________________
सप्तमो लम्बः ।
अन्वयार्थः——(एवं भिन्नस्वभाव : ) इस प्रकार भिन्न स्वभावको धारण करने वाला (अयं देही) यह आत्मा ( अज्ञानात् ) अज्ञानता से ( देहकम् ) शरीरको (स्वत्वेन बुध्यते ) निजत्व बुद्धिसे जानता है । ( अतः ) इस लिये (पुनः) फिर ( देहेन ) देहसे (बध्यते) बंधता है ॥ १६ ॥
१४०
अज्ञानात्कायहेतुः स्यात्कर्माज्ञानमिहात्मनाम् । प्रती स्यात्प्रबन्धोऽयमनादिः सैव संसृतिः ॥१७॥
अन्वयार्थः - ( इह ) इस संसार में ( आत्मनाम् ) आत्माओंके ( अज्ञानात् ) अज्ञानसे (कायहेतुः ) शरीरका कारण भूत (कर्म; स्यात्) कर्म बंधता है ( प्रतीके) और फिर शरीर के होनेपर (अज्ञानं स्यात् ) अज्ञान होता है । (अयं प्रबंध) यह अज्ञान और शरीरकी परम्परा (अनादिः ) अनादि कालसे है । ( सा एव संसृतिः) और इसीको संसार कहते हैं ॥ १७ ॥
स्वं स्वत्वेन ततः पश्यन्परत्वेन च तत्परम् । परत्यागे मतिं कुर्याः कार्यैरन्यैः किमस्थिरैः ॥ १८ ॥
अन्वयार्थ : - ( ततः ) इसलिये ( स्वं स्वत्वेन पश्यन् ) आत्माआत्मपनेसे और (तत्परं) आत्मा से भिन्न शरीरको (परत्वेन पश्यन् ) भित्र पसे देखता हुआ (पर त्यागे) परवस्तु के त्यागमें ( मतिं कुर्या:) बुद्धिको कर (च) और (अन्यैः अस्थिरैः कार्यैः किं) दूसरे नष्ट होनेवाले कार्यों से क्या लाभ ! ॥ १८ ॥
परत्यागकृतो ज्ञेयाः सानगारा अगारिणः । गात्रमात्रधनाः पूर्वे सर्वसावद्यवर्जिताः ॥ १९ ॥