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________________ सप्तमो लम्बः । प्रार्थना की । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (विद्या) विद्या (आराधनैक संपाद्या) गुरूकी आराधना ( सेवाशुश्रूषा ) से ही प्राप्त होती है (अन्यसाधना न) और दूसरे साधनोंसे नहीं ।। ७४ ॥ अभ्यर्थनबलात्तस्य कुमारोऽप्यभ्युपागमत् । स्वयं दया सती विद्या प्रार्थनायां तु किं पुनः ॥७॥ ___ अन्वयार्थः-(तस्य अभ्यर्थनबलात् ) उस राजाके बार २ प्रार्थना करनेसे (कुमारः अपि) जीवंधर कुमारने भी (अभ्युपागमत्) उन राज कुमारोंको विद्या पढ़ाना स्वीकार किया । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे सती विद्या) समीचन निर्दोष विद्या नब (स्वयं देया) अपने आप ही देने योग्य है । (प्रार्थनायां तु) प्रार्थना करने पर तो (पुन:) फिर (किं वक्तव्यं कहना ही क्या है ॥ ७९ ॥ पवित्रोऽपि सुतान्विद्यां स प्रापयवञ्चितम् । कृतार्थानां हि पारायमहिकार्थपराङ्मुखम् ॥ ७६ ॥ ___अन्वयार्थ:- (सः पवित्रः अपि पवित्र उन जीवंधर कुमारने भी (सुतान् ) उन राजाके कुमारोंको अवञ्चितं विद्यां प्रापयत्) सच्चे हृदयसे विद्या सिखाई । अत्र नीतिः । हि) निश्यसे (कृतार्थानां) कृतकृत्य पुण्यवान् पुरुषोंका (पारायं) परोपकार करना ही (ऐडिकाथ पराङ्मुखम् ) इम लोक संबंधी प्रयोजनसे रहित होता है ॥ ७६ ॥ प्रश्रयण बभूवुस्ते प्रत्यक्षाचार्थरूपकाः । विनयः खलु विद्यानां दोग्ध्री सुरभिरञ्जसा ॥७॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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