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________________ २०८ दशमो लम्बः । अन्वयार्थः— (कार्यान्धः) अपने कार्यमें अंघ (निसे अपने कामके सिवाय दूसरा कुछ नहीं सूझता) ऐसे (अयं) यह गोविंदराजा (विप्रलम्भोत्सुके) धोखा देने में उत्सुक (शत्रौ) शत्रुके ऊपर (अतप्यत) अत्यन्त तप्तायमान हुआ । अत्र नीतिः ! (हि) निश्च. यसे (दुर्जनाग्रे) दुष्ट पुरुषके अगाड़ी (सौजन्य) सुननता करना (कर्दमें) कीचड़में (पयः पतितम् ) दुध फेंकनेके समान है ॥१५॥ आहूतास्तेन साकूतं गच्छामस्तच्छलाद्वयम् । इत्युच्चै निश्चिकायासौ बकायन्ते हि जिष्णवः ॥१६॥ अन्वयार्थः-(तेन) उस काष्टाङ्गारसे (साकूतं) किसी अभिप्रायसे (आहूतः) बुलाये हुए ( वयं ) हम लो। भी (तच्छलात् ) उसको छलनेके लिये ( गच्छामः ) वहां चलें ( इति) यह (अप्सौ) इस गोविन्दराजाने ( उच्चेः निश्चिकाय ) अच्छी तरहसे निश्चय किया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे निष्णवः) दूसरे शत्रुओंको जीतनेवाले राना लोग (वकायन्ते) वगुले के सदृश आचरण करते हैं । काष्टाङ्गारेण संजातं सख्यं प्रख्यापयन्नसौ । डिण्डिमं ताडयामास गतेर्वार्ता हि पूर्वगा ॥ १७ ॥ अन्वयार्थः- (काष्टाङ्गारेण सह) काष्टाङ्गारके साथ (सख्यं) इमारी मित्रता ( संजातं ) होगई (इति) ऐसा (प्रख्यापयन् ) प्रसिद्ध करते हुए ( असौ) इस राजाने (डिण्डिमं ) ढिंढोरा (ताड़यामास) पिटवा दिया: अत्र नीतिः ! (हि) निश्चयसे (वार्ता) इस समाचारकी सूचना ( गतेः पूर्वगा ) इनके जाने से पहले पहुंच गई ॥१७॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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