधर स्वामीकी प्राप्ति होनेकी इच्छा से (कामं) कामदेवसे ( प्रार्थ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २०१ यामास) प्रार्थना की । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (जन्मान्तरानुवन्धौ) जन्म जन्मान्तरसे बंधे हुए ( रागद्वेषौ ) रागद्वेष (न नश्यतः) नाश नहीं होते हैं ॥ ३२ ॥ प लव्धो वर इति प्रोक्तं बुद्धिषेणेन सा सती । मनोभुवो वचो मेने स्त्रीणां मौठ्यं हि भूषणम् ॥३३॥ अन्वयार्थः -- ( तदा) उस समय ( सा सती) उस श्रेष्ठ कन्याने " (लब्धो वरः ) तूने अपने वरको प्राप्त कर लिया " (इति) इस प्रकार (बुद्धिषेणेन प्रोक्तं) बुद्धिषेणसे कहे हुए वचनको ( मनोभुवः) कामदेवका ( वचः) वचन (मेने) समझा । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से ( स्त्रीणां) स्त्रियोंका (मौढ्यं ) मूढता ही (भूषणम्) भूषण है ॥ ३३ ॥ कुमारं दर्शिताकारं दृष्ट्वा जिह्वाय तत्क्षणे । मृतकल्पा हि कल्पन्ते निर्लज्जा निष्कृपा इव ॥ ३४ ॥ अन्वयार्थः -- ( फिर वह कन्या (तत्क्षणे ) उसी समय (दर्शिताकारं) दिखलाया है असलीरूप जिन्होंने ऐसे (कुमारं ) कुमारको ( दृष्ट्वा ) देखकर ( जिह्नाय ) लज्जित हुई । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से (निर्लज्जाः) लज्जा रहित पुरुष (निष्कृपाः इव) दया हीन पुरुषोंकी तरह ( मृतकल्पा : ) जीते हुए भी मरे हुएके समान ( कल्पन्ते ) कल्पना किये जाते हैं ॥ ३४ ॥ पतिकृत्येन पत्नीं तां सुतरां सोऽप्यतोषयत् । संसारोऽपि हि सारः स्यादम्पत्योरेकैकण्ठयोः ॥ ३५ ॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमो लम्बः । अन्वयार्थः — वहां (सोऽवि ) उस जीवंधरकुमारने भी ( पति कृत्येन ) पति कृत्य प्रेमालापादि द्वारा (तां पत्नीं ) उस स्त्रीको (सुतरां ) अत्यंत (अतोषयत् ) संतोषित किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्वयसे (दम्पत्योः एक कण्ठयोः) स्त्री पुरुषके एकता प्रेम होने पर ( संसारः अपि ) संसार भी ( सारः स्यात् ) साररूप हो जाता है ॥ ३५ ॥ २०२ ततः कुबेरदत्तेन दत्तां तां सुरमञ्जरीम् । सुमतेरात्मजां सोऽयमुपयेमे यथाविधि ॥ ३६ ॥ अन्वयार्थः - ( ततः ) इसके अनंतर ( सः अयम् ) उस इस जीवंधर कुमारने ( कुबेरदत्तेन दत्तां ) कुबेरदत्तसे दी हुई (सुमतेः आत्मजां) सुमतीकी पुत्री (तां सुरमअरीं) उस सुरमअरीको ( यथाविधि ) विधिपूर्वक ( उपयेमे ) व्याहा ॥ ३६ ॥ इति श्रीमद्वादिभ सिंहसूरिविरचिते क्षत्रचूडामणौ सान्वयार्थो सुरमञ्जरीलम्भो नाम नवमो लम्बः ॥ Se Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । قد दशमो लम्बः २०३ अथ पाणिगृहीतीं तां बहुमेने बहुप्रियः । बहुपत्नोपलब्धे हि प्रेमबन्धो विशिष्यते ॥ १ ॥ अन्वयार्थः – (अथ) इसके अनंतर (बहु प्रियः) बहुत स्त्रियों के पति उस जीवंधर कुमारने ( तां पाणिगृहीतीं) उस ब्याही हुई सुरमञ्जरी स्त्रीको ( बहु मेने ) बहुत माना । अत्र नीति: ! (हि) निश्वयसे ( बहुयत्नोपलब्धे ) बहुत यत्नसे प्राप्त वस्तुमें ( प्रेमबन्धः ) प्रेमका संबंध ( विशिष्यते ) विशेषतर हुआ ही करता है ॥ १ ॥ कृच्छ्रेणाराध्य तां भूयो मित्राणां पार्श्वमाश्रितः । स्वामीच्छाप्रतिकूलत्वं कुलजानां कुतो भवेत् ॥२॥ अन्वयार्थः - (भूयः) फिर जीवंधर कुमार (तां) उस स्त्रीको ( कृच्छ्रेण ) किसी न किसी प्रकारसे ( आराध्य ) समझा बुझा करके (मित्राणां पार्श्व ) अपने मित्रोंके समीप (आश्रितः) आगये । अत्र नीति: ! (हि) निश्वयसे ( कुलजानां ) कुलीन स्त्रियोंके ( स्वामीच्छाप्रतिकूलत्वं ) अपने स्वामीकी इच्छा के विरुद्धपना (कुतः ) कैसे ( भवेत् ) हो सकता है अर्थात् नहीं हो सकता ॥ २ ॥ सचित्रीयस्तदा मित्रैः पित्रोरन्तिकमाययौ । आत्मदुर्लभमन्येन सुलभं हि विलोचनम् ॥ ३ ॥ अन्वयार्थः- (तदा) उस समय सुरमञ्जरीके सहज मिल जाने से ( सचित्रीयः ) आश्चर्य युक्त ( मित्रैः ) मित्रोंके साथ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ दशमो लम्बः । जीवंधर स्वामी ( पित्रोः ) सुनन्दा व गन्धोत्कट ( माता पिता )के (अन्तिकम् ) समीप ( आययौ ) आये । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चयसे (आत्म दुर्लभम् ) अपने आपको दुर्लभ वस्तु यदि (अन्येन सुलभ) दूसरेको सहन ही मिल जाय तो (विलोचनम् ) विस्मयको करनेवाली ही होती है ॥ ३ ॥ पित्रोरप्यतिमात्रोऽभूत्पुत्रस्नेहोऽस्य वीक्षणात् । कस्यानन्दकरो न स्यात्कृतान्तास्यादपागतः ॥ ४॥ ___ अन्वयार्थः-( अस्य वीक्षणात् ) इसके देखनेसे (पित्रोरपि) जीवंधर स्वामीके मातापिताको भी (अतिमात्रः) अतिशय (पुत्रस्नेहः अभूत्) पुत्रप्रम उत्पन्न हुआ । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (कृतान्तास्यात् ) कालके मुखसे (अपागतः पुत्रः) निकला हुआ पुत्र (कस्य) किसको (आनंदकरः न स्यात् ) आनंदकरनेवाला नहीं होता है अर्थात् होता ही है ॥ ४ ॥ ततो गन्धर्वदत्ता च गुणमाला च वल्लभे । उल्लाघतां क्रमान्नीते नीतिरेषा हि संमृतौ ॥५॥ __अन्वयार्थः-(ततः) फिर जीवंधर स्वामीने (गन्धर्वदत्ता गुणमाला च वल्लभे) गन्धर्वदत्ता और गुणमाला अपनी प्यारी स्त्रियोंको (क्रमात् ) वारी २से (उल्लाघतां) प्रसन्नताको (नीते) प्राप्त किया (हि) निश्चयसे (संसृतौ) संसारकी (एषा) यह ही (नीतिः) नीति है ॥ ५ ॥ अथ गन्धोत्कटेनाय मन्वयित्वा ततो ययौ । विधित्सिते ह्यनुत्पन्ने विरमन्ति न पण्डिताः ॥६॥ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २०५ अन्वयार्थः – (अथ ) इसके अनंतर (अयं) यह जीवंधर कुमार (गंधोत्कटेन सह ) गंधोत्कटके साथ ( मंत्रयित्वा ) सलाह करके ( ततः ययौ ) वहां से चले गये ( अत्र नीतिः ! (हि) निश्वयसे (पण्डिताः ) विद्वान पुरुष (विधित्सिते) करनेके लिये इच्छित कार्य के (अनुत्पन्ने) पूर्ण नहीं होने तक (न विरमंति) विश्राम नहीं लेते हैं ॥ ६ ॥ विदेहाख्ये ततो देशे धरण्यास्तिलकोपमाम् । तिलकान्तधरण्याख्यां राजधानीमशिश्रयत् ॥ ७ ॥ अन्वयार्थः—— (ततः) वहांसे चल कर जीवंधर कुमार विदे. हाख्ये देशे ) विदेह नामके देश में (तिलकोपमाम् ) तिलकके समान ( तिलकांतचरण्याख्यां ) धरणीतिलक नामकी (राजधानी) राजधानीको (अशिश्रयत् प्राप्त हुए ॥ ७ ॥ महितो मातुलेनात्र विदेहाधिपभूभुजा । भागिनेयो महाभागो मह्यां केन न मह्यते ॥ ८ ॥ अन्वयार्थः – (अत्र) यहां (विदेहाधिपभूभुजा) विदेह देशके स्वामी राजा इसके (मातुलेन) मामाने (महितः ) इनका बड़ा आदर सत्कार किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से (मह्यां) पृथ्वी में ( महाभागः ) भाग्यशाली (भागिनेयः) अपनी बहिन के पुत्रको (केन न मह्यते) कौन नहीं पूजता है अर्थात् - सब पूजते हैं ॥ ८ ॥ आसीद्गोविन्दराजोऽपि तद्राज्यस्थापनोद्यतः । स्वयं परिणतो दन्ती प्रेरितोऽन्येन किं पुनः ॥ ९ ॥ अन्वयार्थः - (गोविंदराजः अपि) गोविंदराज भी (तद्राज्यस्थापनोद्यतः) जीवंधर स्वामीके गये हुए राज्यको फिरसे स्थापन Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ दशमो लम्बः । करनेके लिये तैयार (आसीत् ) हुआ । अत्र नीति: ! (हि) निश्वयसे ( स्वयं परिणतः दन्ती) अपने आप ही दन्त प्रहार करनेवाला हाथी ( अन्येन प्रेरितः ) यदि दूसरेसे प्रेरणा किया जाय तो ( किं पुनः वक्तव्यं ) फिर कहना ही क्या है ॥ ९ ॥ मन्त्रिभिर्मन्त्रशालायां मन्त्रयामास मन्त्रवित् । न मन्त्रं विनिश्चेषं निश्चिते च न मन्त्रणम् ॥१०॥ अन्वयार्थः - ( मन्त्रवित् ) मन्त्र के जाननेवाले राजाने ( मन्त्रशालायां ) मन्त्रशाला में ( मन्त्रिभिः ) मन्त्रियों के साथ ( मन्त्रयामास ) सलाह की । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे (विनिश्रेयं ) निश्चय करने योग्य बात ( अमन्त्रं) विना मन्त्रके ( न भवति) नहीं होती है (च) और ( निश्चिते ) किसी बात का निश्चय हो जाने पर ( मन्त्रणम् न ) सलाह नहीं की जाती है ॥ १० ॥ काष्ठाङ्गारस्य संदेशं सचिवैः शुश्रुवानयम् । ज्ञात्वा हि हृदयं शत्रोः प्रारब्धव्या प्रतिक्रिया ॥ ११॥ अन्वयार्थः — अयं ) इस गोविन्द राजाने ( सचिवैः मन्त्रियों द्वारा (काष्टाङ्गारस्य ) काष्टाङ्गारका यह वक्ष्यमाण (संदेश ) संदेश ( शुश्रुवान् ) सुनाया । अत्र नीति: (हि) निश्चयसे (शत्रोः ) शत्रुका (हृदयं ) मन (ज्ञात्वा ) जानकर ही ( प्रतिक्रिया ) प्रतीकार (प्रारब्धव्या) प्रारंभ करना चाहिये ॥ ११ ॥ ' अघेनाहमपख्यातिं राजघे मदहस्तिनि । लब्धवानवबुध्येत मिथ्येयं तत्त्ववेदिना ॥ १२ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २०७ अन्वयार्थः - ( राजघे मदहस्तिनि ) राजा सत्यंधरको एक मदोन्मत्त हाथी के मारने पर ( अधेन ) पापसे ( अहं ) मैंने ही ( अपख्यातिं ) अपयशको ( लब्धवान् ) प्राप्त किया । किन्तु ( तत्ववेदिना ) यथार्थ बातके जाननेवाले ( इयं) यह बात ( मिथ्या ) झूठी (अवबुध्येत ) समझते हैं ॥ १२ ॥ - निःशल्पोऽहं भवाम्येष भवत्यत्र समागते । दुर्जनेऽपि हि सौजन्यं सुजनैर्यदि संगमः ॥ १३ ॥ अन्वयार्थः - (भवति) आपके (अत्र ) यहां (समागते) आनेपर (एषः अहं) अपयशी मैं ( निःशल्यः) निःशल्य ( भवामि ) हूंगा अत्र नीतिः । (हि) निश्चय से (यदि ) अगर (सुजनैः) सज्जन पुरुषोंके साथ (संगम) समागम मिल जाय तो फिर (दुर्जने अपि) दुष्ट पुरुषमें भी ( सौजन्यं) सज्जनता (भवति) हो जाती है ॥१३॥ इत्युक्त्या निश्चितोऽतिरतिसंघित्सुरञ्जसा । असतां हि विनम्रत्वं धनुषामिव भीषणम ॥ १४ ॥ अन्वयार्थः— (इति उक्त्या) इस संदेशे से " ( अरातिः) शत्रु (अनसा) शीघ्र ही (अतिसंघित्सुः) धोखा देना चाहता है" (इति) यह (निश्चितः) निश्चय किया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( असतां विनम्रत्वं) दुर्जनों का नम्र होना ( धनुषां इव) धनुषके सदृश ( भीषणम् ) भयंकर होता है ॥ १४ ॥ विप्रलम्भोत्सुके शत्रौ कार्यान्धोऽयमतप्यत । दुर्जनाग्रे दि सौजन्यं कर्दमे पतितं पयः ॥ १५ ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ दशमो लम्बः । अन्वयार्थः— (कार्यान्धः) अपने कार्यमें अंघ (निसे अपने कामके सिवाय दूसरा कुछ नहीं सूझता) ऐसे (अयं) यह गोविंदराजा (विप्रलम्भोत्सुके) धोखा देने में उत्सुक (शत्रौ) शत्रुके ऊपर (अतप्यत) अत्यन्त तप्तायमान हुआ । अत्र नीतिः ! (हि) निश्च. यसे (दुर्जनाग्रे) दुष्ट पुरुषके अगाड़ी (सौजन्य) सुननता करना (कर्दमें) कीचड़में (पयः पतितम् ) दुध फेंकनेके समान है ॥१५॥ आहूतास्तेन साकूतं गच्छामस्तच्छलाद्वयम् । इत्युच्चै निश्चिकायासौ बकायन्ते हि जिष्णवः ॥१६॥ अन्वयार्थः-(तेन) उस काष्टाङ्गारसे (साकूतं) किसी अभिप्रायसे (आहूतः) बुलाये हुए ( वयं ) हम लो। भी (तच्छलात् ) उसको छलनेके लिये ( गच्छामः ) वहां चलें ( इति) यह (अप्सौ) इस गोविन्दराजाने ( उच्चेः निश्चिकाय ) अच्छी तरहसे निश्चय किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे निष्णवः) दूसरे शत्रुओंको जीतनेवाले राना लोग (वकायन्ते) वगुले के सदृश आचरण करते हैं । काष्टाङ्गारेण संजातं सख्यं प्रख्यापयन्नसौ । डिण्डिमं ताडयामास गतेर्वार्ता हि पूर्वगा ॥ १७ ॥ अन्वयार्थः- (काष्टाङ्गारेण सह) काष्टाङ्गारके साथ (सख्यं) इमारी मित्रता ( संजातं ) होगई (इति) ऐसा (प्रख्यापयन् ) प्रसिद्ध करते हुए ( असौ) इस राजाने (डिण्डिमं ) ढिंढोरा (ताड़यामास) पिटवा दिया: अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (वार्ता) इस समाचारकी सूचना ( गतेः पूर्वगा ) इनके जाने से पहले पहुंच गई ॥