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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । १४९ - अन्वयार्थः-( तत्तस्मात् ) इसलिये ( पापभीरुणा) पापसे डरनेवाले पुरुषोंको (बालया) जवान कन्यासे (वृद्धया) वृद्ध स्त्रीसे (मात्रा) मातासे (वा) अथवा ( दुहिता ) पुत्रीसे और (व्रतस्थया) व्रत पालन करनेवाली श्राविकासे ( संलापवासहासादि ) बोलना, साथमें रहना, और हंसी आदिक वरना ( वयं ) छोड़ देना चाहिये ॥ ४२ ॥ इति वैराग्यतर्केण ततो यातुं प्रचक्रमे । भेतव्यं खलु भेतव्यं प्राज्ञैरज्ञोचितात्परम् ॥ ४३ ।। अन्वयार्थ-(इति वैराग्यतर्केण) इस प्रकार वैराग्योत्पादक विचारसे जीवंधर स्वामी ( ततः ) वहांसे ( यातुं ) जानेके लिये (प्रचक्रमे ) तैयार हुए । अत्र नीतिः ! (खलु) निश्चयसे (प्राज्ञैः) बुद्धिमान पुरुषोंको ( अज्ञोचितात् ) मूर्ख पुरुषोंके करने योग्य कार्योसे (परम्) अत्यन्त (भेतव्यं भेतव्यं) डरना चाहिये ॥४३॥ विरक्तमेव रक्ता सा निश्चिकाय विपश्चितम् । ... निसर्गादिन्तिज्ञाममङ्गनासु हि जायते ॥ ४४ ।। अन्वयार्थः-(रक्ता सा) आसक्त उस स्त्रीने ( विपश्चितम् ) पंडित जीवंधरकुमारको अपने में ( विरक्तं एव ) अत्यन्त विरक्त ( निश्चिकाय ) निश्चय किया । अत्र नीतिः (हि ! निश्चयसे ( अङ्गनासु ) स्त्रियोंमें ( इङ्गित ज्ञानं ) शरीरकी चेष्टासे मनके भावोंको जान लेनेका ज्ञान (निसर्गात् एव जायते ) स्वभावसे ही उत्पन्न होता है ॥ ४४ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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