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________________ क्षत्रचूड़ामणिः । अन्वयार्थः-(आत्मोत्थं स्वास्थ्यं) अपनी आत्मामें उत्पन्न हुआ सुख (आत्मना साध्यं) आत्माके द्वारा साध्य, (अव्यावाघ) बाधा रहित, (अनुत्तरं) सर्वोत्कृष्ट, (अनन्तं) अनन्त, (आनन्दं) आनन्द मय, (अतृष्णम् ) तृष्णा रहित और ( अपवर्गजम् ) मोक्ष स्वरूप है ॥ १३ ॥ तदपि स्वपरज्ञाने याथात्म्यरुचिमात्रके। परित्यागे च पूर्णे स्थात्परमं पदमात्मनः ॥ १४ ॥ .. ___अन्वयार्थः—(तदपि) और यह (आत्मनः परमं पदं) आत्माका परम सुख ( याथात्म्यरुचिमात्रके ) यथार्थ रुचिरूप सम्यग्दर्शन, (स्वपरज्ञाने) स्व और परका भेद विज्ञान रूप सम्यग्ज्ञान, (च) और (पूर्णपरित्यागे) परिपूर्ण सम्यक्चारित्रके होने पर ही (स्यात) होता है ॥ १४ ॥ स्वमपि ज्ञानदृक्सौख्यसामादिगुणात्मकम् । परं पुत्रकलत्रादि विद्धि गात्रमलं परैः ॥ १५ ॥ अन्वयार्थः- (त्वं, और तू (स्वं) आत्माको (ज्ञानटक्सौख्यसामर्थ्यादि गुणात्मकम् ) अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्यादिगुणात्मक (विद्धि) जान । और (पुत्रकलत्रादि परं विद्धि) पुत्र स्त्री आदिकको पर जान । (परैः अलं) और तो क्या (गात्रमपि परं विद्धि) अपने शरीरको भी पर जान एवं भिन्नस्वभावोऽयं देही स्वत्वेन देहकम् । बुध्यते पुनरज्ञानादतो देहेन बध्यते ॥ १६ ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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