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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । (विश्राण्य) देकर (ततः) फिर (तं च महीनाथं) उन जीवंधर महाराजको ( अबोधयत् ) प्रतिबोधित किया ॥ १६ ॥ प्रव्रज्या जातुचित्पाज्ञैः प्रतिषेढुं न युज्यते । न हि खादापतन्ती चेद्रनवृष्टिर्निवार्यते ॥ १७॥ : अन्वयार्थः-(प्राज्ञैः) बुद्धिमानोंको ( जातचित् ) कभी भी (प्रव्रज्याः) किसीकी दीक्षा लेनेको (प्रतिषे९) रोकना (न युज्यते) उचित नहीं है । अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे ( चेत् ) यदि ( खाद् ) आकाशसे ( रत्नवृष्टिः ) रत्नोंकी वर्षा ( आपतन्ती) होती है तो (न निवार्यते) रोकी नहीं जाती उसी प्रकार ॥१७॥ वयस्यन्तेऽपि वा दीक्षा प्रेक्षावद्भिरपेक्ष्यताम् । भस्मने रनहारोऽयं पंडितैर्न हि दयते ॥ १८॥ अन्वयार्थः- (अपि वा) और (प्रेक्षावद्भिः) बुद्धिमान पुरुष ( अन्ते वयसि ) अवस्थाके अन्तमें ( दीक्षा ) जिन दीक्षा ग्रहण करनेकी ( अपेक्ष्यताम् ) अपेक्षा किया करते हैं। अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे (पण्डितैः ) पण्डित पुरुष ( अयं रत्नहारः ) इस मनुष्य जन्म रूपी रत्नोंके हारको ( भस्मने ) इन्द्रिय विषय रूपी भस्मके लिये ( न दह्यते ) नहीं जला देते हैं ॥ १८॥ इति प्रबोधितो नत्वा प्रसवित्रीं सकाशतः । प्रश्रयेण गतो राजा प्राविक्षनृपमन्दिरम् ॥ १९ ॥ अन्वयार्थः- ( इति ) इसप्रकार ( प्रबोधितः ) समझाये हुए ( राजा ) जीवंधर महाराजने ( नत्वा ) नमस्कार करके (प्रसवित्रीं सकाशतः ) माताके समीपसे (प्रश्रयेण गतः ) विनय
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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