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________________ , १५९ क्षत्रचूड़ामणिः । ( विधिः ) कर्म (देहिनः) देहवारी मनुष्योंको (स्वयमेव) अपने आप ही ( इष्टार्थः ) इष्ट पदार्थोसे ( घटयति ) सम्बन्ध करा देता है ॥ ७१ ॥ पार्थिवं च ततः पश्यस्तदश्योऽभूच संमतेः । अनुसारप्रियो न स्यात्को वा लोके सचेतनः ॥७२॥ ___ अन्वयार्थः--(ततः) तदनंतर जीवंधर कुमार (पार्थिव पश्यन् ) रानाको देखकर (संमतेः) उनके आदर सन्मान करनेसे (तद्वश्यः) उनके वशीभूत ( अभूत् ) हो गये । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे ( लोके ) लोकमें ( को वा ) कौन ( सचेतनः ) सचेतन प्राणी (अनुमारप्रियः न स्यात् ) अपने अनुकूल मनुष्यमें प्रेम करनेवाला नहीं होता है ॥ ७२ ॥ महीक्षिता क्षणात्तस्य माहात्म्यमपि वीक्षितम् । वपुर्वक्ति हि सुव्यक्तभनुभावमनक्षरम् ॥ ७३ ।। अन्वयार्थः-(महीक्षिता अपि) राजाने भी ( क्षणात ) क्षण मात्रमें ( तस्य माहात्म्यं ) उसका माहात्म्य अर्थात् बड़प्पन (वीक्षितम् ) देख लिया अत्रनीतिः । (हि, निश्चयसे (वपुः) शरीर (अनुभावं) मनुष्य के प्रभावको (अनक्षरम् ) विना शब्द कहे हुए ही (सुव्यक्त) स्पष्ट (वक्ति) कथन कर देता है ॥ ७३ ।। सुतविद्यार्थमत्यर्थ पार्थिवस्तमयाचत । आराधनैकसंपाया विद्या न ह्यन्यसाधना ॥ ७४ ।। ___ अन्वयार्थः-(पार्थिवः) राजाने (सुतविद्यार्थ) अपने पुत्रोंको विद्या सिखानेके लिये (तं, उनसे (अत्यर्थ) अत्यन्त (अयाचत)
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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