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________________ २३२ एकादशो लम्बः । पूर्वक लौटकर ( नृपमन्दिरम् प्राविक्षत् ) राजमन्दिरमें प्रवेश किया ॥ १९॥ न चिराद्धि पदं दत्तं कृतिनां हृदि विक्रिया। यदि रत्नेऽपि मालिन्यं न हि तत्कृच्छशोधनम्॥२०॥ __अन्वयार्थः---(हे यथा) निश्चयसे जिस प्रकार (विक्रिया) इष्ट वियोगादि जन्य शोकादि भाव ( कतिनां हृदि ) बुद्विमानोंके हृदयमें ( चिरात ) बहुत काल तक ( पदं ) स्थानको (न दत्ते ) प्राप्त नहीं करता है। उसी प्रकार (रत्ने अपि) रत्नमें भी ( यदि मालिन्यं ) यदि मलिनता हो तो (तत्कृच्छ्रशोधनम् न ) उसका साफ होना कुछ कठिन नहीं हैं ॥ २० ॥ अथास्य क्षात्रविद्यस्य क्षणवद्भुञ्जतो महीम् । त्रिदशोपमसौख्येन त्रिंशद्वर्षाण्ययासिषुः ॥ २१ ॥ ___अन्वयार्थः--(अथ) इसके अनंतर ( क्षात्रविद्यस्य ) क्षत्र विद्याको जाननेवाले और (त्रिदशोपमसौख्येन ) देवताओंके समान सुखमे (महीं) पृथ्वीको (भुञ्जतः) भोगते हुए (अस्य) इन जीवंधर महाराजके (त्रिंशत् वर्षाणि) तीस ३० वर्ष ( क्षणवत् ) एक क्षणभरके समान (अयासिपुः) बीत गये ॥ २१ ॥ ततः कदाचिदस्यासीजलक्रीडामहोत्सवः । वसन्ते सह कान्ताभिरष्टाभिरतिकौतुकात् ॥ २२॥ अन्वयार्थः- (ततः) इसके अनंतर (कदाचित्) कभी (वसन्ते) वसन्त ऋतुमें ( अष्टाभिः कान्ताभिः सह ) अपनी आठ स्त्रियोंके साथ (अतिकौतुकात ) बड़े कौतुकसे ( अस्य ) इन जीवंधर
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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