१७॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । चातुरङ्गबलं पश्चाच्चतुरोऽयं न्यशामयत् । आलोच्यात्मारिकृत्यानां प्राबल्यं हि मतो विधिः॥ १८ ०९ अन्वयार्थः - (पश्चात् ) इसके अनंतर (चतुरः) चतुर (अयं राजा ) इस राजाने ( चातुरङ्गबलं ) अपनी चतुरङ्गी बड़ी भारी सेना (न्यशामयत् ) चलने के लिये तैयार की। अत्र नीति: ! (हि) निश्रयसे (आत्मा रिकृत्यानां ) अपनी और शत्रुके कार्योंकी (प्राबल्यं) प्रबलताको (आलोच्य) विचार करके ही (विधिः मतः ) किसी का - मका करना निश्चित किया जाता है ॥ १८॥ प्रतस्थे चाथ सल्लने पात्रदानादिपूर्वकम् | दानपूजातपःशीलशालि किं न सिध्यति ॥ १९॥ 1 अन्वयार्थः- ( अथ ) इसके अंनंतर ( सलग्ने ) शुभलनमें ( पात्रदानादि पूर्वकम् ) पात्रदानादि पुण्य कर्म पूर्वक जीवंधर सहित गोविंदरान (प्रतस्थे च वहां से चलदिया । अत्र नीतिः ! ( ही ) निश्चयसे । दानपुनातपः शीलशालिनां ) दान, पूजा, तप और शीलादिकको पालन करने वाले मनुष्योंक ( किं ) क्या (नसिध्यति ) सिद्ध नहीं होता है ॥ अर्थात- उनके सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं ॥ १९ ॥ अथ राजपुरीं प्राप्य राजा कैश्वित्रयाणकैः । निकषा तत्पुरीं कापि निषसाद महाबलः ॥ २० ॥ अन्वयार्थः — ( अथ ) इसके अनंतर ( महाबल: ) बड़ी भारी सेनाका स्वामी ( राजा ) यह गोविन्दराजा ( कैश्चित् प्रयाकैः ) कई एक पड़ाव डालेनके अनंतर ( राजपुरीं प्राप्य ) राज Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० दशमो लम्बः । पुरीको प्राप्त कर (तत्पुरीं निकषा) उस रानपुरीके समीप (क्वापि) कहींपर ( निषसाद ) ठहर गया ॥ २० ॥ प्राभृतं प्राहिणोत्तस्य काष्ठागारो मुधा मुहुः । हन्त कापटिका लोके बुधायन्ते हि मायया ॥२१॥ अन्वयार्थः– (मुधा ) व्यर्थ ( काष्ठाङ्गारः ) काष्टाङ्गारने ( तस्य पाच ) उस गोविन्दराजके पास (मुहुः) बार २ (प्राभृतं ) बहुतसी भेटें ( प्राहिणोत् ) भेनी । अत्र नीतिः ! (हन्त) खेद है ! कि ( हि ) निश्चयसे ( लोके ) संसारमें (कापटिका ) कपटीलोग ( मायया ) मायासे ( बुधायन्ते ) पण्डित पुरुषोंके समान आचरण करते हैं ॥ १ ॥ प्रतिप्राभृतमेतस्मै प्राहैषीत्स्वामिमातुलः। आ समीहितनिष्पत्तेराराध्याः खलु वैरिणः ॥२२॥ ___अन्वयार्थ ----( स्वा ममातुलः ) जीवंधर स्वामीके मामाने भी (एतम्मै) इस काष्टाङ्गारके लिये ( प्रति प्रामृतम् ) भेटके बदलेमें भेंट ( प्राहैषीत् ) भेनी । अत्र नीतिः ! (खलु) निश्चयसे (आ समीहिततिप्पत्तेः) अपने मनोरथकी सिद्धि पर्यंत ( वैरिणः ) शत्रु भी (आराध्याः भवंति) आराधना करने योग्य होते हैं॥२२॥ कन्याशुल्कतया लोके यन्त्रभेदमघोषयत् । उपायप्रष्ठरूढा हि कार्यनिष्ठानिरङ्कशाः ॥ २३ ॥ अन्वयार्थः- और फिर गोविन्दराजने ( लोके ) लोकमें ( कन्याशुल्कतया ) कन्याके शुल्कपनेसे ( यन्त्रभेदं अघोषयत् ) यन्त्र भेदकी घोषणा कराई अर्थात् गोविन्दरानने यह घोषणा Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A क्षत्रचूड़ामणिः । कराई कि नो चंद्रक यंत्रको भेदन करेगा मैं उसे अपनी कन्या व्याह दूंगा अत्र नीति: ! ( हि ) निश्चयसे ( उपायप्रष्टरूढा ) सदुपायमें तत्पर पुरुष ( कार्यनिष्टानिरंकूशाः भवन्ति ) नियमसे कार्यको विघ्न रहित सिद्ध करलिया करते हैं ॥ २३ ॥ धनुर्धराश्च संभूतास्वर्णिककुलोद्भवाः । आमोहो देहिनामास्थामस्थानेऽपि हि पातयेत्॥२४॥ - अन्वयार्थः—तदनंतर (त्रैवर्णिक कुलोद्भवाः ) तीनोंवों के कुलमें उत्पन्न (धनुर्धराः) धनुष धारी (संभूताः) वहां आकर इकट्ठे हो गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (आमोहः) मोहका सद्भाव अर्थात् जब तक मोह रहता है तब तक ( देहिनाम् ) जीवोंकी ( आस्थां) बुद्धि अथवा यत्नको ( अस्थानेऽपि ) उसके नहीं पाने योग्य वस्तुमें भी ( पातयेत् ) पतन करा देता है ॥ २४ ॥ ततश्चन्द्रकयन्त्रस्थवराहत्रय भेदने । न शेकुश्वापिनः सर्वे क विद्या पारगामिनी ॥२५॥ अन्वयार्थः-(ततः) फिर (सर्वं चापिनः) सम्पूर्ण धनुषधारी ( चन्द्रकयंत्रस्थवराहत्रयभेदने ) चंद्रक यंत्रमें बने हुए वराहोंके छेदनेमें (न शेकुः) समर्थ नहीं हुए । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( पारिगामिनी ) परिपूर्ण (विद्या ) विद्या (क्व) कहां रक्खी है ॥ २५ ॥ अलातचक्रतः शीघ्रं चक्रमारुह्य हेलया। विव्याध विजयासूनुर्भानुः किं न तमोहरः ॥ २६ ॥ ___ अन्वयार्थः- ( विजयासूनुः ) विजया रानीके पुत्र जीवंधर १-तीन वर्णके कुल–ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ दशमो लम्बः । स्वामीने (चक्र आरुह्य) चन्द्रक यंत्र पर चढ़कर (हेलया) क्रीड़ा मात्रसे ही ( शीघ्रं ) शीघ्र ही ( अलातचक्रतः ) अलात चक्रसे तीनों वराहोंको (विव्याध) भेदन कर दिया। अत्र नीतिः ! निश्चयसे (किं) क्या (भानुः) सूर्य ( तमोहरः न भवति ) अन्धकारको नाश करनेवाला नहीं है किन्तु है ही ॥ २६ ॥ अथ गोविन्दराजोऽपि राज्ञामित्थमचीकवत् । सात्यंधरिरयं हीति स्थाने हि कृतिनां गिरः॥ २७॥ ____ अन्वमार्थः- (अथ) इसके अनंतर ( गोविन्दरामः अपि) गोविन्दराजने भी (राज्ञां समक्षं) वहां राजाओंके अगाड़ी " (अयं सात्यंधरिः) यह सत्यंधर महाराजके पुत्र हैं इति " (इत्थं अचीकथत् ) इस प्रकार कहा । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (कतिनां) बुद्धिमान पुरुषोंकी ( गिरः ) वाणी ( स्थाने योग्य स्थानमें ही (भवति) होती है ॥ २७ ॥ राजानोऽप्येवमस्माभिर रीत्यभानन्दिषुः । आचष्टे हि नरेन्द्रत्वमालीहादिषु पाटवम् ॥ २८ ॥ अन्वयार्थः-राजानः अपि) यह बात सुनकर राजा लोगोंने भी " (एवं) ऐसा ( अस्माभिः ) हम लोग भी ( अस्मारि) स्मरण करते हैं " (इति) इस प्रकार (अभ्यनन्दिषुः) राजपुत्रकी तारीफ की। अत्र नीतिः ! (हि) निश्रयसे (आलीढादिषु पाटवम्) आलीढादि पांच स्थानोंमें चतुरताने जीवंधरके (नरेन्द्रत्वं) राजापनेको आचष्टे) कहा अर्थात् धनुषधारियोंमें जीवंधरकी चतुराई देखकर राना लोगोंने यह निश्चय कर लिया कि अवश्य यह सत्यंधर महारानके पुत्र हैं ॥ २८ ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २१३ काष्ठाङ्गारः कुमारस्य वीक्षणाक्षीणमानतः। तच्छुतेर्मृतकल्पोऽयमनल्पाधिरचिन्तयत् ॥ २९॥ अन्वयार्थः- ( कुमारस्य ) जीवंधर कुमारके ( वीक्षणात् ) देखनेसे (क्षीणमानसः ) क्षीणचित्त ( अयं काष्ठाङ्गार ) यह काष्ठाङ्गार ( तत् श्रुतेः ) गोविन्द महाराज की वार्ताको सुननेसे (मृतकल्पः ) मरे हुएके समान ( अनल्पाधिः ) अत्यंत मानसीक व्यथासे व्यथित होकर ( अचिन्तयत् ) विचार करने लगा॥ २९॥ सात्यंधरौ च सत्यस्मिन्सद्यो हन्त वयं हताः। वीरेण हि मही भोज्या योग्यतायां च किंपुनः॥३०॥ __अन्वयार्थः- ( सात्यंधरौ अस्मिन् सति ) सत्यंधर महाराजका पुत्र इसको होनेपर तो ( हन्त ! ) हाय ! ( वयं ) हम (सद्यः ) अमी ( हताः ) मारे गये । अत्र नीतिः ( हि ) निश्च यसे ( मही) पृथ्वी ( वीरेण ) वीर ( भोज्या ) भोग्या ( भवति) होती है ( पुनः ) फिर ( योग्यतायां ) सब प्रकारकी योग्यता रहने पर (तु किं वक्तव्यं) तो कहना ही क्या है ॥३०॥ कथमेनं वणिक्पाशं मथनोऽप्यवधीत्तदा । आत्मनीने विनात्मानमञ्जसा न हि कश्चन ॥ ३१ ॥ ____ अन्वयार्थः-( तदा ) उस समय ( मथनः अपि ) मथनने भी मेरी आज्ञासे ( एनं वणिक्पाशं ) इस कत्सित. वैश्यको (कथं) कैसे ( अवधीत् ) मारा था । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे इसलोकमें ( आत्मनीने ) अपने हितके लिये ( आत्मानं ) अपने (बिना) बिना ( कश्चन ) कोई ( अञ्जसा हितःन) सच्चा हित कारी नहीं है ॥ ३१ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२१४ दशमो लम्बः । दुराकूतः किमाहूतो मातुलोऽस्य मया मुधा। .. स्ववधाय हि मूढात्मा कृत्योत्थापनमिच्छति ॥३२॥ ___ अन्वयार्थः- ( मया ) मैंने ( दुराकूतः ) दुष्ट अभिप्राय वाले ( अस्य ) इसके ( मातुलः ) मामाको ( मुधा ) व्यर्थ ( किमाहूतः ) क्यों बुलाया । अत्र नीतिः (हि) निश्चयसे (मूढात्मा) मूर्ख पुरुष ( स्ववधाय ) अपने माशके लिये ( कृत्योत्थापनम् ) किसी कार्यके रचना करनेकी अपने आप ही ( इच्छति ) इच्छा किया करते हैं ॥ ३२ ॥ गोविन्दराजयुक्तोऽयं दुर्दान्तः किं विधित्सति। मरुत्सखे मरुडूते मह्यां किं वा न दह्यते ॥ ३३ ॥ अन्वयार्थः-(गोविंदराजयुक्तः) गोविंदरानसे युक्त होकर (अयं दुर्दातः) यह कठनाईसे दमन होनेवाला कुमार (किं विधिसति) क्या करैगा अर्थात् यह मेरे लिये सब अनिष्टोंको करनेके. लिये समर्थ है । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (मरुहूते) वायुके वेगसे प्रज्वलित ( मरुत्सखे ) अग्निके होने पर (मह्यां) पृथ्वीमें (किंवा) क्या वस्तु ( न दहयते ) नहीं जलती है अर्थात् सब, भस्मीभूत हो जाती हैं ॥ ३३ ॥ इति चिन्ताकुलं शg स्वामिमित्राणि चिक्षिपुः । विपदो वीतपुण्यानां तिष्ठन्त्येव हि पृष्ठतः॥ ३४॥ ____ अन्वयार्थः- ( स्वामिमित्राणि ) जीवंधर स्वामीके मित्रोंने (इति) इस प्रकार ( चिन्ताकुलं ) चिन्तासे व्याकुल (शत्रु) शत्रु काष्ठाङ्गारको (चिक्षिपुः) भड़काया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २१५ (बीतपुण्यानां) जिनका पुण्यकर्म क्षीण हो गया है उन पुरुषोंके ( विपदः ) विपत्तियां (पृष्टतः) पीछे ( तिष्ठन्ति एव ) लगी ही रहती हैं ॥ ३४ ॥ मत्प्तरी कौरवेणायं भर्तनादयुयुत्सत । मत्सराणां हि नोदेति वस्तुयाथात्म्यचिन्तनम् ॥३५॥ _अन्वयार्थः—फिर (अयं मत्सरी) मत्सर भाव रखने वाले इस काष्ठाङ्गारने ( भर्त्सनात् ) ताड़न और अपमानसे (कौरवेण सह) कुरुवंशी जीवंधर स्वामीके साथ (अयुयुत्सत) युद्ध करनेकी इच्छा की। अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे (मत्सराणां) मत्सरी पुरुषोंके ( वस्तुयथात्म्यचिन्तनम् ) पदार्थके यथार्थ स्वरूपका विचार करना (न उदेति ) नहीं होता है ॥ ३५ ॥ केचित्कौरवतः केचिदैरितोऽप्यभवनृपाः। सुजनेतरलोकोऽयमधुना न हि जायते ॥ ३६॥ _अन्वयार्थः-(युद्धे) उस युद्धमें (केचित् नृपाः) कुछ राजा तो (कौरवतः) जीवंधर स्वामीकी ओर ( अभवन् ) हो गये और (केचित् ) कुछ (बैरितः अपि ) शत्रुके पक्षमें ( अभवन् ) हो गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (सुजनेतरलोकः ) सज्जन और दुर्जनका पक्ष करनेवाला (अयं) यह संसार (अधुना) अभी ही (न जायते) नहीं होगया किन्तु हमेशासे चला आ रहा है ॥३६॥ कौरवोऽप्पाहवेऽरातिं लोकान्तरमजीगमत् । दुर्बला हि बलिष्ठेन बाध्यन्ते हन्त संस्मृतौ ॥३७॥ अन्वयार्थः-(कौरवः अपि) कुरुवंशी जीवंधर स्वामीने भी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१९ दशमो लम्बः। (आहवे) संग्राममें (अराति) शत्रुको (लोकान्तरं अजीगमत) परलोक पहुंचा दिया । अत्र नीतिः ! ( हन्त ! ) खेद है ! हाय ! (हि) निश्चयसे (संसृतौ) संसारमें (दुर्बलाः) दुर्बल प्राणी (बलिष्ठेन) बलवानोंसे (बाध्यन्ते) पीड़ित किये जाते हैं ॥ १७ ॥ अथ संग्रामसंरम्भं कौरवोऽयमवारयत् । मुधावधादिभीत्या हि क्षत्रिया वतिनो मताः ॥३८॥ __ अन्वयार्थः- (अथ) इसके अनंतर (अयं कौरवः) इस नीवंधर कुमारने शत्रुके मर जाने पर ( संग्रामसंरम्भं ) संग्रामके आरंभको (अवारयत ) बंद कर दिया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से (मुधा) व्यर्थ, निष्प्रयोजन (वधादिभीत्या) हिंसादिक पंच पापोंके डरसे ( क्षत्रियाः) क्षत्री लोग ( व्रतिनः मताः ) व्रती माने गये हैं ॥ ३८ ॥ वीरसर्विजया जाता वीरपत्नी च मे सुता। इत्युक्त्वा मातुलोऽधेनमानन्दाद पनन्दयत् ॥