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क्षत्र चूड़ामणिः ।
संसृतौ कर्म रागाद्यैस्ततः कायान्तरं ततः । इन्द्रियाणीन्द्रियद्वारा रागाद्याश्चक्रकं पुनः ॥ ४० ॥
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अन्वयार्थः - (संसृतौ) संसार में ( रागाद्यैः ) रागादिक भावोंसे (कर्म) कर्म बंधते हैं । और फिर ( ततः) उसी कर्म से ( कायान्तरं ) नवीन शरीर उत्पन्न होता है। और फिर (ततः) उसी शरीर से (इन्द्रियाणि) इन्द्रियां उत्पन्न होती हैं और (इन्द्रियद्वारा रागाद्याः) इन्द्रियोंके द्वारा ही राग द्वेवादिक होते हैं । और फिर (पुनः) इसी प्रकार (चक्र) संसारचक्रकी उत्पत्ति होती है । ॥ ४० ) सत्यनादौ प्रवन्धेस्मिन्कार्यकारणरूपके । येन दुःखायसे नित्यमद्य वात्मन्विमुञ्च तत् ॥४१॥
अन्वयार्थः -- ( कार्य कारण रूपके) कार्य कारण रूप ( अनादौ ) अनादि ( अस्मिन् प्रबन्धेसति ) इस प्रबन्धके होनेपर ( येन ) जिससे ( त्वं नित्यं दुःखायसे) तु नित्य दुखी होता है इस लिये (हे आत्मन् !) हे आत्मन् ! ( अद्यवा) अभी (तत् विमुञ्च) इसको छोड़दे ॥ ४१ ॥
४ - अथैक्त्वानुप्रेक्षा । त्यक्तोपात्तशरीरादिः स्वकर्मानुगुणं भ्रमन् । त्वमात्मनेक एवासि जनने मरणेऽपि च ॥ ४२ ॥
अन्वयार्थः —– (हे आत्मन् ! ) हे आत्मन् ! (त्यक्तोपात्त शरीरादिः) छोड़कर फिर ग्रहण किया है शरीरादिकको जिसने ऐसा ( त्वं ) तू (स्वकर्मानुगुणं भ्रमन् ) अपने कर्मोंके अनुसार भ्रमण करता हुआ ( जनने) जन्म ( मरणेऽपि च) और मरनेके