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________________ २३३ क्षत्र चूड़ामणिः । स्वामीको ( जलक्रीडामहोत्सवः ) जलक्रीड़ाका महान उत्सव ( आसीत् ) प्राप्त हुआ ॥ २२ ॥ जलक्रीडाश्रमात्सोऽयमाक्रीडे च सनीडके । क्रीडन्कापटिकैः श्लाध्यं कापेयं निरवर्तयत् ॥२३॥ अन्वयार्थ : - (सः अयं ) फिर उन इन जीवंधर कुमारने -( ( जलक्रीड़ाश्रमात् ) जलक्रीड़ाके परिश्रमसे थककर (सनीडके ) लतामण्डप युक्त (आक्रीडे) किसी उद्यान (बगीचे) में (कापटिकैः क्रीड़न) बन्दरोंके साथ क्रीड़ा करते हुए (लाध्यं कापेयं) प्रशंसनीय बन्दरोंकी चेष्टा ( निरवर्तयत् ) देखी ॥ २३ ॥ अन्यसंपर्कतः क्रुद्धां मर्कटीं कोऽपि मर्कटः । प्रकृतिस्थां बहुपायैर्नाशकत्कर्तुमुद्यतः ॥ २४ ॥ अन्वयार्थः – तत्पश्चात् (कोऽपि ) कोई एक (मर्केट) बंदर (अन्यसंपर्कतः) दुसरी किसी और बंदरीसे सम्भोग करनेके कारण (कुद्धां) क्रोधित (मर्कटीं) अपनी प्यारी बंदरीको (बहूपायै :) बहुत उपायों से ( प्रकृतिस्थां ) पूर्वकी तरह प्रसन्न (कर्तुं ) करने के लिये ( उद्यतः नअशकत् ) समर्थ नहीं हुआ || २४ ॥ ततः शाखामृगोऽप्यासीन्माथिको मृतवद्दशः । तदवस्थां भयग्रस्ता वानरोऽयमपाकरोत् ॥ २५ ॥ अन्वयार्थः -- ( ततः ) फिर ( मायिकः ) छली मायावी ( शाखा मृगः अपि ) वह बंदर भी ( मृतवद्दशः ) मरे हुएके तुल्य दशा वाला ( आसीत् ) होगया । अर्थात् श्वास रोक कर पृथ्वी पर लेट गया । वह देख ( भयग्रस्ता ) भयसे पीड़ित
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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