३९॥ अन्वयार्थः-मातुलः अपि) जीवंधर स्वामीके मामाने भी " (विनया वीरमूः) मेरी वहिन विजयाने वीरपुत्रको ( जाता) जना (च) और (मे सुता) मेरी पुत्री ( वीरपत्नी ) वीर पुरुषकी स्त्री (जाता) हुई " (इति) इस प्रकार ( उक्त्वा ) कहकर (एन) कुमारका ( आनंदात ) आनन्दसे ( अभ्यनन्दयत् ) अभिनन्दन किया ॥ ३९ ॥ समन्ततः समायाताः सामन्तास्तं सिषेविरे । समौ हि नाट्य सभ्यानां संपदां च लयोदयौ ॥४०॥ अन्वयार्थः--फिर (समन्ततः) चारो ओरसे ( समायातः ) Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ क्षत्रचूड़ामणिः । आए हुए ( सामन्ताः ) छोटे २ देशोंके राजा (तं सिषेविरे ) उनकी सेवा करने लगे। अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चयसे (नाव्यसभ्यानां) नाटकके सभ्यों अर्थात् दर्शकों के लिये (संपदा) नाटकके पात्रकी सम्पत्तिका ( लयोदयौ ) नाश और उदय ( समौ ) तुल्य होता है ॥ ४० ॥ राजपुर्यामगाचायमभिषेक्तुं जिनालयम् । भगवदिव्यसान्निध्ये निष्प्रत्यूहा हि सिद्धयः ॥४१॥ _अन्वयार्थः-फिर यह जीवंधरस्वामी (राजपुर्या) राजपुरी नगरीके अन्दर (निनालयं ) जिन मन्दिरमें ( अभिषेक्तुं ) राज्याभिषेकसे अभिषक्त होने के लिये (अगात ) चले गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( भगवदिव्यसानिध्ये ) भगवानकी दिव्य समीपता होने पर ( सिद्धयः ) सिद्धिये (निष्प्रत्यूहा भवन्ति) निर्विघ्न परिप्राप्त होती हैं ॥ ४१) तावता संन्यधात्तत्र यक्षो यक्षचरो मुदा । फल मेव हि यच्छन्ति पनसा इव सज्जनाः ॥४२॥ ____ अन्वयार्थः-(तावता) उसी समय (यक्षचरः यक्षः) कुत्तेका जीव यक्ष (मुदा) हर्षसे (तत्र) वहां ( संन्यधात् ) आया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( सज्जनाः ) सज्जन पुरुष (पनप्ता इव) कटहरके वृक्षकी तरह ( फलं एव ) फलको ही ( यच्छंति) देते हैं ॥ ४२ ॥ अथ गोविन्दराजेन यक्षराजो यथाविधि। अभ्यषिञ्चन्महाराज कौरवं गुरुगौरवात् ॥ ४३ ॥ अन्वयार्थः- (अथ) इसके अनंतर ( यक्षराजः ) यक्षेन्द्रने Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ दशमो लम्बः । ( गोविन्दराजेन सह ) गोविन्दराजके साथ (गुरुगौरवात् ) बड़े गौरवसे ( महारानं कौरवम् ) महाराजा जीवंधरस्वामीका ( यथा. विधि ) विधिपूर्वक ( अभ्यषिञ्चन् ) राज्याभिषेक किया ॥ ४३ ॥ अयादापृच्छय राजेन्द्रं यक्षेन्द्रोऽपि स्वमन्दिरम् । न ह्यासक्त्या तु सापेक्षो भानुः पद्मविकासने ॥४४॥ अन्वयार्थः- ( यक्षेन्द्रः अपि) यक्षेन्द्र भी (राजेन्द्र आप्टच्छ्य ) राजेन्द्रसे पूछ कर (स्व मन्दिरं ) अपने स्थानको ( अयात् ) चला गया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( भानुः ) सूर्य (पद्मविकासने ) कमलों के प्रफुल्लित होने पर ( आसक्त्या ) फिर किसी आसक्तिसे ( सापेक्षो न भवति ) अपेक्षा नहीं करता है । अर्थात् कमलोंको खिलाकर फिर उनसे कुछ संबंध नहीं रखता हुआ अस्ताचलकी ओर चला जाता है ॥ ४४ ॥ तर्पिताखिललोकोऽस्मात्सौधाभ्यन्तरमाश्रितः । सिंहासनमलंचक्रे राजसिंहः क्रमागतम् ॥ ४५ ॥ ___अन्वयार्थः-(तर्षिताखिललोकः) फिर प्रसन्न किया है सम्पूर्ण लोकको जिसने ऐसे ( राजसिंहः ) उन राजाओंमें श्रेष्ठ जीवंधर स्वामीने (अस्मात् ) इस जिन मन्दिरसे निकल कर (सौधाभ्यंतरमाश्रितः) और अपने महलको प्राप्त करके ( कमागतम् ) कुलपरंपरासे प्राप्त (सिंहासन) राजसिंहासनको (अलंचक्रे) सुशोभित किया ॥ ४५ ॥ तवृत्तान्तवितर्कोऽभूल्लोके विस्मयबृंहितः। अतर्व्यसंपदापयां विस्मयो हि विशेषतः ॥४६॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २१९ अन्वयार्थः-(लोके) फिर सारे लोकमें (विस्मयबंहितः) विस्मयसे वृद्धिंगत (तद्वृत्तान्तवितर्कः) जीवंधरस्वामीके वृत्तान्तका विचार (अभूत) हुआ । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( अतयं संपदापद्धयां) अचानक विना विचारे संपत्ति और आपत्तिसे (विशेषतः) अधिकतर (विस्मयः) आश्चर्य (भवति) हुआ करता है ॥४६॥ क पूज्यं राजपुत्रत्वं प्रेतावासे क वा जनिः। क वा राज्यपुनःप्राप्तिरहो कर्मविचित्रता ॥ ४७॥ ___अन्वयार्थः-(क्व) कहां तो (पूज्यं) वह पूज्य (राजपुत्रत्वं) रानपुत्र पना (कवा) और कहां उसका (प्रेतावासे जनिः) श्मशान भूमि में जन्म लेना (क्ववा ) और कहां ( राज्यपुनःप्राप्तिः ) यह फिरसे राज्यका मिल जाना (अहो !) अहो ! ( कर्मविचित्रता) कर्मों की विचित्रता पर आश्चर्य है ॥ ४७ ॥ पुण्यपापाहते नान्यत्सुखे दुःखे च कारणम् । तन्तवो न हि लूतायाः कूपपातनिरोधिनः ॥ ४८ ॥ ___अन्वयार्थ:-(हि) निश्चयसे ( पुण्यपापात् ) पुण्य और पापके (ऋते) बिना ( अन्यत् ) और कोई भी बस्तु (सुखे) सुख (च) और (दुःखे) दुखमें ( कारणं न ) कारण नहीं है । जैसे पापका उदय होनेसे ( लूतायाः) मकडीको उसके जालेके ( त न्तवः ) छोटे २ तन्तु भी ( कूपपातनिरोधिनः न भवंति ) कूपमें गिरनेसे रोकने वाले नहीं होते हैं ॥ ४८ ॥ हत्या जिघांसुमात्मानं लेभे राज्यं जिघांसितः। भाव्यवश्यं भवेदेव न हि केनापि रुध्यते ॥४९॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमो लम्बः । अन्वयार्थ : - ( जिघांसितः ) जिसको मारना चाहते थे उसने ( आत्मानं ) अपने (जिघांसुः) मारनेवालेको ( हत्वा ) मारकर ( राज्य ) राज्य (लेभे) ले लिया । अत्र नीतिः ! हि) निश्चयसे ( भावि ) जो कुछ होना है वह (अवश्यं एव) अवश्य ही ( भवेत् ) होता है ( केना ' प ) किसी से भी (न रुद्धते) नहीं रोका जाता है ॥ ४९ ॥ जिजीविषाप्रपञ्चेन जातोऽयं राजवञ्चकः । काष्टाङ्गारोऽपि नष्टोऽभूत्स्वयं नाशी हि नाशकः ॥ ५० अन्वयार्थ : - ( निनीविषा प्रपञ्चन) अपने जीने की इच्छाके विस्तार से (रानवञ्चकः) राजा को धोखे से मारनेवाला (अयं काष्ठाङ्गारः अपि ) यह काष्ठाङ्गार भी ( नष्टः अभूत् ) मारा गया अत्र नीतिः ( हि ) निश्चय से ( नाशी ) दुसरेका नाश करने वाला ( स्वयं नाशकः स्यात् ) अपना ही नाश करने वाला होता है ॥ ५० ॥ यक्षः क्षणोपकारेण प्राणदायी बभूव सः । काष्टाङ्गारः कृतघ्नोऽभूत्स्वभावो न हि वार्यते ॥ ५१ ॥ अन्वयार्थ : - ( स यक्षः ) कुत्तेका जीव वह यक्ष ( क्षणोपकोरण ) क्षणमात्रके उपकार से ( प्राणदायी वभूव ) जीवंधर स्वा मी प्राणोंके बचानेवाला हुआ और ( काष्ठाङ्गारः ) काष्ठाङ्गार ( कृतघ्नः अभूत् ) कृतघ्नी हुआ अर्थात् सत्यंधर महाराजने जिसे राज्य दिया था वही उन्हींके प्राणोंका घातक हुआ। अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चय से इसलिये ( स्वभावः ) प्रकृति किसीकी भी ( न वार्यते ) निवारण नहीं की जा सकती है ॥५१॥ अपकाररोपकाराभ्यां सदसन्तौ न भेदिनौ । दुग्धं च भाति कल्याणं केनाङ्गारविशुद्धता ॥ ५२ ॥ २२० Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणि । २२१ अन्वयार्थ:-( सदसन्तौ ) सज्जन और दुर्जन ( अपका रोपकाराभ्यां ) अपकार और उपकार करनेसे ( न भेदिनौ ) दुर्जन और सज्जन नहीं होनाते अर्थात् सज्जनके साथ अपकार करनेसे वह दुर्जन नहीं होजाते और दुर्जनके साथ उपकार करने से वह सज्जन नहीं होजाते है । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चय से ( दग्धं च कल्याणं ) जला हुआ भी सोना ( भाति ) शोभायमान होता है किन्तु ( अङ्गारविशुद्धता ) कोयलेकी शुद्धता ( केनापि उपायेन ) किसी भी उपाय से ( न भवति ) नहीं होती है ॥ ५२ ॥ रिक्तारिक्तदशायां च सदसन्तौ न भेदिनौ । वातापि हि नदी दत्ते पानीयं न पयोनिधिः ॥५३॥ अन्वयार्थः- ( रिक्तारिक्तदशायां च ) धनी और निर्धनकी अवस्था में भी ( सदसन्तौ ) सज्जन और दुर्जन ( न भेदिनौ ) भेदित नहीं होते है अर्थात् - निर्धन अवस्थामें भी सज्जन उपकार ही करते हैं परन्तु दुर्जन सघन अवस्थामें भी अपकार ही करता है । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( खातापि नदी ) सूख जाने पर खोदी हुई नदी ( पानीयं दत्ते ) प्यासोंको जल देती है किन्तु ( पयोनिधिः न ) लवालव जलसे भरा हुआ भी समुद्र किसीके उपयोग में नहीं आता ॥ ५३ ॥ इतीयं किंवदन्ती च तद्देशे शंवदाप्यभूत् । राजन्वती सती भूमिः कुतो वा न सुखायते ॥ ५४ ॥ अन्वयार्थः - (तद्देशे ) जीवंधर स्वामीके राजमें (अपि) भी (इति) इस प्रकार ( इयं किं वदन्ती) यह कहावत ( शंवदा अभूत) Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ दशमो लम्बः । सवको प्यारी हुई (हि) निश्चय से ( राजन्वती) उत्तम राजा से युक्त (सती) समीचीन (भूमि:) पृथवी ( कुतो वा न सुखायते ) क्या प्रजाको सुख देनेवाली नहीं होती है ? किन्तु होती ही है ॥ ५१ ॥ काष्ठाङ्गारकुडुम्बस्याप्यनुमेने सुखासिकाम् । स्वस्थानेsपि महाराजो न ह्यस्थानेऽपि रुटू सताम् ॥५५ अन्वयार्थः - ( महाराजः ) महाराज जीवंधरने ( काष्ठा ङ्गार कुटुम्बस्य ) काष्ठाङ्गारके कुटुम्बको (अपि) भी ( स्वस्थानेsपि ) अपने ही स्थान में ( सुखामिकाम् ) सुख पूर्वक रहनेकी ( अनुमेने ) अनुमति देदी । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( सतां ) सज्जन पुरुषों का ( रुटू ) क्रोध ( अस्थाने ) अयोग्य स्थान में ( न भवति ) नहीं होता है ॥ ५५ ॥ यौवराज्ये च नन्दाख्यं वृद्धक्षत्रोचिते पदे । गन्धोत्कटं च चक्रेऽसौ लोकवन्द्ये च मातरौ ॥५६॥ अन्वयार्थ : - ( फिर असौ ) इन जीवंधर स्वामीने ( यौवराज्ये) युवराज पदपर अपने छोटे भाई ( नन्दादयं ) नन्दायको (च) और ( वृद्धक्षत्रो चिते पदे ) बूढ़े क्षत्रियों के योग्य पदपर ( गन्धोत्कटं ) गन्धोत्कटको (च ) और ( लोकवन्द्ये ) लोकपूज्य ( पदे ) पदपर ( मातरौ ) दोनों माताओंको ( चक्रे ) स्थापित किया ।। ५६ ।। अकरामकरोद्धात्रीं वर्षाणि द्वादशाप्ययम् । महिषैः क्षुभितं तोयं न हि सद्यः प्रसीदति ॥५७॥ अन्वयार्थः — और ( अयं ) इन जीवंधर स्वामीने ( धात्रीं ) पृथ्वीको (णि) बारह वर्ष पर्यंत ( अकराम् ) कर Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (टैक्स ) से रहित ( अकरोत् ) करदी । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( महिषैः ) भैसाओंसे (क्षुभित तोयं ) गदला किया हुआ जल ( सद्यः ) शीघ्र ही (न प्रसीदति ) निर्मल नहीं होता है ॥१७॥ पनवक्त्रादिमित्रेभ्यो यथायोग्यमदास्पदम् । अविशेषपरिज्ञाने न हि लोकोऽनुरज्यते ॥ ५८॥ ___अन्वयार्थः-और इन जीवंधर स्वामीने ( पद्मवक्त्रादि मित्रेभ्यः ) पद्मास्यादिक मित्रोंके लिये ( यथायोग्यं पदं ) यथा योग्य पद ( अमात् ) दिये । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे ( अविशेषपरिज्ञाने ) साधारण सामान्य सत्कारसे ( लोकः ) लोग ( न अनुरज्यते ) अनुरजायमान नहीं होते हैं । अर्थात्जीवंधर स्वामीने मित्रोंपर कौन किस पदके योग्य है ऐसा परिज्ञान करके उनको यथायोग्य पद दि । ॥ ५८ ॥ पद्मादयोऽपि तद्देव्यः समागत्य तदाज्ञया। तं समीक्ष्य क्षणे चासन्क्षीणाखिलमनोव्यथाः ५९॥ ___अन्वयार्थः- ( तदाज्ञया पद्मादयोऽपि देव्यः ) उस समय महाराजकी अज्ञासे पद्धा आदिक उनको स्त्रिये ( समागत्य) आकर ( तं समीक्ष्य) उन जीवंधर स्वामीको देखकर (क्षणे च ) उस समय (क्षणाखिलमनोव्यथाः ) सम्पूर्ण मनकी पीडासे रहित ( आसन् ) हुई ॥ ५९ ॥ चिरस्थाय्यपि नष्टं स्याद्विरुहार्थे हि वीक्षिते । सन्निधावपि दीपस्य किं तमिस्र गुहामुखम् ॥३०॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशमो लम्बः । अन्वयार्थः -- ( हि ) निश्चय से ( विरुद्धार्थे ) विरुद्धं पदार्थ ( वीक्षिते ) देखनेपर ( चिरस्थाय्यपि ) चिरकाल से स्थित पदार्थ (अपि) भी ( नष्टं स्यात् ) नष्ट होजाते हैं अर्थात् जरासा सुख मिलने से पूर्व के सत्र दुःख भूल जाते हैं ( दीपस्य संन्निधावपि ) दियेके समीप आनेपर भी ( किं ) क्या ( गुहामुखं ) गुफाओंका मुख ( तमिस्रं ) अन्धकार युक्त ( स्यात् ) रहसकता है ? नहीं ॥ ६० ॥ २२४ अथायं नवुतेः पुत्री दत्तां गोविंन्दभूभुजा | पर्यणैषीन्महाराजः पार्थिवैर्विहिनोत्सवः ॥ ६१ ॥ अन्वयार्थः — ( अथ ) इसके अनंतर ( पार्थिवैः विहितो - त्सवः ) राजाओंने किया है उत्सव जिनके लिए ऐसे (अयं महाराजः) इन महाराज जीवंधर ने ( गोविन्दभूभुजा ) गोविन्दराजसे ( दत्तां ) दी हुई ( नुवते: ) नुवतीकी (पुत्रीं ) पुत्री लक्ष्मणाको ( यथाविधि पर्यणैषीत् ) विधिपूर्वक व्याही ॥ ६१ ॥ इति श्रीमद्वादिमसिंहसूरिविरचिते क्षत्रचूडामणौ सान्वयार्थो लक्ष्मणा लम्भो नाम दशमो लम्बः ॥ - 2008 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । एकादशो लम्बः - -- अथ राज्यश्रिया लब्ध्वा लक्ष्मणां मुमुदे कृती। चिरकाङ्कितलाभे हि तृप्तिः स्यादतिशायिनी ॥१॥ ___अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनंतर (कृती) विद्वान् महाराजा जीवंधर ( राज्यश्रिया सह ) राज्यलक्ष्मीके साथ (लक्ष्मणां लब्ध्वा) लक्ष्मणाको प्राप्त करके (मुमुदे) अत्यन्त प्रसन्न हुए । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( चिरकाशित लाभे ) चिरकालकी चाही हुई वस्तु की प्राप्ति होनेपर ही ( अतिशायिनी) बड़ी भारी (तृप्तिः) प्रसन्नता ( स्यात् ) होती है ॥ १॥ लब्ध्वा राज्यमयं राजा रेजे सर्वगुणैरपि । काचो हि याति वैगुण्यं गुण्यतां हारगो माणः ॥२॥ अन्वयार्थः-( अयं राजा ) यह महारान जीवंधर (राज्यं लब्ध्वा ) राज्यको प्राप्त करके ( सर्वगुणैः अपि) और सब गुणोंसे भी (रेजे) शोभायमान हुए । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( हारगः काचः ) हारलतामें पिरोया हुआ कांच (वैगुण्यं याति) बुरा प्रतीत होता है (तु) और उस स्थान पर पिरोई हुई (मणिः) मणि (गुण्यतां याति) बहुत ही शोभायमानपनेको प्राप्त होती है। ___ अर्थात्--सर्व गुण सम्पन्न जीवंधर कुमारको राज्यकी प्राप्ति सुवर्णमें सुगंधकी तरह हुई ॥२॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ एकादशो लम्बः । कृतिनामेकरूपा हि वृत्तिः संपदसंपदोः। न हि नादेयतोयेन तोयधेरस्ति विक्रिया ॥ ३ ॥ ___अन्वयार्थः-( हि ) निश्चयसे (संपदसंपदोः ) सम्पत्ति और विपत्तिमें (कृतिनां) बुद्धिमानोंकी ( वृत्तिः ) वृत्ति (एकरूपा भवेत् ) एकसी रहती है । सच है-(नादेयतोयेन ) नदीके जलसे (तोयधेः) समुद्र में (विक्रियानास्ति) विकार भाव नहीं होता है ॥३॥ सुखदुःखे प्रजाधीने तदाभूतां प्रजापतेः । प्रजानां जन्मवर्ज हि सर्वत्र पितरौ नृपाः॥ ४॥ अन्वयार्थः- ( तदा ) उस समय अर्थात् राज्य मिलने पर (प्रजापतेः ) महाराज जीवंधरके ( सुखदुःखे ) सारे सुखदुख (प्रजाधीने) प्रजाके आधीन (अभूताम् ) हो गये अर्थात् प्रजाके सुख दुःखसे वह अपनेको सुखी दुःखी समझने लगे । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से ( जन्मवर्ज ) जन्म देनेके सिवाय सर्वत्र अन्य सब विषयोंमें (नृपाः) राजा ही (प्रनानां ) प्रजाके (पितरौ स्तः ) मां बाप हैं ॥ ४ ॥ आसीत्प्रीतिकरं तस्य करदानं च दानवत् । वृषलाः किं न तुष्यन्ति शालेये बीजवापिनः ॥५॥ ___ अन्वयार्थः--(च) और (तस्य) उसकी प्रनाको (करदान) रानाको महसूल देना भी (दानवत ) दान देनेकी तरह (प्रीतिकर) प्रीतिकर अर्थातू आनंददायक (आसीत्) हुआ । अत्र नीतिः ! (हि ) निश्चमसे ( शालेये) पान्यके खेतों ( श्री नापिनः ) बीज बोनेवाले ( वृपलाः) किन लोग (किं) का (न तुप्यंति) संतुष्ट नहीं होते हैं, होते ही हैं । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २२७ अर्थात् जिस प्रकार किसान खेतमें बीज बोनेसे खुश होता है उसी प्रकार प्रजा राजाको कर देने में प्रसन्न थी ॥ ५ ॥ मित्रोदासीनशत्रूणां विषयेष्वपसर्पतः । तदज्ञानेऽपि तद्ज्ञानात्त देवासीत्प्रतिक्रिया ॥ ६ ॥ अन्वयार्थः -- ( तदज्ञानेऽपि ) उस राजा के राज्य में राजाको स्वयं किसी कार्यका साक्षात् ज्ञान नहीं होनेपर भी ( मित्रोदासीन. शत्रूणां ) मित्र, शत्रु और उदासीन राजाओंके ( विषयेषु) देशों में ( अपसर्पतः ) घूमने वाले गुप्तचरों द्वारा ( तद्ज्ञानात् ) उनका सारा वृत्तान्त जानकर ( तदाएव ) उसी समय (तत्प्रतिक्रिया ) उसका उपाय ( आसीत् ) होता था ॥ ६ ॥ . रात्रिंदिवविभागेषु निघतो नियतिं व्यधात् । कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति ॥ ७ ॥ अन्वयार्थ : - ( नियत ) नियम पूर्वक कार्य करनेवाले उस राजाने ( रात्रिन्दिवविभागेषु ) रातदिन के विभागों में ( नियति ) नियत किये हुए कार्यको (व्यधात् ) यथा समय पर किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( कालातिपातमात्रेण ) काम करने योग्य समयके निकल जाने पर (कर्तव्यं विनश्यति) योग्य कार्य नष्ट होते हैं ॥ ७ ॥ तपसा हि समं राज्यं योगक्षेमप्रपञ्चतः । श्रमादे सत्यधःपातादन्यथा च महोदयात् ॥ ८ ॥ अन्वयार्थ :- (हि) निश्रयसे ( योगक्षेमपपञ्चतः) योग और ओमके विस्तार से (तपसा समं राज्यं) तपके समान राज्य है अर्थात् Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशो लम्बः । जिस प्रकार तपमें योग और क्षेमकी (मन वचन काय रूप योगोंके रोकनेकी) आवश्यकता है उसी प्रकार राज्यमें योग और क्षेमकी आवश्यकता है । कभी नहीं प्राप्त वस्तुके पानेको योग कहते हैं। और प्राप्तकी रक्षा करना क्षेम कहलाता है। और (प्रमादे सति) प्रमाद होने पर अर्थात् राजा और तपस्वी राज्य पालन और तपस्यामें यदि प्रमाद करे तो ( अधःपताद् ) दोनोंका अधः पतन होता है (च) और (अन्यथा) प्रमाद रहित योग और क्षेम पालन करनेसे ( महोदयात् ) दोनोंका महान् उदय होता है ॥ ८ ॥ प्रबुद्धेऽस्मिन्भुवं कृत्स्नां रक्षत्येकपुरीमिव । राजन्वती च भूरासीदन्वर्थ रत्नसूरपि ॥९॥ _____ अन्वयार्थः-(प्रवुद्धेऽस्मिन्) सारे कार्योंमें सावधान इस राजाके ( एक पुरीं इव ) एक पुरी (नगरी) के समान (सत्म्नां भुवं) सारी पृथ्वीकी (क्षति सति) बुद्धिमानीसे रक्षा करनेपर (भू ) पृथ्वी ( रामवती ) श्रेष्ठ रामासे युक्त (अन्वर्थ) सार्थक (रत्नसुरपि) रत्नगर्भा (आसीत् ) हुई ॥९॥ एवं विराजमानऽस्मिन्राजराजे महोदये । विजया जननी तस्य विरक्ता संसृतावभूत् ॥१०॥ ___अन्वयार्थः- एवं इस प्रकार (महोदये) महान् उदयवाले (अस्मिन् राजराजे इस राजेश्वरके (विराजमाने) विराजमान होने पर विनयातस्य जननी विजया नामकी जीवंधरकी माता (संसृतो विरक्ता) संसारसे विरक्त ( अभूत् ) हुई अर्थात् उसे वैराग्य उत्पन्न हुआ ॥ १० ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिं । पैतृक पदमद्राक्षमत्राहं पुत्रपुङ्गवे । कृताः पुरोपकारः कृतकृत्या यथोचितम् ॥ ११ ॥ ___अन्वयार्थः-( अत्र पुत्रपुङ्गवे ) इस पुत्र श्रेष्टमें ( अहं) मैंने (पैतृकं ) पिताके ( पदं ) पदको अर्थात् राजाके पदको (अद्राक्षम्) देख लिया और (पुरोपकारः) पहले उपकार करनेवाले भी (यथोचितम् ) यथोचित (कृतकृत्याः) कृतकृत्य (कृताः) कर दिये। अर्थात्-पहिले जिन्होंने हमपर उपकार किया था उन सबका हमने प्रत्युपकार कर दिया ॥ ११ ॥ फलं च पुण्यपापानां मया मय्येव वीक्षितम् । शास्त्रादृते किमन्यत्र कर्मपाकोऽयमीक्षितः ॥१२॥ अन्वयार्थः---(च) और जब (मया) मैंने (शास्त्रादऋते) शास्त्रोंक विना (मयि एव) आपमें ही ( पुण्यपापानां ) पुण्य और पापका फल (वीक्षितम्) देख लिया तो (पुनः) फिर (अयं कर्मपाक:) यह कर्मोका फल (अन्यत्र) दूसरे स्थानमें ( मया किं ईक्षितः ) मैं क्यों देखू ॥ १२ ॥ अतोऽपास्य सुतस्नेहं तपस्यामि यथोचितम् । ज्ञात्वापि कुण्डपातोऽयं कुत्सितानां हि चेष्टितम् ॥१३ अन्वयार्थः-(अतः) इसलिये (अहं) मैं (सुतस्नेह) पुत्रका मुंह ( अपास्य ) छोड़ करके ( यथोचित ) जैसा चाहिये वैसा (तपस्यामि) तप करूंगी। अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (संसार भावं ज्ञात्वापि) संसारके स्वभावको जानकर मी फिर (अयं कुण्ड Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० एकादशो लम्बः । पातः) इस संसार रूपी गड्ढे में पड़े रहना ( कुत्सितानां ) नीच पुरुषोंकी ( चेष्टतम् ) चेष्ठा है ॥ १३ ॥ इति वैराग्यतस्तस्याः सुनन्दापि व्यरज्यत । पाके हि पुण्यपापानां भवेद्वाह्यं च कारणम् ॥१४॥ अन्वयार्थः-(इति) इस प्रकार (तस्याः) विजया रानीके ( वैराग्यतः ) विरक्त हो जानेपर (सुनन्दापि) गन्धोत्कटकी स्त्री सुनन्दा भी (व्यरज्यत) संसारसे विरक्त हो गई । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (पुण्यपापानां च) पुण्य और पापके (पाके) उदय आनेमें ( बाह्य कारणं ) बाह्य कारण (भवेदेव) अवश्य ही होता ततः कृच्छायामाणं ते महीनाथं च कृच्छतः। अनुज्ञाप्य ततो गत्वादीक्षिषातां यथाविधि ॥१५॥ ___ अन्वयार्थः-(ततः) इसके अनंतर (ते) उन दोनों माताओंने (कच्छ्रायमाणं) शोकयुक्त (महीनाथ) जीवंधर स्वामीको (कृच्छ्रतः) किसी न किसी प्रकार कष्टसे (अनुज्ञाप्य ) समझा कर ( ततो गत्वा ) और घरसे वनमें जाकर (यथाविधि) विधिपूर्वक (अदीक्षिषातां) जिन दीक्षा लेली ॥ १५ ॥ पद्माख्या श्रमणीमुख्या विश्राण्य श्रमणीपदम् । तन्मातृभ्यां ततस्तं च महीनाथमबोधयत् ॥ १६ ॥ - अन्वयार्थः ---(श्रमणीमुख्या) उस समय सम्पूर्ण अभिकाओंमें श्रेष्ठ (पद्माख्या) पद्मा नामकी अर्जिकाने ( तन्मातृभ्यां ) उन दोनों माताओंके लिये ( श्रमणी पदम् ) अनिकाका पद Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (विश्राण्य) देकर (ततः) फिर (तं च महीनाथं) उन जीवंधर महाराजको ( अबोधयत् ) प्रतिबोधित किया ॥ १६ ॥ प्रव्रज्या जातुचित्पाज्ञैः प्रतिषेढुं न युज्यते । न हि खादापतन्ती चेद्रनवृष्टिर्निवार्यते ॥ १७॥ : अन्वयार्थः-(प्राज्ञैः) बुद्धिमानोंको ( जातचित् ) कभी भी (प्रव्रज्याः) किसीकी दीक्षा लेनेको (प्रतिषे९) रोकना (न युज्यते) उचित नहीं है । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे ( चेत् ) यदि ( खाद् ) आकाशसे ( रत्नवृष्टिः ) रत्नोंकी वर्षा ( आपतन्ती) होती है तो (न निवार्यते) रोकी नहीं जाती उसी प्रकार ॥१७॥ वयस्यन्तेऽपि वा दीक्षा प्रेक्षावद्भिरपेक्ष्यताम् । भस्मने रनहारोऽयं पंडितैर्न हि दयते ॥ १८॥ अन्वयार्थः- (अपि वा) और (प्रेक्षावद्भिः) बुद्धिमान पुरुष ( अन्ते वयसि ) अवस्थाके अन्तमें ( दीक्षा ) जिन दीक्षा ग्रहण करनेकी ( अपेक्ष्यताम् ) अपेक्षा किया करते हैं। अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे (पण्डितैः ) पण्डित पुरुष ( अयं रत्नहारः ) इस मनुष्य जन्म रूपी रत्नोंके हारको ( भस्मने ) इन्द्रिय विषय रूपी भस्मके लिये ( न दह्यते ) नहीं जला देते हैं ॥ १८॥ इति प्रबोधितो नत्वा प्रसवित्रीं सकाशतः । प्रश्रयेण गतो राजा प्राविक्षनृपमन्दिरम् ॥ १९ ॥ अन्वयार्थः- ( इति ) इसप्रकार ( प्रबोधितः ) समझाये हुए ( राजा ) जीवंधर महाराजने ( नत्वा ) नमस्कार करके (प्रसवित्रीं सकाशतः ) माताके समीपसे (प्रश्रयेण गतः ) विनय Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ एकादशो लम्बः । पूर्वक लौटकर ( नृपमन्दिरम् प्राविक्षत् ) राजमन्दिरमें प्रवेश किया ॥ १९॥ न चिराद्धि पदं दत्तं कृतिनां हृदि विक्रिया। यदि रत्नेऽपि मालिन्यं न हि तत्कृच्छशोधनम्॥२०॥ __अन्वयार्थः---(हे यथा) निश्चयसे जिस प्रकार (विक्रिया) इष्ट वियोगादि जन्य शोकादि भाव ( कतिनां हृदि ) बुद्विमानोंके हृदयमें ( चिरात ) बहुत काल तक ( पदं ) स्थानको (न दत्ते ) प्राप्त नहीं करता है। उसी प्रकार (रत्ने अपि) रत्नमें भी ( यदि मालिन्यं ) यदि मलिनता हो तो (तत्कृच्छ्रशोधनम् न ) उसका साफ होना कुछ कठिन नहीं हैं ॥ २० ॥ अथास्य क्षात्रविद्यस्य क्षणवद्भुञ्जतो महीम् । त्रिदशोपमसौख्येन त्रिंशद्वर्षाण्ययासिषुः ॥ २१ ॥ ___अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनंतर ( क्षात्रविद्यस्य ) क्षत्र विद्याको जाननेवाले और (त्रिदशोपमसौख्येन ) देवताओंके समान सुखमे (महीं) पृथ्वीको (भुञ्जतः) भोगते हुए (अस्य) इन जीवंधर महाराजके (त्रिंशत् वर्षाणि) तीस ३० वर्ष ( क्षणवत् ) एक क्षणभरके समान (अयासिपुः) बीत गये ॥ २१ ॥ ततः कदाचिदस्यासीजलक्रीडामहोत्सवः । वसन्ते सह कान्ताभिरष्टाभिरतिकौतुकात् ॥ २२॥ अन्वयार्थः- (ततः) इसके अनंतर (कदाचित्) कभी (वसन्ते) वसन्त ऋतुमें ( अष्टाभिः कान्ताभिः सह ) अपनी आठ स्त्रियोंके साथ (अतिकौतुकात ) बड़े कौतुकसे ( अस्य ) इन जीवंधर Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ क्षत्र चूड़ामणिः । स्वामीको ( जलक्रीडामहोत्सवः ) जलक्रीड़ाका महान उत्सव ( आसीत् ) प्राप्त हुआ ॥ २२ ॥ जलक्रीडाश्रमात्सोऽयमाक्रीडे च सनीडके । क्रीडन्कापटिकैः श्लाध्यं कापेयं निरवर्तयत् ॥२३॥ अन्वयार्थ : - (सः अयं ) फिर उन इन जीवंधर कुमारने -( ( जलक्रीड़ाश्रमात् ) जलक्रीड़ाके परिश्रमसे थककर (सनीडके ) लतामण्डप युक्त (आक्रीडे) किसी उद्यान (बगीचे) में (कापटिकैः क्रीड़न) बन्दरोंके साथ क्रीड़ा करते हुए (लाध्यं कापेयं) प्रशंसनीय बन्दरोंकी चेष्टा ( निरवर्तयत् ) देखी ॥ २३ ॥ अन्यसंपर्कतः क्रुद्धां मर्कटीं कोऽपि मर्कटः । प्रकृतिस्थां बहुपायैर्नाशकत्कर्तुमुद्यतः ॥ २४ ॥ अन्वयार्थः – तत्पश्चात् (कोऽपि ) कोई एक (मर्केट) बंदर (अन्यसंपर्कतः) दुसरी किसी और बंदरीसे सम्भोग करनेके कारण (कुद्धां) क्रोधित (मर्कटीं) अपनी प्यारी बंदरीको (बहूपायै :) बहुत उपायों से ( प्रकृतिस्थां ) पूर्वकी तरह प्रसन्न (कर्तुं ) करने के लिये ( उद्यतः नअशकत् ) समर्थ नहीं हुआ || २४ ॥ ततः शाखामृगोऽप्यासीन्माथिको मृतवद्दशः । तदवस्थां भयग्रस्ता वानरोऽयमपाकरोत् ॥ २५ ॥ अन्वयार्थः -- ( ततः ) फिर ( मायिकः ) छली मायावी ( शाखा मृगः अपि ) वह बंदर भी ( मृतवद्दशः ) मरे हुएके तुल्य दशा वाला ( आसीत् ) होगया । अर्थात् श्वास रोक कर पृथ्वी पर लेट गया । वह देख ( भयग्रस्ता ) भयसे पीड़ित Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ एकादशो लम्बः । ( इयम् वानरी ) इस बंदरीने ( तदवस्थां ) उसकी मृत तुल्य अवस्थाको ( अपाकरोत् ) दूर कर दिया ॥ २५ ॥ हर्षलो हरिरप्यस्यै पन सस्य फलं ददौ । वनपालो जहारैतद्वानरीमपि भर्त्सयन् ॥ २६ ॥ अन्वयार्थ :- ( हर्षल : हरिः अपि ) तब हर्षित उस बंदर ने भी ( अस्यै) इस अपनी वानरी के लिये ( पनसस्य फलं ) एक पनसका फल ( ददौ ) दिया परन्तु ( बानीं अपि भर्त्सयन् ) वानरीको भगा कर ( बनपाल : ) बनपालने ( एतद् जहार ) यह फल छीन लिया ॥ २६ ॥ इत्यशेषं विशेषज्ञो वीक्षमाणः क्षितीश्वरः । तत्क्षणे जातवैराग्यादनुप्रेक्षामभावयत् ॥ २७ ॥ अन्वयार्थ : - ( इति ) यह ( अशेषं ) सब घटना ( वीक्षमाणः ) देखनेवाले ( विशेषज्ञः ) विद्वान् ( क्षितीश्वरः ) इन महाराज जीवंधरने ( तत्क्षणे ) उस समय ( जातवैराग्यातू ) वैराग्य उत्पन्न होने से पहले ( अनुप्रेक्षाम् ) बारह भावनाओंका ( अभावयत् ) चिन्तवन किया ॥ २७ ॥ १ - अथानित्यत्वानुप्रेक्षा । मद्यते वनपालोऽयं काष्ठाङ्गारायते हरिः । राज्यं फलायते तस्मान्मयैव त्याज्यमेव तत् ॥ २८ ॥ अन्वयार्थः—( अयं वनपाल : ) यह वनपाल ( मद्यते ) मेरे समान है, ( हरिः ) बानर ( काटा ङ्गारायते । काष्टाङ्गारके समान है, और ( राज्यं ) राज्य ( फलायते) पनस फलके समान Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः। . २३५ है ( तस्मात ) इसलिये ( तत् ) यह राज्य ( मया एव ) मेरेसे (त्याज्यं एव) छोड़ने ही योग्य है ॥ २८ ॥ जाताः पुष्टा पुनर्नष्टा इति प्राणभृतां प्रथाः। न स्थिता इति तत्कुर्याः स्थायिन्यात्मन्पदे मतिम्२९ ___ अन्वयार्थः-(जाताः) जन्म धारण कर (पुष्टाः ) पुष्ट हुए (पुनर्नष्टाः ) और फिर नष्ट हो गये (इति) ऐसी (प्राणभृतां ) संसारमें प्राणियोंकी ( प्रथाः) परिपाटी है (नकेऽपि स्थिताः ) कोई भी स्थिर नहीं है (तत् ) इसलिये (हे आत्मन् ! ) हे आत्मा ! ( स्थायिनी पदे ) सदा स्थिर रहनेवाले मोक्षस्थानमें ही ( मतिं ) बुद्धि अर्थात् अपने ध्यानको (कुर्याः) लगा ॥२९॥ स्थायीति क्षणमात्र वा ज्ञायते न हि जीवितम् । कोटेरप्पधिकं हन्त जन्तूनां हि मनीषितम् ॥३०॥ ___अन्वयार्थः--(हि) निश्चयसे ( जीवितम् ) यह जीवन (क्षणमात्रं वा ) क्षणमात्र भी (स्थायीति न ज्ञायते ) स्थायी नहीं जान पड़ता है । हन्त ! खेद है ! फिर भी ( जन्तूनां ) प्राणियोंकी ( मनीषितम् ) इच्छायें ( कोटैरपि अधिक ) क्रोड़ोंसे भी अधिक है ॥ ३० ॥ अवश्यं यदि नश्यन्ति स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसूतिरन्यथा ॥३१ अन्वयार्थः- यदि ) अगर (विषयाः ) इन्द्रियोंके विषय (चिरं ) बहुत काल तक (स्थित्वापि) स्थिर रहकर भी (अवश्य) अवश्य ( नश्यन्ति ) नाशको प्राप्त हो जाते हैं। तो ( स्वयं ) Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ एकादशो लम्बः। स्वयं ही ( त्याज्याः ) छोड़ देने चाहिये ( तथाहि ) ऐसा करने पर ( मुक्तिः स्यात् ) आत्मा कर्म बन्धनसे छूट जाती है। ( अन्यथा ) और इसके विपरीत करनेसे ( संसृतिः एव स्यात् ) संसार ही होता है अर्थात् फिर संसारमें घूमना पड़ता है ॥३१॥ अनश्वरसुग्वावाप्तौ सत्यां नश्वरकायतः । किं वृथैव नयस्यात्मन्क्षणं वा सफलं नय ॥ ३२ ॥ ____ अन्वयार्थ ---(हे आत्मन् !) और हे आत्मा ! यदि (नश्वरकायतः) नाशवान शरीरसे ( अनश्वरसुखावाप्तौ सत्यां ) अविनाशी सुख अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो सके तो (किं) क्यों (वृथा एव) वृथा ही (क्षणं) समयको (नयसि) खोता हैं (सफलं नय) तू इस समयको सफल कर ॥ ३२ ॥ २-अथाशरणानुप्रेक्षा । पयोधौ नष्टनौकस्य पतत्रेरिव जीव ते । सत्यपाये शरण्यं न तत्स्वास्थ्ये हि सहस्रधा ॥३३॥ ___अन्वयार्थः-(हे जीव) हे जीव ! (पयोधौ) समृद्रमें (नष्टनौकस्य) डूब गया है नौकारूपी आश्रय जिसका ऐसे (पतत्रेरिव) बक्षीकी तरह (ते) तेरे (अपाये सति) नाश अर्थात् मृत्युके समय (शरण्यं न) कोई भी शरण नहीं है । अत्र नीतिः ! (हि निश्चयसे (स्वास्थ्ये) सुखी अवस्थामें (सहस्रधा शरण्यं भवंति) हजारों शरण हो जाते हैं ॥ ३३ ॥ आयुधीयैरतिस्निग्धैर्बन्धुभिश्चाभिसंवृतः। जन्तुः संरक्ष्यमणोपि पश्यतामेव नश्यति ॥३४॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः-(आयुधीयैः) आयुधको लिये हुए (अतिस्निग्धैः) अत्यन्त प्यारे ( बंधुभिः ) बन्धुओंसे ( अभिसवृतः ) चारों ओरसे घेरे हुए और (रक्ष्यमाणः अपि) संरक्षित भी (जन्तुः) प्राणी ( पश्यताम् एव ) देखनेवालोंके ही अगाड़ी ( नश्यति ) नाशको प्राप्त होता है ॥ ३४ ॥ मन्त्रयन्त्रादयोऽप्यात्मस्वतन्त्रं शरणं न ते। किंतु सत्येव पुण्ये हि नो चेत्के नाम तैः स्थिताः॥३५ _अन्वयार्थः-(हे आत्मन् ! ) हे आत्मा ! (मन्त्रयन्त्रादयः अपि) मन्त्र यन्त्रादिक भी (ते) तेरे (स्वतंत्र) स्वतन्त्र (शरणं न) रक्षक नहीं हैं (किन्तु) क्योंकि ( पुण्ये सति एव ) पुण्य होने पर ही यह सब सहायता करते हैं ( नो चेत् ) यदि पुण्यका उदय नहीं है तो (तैः ) इन मन्त्र तन्त्रादिकोंसे ( के नाम स्थिताः) कौन संसारमें स्थिर रहे अर्थात् कोई भी स्थिर न रहे ॥ ३५ ॥ ३-अथ संसारानुप्रेक्षा । नटवन्नैकवेषेण भ्रमस्यात्मन्स्वकर्मतः।। तिरश्चि निरये पापादिविपुण्याद्यान्नरे ॥ ३६॥ अन्वयार्थः-(हे आत्मन् ! ) हे आत्मा ! ( त्वं ) तू (नैक वेषेण ) नाना प्रकारके वेष धारण करके ( नटवत् ) नटके समान ( स्व कर्मतः ) अपने कर्मोके वशसे ( भ्रमसि ) घूम रहा है और ( पापात् ) पापसे ( तिरश्चिनिरये ) तिर्यंच और नरक गतिमें, ( पुण्यात् ) पुण्यसे (दिवि ) स्वर्गमें और ( हयात ) पुण्य, पापसे (नरे) मनुष्य गतिमें जन्म धारण करता है ॥ ३६ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ एकादशो लम्बः । पश्चानन इवामौक्षादसिपञ्जर आहितः। क्षणेऽपि दुःसहे देहे देहिन्हन्त कथं वसेः ॥३७॥ _अन्वयार्थः- (हे देहिन् ) हे देहिन् ! ( हन्त ! ) खेद है। (असिपञ्जर आहितः) त् लोहेके पिंजरेमें कैद हुए (पञ्चानन इव) सिंहकी नाई जो ( आमोक्षात् ) बिना मोक्षके ( क्षणेऽपि दुःसहे ) क्षण मात्र भी नहीं सहा जाय ऐसे (देहे ) शरीरमें ( कथं ) किस प्रकार ( वसेः ) रहता है ॥ ३७ ।। तन्नास्ति यन्न वै भुक्तं पुद्गलेषु मुहुस्त्वया । तल्लेशस्तव किं तृप्त्यै बिन्दुः पीताम्बुधेरिव ॥३८॥ ___अन्वयार्थः-और हे आत्मन् ! ( पुद्गलेषु ) पुद्गलोंमें (तद नास्ति) भी कोई परमाणु ऐसा नहीं है ( यत् ) जो ( त्वा) तूने ( मुहुः ) बार २ ( न वै भुक्तं ) नहीं भोगा हो और ( तल्लेशः ) इन पुद्गलोंका लेश ( पीता ) पी हुई ( अम्बुधेः) समुद्रकी ( बिन्दुः इव ) बूंदके समान ( किं ) क्या ( तव ) तेरी (तृप्त्यै) तृप्ति के लिये है (अपितु न स्यात्) कदापि नहीं हैं ॥३८॥ भुक्तोज्झितं तदुच्छिष्ट भोक्तुमेवोत्सुकायसे । अभुक्तं मुक्तिसौख्यं त्वमतुच्छं हन्त नेच्छसि ॥३९॥ अन्वयार्थः-और हे आत्मन् (त्वं) तू (भुक्तोज्झितं) भोगकर छोड़ी हुई (तद् उच्छिष्ठं) उस ही उच्छिष्टको (भोक्तुं एव) फिर भोगनेके लिये (उत्सुकायसे) उत्कंठित हो रही हैं। (हन्त !) खेद है ! लो भी (त्वं) तू (अभुक्तं) पूर्वमें नहीं किया है भोग जिसका ऐसे (अतुच्छ) महान (मुक्तिसौख्यं) मोक्षरूपी सुखको (न इच्छसि) इच्छा नहीं करता है ॥ ३९ ॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । संसृतौ कर्म रागाद्यैस्ततः कायान्तरं ततः । इन्द्रियाणीन्द्रियद्वारा रागाद्याश्चक्रकं पुनः ॥ ४० ॥ १३९ 1 अन्वयार्थः - (संसृतौ) संसार में ( रागाद्यैः ) रागादिक भावोंसे (कर्म) कर्म बंधते हैं । और फिर ( ततः) उसी कर्म से ( कायान्तरं ) नवीन शरीर उत्पन्न होता है। और फिर (ततः) उसी शरीर से (इन्द्रियाणि) इन्द्रियां उत्पन्न होती हैं और (इन्द्रियद्वारा रागाद्याः) इन्द्रियोंके द्वारा ही राग द्वेवादिक होते हैं । और फिर (पुनः) इसी प्रकार (चक्र) संसारचक्रकी उत्पत्ति होती है । ॥ ४० ) सत्यनादौ प्रवन्धेस्मिन्कार्यकारणरूपके । येन दुःखायसे नित्यमद्य वात्मन्विमुञ्च तत् ॥४१॥ अन्वयार्थः -- ( कार्य कारण रूपके) कार्य कारण रूप ( अनादौ ) अनादि ( अस्मिन् प्रबन्धेसति ) इस प्रबन्धके होनेपर ( येन ) जिससे ( त्वं नित्यं दुःखायसे) तु नित्य दुखी होता है इस लिये (हे आत्मन् !) हे आत्मन् ! ( अद्यवा) अभी (तत् विमुञ्च) इसको छोड़दे ॥ ४१ ॥ ४ - अथैक्त्वानुप्रेक्षा । त्यक्तोपात्तशरीरादिः स्वकर्मानुगुणं भ्रमन् । त्वमात्मनेक एवासि जनने मरणेऽपि च ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थः —– (हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (त्यक्तोपात्त शरीरादिः) छोड़कर फिर ग्रहण किया है शरीरादिकको जिसने ऐसा ( त्वं ) तू (स्वकर्मानुगुणं भ्रमन् ) अपने कर्मोंके अनुसार भ्रमण करता हुआ ( जनने) जन्म ( मरणेऽपि च) और मरनेके Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० एकादशो लम्बः । समयमें भी ( एक एव अस्ति) अकेला ही है अर्थात् उस समय तेरा दूसरा कोई भी साथी नहीं है ॥ ४२ ॥ बन्धवो हि श्मशानान्ता गृह एवार्जितं धनम् । भस्मने गात्रमेकं त्वां धर्म एव न मुञ्चति ॥ ४३ ॥ अन्वयार्थः--और देख (बन्धवः) बन्धुजन भी (श्मशानान्ताः) केवल श्मशान पर्यंत ही साथ जाते हैं ( अर्जितं धनं ) कमाया हुआ धन ( गृहेएव ) घरमें ही रह जाता है और (गात्रं भस्मने) शरीर भी तैरा भस्मरूप परिणत होजाता है ( एकं ) केवळ ( धर्मः एव ) धर्म ही ( त्वां न मुञ्चति ) तुझको नहीं छोड़ता है अर्थात् धर्म ही एक तेरे साथ जाता है ॥ ४३ ॥ पुत्रमित्रकलत्राद्यमन्यदप्यन्तराल जम् । नानुयायीति नाश्चर्य नन्वङ्गं सहज तथा ॥ ४४ ॥ अन्वयार्थः– ( पुत्र मित्र कलत्रादि ) पुत्र मित्र स्त्री तथा " ( अन्तरालनम् अन्यदपि ) बीचमें मिलने वाले और भी ( न अनुयायी ) यदि तेरे साथ नहीं जाते तो ( इति न आश्चर्य ) इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है ( ननु अङ्गं सहनं तथा ) किन्तु इस पर्यायके प्रारंभसे ही साथ रहनेवाला शरीर भी साथ नहीं जाता है इसमें आश्चर्य है ॥ ४४ ॥ त्वमेव कर्मणां कर्ता भोक्ता च फलसन्ततः । मोक्ता च तात किं मुक्तौ स्वाधीनायांन चेष्टसे ।४५॥ ___ अन्वयार्थः-और ( त्वं एब ) तू ही ( कर्मणां ) कर्मोंका (कर्ता ) कर्त्ता और ( फल संतते ) फलोंका ( भोक्ता ) भोगने Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २४१ वाला है ( भक्ता च ) और तू ही कर्मोका नाश करके मुक्तिको प्राप्त करने वाला है । इसलिये ( हे तात ! ) हे तात ! (स्वाधीनायां मुक्तौ ) अपने स्वाधीन मुक्तिको प्राप्ति में ( किं न चेष्टसे ) वयों प्रयत्न नहीं करता है ॥ ४५ ॥ अज्ञातं कर्मणैवात्मन्स्वाधीनेऽपि सुखोदये । नेहसे तदुपायेषु यतसे दुःखसाधने ॥ ४६ ॥ अन्वयार्थः-( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (कर्मणा एव अज्ञातं) कर्मों के उदयसे तू अज्ञानी होकर ( स्वाधीने ) स्वाधीन (सुखोदये) मोक्ष सुख में अर (तत् उपआयेषु। उसके उपायों में (न ईहसे) चेष्टा नहीं करता है किन्तु (दुःख साधने) दुःखोंके कारणों में तू निरंतर (यतसे) यत्न किया करता है ॥ ५--अथान्यत्वानुप्रेक्षा। . देहात्मकोऽहमित्यात्मञ्जातु चेतसि मा कृथाः । कर्मतो ह्यपृथक्त्वं ते त्वं निचोलातिसंनिभः ॥४७: ____ अन्वयार्थ:--' हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (देहात्मकः अहं) मैं देह रूप हूं (इति) यह बात (त्वं) तू (जातु) कदापि (चेतसि) अपने चित्तमें (मा कृथाः) मतला (हि) निश्चयसे (कर्मतः) कर्मसे (ते) तेरे ( अष्टथकत्वं ) शरीरकी एकता है (त्वं) तू तो (निचोलासिसंनिभः) म्यानके भीतर रहनेवाली तलवारके समान है ॥ ४७ ॥ अध्रुवत्वादमेध्यत्वादचित्त्वाच्चान्यदकम् । चित्त्वनित्यत्वमेध्यत्वैरात्मन्नन्योऽसि कायतः॥४८॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशो लम्बः । अन्वयार्थः -- ( हे आत्मन् !) हे आत्मन् ! (अनुत्रत्वात्) अनित्य ( अमेध्यत्वात् ) अपवित्र और ( अचित्तत्वात् ) चेतना रहित इन तीन कारणों से ( अङ्गकम् ) शरीर ( अन्यत् ) आत्मा से भिन्न है और (चित्त्वनित्यत्वमेध्यत्वैः ) सचेतन नित्य पवित्र होनेके कारण ( त्वं ) तू ( कायतः अन्यः असि ) शरीर से भिन्न है ॥ ४८ ॥ ये स्वयं सती बुद्धिर्यत्नेनाप्यसती शुभे । तद्धेतुकर्म तदन्तमात्मानमपि साधयेत् ॥ ४९ ॥ अन्वयार्थ : - (बुद्धिः) बुद्धि (हेये) बुरे कामों में (स्वयं सती ) अपने आप ही लग जाती है किन्तु ( शुभे यत्नेनापि अपनी ) अच्छे कामों में प्रयत्न करने पर भी प्रवृत्त नहीं होती (तद हेतुः ) उस प्रवृत्तिसे बंधनेवाला (कर्म) कर्म ही (आत्मानं अपि ) अस्माको भी ( तन्तं साधयेत् ) वैसा ही कर देता है ॥ ४९ ॥ ६ - अथाशुचित्वानुप्रेक्षा । २४२ मेध्यानामपि वस्तूनां यत्संपर्कामध्यता । तामशुचीत्येतत्किं नाल्पमल संभवम् ॥ ५० ॥ अन्वयार्थ - ( यत्संपर्काद् ) जिसके संबंध से ( मेध्यानाम् ) पवित्र ( वस्तूनां अपि ) वस्तुएँ भी ( अमेध्यता ) अपवित्र हो जातीं हैं और जो ( अल्प मलसंभवम् ) अनेक रुधिर वीर्यादि मलसे उत्पन्न हुआ है (इति) इसलिये ( एतद् ) यह (किं) क्या ( अशुचिः न ) अपवित्र नहीं है अवश्यही अपवित्र है ॥ ५० ॥ अस्पष्टं दृष्टमङ्गं हि सामर्थ्यात्कर्मशिल्पिनः । रम्पमूहे किमन्यत्स्यान्मलमांसास्थिमज्जतः ॥ ५१ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । . २४३ अन्वयार्थः- हि ) निश्चयसे ( कर्मशिलिलनः ) कर्मरूपी कारीगिरकी (सामर्थ्यात् ) चतुराईसे ( अङ्गं) शरीर अप्पष्टं दृष्टं) स्पष्ट दिखाई नहीं देता है ( अतः ) इसलिये (रम्यं भाषते ) सुन्दर मालूम होता है (ऊहे सति) परन्तु विचार करनेपर इसमें ( मलमांसास्थिमज्जतः) मल, मांस, हड्डी और मजाके सिवाय ( अन्यत् किं स्यात् ) और क्या है अर्थात् शरीर इन ही अपवित्र वस्तुओंसे बना है ॥५१॥ दैवादन्तास्वरूपं चेहहिहस्य किं परैः। आस्तामनुभवेच्छेयमात्मन्को नाम पश्यति ॥५२॥ अन्वयार्थः-(हे अत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( परैः किं ) और तो क्या ( चेत् ) यदि ( दैवात् ) दैवयोग से ( देहस्य ) इस शरीरका ( अन्तः स्वरूपं ) भीतरी हिस्सा ( बहिात् ) शरीरसे बाहर निकल आवे तो ( इयं अनुभवेच्छा ) इसके अनुभव करने की इच्छा तो ( दूरे आस्तां ) दूर ही रहे ( को नाम पश्यति ) कोई इसे देखेगा भी नहीं ॥ ५२ ॥ एवं पिशितपिण्डस्य क्षयिणोऽक्षयशंकृतः । गात्रस्यात्मन्क्षयात्पूर्व तत्फलं प्राप्य तत्त्यज ॥ ५३॥ ___ अन्वयार्थ:-( एवं च ) इस प्रकार ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( क्षयिणाः ) नाशको प्राप्त होनेवाले ( अक्षयशंकृतः ) किन्तु अविनाशी सुखके कारणी भूत (पिशित पिण्डस्य गात्रस्य ) इस मांसके पिण्डरुप शरीरके (क्षयात् पूर्व ) नाश होनेसे पहले (तत्फलं प्राप्य ) इससे मोक्षरूपी फलको प्राप्त करके (तत्त्यन) इसको छोड़दे ॥ ५३॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ एकादशो लम्बः । आत्तसारं वपुः कुर्यास्तथात्मंस्तत्क्षयेऽयभीः। आत्तसारेक्षुदापि न हि शोचन्ति मानवाः ॥१४॥ __अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (यथा) जिस प्रकार (मानवाः) वराई बोनेवाले मनुष्य (आत्तसारेक्षुदाहेऽपि) गृहण कर लिया है रस रूपी सार जिसका ऐसे ईखके छिलकोंके जलानेमें (न शोचंति) शोक नहीं करते हैं । (तथा) उमी प्रकार (हे आत्मन् ) हे आत्मन् ! (त्वं) तू भी (आत्तसारं) गृहीतसार इस (वपुः) शरीरको (कुर्या:) करले (यतः) जिससे तु (तत्क्षयेऽपि) इस शरीरके नाश होनेपर भी (अभी:) भय रहित रहवे ॥ ५४ ॥ ७--अथास्रवानुप्रेक्षा। अजस्त्रमानवन्त्यात्मन्दुर्मोचाः कर्मपुद्गलाः। तैः पूर्णस्त्वमधोधः स्था जलपूर्णों यथा प्लवः ॥१२॥ अन्वयार्थः---( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् (दुर्मोचाः) बड़े दुःखसे अलग होनेवाले (कर्म पुद्गलाः) कर्म रूपी पुद्गल (अनत्रं निरंतर ( आश्रवन्ति ) अते हैं (तैः पूर्णः ) और उन कर्मोसे परिपूर्ण भरा हुआ त्वं) तू ( न पूर्णः प्लवः यथा ) जलसे भरी हुई नौकाके समान ( अधोऽधःस्याः ) नीचे ही नीचे चला जात है अर्थात् अधोगतिको प्राप्त होता जाता है ॥ ५५ ॥ तन्निदान तवैवात्मल्योगभावी सदातनौ। तो विद्धि सपरिस्पन्द परिणाम शुभाशुभम् ॥५॥ अबयार्थः -----( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( तन्निदान) इस आत्रबके कारण ( तवैव ) तेरे ही ( सदातनौ) अनादि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २४५ कालसे प्रवृत्त ( योगमावौस्तः ) योग और आत्माके कषायादिक भाव हैं ( तौ ) और उन योग और कषायको (त्वं ) तू (स परिस्पन्दं ) आत्माके प्रदेशों में चञ्चलता सहित (शुभाशुभम् ) शुभ और अशुभ रूप ( परिणाम ) परिणाम (विद्धि ) जान । अर्थात्-आत्माके प्रदेशोंकी चंचलताको योग और शुम अशुभ रूप आत्माके परणामों को कषाय कहते हैं ॥ १६ ॥ आस्रवोऽयममुष्पेति ज्ञात्वात्मन्कर्मकारणे । तत्तन्निमित्तवैधुर्यादपवाह्योर्ध्वगो भव ॥ ५७ ॥ अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( अमुष्य ) अमृक कर्मका ( अयं आस्रवः ) यह आस्रव है ( इति ज्ञात्वा ) इस प्रकार भलीभांति जानकर (तत्तन्निमित्त वैधुर्यात् ) तत्तत कर्मके निमित्तके त्यागनेसे (कर्मकारणे) कर्म और कारण रूप आस्त्रवको ( अपबाह्य ) छोड़कर ( ऊर्ध्वगः भव ) ऊर्धगामी हो अर्थात् मोक्ष प्राप्त कर ॥ १७ ॥ ८--अथ संवरानुप्रेक्षा। संरक्ष्य समितिं गुप्तिमनुप्रेक्षापरायणः । तपःसंयमधर्मात्मा त्वं स्या जितपरीषहः ॥५८॥ अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( अनुप्रेक्षापरायणः) बारह भावनाओंमें तत्पर (त्वं) तू (ता:संयमधर्मात्मा) तप संयम और धर्म रूप होकर ( समिति गुप्तिं ) समिति और गुप्तियोंका (संरक्ष्य) पालन करता हुआ (जितपरीषहः) बाईस २२ परीषहों का जीतनेवाला ( स्याः ) हो ।.५८। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशो लम्बः । एवं च त्वयि सत्यात्मन्कर्मास्रवनिरोधनात् । नीरन्ध्रपोतवद्भया निरपायो भवाम्बुधौ ॥ ५९॥ __अन्वयार्थः-हे आत्मन् ! (एवं च ) इस प्रकार ( कर्मास्रक निरोधनात् ) कर्मोका आस्रव रुक जानेसे ( त्वयि सति ) तेरे निरास्रव होनेपर ( नीरन्ध्रतवत् ) रुक गया है जल आनेका द्वार जिसका ऐसी नौकाके समान तेरी आत्मा ( भवाम्बुधौ) संसार रूपी समुद्र में (निरपायः भूयाः) निर्विघ्न हो म यगो ||१९|| विकथादिवियुक्तस्त्वमात्मभावनयान्वितः । त्यक्तबाह्यस्पृहो भूया गुप्त्याद्यास्ते करस्थिताः॥६॥ ___अन्वयार्थः--हे आत्मन् ! (विकथादिवियुक्तः) विकथादि प्रमादोंसे रहित और ( आत्मभावनयान्वितः ) आत्म भावन से युक्त होकर ( त्वं ) तृ (त्यक्तबाह्यस्ष्टहः भूयः ) बाह्य पदार्थोमें वाञ्छा रहित हो ( तथा सति ) ऐसा होनेपर ( गुप्त्याद्याः ) गुप्त्यादिक ( ते ) तेरे ( कास्थिता:स्युः ) हाथपर ही रक्खी हुई वस्तुकी तरह हो जायगीं ॥ १० ॥ एवमक्लेशगम्येऽस्मिन्नात्माधीनतया सदा । श्रेयोमार्गे मतिं कुर्याः किं बाह्ये तापकारिणि ॥३॥ ____ अन्वयार्थ:-हे आत्मन् ! (एवं) इस प्रकार (सदा) हमेशा (आत्माधीनतया) आत्माकी स्वाधीनतासे ( अटेशगम्ये ) सुलभ प्राप्त ( अम्मिन् ) इस ( श्रेयोमार्गे ) मुक्ति मार्गमें (मतिं कुर्याः ) अपनी बुद्धि लगा ( तापक रिणि बाह्ये ) दुःखदायी बाह्य मार्गमें (बुद्धयाः किं प्रयोजनं ) बुद्धि लगानेसे क्या प्रयोजन ? ॥६१॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २४७ शुष्कनिर्वन्धतो बाह्ये मुह्यतस्तव हृव्यथा । प्रत्यक्षितैव नन्वात्मन्प्रत्यक्षनिरयोचिता ॥ ६२ ॥ __ अन्वयार्थः- ( हे आत्लन् ! ) .हे आत्मन् ! ( बाह्ये ) बाह्य पदार्थोंमें ( शुष्कनिर्बन्धतः ) निःसार संमंध करके ( मुह्यतः तव ) मोह करते हुए तेरे (ड्यथा ) हृदयमें पीड़ा ( प्रत्यक्ष निरयोचिता ) प्रत्यक्ष तर्कके सम न ( प्रत्यक्षिता एव ) प्रत्यक्ष सिद्ध ही है ॥ १२ ॥ ९ अथ निर्जरानुपेक्षा । रत्नत्रयप्रकर्षण बद्धकर्मक्षयोऽपि ते । आध्मातः कथमप्यग्निचं किं वावशेषयेत् ॥३३॥ .. अन्वयार्थ:-हे आत्मन् ! ( रत्नत्रयप्रकर्षण ) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रकी वृद्धिसे (ते) तेरे ( बद्धकर्म क्षयोऽपि भवेत् ) संचित वर्मोका नाश हो ही जाता है जैसे ( आध्मातः ) धोंकनीसे उद्दीप्त हुई ( अग्निः ) अग्नि ( दाह्य) दाह्य वस्तुको (fi ) क्या (कथमपि ) किसी प्रकार (अवशेषयत) बाकी रहने देती है किन्तु नहीं रहने देती ।। ६३ ॥ क्षयादनास्त्रवाचात्मन्कर्मणामामि केवली। निर्गमे चाप्रवेशे च धाराबन्धे कुतो जलम् ॥ ६४ ॥ _अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् (त्वं) तू (कर्मणां) पूर्व संचित कर्मोंके ( क्षयात् ) क्षयसे ( अनास्रवाच्च ) औ आगामी आनेवाले कर्मोके निरोधसे ( केवली असि ) केवलीके समान है जैसे ( धाराबन्धे ) सरोवरमें ( जलस्य निर्गमे ) पूर्व Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ एकादशो लम्बः । संचित जलके निकल जानेपर और ( अप्रवेशे च ) नवीन जलके नहीं आनेपर ( जलम् ) जल ( कुतः ) कहांसे ( भवेत ) हो सकता है ? । ६४ ।। रत्नत्रयस्य पूर्तिश्च त्वयात्मन्सुल भैव सा । मोहक्षोभविहीनस्य परिणामो हि निर्मलः ॥ ६५ ॥ अन्वयर्थः - ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( तदा ) तब ( सा रत्नत्रयस्य पूर्तिश्च) वह रत्नत्रय की पूर्ति ( त्वया सुलभा एव ) तेरे लिये सुलभ ही हो जायगी (हि) निश्चय से ( मोहक्षोभविहीनस्य ) मोहके क्षोभसे रहित जीवके ( परिणाम: ) परिणाम ( निर्मल: ) निर्मल ( भवेत्येव ) ही होते हैं ॥ ६५ ॥ परिणामविशुद्ध्यर्थ तपो बाह्यं विधीयते । न हि तण्डुलपाकः स्यात्पावकादिपरिक्षये ॥ ६६ ॥ अन्वयार्थः — हे आत्मन् ! ( परिणामविशुद्धयर्थं ) परणामोंकी शुद्धिके लिये ( बाह्यं ताः ) बाह्य तर ( विधीयते ) वरना चाहिये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चय से ( पावकादि परिक्षये ) अग्नि आदिकके अभाव में ( तण्डुलपाकः न स्यात्) चावलों का पकना नहीं होता है ॥ ६६ ॥ परिणामविशुद्धिश्च बाह्ये स्यान्निःस्पृहस्य ते । निःस्पृहत्वं तु सौख्यं तद्वा मुह्यास किं मुधा ॥६७॥ अन्वयार्थ : हे अत्मन (बाह्य) बाह्य पदार्थो में (निःस्टहस्य ते ) इच्छा रहित तेरे ( परिणामविशुद्धिश्च स्य तू ) परिणा मोंकी विशुद्धि होगी ( तु पुनः ) और (निःस्पृहत्वं सौख्यं भवति) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । बाह्य पदार्थोंमें इच्छा न करना ही सुख है ( तत्तस्मात् ) इसलिये (बाह्ये ) बाह्य पदार्थो में ( किं) क्यों ( मुधा ) वृथा (मुह्यसि) मोह करता है ॥ १७ ॥ गुप्तेन्द्रियः क्षणं वात्मन्नात्मन्यात्मानमात्मना । भावयन्पश्य तत्सौख्यमास्तां निश्रेयसादिकम् ॥६८॥ __ अन्वयार्थः-(हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ( गुप्तेन्द्रियः ) जितेन्द्रिय होकर ( आत्मनि ) आत्मामें ( आत्मना ) आत्माके द्वारा ( आत्मानं ) आत्माको (क्षणं भावयन् ) क्षणमात्र अनुभव न करता हुआ (त्व) तू ( तत्सौख्यं पश्य ) उस सुखको देख (निश्रेयसादिकम् दूरे आस्तां ) मोक्षका सुख तो दूर ही रहने दे ॥ ६८ ॥ अनन्तं सौख्यमात्मोत्थमस्तीत्यत्र हि सा प्रमा। शान्तस्वान्तस्य या प्रीतिः स्वसंवेदनगोचरा ॥१९॥ ___ अन्वयार्थः-- ( शान्तस्वान्तस्य ) शान्त अन्तःकरणवाले पूरुषोंको ( स्वसंबेदन गोचरा ) अपने आप अनुभवमें आनेवाली (प्रीतिः) प्रीति ही (आत्मोत्थं) आत्मासे उत्पन्न (अनन्तं सौख्यं) अनन्त सुख है (हि) निश्चयसे (इत्यत्र) इसमें ( सा प्रमा ) यही प्रमाण है ॥ ६९ ॥ १०-अथ लोकानुप्रेक्षा । प्रसारिताघ्रिणा लोकः कटिनिक्षिप्तपाणिना। तुल्यः पुंसोर्ध्वमध्याधोविभागस्त्रिमरुतः ॥ ७० ॥ अन्वयार्थः-हे आत्मन् ! ( ऊर्ध्वमध्याधो विभागः) ऊर्ध्व लोक, मध्यलोक और अधोलोक ये तीन विभाग हैं जिसके ऐसा . Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० एकादशो लम्बः । और (त्रिमरुतू वृत्तः ) घनोदधिवातबलय, घनबातवलय और तनुवातवलय इन तीन बात वलयोंसे वेष्टित ( प्रसारिताघिणा ) पैर फैलाये हुए ( कटिनिक्षिप्तपाणिना) कमर पर हाथ रक्खा है जिसने ऐसे (पुंसा) पूरूषके ( तुल्यः ) समान (लोकः अस्ति ) यह लोक है ॥ ७० ॥ जन्ममृत्योः पदे ह्यात्मन्नसंख्यातप्रदेशके । लोके नायं प्रदेशोऽस्ति यस्मिन्नाभूरनन्तशः ॥७॥ अन्वयार्थः---(हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (अन्म मृत्योः) जन्म मरणके ( पदे ) स्थान ( असंख्यातप्रदेशके ) असंख्यात प्रदेश रूप ( लोके ) इस लोकमें ( अयं प्रदेशः नास्ति ) ऐसा कोई भी प्रदेश नहीं है ( यस्मिन् ) जिस प्रदेशमें ( त्वं ) तू (अनंतशः) अनन्तवार ( न अभूः ) न जन्मा मरा हो ॥७१ ॥ सत्यज्ञाने पुनश्चात्मन्पूर्ववत्संसरिष्यसि । कारणे जृम्भमाणेऽपि न हि कार्यपरिक्षयः ॥७२॥ ___ अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (अज्ञाने सति) मिथ्या ज्ञानके होने पर ( त्वं ) तू ( पूर्ववत् ) पहलेकी नाई ( पुनश्च ) फिर ( संस रिष्यप्ति ) संसारमें घूमेगा । अत्र नीतिः : (हि ) निश्चयसे (कारणे जृम्भमाणे) कारणके विद्यमान रहने पर ( अपि ) क्या ( कार्यपरिक्षयः भवति ) कार्य नष्ट हो जाता है ! ( न भवति ) अर्थात् कार्य कदापि नष्ट नहीं होता है ॥ ७२ ॥ यतस्व तत्तपस्यात्मन्मुक्त्वा मुग्धोचितं सुखम् । चिरस्थाय्यन्धकारोऽपि प्रकाशे हि विनश्यति ॥७३॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः-(हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (मुग्धोचितं) मूढ पुरुषोंके भोगने योग्य ( सुख ) इन्द्रिय सुखको (मुक्त्वा) छोड़कर ( तपसि यतस्व ) तप करनेमें यत्न कर अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (प्रकाशे ) प्रकाश होनेपर ( चिरस्थायी) चिरकालसे स्थित ( अन्धकारः अपि ) अन्धकार भी (विनश्यति) नष्ट हो जाता है ॥ ७३ ॥ . ११-अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा । भब्यत्वं कर्मभूजन्म मानुष्यं स्वगवंश्यता। दुर्लभं ते क्रमादात्मन्समवायस्तु किं पुनः ॥ ७४॥ ___ अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (ते ) तेरा (कर्मभूजन्म ) कर्म भूमिमें जन्म लेना, ( मानुष्यं ) मनुष्यपर्यायका पाना, ( भव्यत्वं ) भव्यता, ( स्वङ्गवंश्यता ) सुन्दर शरीर और अच्छे कुलमें उत्पन्न होना-ये सब बातें ( क्रमात् ) क्रमसे ( उत्तरोतरं दुर्लभं ) उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं ( तु ) और ( समवायः ) इन सबका एक जगह मिलना तो ( अतीव दुर्लभः ) अत्यन्त ही दुर्लभ है ।। ७४ ॥ व्यर्थः स समवायोऽपि तवात्मन्धर्मधार्न चेत् । कणिशोगमवैधुर्ये केदारादिगुणेन किम् ॥ ७९ ॥ __अन्वयार्थः- ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! अब भी (चेत्) यदि ( तव ) तेरी (धर्मधीः न स्यात् ) धर्ममें बुद्धि नहीं हुई तो (स समवायः अपि व्यर्थः ) पूर्वोक्त सब बातोंका मिलना भी निष्फल है । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( कणिशोद्मवैधुर्ये) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ एकादशो लम्बः । अन्नके पौधोंमें अन्नयुक्त बालोंके न निकलने पर (केदारादिगुणेन) खेत आदिक सामग्रियोंके उत्तम होनेसे (किं ) क्या प्रयोजन ? ॥ ७९ ॥ तदात्मन्दुर्लभं गात्रं धर्मार्थ मूढ कल्प्यताम् । भस्मने दहतो रत्नं मूढः कः स्यात्परो जनः ॥ ७६ ।। __ अन्वयार्थः-( हे मूढात्मन् ! ) हे भूढ त्मन् ! इसलिये ( तद् दुर्लभं गात्रं ) इस दुर्लभ शरीरको ( धर्मार्थ ) धर्मके लिये ( कल्प्यताम् ) संकल्प करदे । अत्र नीति : ! ( हि ) निश्चयसे ( भस्मने ) भस्मके लिये ( रत्नं दहतः ) रत्नको जलाने वाले पुरुषकी अपेक्षा ( परः ) दूसरा ( कः ) कौन ( जनः ) मनुष्य ( मूढः ) मूर्ख ( स्यात् ) है ॥ ७६ ।। देवता भविता श्वापि देवः श्वा धर्मपापतः। तं धर्म दुर्लभं कुर्या धर्ना हि भुवि कामनः ॥ ७७॥ __अन्वयार्थः--( हे आत्मन् ! धर्मपापतः ) धर्म और पापसे (श्वापि ) कुत्ता भी ( देवः ) देव और ( देवता ) देवता (श्वा) कुत्ता ( भविता ) हो जाता है । इसलिये तू ( दुर्लभं ) दुर्लभ (तं ) उस ( धर्म ) धर्मको (कुर्याः ) धारण कर (हि) निश्चयसे ( भूवि ) संसारमें ( धर्मः ) धर्म ( कामसूः ) इच्छित कार्य को पुष्ट करने वाला है ।। ७७ । भव्यत्याबाह्यचित्तस्य सर्वसत्वानुकम्पिनः । करणत्रयशुद्धस्य तवात्मन्योधिरेधताम् ॥ ७८ ॥ अन्वयार्थः-( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! ( भव्यस्य ) भव्य, ( अबाह्य चित्तस्य ) बाह्म पदार्थोंमें मानसीक वृत्ति रहित, Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २५३ (सर्वसत्वानुकम्पिनः ) सम्पूर्ण जीवोंपर दया करने वाले और (करणत्रयशुद्धस्य ) अधःकरण, अपूर्वकरण तथा अनवृत्तिकरण रूप परिणामोंसे निर्मल (तव) तेरे ( बोधिःएधताम् ) सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी वृद्धि होवै ॥ ७८ ॥ १२-अथ धर्मानुप्रेक्षा । पश्यात्मन्धर्ममाहात्म्यं धर्मकृत्यो न शोचति । विश्वैर्विश्वस्यते चित्रं स हि लोकद्वये सुखी ॥७९॥ अन्वयार्थः--(हे आत्मन् !) हे आत्मन् ! (त्वं) तू (धर्ममाहात्म्यं पश्य) धर्मका माहात्म्य देख (धर्मकृत्यः) धर्म कार्य करने वाला मनुष्य (न शोचति) कभी शोक नहीं किया करता है और (विश्वैः विश्वस्यते) सब मनुष्य उसका विश्वास करते हैं । (हि) निश्चयसे (चित्र) आश्चर्य है (सः) वह (लोकहये) दोनों लोकों में (सुखी भवति) हमेशा सुखी रहता है ॥ ७९ ॥ तवात्मन्नात्मनीनेऽस्मिजैनधर्मेऽतिनिर्मले। स्थवीयसी रुचिः स्थेयादामुक्तमुक्तिदायिनी ॥८॥ ____ अन्वयार्थः-इसलिये ( हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (आमुक्त) जबतक मुक्ति न हो तब तक (आत्मनीने) आत्माका हित करनेवाले, (अति निर्मले) अत्यन्त निर्मल ( अस्मिन् जैन धर्में ) इस जैन धर्ममें (तव) तेरी (स्थवीयसी) स्थिर ( मुक्तिदायिनी ) मुक्तिको देनेवाली ( रुचिः स्थयात् ) रुचि होवे ॥ ८० ॥ इति द्वादशानुप्रेक्षा । इत्यनुप्रेक्षया चासीदक्षोभ्यास्य विरक्तता। व्यवस्था हि सतां शैली साहाय्येऽप्यत्र किं पुनः॥८॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशो लम्बः । अन्वयार्थ : – (इति) इस प्रकार ( अनुप्रेक्षया) बारह भावनाओंके चिन्तन करने से (अस्य) इन जीवंधर महारानका ( विरक्तता ) वैराग्य भाव (अक्षोभ्य) स्थिर ( आसीत् ) हो गया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चय से ( सतां ) सज्जन पुरुषोंकी ( शैली ) किसी कार्यके प्रारम्भ करनेकी प्रवृत्ति ( व्यवस्था स्यात् ) निश्चल हुआ करती है और (अपि) यदि (अत्र साहाय्ये ) इसमें सहायता मिल जाय तो ( किं पुनः वक्तव्यः) फिर कहना ही क्या है ॥ ८१ ॥ विरक्तो राज्यमन्यच्च न तृणायाप्यमन्यत । हस्तस्थेप्यते को वा तिक्तसेवापरायणः ॥ ८२ ॥ अन्वयार्थः -- ( विरक्तः ) फिर संसारके विषयोंसे विरक्त जीवंधर महाराजने ( राज्य ) अपने राज्यको ( अन्यच्च ) और सब पदार्थोंको (तृणा अपि ) तृणके समान भी ( न अमन्यत ) नहीं समझा । अत्र नीति: ! निश्चयसे ( हस्तस्थे ) हाथमें रक्खे हुए ( अमृतेऽपि ) अमृतके होने पर भी ( को वा ) कौन बुद्धिमान् पुरुष ( तिक्त सेवापरायणः स्यात् ) कड़वी वस्तुके सेवन करने में तत्पर होगा ? कोई भी नहीं ॥ ८२ ॥ ततस्तस्माद्विनिर्गत्य संपूज्य परमेश्वरम् । योगीन्द्रादशृणोडर्ममधीती जिनशासने ॥ ८३ ॥ अन्वयार्थः- (ततः) तदनन्तर ( जिनशासने अधीती ) जैन शास्त्रों के जाननेवाले उन जीवंधर स्वामीने ( तस्मात् विनिर्गत्य ) वहांसे आकर ( परमेश्वरम् संपूज्य ) जिनेन्द्र भगवानकी पूजा कर ( योगीन्द्रात ) किसी ऋद्विधारी मुनिसे ( धर्मं अशृणोत ) धर्म श्रवण किया || ८३ ॥ २५४ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । धर्मश्रुतेर्वभूवायं धार्मविद्योऽति निर्मलः । अत्युत्कटो हि रत्नांशुस्तद्ज्ञवेकटकर्मणां ॥ ८४ ॥ अन्वयार्थ : — और फिर (धर्मश्रुतेः) धर्मका स्वरूप सुनने से ( अयं ) यह जीवंधर कुमार ( अति निर्मल: ) अत्यंत निर्मल ( धार्मविद्यः वभूव ) धर्म विद्याके जाननेवाले होगये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे जिस प्रकार ( रत्नांशुः ) रत्नों की किरणें (तदज्ञवे - कटकर्मणा) रत्नको शान पर रखनेवाले चतुर मनुष्यकी चमक आनेकी चतुराई से ( अत्युत्कटः अभूत् ) अत्यन्त उज्वल होजाती हैं उसी प्रकार जीवंधर स्वामी और धर्मका स्वरूप सुनने से और भी बड़े भारी तत्वज्ञाता हो गये || ८४ ॥ पुनश्चारणयोगीन्द्रः पूर्व जन्मबुभुत्सया । भूपेन परिपृष्टोऽयमाचष्टास्य पुराभवम् ॥ ८५ ॥ अन्वयार्थ : - ( पुनश्र ) फिर ( पूर्वजन्मबुभुत्सया ) अपने पूर्वजन्म के वृतान्त को जानने की इच्छा से ( भूपेन ) राजा से ( परिपृष्टः ) पूछे गये हुए ( अयं चारुणयोगीन्द्रः ) उन चारुण मुनिने ( अस्य पुराभवम् ) इन जीवंधर महाराजके पूर्वजन्मका वृतान्त ( आचप्ट) इस प्रकार कहा || ८५ ॥ अब अगाड़ीके ६ श्लोकोंमें चारुण मुनि जीवंधर महाराजके पूर्वजन्मका वृत्तान्त कहते हैं ॥ भूपेन्द्र धातकीपण्डे भूम्यादितिलके पुरे । सूनुः पवनवेगस्य राज्ञोऽभूस्त्वं यशोधरः ॥ ८६ ॥ अन्वयार्थः - ( हे भूपेन्द्र ! ) हे राजन् ! (घातकी पण्डे ) धातुकी खण्ड नामके द्वीपमें ( भूम्यादितिलके पुरे ) भूमितिलक Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ एकादशो लम्बः । नामके पुरमें (त्वं) तुम ( राज्ञः पवनवेगस्य ) राजा पवनवेगका ( यशोधरः सूनुंः अभूः ) यशोधर नामके पुत्र थे ॥ ८६ ॥ राजहंस कदाचित्त्वं राजहंसस्य शाबकम् । नीडाक्रीडार्थमानीय निरवद्यमवीवृधः ॥ ८७ ॥ अन्वयार्थ :- हे राजहंस !) हे राजश्रेष्ठः (त्वं) तुमने (कदा चित् ) किसी समय ( राजहंसस्य शावकम् ) हंसके बच्चे को ( क्रीड़ार्थ ) खेलने के लिये ( नीड़ात् आनीय ) घोंसले से लाकर (निरवद्यं यथास्यात्तथा अवीवृधः ) उसका निर्दोषता से पालन पोषण किया !! ८७ ॥ तत्कुतोऽपि समाकर्ण्य धार्मविद्यः स ते पिता । तदा धर्ममुपादितोऽभूरतिधार्मिकः ॥ ८८ ॥ अन्वयार्थः -- (तदा) उस समय ( धार्मविद्यः) धर्मात्मा (सः) उस (ते) तुम्हारे (पिता) पिताने (तत् कुतः अपि ) यह बात कहीं से ( समाकर्ण्य ) सुनकर तुमको ( धर्मं उपादिक्षत् ) धर्मका उपदेश दिया (यतः ) जिस उपदेश के सुनने से ( त्वं ) तुम (अति धार्मिकः अभूः) अत्यन्त धर्मात्मा बन गये. ॥ ८८ ॥ निवारितोऽपि पित्रा त्वमतिनिर्वेदतस्ततः । जातरूपधरो जातः स्त्रीभिरष्टाभिरन्वितः ॥ ८९ ॥ अन्वयार्थ : ( ततः) फिर (पित्रा) पिता से (निवारितः अपि) रोके हुए भी ( त्वं) तुम ( अतिनिर्वेदतः ) अत्यन्त वैराग्यके कारण ( अष्टाभिः स्त्रीभिः अन्वितः ) आठ स्त्रियों करके सहित ( जातरूपधरः जातः ) दिगम्बरी मृनि हो गये ॥ ८९ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्र चूड़ामणिः । २५७ घोरेण तपसा लब्ध्वा देवत्वं च त्रिविष्टपात् । अष्टाभिः स्त्रीभिरेताभिरन्ना भूर्भव्यपुङ्गव ॥ ९० ॥ अन्वयार्थ : - ( हे भव्यपुङ्गव !) हे भव्य श्रेष्ठ ! फिर ( त्वं ) तुम ( घोरेण तपसा ) घोर तपश्चरण के द्वारा ( देवत्वं च लब्ध्वा ) देव पर्यायको प्राप्त कर ( त्रिविष्टपात् ) फिर उस स्वर्गसे चयकर (अत्र) यांपर ( एताभिः अष्टाभिः स्त्रीभिः सह ) इन आठ स्त्रियोंके साथ (अभूः ) उत्पन्न हुए हो ॥ ९० ॥ स्वपदाद्वालहंसस्य पितृभ्यां च पुराभवे । वियोजनाद्वियोगस्ते बन्धोऽभूदिव बन्धनात् ॥९१॥ अन्वयार्थः - इस लिये ( पुराभवे) पूर्व जन्म में (बालहंसस्य) हंसके बच्चेको ( स्वपदात् ) उसके स्थान ( पितृभ्यां च ) और माता पितासे ( वियोजनात् ) वियोग कराने से ( ते वियोगः ) स्थान और माता पितासे वियोग और ( बन्धनात् ) उस बच्चे को पिंजरे में बन्द कर रोकनेसे ( बन्धः अभूत् ) तुम्हारा बन्धन हुआ ॥ ९१ ॥ इति योगीन्द्रवाक्यन भोगीव पविपाततः । भीतो राज्यादयं राजा प्रणम्य स्वपुरीमयात् ॥ ९२ ॥ अन्वयार्थः - ( इति योगीन्द्र वाक्येन ) इस प्रकार मुनिके बचनों से ( पविपाततः ) विजलीके गिरने से ( भीतः भोगी इव ) डरे हुए सर्पकी तरह ( राज्यात भीतः ) राज्यसे भयभीत (अयं (राजा) यह जीवंधर महाराज (प्रणम्य) मुनिको नमस्कार कर (स्वपुरीं अयात्) अपनी नगरीमें आये ॥ ९२ ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशो लम्बः । सडर्मामृतपानेन सानुजास्तस्य वल्लभाः । विषप्रख्यममन्यन्त तत्सौख्यं विषयोद्भवम् ॥ ९३ ॥ २५८ अन्वयार्थ : - ( सानुजाः ) इनके छोटे भाई सहित (तस्यवल्लभाः ) इनकी आठों स्त्रियोंने ( सद्धर्मामृतपानेन ) धर्म रूपी अमृतको पान करनेसे ( विषयोद्भवं सौख्यं ) पंचेन्द्रियोंके विषयसे उत्पन्न सुखको (विषप्रख्यं अमन्यन्त ) विषके समान समझा ||९३ || तत्र गन्धर्वदत्तायाः पुत्रं सत्यंधराह्वयम् । अभिषिच्य ततस्ताभिः प्रापदास्थापिकां कृती ॥ ९४॥ अन्वयार्थ : - ( तत्र ) वहां पर ( कृती ) बुद्धिमान भीवंधर महाराजने ( गन्धर्वदत्तायाः ) गन्धर्वदत्ता के ( सत्यंधराह्वयम् ) सत्यंधर नामके ( पुत्रं ) पुत्रको (अभिषिच्य ) राज्य भिषेक करके ( ततः ) फिर ( ताभिः सह ) अपनी आठ स्त्रियोंके साथ ( आस्थायिकां प्रापत् ) भगवान के समोसरणमें पहुंचे ॥ ९४ ॥ श्रीसभायां समभ्येत्य श्रीवीरं जिननायकम् । पूजयामास पूज्योऽयमस्तावीच पुनः पुनः ॥ ९५ ॥ अन्वयार्थः - फिर ( अयं पूज्यः ) इन पूज्य जीवंधर महाराजने (श्री सभायां समभ्येत्य ) समवसरण सभामें पहुंचकर ( जिननायकं श्री बीरं ) मिनेन्द्र श्रीमहावीर स्वामीकी ( पूजया मास ) पूजा की और ( पुनः २ अस्तावीत् ) फिर वारंवार उनका स्तवन किया || ९५ ॥ भगवन्भवरोगेण भीतोऽहं पीडितः सदा । त्वय्यकारणवैद्येऽपि सद्या किं तस्य कारणा ॥ ९६ ॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २५९ अन्वयार्थः-(हे भगवान् ! ) हे भगवान् ! ( अहं ) मैं ( भवरोगेण ) संसारके जन्म मरणके रोगसे ( सदा ) हमेशासे ( पीड़ितः ) पीडित और ( भीतः अस्मिः ) भयभीत हूं तो भी (त्वयि अकारणबैद्येऽपि) आपके अकारण वैद्य होनेपर भी (किं) क्या ( तस्य कारणा ) उसकी वेदना ( सह्या ) सहने योग्य है ? अर्थात् आप इस वेदनाको शीघ्र ही नष्ट करें ॥ ९६ ॥ त्वं सार्वः सर्वविद्देव सर्वकर्मणि कर्मठः।। भव्यश्चाहं कुतो वा मे भवरोगो न शाम्यति ॥९॥ ___ अन्वयार्थः- हे देव ! ) हे देव ! (त्वं) आप ( सार्वः ) सबके हित करने वाले ( सर्ववित् ) सब कुछ देखने जाननेवाले और (सर्वकर्मणि कर्मठः) संपूर्ण संचित कर्मों के नाश करनेमें शूरवीर (असि) हो (च) और (अहं) मैं (भव्यः) एक भव्य हूं तो (मे भवरोगः) मेरा संसारका रोग (कुतः वा न शाम्यति) क्यों शान्त नहीं होता ॥ ९७ ॥ निर्मोह मोहदावेन देहजीर्णोरुकानने । दह्यमालतया शश्वन्मुह्यन्तं रक्ष रक्ष माम् ॥ ९८ ॥ ____ अन्वयार्थः----(हे निर्मोह !) हे मोहरहित जिनेन्द्र ! (देह जीर्णोरुकानने) देह रूपी पुरानी बड़ी भारी अटवीमें (मोहदावेन) मोह रूपी दावानलसे (दह्यमानतया) जलनेके कारण (शश्वत् मुह्यन्तं) निरंतर विवेक रहित ( मां ) मुझको ( रक्ष ! रक्ष ! ! ) रक्षा करो ! ! ॥ ९८ ॥ संसारविषवृक्षस्य सर्वापत्फलदायिनः । अङ्करं रागमुन्मूलं वीतराग विधेहि मे ॥ ९९ ॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ एकादशो लम्बः । अन्वयार्थः--(हे वीतराग !) हे वीतराग ! (सर्वापत्फलदायिनः) सर्व प्रकारकी विपत्ति रूपी फलको देनेवाले (संसारविष वृक्षस्य) संसार रूपी विषवृक्षके (अंकुर) अंकुरके समान (मे राग) मेरे राग भावको (उन्मूलं विधेहि) जड़से रहित करदे ॥ ९९ ॥ कर्णधार भवार्णोधेमध्यतो मजता मया । कृच्छेण बोधिनौलब्धा भूयानिर्वाणपारगा ॥१०॥ __अन्वयार्थः-(हे कर्णधार !) हे सच्चे खेवटिया भगवत् ! (भवार्णोधेः मध्यतः) संसार रूपी समुद्रके मध्यमें ( मज्जता मया) डूबते हुए मेरे द्वारा (कृच्छ्रेणलब्धा) बड़ी कठिनाईसे प्राप्त की हुई (बोधिनौः ) रत्नत्रय रूपी नौका (निर्वाणपारगा भूयात् ) मुझे मोक्ष रूपी पार पर पहुंचाने वाली होवै ॥ १० ॥ इति स्तोत्रावसाने च लब्ध्वायं त्रिजगद्गुरोः । अनुज्ञां जिनदीक्षायामानमद्गणनायकम् ॥ १०१ ॥ अन्वयार्थः- इति त्रिजगद्गुरोः) इस प्रकार तीन जगतके स्वामी महावीर स्वामीके (स्तोत्रावसाने) स्तवनके अन्तमें ( अयं ) इन्होंने ( अनुज्ञां लब्ध्वा ) आज्ञा पाकर ( जिन दीक्षायाम् ) जिन दीक्षा लेनेके प्रारंभमें ( गणनायकम् ) गणधरको (आनमत्) नमस्कार किया ॥ १०१ ॥ प्राज्ञः प्रव्रज्य तत्पा, तपस्तेपेऽतिदुश्वरम् । येन कर्माष्टकस्यापि नष्टता स्याद्यथाक्रमम् ॥१०२॥ ____ अन्वयार्थः-फिर ( प्राज्ञः ) बुद्धिमान राजाने ( प्रव्रज्य ) दीक्षा ग्रहण करके ( तत्पार्श्वे ) महावीर स्वामीके निकट ( अति Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - क्षत्रचूड़ामणिः। दुश्वरम् तपः ) बहुत कठोर तप ( ते ) किया ( येन) जिस तपके द्वारा ( कर्माष्टकस्य ) आठ कर्मोंका ( नष्टता ) नाशपना ( यथाक्रमम् स्यात् ) यथाक्रमसे होता है ॥ १० ॥ श्रीरत्नत्रयपूाथ जीवंधरमहामुनिः। अष्ठाभिः स्वगुणैः पुष्टोऽनन्तज्ञानसुखादिभिः॥१३॥ ___अन्वयार्थः-(अथ) इसके अनंतर (जीवंधर महामुनिः) वे जीवंधर महामुनि (श्रीरत्नत्रयपूर्त्या) श्रीसम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी परिपूर्णतासे ( अनन्तज्ञानसुखादिभिः) अनन्त सुखादिक (अष्टाभिः स्वगुणैः) आठ आत्माके स्वाभाविक गुणोंसे ( पुष्टः अभूत् ) पुष्ट हुए ॥ १०३ ॥ सिद्धो लोकोत्तराभिख्यां केवलाख्यामकेवलाम् । अनुपमामनन्तां तामनुबोभूयते श्रियम् ॥१०४॥ __अन्धयार्थ:-फिर ( सिद्धः भूत्वा ) सिद्ध पदवीको प्राप्त कर (लोकोत्तराभिख्या) सर्व लोकोत्कृष्ट ( अनुपमा ) उपमा रहित (ता)उस (अनन्तां) अनन्त (केवलाख्यां) केवलज्ञान रूपी (अकेवलां श्रियं) मुख्य मोक्षरूपी लक्ष्मीका (अनुबोभूयते) अनुभव किया १०४॥ एवं निर्मलधर्मनिर्मितमिदं शर्म स्वकर्मक्षयप्राप्त प्राप्तुमतुच्छमिच्छतितरां यो वा महेच्छो जनः। सोऽयं दुर्मतकुञ्जरप्रहरणे पश्चाननं पावनं जैन धर्ममुपाश्रयेत मतिमान्निश्रेयसः प्राप्तये ॥१०५॥ ___ अन्वयार्थः- ( योवा महेच्छोजनः ) जो उत्तम सहृदय पुरुष ( एवं ) इस प्रकार (निर्मछधर्मनिर्मितं ) पवित्र धर्मको Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ एकादशो लम्बः । सेवन करनेसे रचित ( स्वकर्मक्षयमाप्त ) आत्माके अष्ट कौके नाश होनेसे प्राप्त ( अतुच्छं) महान ( इदं शर्म ) इस सुखको ( प्राप्तुं ) प्राप्त करनेके लिये ( इच्छतितरां ) अतिशय इच्छा करता है ( सः अयं मतिमान् ) वह यह बुद्धिमान पुरुष ( निश्रेयसः प्राप्तये) मोक्षकी प्राप्तिके लिये ( दुर्मतकुन्नर प्रहरणे ) मिथ्या मन रूपी हस्तियोंके नाश करनेके लिये ( पञ्चा. ननं ) सिंहके समान ( पावनं ) पवित्र ( जैनधर्म ) जिनेन्द्र प्रणीत धमको (उपाश्रयेत) धारण करे ।। १०५ ॥ राजतां राजराजोऽयं राजराजो महोदयः। तेजसा वयसा शूरः क्षत्रचूडामणिगुणैः ॥ १०६ ॥ ___ अन्वयार्थः- ( गुणैः क्षत्रचूडामणिः ) गमाके गुणोंसे क्षत्रियोंके शिरोभूषण, ( तेजसा ) तेन ( च ) और ( वयसा ) युव वस्थासे ( शूरः ) शूरवीर ( महोदयैः ) महान् ऐश्वर्य से ( राजराजः ) कुवेरके समान ( अयं राजरानः ) ये राजाओंके राना जीवंधर महाराज निरंतर (रानतां) शोभायमान होवें ॥ १०६ ॥ इते। इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरविते क्षत्रचूड़ाणौ सान्वयार्थो मुक्ति श्री लम्भो नाम एकादशोलम्वः । ccika समाप्त । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- _