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क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः- ( परित्यागकृतः ) परवस्तुके त्याग करनेवाले (सानगाराः) अनगार (मुनि) सहित (अगारिण:) गृहस्थी श्रावक ( ज्ञेयाः ) जानने चाहिये । अर्थात् त्यागी दो प्रकारके होते हैं १ यति २ श्रावक । (पूर्व) पूर्वके त्यागी मुनि (सर्वतावद्यवर्जितः) सम्पूर्ण पापोंसे रहित (गात्रमात्रधनाः सन्ति) शरीर मात्र परिग्रह रखनेवाले होते हैं अर्थात् शरीरको छोड़कर दूसरा कोई उनके परिग्रह नहीं होता ॥ १९ ॥ मूलोत्तरादिकान्वोदु त्वं न शक्तो हि तद्गुणान् । न हि वारणपर्याणं भर्तु शक्तो वनायुजः ॥ २० ॥
अन्वयार्थः-(हि) निश्चयसे (त्वं) तू (मूलोत्तरादि कान तद्गुणान् ) मूल गुण और उत्तर गुण रूप उनके व्रतोंको (वोढुं) धारण करनेके लिये (न शक्तः) समर्थ नहीं है । अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (वनायुनः) पारसी देशका सवारीका श्वेत घोड़ा (वारण पर्याणं) हाथीके पला-को (भर्तु) धारण करने के लिये न शक्तः) समर्थ नहीं है ॥ २० ॥ अतस्त्वमधुना धर्म गृहाण गृहभेधिनाम् । न ह्यारोदुमधिश्रेणिं योगपद्येन पार्यते ॥२१॥ __अन्वयार्थः-(अतः) इस लिये (अधुना) इस समय (त्वं) तू (गृहमेधिनाम् ) गृहस्थोंके (धर्म) धर्मको (गृहाण) स्वीकार कर। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (योगपद्येन) एक ही साथ (अधिश्रेणिं) ऊंची नसैनीको (आरोढुं आरोहण करनेके लिये (न पार्यते) कोई भी समर्थ नहीं है ॥ २१ ॥