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सप्तमो लम्बः ।
तस्य स्वान्तं वशीकर्तुं स्वोदन्तमिघमूचिषी । प्रतारणविधौ स्त्रीणां बहुद्वारा हि दुर्मतिः ॥ ४५ ॥
अन्वयार्थः - ( इयं ) इस स्त्रीने ( तस्य ) उसके ( स्वान्तं ) हृदयको ( वशी कर्तुं ) वश में करनेके लिये ( स्वोदन्तं ) अपना घृत्तान्त ( उचिषी) कहा । अत्र नीति: । (हि) निश्चय से ( स्त्रीणां ) स्त्रियों की दुर्मतिः) खोटी बुद्धि दूसरों को (प्रतारण विधौ ) ठगने में ( बहुद्वारा भवति ) अनेक द्वार वाली होती है ॥ ४१ ॥ विद्धि दीनां महाभाग मां विद्याधरकन्यकाम् । स्यालेनाव बलान्नीतां त्यक्तामात्मप्रियाभयात् ॥ ४६ ॥
अन्वयार्थ : – ( महाभाग ! ) हे महाभाग ! (स्यालेन ) मेरे * भाई के साले से (बलात्) जबर्दस्ती से (नीतां) लाई हुई ( आत्मप्रिया भयात्) अपनी स्त्रीके भय से ( अ ) यहां इस वन में ( त्यक्तां ) छोड़ी हुई ( मां) मुझ (दीनां ) गरीबनीको ( विद्याधर कन्यकां) विद्याधरकी कन्या (त्वं) तुम (विद्धि) समझो ॥ ४६ ॥
अनङ्गतिलकां नाम्ना पुंसां तिलक रक्ष माम् । अशरण्यशरण्यत्वं वरेण्ये वर्ततामिति ॥ ४७ ॥
अन्वयार्थः -- ( पुंसां तिलक) हे पुरुषों के भूषण स्वरूप (नाम्ना अनङ्ग तिलकां माम् ) अनङ्गतिलका नामकी मुझको (रक्ष) रक्षा करो । ( अशरण्य शरण्यत्वं) का कोई शरण नहीं है उनका शरण पना ( वरेण्ये) पुरुषों में श्रेष्ठ आपमें ( वर्ततां ) होवे ? | (इति) ऐसा उस स्त्रीने कहा ॥ ४७ ॥