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षष्ठो लम्बः ।
ही है ! मुक्तिद्वारक वाटस्य भेदिना) मोक्ष रूपी द्वारके किंवाड़ोंको भेदन करनेवाले स्तवन से (किं न भिद्यते ) क्या भेदन नहीं हो सकता ॥ ३६ ॥
अर्थात् - मोक्षका देनेवाला स्तवन सब कुछ करने में समर्थ है ॥ ३६ ॥ अन्याशक्यमिदं मान्यो वितन्वन्न विसिष्मिये । लोकमालोकसात्कुर्वन्नहि विस्मयते रविः ॥ ३७ ॥
अन्वयार्थ : - ( मान्यः ) माननीय जीवंधरने (अन्याशक्यमिदं वितन्वन् ) दूसरोंके लिये अशक्य इस कार्यको करते हुए (न विसिष्मिये) कुछ भी आश्चर्य नहीं किया अत्र नीति: ! (हि) निश्वयसे (रविः) सूर्य (लोकं) संसारको (आलोकसात् कुर्वन् ) प्रकाशमय करता हुआ स्वयं कुछ भी ( न विस्मयते) आश्चर्य युक्त नहीं होता है ॥ ३७ ॥
तावना तं समासाद्य प्रणतः कोऽपि पिप्रिये । स्वमनीषितनिष्पत्तौ किं न तुष्यन्ति जन्तवः ॥ ३८ ॥
अन्वयार्थः -- ( तावता ) उसी समय (प्रणतः कः अपि) विनयी कोई पुरुष तं समासाद्य) जीवंधर स्वामीके पास आकर (पिप्रिये ) अत्यन्त प्रसन्न हुआ । अत्र नीति: । (हि) निश्चय से ( स्वमनीषित - निष्पत्तौ अपने इच्छित कार्यकी सफलता हो जाने पर ( जन्तवः) प्राणी ( किं न तुष्यंति) क्या संतोषत नहीं होते हैं (किन्तु संतुप्यंति एव) किन्तु संतुष्ट होते ही हैं ॥ ३८ ॥ स्वामी तु तं ममालोक्य कस्वनार्येति पृष्टवान् । प्रभूणां प्राभवं नाम प्रणतेयेरुरूपता ॥ ३९ ॥