SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४० एकादशो लम्बः । समयमें भी ( एक एव अस्ति) अकेला ही है अर्थात् उस समय तेरा दूसरा कोई भी साथी नहीं है ॥ ४२ ॥ बन्धवो हि श्मशानान्ता गृह एवार्जितं धनम् । भस्मने गात्रमेकं त्वां धर्म एव न मुञ्चति ॥ ४३ ॥ अन्वयार्थः--और देख (बन्धवः) बन्धुजन भी (श्मशानान्ताः) केवल श्मशान पर्यंत ही साथ जाते हैं ( अर्जितं धनं ) कमाया हुआ धन ( गृहेएव ) घरमें ही रह जाता है और (गात्रं भस्मने) शरीर भी तैरा भस्मरूप परिणत होजाता है ( एकं ) केवळ ( धर्मः एव ) धर्म ही ( त्वां न मुञ्चति ) तुझको नहीं छोड़ता है अर्थात् धर्म ही एक तेरे साथ जाता है ॥ ४३ ॥ पुत्रमित्रकलत्राद्यमन्यदप्यन्तराल जम् । नानुयायीति नाश्चर्य नन्वङ्गं सहज तथा ॥ ४४ ॥ अन्वयार्थः– ( पुत्र मित्र कलत्रादि ) पुत्र मित्र स्त्री तथा " ( अन्तरालनम् अन्यदपि ) बीचमें मिलने वाले और भी ( न अनुयायी ) यदि तेरे साथ नहीं जाते तो ( इति न आश्चर्य ) इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है ( ननु अङ्गं सहनं तथा ) किन्तु इस पर्यायके प्रारंभसे ही साथ रहनेवाला शरीर भी साथ नहीं जाता है इसमें आश्चर्य है ॥ ४४ ॥ त्वमेव कर्मणां कर्ता भोक्ता च फलसन्ततः । मोक्ता च तात किं मुक्तौ स्वाधीनायांन चेष्टसे ।४५॥ ___ अन्वयार्थः-और ( त्वं एब ) तू ही ( कर्मणां ) कर्मोंका (कर्ता ) कर्त्ता और ( फल संतते ) फलोंका ( भोक्ता ) भोगने
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy