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________________ क्षत्र चूड़ामणिः । १६१ अन्क्या र्थः -- (स) वे राजकुमार ( प्रश्रयेण ) जीवंधर गुरुकी fare करनेसे (प्रत्यक्षाचार्य रूपकाः बभूवुः) घनुष विद्या में साक्षात् नीवंधर स्वामीके समान होगये । अत्र नीतिः । ( खलु ) निश्चय से ( अञ्जसा विनयः ) यथार्थ गुरुका विनय (विद्यानां ) विद्याओंको (दोग्ध्री) देनेवाली (सुरभिः) सच्ची कामधेनु है || ७७ ॥ वीक्ष्य तानसृपो विद्यानां पारदृश्वनः पुत्रमात्रं मुदे चित्रोर्विद्यापात्रं तु किं पुनः ॥ ७८ ॥ अन्वयार्थः - (मूपः ) राजा ( विद्यानां पारश्वनः) विद्यामें पारगामी (तान् ) उन पुत्रोंको (वीक्ष्य) देखकर ( अतृपत्) अत्यन्त प्रसन्न हुए । अत्र नीतिः । ठीक ही है (पित्रोः) माता पिताको (पुत्र मात्र ) पुत्र मात्र ही ( मुदे) हर्ष के लिये होता है फिर यदि वह ( विद्यापात्रं ) विद्याका पात्र हो तो ( किं पुनः वक्तव्यं) फिर कहना ही क्या है ॥ ७८ ॥ अतिमात्रं पवित्रं च धात्रिपः समभावयत् । असंभावयितुर्दोषो विदुषां चेदसंमतिः ॥ ७९ ॥ अन्वयार्थः फिर धात्रिपः ) राजाने (पवित्र) पवित्र जीवंधर स्वामीका (अतिमात्र) अत्यंत (समभावयत् ) सन्मान किया ( चेत् ) यदि ( विदुषां ) विद्वानोंका (असं-तिः न स्यात् ) सन्मान न होवे तो ( असंभावयितुः) इसमें सन्मान नहीं करनेवालेका ही (दोषः ) दोष है ॥ ७९ ॥ 4 महोपकारिणः किं वा कुर्यामित्यप्यतर्कयत् । विद्याप्रदायिनां लोके का वा स्यात्प्रत्युपक्रिया ॥ ८० ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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