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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । २०७ अन्वयार्थः - ( राजघे मदहस्तिनि ) राजा सत्यंधरको एक मदोन्मत्त हाथी के मारने पर ( अधेन ) पापसे ( अहं ) मैंने ही ( अपख्यातिं ) अपयशको ( लब्धवान् ) प्राप्त किया । किन्तु ( तत्ववेदिना ) यथार्थ बातके जाननेवाले ( इयं) यह बात ( मिथ्या ) झूठी (अवबुध्येत ) समझते हैं ॥ १२ ॥ - निःशल्पोऽहं भवाम्येष भवत्यत्र समागते । दुर्जनेऽपि हि सौजन्यं सुजनैर्यदि संगमः ॥ १३ ॥ अन्वयार्थः - (भवति) आपके (अत्र ) यहां (समागते) आनेपर (एषः अहं) अपयशी मैं ( निःशल्यः) निःशल्य ( भवामि ) हूंगा अत्र नीतिः । (हि) निश्चय से (यदि ) अगर (सुजनैः) सज्जन पुरुषोंके साथ (संगम) समागम मिल जाय तो फिर (दुर्जने अपि) दुष्ट पुरुषमें भी ( सौजन्यं) सज्जनता (भवति) हो जाती है ॥१३॥ इत्युक्त्या निश्चितोऽतिरतिसंघित्सुरञ्जसा । असतां हि विनम्रत्वं धनुषामिव भीषणम ॥ १४ ॥ अन्वयार्थः— (इति उक्त्या) इस संदेशे से " ( अरातिः) शत्रु (अनसा) शीघ्र ही (अतिसंघित्सुः) धोखा देना चाहता है" (इति) यह (निश्चितः) निश्चय किया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( असतां विनम्रत्वं) दुर्जनों का नम्र होना ( धनुषां इव) धनुषके सदृश ( भीषणम् ) भयंकर होता है ॥ १४ ॥ विप्रलम्भोत्सुके शत्रौ कार्यान्धोऽयमतप्यत । दुर्जनाग्रे दि सौजन्यं कर्दमे पतितं पयः ॥ १५ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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