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________________ २३० एकादशो लम्बः । पातः) इस संसार रूपी गड्ढे में पड़े रहना ( कुत्सितानां ) नीच पुरुषोंकी ( चेष्टतम् ) चेष्ठा है ॥ १३ ॥ इति वैराग्यतस्तस्याः सुनन्दापि व्यरज्यत । पाके हि पुण्यपापानां भवेद्वाह्यं च कारणम् ॥१४॥ अन्वयार्थः-(इति) इस प्रकार (तस्याः) विजया रानीके ( वैराग्यतः ) विरक्त हो जानेपर (सुनन्दापि) गन्धोत्कटकी स्त्री सुनन्दा भी (व्यरज्यत) संसारसे विरक्त हो गई । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (पुण्यपापानां च) पुण्य और पापके (पाके) उदय आनेमें ( बाह्य कारणं ) बाह्य कारण (भवेदेव) अवश्य ही होता ततः कृच्छायामाणं ते महीनाथं च कृच्छतः। अनुज्ञाप्य ततो गत्वादीक्षिषातां यथाविधि ॥१५॥ ___ अन्वयार्थः-(ततः) इसके अनंतर (ते) उन दोनों माताओंने (कच्छ्रायमाणं) शोकयुक्त (महीनाथ) जीवंधर स्वामीको (कृच्छ्रतः) किसी न किसी प्रकार कष्टसे (अनुज्ञाप्य ) समझा कर ( ततो गत्वा ) और घरसे वनमें जाकर (यथाविधि) विधिपूर्वक (अदीक्षिषातां) जिन दीक्षा लेली ॥ १५ ॥ पद्माख्या श्रमणीमुख्या विश्राण्य श्रमणीपदम् । तन्मातृभ्यां ततस्तं च महीनाथमबोधयत् ॥ १६ ॥ - अन्वयार्थः ---(श्रमणीमुख्या) उस समय सम्पूर्ण अभिकाओंमें श्रेष्ठ (पद्माख्या) पद्मा नामकी अर्जिकाने ( तन्मातृभ्यां ) उन दोनों माताओंके लिये ( श्रमणी पदम् ) अनिकाका पद
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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